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Tuesday, November 7, 2023

मसूरी में बना था उत्तर भारत का पहला सिनेमाघर

 

किसी शहर की बनावट को जानने के लिए वहां  की गलियां और चौराहों से गुजरना जरूरी है। लेकिन समय की दौड़ में यदि वे गलियां और चौरस्ते गायब हो गए हो तो क्या किया जाये। देहरादून के चौरस्ते तो पिक्चर हॉलों से गुजरते थे, वहीं उस दौर का युवा धड‌कता था। लेकिन पुरानी इमारतों को मॉल में बदल दिये जाने वाले इस दौर में वह देहरादून अपनी  शक्ल  बदल चुका है। हमारे  प्रिय  लेखक और देहरादून को हर क्षण अपने भीतर जिंदा रखने वाले शख्स कथाकार  सूरज प्र्काश की  कलम का शुक्रिया कि वह उस देहरादून  का चित्र दिखा पाने में सक्षम है जो आज विलुप्त हो चुका है। आइये  पढ‌ते  हैं, देहरादू के सिनेमा  हॉल पर लिखा उनका संस्मरण । 
विगौ


बचपन का बाइस्कोप

सूरज प्रकाश



याद आता है कि बचपन में और किशोरावस्था में हमने देहरादून के सिनेमाघरों में खटमलों से घमासान करते हुए कितनी फ़िल्में देखी झेली हैं। कितना रोमांचकारी अनुभव होता था तब फिल्म देखना। सिर्फ हम बच्चों के लिए ही नहीं, परिवार के सभी सदस्यों के लिए, अकेले रहने वाले नौकरीपेशा लोगों के लिए और हर उम्र के लोगों के घर से बाहर निकल कर मनोरंजन की तलाश करने वाले लोगों के लिए सिनेमा हॉल तब बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। फिल्म देखना किसी उत्सव से कम नहीं होता था। अगर परिवार के साथ या बाहर से आये मेहमानों के साथ रविवार या छुट्टी के दिन फिल्म देखने का प्रोग्राम बनता तो बाकायदा घर में उत्सव का माहौल बन जाता। एक या दो दिन पहले से किसी को भेज कर फर्स्ट क्लास या बाल्कनी के टिकट मंगवाये जाते, खूब तैयार हो कर और पूरे मनोयोग के साथ फिल्म देखने के लिए घर से निकलते। छुट्टी के दिन या रविवार के दिन अचानक फिल्म देखने का प्रोगाम बन जाने से या तो हाउस फुल का बोर्ड देख कर या तो निराश होना पड़ता या ब्लैक में टिकट खरीदने पड़ते। 
सन 70 से 80 के दशक तक देहरादून शहर में ये सिनेमाघर थे। जैसे भी थे, हमारे जीवन के जरूरी अंग थे।
1. लक्ष्मी टॉकीज - गाँधी रोड,  2. फिल्मिस्तान टॉकीज - पुरानी सब्जी मंडी, मोती बाजार, 3. दिग्विजय सिनेमा – घंटाघर, 4. कैपरी सिनेमा - चकराता रोड, 5. नटराज सिनेमा - चकराता रोड, 6. प्रभात टॉकीज - चकराता रोड, 7. कृष्णा पैलेस सिनेमा - चकराता रोड, 8. न्यू एम्पायर सिनेमा - राज पुर रोड, 9 . ओरिएंट सिनेमा – एस्ले हॉल, 10. छाया दीप सिनेमा - राज पुर रोड, 11. पायल सिनेमा - राज पुर रोड, 12.  ओडियन सिनेमा - राज पुर रोड, 13. विक्ट्री सिनेमा – क्लेमेंटटाउन, 14. गैरीजन हॉल सिनेमा - मॉल रोड, गढ़ी कैंट, 15. न्यू राज कमल सिनेमा- गढ़ी कैंट, 16. खेत्रपाल प्रेक्षागृह - इंडियन मिलिट्री अकादमी (आईएमए)।, 17. कनक सिनेमा - परेड ग्राउंड के समीप। 

मसूरी में बना था उत्तर भारत का पहला सिनेमाघर। 1860 से 1868 के बीच माल रोड पर मसूरी बाजार (जो कि अब लाइब्रेरी बाजार है) के पास इलीसमेयर हाउस में नाटकों का मंचन शुरू किया गया। ये सिलसिला 1935 तक चला, इसी बरस से यहां बाइस्कोप दिखाया जाने लगा। बाद में फिर यही इलीसमेयर हाउस मैजेस्टिक सिनेमा हॉल बना।
इनके अलावा उन दिनों उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग की ओर से ऐसी खुली जगह पर, जहां तीन चार सौ आदमी आराम से जमीन पर बैठ सकें, फोल्डिंग स्क्रीन लगा कर फिल्में दिखाने का प्रचलन था। फिल्म से पहले प्रचार पसार के लिए डॉक्यूमेंट्री फिल्में दिखायी जातीं और उसके बाद फिल्म शुरू होती। तब हर पंद्रह बीस मिनट बाद जब प्रोजेक्टर पर रील बदली जाती तो वह पांच सात मिनट का अंतराल भी खराब लगता। फिल्में आम तौर पर ब्लैक एंड व्हाइट होतीं। पता नहीं हम बच्चों को कैसे खबर मिल जाती कि फलां जगह पर आज फिल्म दिखायी जा रही है, हम सब पहुंच जाते। फिल्म कितनी समझ में आयी, इससे कोई मतलब नहीं होता था, देखना महत्वपूर्ण होता था।
       दिगविजय टाकीज पहले प्रकाश टाकीज़ हुआ करता था। यह किसी गुप्ता परिवार का था। मालिक अय्याश थे। सिनेमा का दिवाला पिट गया। फिर इसे.जुब्बल के राजा.ने खरीद लिया। रिनोवेट किया और इसका नाम बदलकर दिगविजय टाकीज़.हो गया।
 नटराज का नाम पहले चीनिया हुआ करता था और उससे पहले हाउसफुल और उससे भी पहले हॉलीवुड। यूनिवर्सल पेट्रोल पंप के बगल स्थित न्यू एम्पायर सिनेमा के प्रथम तल के लकड़ी के फर्श पर देहरादून शहर के समृद्ध व्यक्ति व उनके परिवार स्केटिंग का आनंद लेते थे, इस विशालकाय हॉल को "रिंक" के नाम से भी जाना जाता था। न्यू एंपायर में सबसे अधिक सीटें थीं और वहां पर बाल्कनी के अलावा फैमिली केबिन भी बने हुए थे। वहां सबसे ज्यादा सीटें होने के कारण कभी भी टिकट मिल जाया करती थीं। 

