दरअसल दादा की स्मृतियां मेरे जहन में दो रूपों में मौजूद रही हैं। एक थोड़ा ढीला-ढाला चेहरा, समय जिस पर अपनी स्याही पोतते हुए, जिसे बुढापे की ओर धकेल रहा है-राम प्रसाद 'अनुज' और दूसरा, जमाने की चिड़चिड़ाहट जिसके चेहरे पर अपना अक्श छोड़ती गयी, अपनी पैनी आंखों को गोल-गोल घुमाते हुए दूसरे के सीने में छेदकर घुसने वाला- अशोक चक्रवर्ती।
मैंने जब नाटक करना शुरू किया दादा गली-गली, चौराहों-चौराहों और नु्क्कड़ों पर ''नाटक देखो, नाटक देखो, नाटक देखो भाई'' गाता फिरता था। मंचों पर होने वाले नाटक जिसके उत्साह को निचोड़ने लगे थे और 'वातायन’ नाट्य संस्था, जो देहरादून के नाट्य आंदोलन में एक चमकता किला था, दादा उसकी स्थापना से ही साथ था। पर उस चमकते किले की दीवारें दादा के भीतर घुटन पैदा करने लगी थी। नाटक को जनता तक ले जाने का जोश बन्द थियेटर से गली, सड़क और चौराहों पर भागती दौड़ती जिन्दगी के बीच नाटक करने के लिए उसे बेचैन करने लगा। मैं उस वक्त युगान्तर नाट्य संस्था में नाटक करने लगा था। यह बात 1984-85 के आस-पास की है। युगान्तर मेरा घर है इसे मैंने हमेशा महसूस किया। इसीलिए युगान्तर की कोई भी प्रस्तुति मुझे घर में होने वाले, किसी भी पारम्परिक कार्य में, असहमति के बावजूद, उपस्थित होने को मजबूर करती रही। दादा का व्यक्तित्व किस्से कहानियों के रूप में ही 'नेहरू युवक केन्द्र" की दीवारों और 'फाईव-स्टार’ के फट्टों से सुना था। दादा के साथ नाटक करने की इच्छा मुझे भी 'दृष्टि' तक खींच ले गई। पर दादा उस वक्त दृष्टि छोड़ चुका था। लेकिन दादा रब तक दृष्टि छोड चुका था । दादा के दृष्टि छोड़ने के पीछे क्या कारण रहे, ठीक से नहीं कह सकता। दृष्टि में नाटक करते हुए ही मैं मंचीय नाटक और नुक्कड़ नाटक के भेद को समझ पाया।
मंचीय नाटकों में जहां दर्शकों को जुगाड़ने में ही सारी ऊर्जा खत्म हो जाती है, वहीं नुक्कड नाट्कों में दर्शकों के पास जाकर ही नाटक करने का अनुभव दृष्टि में ही हासिल हुआ। सच कहूं तो जीवन-दृष्टि, चाहे वो जैसी भी बनी, दृष्टि में ही काम करते हुए पाई। इराक-अमेरिकी युद्ध और दुनिया के तत्कालीन बदलते चेहरे की तस्वीर को दृष्टि ने अपने एक नाटक में प्रस्तुत किया था। वह दौर नई आर्थिक और औद्योगिक नीतियों का आरम्भिक दौर था।
दुनिया के पैमाने पर पेरोस्त्रोइका और ग्लास्तनोत के बाद, बेशक छद्म ही सही, समाजवादी रूस का विखण्डन हो चुका था। बदलती हुई सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक दुनिया का चेहरा और दुनिया पर धौंस पट्टी का चालू होने वाला समाज, जैसे विषय को, दृष्टि ने कलात्मक ढंग से नाटक में दिखाया गया था। कला और विचार का ऐसा संयोजन मैंने कभी किसी भी अन्य नाटक में न देखा था। न ही मंचीय नाटकों में और न ही नुक्कड़ नाटकों में। मेरे ही नहीं बल्कि उस नाटक के सैंकड़ों दर्शको के जहन में आज भी उसकी तस्वीर ताजा होगी ही।
