डा.शोभाराम शर्मा
इस कहानी का संबंध् हमारे इतिहास के उस काल-खंड की एक सच्ची घटना से है जब मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात यह देश अराजकता के उस भंवर में पफंस गया था जिसका लाभ पश्चिम के उन देशों ने उठाने का प्रयासकिया जो औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहे थे। उन्हें उद्योगों के लिए जितने कच्चे माल की जरूरत थी, वह उनकीअपनी जमीन से मिलना मुश्किल था। इसलिए दूसरें मुल्कों की जमीन हड़पने की होड़ मची और इस होड़ में इंग्लैंडका पलड़ा ही भारी सिद्ध् हुआ। औद्योगिक क्रांति की ऊर्जा से शक्ति-संपन्न ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आगे हमारेनवाबों और राजा-महाराजाओं की जंग लगी सामंती तलवारें नहीं टिक पाईं। बंगाल से लेकर पंजाब की सीमा तकऔर लगभग सारे दक्षिण भारत को लीलते देखकर एक दिन काठमांडू के राजमहल में सोए शेष-शायी विष्णु केअवतार नेपाल नरेश की नींद खुल पड़ी। एक विदेशी कंपनी को तराई-भाबर से नीचे सारे देश को हड़पते देखकर नेपाल की सामंती सत्ता के कान खड़े होने ही थे। निश्चय हुआ कि पूरब से पश्चिम तक सारे पहाड़ी राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया जाए। काली पार कर चंद राज्य पहला शिकार हुआ। गढ़वाल पर पहला हमला नाकामयाब रहा मगर दूसरे धावे में गढ़वाल भी फ़तह हो गया। गोरखे हिमाचल की ओर भी बढ़े लेकिन वहां टिक नहीं पाए।पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह के आगे गोरखा-अभियान असफल हो गया।
लोक मानस ने जिस नारी को '"जगदेई की कोलिण" के नाम से अपनी स्मृति में संजोए रखा है उसका असली नाम क्या था, कोई नहीं जानता। बात उन दिनों की है जब पूरब की पहाड़ी बस्तियों से लोग पश्चिम की ओर भागते पिफर रहे थे। वे या तो घने जंगलों या ऊंची चोटियों पर शरण लेने को मजबूर थे अथवा तराई-भाबर के जंगलों को पार कर मैदानों की ओर पलायन कर रहे थे। कारण था काली-कुमाऊं के जंगलों से होकर हमलावर गोरखों की एक टुकड़ी का कोसी से रामगंगा की मध्यवर्ती बस्तियों तक आ ध्मकना। तरह-तरह की अतिरंजित अफवाहों का बाजार गरम था। जवान लड़के-लड़कियों को दास-दासियों के रफ में सरेआम बेचे जाने की अफवाह जहां जोरों पर थी, वहीं औरतों की इज्जत से खुलेआम खिलवाड़ करने की बात भी चारों ओर फैल रही थी। और तो और दूध् पीते बच्चों को ऊखल में ठूँसकर मूसल से कुचल देने की अफवाह पर भी लोग आँख मँूदकर विश्वास करने लगे थे। प्रतिरोध् करने पर बस्तियां आग की भेंट चढ़ रही थीं और सिर कलम किए जा रहे थे। लूट-खसोट और जोर-जबरी का ऐसा दौर चला कि नादिरशाही भी फीकी पड़ गई। तराई-भाबर की समीपवर्ती पहाड़ी बस्तियों पर "गोर्ख्याणी" का ऐसा कहर बरपा कि लोग त्राहि-त्राहि कर उठे। हमलावरों को आशंका थी कि अगर उध्र के लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के दलालों से मिल गए तो पहाड़ों पर अधिकार बनाए रखना कठिन होगा। अत: आतंक का ऐसा माहौल बना देना उचित समझा गया कि लोग सिर उठाने की जुर्रत न कर सकें।