कैप्री व ओडियन सिनेमाघरों में केवल नवीनतम अंग्रेजी फिल्में  ही प्रदर्शित होती थीं, बाद में प्रभात टॉकीज में भी सुबह के शो में अंग्रेजी फिल्में दिखाने का चलन आरम्भ हुआ जिसे कुछ समय अन्य सिनेमाघरों ने भी अपनाया।
इनमें से फिल्मिस्तान में परिवारों की महिलाएं सिनेमा देखने कम जाती थीं क्योंकि वहाँ पर बी ग्रेड की मार धाड़ वाली फिल्में और दारा सिंह टाइप की फ़िल्में ही ज्यादा लगती थी और थिएटर भी बहुत अच्छा नहीं था। वैसे तो सारे थिएटर ही अच्छे नहीं थे लेकिन जो थे, उन्हीं में गुज़ारा करना पड़ता था। महिलाओं के लिए और सपरिवार फिल्में देखने के लिए ओरिएंट सबसे अधिक अच्छा माना जाता था। एक तो लोकेशन के कारण और दूसरे अच्छी फिल्मों के कारण। 
आज इनमें से अधिकांश सिनेमा हॉल बंद हो चुके हैं और उनकी जगह मल्टीप्लेक्स खुल गये हैं जहां मल्टी स्क्रीन होते हैं या पूरे शहर में जगह जगह पर उग आये नये मॉल्स में मल्टी स्क्रीन नयी पीढ़ी के सिनेमा देखने के नये ठिकाने हैं। लेकिन तब के सिंगल स्क्रीन सिनेमा घर हमारे जीवन की और तब के अबोध सपनों की जरूरी जगहें हुआ करती थीं। याद आता है कि ये मिलने जुलने के सबसे महफूज ठिकाने होते थे। कई परिवारों के लड़के लड़कियों के रिश्ते तय करने के लिए परिवारों की पहली मुलाकात के लिए सिनेमा हॉल ही पसंद करते थे। परिवारों के लिए रविवार के दोपहर के शो सबसे मुफीद माने जाते थे।
आइएमए में खेत्रपाल थियेटर में केवल सेना के अफसरों और उनके परिवारों के लिए ही सिनेमा प्रदर्शित की जाती थी। वहां गैर सैनिकों का प्रवेश वर्जित था।
वक्त बदला, नयी पीढ़ी आयी, उसकी पसंद बदली। कभी शहर की शान माने जाने वाले लक्ष्मी टॉकीज, फिल्मिस्तान टॉकीज, कैप्री सिनेमा, ओडियन सिनेमा शॉपिंग काम्प्लेक्स में बदल दिए गए।  कनक, कृष्णा पैलेस और दिग्विजय सिनेमा भी अब फिल्में नहीं दिखाते। कुछ पुराने सिनेमा हॉल आज भी मौजूद हैं लेकिन ज्यादातर का वजूद ख़त्म हो चुका है।
चकराता रोड पर वर्ष 1947 में प्रभात सिनेमा की शुरुआत टीसी नागलिया ने की थी। उनके निधन के बाद उनके पुत्र दीपक नागलिया ने वर्षों तक इसका संचालन किया। 1977 में इसकी मरम्मत की गयी, जिसके बाद यहां सीटों की संख्या 500 से बढ़ाकर 1000 की गयी। साथ ही दीपक समय-समय पर आने वाली लेटेस्ट टेक्नोलॉजी को भी अपनाते रहे, जिससे दर्शकों को फिल्म देखने में आनंद आए। 
1948 में इस सिनेमाघर में पहली फिल्म बारह दिन दिखाई गयी थी जबकि फिल्म बागी-3 दर्शकों को आखिरी बार मार्च 2020 में दिखाई गयी। कभी हर दिन हॉल में चार शो दिखाए जाते थे। प्रभात सिनेमा हॉल में कुल 105120 शो दिखाए गए।
समय के साथ थिएटरों की साज सज्जा, सुविधाओं और रूप रंग में आए बदलावों और मल्टीप्लेक्स के बढ़ते चलन के साथ न केवल प्रभात से, बल्कि सभी सिंगल स्क्रीन और दशकों पुराने सिनेमा हॉलों से दर्शक दूर होते चले गए। हालांकि प्रभात थियेटर के मालिक नागलिया परिवार के सदस्य वहां पर अन्य कमर्शियल गतिविधियां शुरू करना चाहते थे लेकिन सरकार की तरफ से अनुमति नहीं मिली अंत: उन्हें ये सिनेमा हॉल बंद करने का फैसला लेना पड़ा।

