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Monday, September 11, 2023

उपेक्षित भेंट

उपभोक्तावादी मानसिकता ने जीवन की आधारभूत जरूरतों को ही ठिकाने नहीं लगाया, अपितु ज्ञान विज्ञान के प्रति भी सामाजिक उपेक्षा के भाव को स्थापित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है. पुस्तकों से दूरी बनाते भारतीय समाज की प्रवृति उसका एक उदाहरण है. यहां तक कि उपभोक्तावादी मूल्यबोध से प्रभावित भारतीय मानस दुनिया के किसी भी कौने मेंं निवास करते हुए भी उसकी गिरफ्त से बाहर नहींं है. 
अपने पारिवारिक सदस्यों के बीच आस्ट्रेलिया प्रवास मेंं रहते हुए, कथाकार मित्र दिनेश चंद्र जोशी ने एक ऐसी ही स्थिति को हमारे साथ शेयर करना जरूरी समझा है. तो पढ़ते हैं दिनेश चंद्र जोशी का ताजा संस्मरण -   उपेक्षित भेंट   
               

    दिनेश चंद्र जोशी





बच्चों के जन्मदिन के बहाने,कभी कभी ऐसा भी होता है,कि हमें विश्व के क्लासिक बाल कथा साहित्य से साक्षात्कार का मौका मिल जाता है। ऐसा ही अनुभव प्रवास के दौरान हुआ,जब घर में बच्चे का जन्मदिन मनाने के बाद प्राप्त हुए उपहारों में एक बड़े से मोटे और भारी  आयताकार उपहार का रंगीन आवरण हटाने के बाद प्राप्त पुस्तक को देख कर हुआ। 
हार्डबाउन्ड,ग्यारह गुणा नौ इंच आकार की इस किताब का नाम है,'द कम्पलीट एडवैंचर आफ स्नगलपाट एंड कडलपाई'।
इस किताब की लेखिका व चित्रकार का नाम है 'मे गिब्स'।
अन्य खिलोनेनुमा आकर्षक उपहारों के बीच इस किताब की स्थिति उपेक्षित सी हो गई थी,तथा इसकी प्राप्ति पर घर में कोई हर्ष,उल्लास, उत्तेजना या चर्चा भी नहीं हुई, हां, इतना जरूर पता चला कि जन्मदिन के दौरान भिन्न भिन्न संस्कृति के बच्चों व उपस्थित अभिभावकों में से एक,चायनीज बच्चे के मां,पिता द्वारा यह पुस्तक भेंट की गयी है।


यह पुस्तक,बच्चों को तो छोड़ दें,बड़ों के लिए भी कोई उत्साह व जिज्ञासा का सबब न बन कर अल्मारी में अन्य पुस्तकों के साथ अटा सटा दी गयी थी।
तीसरे चौथे दिन बाद मेरी नज़र उस किताब पर पड़ी और जिज्ञासावश गौर से उसके पृष्ठ पलटे तो भान हुआ,यह तो विश्व स्तरीय बाल साहित्य की प्रसिद्ध कृति है। 
किताब की लेखिका 'मे गिब्स' का परिचय पढ़ा तो और गहरी जानकारियां पता चली। 
लगभग एक शताब्दी पूर्व उन्नीस सौ अठारह में इस पुस्तक का पहला प्रकाशन आस्ट्रेलिया में हुआ था।
'मे गिब्स' का जन्म 1877 में इंग्लेंड में चित्रकार माता पिता के घर में हुआ। कुछ समय पश्चात ही यह परिवार आस्ट्रेलिया में बस गया। अपने पोनी (खच्चर) पर सवार हो कर खेत खलिहानों, झाड़ियों की सैर करती आठ दस वर्ष की उम्र की बच्ची 'मे गिब्स' ने उन भू दृश्यों व झाड़ियों के चित्र बनाने और उनके बारे में लिखना प्रारम्भ कर दिया था।
उनके बाद के चित्रों व लेखन में बचपन की इन प्राकृतिक सैरों की स्मृति व कल्पनाशीलता से रचे पगे अनुभवों के आधार पर नाना प्रकार के जीव जन्तुओं के अवतारवादी रुपांकन की तकनीक का विस्तार पाया जाता है‌। इस तरह के उनके रचनात्मक काम को 'एन्थ्रोमार्फिक बुश सैटिंग' के विशेषण व विधा के तौर पर ख्याति प्राप्त हुई। 