दहशत के मारे लोग सुरक्षित स्थानों की खोज में थे। ऐसे में किसी को भी अपनी और अपनों की सुरक्षा की चिंता होनी स्वाभाविक थी। जगदेई की कोलिण को अपनी दूध्-पीती बेटी और बूढ़े मां-बाप की चिंता थी। मां-बाप वर्षों से एक छोटे-से पहाड़ी नाले के समीप घने जंगल में रहकर बुनाई से अपनी जीविका चलाते आए थे। उनके अपने भाई-बंद सामने की पहाड़ी के पीछे संदणा नामक बस्ती में जाकर रहने लगे थे। लेकिन वे अपनी उसी कुटिया में बने रहे। कोलिण का जन्म वहीं हुआ था और बड़ी होने पर सल्टमहादेव के पार जगदेई के कोली परिवार में ब्याह दी गई थी। लेकिन घर-गृहस्थी का सुख उसके भाग्य में कहां बदा था। ब्याह के दूसरे साल उसे एक बेटी को जन्म देने का सौभाग्य तो प्राप्त हुआ लेकिन उसी वर्ष भाग्य रूठ गया और पति बिसूचिका का शिकार हो गया। घरवाले दो साल छोटे देवर का घर बसाने पर जोर देते रहे लेकिन वह अभी तक किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाई थी। बेटी को वह मां-बाप के पास पहुंचा देना चाहती थी क्योंकि पहाड़ी की ओट में घ्ाने जंगल के बीच अपना मायका उसे अधिक सुरक्षित लगा। कोली परिवार का आवास होने से वह "कोल्यूं सारी" कहलाने लगा था। वह बेटी को लेकर जब वहां पहुंची तो यह देखकर दंग रह गई कि उस खाई जैसी तंग घाटी के जंगल में कई और लोग भी शरण ले चुके थे। उनमें से एक डुंगरी नामक बस्ती का वह ब्राह्मण परिवार भी था जिसके मुखिया पंडित रामदेव को कोलिण बहुत पहले से जानती थी। कुछ दिन पहले ही वह उनके डुंगरी के आवास से कंबल बुनने के लिए ऊनी तागों के गोले लेकर गई थी और कंबल अभी अधबुने ही पड़े थे। पंडित रामदेव उसे बेटी कहकर पुकारते थे। उन्होंने बताया कि उनके परिवार के अलावा मंदेरी रावत, नेगी, ध्याड़ा, गोदियाल और डबराल भी वहां शरण ले चुके थे। नीचे नदी के किनारे एक मनराल परिवार भी सैणमानुर से आकर रहने लगा। सौंद नामक एक लुहार परिवार वहां पहले से ही रह रहा था। उसे यह देखकर और भी खुशी हुई कि पंडित रामदेव की अपनी बेटी जो उसी के ससुराल जगदेई में ब्याही थी, वह भी अपने पति के साथ वहां पहले ही पहुंच चुकी थी। पंडित जी ने आग्रह किया कि जितनी जल्दी हो सके वह कंबल वहीं लाकर दे क्योंकि डुंगरी की बजाय वह जगह अध्कि ठंडी थी। पंडित रामदेव उन दिनों सामने की पहाड़ी के दूसरी ओर के कुठेल गांव और संदणा के लोगों की मदद से कालिका नामक एक गोलाकार चोटी पर पत्थरों का ढेर जमा करवाने में जुटे थे ताकि मौका पड़ने पर हमलावरों का प्रतिरोध् किया जा सके।
मां-बाप का कहना था कि वह अपने परिवार के लोगों को भी वहीं लेती आए क्योंकि पहाड़ी की ओर का वह जंगल हमलावरों की नजरों में शायद ही पड़े। मां ने जोर देकर कहा कि वह कब तक अकेली जीवन का भार ढोती रहेगी। दो साल छोटा है तो क्या हुआ, वह देवर को स्वीकार कर ले, नन्हीं बेटी को भी पिता का प्यार मिल जाएगा। इस पर कोलिण कुछ सोचने को मजबूर हो गई और उसका अनिर्णय निर्णय में बदल गया। वह दूसरे ही दिन नीचे नदी के किनारे उतरी और पार के किनारे से होकर सल्ट महादेव की ओर चल पड़ी जहां से उसे ऊपर चढ़कर अपनी ससुराल पहुंचना था। रास्ते भर वह देवर के साथ अपने गार्हस्थ्य जीवन के रंगीन सपने बुनती रही और कब जगदेई पहुंच गई