बताते हैं कि नागलिया जी के कपूर परिवार से अच्छे रिश्ते थे। कपूर खानदान की फिल्में अनिवार्य रूप से वहीं रिलीज होती थीं। नागलिया परिवार ऋषि कपूर, रणधीर कपूर, करिश्मा कपूर और करीना कपूर के लोकल गार्जियन भी रहे। पहली बार ऋषि कपूर की फिल्म बॉबी यहां 25 हफ्ते तक चली थी। 
पहले इसी बरस 30 मार्च को ऋषि कपूर की इसी सुपरहिट फिल्म बॉबी के प्रदर्शन के साथ हॉल को बंद करने की योजना थी। ये अंतिम भव्य शो होता लेकिन अब बिना फिल्म चले ही प्रभात टॉकीज बंद कर दिया गया।
72 बरसों तक देहरादून की तीन पीढ़ियों को बेहतरीन सिनेमा का एहसास कराने वाला यह हॉल अब अतीत की बात हो गयी है। हॉल के संचालकों ने इस इमारत की जगह काम्प्लेक्स बनाने का निर्णय लिया है। दीपक नागलिया के बेटे तुषार नागलिया बताते हैं कि उन्होंने देहरादून में ओपन एयर सिनेमा की शुरुआत की है। दून स्कूल से पढ़े तुषार ने ओपन एयर थिएटर कॉन्सेप्ट लॉन्च किया है।
चकराता रोड स्थित नटराज की शुरुआत वर्ष 1950 में हुई थी। इस सिनेमाघर के वर्तमान मालिक भीम मुंजाल बताते हैं कि इसका निर्माण नेपाल मूल के किसी रसूखदार ने कराया था। शुरुआती दिनों में इस सिनेमाघर का नाम नटराज नहीं था, बल्कि इसे हॉलीवुड सिनेमा के नाम से जाना जाता था। उस दौर में पूरे देहरादून में सिर्फ चार सिनेमाघर हुआ करते थे। इनमें नटराज भी शामिल था। सिनेमाघरों की संख्या कम होने और सुविधाएं अच्छी होने के चलते सबसे ज्यादा भीड़ नटराज में ही होती थी। इसके चलते यहां अधिकांश शो हाउसफुल रहते थे। देहरादून के सबसे पुराने सिनेमा हॉल होने के कारण इसके तत्कालीन मालिक ने इस सिनेमाघर का नाम ही हॉलीवुड सिनेमा से बदलकर हाउसफुल रख दिया। इस सिनेमाघर के निर्माणकर्ता ने कुछ समय बाद इसे उद्योगपति दर्शनलाल डावर को बेच दिया था। वर्ष 1980 में उद्योगपति डावर से यह सिनेमाघर वर्तमान मालिक भीम मुंजाल के पिता चमनलाल मुंजाल ने खरीद लिया। उन्होंने ही इस सिनेमाघर का नाम नटराज रखा। 
उन्हीं दिनों फिल्म डिस्ट्रीब्यूटिंग के लिए नया नियम बना दिया गया। जिसके तहत नई फिल्म उन्हीं सिनेमाघरों को दी जानी थी, जिनमें कम से कम 800 व्यक्तियों के बैठने की क्षमता हो। उस वक्त तक नटराज की क्षमता 500 सीट की थी। ऐसे में उन्होंने हॉल को 908 सीट की क्षमता का किया। पसंदीदा सिनेमाघरों में शुमार ‘नटराज’ को अब आधुनिक समय के हिसाब से नए कलेवर में तैयार किया गया है। लॉक डाउन में बंद होने के करीब एक वर्ष बाद अभी हाल ही में यह सिनेमाघर दोबारा दर्शकों के लिए खुला। 
मुझे याद आता है मैंने पहली फ़िल्म 1961 में दिग्विजय ने संपूर्ण रामायण देखी थी। उस समय टिकट 50 आठ आने का था। बाद में बहुत लंबे अरसे तक सभी थिएटरों में आगे की क्लास में टिकट एक रुपया 10 पैसे, फर्स्ट क्लास के टिकट ₹2.25 और बाल्कनी के टिकट ₹3.50 हुआ करते थे। फर्स्ट क्लास में विद्यार्थियों को आइडेंटिटी कार्ड पर 20% की छूट मिल जाया करती थी और ये आइडेंटिटी कार्ड इंटरवल में वापिस मिलते थे। परिवार वाले या अकेली महिलाएं बाल्कनी या फर्स्ट क्लास में ही फिल्म देखते थे।
तब हम गाँधी स्कूल में पढ़ते थे और फर्स्ट डे फर्स्ट शो का शौक बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थियों को सिनेमा हॉल की तरफ खींच ले जाया करता था लेकिन हमारे प्रिंसिपल चंद्र किरण गुप्ता भी कम नहीं थे। वे सभी कक्षाओं के हाजिरी रजिस्टर चेक करते कि शुक्रवार को कौन कौन सी क्लास में कौन कौन से विद्यार्थी नहीं हैं। तब वे वाइस प्रिन्सिपल सिंघल को साथ ले कर टार्च ले कर नयी फिल्म वाले एक एक पिक्चर हॉल में विद्यार्थियों को ढूंढने निकल जाते और पकड़े जाने पर उन्हें स्कूल से निकाल दिया जाता। अगले दिन प्रार्थना सभा में उनकी पेशी होती, और  ₹10 जुर्माना देने पर ही दोबारा एडमिशन होता। ये उनकी या स्कूल की कमाई का एक अच्छा जरिया था।
मैंने दूसरी फ़िल्म लक्ष्मी थिएटर में 1963 में जय मुखर्जी और आशा पारेख की फिल्म फिर वही दिल लाया हूँ देखी थी। इस फिल्म का नशा कई दिन तक नहीं उतरा था। लक्ष्मी थिएटर के पास ही दिल्ली जाने वाली बसों का अड्डा हुआ करता था और तब देहरादून से दिल्ली जाने वाली बस का किराया छह रुपये चार आने होता था।
उस उम्र में फ़िल्म देखना एक बहुत बड़ा शगल हुआ करता था। हमें जब पता चलता कि सिनेमा हॉल में बाहर लगी शीशे की विंडोज़ में आने वाली फ़िल्म के फोटो लग गए हैं तो हम सब दोस्त बाकायदा फोटो देखने के लिए प्रोग्राम बना कर जाते और बहुत हसरत से उन पुरानी और कई शहरों की यात्रा करके आयी फोटो देखा करते थे। फ़िल्म देखना एक बहुत रोमांचक अनुभव होता था। 
