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Tuesday, July 14, 2015

मित्र हो तो असहमति को रखने में संतुलन बरतना ही होगा




हमेशा इस पसोपेश में रहता हूं कि मन की बातों को कह दूं या नहीं। संकट है कि कहने का वह सलीका कहां से लाऊं जो शालीन बनाये रखे। फिर भी कोशिश में तो रहता ही हूं कि मेरे भीतर का मनुष्‍य, जो वैसे ही वाचाल है, और वाचाल न नजर आये। यूं कहने का साहस तो अब भी नहीं जुटा पा रहा हूं। बस इतना जाने कि जो कुछ कह रहा हूं किंचित जमाने से असहमतियों के कारण कह रहा हूं।
कह पा रहा हूं तो यह भी स्‍पष्‍ट जानिये असहमत हूं जिनसे/जिससेए जरूर है वह कोई मित्रवत स्थिति ही होगी। मेरे ऐसा स्‍पष्‍टीकरण न देने पर भी आपकी सह्रदयता उसे दुश्‍मन तो नहीं ही मानेगी, मित्र ही समझेगी। ज्‍याद ही अपने अनुमानों के घोड़ो पर दौड़ेगे तो इतना ही कह पायेंगे कि किसी मित्र से संवादरत हूं शयद। तात्‍कालिक समय में रूठे हुए किसी मित्र से। यानि स्‍थायी दुश्‍मनाने में असहमति को रखने का भी कोई औचित्‍य नहीं।
बेशक आप जो भी माने पर मित्र को सिर्फ मनुष्‍य की शक्‍ल में न देखें। बस, अपने दायरे को थोड़ा विस्‍तार दें और जीवन जगत में व्‍याप्‍त किसी पेड़, पक्षी, फल जानवर, कंकड़, पत्‍थर, शैवाल, फफूंद और निर्मितियों की अजब गजब दुनिया को भी- भौतिक या, अभौतिक तरह से भी जो अपनी ताकत दिखाते हुए मौजूद हैं, अपनी निगाह में उतार लें। मेरे कहे के साथ चलते हुए पायेंगे कि असहमति का मसला सैद्धान्तिक नहीं बल्कि व्‍यवाहरिक होता है। सैद्धान्तिक असहमतियां तो मित्रवत दायरे में ही निपट चुकी होती है। उनके प्रकटीकरण तो स्‍वंय व्‍यवहार से ही उपजी असहम‍तियां हो जाती हैं। कई बार प्रकटीकरण की कोई स्‍पष्‍ट वजह भी नहीं होती, तो भी वे तो न जाने कब हिंसक हो जाती हैं। ऐसी असहमतियां निश्चित ही  हत्‍यारेपन की प्रवृत्ति है, विरोध की असभ्‍य आवाज और सांस्‍कृतिक हत्‍यारेपन में उनके अर्थ एक ही होते हैं। यूं लिजलिजे समर्थन में तो अराजक हिंसा ही प्रश्रय पाती है।
आप जानना चाहते हैं ये सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन क्‍या है ? विश्‍वास दिलाइये कि हिसंक न होंगे। हो सकता है मैं अपनी वाचालता में आपको जाने क्‍या-क्‍या कह बैठूं, वैसे भी इस वक्‍त तो असहमति की असभ्‍य आवाज और उसकी तीव्र हिंसकता ही मुझे वाचाल हो जाने को मजबूर कर रही है, आपका सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन उतना नहीं। फिर भी जानने चाहे तो जान ले- ठेकेदार, दलाल और बिल्डिरों वाले टुच्‍चेपन को ही आप जो थोड़ा नफासत भरा अंदाज दे देते हैं, वह तो निश्चित ही सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन है- संवाद के लिए छटपटाती किसी पुकार को सुनने लेने के बाद भी अनुसनापन ही जाहिर करना, विरोध की स्थितियां निगाह में निगाह डाल कर न रखी जा सके, गर्दन पहले ही घुमा देना।

चलिये छोडि़ये क्‍या-क्‍या कहूं। वैसे भी दुनिया संबंधों को कायम रखने की जितनी आधुनिकता से सुसज्जित हो रही है, असहमति का हत्‍यारापन उतना सांस्‍कतिक हुआ जा रहा है, बहुधा असभ्‍य आवाज के साथ साथ कदमताल करता हुआ भी।    

Saturday, July 19, 2008

इस कुंआरी झील में झांको

(केलांग को मैं अजेय के नाम से जानने लगा हूं। रोहतांग दर्रे के पार केलांग लाहुल-स्पीति का हेड क्वार्टर है। अजेय लाहुली हैं। शुबनम गांव के। केलांग में रहते हैं। "पहल" में प्रकाशित उनकी कविताओं के मार्फत मैं उन्हें जान रहा था। जांसकर की यात्रा के दौरान केलांग हमारे पड़ाव पर था। कथाकार हरनोट जी से फोन पर केलांग के कवि का ठिकाना जानना चाहा। फोन नम्बर मिल गया। उसी दौरान अजेय को करीब से जानने का एक छोटा सा मौका मिला। गहन संवेदनाओं से भरा अजेय का कवि मन अपने समाज, संस्कृति और भाषा के सवाल पर हमारी जिज्ञासाओं को शान्त करता रहा। अजेय ने बताया, लाहौल में कई भाषा परिवारों की बोलियां बोली जाती हैं। एक घाटी की बोली दूसरी घाटी वाले नहीं जानते-समझते। इसलिए सामान्य सम्पर्क की भाषा हिन्दी ही है। भाषा विज्ञान में अपना दखल न मानते हुए भी अजेय यह भी मानते हैं कि हमारी बोली तिब्बती बोली की तरह बर्मी परिवार की बोली नहीं है, हालांकि ग्रियसेन ने उसे भी बर्मी परिवार में रखा है। साहित्य के संबंध में हुई बातचीत के दौरान अजेय की जुबान मे। शिरीष, शेखर पाठक, ज्ञान जी ज्ञान रंजन से लेकर कृत्य सम्पादिका रति सक्सेना जी का जिक्र करते रहे। एक ऐसी जगह पर, जो साल के लगभग 6 महीने शेष दुनिया से कटा रहता है, रहने वाले अजेय दुनिया से जुड़ने की अदम्य इच्छा के साथ हैं। उनसे मिलना अपने आप में कम रोमंचकारी अनुभव नहीं। उनकी कविताओं में एक खास तरह की स्थानिकता पहाड़ के भूगोल के रुप में दिखायी देती है। जिससे समकालीन हिन्दी कविता में छा रही एकरसता तो टूटती ही है। कविताओं के साथ मैंने अजेय जी एक फ़ोटो भी मांगा था उनका पर नेट के ठीक काम न करने की वजह से संलग्नक उनके लिये भेजना संभव न रहा. कविताऎं भेजते हुए अपनी कविताओं के बारे में उन्होंने जो कहा उसे पाठकों तक पहुंचा रहे हैं - u can publish my poems without photo and all. poems should reflect my inner image....thats more important , i suppose, than my external appearence.....isnt it ?---------- ajey)

अजेय 09418063644

चन्द्रताल पर फुल मून पार्टी

इस कुंआरी झील में झांको
अजय
किनारे किनारे कंकरों के साथ खनकती
तारों की रेज़गारी सुनो

लहरों पर तैरता आ रहा
किश्तों में चांद
छलकता थपोरियां बजाता
तलुओं और टखनों पर

पानी में घुल रही
सैंकडों अनाम खनिजों की तासीर
सैंकडों छिपी हुई वनस्पतियां
महक रही हवा में
महसूस करो
वह शीतल विरल वनैली छुअन------------

कहो
कह ही डालो
वह सब से कठिन कनकनी बात
पच्चीस हज़ार वॉट की धुन पर
दरकते पहाड़
चटकते पठार

रो लो
नाच लो
जी लो
आज तुम मालामाल हो
पहुंच जाएंगी यहां
कल को
वही सब बेहूदी पाबंदियां !

(जिमी हैंड्रिक्स और स्नोवा बार्नो के लिए)
चन्द्रताल,24-6-2006

भोजवन में पतझड़

मौसम में घुल गया है शीत
बैशरम ऎयार
छीन रहा वादियों की हरी चुनरी

लजाती ढलानें
हो रही संतरी
फिर पीली
और भूरी

मटमैला धूसर आकाश
नदी पारदर्शी
संकरी !

कॉंप कर सिहर उठी सहसा
कुछ आखिरी बदरंग पत्तियां
शाख से छूट उड़ी सकुचाती
खिड़की की कांच पर
चिपक गई एकाध !

दरवाजे की झिर्रियों से
सेंध मारता
बह आखिरी अक्तूबर का
बदमज़ा अहसास
ज़बरन लिपट गया मुझसे !

लेटी रहेगी अगले मौसम तक
एक लम्बी
सर्द
सफेद
मुर्दा
लिहाफ के नीचे
एक कुनकुनी उम्मीद
कि कोंपले फूटेंगी
और लौटेगी
भोजवन में ज़िन्दगी ।
नैनगार 18-10-2005

Tuesday, June 10, 2008

बुलाकी का उस्तरा और राजधानी

व्यंग्य कथा

दिनेश चन्द्र जोशी 09411382560


बुलाकी को आप नहीं जानते होंगे,जानेंगे भी कैसे, कभी फुटपाथ में सिर घोटाया होता तो जानते भी। बहरहाल बुलाकी को जनवाने के लिये मैं आपका सिर नहीं घुटवाउंगा, आप निश्चिन्त रहें,हां,इस कथा को पढ़ने की जहमत अवश्य करें।

बालों की फ़िसलन पर

बुलाकी के बाप दादा गांव के पुश्तैनी नाई थे। गांव के जमीदारों,सेठ साहुकारों की हजामत बनाया करते थे.लोग कहते हैं उनके उस्तरे में ऐसी सिफत थी कि पता ही नहीं चलता था कब उस्तरा चला और बिना खूं खरोच के अपना काम कर गया। रही बात कैंची की, सुना है ऐसी चलती थी कि पचास फीसदी बाल कम हो जाने के बाद भी पता नहीं चलता था कि बाल कम हुए हैं. यानी कि बाल कट भी जायें और कटिंग हुई कि नहीं इस बात का पता भी न चले।

पहली छब्बीस जनवरी यानी आजाद नाऊ

इस फने हजामत के एवज में उन्हें इनाम इकराम भी खूब मिला करता था. सो, कहा जाता है कि बुलाकी के दादा के जमाने में घर की माली हालत अच्छी थी। बुलाकी के बारे में एक बड़ा दिलचस्प वाकया यह था कि सन पचास में जिस दिन पहली छब्बीस जनवरी मनाई गई,उसी दिन बुलाकी का जन्म हुआ। आजादी की लहर का जोर था और दूर दराज के कस्बों गांवों तक छब्बीस जनवरी मनाये जाने की खबर थी,सो इस कारण बुलाकी की जन्म तिथि लोगों की जुबान पर रट गई यहां तक कि शुरू शुरू में बुलाकी को गांव में कुछ लोग "आजाद नाऊ" के नाम से भी पुकारते थे। आजादी के बाद बुलाकी के बाप दादा का धन्धा हल्का पड़ गया,जमीदारों सेठ साहुकारों का रौबदाब घट गया,उनकी मूछों का बांकपन कम हुआ और हजामत के काम में भी वो बात नहीं रही जो पहले थी,सो बुलाकी के बाप को गर्दिश के दिन देखने पड़े।
थोड़ी बहुत खेती पाती और थोड़ा हजामत का काम चला कर बुलाकी के बाप ने किसी तरह बुलाकी व उसके भाई बहिनों को जवानी तक ला खड़ा किया। हजामत के फन में बुलाकी ने भी पुश्तैनी महारत अवश्य हासिल कर ली थी, लेकिन गांव में हजामत बनाने वालों, बाल कटवाने वालों और सिर घुटाने वालों को कस्बे और शहर की सैलून का फैशन भाने लगा था, दो चार बुजुर्गों व सयानों की खोपड़ी व हजामत के भरोसे बुलाकी का उस्तरा कब तक अपना काम चलाता,ऐसे नामुराद वक्त में एक रोज बुलाकी ने अपनी हजामत वाली बक्सिया उठाई और गांव के पास वाले नजदीकी कस्बे की ओर रूख कर लिया। कस्बे के चौराहे पर बरगद के पेड़ तले मौका देख कर उसने अपनी चटाई तथा हजामत वाली बक्सिया जमा दी।
कस्बे में बुलाकी का धन्धा ठीक ठाक चल पड़ा,कस्बे की आवादी गांव से कई गुना ज्यादा थी। आस पास के गावों से कई लोग कस्बे में सौदा सुलुफ,डाक्टर,हकीम तहसील,स्कूल, नून तेल राशन के चक्कर में आते थे। लगे हाथों कटिंग,मुंडन व हजामत भी बना लेते थे। बुलाकी एक तो सस्ता था ऊपर से मौके की जगह पर बैठा करता था,सो उसके उस्तरे की धार चमकने लगी। बाल तो वो काटता ही था लेकिन जो मजा उसे सिर घोटने में आता था,वो बात हजामत आदि में नहीं थी, सिर घोटने का तो वह एक्सपर्ट ही था। घोटते वक्त जब वह मस्ती में आ जाता था तो घुटे हुए सिर के इंच इंच हिस्से को उंगलियों से चटखाता मालिस करता हुआ चहक उठता था, ग्राहकों से कहता, "भय्या हम आदमी को चेहरा देख कर नहीं खोपड़ी देख कर पहचानते हैं, और अगर घुटी हुई खोपड़ी हो तो कहने ही क्या। एक बार जिस खोपड़ी को हमारा उस्तरा देख लेता है उसे ताजिन्दगी नहीं भूलता। चेहरा पहचानने में हमसे गल्ती हो सकती है,लेकिन खोपड़ी पहचानने में कतई नहीं होगी। आखिर भय्या,खोपड़ी ही तो हमारी रोजी रोटी है, रोजी रोटी को नहीं पहिचानेंगें तो जिन्दा कैसे रहेंगे।"

चेहरे से नही खोपडी से होती है आदमी की पह्चान

कस्बे में बुलाकी की दिनचर्या बड़ी मजेदार चल रही थी,लेकिन एक रोज ऐसा वाकया हुआ कि कस्बे से उसका मन उचट गया। हुआ यूं कि उस दिन सुबह सुबह बौनी के वक्त एक गोल मटोल भारी आवाज व सख्त गलमुच्छों वाली खोपड़ी बुलाकी के समक्ष घुटने के वास्ते प्रस्तुत हुई, खोपड़ी रौबीले अन्दाज में बोली, "ऐ नाऊ जी, फटाफट हजामत बनाओ,और सिर घोटो, जल्दी करो यह काम, टैम नहीं है।"
बुलाकी का उस्तरा यूं भी तैयार ही बैठा था,उसने चेहरे पर ज्यादा गौर न कर फटाफट हजामत बना दी, उसके पश्चात सिर घोटने लगा। यह सिर सामान्य सिरों से कुछ ज्यादा ही बड़ा व गोल मटोल था। इसे घोटने में बुलाकी को बड़ा मजा आया।
काम हो चुकने के बाद भारी भरकम आवाज वाली वह खोपड़ी सिर पर चादर लपेट कर,बुलाकी के हाथ में पांच का नोट पकड़ा कर चलती बनी, बकाया पैसे लौटाने के लिए उसने आवाज मारी,पर खोपड़ी इतनी त्वरित गति से चली गई कि बुलाकी को वे पैसे रखने ही पड़े। बुलाकी को वह व्यक्ति कुछ रहस्यमय कुछ संदिग्ध कुछ भयानक तो अवश्य लगा लेकिन अन्य ग्राहकों में व्यस्त हो जाने के कारण उसके दिमाग से यह बात जाती रही।
उसी दिन दोपहर तीन बजे के लगभग दो पुलिस वाले बुलाकी के पास अकड़ते हुए आये और एक मुच्छैल भयानक किस्म के आदमी का फोटो दिखाते हुए बोले, "देखो, ये आदमी तुम्हारे पास हजामत बनाने तो नहीं आया था।"
बुलाकी ने फाटो को गौर से देखा, चेहरा गलमुच्छों से इतना भरा हुआ था कि स्पष्ट रूप से नजर ही नहीं आ रहा था, हां, सिर का आकार लगभग वैसा ही था।
बुलाकी बोला, "हुजूर, चेहरे पर तो हम ध्यान नहीं दिये,लेकिन एक मूछों वाला आदमी सुबह सुबह बौहनी के वक्त आया था, वह हजामत बनवा ले गया साथ ही सिर भी घुटवा ले गया,हमारे हाथ में पांच का नोट रख कर चला गया। उसके घुटे हुए सिर की तस्वीर हो तो हम पा बता सकते हें कि वही आदमी था।"
पुलिस वाले बुलाकी पर बिगड़ गये,बोले,"तुम साले कैसे नाई हो, आदमी का चेहरा न पहचान कर खोपड़ी पहचानते हो, आईन्दा से चेहरा पहचाना करो, और स्साले गुंडे बदमाशों से घूस लेते हो." उन्होंने बुलाकी को डराया धमकाया साथ ही उसको दो डंडे जमाते हुए बोले,जानते हो वो आदमी जिले का एक नम्बरी गुंडा है,दसियों हत्याओं का इल्जाम है उसके उपर जिसकी तुमने हजामत बनाई है।"
बुलाकी बोला,"सरकार आईन्दा ऐसी गल्ती नहीं करूंगा और चेहरा देख कर उस्तरा चलाउंगा।"


