झूठे अहंकार से मुक्ति का व्यवहार भी आधुनिकता
का एक पर्याय है। अपने काम को विशिष्ट मानने के गुमान से भी वह झूठा अहंकार चुपके
से व्यवहार का हिस्सा हो सकता है।
रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' एवं भुवनेश्वर की कहानियों में ऐसे झूठे गुमान
निशाने पर दिखाई देते हैं। यहां तक कि लेखक होने का भी कोई गुमान न पालती उनकी
रचनाएं अक्सर किसी महत्वपूर्ण बात को कहने के बोझ को भी वहन नहीं करती। बहुत ही
साधारण तरह से घटना का बयान हो जाती हैं बस। बल्कि, यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि
समाज के भीतर घट रहे घटनाक्रमों के साथ सफर करती चलती हैं। पहाड़ी जी की कहानी ‘सफर’ और
भुवनेश्वर की कहानी 'लड़ाई' लगभग एक ही धरातल पर और एक ही मानसिक स्तर पर पहुंचे
रचनाकारों के मानस का पता देती हैं। इन दोनों ही कहानियों को पढ़ना अनंत यात्रा पर
बढ़ना है। वे जिस जगह पर समाप्त होती हैं, वहां भी रुकने नहीं देती। ऐसे में कहानियों
के अंत से भी असंतुष्ट हो जाने की स्थिति पैदा होत तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि
कहानी की ‘शास्त्रीय’ व्याख्या
करने वाली आलोचना के लिए तो कथा और घटनाक्रम भी मानक हैं। आलोचना का ऐसा शास्त्र
कैसे मान ले कि अधूरा आख्यान भी कहानी कहलाने योग्य है। लेकिन इंक्लाबी सफर तो
कई अक्सर अधूरी यात्रा के ही घटनाक्रमों में नजर आते है। राजनैतिक नजरिये से उन्हें
पड़ाव मान लिया जाना चाहिए। फिर यही भी तो
सच है कि वस्तुजगत भी तो कई बार पड़ाव डाले होता है।
विजय गौड़