(हाल ही में संपन्न हुई नन्दा राजजात यात्रा को लेकर मीडिया में खूब चर्चा रही .दिनेश चन्द्र जोशी ने इस आलेख में राजजात यात्रा के आयोजन को लेकर कुछ जरूरी सवाल उठाये हैं जो एक लोकधर्मी सांस्कृतिक यात्रा को आडंबरपूर्ण उत्सवी माहोल में बदलने से उत्पन्न संकटों की ओर संकेत करते हैं)
दिनेश चंद्र जोशी
उत्तराखंड
के हिमालयी क्षेत्र में चल रही नन्दा राजजात यात्रा अब लगभग सकुशल सम्पन्न हो चुकी
है। लगभग, इसलिये कहना पड़ रहा है कि मौसम की मार व अति दुर्गम मार्ग के कारण समय समय
पर अनिष्ट की आशंका बनी रही,ऊपर से अनियंत्रित भीड़ का जमावड़ा पुलिस प्रशासन के लिये
चिन्ता का कारण बना। कुछ लोगों के वापिस घर न पहुचने व लापता हो जाने की खबरें भी आ
रही हैं।
बहरहाल
अपनी हर साल की बाढ़, भूस्खलन, आपदा जैसी स्यापा प्रधान खबर से हट कर इस वर्ष की यह
उत्सवधर्मी घटना कही जा सकती है। नन्दा राजजात की अर्थवत्त्ता से प्रदेश के बाहर वाले
क्या, यहीं के बहुसंख्य जन अनभिज्ञ थे। इसका कारण एक तो बारह वर्ष पश्चात इसका दुबारा
आयोजन होना तथा एक सीमित भूगोल के वासियों द्वारा इसमें शिरकत करना माना जा सकता है।
एतिहासिक
रुप से यह यात्रा सातवी शताब्दी पूर्व के पाल राजवंशी राजा शालिपाल के समय से प्रचलित
है। कन्नौज के राजा जसधवल का लावलश्कर के साथ इस यात्रा में शामिल होने, पातर (नर्तकियों)
नचाने तथा मौसम की मार के कारण सैकड़ों लोगों के काल कवलित होने के संदर्भ इतिहास में
मिलते हैं।रुपकुंड में पाये जाने वाले नर कंकालों को भी उस घटना से जोड़ा जाता है।
बीच बीच में कुछ समय के लिये बाधित होकर ब्रिटिश काल में भी एशिया महाद्वीप की यह सबसे दुर्गम ऊचाई वाले पथ की
280 कीलोमीटर लम्बी सांस्कृतिक धार्मिक यात्रा अनवरत चल रही है।
इधर
राज्य निर्माण के पश्चात पिछले वर्ष 2013 की यात्रा को आपदा के कारण स्थगित करके इस
वर्ष 2014 में सम्पन्न किया गया। नये राज्य के नव उत्साह व मीडिया की सक्रियता के कारण
यह यात्रा बेहद ग्लैमरस नजर आई। पिछले दो तीन वर्षों से राजजात आयोजन समिति के गठन,
पुनर्गठन तैयारियों व आर्थिक, प्रशासनिक प्रबन्धन की खबरें समय-समय पर आती रही। इन्ही
तैयारियों के फलस्वरूप इस वर्ष की यात्रा के शुभारम्भ पर चढ़ावा व श्रीफल राष्ट्रपति
महोदय के कर कमलों से प्रदान करवा कर समिति ने यात्रा को राष्ट्रीय पहचान दिलाने का
प्रयास किया।
राजजात
समिति में वर्चस्व किन विचारधाराओं का रहा , यह तो नहीं कहा जा सकता पर, उत्तराखंड
के मुख्यमंत्री को खास तवज्जो नहीं मिली, ऐसा सुनने में आया। राज्यसभा सांसद तरूण विजय
का नाम बार बार आता रहा, अलबत्ता राष्ट्रपति महोदय द्वारा श्रीफल प्रदान करवा कर इसे
गैर राजनैतिक रंग देने की नीति संतुलित कही जा सकती है,वरना कहीं मोदी जी के हाथों
यह काम करवा दिया जाता तो बात बिगड़ सकती थी।
बहरहाल राजनैतिक मंतव्य चाहे जो रहे हों,
अब यात्रा सकुशल संपन्न हो चुकी है, यह राहत की बात है। गोया बेदनी बुग्याल जैसी 15000
फिट की दुर्गम ऊंचाई में 50,000 यात्रियों के जमावड़ा लगने के बावजूद आंधी, तूफान,वर्षा
व हिमपात के कोप का प्रचन्ड रूप न लेने की सुखदायी धटना सांसतभरी है।
पर,
क्या इतनी ऊंची दुर्गम लोक यात्रा में इतनी अधिक भीड़ जुटनी या जुटाई जानी चाहिये?