सबसे पहले तो कई कई दिन इसी बात में बीत जाते थे कि फिल्म देखने का जुगाड़ कैसे बिठाया जाये। उन दिनों ढेरों ढेर फिल्मी पत्रिकाएं आती थीं जिनमें फिल्म की कहानी और गीतों के बोल हम पहले से पढ़ चुके होते थे। ये रंगीन फिल्मी पत्रिकाएं हमारे लिए फिल्मों से पहला परिचय कराती थीं। 
पहला शो बारह बजे का होता था और उसमें लड़कों और युवा लोगों के ही हुजूम नजर आते थे। लगभग 30% टिकट तो पहले ही ब्लैकियों के पास पहुँच जाते थे और ₹1.10 की टिकट मिलने के लिए खिड़की में एक हाथ घुसाने भर की जगह अपना अपना हाथ घुसेड़ने के लिए जो मारामारी मचती, शरीफ आदमी की तो टिकट लेने की हिम्मत ही नहीं होती थी। उस क्लास में सीटों के नंबर नहीं होते थे। टिकट मिल जाना मतलब आधा किल्ला फतह। सिर्फ प्रभात टॉकीज में ही एक रुपये दस पैसे की टिकट की खिड़की के आगे रेलिंग थी। एक बार रेलिंग में घुस गये तो टिकट मिलने की उम्मीद रहती थी। महिलाओं के लिए अलग लाइन होती। इस क्लास के टिकटों की एडवांस बुकिंग नहीं होती थी1 
हम बच्चे जब फ़िल्म देखकर आते तो कई कई दिनों तक उन दोस्तों को फिल्मों की कहानी सुनाते रहते जिन्होंने फ़िल्म नहीं देखी होती थी और हम अगले कई दिनों तक फ़िल्म के नशे से बाहर नहीं आए होते थे।
फिल्म देखने के लिए घर से 3 घंटे के लिए निकलने के लिए हमें दो बड़े बड़े संकट पार करने होते थे। फिल्म देखने से लिए सबसे पहले हमें ₹1.10 का इंतजाम करना सबसे मुश्किल होता था। पैसे आम तौर पर हमारे पास नहीं होते थे और दूसरे घर से फ़िल्म देखने जाने की अनुमति नहीं मिला करती थी। छुप कर फ़िल्म देखनी होती थी। पढ़ाई के बहाने या किसी दोस्त के घर जाने के बहाने या घर का कोई काम करने के बहाने। अगर ये दोनों संकट पार हो जायें तो फिल्म देखना एक लॉटरी लगने जैसा होता था।
दूसरा संकट होता था कि अगर घर से छुप कर फ़िल्म देख रहे हैं तो 3 घंटे के लिए घर से बाहर निकलने का बहाना कैसे लगाया जाए। कोई भी फ़िल्म तब 3 घंटे से कम की नहीं होती थी। हर सिनेमा हॉल में चार शो होते थे - 12:00 बजे 3:00 बजे 6:00 बजे और 9:00 बजे। परिवार के लोग या महिलाएं आमतौर पर दोपहर का शो देखना पसंद करती थीं। उसके लिए टिकट पहले से मंगा लिए जाते थे।
हम बच्चों ने 3 घंटे गायब होने के दो तरीके ढूंढ लिए थे। पहले ये तरीका था कि इंटरवल में भागकर घर आकर चेहरा दिखाना और फिर दुबारा गायब हो जाना और दूसरा तरीका हमारा नायाब तरीका था - इंटरवल से पहले एक दोस्त फ़िल्म देखता था और इंटरवल के बाद दूसरा दोस्त उसी टिकट पर फ़िल्म देखता। ये रिले रेस जैसा होता था। दूसरा दोस्त अगले दिन इंटरवल से पहले फ़िल्म देखता था। यही क्रम बाद में बदल कर दोहराया जाता। हालांकि इस तरीके से फिल्म देखने का मजा किरकिरा हो जाता लेकिन क्या करते। इंटरवल के बाद की फिल्म पहले फ़िल्म देखने पर सिर पैर समझ न आता। लेकिन छुप कर फ़िल्म देखी जाए इसके लिए हम हर तरह के जुगाड़ लगाते रहते। 
देखी गयी फ़िल्म के नशे से कई कई दिन तक हम बाहर नहीं आ पाते थे। उन दिनों घंटाघर के पास एक दुकान हुआ करती थी - पंजाब रेडियो। उसका एक कर्मचारी टांगें में बैठकर पूरे शहर में लाउड स्पीकर पर फ़िल्म के बारे में प्रचार करता। वह अकेला शख्स शहर में होने वाली हर ईवेंट का प्रचार करता। फिल्म हो, पैवेलियन ग्राउंड में फुटबाल मैच हो, या नामी ईनामी या नूरा कुश्तियां हों, एनाउंसमेंट वही करता था। वह टांगे में बैठा पूरे शहर का चक्कर लगाता और पिक्चर के पैम्पलेट हवा में उछालता जिन्हें सब बच्चे लपकते। उन पैम्पलेट को लूटना भी अपने आप में एक शगल हुआ करता था। वह आदमी लगभग अनपढ़ था लेकिन उसकी आवाज बहुत मीठी थी और उसके शब्द फिल्म और सिनेमा घर के नाम के अलावा लगभग वही रहा करते थे। वह कहता - फिल्मिस्तान के सुनहरे पर पर्दे पर देखिए हँसी मजाक, मार धाड़ और नाच गानों से भरपूर दारा सिंह की फ़िल्म जंगी लुटेरा या इसी तरह की और कोई फ़िल्म। सुनहरी परदे पर उसके हमेशा के शब्द होते।
तब शहर भर में फिल्मों के पोस्टर लगाने का, चिपकाने का एक नायाब तरीका हुआ करता था। जब फ़िल्म के पोस्टर चिपकाए जाते तो चिपकाते समय पोस्टर को फाड़कर चिपकाया जाता ताकि कोई उन्हें उतार कर न ले जाये। शहर में पोस्टर लगने का मतलब ही फ़िल्म के आने की पूर्व घोषणा हुआ करती थी।
अब तो याद भी नहीं आता कि तब कितनी फ़िल्में कितने थिएटरों में कितने तरीकों से देखीं। लेकिन उस वक्त हमें मार धाड़ और हँसी मजाक की फ़िल्में देखना ज्यादा अच्छा लगता था चाहे जौहर महमूद इन गोवा हो या इसी तरह की और कोई फ़िल्म। हमारे बड़े भाई को हॉरर फ़िल्में या जासूसी फ़िल्में देखने का शौक था। हमारा कोई ऐसा शौक नहीं था। 

