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Sunday, September 29, 2024

विद्यासागर स्मृति सम्मान 2024

 



सादगी और सुरुचिपूर्ण तरह से सम्पन्न हुए विद्यासागर स्मृति सम्मान के कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार गुरदीप खुराना ने कहा कि कथाकार विद्यासागर नौटियाल की स्मृति में दिये जाने वाले महत्वपूर्ण सम्मान के लिए वर्ष 2024 सम्मान पंकज बिष्ट को दिया जाना उसे परम्परा का सम्मान है जिसका प्रतिनिधित्व नौटियाल जी की रचनाएं करती हैं। अध्यक्षीय वक्तव्य ज्ञापित करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि पंकज बिष्ट ने न सिर्फ अपने रचनात्मक लेखन से बल्कि आज के दौर में समयांतर जैसी महत्वपूर्ण को प्रकाशित कराते हुए भी अपनी उस भूमिका का लगातार निर्वाहन किया है जो उनकी सामजिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है। आगे उन्होने कहा कि यह इस बात से भी दिखायी देता है कि समयांतर में लिखने वाले अन्य लेखक भी पंकज बिष्ट की तरह ही प्रतिबद्धता वाले लोग है।

रविवार को सेव हिमालय मूवमेंट एवं देहरादून के रचनाकारों की संस्था संवेदना की ओर से साहित्य के क्षेत्र का प्रतिष्ठित विद्यासागर नौटियाल स्मृति सम्मान -2024 प्राप्त करने के बाद पंकज बिष्ट ने कहा कि विद्यासागर नौटियाल ने अपनी राजनीतिक साहित्यिक प्रतिबद्धता कभी छिपाई नहीं। सम्मान ग्रहण करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि प्रतिबद्धता क्या होती है यह मैने विद्यासागर नौटियाल से सीखा है।

प्रेस क्लब, देहरादून में आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवि एवं पत्रकार इब्बार रब्बी ने कहा कि वे  पंकज बिष्ट को उनके लेखन के शुरुआती समय से जानते हैं और इसीलिए कह सकते हैं मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता पंकज बिष्ट के साहित्य का मूल स्वर है। उन्होंने यह भी कहा कि वे हमेशा से जानते हैं कि पंकज बिष्ट किसी भी सच को सामने लाने में उसी तरह खरे जैसे सच को अपनी रचनाओं का केंद्र बनाने में नौटियाल जी ने कभी संकोच नही किया।


पंकज बिष्ट के साहित्य पर विस्तृत टिप्पणी करते हुए डॉ. संजीव नेगी ने कहा कि पंकज बिष्ट की साहित्यिक दृष्टि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समेटे होती है और इसीलिए उनकी रचनाओं में जो समय दर्ज होता है उसका सीधा सम्बंध उदारीकरण से उपजी विसंगतियों, बाबरी विध्वंस और वैश्विक परिघटनाओं के साथ बना रहा। बच्चे गवाह नहीं हो सकते, पंद्रह जमा पचीस, टुंड्रा प्रदेश व अन्य कहानियों के साथ साथ उन्होंने पंकज बिष्ट के उपन्यास लेकिन दरवाजा, उस चिड़िया का नाम, पंखोंवाली नाव आदि से उद्धरणों के जरिए अपनी स्थापनाओं को रखा और बताया कि विद्यासागर नौटियाल जहां समष्टि की बात करते थे पंकज बिष्ट मनुष्य के भीतर की कहानी कहते हैं।

पहला विद्यासागर सम्मान 2017 में कथाकार सुभाष पंत को दिया गया था। एक अंतराल के बाद दूसरा सम्मान 2022 में कथाकार शेखर जोशी को दिया गया और तीसरा सम्मान वर्ष 2023 में डॉ. शोभा राम शर्मा को दिया गया था।

वर्ष 2024 के सम्मान के पांच सदस्य चयन समिति में वरिष्ठ कथाकार सुभाष पन्त, हम्माद फारुकी, धीरेन्द्र नाथ तिवारी, जितेंद्र भारती व राजेश पाल थे। चयन समिति ने सर्वानुमति से पंकज बिष्ट को उनके उल्लेखनीय लेखन के आधार पर इस सम्मान के लिए योग्य पाया। चयन समिति की ओर से वक्तव्य देते हुए साहित्यकार एवं संस्कृति कर्मी हम्माद फारुखी ने पंकज बिष्ट और विद्यासागर नौटियाल को एक समान विचार का कथाकार बताया। उन्होंने पंकज बिष्ट व उनके साहित्य का व्यापक परिचय दिया। और बताया कि किस तरह कुमाऊं के अल्मोड़ा , मुम्बई ,  भारत सरकार के सूचना सेवा विभाग के प्रकाशन विभाग में उपसंपादक व सहायक संपादक, योजना के अंग्रेजी सहायक सम्पादक, आकाशवाणी की समाचार सेवा में सहायक समाचार संपादक व संवाददाता, भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन में संवाद- लेखन करते हुए भी व साहित्यरत रहे हैं। उनके द्वारा संपादित समयांतर सबसे विचारपरक पत्रिकाओं में है।