कुछ पता ही नहीं चला। लेकिन यह क्या! बस्ती बिल्कुल वीरान जैसी। बहुत कम लोग ही वहां रह गए थे। अधिकांश लोग अपना आशियाना छोड़ गए थे। पूछने पर पता चला कि लोग भिरणाभौन के देवी-मंदिर की ओर गए हैं। मंदिर एक गोलाकार पहाड़ी के ऊपर था और जगह चारों ओर से इतनी खुली कि हमलावर चाहे जिध्र से आते उन पर नजर रखी जा सकती थी। ऊपर चढ़ते हमलावरों को पत्थरों की मार से भागने पर मजबूर कर देना भी बहुत संभव लगता था। कोलिण रास्ते के ऊपर पहाड़ी के पीछे जखल और जमणी नामक बस्तियों के मिलन बिंदु पर अपनी झोंपड़ी में पहुंची तो अवाक् रह गई। परिवार के सारे लोग न जाने कहां चले गए थे। करघे वैसे ही पड़े थे जिन पर से अधबुने कंबल भी परिवार वाले समेट ले गए थे। निराश कोलिण बाहर निकली। सूरज अभी सिर पर था और हवा न चलने के कारण घुटन का अनुभव हो रहा था। उसने बदनगढ़ पार सल्ट की बस्तियों की ओर देखा तो आसमान की ओर उठता धुंआ देखकर और लोगों की चीख-पुकार सुनकर सन्न रह गई। भय के मारे रोंगटे खड़े हो गए। हमलावर इतने समीप थे कि कुछ ही देर में इध्र की बस्तियां भी उनका शिकार होने वाली थीं। कोलिण से रहा नहीं गया। वह झोंपड़ी के ऊपर एक टीले पर पहुंची और भरपूर गले से चिल्ला उठी-"ग्वर्ख्य आगीं! ग्वर्ख्य आगीं!" (गोरखे आ गए! गोरखे आ गए!) वह लगातार चिल्लाती गई। उसकी भय मिश्रित वह चीख-पुकार धर (पर्वत दंड) के दोनों ओर की दूर-दूर तक बसी बस्तियों तक ही नहीं, सल्ट महादेव से ऊपर देवलगढ़ के पार की बस्तियों तक भी साफ-साफ सुनाई पड़ी।
सुनते ही बस्तियों में तो जैसे भूचाल आ गया। जो साहसी लोग अभी तक बस्तियों में इस विश्वास के साथ टिके थे कि हमलावर उनकी बस्ती तक शायद ही पहुंच पाएं, वे भी जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए। कोलिण की चीख ने उनके साहस और विश्वास के परखच्चे उड़ा दिए। वे ऐसी जगहों की ओर दौड़ पडे जिन पर हमलावरों की निगाह पड़ने की बहुत कम संभावना थी। कोलिण की अपनी बस्ती का एक प्रौढ़ ओड (पत्थरों की छंटाई-चिनाई करने वाला मिस्त्री) कहीं जा छिपने से पहले उसके पास आया और डांटते हुए बोला-"अरी ओ मूर्खा! यह तू क्या कर बैठी। क्यों आ बैल मुझे मार की मूर्खता कर बैठी हो? मैं कहता हूं, अब तो चुप हो जा और कहीं जाकर छिप जा। तेरी यह चीख-पुकार तो साक्षात् मौत को न्यौता दे बैठी है। गोरखे कोई बहरे नहीं, तेरी पुकार की दिशा भांपकर बस पहुंचते ही होंगे।"
इस चेतावनी का कोलिण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह तो बस गला पफाड़-पफाड़कर चिल्लाती रही-"ग्वर्ख्य आगीं! ग्वर्ख्य आगीं!" चेतावनी देने वाला ओड भी घबराकर भाग खड़ा हुआ और कुछ दूरी पर एक पत्थर की आड़ में उन घनी कंटीली झाड़ियों के बीच जा छिपा जहां से चीखती-चिल्लाती कोलिण भी सापफ नजर आ रही थी। कुछ ही पल बीते होंगे कि दो गोरखे सैनिक प्रकट हो गए। वह चढ़ाई चढ़कर आए थे। उनका दम पफूल रहा था और पफटी-पफटी लाल अंगारों जैसी उनकी आँखें इस बात का सुबूत थीं कि दोनों रक्शी (शराब) के नशे में भी चूर थे। गुस्से से पागल एक ने कोलिण को बालों से जा पकड़ा और पफुंपफकारता हुआ बोला-"बदजात औरत चुप