अफसोस, दृष्टि अपनी इस आदत से कि नाटकों की स्क्रिप्ट को संभाले कौन? हमेशा ग्रसित रहा और एक महत्वपूर्ण नाटक को सिर्फ स्मृतियों में ही छोड़ गया। दादा उस वक्त दृष्टि में नहीं था। अरूण विक्रम राणा ही सबसे वरिष्ठ साथी थे। दृष्टि का जनपक्षीय स्वरूप और सामाजिक प्रतिबद्धताओं के नाटकों का असर मुझ पर होने लगा था और उसी के चलते दादा के कहने पर भी मैं 'स्पंदन' में उनके साथ नाटक नहीं कर पाया। उस वक्त दृष्टि के जनपक्षीय नाटकों का असर मुझे भी मंचीय नाटकों से दूर कर रहा था। दादा चाहते थे मैं उनके साथ काम करूं पर वे मंचीय नाटक में व्यस्त थे। उस वक्त दादा के साथ काम न करने के बावजूद उनके साथ काम करने की इच्छा फिर भी बनी रही। 'वातायन' के नाटक 'हत्यारे', जिसका निर्देशन दादा कर रहे थे, में काम करने की इच्छा चमकदार किले की दीवारों को छूने में सहायक हुई। यह अलग वाकया है कि दादा जिस पात्र की भूमिका मुझ से करवाना चाहते रहे उसे करने के लिए किलेदारों के कानून अर्हताओं की मांग करते थे। बेशक उसका पालन उसी भूमिका को करने वाले दूसरे उस साथी जिसे ढूंढ कर लाया गया, पर लागू नहीं हुआ। फिर भी दादा के साथ उस नाटक में काम करने का अवसर नहीं गंवाया हांलाकि उसमें काम करने को कुछ ज्यादा नहीं रह गया था। पर दादा की खौफनाक आंखें कुछ ही देर पहले उन्हीं के द्वारा बताए गए किस्से के कारण उदासी के रंग में डूबने लगी थीं। दादा के साथ काम करने का आकर्षण और बढ़ता गया।
राज्य आंदोलन के दौर में जब पुलिस ज्यादितयों की आक्रमकता चालू थी, सांस्कृतिक मोर्चे का गठन दून रंग कर्मियों की सार्थक कार्रवाई थी। मोर्चे के नेतृत्व के सवाल को दादा का व्यक्तित्व ही हल कर सकता था। शारीरिक अस्वस्थता के बावजूद दादा ने मोर्चे का नेतृत्व संभाला। एक समय तक अपने दृष्टि के दो एक साथियों के साथ ही गली, चौराहों और नुक्कड़ों पर नाटक करने वाला दादा देहरादून के अधिकांश रंग कर्मियों को सड़कों पर ले जा सकने में कामयाब रहा। प्रभात फेरी में जनगीत और नाटक के लिए दर्शकों को इक्ट्ठा करते रंगकर्मी, दादा के साथ -साथ "नाटक देखो, नाटक देखो, नाटक देखो भाई" गाने लगे। यह पहला अवसर था जब देहरादून के अधिकांशत: रंगकर्मियों ने जनता से अपने को सीधे जोड़ा। लेकिन आंदोलन की जो चेतना उस वक्त राज्य-आंदोलन को निर्धारित कर रही थी, मोर्चा उसमें पूरी तरह से हस्तक्षेप नहीं कर पाया बल्कि अंततः उसी का शिकार होने लगा। शारीरिक अस्वस्थता ने भले ही दादा के शरीर को कमजोर किया था पर विचार के स्वर पर उसे डिगा नहीं पाया था और दादा ही नहीं अधिकांश लोग मोर्चे से उदासीन होते चले गए। कुछ चुप बैठ गए और कुछ दूसरी तरहों से आंदोलन में सक्रियता बनाए रखते रहे। आंदोलन के उस दौर में पूरे सांस्कृतिक-साहित्यिक माहौल से मेरा भी मोह भंग होने लगा था। एक लम्बे समय तक किसी भी तरह की कोई गतिविधि मुझे आकर्षित न कर पायी। टिप-टॉप जो कभी बैठकों का अड्डा होता था, उससे दूर रहने लगे। कभी-कभार पहुंचना हो जाता तो सिगरेट सूतता दादा मिल जाता। वरना दादा से मिलना होली वाले दिन ही संभव होता। होली के दिन, जो मेरे आत्मीय मित्र थे उनसे मिलना नहीं छोड़ा आज भी। दादा भी मेरे उन आत्मीयों में से था- होली के दिन जिसकी दाढ़ी पर गुलाल मल कर मैं अपने होने को उनके साथ दर्ज कर पाता था।