पंकज बिष्ट जी ने अपने भाषण के दौरान एक दिलचस्प बात यह कही, कि जब लगता है सब कुछ लिखा जा चुका है और नया कुछ लिखने के लिए नहीं बचा तो पत्रकारिता में नयापन ढूंढना पड़ता है. यह कभी ना खत्म होने वाला स्रोत है. इस संदर्भ में उन्होंने अपनी पत्रिका समयांतर पर बात करते हुए बताया कि  समय पर पत्रिका निकालना और पाठकों तक पहुंचाना कितना श्रमसाध्य कार्य है. उन्होंने पत्रकारिता में कमिटमेंट, प्रतिबद्धता,और जनपक्षधर्ता जैसे तत्वों की अनिवार्यता पर अपने विचार रखे।

इस मौके पर सेव हिमालय मूवमेंट के संरक्षक जगदंबा रतूड़ी, राजीव नयन बहुगुणा, साहित्यकार जितेंद्र भारती, नवीन नैथानी, राजेश सकलानी, दिनेश जोशी, कृष्णा खुराना, कुसुम भट्ट, चंद्रनाथ मिश्र, अरुण कुमार असफल गढवाली के रचनाकार दैवेंद्र जोशी, मदन डुकलान, बीना बैंजवाल, कान्ता घिल्डियाल, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता समर भंडारी, सुरेंद्र सजवाण, संजीव घिल्डियाल, चंद्रकला, राजेंद्र गुप्ता समीर रतूड़ी, अंतरिक्ष नौटियाल, पंचशील, अनीता नौटियाल आदि मौजूद रहे। कार्यक्रम के दौरान समय साक्ष्य, काव्यांश प्रकाशन, राहुल फाउंडेशन और गार्गी प्रकाशन वालों ने पुस्तक प्रदर्शनी भी लगायी।  

Wednesday, May 22, 2019

सांसारिक चमत्कार की खोज के लिए



तमाम हरकतों से भरी दुनिया में आम जन मानस की दैनिक गतिविधियों का अनदेखा रह जाना एक सामान्‍य-सी बात है। खूबसूरत इमारतों, विभिन्‍न आकरों की बेहतरीन दिखने वाली गाडि़यों, सौन्‍दर्य के निखार में चार चांद लगा देने वाले प्रसाधनों के विज्ञापनी दौर में ऐसा हो जाना कोई अनोखी बात नहीं। फिर ऐसा भी क्‍या विशेष है उन दैनिक गतिविधियों में जिन्‍हें देखा जाना जरूरी ही है ॽ स्‍वाभाविक है ऐसे सवालों के उत्‍तर उतने सीधे सरल तरह से नहीं दिये जा सकते कि 'विकास' की अंधी दौड़ में झल्‍लाती दुनिया को संतुष्‍ट किया जा सके।      