जबकि एक महाविनाश की त्रासदी अभी स्मृतियों
में बिल्कुल ताजा है। उस त्रासदी से सबक लेने के बजाय इस भीड़ आकर्षण को क्यों बढ़ावा
दिया जा रहा है ,यह बात समझ से परे है। इसके पीछे फेसबुकवादी व्यक्तिगत मीडिया से लेकर
स्थानीय, राष्ट्रीय यहां तक कि विदेशी मीडिया भी सक्रिय हो गया था। लिहाजा एक निहायत
शान्त, शालीन,एकाकी व भव्यताविरोधी आस्था पर्व को रैलीनुमा भीड़ में तब्दील कर दिया गया। ऐसी खबरें भी आ रहीं
हैं कि कुछ लोग घर नहीं लौटे, लापता हो गये हैं। लोकपर्व के बाजारीकरण की ऐसी पराकाष्ठा आखिर हमें कहां ले जायेग! इस प्रचारवादी
नीति से न तो उत्सवों की मौलिकता बचेगी और न ही पावनता, शुचिता। उत्साहीजन कहेंगें
कि क्या बिगड़ गया, पहाड़ों के उजड़े गांवों के लोग अपने घर लौटे, दिल्ली,मुम्बई व विदेशों
से भी प्रवासीजन तथा पर्यटक इस यात्रा में शामिल होने पंहुचे,पहली बार। यह खाये पीये,
अघाये प्रवासियों का नोस्टलजिया बहुत भावुकतापूर्ण होता है, वे आते हैं तो अपनी कुल
देवी या देवता को पूजने,ताकि अनिष्ट से बचें रहें; गांवों की दुर्दशा को सुधारने या
वहां बसने-बसाने की उनकी कोई मंशा नहीं होती ।उल्टा वे पहाड़ों के धूसर उजड़े गांवों
व सुरम्य प्रकृति पर फिल्म,वीडियो आदि बना कर अपना निजी स्वार्थ साधते हैं।
यह सच है कि नन्दा मघ्य हिमालय के सीमान्त
जिलों व उससे सटे जनपदों के जनमानस की जातीय चेतना में सदियों से रची बसी एक बेहद अलौकिक
आस्था की प्रतीक है। पर्वतीय अंचलों के बच्चे होश संभालते ही नंदा देवी, नंदाष्टमी,नैनादेवी
नाम के मन्दिरों व मेलों से परिचित होते हैं। भूगोल की जानकारी होने पर उनका त्रिशूल,पंचचूली
के साथ नन्दादेवी नाम की उच्च हिमालयी चोटी से भी परिचय होता है। इस दृष्टि से नन्दा
राजजात के प्रति जन मन में औत्सुक्य व उत्साह का संचार होना लाजमी है।
नई पीढ़ी का वास्तव में इस शब्द ने इस बार
पहली बार ध्यान खींचा है, इसे मीडिया का प्रभाव मान सकते हैं।राजजात के अर्थानुसार
तो यह राजजात्रा अथवा राजाओं की यात्रा ही थी। इसमें कुंवर ,कत्यूरी, पंवार, चन्द वंशीय
राजाओं के वंशजों, क्षत्रियों व ब्राहमण कुलपुरोहितों
की भागीदारी होती है, निम्न जातियों व ,दलितों की भूमिका का कोई जिक्र नहीं होता। होता
भी होगा तो वह ढोल दमुआ,,रणसिंघा बजाने वाले बाजियो के रूप में या दोली ढोने वाले कहारों
के रूप में, संभवतः डोली भी उनको स्पर्श नहीं करने दी जाती है। इस लिहाज से यह राजकुलीन
भद्र सामन्ती यात्रा है। समय के अनुसार इसमें कितना बदलाव आया; आया या नहीं, यह भी
विचारणीय प्रश्न है।
नन्दा