समय सिखा देता है जीवन के रंग ढंग

इस घटना से बुलाकी बेहद परेशान व चिन्तित हो उठा, कस्बे से उसका जी उचट गया। उसके दिल में कस्बे से पलायन की हूक उठने लगी। इस बावत उसने जुगाड़ भी लगाना शुरू कर दिया। नतीजा यह निकला कि उक्त घटना को घटे दो माह भी नहीं बीते होंगे कि बुलाकी जी, कस्बे से कूच कर अपने जिला मुख्यालय की कचहरी के बाहर एक चबूतरे के कोने में अपनी चटाई और बक्सिया सहित जम गये।
जिला मुख्यालय का तो नजारा ही कुछ और था, फिर कचहरी के तो कहने ही क्या।
मुवक्किल, मुहर्रिर वकीलों, पेशकारों के अलावा शहर, गांव, देहात के लागों का रेला हर समय लगा रहता था। पान,सिगरेट,फल चाय,समोसा खस्ता पूड़ी वालों की दिन भर चांदी रहती थी।
चबूतरे के पास ही पीपल के नीचे तीन चार नाई और बैठते थे, उनके पास बकायदा कुर्सी,शीशा,तौलिया व हजामत वाली क्रीम आदि भी थी। उनकी आमदनी भी ठीक थी। बुलाकी ने फिलहाल अपनी चटाई व बक्सिया से ही काम चलाना शुरू किया। उसके हुनर व कारीगरी से प्रसन्न हो कर ग्राहकों की संख्या दिनों दिन बढ़ने लगी. सो जिला मुख्यालय में बुलाकी का काम बढिया चल निकला। समय का पहिया चलता रहा और कब जिला मुख्यालय में बुलाकी को चार पांच वर्ष बीत गये,पता ही नहीं चला।
इस बीच बुलाकी ने वकीलों ,बाबुओं, अफसरों के घर जाकर छुट्टी के रोज उनके बाल काटने का कार्य प्रारम्भ कर के 'डोर टू डोर' सेवा प्रारम्भ कर दी। यहां तक कि उसने दो एक जजों को भी अपने हुनर से प्रसन्न करके उनको नियमित ग्राहक बना लिया था। इस दौरान वह शहरी शिष्टाचार,सीप शउर,चुश्ती नर्ती, बोली बानी व चुतराई से भी वाकिफ हो गया था। उसका भोला देहातीपन कम होता गया और एक शहरी तेज तर्रार किस्म के आदमी के व्यवहार की नकल उसको भाने लगी। अपने उस्तरे के फन की बदौलत उसने कुछ रकम भी जोड़ ली थी सो अपने स्टैन्डर्ड में कुछ इजाफा किया और चटाई बक्सिया के बदले कुर्सी,शीशा व तौलिया वाला स्टेटस हासिल कर लिया।

मेरा मुंडन कोई न कर पायेगा

बुलाकी के राजधानी में बैठने की व्यवस्था क्या हुई कि उसने अपने मृद व्यवहार और मेहनत से आस पास के दुकानदारों,ठेले रेहड़ी पान वालों से दोस्ती गांठ ली, धन्धा भी धीरे धीरे चलने लगा,ग्राहकों की संख्या में आहिस्ता आहिस्ता बृद्धि होने लगी। बुलाकी का परिचय क्षेत्र बढ़ने लगा, राजधानी उसे रास आई। महीने दो महीने में सामूहिक घुटन्ना करवाने वालों की भीड़ चली आती थी। बुलाकी के उस्तरे को अपने करतब का भरपूर प्रदर्द्रान करने का मौका मिलने लगा। उसके अतिरिक्त कैंची का कमाल और हजामत का हूनर भी फलदायी साबित हो रहा था, लिहाजा राजधानी में बुलाकी प्रसन्न था,आमदनी भी बढ़ती जा रही थी। बुलाकी ने 'डोर टू डोर' सर्विस यहां भी जारी रक्खी। छुट्टी के दिन वह आसपास के रिहायशी इलाकों में जाकर सेवा प्रदान कर आता था, इसी सिलसिले में उसने विधायक निवास व मंत्री आवासों तक अपनी पंहुच बना ली थी। वहां पर विधायकों, नेताओं, छुटभय्यों, चमचों व क्षेत्र से आये हुए कार्यकर्ताओं समाजसेवकों, सेविकाओं, खक्ष्रधारियों, गुंडे बदमाशों, मुच्छैल हट्टे कट्टे विशालकाय महापुरूषों की भीड़ भाड़ व आवाजाही लगी रहती थी। वे लोग, दाड़ी हजामत बाल बनवाने हेतु बुलाकी की सेवायें प्राप्त कर लेते थे। इस प्रकार राजधानी में बुलाकी पूरी तौर पर फिट हो चुके थे । राजनैतिक क्षेत्र में भी उनके उस्तरे ने दबदबा बना लिया था। कारोबार भी उसने बढ़ा लिया था, लकड़ी की पक्की दुकान बना कर उसमें शीशा,कुर्सी,कलेन्डर क्रीम,तौलिये का इंतजाम करके दुकान को 'सैलून' का दर्जा दिलवाने योग्य अर्हतायें प्राप्त कर ली थी। एक दो लड़के भी सहयोगी के तौर पर रख लिये थे। कुल मिला कर बुलाकी जी राजधानी के सुपरिचित नागरिक बन गये थे,सिर्फ गांव से बच्चों को लाने की देर थी। जमीन के एक टुकड़े पर छोटी सी कुटिया बनाने की योजना भी उनके दिमाग में आकार लेने लगी थी। इस सारी उन्नति व जमजमाव के चलते बुलाकी को राजधानी में आये हुए आठ दस वर्ष हो गये थे। गांव से कस्बे को कूच करते युवा बुलाकी अब अधेड़ावस्था में पदार्पण कर चुके थे। बालों में सफेदी आ गई थी, चेहरा प्रौढ़ हो गया था, आंखों से उम्र व अनुभव की झलक नजर आने लगी थी। उस्तरा निरन्तर कार्यरत था, आये रोज उस्तरे को राजधानी के अनेकों महापुरूषों के मुंडन करने का सौभाग्य प्राप्त होता जा रहा था।
इसी क्रम में एक रोज बुलाकी के पास कालीदास रोड स्थित मंत्री आवासों में तत्काल पंहुचने का आदेश प्राप्त हुआ। हुआ यह था कि माननीय न्याय मंत्री जी की माता जी का स्वर्गवास हो गया था सो मुंडन हेतु नाई की आवश्यकता थी। बुलाकी से ज्यादा इस काम में सक्षम और कौन हो सकता था। बुलाकी ने तुरन्त इस नेक काम में सहयोग देना प्रारम्भ कर दिया। माननीय मंत्री जी के मुंडन से पूर्व अनेकों छूटभय्ये, चेले चमचे सहयोगी, शुभचिन्तक मुंडन हेतु प्रस्तुत हो गये। मंत्री जी उनकी वफादारी से प्रसन्न हुए,उनका ह्दय पसीज गया।
सेवकों के मुंडन के पश्चात अन्त में मंत्री जी मुंडन हेतु प्रस्तुत हुए। बुलाकी ने उनकी सेवा में अतिरिक्त सावधानी व सफाई से उस्तरा चलाना प्रारम्भ किया। नाम व गुण के अनुरूप मंत्री जी का सिर अन्य सिरों की अपेक्षा ज्यादा बड़ा व गोलाकार था, बुलाकी ने अभी एक तिहाई सिर घोटा ही था कि उसे यह सिर पूर्व परिचित लगा, आधा सिर घोटने के पश्चात तो वह अचानक चौंक कर कांप सा गया, यह तो वही सिर था जिसकी बदौलत कस्बे में पुलिस के डंडे खाये थे। लेकिन यह कैसे हो सकता है, कहां वह गुंडे बदमाद्रा का सिर और कंहा मंत्री जी का। नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता, मुझसे ही कोई गल्ती हो रही है,बुलाकी अजीब पेशोपेश में पड़ गया। पर सिर पहचानने में मुझसे गल्ती नहीं हो सकती चाहे कुछ भी हो जाय,यह सिर सौ फीसदी वही है। बुलाकी डरा,सहमा व आश्चर्यचकित था। किसी तरह इसी मनोदशा में उसने पूरा सिर घोटा,उसके समक्ष वही कस्बे वाला विशाल सिर सम्पूर्ण रूप से साकार हा उठा। डर व भय से बुलाकी का हाथ कांपा और मंत्री जी के कान के पास उस्तरे की हल्की खरोंच सी लगी,मंत्री जी थोड़ा क्रुद्ध से हुए उन्होंने पलट कर बुलाकी का चेहरा घूरा,इससे पूर्व कि बड़बड़ाते,झुंझलाते उनकी तीक्ष्ण सृमति ने बुलाकी को चीन्ह लिया,क्रोध के बदले चेहरे पर आत्मीयता के भाव उभरे,सेवक लोग इस बीच गुस्ताखी के लिए बुलाकी पर बरसने ही वाले थे कि मंत्री जी बोल पड़े,"अरे भाई,नाऊ जी से कोई गल्ती नहीं हुई है, हमही सिर हिला दिये थे,सो खरोच लग गई। इसके साथ ही उन्होंने एक सेवक को हिदायत दे डाली, तुरन्त एक दूसरा नाई बुला कर इनका भी मुंडन किया जाय,ये अपने गांव जवांर के आदमी हैं,ऐसे मौकों पर गांव बिरादरी के लोगों का मुंडन जरूरी होता है,माता जी की आत्मा कों शान्ति मिलेगी।'
बुलाकी बड़ी असमंजस की स्थिति में था,उसने सेवक जी से दूसरा नाई लाने हेतु मना कर दिया,और जिन्दगी में पहली बार अपने ही हाथों से अपना मुंडन करने लगा।


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Sunday, June 8, 2008

वो जो शख्स था कुछ जुदा-जुदा

जितेन ठाकुर 4, ओल्ड सर्वे रोड़,देहरादून-248001


वैनगॉर्ड के हिन्दी प्रष्ठों पर

उन्नीस सौ उन्हत्तर-सत्तर के दिन थे। हाईस्कूल के इम्तहान से फारिग होकर मैं कविताएँ लिखता और छपवाने के लिए शहर के छोटे-छोटे अखबारों के दफ्तरों के चर लगाता हुआ घूमता रहता था। उन दिनों शहर में कुल जमा चार-छ: अखबार थे। दो-दो, चार-चार पेज के छोटे-छोटे। यदि इनमें से किसी अखबार के खाली रह गए कोने में मेरी कविता छाप दी जाती तो मैं लम्बे समय तक तितलियों के पंखों पर बैठ कर फूलों पर तैरता। तब जमीन बहुत छोटी और आसमान बहुत करीब लगता था। कमीज की जेब में कविता डालकर साईकल पर उड़ते हुए धूप, बारिश और सर्दी की परवाह किए बिना जब मैं किसी अखबार के दफ्तर में पहुँचता था तो सामने बैठा सम्पादक अचानक बहुत कद्दावर हो जाता था। वो मेरी कविता के साथ लगभग वही व्यवहार करता था जो किसी रद्दी कागज के टुकड़े के साथ किया जा सकता है। मैं हताश हो जाता पर हिम्मत नहीं हारता था। दरअसल, उन दिनों दैनिक अखबार तो एक दो ही थे- बाकी सब साप्ताहिक अखबार थे। पर पता नहीं क्यों इन छोटे-छोटे अखबारों को हाथ में लेते ही भूरे-मटमैले कागजों पर छपी काली इबारतों का जादू मुझे जकड़ लेता था और मैं सम्मोहित सा उनमें समा जाता।
यही वो दिन थे जब मुझे किसी ने "वैनगॉर्ड" के बारे में बतलाया था। आधा हिन्दी और आधा अंग्रेजी का अखबार। सप्ताह में निकलने वाले इस अखबार के पहले दो पेज अंगे्रजी में और आखिरी दो पेज हिन्दी के हुआ करते थे। अलबत्ता पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को बटोरे गए विज्ञापनों से इसकी मोटाई कुछ बढ़ जाती थी और ये हमारे लिए एक बेहद खुशी का अवसर होता। इससे जहाँ एक ओर रचना छपने की सम्भावना बढ़ती वहीं दूसरी ओर विशेषांक में छपने का गौरव भी हासिल होता था। इतने छोटे आकार, नगण्य सम्भावनाओं और सीमाओं के बावजूद भी यदि वैनगॉर्ड के हिन्दी प्रष्ठों के छपकर आने की प्रतीक्षा की जाती थी तो उसके पीछे महज एक शख्स की ताकत थी और वे थे सुखवीर विश्वकर्मा उर्फ "कवि जी"। हैरानी तो ये कि यह प्रतीक्षा महज देहरादून में ही नहीं देहरादून से बाहर भी होती थी।

मशीनों की घड़घड़ाहट में

वो गर्मियों की चिलचिलाती धूप वाली एक सुनसान सी दोपहर थी जब मैं वैनगॉर्ड के दफ्तर में पहली बार पहुँचा था। पता नहीं उन दिनों सचमुच ये शहर कुछ ज्यादा बड़ा था या फिर किशोर मन के आलस्य के कारण करनपुर से कनाट प्लेस की दूरी, खासी लम्बी महसूस होती थी। जल्दी पहुँचने की कोशिश में मैने साईकिल तेज चलाई थी और अब हांफता हुआ मैं वैनगार्ड के दफ्तर के उस कोने में खड़ा था, जहाँ एक मेज के तीन तरफ कुर्सियाँ लगाकर बैठने का सिलसिला बनाया गया था। इसी के पीछे छापे खाने की चलती हुई मशीनों की घड़घड़ाहट थी, नम अंधेरे में फैली हुई कागज और स्याही की महक थी और काम कर रहे लोगों की टूट-टूट कर आती आवाजों का अबूझ शोर था।
"किससे मिलना है?" छापे खाने वाले बड़े दालाना नुमा कमरे से बाहर आते हुए एक आदमी ने मुझसे पूछा। सामने खड़ा सांवला सा आदमी पतला-दुबला और मझोले कद का था। सिर के ज्यादातर बाल उड़ चुके थे अलबत्ता मूँछों की जगह बालों की एक पतली सी लकीर खिंची हुई थी। पैंट से बाहर निकली हुई कमीज की जेब में एक पैन फंसा हुआ था और कलाई पर चमड़े के स्टैप से कसी हुई घड़ी।
""कवि जी से।'' मैंने झिझकते हुए कहा
"क्या काम है?" उन्होंने फिर पूछा
"कविता देनी है।"
"लाओ।" मैने झिझकते हुए कविता पकड़ा दी। समझ नहीं पाया कि ये आदमी कौन है। कविता पढ़ कर लौटाते हुए बोले
"कभी प्यार किया है।"
मैं शरमा गया। उन दिनों सोलह-सत्तरह साल का लड़का और कर भी क्या सकता था।
"पहले प्यार करो-फिर आना।" वो हंसे
तो यही थे सुखवीर विश्वकर्मा उर्फ कवि जी जो उस समय मेरी कल्पना में किसी भी तरह खरे नहीं उतरे थे। दरअसल वो एक ऐसा दौर था जब किसी कवि की बात करते ही दीमाग में पंत और निराला के अक्स उभर आते थे कुलीन और सम्भ्रांत। पैंट और कमीज में भी कोई बड़ा कवि हो सकता है- उस समय मेरे लिए ये सोचना भी कठिन था और फिर कवि जी तो बिल्कुल अलग, एक साधारण मनुष्य दिखाई दे रहे थे- कवि नहीं।
छापे खाने से अजीबो-गरीब कागजों पर खुद कर आए काले-गीले अक्षरों को काट-पीट कर प्रूफ रीडिंग करते हुए, सिग्रेट या बीड़ी का धुआँ उगलते हुए और मद्रास होटल की कड़क-काली चाय पीते हुए बीच-बीच में कवि जी कविता के बारे में जो कुछ भी समझाते थे- वो मेरे जैसे किच्चोर के लिए खुल जा सिम-सिम से कम नहीं था। मैं कविता लिख कर ले जाता तो कवि जी उसके भाव, बिम्ब और शब्दों पर मुझसे बात करते। गीत लिखकर ले जाता तो मात्रा और मीटर के बारे में समझाते। कवि जी ये सब बहुत मनोयोग से किया करते थे- बिल्कुल उसी तरह जैसे एक पीढ़ी, अपनी विरासत दूसरी पीढ़ी को बहुत चाव और हिफाजत के साथ सौंपती है। साहित्य के क्षेत्र में यही मेरी पहली पाठशाला थी।

देहरादून में साहित्य की पाठ्शाला

मैं ही नहीं धीरेन्द्र अस्थाना, नवीन नौटियाल, अवधेश, सूरज, देशबंधु और दिनेश थपलियाल जैसे कई दूसरे युवा लेखकों के लिए वैनगार्ड उस समय किसी तीर्थ की तरह था। सब अपनी रचनाएँ लाते और कवि जी को पढ़ाते। देहरादून के लगभग सभी लेखक-कवि कमोबेश "वैनगॉर्ड" में आया ही करते थे और वहाँ घंटों बैठा करते थे। अप्रतिम गीतकार वीर कुमार 'अधीर" और कहानी के क्षेत्र में मुझे अंगुली पकड़कर चलाने वाले आदरणीय सुभाद्गा पंत से भी मेरी पहली मुलाकात यहीं पर हुई थी। ये वैनगार्ड के मालिक जितेन्द्र नाथ जी की उदारता ही थी कि उन्होंने कभी भी इस आवाजाही और अड्डेबाजी पर रोक-टोक नहीं की। ये वो दिन थे जब कवि जी का किसी कविता की तारीफ कर देना- किसी के लिए भी कवि हो जाने का प्रमाण-पत्र हुआ करता था।
वे तरूणाई और उन्माद भरे दिन थे इसलिए हमें परदे के पीछे का सच दिखलाई नहीं देता था। पर आज सोचता हूँ तो कवि जी के जीवट का कायल हो जाता हूं। एक छोटे से छापे खाने में लगभग प्रूफ रीडर जैसी नौकरी करते हुए घर परिवार चलाना और दुनियादारी निभाना कोई सरल कार्य नहीं था। पर मैंने शायद ही कभी कवि जी को हताश देखा हो। वो जिससे भी मिलते जीवंतता के साथ मिलते। अपनी भारी आवाज को ऊँचा करके आगंतुक का स्वागत करते, बिठाते, चाय पिलाते और कभी-कभी तो मद्रास होटल का साम्बर-बढ़ा भी खिलाते थे अगर देखने को प्रूफ नहीं होते तो इतना बतियाते कि घड़ी कितना घड़िया चुकी है इसका होश न उन्हें रहता न सामने वाले को। हाँ! अलबत्ता शाम को वो कभी भी मुझे अपने साथ नहीं रखते थे। ये समय उनके पीने-पिलाने का होता था। अपने लम्बे साथ में मुझे ऐसा एक भी दिन याद नहीं आता जब उन्होंने मुझसे द्राराब की फरमाईश की है।
कवि जी के पास कलम का जो हुनर था वो उसी के सहारे अपने को इस दुनिया के भंवर से निकालने की कोशिश में लगे रहे। आर्थिक निश्चिंतता की कोशिश में ही उन्होंने पहले अपना एक अखबार निकाला था जब वो नहीं चला तो हरिद्वार में एक दूसरे अखबार में नौकरी कर ली। पर वहाँ से भी उन्हें वापिस आना पड़ा। सचमुच ये वैनगार्ड के स्वामी जितेन्द्र नाथ ही थे कि उन्होंने उज्जवल भविष्य की तलाश में जाते कवि जी को न तो जाने से रोका और न ही असफल होकर लौटने पर उन्हें दर-ब-दर होने दिया।