हमारे घर के सामने रहने वाले नंदू के पिता का ढाबा था जो मंगलवार को बंद रहता था। नंदू थोड़े थोड़़े करके रोजाना कुछ पैसे चुराता और मंगलवार को बिला नागा चार फिल्मों के चार शो देखता। वह सुबह ग्यारह बजे सज धज कर निकल जाता और को आखिरी शो देख कर ही लौटता। बस फिल्म होनी चाहिये। कोई भी हो। 
एक और बात याद आती है कि उस समय चौराहों की दुकानों के ऊपर फिल्मों के बड़े बड़े होर्डिग लगाए जाते थे और इसके बदले में दुकानदार को फ़िल्म के आखिरी दिन दो टिकट आधे कीमत पर दिए जाते थे। हमारे मौसा जी की चाय की दुकान दिलाराम बाजार में थी और उनके दुकान के ऊपर लक्ष्मी टॉकीज का होर्डिग लगाया जाता था। जब फ़िल्म का आखिरी दिन होता तो नयी फिल्म का होर्डिग लगाते समय उन्हें दो पास मिलते। मौसी का लड़का अक्सर हमारे घर आता और बताता कि नाइट शो की दो टिकट हैं। उसके साथ किसी न किसी भाई को आधी कीमत पर फ़िल्म देखने के लिए अक्सर घर से अनुमति मिल जाती। फ़िल्म बेशक घटिया होती लेकिन मुख्य मकसद तो फ़िल्म देखना होता था, घटिया या अच्छे होने का प्रमाणपत्र देना नहीं।
अंग्रेजी फ़िल्म देखना 1968 में शुरू हुआ। हमारा क्लास फैलो था शशि मोहन पंछी जिसने हमें अंग्रेजी फिल्मों और इस तरह के तौर तरीकों की तरफ आकर्षित किया। बेशक अंग्रेजी हमें बिल्कुल समझ में नहीं आती थी, वह अंग्रेजी अब भी समझ में नहीं आती लेकिन फिल्म देखने का रोमांच बहुत बड़ा हुआ करता था। 1968 में हाई स्कूल में परीक्षाओं के दिनों में जेम्स बॉन्ड की फ़िल्म गोल्डफिंगर लगी थी। गणित के पेपर से एक दिन पहले सामूहिक पढ़ाई के नाम पर ये फिल्म देखी गयी थी। हम रोमांच से भर गये थे। अभी 2 दिन ही बीते थे और हम उसके नशे से बाहर ही नहीं आ पाए थे। आखिरी पेपर ड्राइंग का था और शशि ने बताया कि फ़िल्म में कुछ और दृश्य जोड़े गए हैं इसलिए फ़िल्म उतरने से पहले एक बार दुबारा देखनी चाहिए और हमने ड्राइंग के पेपर से पहले गोल्डफिंगर दुबारा देखी थी। बाद में तो अंग्रेजी फिल्में देखने का सिलसिला बनता चला गया।
अंग्रेजी फिल्में अक्सर एडल्ट होतीं और 18 बरस की उम्र से कम के लड़कों को टिकट नहीं मिलते थे। शायद 1970 के आसपास की बात है। 18 का होते ही एडल्ट फिल्म देखने का मन हुआ। दोस्तों के साथ दोपहर के शो में ब्लो हाट ब्लो कोल्ड देखी। ओडियन से बाहर निकले ही थे कि पिता के एक मित्र ने देख लिया। तय था कि वे हमसे पहले पहुंच कर पिता से शिकायत करते। वही हुआ। घर पहुंचे तो वे इंतजार कर रहे थे। पिता जी ने देखते ही पूछा – कहां से आ रहे हो। बताया – फिल्म देख कर। अगला सवाल था – कौन सी? बता दिया – ओडियन में ब्लो हॉट ब्लो कोल्ड लगी है। वही देखी। पिता जी ने अपने मित्र की तरफ देखा और कंधे उचकाये – बेटा सच बोल रहा है। अब किस बात पर डांटूं।
परिवार के लोग आमतौर पर फर्स्ट क्लास में ₹2.25 का टिकट लेकर फ़िल्म देखते थे। हम लड़कों के लिए तो एक रुपया दस पैसे जुटाना ही मुश्किल होता था। पिक्चर का इंटरवल कितनी देर चलेगा यह इस बात पर निर्भर करता था कि जब तक कैंटीन के सारे चाय और समोसे नहीं बिक गए हैं पिक्चर शुरू नहीं की जाएगी। आमतौर पर पिछले शो की बची हुई चाय थोड़ी सी चीनी डालकर गरम करके दूसरे शो में पिलायी जाती। समोसे कभी ताजे होते कभी पिछले शो के बचे हुए भी।
फर्स्ट डे फर्स्ट शो में और नाइट शो में दर्शकों की क्लास आमतौर पर अलग हुआ करती थी। दिन भर के थके हुए लोग रात को फ़िल्म देखना पसंद करते थे। कॉलेज के लड़कों की पसंद फर्स्ट शो हुआ करती थी। 
कई बार ऐसा भी होता कि कोई फ़िल्म घटी दरों पर दिखाई जा रही होती यानी टिकट साठ पैसे। हम इतने पैसे भी न जुटा पाते और कई बार ऐसा भी होता कि फ़िल्म उतर जाती और हम फिल्म देखने से रह जाते। 
तब खटमल सभी सिनेमा हॉलों में होते थे। आगे की सीटों पर रैक्सीन नहीं होती थी लेकिन फर्स्ट क्लास में सीटें थोड़ी आरामदायक और रेक्सीन वाली होती थीं। तब बाल्कनी में फ़िल्म देखना तो शायद कभी नसीब नहीं हुआ होगा। जब कुछ पैसे होने लगे तो फर्स्ट क्लास में टिकट लेना आसान हो जाता था क्योंकि ₹2.25 की टिकट एक रुपये अस्सी पैसे में मिल जाती थी और ₹1.10 की जनता क्लास की तुलना में पीछे फर्स्ट क्लास में बैठकर फ़िल्म देखना किसी अय्याशी से कम नहीं होता था।
मुझे 1971 के आसपास की एक घटना याद आती है। नटराज में तब दस्तक फिल्म लगी थी। दोपहर का शो था। तब एक बात हुआ करती थी कि अगर इंटरवल से पहले लाइट चली गयी है और बहुत देर तक लाइट वापस ना आयी तो उसी टिकट पर अगले दिन फिल्म देखने का मौका मिल जाता था लेकिन इंटरवल के बाद अगर लाइट गयी है तो उसके लिए कोई रिफंड नहीं दिया जाता था। उन दिनों बड़ी मंडी के पास एक डॉक्टर हुआ करता था जिसकी चिढ़ थी - हो गया। लोग उसके क्लिनिक के आगे से आते जाते उसे चिढ़ाते - हो गया। बदले में वे सारे काम छोड़ कर अपने क्लिनिक से बाहर निकलकर माँ बहन की गालियां दिया करते। तब तक कोई और आदमी हो गया की पुकार करके आगे निकल जाता और गलियों का सिलसिला दोबारा शुरू हो जाता। वे मरीज को इंजेक्शन भी लगा रहे होते तो उसे रोक कर बाहर आ कर गालियां जरूर देते। 
तो बात चल रही थी नटराज में दस्तक देखने की। अचानक लाइट चली गयी। तब अंधेरे में किसी ने यूं ही ज़ोर से कह दिया - हो गया। तब उसे मालूम नहीं था कि डॉक्टर हो गया भी थिएटर में मौजूद हैं। डॉक्टर साहब ने गालियां देनी शुरू कर दीं - तेरी माँ का हो गया, तेरी बहन का हो गया, कोई और हो तो उसे भी ले आ, उसका भी कर दूं। अब तो सबको पता चल गया कि डॉक्टर साहब सिनेमा हॉल में हैं तो दोनों तरफ से धुआंधार मुकाबला शुरू हो गया और गालियों की जो बरसात शुरू हुई,  लोग भूल गए कि इस समय लाइट गयी हुई है और पिक्चर रुकी हुई है। अब वहां पर दूसरी ही जीवंत फ़िल्म चलने लगी थी।
फिल्म देखने से जुड़़ा एक और रोचक लेकिन अप्रिय सा किस्सा याद आ रहा है उस वक्त का। हम बचपन में जहां पर मच्छी बाजार में रहते थे, पास में ही खटीकों और कसाइयों की मांस मछली बेचने की कई दुकानें थीं। वहीं पर गफूरा नाम का आदमी था जिसकी गंदी निगाह जवान होते किशोरों पर होती। सबको पता था कि उसकी नीयत क्या है। दुकान बंद करने के बाद वह रात को सैर के लिए निकलता और किसी न किसी लड़के को फुसला कर दूध जलेबी खिलाने ले जाता। हम सब बच्चे जानते थे कि दूध जलेबी का मजा लेने के बाद बहाने से खिसकना कैसे है। वह तब नये लड़के की तलाश में रहता। उसका अगला कदम होता फिल्म दिखाना। वह लड़के को ही पैसे देता कि फर्स्ट क्लास के दो टिकट ले आये। वह खुद हॉल में अपनी सीट पर बाद में पहुंचता। 
सभी लड़कों को ये पता था कि वह फिल्म क्यों दिखा रहा है और अंधेरे में क्या करेगा और खुद उन्हें क्या करना है। सीनियर लड़के सब बता चुके होते। जिस भी लड़के को वह फिल्म दिखाने ले जाता, वह लड़का किसी न किसी बहाने से बाहर आता, अपनी टिकट उसी दाम पर या कम दाम पर किसी को बेचता और घर आ जाता। बाद में अंधेरे में उस लड़के की जगह कोई और आदमी पहुंचता। 
आप कल्पना कर सकते हैं कि अंधेरे में उसके बाद क्या होता होगा।
बाद में पता चला था कि गफूरे ने कई बार दूध जलेबी का लालच दे कर नंगी घूमने वाली एक पागल औरत के साथ दुष्कर्म किया था और बाद में वह पगली औरत गर्भवती हो गयी थी।