यूं घटनाओं के तौर पर ऐसा मेरे पास कुछ नहीं है जो दादा की स्मृतियों को रख सकूं। ऐसे ही एक होली का किस्सा है दूसरे मित्रों की तरह दादा भी तहमत बांधकर रंग से पुता होने के बावजूद भी मेरा इंतजार कर रहा था। कथाकार जितेन ठाकुर के घर से निकलता हुआ मैं दादा के पास पहुंचा। रंग खेलकर गले मिलना तो एक औपचारिकता होती, असली मकसद तो मिलना ही रहता। सो औपचारिकता निभाने के बाद गपियाते हुए दादा ने बताया था कि वे 'नान्दनिक' से नाटक कर रहे हैं, "तुम्हें भी उसमें काम करना है।" बिना किसी भूमिका के मुझे आदेश मिला था।
दादा के साथ काम करना वर्षों की साध थी, बस मैंने हामी भर दी। यह भी नहीं पूछा कौन सा नाटक है, किसका लिखा है। वह बंग्ला नाटक का हिन्दी अनुवाद था- नोइशे भोज ( अंधा भोज) इस तरह वर्षों से दबी इच्छा ने मुझे साहित्य और साहित्यकारों से मोहभंग की उस स्थिति से ही बाहर नहीं निकाला, जिसका जिक्र कभी वक्त पड़ने पर करूंगा, बल्कि मैंने दादा के अन्तिम नाटक 'अन्धा भोज' में काम भी किया। उस समय तक दादा गले के कैंसर के ऑपरेशन के बाद दादा शारीरिक रूप से बेहद कमजोर हो चुका था लेकिन रिहर्सल के दौरान भीतर कुलबुलाती सिगरेट की लत फिर भी उसको बेचैन करने लगती थी। जैसे ही दादा सिगरेट सुलगाता भाई प्रदीप घिल्डियाल और हरीश भट्ट की भंगिमाएं तन जाती। कमजोर होते जा रहे दादा की सेहत के लिए सिगरेट पीना ठीक नहीं था। लेकिन जब लत बेचैनी की हदों को पार करने लगती तो इस बात पर छूट मिलती कि एक सिगरेट प्रदीप भाई भी पिएगा। कभी कभार ही सिगरेट पीने वाले प्रदीप घिल्डियाल इस तरह से डिब्बे में रखी सिगरेट की संख्या को जल्द से जल्द कम कर रहे होते। अंधा भोज के तीन प्रदर्शन हुए उसके बाद दादा शारीरिक रूप से इतना कमजोर हो गया कि फिर कोई नाटक करना उसके लिए संभव ही नहीं रहा।
देहरादून रंगमंच में दादा के बाद छा गए उस शून्य को भरने की कोई सार्थक कोशिश फिर न सफल न हो पाई। विश्व रंगमंच दिवस के अवसरों पर सरकारी अनुदानों से आयेजित होने वाले समारोह भी उसे आज तक न भर पाए। दादा मुझे आज क्यों यादा आया, समझ नहीं पा रहा हूं। यूंही ब्लाग-पोस्ट लिखने को तो मैं हरगिज उन्हें याद नहीं कर रहा हूं। दून रंगमंच में फैलता शून्य टूटे और गति आए, कुछ ऐसा ही भाव मन में है। हां, सत्ताधारियों की बदलती हुई टोपियां उस गति का कारक न हो, बस। वरिष्ठ साथियों के सकारात्मक हस्तक्षेप उसे निर्घारित कर पाएं तो निश्चित ही ऐसा माहौल बनेगा जिसमें हेकड़ीबाजों की हेकड़ी के प्रदर्शन के बजाय जन-पक्षधर संस्कृति का विकास संभव होगा, ऐसी उम्मीद करता हूं।
--विजय गौड
जैसा कि पहले भी जिक्र किया जा चुका है कि इस ब्लाग को एक पत्रिका की तरह निकालना चाहते हैं। एक ऐसी पत्रिका जिसमें साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श जैसा कुछ हो और जो एक सार्थक हस्तक्षेप करने में सहायक हो। देहरादून के साहित्यिक, सांस्कृतिक माहौल को भी इसके माध्यम से पकड़ने और दर्ज करने की कोशिश भी जारी है। पिछले दिनों नवीन नैथानी के एक आलेख पर देहरादून के एक ऐसे साथी की टिप्पणी प्राप्त हुई जोसामाजीक आंदोलनों में लगातार सक्रिय रहे हैं। सुनील कैंथोला । सुनील भाई ने अपनी टिप्पणी के मार्फत देहरादून के कुछ चरित्रों को याद किया था। एक ऐसे ही चरित्र, नाटककार अशोक चक्रवर्ती को यहां याद किया गया है। सुनील कैंथोला की टिप्पणी बाक्स में दर्ज है।