दूरदर्शन पर देहरादून का पहला कवि

उन दिनों की प्रतिनिधि पत्रिकाओं कादम्बिनी, माया और मनोरमा के साथ ही पंजाब केसरी और ट्रिब्यून योजना आदि में भी कवि जी की रचनाएँ छपा करती थीं। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो कवि जी ही दूरदर्शन दिल्ली पर काव्य पाठ करने वाले देहरादून के पहले कवि थे। कवि जी जिस दिन आकाशवाणी से भुगतान लेकर लौटते या फिर किसी पत्रिका से पैसे आते उनकी वो शाम एक शहंशाह की शाम होती। कुछ लोग अपने आप जुट जाते थे और कुछ को संदेश भेज कर बुलाया जाता। फिर कवि जी इस "उल्लू की पट्ठी" दुनियो को फैंक दिए गए सिग्रेट की तरह बार-बार पैरों से मसलते और तब तक मसलते रहते जब तक कि उन्हें इसके कस-बल निकलने का यकीन न हो जाता। वो न तो अपनी कमियों पर परदा डालते थे और न ही अपनी खुशियाँ छुपाते थे। पर अपनी परेशानियों का जिक्र कम ही किया करते थे। दुर्घटना में अपनी एक बेटी की मृत्यु के बाद तो जेसे वो टूट से गए थे और लम्बे समय तक सामान्य नहीं हो पाए थे। पर उन्होंने तब भी किसी की हमदर्दी पाने के लिए अपनी आवाज की खनक को डूबने नहीं दिया था अलबत्ता बेटी का जिक्र आते ही वो कई बार फफक कर रो पड़ते थे।
उन दिनों देहरादून में कवि गोष्ठियों का प्रचलन था। लगभग हर माह किसी न किसी के यहाँ एक बड़ी कवि गोष्ठी होती। स्व0 श्री राम शर्मा प्रेम, कवि जी, श्रीमन जी इन गोष्ठियों की शोभा हुआ करते थे। और भी बहुत से कवि थे जिनका मुझे इस समय स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि आदरणीय विपिन बिहारी सुमन और रतन सिंह जौनसारी के गीतों की धूम थी। जिस गोष्ठी में ये दोनों न होते वो गोष्ठी फीकी ही रह जाती। सुमन जी के वासंती गीतों की मोहक छटा और जौनसारी जी की प्रयोगधर्मिता- गोष्ठियों के प्राण थे। ये एक प्रकार से बेहतर लिखने की मूक प्रतिद्वंदिता का दौर था। रामावतार त्यागी और रमानाथ अवस्थी से अगली पीढ़ी के ऐसे बहुत से गीतकारों को मैं जानता हूँ जिन्होंने अपने एक-दो लोकप्रिय गीतों के सहारे पूरी आयु बिता दी- उनकी बाकी रचनाएँ कभी प्रभावित नहीं कर पाईं। पर बहुत आदर के साथ मैं स्व0 रमेश रंजक और रतन सिंह जौनसारी का नाम लेना चाहूँगा जिन्होंने अपनी हर रचना में नया प्रयोग किया और सफल रहे।

गोष्ठियों का शहर

बहरहाल, ऐसी ही एक गोष्ठी में मैं पहली बार कवि जी के साथ ही गया था। कविता पढ़ने की उत्तेजना और गोष्ठी के रोमांच ने मुझे उद्वेलित किया हुआ था। किसी ने नया मकान बनाया था उसी के उपलक्ष्य में गोष्ठी का आयोजन किया गया था। मकान में अभी बिजली भी नहीं लगी थी इसलिए मोमबत्तियों की रौशनी में गोष्ठी हुई थी। मैंने भी किसी गोष्ठी में पहली बार अपनी कोई रचना पढ़ी थी। निच्च्चय ही कविता ऐसी नहीं होगी कि उस पर दाद दी जा सके इसीलिए सारे कमरे में सन्नाटा छाया रहा था पर कवि जी "वाह वाह" कर रहे थे। मेरा मानना है कि कवि जी के इसी प्रोत्साहन ने मुझे लेखन से जोड़े रखा और आगे बढ़ाया।

साहित्य की दलित धारा

कवि जी ने कई बार लम्बी बीमारियां भोगीं। कुछ अपने शौक के कारण और कुछ प्राकृति कारणों से। परंतु उनमें अदम्य जीजिविषा थी। वो जब भी लौट कर अपनी कुर्सी पर बैठे- पूरी ठसक के साथ बैठे। न उन्होंने हमदर्दी चाही- न जुटाई। कवि जी न तो अपनी कमजोरियों को छुपाते थे और न ही उन पर नियंत्रण पाने की कोशिश ही करते थे। जैसा हूँ- खुश हूँ वाले अंदाज में उन्होंने अपना पूरा जीवन बिता दिया। कवि जी अपने मित्रों की उपलब्धियों से भी उतना ही खुश होते थे जितना अपनी किसी उपलब्धि से। वो हर मिलने वाले से अपने मित्रों की चर्चा बड़े चाव और गर्व से किया करते थे। वो अक्सर श्याम सिंह 'शशि", शेरजंग गर्ग, विभाकर जी, अश्व घोष, विजय किशोर मानव और धनंजय सिंह की चर्चा बहुत स्नेह और अपनत्व से करते। इन सबके लेखन पर वो ऐसा ही गर्व करते थे जैसा कोई अपने लेखन पर कर सकता है। उन्हें गर्व था कि ये सब उनके मित्र हैं। स्व0 कौशिक जी को अपना गुरु मानते थे और बातचीत में भी उन्हें इसी सम्मान के साथ सम्बोधित भी करते थे। हिन्दी साहित्य में जिन दिनों दलित चेतना की कोई सुगबुगाहट भी नहीं थी कवि जी ने शम्बूक-बध जैसी कविता लिख कर अपने चिंतन का परिचय दिया था।
'सदियों का संताप" दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह हैं, जिसकी खोज में दलित साहित्य का पाठक आज भी उस दर्ज पते को खड़खड़ाता है जो इसी देहरादून की बेहद मरियल सी गली में कहीं हैं। हिंदी साहित्य के केन्द्र में तो दलित विमर्श जब स्वीकार्य हुआ तब तक कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) वैसी ही न जाने कितनी ही रचनायें, जो बाद में दलित चेतना की संवाहक हुई, लिखते-लिखते ही विदा हो गये। मिथ और इतिहास के वे प्रश्न जिनसे हिंदी दलित चेतना का आरम्भिक दौर टकराता रहा उनकी रचनाओं का मुख्य विषय रहा। अग्नि परीक्षा के लिए अभिशप्त सीता की कराह वेदना बनकर उनकी रचनाओं में बिखरती रही। पेड़ के पीछे छुप कर बाली पर वार करने वाला राम उनकी रचनाओं में शर्मसार होता रहा। कागज का नक्शा भर नहीं है देहरादून -विजय गौड



नौकरी की सीमाओं, आर्थिक विषमताओं और खराब होती सेहत से
जूझते हुए भी वो अंत तक अर्न्तमन से कवि बने रहे।
उन्होंने क्या लिखा, कितना लिखा और उनके लिखे हुए का आज के दौर में
क्या महत्व है- ये एक अलग मूल्यांकन की बाते है। परंतु उन्होंने जो लिखा
मन से लिखा, निरंतर लिखा और और जब तक जिए लिखते ही रहे।
हरिद्वार के एक कवि सम्मेलन से लौटते हुए, सड़क दुर्घटना में मौत के बाद ही
उनकी अंगुलियों से कलम अलग हो पाई थी।
अपनी नौकरी की पहली तनख्वाह मिलने पर जब मैं उनके पास गया और
पूछा कि मैं उन्हें क्या दूँ- तो उन्होंने कहा था
"मेरा चश्मा टूटा गया है- कोई सस्ता सा फ्रेम बनवा दो।"
शोध पूरा करने के बाद जब मैंने कविता लिखने की चेष्टा की थी तो मैंने पाया
कि मैं कविता से बहुत दूर जा चुका हूँ। कवि जी को मेरा कविता लिखना
छोड़ने का दुख था। पर मेरे कहानियाँ लिखने और आगे बढ़ने से भी
वो बहुत खुश थे और गर्व अनुभव करते थे। इस बात को वो अपने मित्रों से कहते भी थे।
आज जब भी मैं कवि जी को याद करता हूँ तो मुझे रतन सिंह जौनसारी के गीत की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
मेरे सुख का बिस्तर फटा पुराना है,
जिसे ओढ़ता हूँ वो चादर मैली है,
घृणा करो या प्यार करो परवाह नहीं
ये मेरे जीने की अपनी शैली है।
सच! कवि जी ने तो जैसे इन पंक्तियों में अपने जीवन का अक्स ही ढूंढ लिया था।

Wednesday, June 4, 2008

गोरख्याणी का आतंक पिता की स्मृतियों में डरावनेपन के साथ रहा

नेपाल में एक राजा रहता था। नेपाल की मांऐ अपने बच्चों को सुनायेगी लोरिया। बिलख रहे बच्चे डर नहीं रहे होगें, बेशक कहा जा रहा होगा - चुपचाप सो जाओ नहीं तो राजा आ जायेगा।
नेपाल में चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। शासन प्रशासन का नया रूप जल्द ही सामने होगा. खबरों में नेपाल सुर्खियों में है। कौन नहीं होगा जो सदी के शुरुआत में ही जनता के संघर्षों की इस ऐतिहासिक जीत को सलाम न कहे। उससे प्रभावित न हो। जनता के दुश्मन भी, इतिहास के अंत की घोषणा करते हुए जिनके गले की नसें फूलने लगी थी, शायद अब मान ही लेगें कि उनके आंकलन गलत साबित हुए है।
नेपाली जनता 240 वर्ष पुराने राजतंत्र का खात्मा कर नये राष्ट्रीय क्रान्तिकारी जनवाद की ओर बढ़ रही है। 20 वीं सदी की क्रान्तिकारी कार्यवाहियों 1917 एवं 1949 के बाद लगातार बदलते गये परिदृश्य के साथ सदी के अंतिम दशक के मध्य संघर्ष के जनवादी स्वरुप की दिशा का ये प्रयोग नेपाली जनता को व्यापक स्तर पर गोलबंद करने में कामयाब हुआ है। तीसरी दुनिया के मुल्कों की जनता रोशनी के इस स्तम्भ को जगमगाने की अग्रसर हो, यहीं से चुनौतियों भरे रास्ते की शुरुआत होती है।
पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर राजसत्ता का वह स्वरुप जो वर्गीय दमन का एक कठोर यंत्र बनने वाला होता है, उस पर अंकुश लगे और उत्पादन के औजारों पर जनता के हक स्थापित हो, ये चिन्ता नेपाली नेतृत्व के सामने भी मौजूद ही होगी। औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया कायम हो पाये, जो गरीब और तंगहाली की स्थितियों में जीवन बसर कर रही नेपाली जनता को जीवन की संभावनाओं के द्वार खोले, ऐसी कामना ही रोजगार के अभाव में पलायन कर रहे नेपालियों के लिए एक मात्र शुभकामना हो सकती है।
नेपाल और सीमांत में सामंती झगड़ों की चपेट में झुलसती रही जनता के मुक्ति के जश्न को मैं पिता की आंखों से देखूं तो कह सकता हूं कि पिता होते तो सदियों के आतंक से मुक्त हो जाते। नेपाल गणतांत्रिक लोकतंत्र की ओर आगे बढ़ चला है। सदियों की दासता से नेपाली जनता मुक्त हुई है। लगभग 240 वर्ष पूर्व स्थापित हुआ राजशाही का आतंक समाप्त।
आतंक की परछाईयों से घिरे पूर्वजों की कथाऐं पिता को भी आतंक से घेरे रही। मां भी आतंकित ही रहती थी। मां की कल्पनाओं में ऐसे ही उभरता रहा था गोरख्याणी का दौर। गढ़वाल-कुमाऊ के सीमांत पर रहने वाले, इतिहास के उस आंतक के खात्मे पर अब भय मुक्त महसूस कर रहे होगें अपने को जिसने उन्हें बहुत भीतर तक दबोचे रखा - पीढ़ियों दर पीढ़ी। पिता ता-उम्र ऐसे आतंक के साये से घिरे रहे। गोरख्याणी का आतंक उनको सपनों में भी डराता रहा था। जबकि गोरख्याणी का दौर तो उन्होंने कभी देखा ही नहीं। सिर्फ सुनी गयी कथाये ही जब सैकड़ो लोगों को आंतक में डूबोती रही तो उसको झेलने वाले किस स्थिति में रहे होगें, इसकी कल्पना की जा सकती है क्या ?
खुद को जानवरों की मांनिद बेचे जाने का विरोध तभी तो संभव न रहा होगा। हरिद्वार के पास कनखल मंडी रही जहां गोरख्याणी के उस दौर में मनुष्य बेचे जाते रहे। लद्दू घोड़े की कीमत भी उनसे ज्यादा ही थी। लद्दू घोड़ा 30 रु में और लगान चुकता न कर पाया किसान मय-परिवार सहित 10 रु में भी बेचा जा सकता था। बेचने वाले कौन ? गोरखा फौज।
पिता का गांव ग्वालदम-कर्णप्रयाग मार्ग में मीग गदेरे के विपरीत चढ़ती गयी चढ़ाई पर और मां का बच्चपन इसी पहाड़ के दक्षिण हिस्से, जिधर चौखुटिया-कर्णप्रयाग मार्ग है, उस पर बीता। ये दोनों ही इलाके कुमाऊ के नजदीक रहे। नेपाल पर पूरी तरह से काबिज हो जाने के बाद और 1792 में कुमाऊ पर अधिकार कर लेने के बाद गढ़वाल में प्रवेश करती गोरखा फौजों ने इन्हीं दोनों मार्गों से गढ़वाल में प्रवेश किया। गढ़वाल में प्रवेश करने का एक और मार्ग लंगूर गढ़ी, जो कोटद्वार की ओर जाता है, वह भी उनका मार्ग रहा। आंतक का साया इन सीमांत इलाकों में कुछ ज्यादा ही रहा। संभवत: अपने विस्तारवादी अभियान के शुरुआती इन इलाकों पर ही आतंक का राज कायम कर आग की तरह फैलती खबर के दम पर ही आगे के इलाकों को जीतने के लिए रणनीति तौर पर ऐसा हुआ हो। या फिर प्रतिरोध की आरम्भिक आवाज को ही पूरी तरह से दबा देने के चलते ऐसा करना आक्रांता फौज को जरुरी लगा हो। मात्र दो वर्ष के लिए सैनिक बने गोरखा फौजी, जो दो वर्ष बीत जाने के बाद फिर अपने किसान रुप को प्राप्त कर लेने वाले रहे, सीमित समय के भीतर ही अपने रुआब की आक्रांता का राज कायम करना चाहते रहे। अमानवीयता की हदों को पार करते हुए जीते जा चुके इलाके पर अपनी बर्बर कार्यवाहियों को अंजाम देना जिनके अपने सैनिक होने का एक मात्र सबूत था, सामंती खूंखरी की तेज धार को चमकाते रहे। पुरुषों को बंदी बनाना और स्त्रियों पर मनमानी करना जिनके शाही रंग में रंगे होने का सबूत था। गोरख्याणी का ये ऐसा आक्रमण था कि गांव के गांव खाली होने लगे। गोरख्याणी का राज कायम हुआ।
1815 में अंग्रेजी फौज के चालाक मंसूबों के आगे यूंही नहीं छले गये लोग। 1803 में अपने सगे संबंधियों के साथ जान बचाकर भागा गढ़वाल नरेश "बोलांदा बद्री विशाल" राजा प्रद्युमन शाह। सुदर्शन शाह, राजा प्रद्युमन शाह का पुत्र था। अंग्रेजों के सहयोग से खलंगा का युद्ध जीत जाने के बाद जिसे अंग्रेजों के समाने अपने राज्य के लिए गिड़गिड़ाना पड़ा। अंग्रेज व्यापारी थे। मोहलत में जो दिया वह अलकनन्दा के उत्तर में ढंगारो वाला हिस्सा था जहां राजस्व उगाने की वह संभावना उन्हें दिखायी न दी जैसी अलकनन्दा के दक्षिण उभार पर। बल्कि अलकनन्दा के उत्तर से कई योजन दूरी आगे रवाईं भी शुरुआत में इसीलिए राजा को न दिया। वह तो जब वहां का प्रशासन संभालना संभव न हुआ तो राजा को सौंप देना मजबूरी रही। सुदर्शन शाह अपने पूर्वजों के राज्य की ख्वहिश के साथ था। पर उसे उसी ढंगारों वाले प्रदेश पर संतोष करना पड़ा। श्रीनगर राजधानी नहीं रह गयी। राजधानी बनी भिलंगना-भागीरथी का संगम - टिहरी।
खुड़बड़े के मैदान में प्रद्युमन शाह और गोरखा फौज के बीच लड़ा गया युद्ध और राजा प्रद्युमन शाह मारा गया। पुश्तैनी आधार पर राजा बनने का अधिकार अब सुदर्शन शाह के पास था। पर गद्दी कैसे हो नसीब जबकि गोरखा राज कायम है। बस अंग्रेजों के साथ मिल गया भविष्य का राजा। वैसे ही जैसे दूसरे इलाको में हुआ। अपने पड़ोसी राजा को हराने में जैसे कोई एक अंग्रेजों का साथ पकड़ता रहा। तिब्बत के पठारों पर पैदा होती ऊन और चंवर गाय की पूंछ के बालों पर टिकी थी उनकी गिद्ध निगाहें। यूरोप में पश्मिना ऊन और चँवर गाय की पूंछ के बालों की बेहद मांग थी। पर तिब्बत का मार्ग तो उन पहाड़ी दर्रो से ही होकर गुजरता था जिन पर गोरखा नरेश का राज कायम था। दुनिया की छत - तिब्बत पर वह खुद भी तो चढ़ना चाहता था।

