हिंदी की रचनात्मक दुनिया में अपने समकालीनों पर कविता
लिखने की एक अच्छी और सम्रिद्ध परम्परा है. कुछ समय पूर्व कवि श्याम प्रकाश जी ने भी
अपने समकालीन और प्रिय कथाकार सुभाष पंत के केंद्र में रखते हुए एक कविता लिखी और अपनी
मित्र मंडली के बीच में उसे शेयर भी किया. उस कविता की खूबी इस बात में देखी जा सकती
है कि न सिर्फ सुभाष पंत का व्यक्तित्व बल्कि उनका रचना संसार भी कविता में नजर आने
लगता है. रचनाओं के शीर्षको को कविता में पिरोकर इस तरह से रखा गया है कि उनसे केंद्रिय
रचनाकार की आकृति भी साफ दिखने लगती है. उस कविता को भाई शशि भूषण बडोनी जी के बनाये
चित्रों के साथ पढे तो कथाकार सुभाष पंत और भी खूबसूरत नजर आ रहे हैं. बडोनी जी का
विशेष आभार कि उन्होंने इस अनुरोध का मान रखा कि भिन्न भिन्न भाव मुद्राओ में पंत जी
के स्केच बनाये. विगौ |
जेब में पहाड़
श्याम प्रकाश
दरअसल चीफ़ के बाप की मौत हो गई थी
न चाहते हुए भी मेरा वहां जाना जरूरी था
मरने वाला कोई और नहीं मेरे चीफ़ का बाप था
चिलचिलाती दुपहर की तपती हुई ज़मीन पर
नंगें पांव श्मशान में खड़ा मैं
कभी दांया तो कभी बांया पैर ऊपर उठाता
पैरों को ज़मीन पर रखते-उठाते
मुझे कंटीली-पथरीली,
चढ़ती-उतरती पगडंडियों पर पांव बचा
मैं पहाड़ की सुबह में था
पीले से सफेद होता हुआ सूरज,
गुनगुनी धूप,
पहाड़ पर
छोटे-बड़े पेड़ों का पहाड़ बनाते पेड़ ,
चिड़ियों की बोलियां
और इन सब के बीच गुजरती ठंडी-ठंडी हवा....
मैं सहसा चौंक पड़ा
मैं तो श्मशान में खड़ा हूं
इस मौके अपनी सोच के भटकाव का यह रोमांटिसिज्म मुझे कतई नहीं भाया
आखिर मैं मौत
में आया हूं
चिता से उठती लपटों से छूटते चिंगारों को देखते
मै फिर पहाड़ चढ़ गया
और वो आदमी, जिस का नाम
फिलहाल मुझे ध्यान नहीं आ रहा,
जो अक्सर मुझे वहां दिखाई पड़ता था,
मेरे साथ था
हर बार ही वो आदमी मुझे हर पिछली बार से लम्बाई में
छोटा होता हुआ आदमी लगता
असल में वह चौड़ाई में फ़ैल रहा था
अपने लिबास और स्वभाव दोनों से निहायत आम आदमी लगता
कंधे पर पहचान का झोला लटकाये
सुबह का भूला सा,
अक्सर वह बरसाती नदी के पास के पत्थर पर
बैठा दिखता
कुछ सोचता,
टहलता,
कभी नदी में से पत्थर उठा दूर नदी में फेंकता ,
अचानक ही जोर-जोर से
एक से दस तक
गिनती ऐसे बोलता
जैसे एक का पहाड़ा...
एक ईकम एक,एक दूनी दो,एक तिया तीन....
पढ़ रहा हो
बेतरतीब-सी उसकी बातों में कोई ताल मेल नहीं होता
अजीब-अजीब बातें किया करता वो
कभी जिन्नों के डरावने किस्से
तो कभी अलादीन के चिराग से निकले
जिन्न और अन्य कहानियां सुनाता ,
पास के पेड़ की टहनी पर बैठी चिड़िया को
टकटकी लगा देखता,
कहता इस चिड़िया की आंख गिरगिट की तरह
रंग बदलती है
जब लोग देखते चिड़िया को उड़़ते नहीं
आदमी को टहनी पर से कूदते देखते,
अक्सर वो कुछ गुनगुनाया करता कहता
ये मुन्नी बाई की प्रार्थना है
बड़ी लय में गाया करती थी मुन्नी बाई
पता नहीं कब उसे बीच में ही छोड़ और किस्सों में उलझ
जाता,
कहानियों का उसे बहुत शौक था
गिनती कर वह बताता
इक्कीस कहानियां उसे अच्छी तरह याद हैं,
जिन्हे सुनाते वह हर बार गड्ड-मड्ड कर देता
उसने बताया उस के पास कुछ किताबें भी हैं
कहते -कहते जैसे कुछ भूल रहा था,
कुछ रुक कर उंगलियों से माथा ठोकता बोला... क्या कहते
हैं.... क्या कहते हैं उन्हें
जो अच्छी और अलग सी होती हैं
वह सोच में पड़ गया
हां याद आया, फिर बोला-
प्रतिनिधि
उसके पास इस नाम की एक किताब है जिस में किसी एक ही
लिखने वाले की
दस प्रतिनिधि कहानियां हैं
वे सुरक्षित हैं किसी खास जगह
एक फाइल में
लेकिन वह फाइल बंद है अभी
बिलकुल खोई चाबी वाला ताला लगे बक्से की तरह
और वो दिन
वो तो न भूलने वाला बन गया था
मैंने उसे कभी इस तरह नहीं देखा था
मुंह से
सिंगिंग बेल की बजती घंटियों जैसी
आवाज़ निकालता , कुछ-कुछ
बोलता
वह दौड़ा जा रहा था
मेरे साथ और लोगों ने भी
उसे रोकने की कोशिश की
वो रुका नहीं
बल्कि उस की दौड़ और तेज़ हो गई
इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़ की तरह
जिसका हिस्सा वह दूर-दूर तक नहीं था
कुछ दूर दौड़ ,पस्त हो वह
रुक गया
गिरते-गिरते बचते धम्म से ज़मीन पर बैठ गया
वो हांफ रहा था,
उसका चेहरा पसीने-पसीने हो रहा था,
गुस्से में लाल उबलती आंखें
आधी बाहर लटक गई थीं
अब तक एक छोटी-मोटी भीड़
उसके चारों ओर थी
सांसें संभल जाने पर वह उठा
और फिर दौड़ने लगा
छोड़ूंगा नहीं उसे....
बिलकुल नहीं छोडूंगा....
उस्स ......
वह उबल रहा था
चिता से उठती लपटें शांत हो चुकी थीं
लोग क्रिकेट, मंहगाई,
बेरोजगारी
और सरकार को कोसते
अपने - अपने घरों को लौटने लगे थे
लगा श्मशान से नहीं लंच के बाद दफ्तर में अपनी-अपनी
सीट पर जा रहे हों
मुझे लगा मैं उनके साथ नहीं चल रहा हूं
कहीं और दौड़ रहा हूं
पहाड़ के उस आदमी के साथ
जो हौसले से लबरेज़,
अपने थके-हारे पांवो के बावजूद
दौड़ रहा है,
पीछा कर रहा है
उसका
जो पहाड़ चोर है
जिसकी जेब में पहाड़ है ।
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