ब्रश और रंगों के कलाकार बिभूति दास के चित्रों से गुजरने के बाद लेकिन कहना असंभव है कि ऐसे सवालों के जवाब दिये ही नहीं जा सकते। 5 अप्रैल 2019 से 11 अप्रैल 2019 तक ऑल इण्डिया फाइन आर्टस एवं क्राफ्ट सोसाइटी, नई दिल्‍ली में आयोजित बिभूति दास के चित्रों की एकल प्रदर्शनी में ऐसे कितने ही चित्र थे जिनमें दैनिक जीवन की गतिविधियां दर्ज होती हुई थी। दिल्‍ली की सड़कों पर मौजूद तेज रफ्तार के बरक्‍स आईफा के हॉल के माहौल की खामोशी का रंग जूतों को चमकाते मोची की मुस्‍कान पर उभार लेता था। ग्राहक का इंतजार करती गन्‍ना पैर कर रस निकालने वाले कामगार की आंखों में एक आश्‍वस्ति का भाव खामोशी के उस चिंतन के प्रति चेताता था जिसमें चित्रों की भव्‍यता उनके विन्‍यास में नहीं बल्कि उस दृष्टि में मौजूद थी जो उपेक्षित रह जा रहे दैनिंदिन को दर्ज करने पर आमादा है। मीठे नारियल पानी की इच्‍छा जगाता पेड़ पर चढ़कर नारियल तोड़ता कामगार, ढोलक बेचने वाला ढोलकी, अपनी नन्‍हीं बेटी को समुद्र के विस्‍तार से परिचित कराता पिता जलरंगों के माध्‍यम से बने उन चित्रों में दर्ज थे। वस्‍तुएं गहरे रंगों में रंगी होने के बावजूद मानवीय भावों की उजास में हर परिस्थिति से निपट लेने की दृढ़ता इस बात के लिए आश्‍वस्‍त करती हुई थी कि दैनिक जीवन की गतिविधियों का यूं चित्रों में ढल जाना अनायास नहीं, एक सायास प्रयास ही रहा होगा। बिभूति दास की यह पहली ही प्रदर्शनी इन उम्‍मीदों से भर कह जा सकती है भविष्‍य में गहरे रंगों वाले मानवीय चेहरे भी उत्‍साह की लकीरों से दमकते हुए दिखने लगेगें।        
 
विजय गौड़

Saturday, December 22, 2018

हिंदी जापानी साहित्य संवाद


हिंदी की महत्वपूर्ण कथाकार अल्पना मिश्र की 15 दिनों की  जापान की साहित्यिक यात्रा, भारत और जापान के साहित्यिक-, सांस्कृतिक सम्बन्ध की दिशा में एक बड़ा कदम है । हिंदी साहित्य के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब कोई हिंदी का लेखक  वैश्विक स्तर पर सीधा संवाद कर रहा था।  यह दोनों देशों के बीच एक ऐसा बहु आयामी संवाद था जिसे न सिर्फ लंबे वक्त तक याद रखा जाएगा, बल्कि यह दुनिया के इतिहास में   दर्ज की गई परिघटना है। इस दौरान दुनिया के मशहूर लेखकों  में शुमार हिरोमी इटो के साथ अल्पना मिश्र का  विचारोत्तेजक ढाई घंटे का सीधा संवाद दोनों देशों के लिए एक उपलब्धि बना, जो सहेज कर रखने योग्य है।

इस दौरान अल्पना मिश्र के जीवन और लेखन के विभिन्न पहलुओं पर एक वृत्तचित्र भी दिखाया गया।
 
जापान के चार मुख्य शहरों में आयोजित विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रम अल्पना मिश्र के लेखन और जीवन पर फोकस किया गया था। इस कार्यक्रम श्रृंखला की शुरुआत 22 नवंबर को इबाराकी में ओटेमोन विश्वविद्यालय के साथ वहाँ के कल्चरल सेंटर में हुई। यहां अल्पना मिश्र ने लम्बा व्याख्यान दिया, जिसमें भारतीय संस्कृति और स्त्रियों की स्थिति पर टिप्पणी के साथ अपनी लेखकीय यात्रा के बारे में भी उन बातों का उल्लेख किया जो उनके लेखक बनने में सहायक रहीं, जिसमें दुनिया के विभिन्न भाषाओं की उन पुस्तकों का भी जिक्र आया जिसने उनके जीवन पर प्रभाव छोड़ा था। व्याख्यान के बाद उपस्थित जापान के बौद्धिकों के साथ भारत जापान के साहित्यिक सांस्कृतिक परिवेश से संबंधित खुला संवाद हुआ । 25 नवंबर की सुबह ओसाका विश्वविद्यालय, ओसाका में जापानी छात्रों के साथ संवाद का सिलसिला जारी रहा । यह एक सुखद बात थी कि जापानी छात्रों में भारत के सांस्कृतिक परिवेश को समझने की जिज्ञासा तीव्र नजर आई । भारत जापान के रिश्ते की मजबूती के लिए साहित्य और संस्कृति को एक सेतु बनाना चाहते हैं । यहाँ उनकी बातों का जापानी में अनुवाद प्रोफेसर ताकाहाशी ने किया। दुनिया की सबसे तेज पूर्ण विकसित व्यस्त और इनोवेटिव शहर टोक्यो में, टोक्यो विश्वविद्यालय के प्रांगण में 28 नवंबर को अल्पना मिश्र के कथा साहित्य के बहाने भारत और हिंदी के मन मिजाज को समझने की  उत्कटता अभिभूत करने वाली थी। अल्पना मिश्र के व्याख्यान के बाद जापान के दो प्रखर आलोचकों कोजी तोको और नाकामुरा काजुए ने अल्पना मिश्र के कथा साहित्य की गहन समीक्षा की।