पिता तीन तरह के लोगों से डरते रहे। डरते थे और नफ़रत करते थे। कौन थे ये तीन। गोरखे, कम्यूनिस्ट और संघी।
कम्यूनिस्टों के बारे में वैसे तो उनकी राय भली ही रही। ईमानदार होते हैं, उद्यमी भी। पर घोर नास्तिक होते हैं। पिता बेशक उस तरह के पंडिताई बुद्धि नहीं रहे जैसे आस्थाओं पर तनिक भी तर्क वितर्क न सहन करने वाले संघी। पर धार्मिक तो वे थे ही। नास्तिकों को कैसे बरदाश्त कर लें!
जाति से ब्राहमणत्व को प्राप्त किये हुए, घर में मिले संस्कारों के साथ। पुरोहिताई पुश्तैनी धंधा रहा। पर पिता को न भाया। इसलिए ही तो घर से निकल भागे। कितने ही अन्य संगी साथी भी ऐसे ही भागे पहाड छोड़कर। पेट की आग दिल्ली, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, जाने कहाँ-कहाँ तक ले गयी, घर से भागे पहाड़ के छोकरों को।
देखें तो जब अंग्रेजों का राज कायम हुआ, उसके बाद से ही शुरु हुआ घर से भागने का यह सिलसिला। गोरखा राज के बाद जब अंग्रेजों का राज कायम हुआ, गांव के गांव खाली हो चुके थे। खाली पड़े गांवों से राजस्व कहां मिलता। बस, कमीण, सयाणे और थोकदारों के तंत्र ने अपने नये राजाओं के इशारे पर गांव छोड़-छोड़कर भागे हुए पहाड़ियों को ढूंढ कर निकाला। नये आबाद गांव बसाये गये। ये अंग्रेज शासकों की भूमि से राजस्व उगाही की नयी व्यवस्था थी। फिर जब पुणे से थाणे के बीच रेल लाईन चालू हो गयी और एक जगह से दूसरी जगह कच्चे माल की आवाजाही के लिए रेलवे का विस्तार करने की योजना अंग्रेज सरकार की बनी तो पहाड़ों के जंगलों में बसी अकूत धन सम्पदा को लूटने का नया खेल शुरु हुआ। जंगलों पर कब्जा कर लिया गया। जानवरों को नहीं चुगाया जा सकता था। खेती का विस्तार करना संभव नहीं रहा। पारम्परिक उद्योग खेती बाड़ी, पशुपालन कैसे संभव होता! बस इसी के साथ बेरोजगार हो गये युवाओं को बूट, पेटी और दो जोड़ी वर्दी के आकर्षण में लाम के लिए बटोरा जा सका। जंगलों पर कब्जे का ये दोहरा लाभ था। बाद में वन अधिनियम बनाकर जंगलों के अकूत धन-सम्पदा को लूटा गया। पेशावर कांड का विद्राही चंद्र सिंह गढ़वाली भी ऐसे ही भागा था एक दिन घ्ार से बूट, पटटी और सरकारी वर्दी के आकर्षण में। पर यह भागना ऐसा भागना नहीं था कि लिमका बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में नाम दर्ज कराना है। पेट की आग को शांत करने के लिए लगायी जा रही दौड़ खाते पीते मोटियाये लोगों के मनोरंजन का पाठ तो हो भी नहीं सकती।
पिता धार्मिक थे और अंत तक धार्मिक ही बने रहे। माँ भी धार्मिक थी। ऐसी धार्मिक कि जिसके पूजा के स्थान पर शालीग्राम पर भी पिठांई लग रही है तो बुद्ध की कांस्य मूर्ति भी गंगाजल के छिड़काव से पवित्र हो रही है। माँ उसी साल गयी, जिस साल को मुझे अपनी एक कविता में लिखना पड़ा - कान पर जनेऊ लटका चौराहे पर मूतने का वर्ष। 2 दिसम्बर का विप्लवकारी वो साल - 1992। माँ 6 दिसम्बर को विदा हो गयी। 2 दिसम्बर 1992 से कुछ वर्ष पूर्व जब भागलपुर में साम्प्रदायिक दंगा हुआ था, समाचार सुनते हुए माँ की बहुत ही कोमल सी आवाज में सुना था - ये क्या हो गया है लोगों को, जरा जरा सी बात पर मरने मारने को उतारु हो जाते हैं।
दादा पुरोहिताई करते थे। पिता सबसे बड़े थे। दूर-दूर तक फैली जजमानी को निपटाने के लिए दादा चाहते थे कि ज्येठा जाये। हरमनी, कुलसारी से लेकर भगवती तक। दादा की उम्र हो रही थी। टांगे जवाब देने लगी थी। ज्येठे को भगवती भेज कर जहां किसी को पानी पर लगाना है, मंझले को भी आदेश मिल जाता कि वह कुलसारी चला जाये, जजमान को रैबार पहुँचाना है। कठिन चढ़ाई और उतराई की यह ब्रहमवृत्ति पिता को न भायी। जोड़-जोड़ हिला देने वाली चढ़ाई और उतराई पर दौड़ते हुए आखिर एक दिन दादा से ऐसी ही किसी बात पर झड़प हो गयी तो उनके मुँह से निकल ही गया - फंड फूक तै दक्षिणा ते। ऐसी कठिन चढ़ाईयों के बाद मिलने वाली दक्षिणा भाड़ में जाये। बर्तन मांज लूंगा पर ये सब नहीं करुंगा। पिता के पास घर से भागने का पूरा किस्सा था। जिसे कोई भी, खास उस दिन, सुन सकता था, जिस दिन उनके भीतर बैचेनी भरी तरंगें उछाल मार रही होतीं। 6 दिसम्बर के बाद, माँ के न रहने पर तो कई दिनों तक सिर्फ उनका यही किस्सा चलता रहा। हर आने जाने वाले के लिए किस्से को सुने बिना उठना संभव ही न रहा। शोक मनाने पहुंचा हुआ व्यक्ति देखता कि पिता न सिर्फ सामान्य है बल्कि माँ के न रहने का तो उन्हें कोई मलाल ही नहीं है। वे तो बस खूब मस्त हैं। खूब मस्त। उनके बेहद करीब से जानने वाला ही बता सकता था कि यह उनकी असमान्यता का लक्षण है। सामन्य अवस्था में तो इतना मुखर वे होते ही नहीं। बात बात पर तुनक रहे हैं तो जान लो एकदम सामान्य हैं। पर जब उनके भीतर का गुस्सा गायब है तो वे बेहद असमान्य हैं। उस वक्त उन्हें बेहद कोमल व्यवहार की अपेक्षा है। वे जिस दिन परेशान होते, जीवन के उस बीहड़ में घुस जाते जहां से निकलने का एक ही रास्ता होता कि उस दिन मींग गदेरे से जो दौड़ लगायी तो सीधे ग्वालदम जाकर ही रुके। कोई पीछे से आकर धर न दबोचे इसलिए ग्वालदम में भी न रुके, गरुड़ होते हुए बैजनाथ निकल गये। बैजनाथ में मोटर पर बैठते कि साथ में भागे हुए दोनों साथी बस में चढ़े ही नहीं और घर वापिस लौट गये।
बस अकेले ही शुरु हुई उनकी यात्रा। मोटर में बैठने के बाद उल्टियों की अनंत लड़ियां थी जो उनकी स्मृतियों में हमेशा ज्यों की त्यों रही। जगहों के नामों की जगह सिर्फ मुरादाबाद ही उनकी स्मृतियों में दर्ज रहा। जबकि भूगोल गवाह है कि गरूण के बाद अल्मोड़ा, हल्द्वानी और न जाने कितने ही अन्य ठिकानों पर रुक-रुक कर चलने वाली बस सीधे मुरादाबाद पहुंची ही नहीं होगी।
कम्यूनिस्टों का नाम सुनते ही एक अन्जाना भय उनके भीतर घर करता रहा। मालूम हो जाये कि सामने वाला कम्यूनिस्ट है तो क्या मजाल है कि उसकी उन बातों पर भी, जो लगातार कुछ सोचते रहने को मजबूर करती रही होती, वैसे ही वे यकीन कर लें। नास्तिक आदमी क्या जाने दुनियादारी, अक्सर यही कहते। लेकिन दूसरे ही क्षण अपनी द्विविधा को भी रख देते - वैसे आदमी तो ठीक लग रहा था, ईमानदार है। पर इन कम्यूनिस्टों की सबसे बड़ी खराबी ही यह है कि इन्हें किसी पर विश्वास ही नहीं। इनका क्या। न भाई है कोई इनका न रिश्तेदार। तो क्या मानेगें उसको। और उनकी निगाहें ऊपर को उठ जाती। कभी कोई तर्क वितर्क कर लिया तो बस शामत ही आ जाती थी। जा, जा तू भी शामिल हो जा उन कम्यूनिस्टों की टोली में। पर ध्यान रखना हमसे वास्ता खतम है। कम्यूनिस्ट हो चाहे क्रिश्चयन, उनकी निगाह में दोनों ही अधार्मिक थे - गोमांस खाते है। कम्यूनिस्टों के बारे में उनकी जानकारी बहुत ही उथली रही। बाद में कभी, जब कुछ ऐसे लोगों से मिलना हुआ तो अपनी धारणा तो नहीं बदली, जो बहुत भीतर तक धंस चुकी थी, पर उन व्यक्तियों के व्यवहार से प्रभावित होने के बाद यही कहते - आदमी तो ठीक है पर गलत लोगों के साथ लग गया। धीरे-धीरे इस धारणा पर भी संशोधन हुआ और कभी कभी तो जब कभी किसी समाचार को सुनकर नेताओं पर भड़कते तो अपनी राय रखते कि गांधी जी ने ठीक ही कहा था कि ये सब लोभी है। इनसे तो अच्छा कम्यूनिस्ट राज आ जाये। गांधी जी के बारे में भी उनकी राय किसी अध्ययन की उपज नहीं बल्कि लोक श्रुतियों पर आधारित रही। आजादी के आंदोलन में गांधी जी की भूमिका वे महत्वपूर्ण मानते थे। उस दौर से ही कांग्रेस के प्रति उनका गहरा रुझान था। लेकिन इस बात को कभी प्रकट न करते थे। जब वोट डालकर आते तो एकदम खामोश रहते। किसे वोट दिया, हम उत्सुकतवश पूछते तो न माँ ही कुछ ज़वाब देती और न ही पिता। वोट उनके लिए एक ऐसी पवित्र और गुप्त प्रार्थना थी जिसको किसी के सामने प्रकट कर देना मानो उसका अपमान था। मतदान के नतीजे आते तो भी नहीं। हां, जनसंघ्ा डंडी मारो की पार्टी है, ठीक हुआ हार गयी, समाचारों को सुनते हुए वे खुश होते हुए व्यक्त करते। गाय बछड़े वाली कांग्रेस तक वे उम्मीदों के साथ थे। आपातकाल ने न सिर्फ कांग्रेस से उनका मोह भंग किया बल्कि उसके बाद तो वे राजनीतिज्ञों की कार्यवाहियों से ही खिन्न होने लगे। अब तो कम्यूनिस्ट राज आना ही चाहिए। कम्यूनिस्ट तंत्र के बारे में वे बेशक कुछ नहीं जानते थे पर अपने आस पास के उन लोगों से प्रभावित तो होते ही रहे जो अपने को कम्यूनिस्ट भी कहते थे और वैसा होने की कोशिश भी करते थे।
नेपाल में बदल रहे हालात पर उनकी क्या राय होती, यदि इसे उनकी द्विविधा के साथ देखूं तो स्पष्ट है कि हर नेपाली को गोरखा मान लेने की अपनी समझ के चलते, वे डरे हुए भी रहते, पर उसी खूंखार दौर के खिलाफ लामबंद हुई नेपाली जनता के प्रति उनका मोह भी उमड़ता ही। जब वे जान जाते उसी राजा का आतंकी राज समाप्त हो गया जिसके वंशजों ने गोरख्याणी की क्रूरता को रचा है तो वे निश्चित ही खुश होते। बेशक, सत्ता की चौकसी में जुटा अमला उन्हें माओवादी कहता तो वे ऐसे में खुद को माओवादी कहलाने से भी परहेज न करते।

Sunday, May 25, 2008

कविता का भूगोल

(कविताओं में स्थानिकता भाषा और भूगोल दोनों ही स्तरों पर दिखायी दे तो छा रही एकरसता तो टूटती ही है। महेश चंद्र पुनेठा ऐसे ही कवि है जिनके यहां पहाड़ अपने पूरे भूगोल के साथ मौजूद है। इधर के युवा कवियों में महेश की यह विशिष्टता ही उसकी पहचान बना रही है। इस युवा कवि की कविताओं को वागर्थ, कृति ओर, कथादेश आदि महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में पढ़ने का अवसर समय समय पर मिलता रहा है। कविताओं के अलावा महेश पुस्तक-समीक्षा लेखन में भी सक्रिय हैं। गंगोलीहाट, पिथोरागढ़ में रहने वाले महेश चंद्र पुनेठा विद्यालय में शिक्षक हैं। महेश की ताजा कविताओं को प्रकाशित करते हुए हमें खुशी हो रही है।)


महेश चंद्र पुनेठा


सिंटोला


बहुत सुरीला गाती है कोयल
बहुत सुन्दर दिखती है मोनाल
पर मुझे
बहुत पसंद है - सिंटोला

हां, इसी नाम से जानते हैं
मेरे जनपद के लोग
भूरे बदन, काले सिर
पीले चोंच वाली उस चिड़िया को
दिख जाती है जो
कभी घर-आंगन में दाना चुगते
कभी सीम में कीड़े मकोड़े खाते
कभी गाय-भैंसों से किन्ने टीपते
तो कभी मरे जानवर का मांस खींचते

या जब हर शाम भर जाता है
खिन्ने का पेड़ उनसे

मेरे गांव की पश्चिम दिशा का
गधेरा बोलने लगता है उनकी आवाज में

बहुत भाता है मुझे
चहचहाना उनका एक साथ
दबे पांव बिल्ली को आते देख
सचेत करना आसन्न खतरे से
अपने सभी साथियों को कर लेना इकट्ठा
झपटने का प्रयास करना बिल्ली पर

न सही अधिक,
खिसियाने को विवश तो कर ही देते है वे
बिल्ली को।



गमक


फोड़-फाड़कर बड़े-बड़े ढेले
टीप-टापकर जुलके
बैठी है वह पांव पसार
अपने उभरे पेट की तरह
चिकने लग रहे खेत पर

फेर रही है हाथ
ढांप रही है
सतह पर रह गये बीजों को

जैसे जांच रही हो
धड़कन

गमक रहा है खेत और औरत।


सूचना: हमारे साथी राजेश सकलानी इधर एक श्रृखंला शुरु कर रहे हैं। जो किन्हीं भी दो कवियों की एक ही विषय वस्तु को लेकर लिखी गयी कविताओं पर केन्द्रित है। कविताओं पर उनकी टिप्पणी भी होगी। बकोल राजेश सकलानी, "ये कविताएं तुलना के लिए एक साथ नहीं रखी जायेगीं। दो भिन्न कविताओं में एक से विषय या बिम्ब या वस्तु कौतुहल तो जगाते हैं। रचनाकारों के मस्तिष्क में कैसे भिन्न किस्म की डालें विकसित होती हैं ? कुछ भिन्न किस्म के पत्ते, कुछ भिन्न किस्म की फुनगियां विकसित होती हैं। कवि की अपनी निजता साफ तरह से निकल कर आती हैं। रचना का जादू चमक उठता है। इस तरह की भिन्न कविताओं को आमने-सामने देखकर।"

Saturday, May 24, 2008

भाषा संवाद का एक माध्यम है

(भाषा का सीधा-सीधा संबंध साहित्य से है और साहित्य वही जो हमारे दैनिक जीवन को सम्प्रेष्रित करे। भाषा पर चंद्रिका के विचार यहां इस बहस को जन्म दे रहे है कि साहित्य के सरोकार क्या है ? उसका जन जीवन से क्या लेना देना है ? चंद्रिका युवा है। गम्भीरता से विचार करते हैं। दखल की दुनिया, उनके द्वारा जारी ब्लाग इस बात का गवाह। हिन्दी रचनाजगत और रचनाकारों से संवाद की उनकी पहल का स्वागत है।)


चंद्रिका - 09766631821



मेरे कुत्ते ने आज दूध नहीं पिया!
वह गोश्त चाह रहा था!
पर उसका गोश्त मांगना।
परसों मेरी बेटी के झींगा मछली मांगने जैसा नहीं था।
बेटी - बेटी थी।
कुत्ता - कुत्ता था।
भाषा की इस बहस में अभी तक की प्रविष्टियाँ बतौर साहित्यकार आयी है। भाषा का मतलब सम्प्रेषणियता से ही है पर सिर्फ़ सम्प्रेषणियता नहीं। सम्प्रेषणियता से भी ज्यादा जरूरी होता है उसका भाव। साहित्य के अर्थ में ये मायने और भी बढ़ जाते हैं। भाषा में भावनिहित अर्थ ही सम्प्रेषक के मायने को सही अर्थों में प्रेषित करता है। क्योंकि भाषायी प्रभाव मूलत: मनोवैज्ञानिक तरीके से परिलक्षित होता है। एक ही भाषा में बोली गयी बात अपने-अपने सच का एक पाठ रचती है।