अभी कुछ दिन पहले नवीन से मुलाकात हुई तो उसने अवधेश और हरजीत का जिक्र किया, मेरे पास अवधेश की हस्तलिखित गीत की कॉपी और स्कैच हैं, आरिजनल गजेन्द्र वर्मा के पास हैं। ये गीत उत्तराखण्ड आंदोलन में बहुत लोकप्रिय था और सुरेन्द्र भण्डारी के नाटक में इस्तेमाल हुआ था। कहो तो यहां इस ब्लोग में पोस्ट कर दूं ! मैंने कुछ और लोगों के बारे में भी लिखने का जिक्र किया था, जैसे 'दादा" दीपक भट्टाचार्य। "डिलाइट" के पार हिमालयन आर्म्स के सामने एक पुराना रोड़ रोलर खड़ा है, इसे देहरादून नगरपालिका ने सहारनपुर के कबाड़ियों को 60 हजार में बेच दिया था, दादा नगरपालिका में था। उसको जब पता चला तो हम लोगों को "टिपटाप" से धमकाते हुए एक डेलीगेशन के रूप में नगरपालिका ले गया, नीलामी रुकवाने के लिए, कहता था कि ये वर्ल्ड-वॉर-1 के पीरियड की टैक्नोलॉजी है, कल देहरादून के बच्चों को डेमोस्ट्रेशन करने के काम आएगा! आंदोलन के समय जहां भी दिखता, बोलता- "हां बे ! खण्ड खण्ड उत्तराखण्ड!!" फिर सलाह देता और चाय पेलता ! वो पहला आदमी था जो अपना ब्रीफकेश साइकिल के कैरियर पर बांध कर चलता था, एक बार पूछा कि इसमें रखते क्या हो तो बोला कि स्वरोजगार लोन की अप्लीकेशन हैं जो मैं प्रोसेस करता हूं। कमाल का आदमी था ! घूस खा भी लेता तो कौन सी बड़ी बात हो जाती, पर वो पक्का ईमानदार किस्म का इंसान था। वो शायद होमगार्ड में भी काम कर चुका था। हर चौराहे पर होमगार्ड वालों को धमकाना नहीं भूलता था। अफसोस कि जिस संगठन के लिए उसने दशकों काम किया वो उसके सामने बिखर गया, मेरा आशय ’वातायन’ से है! और भी बहुत से लोग हैं कि जिनके बारे में लिखा जाना चाहिए। जैसे दूसरे दादा, शायद वो पहले हो, याने अशोक चक्रवर्ती ! एक सज्जन और थे, गुणा नन्द 'पथिक", फिर अपना टिपटाप को फोटोग्राफर अरविन्द शर्मा जो फोटोग्राफी छोड़ अवधेश-हरजीत के मोहपाश में फंस गया था, नवीन की तरह ! एक बार हरजीत ने अरविन्द को मसूरी में कवि सम्मेलन का न्योता दिलवा दिया, इन्वीटेशन (invitation) मिलने के बाद अरविन्द ने फोटोग्राफी कुछ दिन के लिए पॉज मोड (pause mode) में डाल दी, कुछ उधार भी उठा लिया कि मसूरी की पेमेंट के बाद चुका देंगे। वहां, मसूरी में कवि सम्मेलन देर से शुरू हुआ, तब तक अरविन्द भाई काफी लगा चुके थे ओर इंतजार करते-करते रिसेप्शन (reception) में ही सो गए, उधर कवि सम्मेलन शुरू होकर खत्म भी हो गया, पर अरविन्द हैं कि बाहर गढ़वाल मण्डल के रिसेप्शन (reception) के सोफे पर खर्रांटे मार रहे हैं। फिर पेमेंट का टाइम आया तो हरजीत को ध्यान आया कि अरे हमारे साथ तो कविवर अरविन्द भी आए हैं, ढूंढ कर बुलाया, पर पेमेंट देने वालों का कहना था कि जब कवि ने कविता पढ़ी नहीं तो पेमेंट कैसा ? खैर वहीं खड़े-खड़े पेमेंट के वाऊचर पर साइन करते हुए अरविन्द ने कविता सुना डाली। उसने एक उपन्यास भी लिखने की कोशिश की थी जिसे हम फेंटा कह कर बुलाते थे, यानी एक छोटे खुले पन्नों वाला उपन्यास जिसको पढ़ना शुरू करो, अगर फिर भी मजा ना आए तो एक बार फिर--- - सुनील कैंथोला |