राजकमल से प्रकाशित उनके उपन्यास 'अस्थि फूल' की रचना प्रक्रिया और उसके सामाजिक राजनैतिक पहलुओं पर विस्तार से बात हुई। 01 दिसम्बर को जापान के खूबसूरत शहर कुमामोटो में जापान की विश्व प्रसिद्ध लेखक हिरोमी ईटो से अल्पना मिश्र का सीधा संवाद हुआ। हिरोमी इटो ने संवाद के क्रम में अल्पना मिश्र से उनकी रचनाओं और भारत में औरतों के हालात के संबंध में  तीखे  सवाल किए जिनका उन्हें माकूल जवाब भी मिला ।वह प्रसन्न और  संतुष्ट भी हुई। दोनों लेखकों ने अपनी अपनी रचनाओं के अंशों का पाठ भी किया । अल्पना मिश्र के साहित्य का जापानी में किये गए अनुवाद की बुकलेट श्रोताओं के बीच सभी शहरों में वितरित की गई। यात्रा के दौरान कई प्रमुख हस्तियों ने कथाकार अल्पना मिश्र  से संवादों - साक्षात्कारओं के मार्फत उनके लेखन और हिंदी कथा साहित्य के परिवेश को जानने समझने की कोशिश की, जिनमें जापान में हिंदी विद्वान प्रोफेसर मिजोकामी, प्रोफेसर नाम्बा, प्रोफेसर कोमात्सु, श्री याजीरो तनाका, डॉ चिहिरो कोइसो, श्री रीहो ईशाका, श्री हाईदकी इशीदा के साथ साथ अनेक जापानी मीडिया के लोग, प्रोफेसर, फॉरेन ऑफिसर्स, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, रसियन,चीनी, जर्मन भाषा के विशेषज्ञ और बौद्धिक शामिल थे।


चंद्रभूषण तिवारी




Wednesday, April 25, 2018

वह इतना सुलभ नहीं

सुनता हूं सैन्नी अशेष मनाली में रहते हैं। अफसोस कि मेरी कभी उनसे मुलाकात नहीं हुर्इ। कितनी ही बार रोहतांग के पार मेरा जाना हुआ, अशेष को खोजा, पर वे न जाने किन कंदराओं में छुपे बैठे रहे। अपने कवि मित्र अजेय से भी उनका पता ठिकाना जानना चाहा, पर वे मुस्कराते ही रहे और एक रहस्य बुनते रहे। दरअसल सैन्नीे अशेष को मैं उनके लिखे से जानने लगा था। वर्षों पहले ‘समयांतर’ में उनको पढ़ा था। दिलचस्पक यात्रा वृतांत था वह, अभी इतना ही याद है उसमें विकासनगर, देहरादून का कोई ऐसा संदर्भ आया था कि लेखक मानो विकासनगर, देहरादून में रहता हो। देहरादून के नजदीक पहाड़ों पर घुमक्कड़ी करने वाला ऐसा कोई दिलचस्पव व्यक्ति रहता हो जो लिखता भी मस्त हो, आखिर खुद होकर उससे सम्पमर्क करने को मैं उतावला क्यों न होता। समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट जी को फोन करके दिलचस्पस यात्रा वृतांत के लेखक का फोन नम्बर मांगा और फोन घड़घड़ा दिया। बस वही फोन की क्षणिक मुलाकात रही। जिसने आज तक मिलने की प्यास को जगाया हुआ है। बस फेसबुक में ही उन्हें मिल पाना होता है। यूं भी उस वक्त जब मैंने दारचा होकर जंसकर के चक्कर लगाने वाला होता था, उस दौरान सैन्नी अशेष ऐसे सुलभ भी तो नहीं थे। यकीन नहीं तो अजेय से पूछ लिया जाए। पर अजेय शायद इस पर भी कोई टिप्पणी आज भी न करे, हां मुस्करा तो देंगे ही।

अभी पढ़े सैन्नी अशेष की एक दिलचस्प रिपोर्ट उनके ही इस अंदाज के साथ - इस पोस्ट को सब पचा ही लें, ऐसा किसी पर मेरा प्रेशर न माना जाए। मेरी सह-अनुभूति उन लोगों से है जिन्हें आती तो है पर भीतर जाकर न्यूटन के सिद्धांत को अंगूठा दिखाकर विचित्र ग्रेविटेशन में स्थगित हो जाती है और तो भी पैसे देने पड़ जाते हैं।