जैसे सद्दाम को हुई फ़ांसी। सद्दाम हुए कुर्बान। या, अफजल की फ़ांसी टली। अफ़जल को फिर बख्सा गया। या, उत्तराखन्ड में पत्रकार प्रशांत राही की गिरफ्तारी पर आये समाचारों की भाषा। या, दिन-प्रतिदिन के अखबारों की भाषा को आप देख सकते हैं। झूठ कौन बोल रहा है? सम्प्रेषणियता कहाँ नहीं हो रही है? पर एक ही समाचार में एक ही भाषा में छिपे भाव अलग-अलग हैं।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजी हमारे यहां भी और पूरी दुनिया के स्तर पर भी रूलिंग क्लास की भाषा बन चुकी है। जिसको लेकर अक्सर हिन्दी प्रेमी लोग गालियाँ दिया करते हैं। यहां इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजी भाषा का विस्तार सम्राज्य विस्तार की प्रक्रिया है और इसी के साथ ही संभव हुआ है। जो आज प्रत्यक्ष रूप में बेशक न दिखायी दे रहा हो पर परोक्ष रूप में मौजूद है। और अंग्रेजी उसकी सहायता कर रही है। परन्तु यहां यह भी देखना है कि जो चिन्तन अंग्रेजी में हुआ है वैसा अन्य भाषा में नही है, क्यों ? कारण स्पष्ट है, यहाँ चिन्तन का अर्थ किसी भाषा की लेखनी से ही नहीं है बल्कि उस समाज, जिसकी यह भाषा है, दर्शन से भी है। भाषा का सीधा-सीधा सम्बंध उस समाज से है जिसमे वह बोली जा रही है, सोची जा रही है होती है। अब हिन्दी को ही लें हिन्दी भाषी समाज में या कहें मुख्यधारा के भारतीय समाज में आध्यात्म वादी दर्शन इतना हावी रहा है कि वैज्ञानिक तरीके से बहुत कम सोचा गया। यानि मानवीय समस्या का हल मानव समाज से दूर जाकर परलोक में खोजने की कोशिश की गयी। जबकि ये अपने आप में स्पष्ट है कि दुनिया की 1/6 जनसंख्या होने के बावजूद भी हमने रोशनी के लिये ढिबरी तक नहीं बनायी।
भाषा का निर्माण एवं विकास उत्पादन और उत्पाद की उपयोगिता पर भी निर्भर करता है। जब हमने रेलगाड़ी नहीं बनायी तो उसे लोह चक वाहिनी कहने की जिद कैसा हास्य पैदा करती है, यह किसी से छुपा नहीं है। फिर भी चुटिया धारी मानसिकता ऐसी ही जिद के साथ होती है, यह भी हर कोई जानता ही है। स्पष्ट है कि उत्पादन के महत्व पूर्ण रूप में ही भाषा का विकास निर्भर करता है। यदि किसी समाज में खोज, निर्माण, अविष्कार अधिक होगा, मूल रूप से उसी भाषा में उनका नामकरण किया जायेगा। इसके बाद भारतीय भाषा संस्थान के अलसाये हुए लोग भले ही कम्प्युटर को संगणक, माउस को चूहा कहते रहे। उससे सिर्फ उनकी आत्मतुष्टि ही हो सकती है पर उस शब्द या भाषा की स्थापना नहीं।
भाषा के विकास के लिये मौलिक चिंतन, शोध, अविष्कार निर्माण की जरूरत होती है। फिर भारत जैसे बहुभाषी समाज में हिन्दी भाषा के लोग अन्य भारतीय भाषाओं को ही सीखने की जहमत नहीं उठाना चाहते। तेलगू के बरबर राव के अलावा हिन्दी पाठक तेलगू के ही कितने अन्य कवि लेखक को जानते है? यही हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान का वर्चस्व है। यही कारण है कि हिन्दी के कुछ विद्वान हिन्दी को दुनिया की दूसरे नम्बर पर बोली जाने वाली भाषा और हिन्दू को सबसे बडी जनसंख्या और हिन्दोस्तान को देश का सबसे बडा और गर्व से लिया जाने वाला नाम मानते है। इस बात का भी कई लोगों को मलाल है कि बांगला साहित्य में पाठक हिन्दी साहित्य के पासंग बराबर नहीं है। अरे भई बांगला के लेखक कवि अपनी कलम सिर्फ दिल्ली में या कलकत्ता में बैठ कर कागज पर नही उतारते बल्कि वे खुद सडकों पर भी उतरते हैं, जनता के लिये। नंदीग्राम के मसले पर इसे स्पष्ट देखा जा सकता है।
हमारे गांव में लोगों को यह नहीं पता है कि प्रेमचद के बाद भी कहानी-वहानी लिखि गयी या, लिखी जा रही है। वे नहीं जानते उदय प्रकाश कौन है ? या हिन्दी में कौन-कौन लेखक हैं ? प्रेम चंद को इसलिये जानते हैं क्योंकि जिस क्लास तक वे पढते हैं, प्रेमचंद की पूस की रात या कफ़न पढा ही दी जाती। पर बंगला के साथ यह नहीं है। आज के उपभोक्ता वादी युग में जहा एक खास संस्क्रिति के विकास और बचाव के लिये पूरा संचार माध्यम जुटा है लेखक जनता से जुडकर नही लिखेगा या उसकी लेखनी में जन समस्यायें नहीं होगी, तो पाठक कैसे उन्हें अपनी रचना समझेगा ? जब तक रचनाओं में पात्र के रुप में वह खुद नही होगा या मह्सूस नहीं करेगा तब तक आप क्या उम्मीद करते है ?
इस बात का कोई मायने नहीं है कि फैलती संचार माध्यमों की व्यवस्था साहित्य के विकास में बाधक है। विदेशों में संचार माध्यम हमसे कमजोर नही हैं पर साहित्य पढना भी इस तरह से बंद नही हुआ है। असल बात है कि सामाजिक स्थितियाँ विकट होने के बावजूद भी हिन्दी भाषा में सिर्फ शिल्प के स्तर पर गुल खिलाये जाते रहे हैं। गरम कोट पहन कर आदमी विचार की तरह कोरे कागजों पर चल रहा होता है।

Thursday, May 22, 2008

भाषा और बाजार

(भाषा के सवाल पर तेलगु कवि वरवर राव के वक्तव्य के विस्तार में कथाकार नवीन नैथानी की लिखित प्रतिक्रिया प्राप्त हुई जिसको यहां प्रस्तुत करते हुए पाठकों से अनुरोध है कि नवीन नैथानी द्वारा छुए गये बिन्दु, हिन्दी भाषा का वर्तमान स्वरूप और बाजार की भूमिका पर अपनी विस्तृत राय के साथ उपस्थित हों। यदि संभव हो तो मेल करें। mail i d : vggaurvijay@gmail.com आपकी महत्वपूर्ण राय को पाठकों तक पहुंचाने में हमें प्रसन्नता होगी।
नवीन नैथानी पेशे से भौतिक विज्ञान के व्याख्याता हैं। राजकीय महाविद्यालय, डाकपत्थर, देहरादून में पढ़ाते हैं। उनकी कहानियों का अपना एक पाठक वर्ग है। उनके लेखन की विश्वसनियता के चिन्ह को रमाकांत स्मृति सम्मान और कथा सम्मान के रूप में पाठक देख सकते हैं।)

नवीन नैथानी, 09411139155 -

भाषा के विभिन्न स्वरूपों में जन भाषा और राजभाषा की स्पष्ट विभाजक रेखा इतिहास में हम देख सकते हैं। राजभाषा मूलत: सत्ता के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए एक अभेद्य दुर्ग के रुप में गढ़ी गयी। व्याकरण की नियमबद्ध निर्मितियों में अभिव्यक्तिको बांधने की कोशिश को आप क्या कहेंगें ?
व्हां संवेदना के लिए स्थान नहीं है, जो सुनना है उसके विशेष अर्थ पर जोर है और जो अप्रिय है उसे व्याकरण निषिद्ध घोषित करते आये हैं। जन भाषा में कुछ भी अस्वीकार्य नहीं है, राजभाषा (इसे व्याकरणनिष्ठ भाषा भी पढ़े) में जनता द्वारा बहुत कुछ कहा गया दोषपूर्ण संरचना के खाते में डाल दिया जायेगा।
बहरहाल, वर्चस्व की इस लड़ाई को हम कानून की भाषा के रुप में सबसे सही तरीके से जान सकते हैं। अदालतों की भाषा एक विशेष कौशल की मांग करती है जो सिर्फ वकीलों के पास होता है। आप अपनी पूंजी उनके हवाले कीजिए और उनसे कानून की भाषा लीजिए। यह न्याय के इतिहास पर दृष्टि डालने के लिए एक सही प्रस्थान बिन्दु हो सकता है। बीसवीं शताब्दी का प्रख्यात दार्शनिक वाइट्जैस्टीन जब भाषा (उसका आशय निश्चित रूप से इसी भाषिक व्याकरण की तरफ है) की सीमाओं की तरफ संकेत करता है तो वह मनुष्य की अभिव्यक्ति की क्षमताओं पर शंका नहीं उठा रहा है, वह अभिव्यक्ति की असंख्य संभावनाओं को ही चिन्हित कर रहा है, जो दुर्भाग्य से, व्याकरण की परिधि के बाहर है।
इस भाषिक वर्चस्व का एक अन्य उदाहरण हम बाजार की भाषा के रूप में देखते हैं। जन भाषा को किसी रणभेरी की जरुरत नहीं। लेकिन बाजार की भाषा को है। वह व्याकरण (सत्ता) और जन भाषा के बीच अपने संघ्ार्ष से एक नयी ही भाषा रचने के प्रयास में दिखायी पड़ता है। दरअसल यह निर्माण की नहीं बल्कि सत्ता के वर्चस्व की प्रक्रिया है।
पुस्तकों के प्रकाशन को ही लें। यह एक जाना माना तथ्य है कि हिन्दी अब भारतीय संदर्भ में एक बाजार-भाषा में तबदील हो चुकी है। बांग्ला, मराठी, मलयालम जैसी अन्य भारतीय भाषाओं में लिखा गया साहित्य जिस तरह से उन भाषा-भाषियों के बीच खरीदा जाता रहा है, हिन्दी का साहित्य उनके पासंग में भी नहीं है। इधर कुछ वर्षों से हिन्दी में बड़े प्रकाशन गृहों से अंग्रेजी के उपन्यासों के अनुवाद अच्छी खासी तादाद में छप रहे हैं। क्या यह स्थिति अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी है ? इस प्रश्न का जवाब, मुझे उम्मीद है, मेरी शंकाओं को दूर करने में सहायक ही होगा।

Wednesday, May 14, 2008

देश जो कि बाज़ार है

(मानवीय मनोभावों को बदलते मौसम के साथ व्याख्यायित करने में समकालीन हिन्दी कविता ने जीवन के कार्य व्यापार के अनेकों संदर्भों से अपने को समृद्ध किया है। कवि दुर्गा प्रसाद गुप्त की प्रस्तुत कवितायें ऐसी ही स्थितियों को रेखांकित करती हैं।

समकालीन रचना जगत में दुर्गा प्रसाद गुप्त जहॉं एक ओर अपनी सघन अलोचकीय दृष्टि के लिए जाना पहचाना नाम है, वहीं सुक्ष्म संवदनाओं से भरी उनकी कविताऐं एक प्रतिबद्ध रचनाकार के रचनात्मक सरोकारों का साक्ष्य हैं। वर्तमान में "हिन्दी उर्दू हिन्दुस्तानी" जैसे विषय से जूझ रहे दुर्गा प्रसाद गुप्त केन्द्रीय विश्वविद्यालय जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिन्दी के प्रोफसर हैं। हाल ही में "आस्थाओं का कोलाज" रामशरण जोशी के लेखों की प्रकाशित पुस्तक में सम्मिलित आलेखों का चयन और सम्पादन दुर्गा प्रसाद गुप्त ने किया है। इसके अलावा "आधुनिकतावाद", "अपने पत्रों में मुक्तिबोध", "संस्कृति का अकेलापन" उनकी अन्य प्रकाशित कृतियां हैं। कविता संग्रह "जहां धूप आकार लेती है" उनकी प्रकाशनाधीन कृति है।
)



कविता का बसंत


जाड़े के दिनों की तरह बसंत के दिन उदास नहीं होते
खिड़की के बाहर कुहासा नहीं होता
धूप आती-जाती-सी नहीं लगती, और न
जाडे वाली बारिश के दिनों की तरह
गलियों में कीच और ठंड होती है, पर
जाडे के दिनों में घर में कैद, चुप और खिन्न लोगों के बारे में
सोचती हैं वह लड़की, कि
बारिश और जाडे की नमी ने ही उसके भीतर चाहत पैदा की है बसंत की
वह बसंत की कामना बाहर नहीं, अपने भीतर करती है, और
एक दिन अपनी गर्म साँसों में पाती है, कि
बसंत अपनी सहजता में निस्पंद लहलहा रहा है उसके भीतर
किसी सुदंर की सृष्टि करता हुआ।



पागल होना ज़रूरी है


जो सहना नहीं जानते, वे पागल होते हैं, और
जो पागल होते हैं, वे ही सच को भी जानते हैं
सहने की हद तक जब कोई
किसी सच के खिलाफ किसी झूठ को सच बता रहा होता है
पागल उस सच को नहीं, झूठ को भूलना चाह रहा होता है
वह जानता है कि जो अधूरे पागल हैं वे पागलखाने के बाहर हैं, और
जो पूरे हैं वे पागलखाने के अंदर, पर
पागलखाने के बाहर रहना भी एक दूसरे को धोखा देना ही है

क्योंकि-
जिस देश में पागलखाने नहीं बढ़ते
वहाँ सच की उम्मीद भी नहीं बढ़ती।



देश जो कि बाज़ार है


बाज़ार चीज़ों को खरीदता और बेचता ही नहीं है
वह चीज़ों के साथ हमारे आत्मीय सम्बंधों को भी परिभाषित करने लगा है
वह चाहता है कि उसकी तिज़ारत में हमारे सुख-दु:ख भी शामिल हों
ताकि हमें भी लगे कि बाज़ार हमारे साथ और हमारे ही लिए हैं

बाज़ार ने हमें कुछ सिखाया हो या नहीं
कम-से-कम चीज़ों का उपभोग करना तो सिखा ही दिया है
जिस तरह फिल्मों ने हमें कम-से-कम नाचना गाना तो सिखा ही दिया है
इसीलिए बाज़ार के 'लाइव शो" में बदहाली और खुशहाली सब-
'रीमिक्स" हो नाचती हैं देश के लिए,
देश जो कि अब बाज़ार है।

Thursday, April 24, 2008

चाट पकोड़ी का स्वाद भी लोक आचरण की तस्वीर को सघन करता है

("रेलगाड़ी" सभी वय के लोगों को आकर्षित करती है लेकिन क्या चीज़ है जो इसको विशिष्ट छवि देती है ? यह एक बच्चे की आँखों से अनुभव किया जा सकता है। इंजन की वजह से इसका खिसकना संभव होता है। इस शब्द की वजह से रेल कितनी सरल और सुलभ लगने लगती है। रंगों का जिक्र और हिलने की क्रिया पूरी प्लेटफार्म की हलचल को प्रकाशित करती है। और हाँ, चाट पकोड़ी का स्वाद भी लोक आचरण की तस्वीर को सघन करता है. - राजेश सकलानी )

सौरभ गुप्ता, देहरादून

रेलगाड़ी

छुक्क छुक्क करती रेलगाड़ी आई
अपने पीछे कई डब्बे लाई
पटरी पर यह चलती हरदम
पर इंजन बिना कहीं न खिसके

काला था इंजन, सफेद थे डब्बे
डब्बों में थे रंग-बिरंगे लोग हिलते-डुलते
छुक्क छुक्क जब यह चलती
दूर तक सुनायी देती आवाज इसकी
प्लेटफार्म में धीरे हो जाए
स्टेशन में चाट पकौड़ी खाए
फिर धीरे-धीरे रफ्तार बढाए।

Friday, April 18, 2008

डॉ0 विजय दीक्षित की कविता


(डॉ0 विजय दीक्षित गोरखपुर में रहते हैं। लखनउ से निकलने वाली मासिक पत्रिका ''चाणक्य विचार"" में लगातार लिखते हैं। बहुत सहज, सामान्य और मिलनसार व्यक्ति हैं। उनके व्यक्तित्व की सहजता को हम उनकी रचनाओं में भी देख सकते हैं। यहॉं प्रस्तुत है उनकी कविता, जो ई-डाक द्वारा हमें प्राप्त हुई थी।)

तपन

बहा जा रहा था नदी में घड़ा

तभी एक कच्चे घड़े ने ईर्ष्यालु भाव से पूछा

क्यों इतना इठला रहे हो ?

तैरेते हुए घड़े ने कहा,

मैंने सही थी आग की तपन

चाक से उतरने के बाद

तप कर लाल हुआ था,

मुझे बेचकर भूख मिटाई कुम्हार ने

ठंडा पानी पीकर प्यास बुझाई पथिक ने

मुझमें ही रखा था मक्खन यशोद्धा ने कृष्ण के लिए

अनाज को रखकर बचाया कीड़े-मकौड़ों से गृहस्थ ने

अनाज से भरकर सुहागिन के घर मै ही तो गया था।

अन्तिम यात्रा में भी मैने ही तो निभाया साथ

पर तुम तो डर गये थे तपन से,

कहते हुए घड़ा चला गया बहती धार के साथ

अनंत यात्रा पर

और कच्चा घड़ा डूब गया नदी में

नीचे और नीचे।

डॉ विजय दीक्षित

मो0 । 9415283021

Monday, April 14, 2008

नेपाल में एक राजा रहता था



नेपाल में एक राजा रहता था. नेपाल की मांऐ अपने बच्चों को सुनायेगी लोरिया। बिलख रहे बच्चे डर नहीं रहे होगें, बेशक कहा जा रहा होगा - चुपचाप सो जाओ नहीं तो राजा आ जायेगा।
खबरों में नेपाल सुर्खियों में है। कौन नहीं होगा जो सदी के शुरुआत में ही जनता के संघर्षों की इस आरम्भिक, ऐतिहासिक जीत को सलाम न कहे। उससे प्रभावित न हो। जनता के दुश्मन भी, इतिहास के अंत की घोषणा करते हुए जिनके गले की नसें फूलने लगी थी, शायद अब मान ही लेगें कि उनके आंकलन गलत साबित हुए है। 240 वर्ष पुराने राजतंत्र का खात्मा कर नये राष्ट्रीय क्रान्तिकारी जनवाद की ओर बढ़ती नेपाली जनता को उनकी जीत की खुशी क पैगाम देना चाहता हूं। 20 वीं सदी की क्रान्तिकारी कार्यवाहियों 1917 एवं 1949 के बाद लगातार बदलते गये परिदृश्य के साथ सदी के अंतिम दशक के मध्य संघर्ष के जनवादी स्वरुप की दिशा का ये प्रयोग नेपाली जनता को व्यापक स्तर पर गोलबंद करने में कामयाब हुआ है। तीसरी दुनिया के मुल्कों की जनता रोशनी के इस स्तम्भ को जगमगाने की अग्रसर हो, यहीं से चुनौतियों भरे रास्ते की शुरुआत होती है। पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर राजसत्ता का वह स्वरुप जो वर्गीय दमन का एक कठोर यंत्र बनने वाला होता है, उस पर अंकुश लगे और उत्पादन के औजारों पर जनता के हक स्थापित हो, ये चिन्ता नेपाली नेतृत्व के सामने भी मौजूद ही होगी। औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया कायम हो पाये, जो गरीब और तंगहाली की स्थितियों में जीवन बसर कर रही नेपाली जनता को जीवन की संभावनाओं के द्वार खोले, ऐसी कामना ही रोजगार के अभाव में पलायन कर रहे नेपालियों के लिए एक मात्र शुभकामना हो सकती है। भरत प्रसाद उपाध्याय मेरा मित्र है, जो नेपाली मूल का है। चुनाव के बाद नेपाल से मिल रही सूचनाओं में ऐसी ही उम्मीदों के साथ है ढेरों अन्य नेपाली मूल के तमाम भारतीय। अपने जनपद देहरादून के बारे में कहूं तो ऐसे ढेरों लोगों ने ही उसे आकार देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। वे भी जो कुछ दिनों पहले तक सूचना तंत्र के द्वारा फैलायी जा रही खबरों, जिनमें नेपाल के जन आंदोलन को आतंकवाद की संज्ञा दी जाती रही, अब उम्मीदों के साथ देख रहे हैं। नेपाल के वर्तमान परिदृश्य पर पिछले दो दिनों से लिखने का मन था, जो कुछ लिखने लगा हूं वह अवांतर कथाओं के साथ विस्तार लेता जा रहा है। उम्मीद है कुछ दिनों में ही पूरा कर पाऊंगा अब। तब तक नेपाल की स्थिति भी काफी साफ हो ही जायेगी।