कर!" एक झटका देकर उसने कोलिण को नीचे पटक डाला। लेकिन कोलिण थी कि खड़ी होकर और भी जोर से चीखने लगी। इस पर दूसरा सैनिक खुखरी लहराते हुए आगे बढ़कर बोला-"यह ऐसे नहीं मानेगी दाई।" और उसने आव देखा न ताव कोलिण के नाक, कान और स्तन काटकर फैंक दिए। लहूलुहान चीखती-चिल्लाती कोलिण को पिफर एक लात जमाकर राक्षसी हंसी हंसता हुआ वह शैतान बोल उठा-"चिल्ला! और चिल्ला! तेरी तो -----" वह बाल पकड़कर पत्थर पर पटकने की गरज से आगे बढ़ने ही वाला था कि पहले सैनिक के भीतर का इंसान जाग उठा, उसने दूसरे को एक ओर खींचकर टोका-"अरे! तूने यह क्या कर डाला? डरा धमकाकर चुप कराने से मतलब था लेकिन तू तो वहशीपन की हद भी पार कर गया। एक निहत्थी निर्बल नारी के नाक, कान और ऊपर से स्तन भी ---- छि! ---- मातृत्व का ऐसा अपमान! इस महापातक का खामियाजा तो शायद मुझे भी भुगतना होगा। सरदार दूसरे साथियों के साथ पहुंचते ही होंगे। उनकी नजर अगर इस पर पड़ी तो समझ ले खैर नहीं।"
साथी की लताड़ से दूसरे सैनिक का नशा उड़न छू होने लगा, बोला-"तो अब क्या करें भाई? अपराध् तो हो ही गया। न जाने कितनी कठोर सजा मिले।"
"दंड से तो मैं भी नहीं बच पाऊंगा रे! वे तो इस कांड में हमारी मिलीभगत ही समझेंगे। कहेंगे कि मैंने रोका क्यों नहीं।" पहले ने कहा।
दूसरा अब रूआंसा होकर बोला-"जो होना था सो तो हो चुका! हां अगर इसे उनकी निगाह में न पड़ने दें तो?"
"हां, हां। एक यही रास्ता है हमारे बच निकलने का।" पहले ने सुझाव का समर्थन किया।
और दोनों ने कोली परिवार की झोंपड़ी के साथ कोलिण को भी जलाकर खाक कर देने की ठान ली। इस बीच बेतहाशा खून बह जाने से कोलिण जमीन पर लुढ़क गई थी। पिफर भी उसके गले से कहीं दूर से आता एक हल्का-सा स्वर तैरता सुनाई पड़ रहा था। दोनों मृतप्राय कोलिण को खींचकर झोंपड़ी के भीतर ले गए और करघ्ो के नीचे पटककर झोंपड़ी को आग के हवाले कर दिया। दरवाजों, तख्तों और छत के शहतीरों ने जो आग पकड़ी तो झोंपड़ी भरभराकर ढह गई और कोलिण की अपनी झोंपड़ी ही उसकी चिता बन गई।

इस भयानक कांड का चश्मदीद गवाह वही ओड था जो पत्थर की आड़ में झाड़ियों के बीच छिपकर सब कुछ देख रहा था। नाक, कान और स्तन-विहीन लहुलुहान कोलिण की उस करुणाजनक आकृति ने उसकी आत्मा को इतना झकझोर डाला कि वह चाहकर भी उसे अनदेखा नहीं कर पाया। धूं-धूं कर जलती झोंपड़ी से ऊपर उठते धुंए के बीच उसे वही दिखाई देती रही। घबराकर उसने आँखें मूंद लीं और जब खोलीं तो उसे धुंए के साथ ऊपर आसमान में तैरती एक ऐसी श्वेताभ निष्कलंक पवित्रा आत्मा का आभास हुआ जो लगातार चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को आसन्न खतरे से सावधन कर रही थी। दीबागढ़ी से नीचे दक्षिण की ओर बदनगढ़, देवलगढ़ और टांडयूंगाड़ के दोनों ओर जहां तक कोलिण की आवाज पहुंची थी, वहां से और आगे की बस्तियों को भी चेतावनी मिलने लगी। कोलिण का जादू सिर चढ़कर बोलने लगा था। उसकी वह निष्कलंक श्वेताभ आत्मा आसमान से होकर उड़ते-उड़ते अंतत: ऊंचे शिखर पर स्थित देवी-मूर्ति में समाहित हो गई। मूर्ति में समाहित उस आत्मा ने दीबा डांडे की दूसरी ओर बसी बस्तियों के लोगों को भी लगातार चेतावनी देकर हमलावरों का मनसूबा विपफल कर दिया था।