उस दबंग लड़की को देखकर मैं ठिठक गया.
वह नवविवाहिता लग रही थी. मेरे ही पहाड़ की थी, मगर उसकी सजधज मनाली में आने वाली हनीमूनिया 'मुनिया' जैसी थी। वह किसी से लड़ रही थी.
मनाली के मॉल पर आसपास तीन सुलभ शौचालय मिलाकर पांचेक टॉयलेट हैं। आपको अगर आ ही जाए और टरकाए न बने तो किसी भी एक में दो मिनट में पहुँच कर हाजत को रफ़ादफ़ा कर सकते हैं। घंटा भर वहां ध्यान भी करते रहें तो बाहर से कोई दस्तक नहीं देगा। मनाली में शौच-शिविर का अपना परमानन्द है। मॉल से सटे होटलों और रेस्तराओं की कतारों में तो टॉयलटों की भरमार ही है, क्योंकि अधिकाँश भारतीय परिवार यहां खाने-पीने और निकालने ही आते हैं। दिन में एक बार तो मर्यादा पुरुषोत्तमों को भी निबटना ही होता है सोने का हिरण या सोने की लंका का रावण मार कर!

"मैं उस चीज़ के पैसे क्यों दूं, जो मैंने की ही नहीं?" वह सरेआम चिल्ला रही थी।

यही सुनकर मैं ठिठका था और उस पर कुर्बान हो गया था।

किसी सार्वजनिक, मगर ख़ूबसूरत शौचालय के बाहर आजतक मैंने इतना खुशबूदार सवाल किसी पुरुष के मुंह से तो दूर, किसी हिज़हाइनेस हिज़ड़े तक के मुंह से निकलता नहीं सुना था.

सुलभिया जवान घबरा गया था, क्योंकि सामने टहलते पूरी दुनिया के सैलानी मेरे पीछे ठिठकने लगे थे. मॉल यों भी मनाली का अंतर्राष्ट्रीय विचरण-स्थल है.

सुलभ-जवान ने झिझकते-शर्माते हुए कहा :
"मैम, मुझे क्या पता आपने क्या किया? हम तो पांच रुपए ही लेते हैं."

लड़की गरजी :
"तुम लोग पहले हमें तोल लिया करो और वापसी में फिर तोल लिया करो कि हमने भीतर जाकर क्या किया?"

मैंने मौके का फ़ायदा उठाकर लड़के से कहा :
"मुझसे तो तुम कुछ भी नहीं लेते?"
"आप मर्द हैं। मर्दों के लिए यूरिनल की अलग जगह है."

अब लड़की चिल्लाई :
"हमारे लिए अलग-अलग जगह क्यों नहीं है?"
"यह आप सरकार से पूछो।"

अचानक भीतर से एक युवक बाहर आया और उस लड़की से धीरे से बोला :
"क्यों तमाशा बना रही हो? चलो."

वह शायद उसका नवविवाहित था।

सुलभ युवक मुझसे बोला :
"एक ने पेशाब किया होगा, एक ने पॉटी ... दोनों में से किसी ने पैसे नहीं दिए।"

तो भी लड़की की बात अपनी जगह बिलकुल सही थी.
मनाली में सुलभिये पर्यटक स्त्रियों से अक्सर दस रुपए लेते भी देखे जाते हैं। 
वह भी दो मिनट आने-जाने के !

वह भी तब, जब मनाली में अधिकाँश स्त्री-पुरुष सैलानी एक जैसे नज़र आते हैं। अर्धनारीश्वर या अर्धनरेश्वरी !

क्या शौच मीटर नहीं लगाए जा सकते?
ज़्यादा करने या ज़्यादा बैठने वालों से ज़्यादा फीस लेकर कम समय में कम निकासी करने वालों को राहत दी जा सकती है।