Friday, April 11, 2008

क्या है मुख्यधारा, कैसा है उसका यथार्थ


अस्मिता साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) : अध्यक्षीय भाषण (ओमप्रकाश वाल्मीकि)
(12 एवं 13 अप्रैल 2008 को 28 वां अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में सम्पन्न होने जा रहा है। हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि कार्यक्रम की अध्यक्ष है। उनके अध्यक्षीय भाषण को संपादित रुप में, हम अपनी पूर्व घोषणा के मुताबिक प्रस्तुत कर रहे है।)


प्रिय भाईयों और बहनों ,
अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, 2008 का अध्यक्षता पद देकर जो सम्मान और प्रेम, विश्वास आपने मेरे प्रति दिखाया है, उसके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूं। इस क्षण मुझे अपने दो ऐसे मित्रों की यादें आ रही हैं उनका साहित्य हमारी धरोहर बन कर रह गया है। अरुण काले की कविताओं का मैंने जिस अपनेपन से हिन्दी अनुवाद किया था, काश उसे पुस्तक रुप में वे देख पाते तो सबसे ज्यादा खुशी मुझे होती। दूसरा नाम है भुजंग आश्रम का। जिनमें मैं प्रत्यक्ष कभी मिला नहीं। सिर्फ फोन पर ही बातें होती थी। इन दोनों कवियों को मैं सलाम करता हूं।
अस्मितादर्श साहित्य का यह सम्मेलन चंद्र पुर में सम्पन्न हो रहा है। मेरे लिए यह दोहरी खुशी का दिन है। पहला यह कि अस्मितादर्श पत्रिका के माध्यम से मराठी दलित साहित्य ने जो एक मुकाम हांसिल किया और अपनी विशिष्टता स्थापित की वह ऐतिहासिक महत्ता रखती है। इस पत्रिका ने अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है। पत्रिका के विशिष्ट आयोजन की अध्यक्षता करना मेरे लिए गौरव की बात है।
आज इस मंच से बोलते हुए मैं अपने उत्तरदायित्व के प्रति और अधिक सजगता, जागरुकता, प्रतिबद्धता महसूस कर रहा हूं। दलित साहित्य और दलित आंदोलन की अनुगूंज आज सिर्फ महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है। बल्कि ये चिंगारी जो महाराष्ट्र से शुरु हुई थी, अब आग बन चुकी है। हिन्दी प्रांतों से लेकर पंजाब, हरियाणा, गुजरात, दक्षिण भारत, दिल्ली, बंगाल में फैल चुकी है। आज दलित साहित्य पूरे विश््रव में मानवीय संवेदना का पक्षधर बनकर अपनी पक्षधर बनकर अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध कर चुका है। बाबा साहेब डा। अम्बेडकर के जीवन दर्शन से ऊर्जा लेकर दलित साहित्य भारतीय अस्मिता की पहचान बन चुका है।
अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन की रचनात्मकता भविष्य का निर्माण करेगी। सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि को विकसित करने वाले कार्यक्रम लेखन, वाचन, व्याख्यान, समाज को एक नयी दृष्टि देगी। क्योंकि अस्मितादर्श हमेशा मनुष्य की अस्मिता को ही सर्वोपरि मानता है। उसके केन्द्र में मनुष्य है।
धार्मिक आडम्बरों, कर्मकाण्डों, अंधविश्वासों, अनैतिक जीवन मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष का आगाज सुनायी पड़ता है। इस क्रांतियुग के हम साक्षी हैं। हमारा एक-एक शब्द विषमता, शोषण, प्रताड़ना की आग से तपकर निकला है। हमारी लड़ाई उससे कहीं आगे जाती है। दलित साहित्य ने साहित्य को कलावाद, तत्वज्ञान, दार्शनिकता जैसे छद्म और भ्रमित करने वाले साहित्यिक, शास्त्रीय, काव्य शास्त्र से बाहर निकाला है। जीवन मूल्यों और सौन्दर्यबोध को एक दूसरे से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति विकसित की है। किसी भी कृति का मूल्यांकन और उसकी गुणवत्ता उसके आकार, उसकी शास्त्रीय भाषा, उसकी दार्शनिकता के आधार पर नहीं की जा सकती है। बल्कि उसकी अंत:चेतना, उसके आशय के आधार पर होनी चाहिये।
'जान डयुई" ने अपनी पुस्तक 'आर्ट एज एक्सपीरियंस" में ब्रेडले के एक निबंध का हवाला देते हुए कहा था कि 'विषय" साहित्य का बाहय तत्व है। जबकि 'अंतर्वस्तु" अंत:तत्व। विषय की व्यापकता पर जोर देते हुए डयुई ने इसे स्वीकार किया है। जो रचनाकार के अनुभवों से जुड़कर अंतर्वस्तु में रुपांतरित होती है।
अर्जुन डांगले के शब्दों में यदि कहें - 'कलाकृति की मूल प्रवृत्ति को न समझ सकें तो कलाकृति की लय, उसके अनुभवों, उसकी प्रवृत्ति, संरचना, अनुभवों की गहनता आदि को समझना सम्भव नहीं है।
जब भी हम किसी कलाकृति का मूल्यांकन करते हैं तो यह जानना बहुत जरुरी होता है कि उसकी पार्श्वभूमि में कौन से जीवन मूल्य हैं। जीवन मूल्यों के बगैर किसी भी कलाकृति या साहित्यिक कृति का कोई महत्तव नहीं होता। तथाकथित कलावादी किस्म के प्रगतिशील, जनवादी, मार्क्सवादी आलोचक दलित साहित्य को 'अतीत का रोना" कहकर कमतर दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ऐसे लोग भूल जाते है कि दलित जीवन तो दुखों का पिटारा है। दलित जीवन की जो वेदना है, दग्धता है , उसे सिर्फ दलित ही जानता है। यह यातना हजारों साल पुरानी है। ये तथाकथित आलोचक एक दिन के लिए ही सही इसे जी करर देखें और फिर बतायें कि उन अनुभव के बाद वे सत्यं शिवं सुन्दरम लिखेगें या दलित साहित्य।
एक शब्द का इन दिनों बहुत प्रचलन है। साहित्य में, राजनीति में, विकास में, इस शब्द का प्रयोग कुछ इस तरह से किया जाता है मानो यह शब्द विकास और उन्नति का प्रतीक हो। वह शब्द है मुख्यधारा।
आखिर इस शब्द का आशय क्या है ? यह जानना जरुरी है।
भारतीय साहित्य के संदर्भ में देखें तो वह धारा जिसके साहित्यिक प्रयोजन 'आनंद", 'मोक्ष", 'अर्थ", और 'काम" हो। या ऐसे लोगों की धारा जिन्होंने 'वर्ण-व्यवस्था" का इस्तेमाल एक समूह विशेष को दासता की गिरफ्त में जकड़कर धारा से बाहर कर दिया और वापसी के तमाम रास्ते बंद कर दिये। धारा से बाहर धकेले गये ये लोग जिनकी अस्मिता, संस्कृति छिन्न-भिन्न कर दी गयी। क्या यही है मुख्यधारा जिसका इतना ढोल पीटा जा रहा है ? क्या यही है मुख्यधारा जिसके लिए बीस करोड़ लोगों को अपने मनुष्य होने की लड़ाई लड़नी पड़े। मुख्यधारा एक वर्ण-विशेष की इच्छा-अनिच्छा, आशा-आकांक्षाओं से उत्पन्न मानयताओं, स्थापनाओं की धारा है जिसके लिए एक दलित को अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ता है और यह धारा बेहद खूंखार और निर्दयी होकर अपने तमाम दांव-पेंचों, कलाबाजियों, बौद्धिक-विमर्शों, साहित्यिक शिल्पों के साथ दीवार की तरह सामने खड़ी हो जाती है और दलित के अस्तित्व को ही नकार देती है। मुख्यधारा दलित को एक मनुष्य मानने से इंकार करती है। उसे खारिज करती है। या फिर दोयम दरजे का मानकर उसे अपना पिछलग्गू बनाने की कोशिश करती है। इस मुख्यधारा का जोर-शोर से डंका पीटा जाता है। लेकिन सच तो यह है कि मुख्यधारा का साहित्य समय और समाज से कटा हुआ है। समाज में कुछ और हो रहा है, साहित्य किसी और दुनिया के किस्से सुना रहा है।
भक्तिकालीन संतों, कवियों ने भारतीय जीवन में रची-बसी जाति-व्यवस्था का विरोध तो किया, लेकिन जाति व्यवस्था पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। डा। अम्बेडकर लिखते हैं -
''जहां तक संतों का प्रश्न है, तो मानना पड़ेगा कि विद्धानों की तुलना में संतों के उपदेश कितने ही अलग और उच्च हों, वे सोचनीय रूप से निष्प्रभावी रहे हैं। वे निष्प्रभावी दो कारणों से रहे। उनमें से अधिकतर उसी जाति के होकर जिये और मरे, उसी जाति के जिसके वे थे। उन्होंने यह शिक्षा नहीं दी कि ईश्वर की सृष्टि में सारे मनुष्य समान हैं। दूसरा कारण यह था कि संतों की शिक्षा प्रभावहीन रही, क्योंकि लोगों को पढ़ाया गया कि संत जाति का बंधन तोड़ सकते हैं। लेकिन आम आदमी नहीं तोड़ सकता। इसीलिए संत अनुसरण करने का उदाहरण नहीं बन सके।""
जबकि दलित साहित्य में किसी भी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ विद्रोह का भाव है। सामाजिक, धार्मिक जीवन की विसंगतियों और उससे उत्पन्न जीवन मूल्यों को खंडित करने की चेतना है। समाज में व्याप्त असमानता और घृणा इस तथाकथित मुख्यधारा की ही देन है, जिस मुख्यधारा से जोड़ने की इतनी जद्दोजहद हो रही है।एक दलित के लिए ऐसी किसी भी धारा से जुड़ने का अर्थ हैं - वर्ण-व्यवस्था के भयानक जबड़े में स्वंय को खुद ही ठूंस देना और मुख्यधारा के अलम्बरदार तो चाहते भी यही हैं कि समूचा दलित समाज, आदिवासी, अल्पसंख्यक उनकी धारा में आकर उनके अधीन रहें। ताकि उनका वर्चस्व बना रहे। हजारों सालों से यही तो हो रहा है। और भविष्य में कब तक चलता रहेगा कोई नहीं जानता।
इस मुख्यधारा के साहित्य में जहां बौद्धिक प्रलाप की बहुतायत होती है, वहीं समाज में घट रही तमाम स्थितियों के प्रति तटस्थ भाव रहता है। उस पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने की जगह चुप्पी साध लेते हैं। अपने समय की बड़ी से बड़ी घ्ाटना भी इन्हें प्रभावित नहीं करती। ये अतीत में जीना ज्यादा पसंद करते हैं। यह मुख्यधारा की सबसे बड़ी विशिष्टता है। साहित्य की मुख्यधारा समय के संघर्ष से बचकर निकलने का उपक्रम अपनी शास्त्रीय भाषा को मोहरा बनाकर करती है। मुगलकाल या उससे पूर्व मुस्लिम शासकों, सुल्तानों, खिलजी वंश, तुगलक वंश, अफगान आदि के काल में कहीं भी कोई विरोध या सामूहिक संघर्ष दिखायी नहीं पड़ता है। न राजनीति में, न साहित्य में, न समाज में, छिटपुट घटनायें होती हैं, जो सिर्फ निजी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है। जो वर्ण-व्यवस्था की देन है। क्योंकि वर्ण-व्यवस्था सिर्फ शुद्रों, अंत्यजों, अस्पृश्यों, को ही अलग-थलग नहीं करती, बल्कि द्विज कही जाने वाली जातियों को भी एक दूसरे से दूर रखने का कारण बनती है। जो किसी भी सामूहिक प्रयास के विरुद्ध जाती है। यही स्थिति मुगलकाल में दिखायी देती है। भारतीय क्षत्रप दूसरे क्षत्रपों को पराजित करने में मुगल शासकों का साथ देते हैं। चाहे वे राजस्थान के राजा हों या दक्षिण के।
मुख्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले कवि हमें यह बताने में असमर्थ रहते हैं कि उनके काल में भारत मुगलों के अधीन है। यह स्थिति किसी एक कवि की नहीं मुख्यधारा के तमाम रचनाकारों की है। जो समय से कटे रहकर भी स्वंय को मुख्यधारा के भ्रमित अहमभाव के साथ जीते हैं। इसीलिए आज जिसे मुख्यधारा कहा जा रहा है, वह हिन्दु वर्ण-व्यवस्था, सामंतवाद, ब्राहमणवाद की वह धारा है, जहां दलित और स्त्री के लिए कोई स्थान नहीं है। जो साहित्य और समाज दोनों में मौजूद है। संस्कृत साहित्य में राजवंशों की विरुदावली, राजाओं के देवत्व, उनकी प्रशस्ति करने वाले साहित्य की भरमार है। जो मुख्यधारा का केन्द्रीय भाव रहा हैं इसी धारा में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को जोड़ने की बात जोर शोर से की जाती है। जिसका उद्देश्य वर्चस्ववाद को स्थापित करना है। यही है मुख्यधारा का यथार्थ।
साथियों, दलित साहित्य सही मायनों में भारतीय साहित्य है। जो समूचे देश में प्रेम ओर समता, बंधुता का संदेश लेकर आया है। बुद्ध की मानव केन्द्रित दार्शनिकता, प्रेम और मानवीय विकास की बात करता है। जहां न भाषा के प्रति किसी प्रकार का भेद है, न क्षेत्रवाद के लिए कोई जगह है। न स्त्री के प्रति किसी भी प्रकार की कोई संकीर्णता है। अखिल भारतीय साहित्य है। यहां मैं एक बात जोर देकर कहना चाहता हूं कि देश को ब्राहमणीकरण की नहीं दलितीकरण की आवश्यकता है। तभी देश विकास के रास्ते पर चल सकता है। एक बार करके तो देखये। यह मेरा विश्वास है।

Wednesday, April 9, 2008

दिनेश चंद्र जोशी की कविता

डांगरी

जब तक साफ सुथरी चमकती रहती है डांगरी
तब तक नहीं लगती असली खानदानी डांगरी,
असली लगती है तभी, जब हो जाती है मैली
चमकते हैं उस पर ग्रीस तेल कालिख के
दागआता है डांगरी के व्यक्तित्व में निखार,
जब मशीन की मरम्मत करता हुआ कारीगर
निकलता हे डांगरी पहना हुआ,
छैल-छबीला, गबरू जवान या चश्मा पहना हुआ
हुआ कोई अनुभवी मिस्त्री ही सही, अचानक प्रकट होता हुआ
मशीन या ट्रक के गर्भ से बाहर
मैली कुचैली धब्बेदार डांगरी पहने हुए
सने हों हाथ ग्रीस या कालिख से और आंखों में
चमक हो, साथ में बत्तीसी निकली हो श्रम के संतोष से, तो
समझ लो सार्थक हो गया डांगरी का व्यक्तित्व।

साफ सुथरी बिना दाग धब्बे की डांगरी
पहनते हैं कई उच्च अधिकारी, प्रबंधक, महाप्रबंधक जब दौरा होता है
कारखाने में किसी विशिष्ट अतिथि मंत्री या प्रधानमंत्री का।
ख्याल आता है, इन सब भद्रजनों को अगर पहना दी जाय
कालिख सनी डांगरी और कर दिया जाय किसी बूढ़े मैकेनिक की
कक्षा में भर्ती, तो कैसा होगा परिदृश्य।
वैसे पहनते रहनी चाहिए डांगरी हर इंसान को जीवन में
एक नहीं कई बार, छूट नहीं मिलनी चाहिए इसकी कवियों,
लेखकों, कलाकारों, मशीहाओं और पंडे पुजारियों बाबाओं को भी।

(दिनेश चंद्र जोशी की इस कविता का पाठ 'संवेदना" की मासिक गोष्ठी में हुआ था। संवेदना, देहरादून के रचनाकारोंे एवं पाठकों का अनौपचारिक मंच है। महीने के पहले रविवार को संवेदना की मासिक गोष्ठियां पिछले 20 वर्षों से अनवरत जारी हैं। 6 अप्रैल 2008 की गोष्ठी में, इस कविता का प्रथम पाठ हुआ। गोष्ठी में पढ़ी गयी अन्य रचनाओं में मदन शर्मा का एक आलेख भी था, जिसमें उन्होंने अपनी पसन्दिदा सौ पुस्ताकों का जिक्र किया। राम भरत पासी ने भी अपनी नयी कविताओं का पाठ किया। सुभाष पंत, डॉ। जितेन्द्र भारती, गुरुदीप खुराना, एस पी सेमवाल, प्रेम साहिल आदि गोष्ठी में उपस्थित थे। )