की डोलियों, छतोलियों के अनेक समूहों के सम्मिलन स्थलों ,गांवों में उनके पहुंचने पर
पसुवा, जागर,अवतार देवी देवता अवतरण जैसी आदिवासी अवैज्ञानिक अन्धविश्वासी रीतियो,
पद्धति्यों का इस यात्रा में जम कर संवर्घन संरक्षण हुआ जो किसी मायने में लोक हितकारी
नहीं है। ऐसी प्रथाओं से नई पीढ़ी का जितना कम परिचय हो उतना अच्छा है।
नन्दा को मायके भेजने के भावुकतापूर्ण लोकगीत
व महि्माओं के सामुहिक रुदन के दृश्य एक और जहां पहाड़ की परिश्रमी नारी के स्नेहसूत्र
व भावविह्वलता को दर्शाते हैं वहीं यह प्रश्न भी छोड़ जाते हैं कि सीमान्त पर्वतीय
नारी आखिर कब तक इतनी भावुकता ढोती रहेगी।
यद्यपि
इन्हीं नारियों के बीच से बछेन्द्री पाल व चन्द्रप्रभा ऐतवाल जैसी साहसी पर्वतारोही
महिलायें भी उभर कर आई हैं। अब वक्त आ गया है, बहुत प्राचीन भावुकतापूर्ण मिथकीय प्रतीकों
के बजाय ठोस आधुनिक प्रगतिशील नन्दाओं के प्रतीकों
का प्रचार प्रसार किया जाय और परम्परागत राजजात को अल्प तामझाम व एकान्तप्रियता के
साथ ही सम्पन्न किया जाय।
ताजा
खबरें आई हैं कि इस यात्रा की भीड़ में यारसागम्बू जड़ी(कीड़ा जड़ी) के दोहन करने वाले
माफिया भी शरीक हो गये थे जो बेदनी बुग्याल के आसपास अपने अभियान में लिप्त पाये गये।
भीड़ , प्रचार व बाजारवादी यात्रा में ऐसा होना तय है, चाहे वह बद्री केदार की धार्मिक
यात्रा हो अथवा नन्दा राजजात की लोकधर्मी संस्कृतिक यात्रा।
पारिस्थिकी
व पर्यावरण पर इस भीड़ का कितना दुष्प्रभाव पड़ा यह तो बेदनी बुगयाल के रौंदे गये चरागाह
बयान करेंगें।
एकमात्र
मूक प्राणी , चारसिंघा खाड़ू (चार सींग वाला बकरा) जोकि यात्रा की अगुवाई करता है तथा
अन्त में निर्जन हिमघाटी में अकेला छोड़ दिया जाता है, पर क्या बीतती होगी । लगता है
मेनका गांधी के पी. एफ. ए. को इस निरीह प्राणी के साथ हुए अन्याय की खबर नहीं हैं।
भीड़
व बाजार के केन्द्र पहले चौरस घाटियों ,मैदानों के समतल हाट मेले हूआ करते थे। अब राज्य
निर्माण के
पश्चात
एक और विकृति आ गई है कि शान्त उच्च हिमालयी स्थलों, बुग्यालों, चोटियों में भी हो
हल्ला हुड़दंग से भरपूर धार्मिक सांस्कृतिक राजनैतिक आयोजन सम्पन्न किये जाने लगे हैं,
जिससे पहाड़ के पर्यावरण के साथ साथ सामाजिक ताने बाने को भी क्षति पहुंच रही है।
पहाड़
अपने स्वाभाविक रूप में अतिविकसित होने व अति जनभार को वहन करने के काबिल नहीं हैं,
उनके विकास का माडल संतुलित,शान्त, एकाकी, पुरानी ग्राम बसाहटों के स्वरुप के अनुकूल
होना चाहिये। राजधानी, केबिनेट मीटिंग और सरकार की रैलि्यों से पहाड़ की शान्ति व एकान्तप्रियता भंग हो यह कौन न चाहेगा ?