उस ह(ग)नीमूनिया मुनिया का धन्यवाद्।


Sunday, November 12, 2017

साहित्य और प्रर्यावरण के अन्तर संबंध


पर्यावरण चेतना और सृजन के सरोकार जैसे सवालों पर विचार-विमर्श करते हुए कोलकाता की सुपरिचित संस्था साहित्यिकी ने भारतीय भाषा परिषद में 11 नवंबर 2017 को एक राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया। परिसंवाद में भागीदारी करते हुए जहां एक ओर हिंदी कविताओं में विषय की प्रासंगिकता को तलाशते हुए जहां डा. आयु सिंह ने हिंदी कविता में विभिन्न समय अंतरालों पर लिखी गई अनेक कवियों की कविताओं को उद्धृत करते हुए अपनी बात रखी वहीं ठेठ जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता सिद्धार्थ अग्रवाल ने जन समाज की भागीदारी की चिंताओं को सामने रखा। दूसरी ओर पर्यावरणविद, वैज्ञानिक एवं साहित्य की दुनिया के बीच अपने विषय के साथ आवाजाही करने वाले यादवेन्द्र ने अपने निजी अनुभवों को अनुभूतियों के हवाले से पर्यावरण के वैश्विक परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए न सिर्फ पर्यावरण को अपितु पूरे समाज को पूंजी की आक्रामकता से ध्वस्त करने वाली ताकतों की शिनाख्त करने का प्रयास किया।
कार्यक्रम के आरंभ में 'साहित्यिकी' संस्था, कोलकाता की सचिव गीता दूबे ने संस्था की गतिविधियों का संक्षिप्त विवरण देते हुए अतिथियों का स्वागत किया। तत्पश्चात वाणी मुरारका ने‌ मरुधर मृदुल की कविता 'पेड़, मैं और हम सब' का पाठ किया।  'साहित्य और पर्यावरण' पर अपनी बात रखते हुए डा. इतु सिंह ने कहा कि प्रकृति प्रेम हमारा स्वभाव और प्रकृति पूजा हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। उन्होंने जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय‌ आदि की कविताओं  के हवाले से प्रकृति के प्रति उनके लगाव और चिंता को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि बाद में भवानी प्रसाद मिश्र आदि ने प्रकृति प्रेम की ही नहीं प्रकृति रक्षण की भी बात की। हेमंत कुकरेती, केदारनाथ सिंह, लीलाधर जगूड़ी, ज्ञानेन्द्रपति, मंगलेश डबराल, कुंवर नारायण,  उदय प्रकाश, लीलाधर मंडलोई, वीरेंद्र डंगवाल, मनीषा झा, राज्यवर्द्धन, निर्मला पुतुल की कविताओं में पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा बेहतरीन ढंग से उठाया गया है।
पूर्व बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पर्यावरणविद सिद्धार्थ अग्रवाल ने कहा कि पर्यावरण और स्थानीय भाषा दोनों के साथ असमान व्यवहार होता है। प्रकृति का अनियमित शोषण हो रहा है। नदियों का लगातार दोहन हुआ है। जागरूकता के अभाव में पानी बर्बाद होता है। आज के समय में हम विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन देख रहे हैं। केन बेतवा परियोजना के कारण बहुत बड़ी संख्या में पेड़ डूबने वाले हैं। उन्होंने अपना दर्द साझा करते हुए कहा कि आज के समय में पर्यावरण के लिए काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है।
"पर्यावरण और सांस्कृतिक विरासतें" विषय पर दृश्य चित्रों‌ के माध्यम से अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए यादवेन्द्र ने कहा कि जलवायु परिवर्तन की कीमत हमने ऋतुओं के असमान्य परिवर्तन के रूप में चुकायी है। गंगोत्री ग्लेशियर लगातार पीछे की ओर खिसकता जा रहा है। पांच छः सालों के बाद केदारनाथ मंदिर में चढ़ाया जानेवाला ब्रह्मकमल खिलना बंद हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन के लक्षणों के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा  कि अगर दुनिया ने अपने चाल और व्यवहार में परिवर्तन नहीं किया तो चीजें ऐसी बदल जाएंगी कि दोबारा उस ओर लौटना संभव नहीं हो पाएगा। राष्ट्रीय धरोहरों पर  निरंतर बढ़ते जा रहे खतरों की चिंताएं भी उनके व्याख्यान का विषय रहीं।
अध्यक्षीय भाषण में किरण सिपानी ने कहा कि पर्यावरण में आ रहे बदलावों की वजह से हमारा अस्तित्व खतरे में है। अभी भी लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता का अभाव है। हम अदालती आदेशों से डरते हुए भी सरकारी प्रयासों के प्रति उदासीनता बरतते हैं। आवश्यकता है अपनी उपभोग की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की। प्लास्टिक पर रोक लगाने की बजाय उनका उत्पादन बंद होना ‌चाहिए।