9930991424
D 9/19 GF, EXCLUSIVE FLOOR, DLF 5 SECTOR 53 GURUGRAM 122002   

नोट: सभी तस्वीरें इंटरनेट से साभार्। 

Thursday, March 16, 2023

बेहतरीन किस्सागो - सुभाष पंत


 सूरज प्रकाश

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बात 1972 के शुरुआती दिनों की है। तब मैं डीबीएस कॉलेज, देहरादून से सुबह के सेशन में बीए कर रहा था। 6:00 से 6:30 बजे तक अंग्रेजी का पीरियड होता था और 6:30 से 7:30 तक हम खाली होते थे। एक दिन पहले किसी स्थानीय अखबार में मेरी एक कविता छपी थी और मैं वह कविता कॉलेज के सामने चाय की दुकान में अपने एक सहपाठी को सुना रहा था। तभी बीए फाइनल का एक छात्र चाय पीने के लिए आया। मुझे कविता सुनाते देख कर मुझसे बोला - यह कविता तुम्हारी है? जब मैंने हां कहा तो उसने बताया - अच्छी है, मैंने पढ़ी है। तुम एक काम करो। कनाट प्लेस में वैनगार्ड प्रेस में कवि जी सुखबीर विश्वकर्मा जी से मिलो। वे देश भक्ति की कविताओं का एक संकलन निकाल रहे हैं। तुम्हारी कविता भी ले लेंगे।

