भिन्नता का सम्मान करना और उसके बीच बने रहना, सहज मानवीय गुण हैं। इस ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति-जो प्रकृति के रूप में हमारे इर्द गिर्द बिखरी है, हमारे भीतर और बाहर है, कहीं हमशक्ल तक भी दिखती नहीं, उसके अदृश्य गुणों की भिन्नता की बात तो क्या ही की जाए। सभ्यता के विकासक्रम में भिन्नता के संग साथ सतत बनी रहने वाली प्रकृति की प्रेरणा ने ही जनतांत्रिक मूल्य एवं नैतिकता के मानदण्ड रचे हैं।
यह सुखद अहसास है कि अनीता सकलानी, जिनके कवि होने की घोषणाएं शायद ही सुनी गई हों, अपनी डायरी में भिन्नता का कोहराम मचाये हैं। उनकी कविताओं का मिजाज भिन्नता के यशोगान में ही आप्लावित है। कहें कि भिन्नता का काव्य उत्सव मनाते रहना उनकी कविताओं का ध्येय होता हुआ है। व्याकरण सम्मत कसाव में उनके कहन की सहज स्पष्टता, मजबूर कर रही है कि उनके कवि होने की घोषणा कर दी जाये।
|
अनीता सकलानी
अदभुत
उड़ती हूं बादलों
में
रोम-रोम पुलकता है
स्नान करती है
आत्मा
अपसृत धाराओं में
सितारों संग,
बिखरी पड़ी है, शरद पूर्णिमा
आकाश में
चांदनी से नहायी
पृथ्वी में
विभोर होती है
मीरा गलियों में
कबीर एक तारा
बजाते हैं
सूर के कृष्ण
नृत्य करते हैं
पेड़, पर्वत, नदी,
एक नीली झीनी चादर ओढ़े
हवा के साथ करते
ठिठोली हैं
एक धरती
एक लोग
भेद नहीं कहीं भी
इस धरती पर मैं
समायी
अदभुत है
आकाश
हवा मुझे ले जा
रही आकाश में
नीचे मेरी प्यारी
धरती
कभी पहाड़ कभी
जंगल कभी चट्टानें
घुमड़ कर बादल
आवेग में,
हृदय की लहरों की
तरह
गहराई में
छोटे-छोटे मकान
जैसे बच्चों ने
खेल में बनाए हुये
शायद पाकिस्तान
शायद अफगानिस्तान
कोई देश मेरे
अनजाने
खुशी से ठाठे
मारता समुद्र,
रात,
चांद पर रीझती रात
यहीं कहीं रहती है
मेरी बेटी
थक कर सोई बिछौने
में,
एक स्वप्नमयी
नींद
मुझसे बातें करती
जाती है
यह पृथ्वी