परिचर्चा में पूनम पाठक,  विनय जायसवाल, वाणी मुरारका आदि ने हिस्सा लिया। शोध छात्र, प्राध्यापक, साहित्यकार, पत्रकार, युवा पर्यावरण कार्यकर्ता एवं विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर चिंता जाहिर करने‌वाले लोगों की एक  बड़ी संख्या ने कार्यक्रम में हिस्सेदारी की।
कार्यक्रम का कुशल  संचालन रेवा जाजोदिया और धन्यवाद ज्ञापन विद्या भंडारी ने किया।

एक साहित्यिक संस्था का जनसमाज को प्रभावित करने वाले विषय में दखल करने की यह पहल निसंदेह सराहनीय है।

Wednesday, May 18, 2016

व्‍यक्तिगत पहल की सामूहिक गतिविधियां




7-8 मई 2016 को कुशीनगर में जोगिया जनूबी पट्टी में संपन्‍न हुआ लोक उत्‍सव इस बात की बानगी है कि लोक नाट्य, लोकगीत, जनगीत और समाज, साहित्‍य, संस्‍कृति के साथ साथ अभिव्‍यक्ति की आजादी की बातें कैसे गांव वालों की बतकही का हिस्‍सा बनायी जा सकती है। आनंद स्‍वरूपा वर्मा, रविभूषण, मदनमोहन सरीखे हिन्‍दी के बुद्धिजीवि, आलोचक, रचनाकारों के साथ साथ देश भर के भिन्‍न भिन्‍न भागेां से आये लोक कलाकारों का सामूहिक जमावड़ा दो दिनों तक वहां लोक को समझने ओर समृद्ध करने की उस औपचारिक कार्यवाही का हिस्‍सेदार रहा जो पिछले नौ वर्षों से जोगिया जनूबी पट्टी की हलचल बना हुआ है। कुशीनगर का यह लोक उत्‍सव जनभागीदारी की एक सहज और स्‍वाभाविक गतिविधि के रूप में जाना जाने लगा है। इस बार का कार्यक्रम हिन्‍दी के जन कवि विद्रोही जी को समर्पित था, और उस मूल विचार के अनुकूल था जिसका लक्ष्‍य मानवता के दुश्‍मनों को पहचानने और उनसे टकराने के लिए जनसमूहों के बीच व्‍यापक एकता के सूत्र बनाते रहने में यकीन रखने वाला होता है।
कुशीनगर में हर वर्ष आयोजित होने वाला यह लोक उत्‍सव पूर्वांचल की उस हवा का का एक कतरा कहा जा सकता है, जिसका लगातार बहाव पिछले कुछ वर्षों से इस भूगोल में मौजूद है। हिन्‍दी भाषा का विशाल क्षेत्र, जिसे अक्‍सर हिन्‍दी पट्टी कह दिया जाता है, पश्चिम में राजस्‍थान से लेकर पूरब में बिहार, झारखण्‍ड तक एवं उत्‍तर में उत्‍तर-पश्चिम हिमालय क्षेत्र के राज्‍य हिमाचल और उत्‍तराखण्‍ड से लेकर मध्‍यभारत तक फैला हुआ है। विविध सांस्‍कृतिक विशिष्टिताओं वाले जनसमाजों के बावजूद इस पूरे भू भाग में संयुक्‍त रूप से होने वाली किसी भी सांस्‍कृतिक गतिविधि की कोई बड़ी गूंज सुनायी नहीं देती है। इसे सांस्‍कृतिक शून्‍यता तो इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्‍योंकि हिन्‍दी की रचनात्‍मक दुनिया का जो कुछ भी है वह ज्‍यादतर इन जगहों से ही आता है। तो भी एक प्रकार से यहां  के माहौल सांस्‍कृतिक जड़ता की व्‍याप्ति तो दिखायी देता ही है। कारणों को खोजे राजनैतिक, सामाजिक आंदोलन का आभाव मूल वजह के रूप में दिखता है। जिसकी वजह से रचनात्‍मक लोगों के बीच भी एकजुटता बनने का कोई रास्‍ता बनता हुआ नहीं दिखता है।