गुरुदीप खुराना का उपन्यास: उजाले अपने-अपने


मौजूदा समय की पड़ताल करते हुए पूरन चन्द्र जोशी कहते हैं- ''मैंने अपने समय को और उसकी सीमाओं में जिए अपने जीवन को आस्था, अवधारणा और अनुभव के अन्तर्सम्बंध और अन्तर्द्वन्द्व के रूप में महसूस किया है और समझा है, मेरे समय को वैज्ञानिक युग की संज्ञा दी गयी है जिसने हमारे बहिर्जगत में दूरगामी और गम्भीर महत्व के परिवर्तन तो किए हैं, लेकिन हमारे अन्तर्जगत को भी गहराई और विस्तार में उद्वेलित किया और परिवर्तित किया है।"" परिवर्तन की इस दिशा को जानने समझने के लिए गुरुदीप खुराना के रचना संसार की ओर झांके तो सदी के आखरी दशक में शुरू हुए भूमण्डलीकरण की धमक को उनके उपन्यास 'उजाले अपने-अपने" में सुना जा सकता है। इससे पहले प्रकाशित उनके उपन्यास 'बागडोर" ने भी ऐसे ही समय को एक दूसरे कोण से सामने रखा था जिसमें उस नौकरशाही के भ्रष्टतंत्र को निशाना बनाया गया था जो पिछले पचास वर्षों में अपनी जकड़न को मजबूत करती हुई बढ़ी है और आर्थिक नीतियों की दूसरी खेप के रूप में शुरू हुई विनिवेशीकरण की प्रक्रिया को जिसने तार्किकता प्रदान की। विनिवेशीकरण और भूमण्डलीकरण के समानान्तर सस्वर मंत्र गायन से गुंजित होता पूंजी का विभत्स पाठ ही 'उजाले अपने-अपने' की कथा में सुनायी देता है।
इलैक्ट्रानिक्स डिवाईसों से 'ईश्वरीय" तरंगों का प्रक्षेपण और स्टॉक एक्सचेंज रूपी 'ईश्वर" की साक्षात उपस्थिति ने ऐसा दृश्यलोक गढ़ा है जिसने संचार माध्यमों की सामाजिक भूमिका पर भी सवालिया निशान लगाया है।
बेशक उपन्यास ऐसे कोनो की ओर ईशारा नहीं करता लेकिन उसकी पृष्ठभूमि में जो समय है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि लेखक के अवचेतन में समय का यह दबाव ही रचना की शक्ल में उभरा है। समय का यह दबाव ही है जो लेखक को प्रेरित और रचनात्मक रूप से क्रियाशील करता है। 'उजाले अपने-अपने" का कथानक घटना के प्रवाह को उस निश्चित समय के भीतर रखने का प्रयास है जिसमें अध्यात्म और योग साधना के दम पर न सिर्फ बाजार पर कब्जा करने की होड़ जारी है बल्कि धर्म का 'वैज्ञानिक" (?) विश्लेषण करते हुए और एक खास वर्ग (मध्य वर्ग) को वैचारिक रूप से इस लपेट में लेते दौर की कार्यवाही का सिलसिला चालू है।
पूरन चन्द्र जोशी को ही आधार बनाकर कहा जा सकता है कि उपनिवेशवाद ने भारत को 'अध्यात्म प्रधान" और भौतिक जगत को नकारने वाला बताकर इस त्रासदी को और भी गहरा और स्थायी बनाया। अध्यात्म की इस चौधराहट ने जहां धार्मिक पोंगा-पण्डितों के सीने में गुब्बारे फुलाये हैं वहीं भूमण्डलीकरण के आक्रमणों के खिलाफ जन-मानस की लामबंदी में सेंध लगाने का काम भी किया है। साथ ही साथ तीसरी दुनिया (विशेष तौर पर भारत में) के भीतर स्थानीय पूंजी ने विश्व पूंजी के आक्रमण से तात्कालिक बचाव के रूप में भी ऐसे ही कवच को धारण करना शुरु किया है। आये दिन पैदा हो रहे नये-नये चमत्कारिक बाबाओं का उदय स्थानीय पूंजीपति (देशी) की हताशा और निराशा से उपजी स्थितियों का ही परिणाम है।
भूमण्डलीकरण की प्रक्र्रिया ने जहां एक ओर व्यापक जन समुदाय पर प्रहार किया वहीं सीमित पूंजी की लघु औद्योगिक इकाईयों और देशी पूंजीपति को भी ध्वस्त करना शुरू किया है। जीवन मरण का प्रश्न आज पूरी दुनिया के सामने है और दुनियाभर के शासक वर्ग आज विश्व पूंजी के हितों को साधने या उसकी पैरोकारी करने में मशगूल हैं। खुद को बचाये रखने और अपनी पूंजी के संरक्षण के लिए एक अद्द बाजार की आवश्यकता ने भौगोलिक आधार पर बाजार को संगठित करने में अक्षम पाने पर स्थानीय पूंजीपतियों को धर्म के बाजार में बाबाओं के आगे दण्डवत होकर पहुंचने का रास्ता सुझाया है। आये दिन शहर दर शहर सम्मेलनों और प्रवचनों के लिए लगने वाले तम्बूओं को प्रायोजित करते हुए अपने उत्पादों को एक निश्चित लेबल देकर बेचने की उनकी इस तात्कालिक (जो कि वर्तमान दौर के चलते भविष्य में असफल हो जाने वाली है) कोशिश ने बाबाओं की, योगसाधकों की फौज खड़ी कर दी है। योगयाधकों और शरीर सौष्ठव को बनाये रखने वाले नुस्खे बहुराष्ट्रीय निगमों के उत्पादों के लिए भी एक खास तरह का बाजार तैयार करने में सहायक हो रहे हैं।
दृश्य तरंगों ने इलेक्ट्रानिक्स चकाचौध का ऐसा वातावरण बुना है कि सूचना, पुनरुत्थान और किसी भी तरह की चिन्ता से मुक्त एवं पूंजी की चौपड़ में उलझे समाज की कथायें ही चैनलों पर जगह पा रही है। अट्टहास लगाते राक्षस और अवतारों का दृश्यलोक ईश्वर और धर्म की नयी से नयी परिभाषा गढ़ रहा है। ईश्वर और धर्म की इस आधुनिक परिभाषा का पाठ और उसका निषेध ही 'उजाले अपने-अपने" का मूल कथ्य है जिसे उपन्यास की नायिका शीला अवस्थी के मार्फत भी जाना जा सकता है- ''मतलब यह कि जब हमें कुछ दिखायी नहीं देता तो एक अद्द लाठी की जरुरत महसूस होती है, रास्ता टटोलने को। जो जितना डरा हुआ था, घबराया हुआ है उसे उतनी ही ज्यादा जरुरत महसूस होती है इस सहारे की। हर किसी के ईश्वर की धारणा उसकी जरुरत के मुताबिक बनती।''
आधुनिकता की चकाचौंध में भारतीयता की गंध को खोजता 'उजाले अपने-अपन्ो" का कथानक और उसके पात्र कुतुहल पैदा करते हैं। लेकिन भारतीयता के प्रति उनका रूमानी आकर्षण भी यहां देखने को मिलता ही है। आधुनिकता के रंग में घुली मिली सभ्य-सुशील, पतिव्रता, धर्मिक विश्वासों में रमने वाली पारम्परिक भारतीय नारी की छवी ही शीला अवस्थी के व्यक्तित्व की विशेषता है जो काफी हद तक विवेक को भी भाती है।
बावजूद इसके कि भारतीयता की वह शक्ल जिसे शीला अवस्थी प्रस्तुत करना चाहती है और जिसके लिए लगातार प्रयत्नशील है, कथा नायक विवेक की उससे असहमति है। विवेक के व्यवहार में असहमतियों को जाहिर न कर पाने का ठंडापन जरुर अखरने वाला है लेकिन यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शीला अवस्थी का व्यक्तित्व, उसका सौन्दर्य और विवेक के प्रति उसका प्यार भी विवेक को कभी अपने मार्ग से विचलित नहीं कर पाते। हां असहमति को जाहिर न करने का मध्यवर्गीय व्यवहार यहां उसके व्यक्तित्व के कमजोर पक्ष को जरुर उजागर करता है।
आदिल के बेटे के नामकरण वाला प्रसंग हो चाहे स्वंय के विवाह के वक्त पहली बार शीला अवस्थी के साथ घर पहुंचने पर वर-वधु की देहरी पर आरती उतारने और तेल चुहाने की रस्म (बेशक चाहे सादगी से हुई हो) पर विवेक की उससे एक प्रकार की असहमति होते हुए भी वह उसको जाहिर करने कोई जरुरत नहीं समझता। यही वजह है कि जनतांत्रिक-सा दिखने वाला यह प्रेम संबंध जिसमें एक दूसरे की 'स्पेश" में अनाधिकार हस्तक्षेप से बचने का प्रण और उसको निर्वाह करने की ललक, असहमति पर ठंडेपन के कारण बरकरार नहीं रह पाती। शीला अवस्थी का फरमान ''घास पर चलना मना है।"" बावजूद दूसरे की स्पेश में 'एन्क्रोंच" नहीं तो और क्या है? अपनी असहमति को न रख पाने का द्वंद्व ही विवेक को एक प्रकार से आत्म केन्द्रित बनाये देता है, यदि कहीं उसके भीतर का उच्छवास फूटता भी है तो उसमें निराशा और हताशा की अनुगूंज ही सुनायी देती है।
धर्म रूपी 'इन्लाइटमेंट" को बिखेरती शीला अवस्थी की कार्यवाही के विश्लेषण में भी वह अपनी उस समझ तक को नहीं रख पाता जिसको कि वह स्वंय जान रहा होता है- ''आत्म विश्वास की कमी मेन्टल ब्लॉक्स बनाती है- अब चाहे वह गणपति हो या हनुमान या कोई और------" ऐसे ही एकालापों को बड़-बड़ाता विवेक सिंह इस तरह की बहस भी कभी अपनी प्रिया और जीवन संगनी शीला अवस्थी से नहीं कर पाता। ऐसे वक्त पर खिलंदड़ आदिल ही उसका हम सफर होता है- ''यार चलो इन तमाम फिरको और मतों से हटकर एक ऐसी जमात तैयार की जाए जिसमें सिर्फ इंसान हो।"" समाज की मुक्ति धर्म से इतर मनुष्यता की पहचान और उसकी स्थापना पर ही संभव है, जैसे विचार ही विवेक सिंह और आदिल की दोस्ती का कारण है। पर अपने इस विचार को मजबूती के साथ रख पाने में भी वे असमर्थ दिखायी देते हैं।
खास तौर से शीला के सामने तो विवेक एक कमजोर चरित्र ही लगता है जो अपनी सकारात्मकता के बावजूद प्रेरित नहीं कर पाता। शीला अवस्थी विवेक की इस स्थिति से वाकिफ है, तभी तो अपनी बातचीत में वह विवेक को एक सिद्ध पुरुष बनाये हुए है। झूठमूठ की महानता का एक ऐसा आभा मण्डल विवेक सिंह को घ्ोरे हुए है जिसकी धुंध में शीला अवस्थी के कमजोर पक्ष पर उसका कभी ध्यान जा ही नहीं सकता। तमाम आधुनिकता के बावजूद विवेक सिंह की इस चारित्रिक कमजोरी को उसके वर्गीय आधार और पृष्ठभूमि से समझा जा सकता है।
एंथनी गिडेंस के मार्फत अभय कुमार दुबे ने 'वसुधा" के स्त्री विशेषंाक में पूंजीवादी समाज में प्रेम की तीन श्रैणियों की चर्चा की है। प्रेम की इन तीन श्रैणियों को रुमानी प्रेम, उत्कट प्रेम और इयता केंद्रित प्रेम के रूप में व्याख्यायित किया गया है। उनके मतानुसार ये तीनों ही रूप आधुनिकता की देन हैं और पूंजीवादी विकास में तरह-तरह की भूमिकाऐं निभाते दिख सकते हैं।
रोमानी प्रेम आजादी की कामना से जुड़ा हुआ है। यहां पूंजी अपने प्रभुत्व के शुरुआती दौर में उत्पादक शक्तियों के विकास का नियामक होते हुए भी प्रेम को डराती है। यहां प्रेम ऐलान करके कहता है कि वह स्थापित संरचनाओं द्वारा आरोपित रिश्तों को मान्यता नहीं देता। ऐसे प्रेम में दोनों पार्टनर एक दूसरे को स्पेशल समझते हैं और यह स्पेशलिटी उसी समय स्थापित हो जाती है जब पहली बार नजरें चार होती हैं। दोनों एक दूसरे के सामने अपना हृदय खोलते चले जाते हैं। दोनों की इयताऍ मिलकर एक हो जाती है। रोमानी प्रेम की यह घटना अपने प्रारम्भ और परिणाम में अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग ढंग से घटती है। प्रेम की इस संस्कृति में विशिष्ट किस्म का तीव्र और सार्वभौम रूप उत्कट प्रेम है। इस प्रेम में राज सिंहासन त्याग दिये जाते हैं, वर्ग, जाति की सीमाऐं तोड़ दी जाती है और एक दूसरे को पाने के लिए रेडिकल तरीके अख्तियार करने में भी कोई हिचक दिखायी नहीं देती। रोमानी प्रेम में व्यवस्था विरोध के तत्व होते हैं, पर उत्कट प्रेम व्यवस्था को अपने सामने पूरी तरह से झुका देना चाहता है। वह मरने-मारने पर उतारु रहता है। व्यवस्था इन दोनेां प्रेमों की अस्थिरकारी प्रवृति से चौंकती है।पूंजीवादी समाज लगातार एक तीसरी तरह के प्रेम की तलाश करता रहता है। जिसकी सिफारिश करने से उसे किसी जोखिम का सामना न करना पड़े। यह इयता आधारित प्रेम है। इसमें दोनों पक्ष आगा-पीछा सोच-समझ कर प्रेम में पड़ते हैं। पहली नजर में किसी का किसी को भा जाना प्रेम की शुरुआत कर सकता है, इससे मन में प्रेम का विचार पैदा हो सकता है, लेकिन बुद्धिसंगत कसौटियों पर कसने से यह आकर्षण मस्तिष्क द्वारा खारिज भी कर दिया जाता है। इस प्रेम में प्रेमीजन अपने परिवेश को कोई चुनौती नहीं देना चाहते। वे भविष्य, सामाजिक हैसियत, आर्थिक हैसियत और अपनी इयता की पूरी रक्षा का बंदोबस्त करके प्रेम के मैदान में उतरते हैं। यह प्रेम प्रेम-विवाह 'स्वनियोजित" विवाह में बदल जाता है. जिसमें दोनों पक्षों के परिजन भागीदारी करते हैं।
खास बात यह है कि इस प्रेम में दोनों पक्ष अपनी इयता एक दूसरे के समक्ष उतनी ही प्रकट करते हैं जितनी संबंधों को जारी रहने के लिए जरुरत होती है। दोनों किसी न किसी रूप में अपनी प्राइवेसी सुरक्षित रखने का निर्णय ले सकते हैं। कुछ-कुछ इस तीसरे तरह के प्रेम के ही दर्शन 'उजाले अपने-अपने" में हो जाते हैं। कुछ-कुछ इसलिए, क्योकि यह प्रेम जिस भू-खण्ड में पनपा है वहां पूंजीवाद उस अवस्था तक पूरी तरह से तक पहुंचा ही नहीं है, जिसके आधार पर गिडेंस ने व्याख्या की है।
चूंकि यह दौर भूमण्डलीकरण का दौर है जिसने आर्थिक मोर्चे पर तो तीसरी दुनिया को तोड़ा ही है साथ ही सांस्कृतिक स्तर पर भी घुसपैठ की है। यही वजह है कि इयता आधारित प्रेम की वे सारी शर्ते विवेक और शीला के प्रेम में लागू हो ही नहीं पाती। यानी शाश्वत प्रेम के आग्रह से मुक्त रहने वाला इयता प्रेम 'उजाले अपने-अपने" में शावत्ता के रुप को ही पकड़ने के लिए उत्सुक दिखायी देता है। यही वजह है कि 'मिलन और तलाक" की परिघटना वाला समाज हम यहां नहीं देख पाते बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी संबंधों में आरम्भिक दौर का उत्तेजक आकर्षण ठंडेपन के साथ ता उम्र कायम रहता है। साथ ही रुमानियत की जगह असहमतियों को जाहिर न कर पाने वाले ठंडेपन का वातावरण अपने-अपने स्पेश में सुरक्षित बने रहने देने का अहसास देने के लिए कुछ हल्की-फुल्की चुहलबाजी (ह्यूमर) के रूप में दिखायी देता है।
निश्चित तौर पर यह सच है कि वैश्वीकरण के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई का एक मजबूत प्ाक्ष राष्ट्रीयता का उभार हो सकता है। यहां एक बार फिर पूरन चन्द जोशी को ही आधार बना कर कहा जा सकता है- ''औपनिवेशिक युग में स्थानीयता की आशा और राष्ट्रीयता की धारा एक दूसरे की पूरक बन कर उभरी। आज वह एक दूसरे की विरोधी बन कर क्यों उभर रही है। साथ ही स्थानीयता का उभार क्यो पुनरुत्थानवादी शक्तियों को मद्द दे रहा है। विकासमान प्रगतिशील शक्तियों को नहीं।"
इस जवाब को यदि गुरुदीप खुराना के उपन्यास से खोजना चाहे तो पीढ़ी दर पीढ़ी भारतीयता की पहचान के लिए दौड़ते उस वर्ग पर निगाह जाना स्वाभाविक है जिसका प्रतिनिधित्व उपन्यास के पात्र करते हैं। तो पाते है कि गणेश और दैविय बिम्बों में अटका यह वर्ग भारतीयता की उस सीमित परिभाषा से एक हद प्रभावित दिखायी देता है जो पुनरुत्थानवादी शक्तियों को मद्द पहुंचाने वाली है, भारतीयता की वह परिभाषा जो श्रमजीवी और शिल्पी समुदाय की रचनात्मक क्रियाशीलता को ही सांस्कृतिक पहचान के रूप में देखती है, से इस वर्ग का कोइ परिचय दिखायी नहीं देता। विवेक और शीला का व्यक्तित्व भी ऐसी ही पृष्ठभूमि में गढ़ा गया है। यही वजह है कि ऊपरी तौर पर दो अलग धराओं का प्रतिनिधित्व करते यह दोनों पात्र कहीं न कहीं एक अन्तर्धारा के साथ हैं। जहां शीला भारतीय संस्कृति को सिर्फ हिन्दू संस्कृति तक सीमित करना चाहती है वही विवेक अपने प्रगतिशील विचार के लिए सचेत रूप से क्रियाशील होने की बजाय नितांत व्यक्तिगत बना रहता है. उसकी निष्क्रियता का आलम यह है कि घर में क्या-क्या तब्दीलियां हो रही हैं इससे उसे कोई दिलचस्पी नहीं। वह अपने रंगों में ही मस्त रहना चाहता है। विवेक परिणति को अवस्थी सहाब के उस रुप में देखना लाजिमी हो जाता है जहां अवस्थी सहाब स्वंय और उनकी शौर्य गाथाऐं महफिलों का किस्सा भर है। कहा जा सकता है कि मौजूदा समय की संगति में रचे गये 'उजाले अपने-अपने" का यह एक पाठ है जबकि इसकी प्रासंगिकता की पड़ताल के लिए इसके अन्य पाठ भी संभव है।