मैं बहुत हैरान हुआ कि क्या इस तरह के सहयोगी संकलन भी होते हैं। अब तक मैं शहर में या देश में किसी भी रचनाकार को नहीं जानता था। मेरा पढ़ना लिखना खुशीराम लाइब्रेरी में पत्रिकाएं पढ़ने और घर के पास चलने वाली लाइब्रेरियों में ₹3 महीना देकर रोज एक किताब किराए पर लेकर पढ़ने तक सीमित था। इन किताबों में गुलशन नंदा, रानू, दत्त भारती, वेद प्रकाश कंबोज, कर्नल रंजीत, इब्ने सफी हुआ करते थे और पत्रिकाओं में अधिकतर फिल्में पत्रिकाएं। मैं छिटपुट कविताएं लिखा करता था लेकिन वे कितनी कविताएं होती थीं और कितनी नहीं, इसके बारे में मुझे तब तक कोई अंदाजा नहीं था। कोई बताने वाला भी नहीं था।

सुबह के वक्त चाय की दुकान में एक सीनियर छात्र से वह मुलाकात एक तरह से साहित्य की दुनिया में मेरे प्रवेश के लिए दरवाजे खोलने वाली होने वाली थी। मेरी दुनिया उस दिन के बाद बदल जाने वाली थी। बेशक मेरा विधिवत लेखन शुरू होने के लिए मुझे अभी कम से कम पंद्रह बरस और इंतजार करना था लेकिन शुरुआत तो उसी दिन ही हो गयी थी।

अगले दिन मैंने देशभक्ति की दो तीन कविताएं लिखीं और उन्हें ले कर में वैनगार्ड प्रेस में कवि जी के पास गया। अपना परिचय दिया कि बीए में पढ़ता हूं और कविताएं लिखता हूं। मुझे पता चला है कि आप देशभक्ति की कविताओं का एक संकलन निकाल रहे हैं। मैं भी दो तीन कविताएं लाया हूं। उन्होंने कविताएं देखीं और उन्हें तुरंत ही रिजेक्ट कर दिया और कहा कि कविता हमेशा 16 मात्राओं की होनी चाहिए और उन्होंने मुझे साधुराम इंटर कॉलेज के हिंदी अध्यापक कौशिक जी के पास कविता ठीक कराने के लिए भेज दिया। यह अलग कहानी है कि मेरी कविता किस रूप में छपी।

मेरी कविता देहरादून के सभी रचनाकारों के साथ एक सहयोगी संकलन में छपेगी इससे मुझे बहुत खुशी हुई। मैं तब तक बीस बरस का भी नहीं हुआ था और मेरी शुरुआती कविता ही शहर के सहयोगी संकलन में छपने जा रही थी। अब मैं अक्सर कवि जी के पास के पास जाने लगा। वहीं जाकर पता चला कि इस संकलन में शहर के कौन-कौन से कवि शामिल हो रहे हैं। जब भी मैं वहां जाता तो हमेशा दो-चार कवि वहां मिल ही जाते। इनमें सुभाष पंत, अवधेश, सुरेश उनियाल, मनमोहन चड्ढा, जितेन ठाकुर, देशबंधु, अतुल शर्मा आदि थे। वे सब पहले से छपते रहे थे और एक दूसरे से परिचित थे। मैं एकदम नया था और लिखने पढ़ने के नाम पर मेरी डायरी में मुश्किल से दस पंद्रह कविताएं थीं। स्थानीय अखबारों में छपी हुई दो तीन। जब मैं इतने बड़े कवियों से मिलता तो संकोच से भर जाता। लेकिन सब वरिष्ठ लोग बहुत प्यार से मिलते।

आपस में परिचय कराते तभी मुझे पता चला कि इस संकलन के एक कवि सुभाष पंत की कहानी गाय का दूध सारिका में छपी है और उसकी खूब चर्चा है। उनसे अब तक मेरा संवाद नहीं हुआ था। यह पहली बार हो रहा था कि मैं किसी लेखक को आमने सामने देख रहा था। मुझे बहुत संकोच होता उनसे बात करने में। यह किसी भी लेखक से बात करने का पहला मौका होता। मैं पढ़ने लिखने के नाम पर एकदम शून्य था। मैं देहरादून में जिस मुहल्ले में मच्छी बाजार में रहता था, वह गुंडों, मवालियों और शराबियों का इलाका था। देर रात तक गालियां सुनायी देतीं और अक्सर चाकू चलते। ऐसे इलाके में रहते हुए भला लिखने पढ़ने के संस्कार कहां से आते। पंत जी से मुलाकात और संवाद आने वाले पचास बरस के लिए एक बहुत ही आत्मीय, स्नेह से भरपूर और लेखक के रूप में मुझे दिशा देने वाले और मुझे समृद्ध करने वाले रिश्ते की शुरुआत थी।

पंत जी की वह कहानी मैंने पढ़ी थी और हैरान हो गया था कि कहानी इस तरह से भी और ऐसी स्थितियों पर भी लिखी जा सकती है। अब तक मैं गुलशन नंदा और रानू की नकली दुनिया में ही भटक रहा था। जीवन से आयी कहानी से यह पहला परिचय था। पंत जी से बात होती थी लेकिन उन्होंने कभी भी नहीं दर्शाया कि मैं नौसिखिया हूं और साहित्य में जगत में प्रवेश कर रहा हूं

खैर, जब तक दहकते स्वर छपता, सभी साथी रचनाकारों से अच्छा परिचय हो गया था और सबने मुझे भी एक सहयोगी कवि के रूप में स्वीकार कर लिया था। यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी कि मैं देहरादून की लेखक बिरादरी में शामिल कर लिया गया था। देखा देखी मैंने कुछ और कविताएं लिखीं और वे वैनगार्ड अखबार में और कवि जी की मदद से कुछ और अखबारों में छपीं।

अब मैं देहरादून की लेखक मंडली में विधिवत शामिल कर लिया गया था और सबकी गप्प गोष्ठियों में शामिल होता था। बेशक मैं बोलता नहीं था और सिर्फ सुनता रहता था लेकिन यह बहुत बड़ी बात थी कि मैं इस मंडली में शामिल था। धीरे-धीरे मैं पंत जी के और अवधेश के संपर्क में आने लगा था और उनसे बहुत कुछ सीखने लगा था।