चित्रों के रेखांकन की विशेषता के साथ इस किताब के पाठ व चरित्रों का संसार इतना अद्भुत व अनोखा है कि काफी दिनों तक उनकी छवि मनोमस्तिष्क में घुमड़ती रहती है। किताब में दो छोटे गमनट भाईयों और उनके दोस्तों की ऐसी चित्ताकर्षक कथा है जिसने कई पीढ़ियों तक बच्चों के दिल,दिमाग व कल्पना पर राज किया है। इसके चरित्र अन्यथा उपेक्षित से,पेड़ पौधों खासकर युक्लिपटस पेड़ के नट,फल,फूल,डंठल, कलियां,फलियां हैं जिनको नवजात व बच्चों के प्रतीकों में दर्शाती व मानवीय रूप व्यवहार में तब्दील करती हुई चित्रकथायें हैं।
कीड़े,मकोड़े,चींटियां,मकड़ी,टिड्डी, मिस्टर लिज़ार्ड,छिपकली, मेंढक,मिसेज फिनटेल (चिड़ियां),पौसम (बिज्जूनुमा आस्ट्रेलियाई जीव) बंदर,मिस्टर बियर,कुकूबरा जैसे असंख्य अन्य सहायक पात्र हैं। बंकाशिया,जो भूरे काले रंग के कोननुमा बहुमुखी विभत्स मानव हैं, इन निर्दोष जीवों को नुक़सान पहुंचाने वाले खलनायक पात्रों के रूप में वर्णित व चित्रित हैं। इस पुस्तक के अध्यायों को पढ़ने पर कथारस के साथ साथ  कीट पतिंगों की दुनिया व वनस्पतियों के संसार के प्रति प्रेम व सहानुभूति का ऐसा रिश्ता कायम होता है जो विकास के नाम पर जैवविविधता के नष्ट होने के सूक्ष्म षडयंत्रों का प्रतिकार करने की भावना व चेतना प्रदान करता है।  
अपने पहले प्रकाशन पर ही इस किताब की 17000 प्रतियों की बिक्री का जिक्र इसकी अपार लोकप्रियता को दर्शाता है। लेखिका की चार अन्य किताबें ऐसी ही विषय वस्तुओं को लेकर 1920 से 1924 के दौरान प्रकाशित हुई। प्रकाशन के शताब्दी वर्ष 2021 में उनके समग्र लेखन व चित्रांकन को समेटे हुए इस डीलक्स संस्करण की मांग व चर्चा पुनः हो रही है।
बाल साहित्य को लेकर ऐसा सृजन, प्रकाशन, मांग व उत्साह हमारे यहां कम देखने को मिलता है,जब कि पंचतंत्र से लेकर वेद पुराण, महाभारत की उप कथाओं का भंडार बाल साहित्य से सम्बद्ध है। ऐसे वृहत बालकथा ग्रंथ के प्रकाशन की कल्पना तो अपने हिंदी भाषा क्षेत्र में हम बमुश्किल ही कर सकते हैं। 

'स्कालास्टिक प्राइवेट लिमिटेड ग्रुप की इस वैश्विक प्रकाशन संस्था का कार्यालय दिल्ली में भी है,जिसके आस्ट्रेलिया कार्यालय ने यह किताब प्रकाशित की है। हो सकता है वे,अन्य भारतीय भाषाओं या अंग्रेजी में ऐसा प्रकाशन करते हों, मुझे जानकारी नहीं है।
बाल साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए इस चित्रकार लेखिका को आस्ट्रेलिया सरकार द्वारा,सन 1955 में सम्मान स्वरूप ब्रिटिश राजशाही की सदस्यता हेतु मनोनीत किया गया था।
1969 में उनकी मृत्यु हुई। मृत्यु के पश्चात भी उनके नाम का डाक टिकट जारी करने के अलावा जन्मशताब्दी वर्ष  में उनके नाम पर स्थलों, मुहल्लों यहां तक की टूरिस्ट नौकाओं व जहाजों के नाम तक रखने के उदाहरण बताते हैं कि अपने दिवंगत साहित्यकार,कलाकारों का कैसा सम्मान इन देशों में होता है।
जैसा कि हर लोकप्रिय कृति के साथ कोई न कोई विवाद या वितंडा पैदा हो जाता है,इस किताब के साथ भी हुआ। एक आरोप तो लेखिका पर अति शुचितावादियों ने यह लगाया कि बाल पात्रों के चित्रांकन में नग्नता है जो पीडोफोलिक मनोवृत्ति को उकसाने हेतु प्रेरक हो सकती है। तथा दूसरा, 'किताब के खलनायक चरित्र बंकाशिया मानवों के चित्रण व वर्णन से आस्ट्रेलियाई आदिवासी समुदाय की समानता झलकने के कारण उनके प्रति रंगभेदी नश्लीय भेदभाव प्रकट होता है।'
इन असंगत आरोपों के प्रभाव ने यहां तक जीत हासिल की कि बाद के नये संस्करणों में एकाधिक अध्यायों में परिष्कार भी किया गया है। रंगभेद अध्येताओं व विमर्शकारों द्वारा तात्कालिक समाज व परिस्थितियों में लेखिका के अवचेतन में मौजूद इन ग्रन्थियों को जांचने परखने में पूर्वाग्रहग्रस्त होने के कारण उनके निर्दोष सृजन को कठघरे में खड़ा करने के ये विवाद कितने वजनदार हैं,कह नहीं सकते।
पर इतना तय है कि आधुनिक और उन्नत होने के बावजूद नैतिकतावादी शुचिता की पहरेदारी में ये देश भी कम नहीं हैं। यदा कदा पुस्तकालयों व बुकस्टालों से आपत्तिजनक संदिग्ध किताबों की जब्ती और आर्ट गैलरियों में वास्तु व कलाकृतियों पर,अशिष्टता के शक में छापे मारे जाने की ख़बरें सुनकर जहां ताज्जुब होता है वहीं राहत भी मिलती है कि ऐसा जुल्म तो अभिव्यक्ति की आजादी पर कम से कम अपने यहां तो नहीं होता है।
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