पुस्तक: उजाले अपने अपने
लेखक: गुरुदीप खुराना
प्रकाशक: मेधा प्रकाशन, नई दिल्ली।

Monday, April 7, 2008

हिन्दी फैक्स मशीन

राजभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए जुटी अधिकारियों की मीटिंग में चिन्ता ज़ाहिर की गयी कि लगातार किये जा रहे प्रयत्नों के बाद भी अभी हिन्दी में पर्याप्त काम नहीं हो पा रहा है। हिन्दी को बढ़ावा दिया ही जाये। le
लेट अस सी, हाऊ वी केन डू दिस।
राजभाषा अधिकारी ने अपना भाषण समाप्त करते हुए कहा। अधिनस्थ कर्मचारियों का हड़कान करते हुए बोले, हिन्दी में काम करना उतना ही सरल है जितना अंग्रेजी में। तो भी क्या कारण कि ऐसा नहीं हो पा रहा है ? 'क' , 'ख' क्षेत्रों में जहां कि शत प्रतिशत कोरसपोंडेंस हिन्दी में होनी चाहिए वहां भी हमारी ज्यादातर कोरसपोंडेंस अंग्रेजी में ही चल रही हैं। अगले हफ्ते पार्लियामेंट कमेटी का इंस्पेशन है, कुछ करो भाई।
चालाक और होशियार युवा क्लर्क ने अधिकारी को गुस्से में जान, छायी हुई चुप्पी को तोड़ा -
"सर आजकल ज्यादातर कोरसपोंडेंस तो फैक्स से ही हो रही है, पोस्ट लेटर तो न के बराबर ही हैं।"
"तो फिर।" अधिकारी ने ध्यान से सुनने के बाद कहा।
"सर ऑफिस में हिन्दी फैक्स मशीन तो है ही नहीं, फिर कैसे करें ?" युवा क्लर्क बोला.
राजभाषा अधिकारी ने जब समस्या को सभा और सभापति के सामने रखा तो सब चिन्तित नज़र आये। अंत में निर्णय लेते हुए पर्चेस डिविजन के अधिकारी को आर्डर दिया गया आज और अभी टेन्डर करो, हिन्दी फैक्स मशीन के लिए।
क्लर्क अपने साथी कर्मचारियों के साथ मुस्कराता रहा।

Thursday, April 3, 2008

आकांक्षाएं


कहानी

० सोना शर्मा

कई वर्ष पूर्व, रमा जी से मेरी भेंट, डा0 राकेश गोयल के क्लीनिक पर हुई थी। अपनी बारी की प्रतीक्षा में, बेंच पर समीप बैठे हुए, उन्होंने बिना किसी विशेष भूमिका के, अपना संक्षिप्त परिचय दे डाला। अपनी आर्थिक स्थिति और जीवन संघर्ष के सम्बंध में भी संकेत देने में, उन्हें झिझक महसूस नहीं हुई। मैंने सहानुभूति प्रकट की और शीघ्र ही दो-एक ट्यूशन दिला देने का आश्वासन दे दिया।

रमा जी से दूसरी भेंट भी राह चलते ही हुई। तब उनके पति भी साथ थे। उन्होंने विद्याचरण से परिचय कराया। संभवत: इस बीच उनकी स्थिति कुछ संभल गई थी। तीन कमरों का मकान उन्होंने दौड़-धूप करके एलाट करा लिया था। चार पांच ट्यूशनें मिल गई थीं और एक प्राइवेट अंग्रेज़ी स्कूल में विद्याचरण की नौकरी लग जाने की भी बात, लगभग निशित हो चुकी थी। दोनों ने साग्रह किसी दिन घर आने के लिये आमन्त्रित किया।

अनुमानत: उनका प्रेम विवाह हुआ था। अनुमान का आधार था, विद्याचरण का उतरप्रदेशीय ब्राहमण तथा रमा जी का बंगालिन होना। रमा जी हिन्दी जानती थी तथा सही उच्चारण में बातचीत भी कर लेती थीं। दोनों में अच्छी निभ रही थीं। दोनों में जीवन से जूझने की शक्ति थी। और अच्छे दिनों की आमद का विशवास भी उनकी आँखों में झलकता था।

विद्याचरण को अंग्रेजी स्कूल में नौकरी मिल गई। किन्तु प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल वाले जिस कड़ाई के साथ विद्यार्थियों से रूपये वसूल करते हैं, उस अनुपात में अपने अध्यापकों को वेतन देने में विश्वास नहीं करते। कुल मिलाकर एक गैर सरकारी मज़दूर से भी कम वेतन, एक अध्यापक को मिल पाता है।

कुछ दिन तो इसी तरह निकल गये, मगर शीघ्र ही भविष्य की चिन्ता उन्हें परेशान करने लगी। कल को बच्चे होंगे तो क्या उनकी परवरिश होगी और क्या उनका अपना जीवन स्तर सुधर पायेगा!

काफी सोचने के बाद, उन्होंने एक नर्सरी स्कूल शुरू करने का निणर्य ले लिया। नई जगह की व्यवस्था आसान न थी। इसलिये तीन कमरों के इस मकान का ही, स्कूल के तौर पर उपयोग करना निश्चित हुआ। कमरे ठीक ठाक ही थे। पूरे मकान की पुताई हो गई। दरवाजे खिड़कियों पर नया पेंट। आंगन के झाड़ झंकार को साफ़ कर दिया गया। बरामदे के एक भाग को एनक्लोज़र-सा बनाकर,कार्यालय का रूप दे दिया गया। साइन बोर्ड तैयार होकर आ गया। कुछ बेंच डेस्क टाट अलमारी ब्लैक बोर्ड आदि बहुत कम दाम में एक कबाड़ी से मिल गये।

पढ़ाने के लिये रमा जी थी हीं। विद्याचरण के लिये भी अपने स्कूल से आकर एक दो पीरियड़ ले लेना संभव था। किन्तु कुछ ही दिनों के बाद जब तीस बतीस बच्चे आने लगे, तो एक अतिरिक्त अध्यापिका की कमी, बड़ी शिद्दत से महसूस होने लगी। इसी संदर्भ में रमा जी ने मुझ से किसी शरीफ और परिश्रमी लड़की का पता बताने के लिये कहा, मैंने हँसकर कहा, "शराफत या शरीफ होने का प्रमाणपत्र तो कोई राजपत्रित अधिकारी ही दे सकता है, एक अच्छी पढ़ी लिखी और मेहनती लड़की मेरी नज़र में है, उसे आप के पास भेज दूंगी।''

चेष्टा मेरे छोटे भाई के मित्र की बहन है। बी0ए0 करने के बाद उसके लिये लड़का खोजते खोजते वह एम0ए0 हो गई। तब तक भी कहीं बात पी न हुई तो उसके घर वालों ने उसे बी0एड में दाखिला करा दिया। बी0एड भी हो गया, किन्तु दुर्भाग्य! इतनी पढ़ी लिखी और नेक स्वभाव लड़की को अब तक न तो वर मिला था और न नौकरी ही! बेचारी दिन भर अपने कमरे में बन्द, न जाने क्या क्या सोचा करतीं। मैंने चेष्टा को रमा जी के पास भेज दिया। उसे नौकरी मिल गई और रमा जी की समस्या का समाधान भी हो गया।

इसी बीच, कुछ विशेष घट गया। चेष्टा मुझ से अकसर बचने का प्रयास करती है। विद्याचरण और रमा जी से दुआसलाम तक बन्द है। जबकि मैंने इन तीनों में से किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा।

घटना या दुर्घटना के बाद सर्वप्रथम मैंने विद्याचरण से ही बात की। बड़ी बेचारगी के साथ उसने बताया, ""देखिये बहन जी, मैने तो पहले ही कुमारी चेष्टा से कह दिया था कि हमारा यह छोटा सा स्कूल व्यवसाय की दृष्टि से नहीं, अपितु जनसेवा के उद्धेश्य से खोला गया है। मुहल्ले के गरीब बच्चे पढ़ लिख कर चार पैसे कमाने योग्य हो जायें, यही हमारी कामना है। हमारी सभी बातें या स्कूल के सब नियम कुमारी चेष्टा ने सहर्ष स्वीकार कर लिये थे। मैं मानता हूं कि वह अच्छा पढ़ाती थी और बच्चे भी उससे काफी प्रसन्न थे किन्तु ---

"किन्तु क्या?''

"क्षमा कीजिये, मैं कुछ भी बताने में असमर्थ हूं।''

बहुत पूछने पर भी जब विद्याचरण ने कोई स्पषट कारण न बताया तो मैं रमा जी से मिली। वे भी टाल मटोल सा करती हुई चाय पानी की व्यवस्था में लगीं रही। किन्तु मैं जब देर तक बैठ ही रहा तो बोली, "बात यह है कि जब लोगों को नौकरी की जरूरत होती है, तब तो दूसरों के पांव तक पकड़ने को तैयार हो जाते हैं, मगर नौकरी मिलते ही इनका नखरा आकाश छूने लगता है। सच मानिये, हमने तो यह स्कूल चलाकर मुसीबत ही मोल ले ली। इसमें बचत तो क्या होनी थीं, उल्टे जेब से ही खर्च हो रहा है। यह ठीक है, हम शैक्षणिक योग्यता अनुसार उस लड़की को अधिक वेतन नहीं दे सके। देते भी कहां से? अपने ही बीसियों झंझट है। तब भी किसी तरह खींच ही रहे थे, मगर उसने तो सब किये कराये पर पानी फेर दिया।''""मगर, किया क्या उसने?''
""उसी से पूछिये न।''

मैं खीज गई थी। 'मारो गोली" कह कर भी मैं मामले को गोली न मार सकी और चेषठा को भुला भेजा। वह भी बड़ी कठिनाई से कुछ बताने के लिये सहमत हुई। जो कुछ उससे मालूम हुआ, वह लगभग इस प्रकार था।

अपने एम0ए0बी0एड तक के प्रमाणपत्र लेकर, चेषठा नौकरी के लिये साक्षात्कार मण्डल (पति पत्नी) के समक्ष उपस्थित हुई, तो चकित ही रह गई। दोनों सदस्यों ने एक घंटे तक व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक प्रशनों की झड़ी लगाये रखी। गाना, नाचना तबला हारमोनियम, चित्रकारी मे, वह कितनी दक्ष है, इसकी जानकारी भी ली गई। बच्चों को योग्य बनाने हेतु, इन सभी चीज़ों की ज़रूरत थी। चेष्टा प्रशनों के उतर देती जा रही थी और पसीने में भीगती जा रही थी। इतने प्रशन तो अब तक जो लड़के वाले उसे देखने आये, उन्होंने ने भी नहीं पूछे थे। पांच सौ रूपये वेतन सुनकर तो उसका चेहरा ही उतर गया, किन्तु विद्याचरण का आदर्शवादी भाषण सुनकर तथा 'चलो कुछ वक्त कटी ही होगी", सोचकर उसने नौकरी स्वीकार कर ली। वैसे रमा जी ने यह भी कह दिया कि कुछ बच्चे और बढ़ते ही वे वेतन बढ़ा देंगे।

स्कूल में पढ़ाना ही नहीं, और भी बहुत कुछ करना होता था। हर रोज़, समय से पूर्व, स्कूल पहुंच कर, घर को स्कूल में परवर्तित करने के लिये चपरासी का कार्य उसे स्वयं ही करना होता। विद्याचरण तो प्रात: सात बजे ही अपनी नौकरी पर चला जाता। रमा जी का स्वास्थ्य, वही आम औरतों की तरह, कभी कमर में दर्द तो कभी सिर में चर। छोटे छोटे बच्चों को पढ़ाना कम और संभालना अधिक होता। किसी की नाक बह रही है तो किसी को पाखाने की हाजत है। एक दो बार चेद्गठा ने एक और अध्यापिका रख लेने का सुझाव भी दिया किन्तु 'देखेंगे" कह कर रमा जी ने कोई और ही प्रसंग छेड़ दिया।

एक दिन, बच्चों की छुट्टी हो चुकी थी। विद्याचरण अभी नहीं लौटा था। रमा जी कुछ देर पहले बच्चों से प्राप्त फीस, बैंक में जमा कराने चली गई थीं। तब मौसम साफ था। इसलिये वे छाता भी नहीं ले गईं। मगर मौसम बदलते देर ही कितनी लगती है। विद्याचरण तो लगभग पूरा ही भीग कर घर पहुंचा था। जाती हुई रमा जी यह घर -स्कूल, चेषठा के हवाले विद्याचरण के लौट आने तक के लिये कर गई थीं। उसको कंपकपाते देख चेष्टा ने स्टोव जलाकर चाय के लिये पानी रख दिया। जितनी देर में विद्याचरण ने कपड़े बदले, चाय तैयार थी।
""एक ही कप? अपने लिये नही बनाई?''
""आप तो जानते हैं, मैं बहुत कम चाय पीती हूं।''
""फिर भी।।।।'' चेष्टा सोच रही थी।।। रमा जी वर्षा थम जाने की राह देख रही होंगी। स्थानीय बस कोई उधर से, इस ओर आती नहीं और ऑटो के तीस रूपये वे खर्चेंगी नही---
"आप की अभी तक कहीं बातचीत ---'' विद्याचरण ने चाय का कप मेज़ पर रख कर कहा।
""जी ---?'' चेष्टा चौंकी।

"आपको देखकर बड़ा दुख होता है। पढ़ी लिखी हैं, हर तरह से ठीक हैं। तब भी।।।खैर मैं कोशिश करूंगा आप के लिये।''

चेष्टा जैसे जमीन में गड़ी जा रही थी।

"आपके लिये लड़कों की क्या कमी! ऐसा वर खोजकर दूंगा, जो लाखों में एक हो। बिल्कुल आप के योग्य--- आप तो कुछ बोल ही नहीं रही!''

चेष्टा ने तनिक सी दृष्टि उठाकर, विद्याचरण की ओर देखा।

"इस समय भी मेरी नज़र में एक बहुत अच्छा लड़का है। काफी बड़ा अफसर है। मुझे न नहीं करेगा। सुन्दर है, अच्छे घराने से भी है --- बोलिये?''

वह कुछ समीप आ गया था।

चेष्टा थर थर कांप रही थी।

"आपको शायद ठंड लग रही है। एक कप अपने लिये भी बना लेना चाहिये था। कहिये तो मैं बना दूं?''
"नहीं नहीं, मैं चाय नही पिउंगी।''
"खैर, तो क्या सोचा आपने?''
"किस बारे में?''
"वही लड़के के बारे में। जिस दिन कहें, चलकर दिखा दूं।''

"देखिये, आप को ये बातें मेरे पिता जी से करनी चाहिये।''

"उनसे तो हो ही जायेंगी, पहले आप तो हां करें।''

इस बीच विद्याचरण कितना आगे बढ़ आया था, चेषठा ने इस पर ध्यान ही न दिया था। किन्तु जब विद्याचरण ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, "बस आपके हां कहने की देर है।'' तो चेष्टा उछल सी पड़ी।

अब वह डर या सर्दी से नही, बल्कि क्रोध से कांप रही थी।
"आप शायद बुरा मान गई!'' विद्याचरण मुस्कराने की कोशिश कर रहा था।
इस बीच उसने पर्याप्त साहस बटोर लिया था। खूब तीखी जबान में बोली,""आपने शायद उन चीज़ों की सूची काफी लम्बी बना रखी है जो पांच सौ रूपये महीना में मुझसे वसूल करना चाहते हैं। आप क्या समझते है, मैं अनपढ़ गंवार बच्ची हूं, जो आप के हथकन्डों को नही समझ पाऊंगी। शर्म आनी चाहिये आप को, जो मन्दिर जैसे इस स्थान में भी इस तरह की आकाक्षांएं पाले हैं!''
बाहर से रमा जी के गीले चप्पलों की धप धप सुनाई दी, तो विद्याचरण ने तुरन्त तेवर बदल कर कहा, "मुझे नहीं मालूम था, मन्दिर जैसे इस पवित्र स्थान में भी, आप की विचारधारा इस प्रकार विकृत होगी। यह विद्या का मन्दिर है। यहां बच्चे पढ़ते हैं। बच्चे, जो समाज का आवश्यक अंग है। बच्चे जो देश का भविष्य हैं। कल से आप यहां आने का कष्ट न करें।''

मालूम नहीं, रमा जी ने 'बात" को कहां तक समझा, या विद्याचरण ने किस प्रकार उन्हें 'असली बात" समझाने का प्रयास किया।
126, ईश्वर विहार-2, लाडपुर,पो0 रायपुर, देहरादून-248008 दूरभाष - 0135-2788210


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(हिन्दी साहित्य में पिछले दो एक वर्षों से युवा रचनाकारों की एक सचेत पीढ़ी पूरी तरह से सक्रिय हुई है। जो विशेष तौर पर कहानी की शास्त्रियता को परम्परागत रुढियों से बाहर निकालने में प्रयासरत है। समाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक विश्लेषणों से भरी उनकी कहानियां इस बात की ओर इंगित करती है।

वहीं दूसरी ओर बदलते श्रम संबंधों और अपने पांव पसार रही भ्रष्ट राजनैतिक, सामाजिक ढांचे की बुनावट में फैलती जा रही अप-संसकृति ने जल्द से जल्द पूरे वातावरण में छा जाने की प्रवृत्ति को भी जन्म दिया है। मात्र दो एक रचनाओं की शुरुआती पूंजी को ही उनके रचना संसार का स्वर देख लेने वाली आलोचना भी ऐसी प्रवृत्ति को बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा कर रही है।

यहॉं प्रस्तुत सोना शर्मा की कहानी उनकी प्राकाशित प्रथम रचना है। उस पर टिप्पणी करते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि वे लगातार लिखती रहे और खूब-खूब पढ़े. ताकि जटिल होते जा रहे यथार्थ को समझने में अपने विकास की गति पकड़ सकें।)