लेकिन यह उल्‍लेखनीय है कि पिछले पच्‍चीस तीस सालों में पूर्वांचल यह भूभाग बीच बीच में कुछ ऐसी गतिविधियां का हिस्‍सा रहा जिनका उद्देश्‍य चारों ओर फैली हुई सांस्‍कृतिक जड़ता को तोड़ना रहा। एक समय में गोरखपुर एवं उसके आस पास के क्षेत्रों में पैदा हुआ जनचेतना का आंदोलन जो राहुल फाउण्‍डेशन की शक्‍ल लेता हुआ बाद में लखनऊ तक विस्‍तार किया। लगभग उसी दौर के आस पास आजमगढ़ के जोकहरा गांव में स्‍थापित हुआ श्री रामानान्‍द सरस्‍वती पुस्‍तकालय। लगभग पिछले दस वर्षों से जारी प्रतिरोध का सिनेमा कार्यक्रम जो अन्‍य नगरों तक विस्‍तार लेता हुआ है।  
जनचेतना एवं राहुल फाउण्‍डेशन और प्रतिरोध का सिनेमा जैसे कायर्क्रमों का चरित्र जहां आरम्‍भ से सांग‍ठनिक गतिविधियों का हिस्‍सा रहा, वहीं कुशीनगर का लोक उत्‍सव और जोकहरा गांव का श्री रामानन्‍द सरस्‍वती पुस्‍तकालय अपनी अपनी में हिन्‍दी के दो लेखकों की स्‍वतंत्र-स्‍वतंत्र परिकलपानायें कही जा सकती हैं। गांव के हालातों पर अपने पैनी निगाह रखने वाले हिन्‍दी के महत्‍वपूर्ण कथाकार सुभाष चंद्र कुशवाह ने अपने गृहगांव जोगिया जबूनी पट्टी में लोकरंग उत्‍सव की शुरूआत की तो कथाकार विभूति नारायण राय ने अपने पैतृक गांव जोकहरा के विकास को अपनी सामाजिक जिम्‍मेदारी मानते हुए पुस्‍तकालय की नींव रखी। विकास नारायण राय सरीखे प्रखर रचनाकारों का भी रचनात्‍मक सहयोग पुस्‍तकालय को मिलता रहा।

दिलचस्‍प है कि दो दिनों के लोक उत्‍सव का रंग पूरे गांव में साल भर तक बनी रहने वाली उस अमिट छाप के रूप में मौजूद रहता है जो प्रत्‍यक्ष तौर पर रंगों में उभरती आकृति होती हैं, लेकिन अप्रत्‍यक्ष तौर पर जिसके अक्‍श गांव के नौनिहालों के बचपन को एक बेहतर नागरिक बनाने वाले प्रभावों में दर्ज होते जा रहे हैं। ठीक इसी तर्ज पर पर 1993 में आजमगढ़ के जोकहरा गांव में की गयी पुस्‍तक संस्‍कृति के विकास की पहल आज ऐसे पुस्‍तकालय के रूप में है जिसके कामों का दायरा महिला हिंसा और जाति हिंसा सवालों के प्रति नागरिक चेतना के विकास में गांव भर के लोगों से रोज का संवाद होना भी हुआ है।  पुस्‍तकालय अपनी एक ऐसी बिल्डिंग के साथ खड़ा है जिसमें हिन्‍दी की तमाम लघु पत्रिकाओं के अनुपलब्‍ध अंक सुरक्षित रखे हैं। लघु पत्रिकाओं का ऐसा संग्रह मेरे जानकारी में तो देश के किसी अन्‍य पुस्‍तकालय में नहीं है। इस लिहाज से देखें तो शोधार्थियों के लिए यह एक महतवपूर्ण पुस्‍तकालय है जहां तथ्‍य की उपलब्‍धता संपादित होकर प्राकाशित हो चुकी पुस्‍तकों की बजाय समय काल की जीवन्‍त बहसों के रूप में है। हंस, कथादेश, सारिका ही नहीं, पहल, कल्‍पना, पूर्वग्रह, कहानी, कहानीकार, अणिमा आदि बहुत सी विलुप्‍त हो चुकी पत्रिकाएं भी यहां सुरक्षित ही नहीं है, अपितु जिनकी व्‍यवस्‍था के लिए नियमितता का तंत्र मौजूद है। पुस्‍तकालय की सेवाओं को प्राप्‍त करने के लिए आने जाने वाले अध्‍येताओं और अतिथियों की आवास और भोजन सुविधा को भी यहां अपने सीमित साधनों में निपटा लिया जाता है।
व्‍यक्तिगत प्रयासों से शुरू होने वाली ये दोनों ही गतिविधियां लगातार सामूहिकता की ओर बढ़ती हुई हैं जिनके असर में आयोजन स्‍थलों के आस पास का भूगोल आंदोलित होता हुआ है और सामाजिक माहौल को परिमार्जित, परिष्‍कृत करता हुआ है।