हमलावरों का टोली नायक जब दूसरे सैनिकों और लूट के माल के बोझ तले दबे, पकड़े गए दास-दासियों के साथ पहुंचा तब तक झोंपड़ी के साथ कोलिण का अस्तित्व भी राख में बदल चुका था। नायक ने आते ही पूछा-"वह औरत कहां है जो यहां के नामुरादों को चेतावनी दे रही थी? इधर तो कुछ भी हाथ नहीं लगा। लोग अपने मालमत्ते के साथ न जाने कहां गायब हो गए।"
पहले सैनिक ने कुछ सोचकर जवाब दिया-"क्या बताएं हुजूर! हमें देखते ही बदजात अपनी झोंपड़ी में जा छिपी। हमने उसे जिंदा पकड़ने का भरपूर प्रयास किया लेकिन उसने दरवाजा नहीं खोला तो नहीं खोला। दरवाजा तोड़कर जब तक हम भीतर पहुंचते उसने खुद झोंपड़ी को आग लगा दी और खुद भी उसी में जल मरी।"
उधर लूट का माल हाथ न आने से हमलावरों का दस्ता पकड़े गए दास-दासियों के साथ देवलगढ़ नदी की ओर उतर गया। वह ओड जिसने सारा कांड अपनी आँखों से देखा था, पत्थर की आड़ से बाहर निकला और राख के ढेर को कुरेद-कुरेदकर कुछ ढूंढने लगा। लेकिन वहां बचा ही क्या था। सुलगते शोलों के बीच कोलिण की हडि्डयां तक भी साबुत नहीं बची थीं। इसी बीच आस-पास छिपे कुछ और लोग भी आ गए। सभी की जुबान पर यही था कि कोलिण तो सचमुच जगदेई ;जगत-देवीद्ध निकली। दूसरों की जान बचाने के लिए जिसने अपनी जान तक दे डाली। पत्थरों का पारखी वह ओड एक हल्के नीले पत्थर पर कोलिण की नाक, कान और स्तन-विहीन आकृति को उभारने लगा ताकि भावी पीढ़ियां उसकी कुर्बानी को भुला न पाएं।
(लेखक ने 1950 के आस-पास नाक, कान और स्तन-विहीन वह छोटी-सी नारी मूर्ति जगदेई गांव के ऊपर खुद अपनी आँखों से देखी थी। आज एक छोटे-से मंदिर में कोलिण की वह नाक-कान-स्तन विहीन मूर्ति उसी स्थान पर स्थापित है।)
कहानी में अरविन्द शेखर के रेखांकनों का इस्तेमाल किया गया है।
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लेखक परिचय
डॉ शोभाराम शर्मा
जन्म: 6 जुलाई 1933, पतगांव मल्ला, पौड़ी गढ़वाल

शिक्षा: आगरा विश्वविद्यालय से एमए (हिंदी) व पीएचडी। अंग्रेजी दैनिक 'द स्टेटसमैन" में कार्य, 1958 से विभिन्न राजकीय संस्थानों में अध्यापन, 1992 में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से विभागाध्यक्ष ;हिंदीद्ध के पद से सेवानिवृत।
रचनाएं: 50 के दशक में पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु", क्रांतिदूत चे ग्वेरा (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी), सामान्य हिंदी, वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश, वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), पूर्वी कुमाउफं तथा पश्चिमी नेपाल के राजियों ;वन रावतोंद्ध की बोली का अनुशीलन ;अप्रकाशित शोध्प्रबंध्द्ध, जब ह्वेल पलायन करते हैं (साइबेरिया की चुकची जनजाति के पहले उपन्यासकार यूरी रित्ख्यू के उपन्यास का अनुवाद- प्रकाशनाधीन) विभिन्न पत्रा-पत्रिकाओं में कहानियां व लेख प्रकाशित। विभिन्न पत्रिकाओं का संपादन।
पता: डी-21, ज्योति विहार, पोऑ- नेहरू ग्राम, देहरादून-248001, उत्तराखंड, फोन: 0135-2671476