मुझे वे दिन बहुत याद आते हैं। पंत जी, कवि जी और देश बंधु के पास पुरानी साइकिलें होती थीं। तब एक बहुत अच्छी परंपरा देहरादून में थी कि सब साहित्यकार जब शाम को मिलते या घंटाघर के पास बने बैठने के इकलौते ठीये डिलाइट रेस्तरां में बैठते तो देर तक खूब बातें होतीं और फिर सिलसिला शुरू होता सबको घर तक छोड़ कर आने का। यह अद्भुत और हैरान कर देने वाली बात होती थी कि सब साइकिल थामे धीरे-धीरे चल रहे हैं और बारी-बारी से सबको एक-एक के घर छोड़ रहे हैं। कभी पंत जी के घर उन्हें छोड़ा जा रहा है, कभी अवधेश को उसके घर छोड़ा जा रहा है और इस तरह घर छोड़ कर आने का सिलसिला देर रात तक चलता रहता। आखिर में जब दो ही लोग रह जाते तो अक्सर ऐसा होता कि वे दोनों एक ही घर में सो जाते। यह दुनिया में अकेली और निराली प्रथा रही होगी। मुझे भी कई बार इस तरह से सभी मित्र घर पर छोड़ने आए या मैं बारी-बारी से सब को घर छोड़ने के लिए जाता रहा।

उन दिनों एक और बात अच्छी बात थी। चाहे सीमित साधनों में सही, सब साथियों के जन्मदिन मनाए जाते हो। सब लोग मिलते और देर तक खाने पीने के दौर चलते। मुझे पंत जी के घर पर उनके जन्मदिन पर जाना याद है। देर रात तक हेम भाभी जी सबके लिए पकौड़े बनाती रही थीं।

 जब सब मिलते तो देर तक साहित्य की बातें होतीं। लिखने के तौर तरीके और बेहतर तरीके से लिखने की बातें होतीं। नयी लिखी रचनाएं सुनायी जातीं और पढ़े गये साहित्य पर बात होती। किताबों और पत्रिकाओं का आदान प्रदान होता। चलते चलते एक चक्कर पलटन बाजार में नेशनल न्यूज एजेंसी का लगाया जाता कि कोई नयी पत्रिका आयी हो तो खरीद ली जाए। मुझे अभी भी सबकी बातों में शामिल होने में बहुत संकोच होता। एक नयी दुनिया थी जो मेरे सामने खुल रही थी। जिस तरह का जीवन मैं जीने के लिए अभिशप्त था, उससे बिलकुल अलग। मेरे सामने पंत जी थे अवधेश था। उम्र में भी बड़े और कद में भी बहुत बड़े थे। पंत जी सारिका के चर्चित लेखक थे।

पंत जी बेहद शानदार किस्सागो हैं और अपने खास अंदाज में खूब किस्से सुनाया करते। वे किसी भी बात को, किसी भी मामूली घटना को, मामूली से मामूली लतीफे को किस्सागोई के अंदाज में सुनाने में माहिर हैं। उन्हें सुनना बहुत अच्छा लगता था। वे जिस भी मंडली में बैठे होते, केन्द्र में वे ही होते। महफिल उनके आसपास ही जमती। वे हमारे स्टार लेखक थे और उन्हें सब बहुत आदर से मिलते।

 

उनका सुनाया एक बहुत पुराना किस्सा याद आ रहा है।

किस्सा कुछ यूं है – एक जनाब अपनी कोठी के लॉन में शाम के वक्त टहल रहे थे। शाम का वक्त था। तभी उन्होंने देखा कि कोई मिलने वाले गेट पर खड़े हैं। उन्होंने अपनी छड़ी वहीं लॉन में मिट्टी में धंसायी और लपक कर गेट खोलने चले गये। मित्र रात को देर से लौटे।

सुबह के वक्त उन्हें छड़ी के बारे में याद आया। सोचने लगे, कहां रखी है। तभी याद आया कि दोस्त के आने पर उन्होंने अपनी छड़ी लॉन में ही मिट्टी में धंसा दी थी। लपक कर लॉन में गये तो देखते क्या हैं कि छड़ी में अंकुए फूट आए हैं। वे सोचने लगे कि जिस शहर में लॉन की मिट्टी ही इतनी उर्वरा है तो शहर के बाशिंदे कितनी सर्जनात्मकता से लैस होंगे। हर आदमी कवि और लेखक होगा। इस किस्से को पंत जी ने देहरादून की क्रिएटिविटी से जोड़ा था। ऐसा बहुत कम होता था कि पंत जी किसी महफिल में हों और कोई किस्सा न सुनाएं।

मैं उन्हें अपने वक्त का श्रेष्ठ किस्सागो मानता हूं। घटना चाहे मामूली हो लेकिन किस्सागोई के अंदाज में वे उसमें नया रंग नया स्वाद और नई अनुभूति भर देते हैं। किस्सा चाहे कमलेश्वर जी से जुड़ा हो, शराबखोरी से जुड़ा हो या नए नए लोगों से मिलने के किस्से हों, वे हमेशा अपने अंदाज में हमें किस्से सुनाते नजर आते हैं।

जून 1974 में मैं नौकरी के सिलसिले में हैदराबाद चला गया और वहां से पत्रों के माध्यम से पंत जी, अवधेश और धीरेंद्र अस्थाना और बाकी रचनाकारों से संपर्क बना रहा। मैं सबके साहित्य से जुड़ा रहा। सबकी कहानियां पढ़ता रहा। मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं अभी भी लिखना शुरू नहीं कर पाया था। वही टूटी फूटी कविताएं मेरे खाते में थीं। 1977 में जब मैं देहरादून वापिस आया तब भी लिखने के बारे में मैं शून्य था। डेढ़ बरस देहरादून में रहने के बाद फिर से एक बार शहर छूट गया और मैं दिल्ली चला गया लेकिन देहरादून के सभी मित्रों से मेरा निकट के नाता बना रहा। 1981 में मुंबई आने के बाद भी मेरे लेखन शुरू नहीं हो पाया था और मेरी छटपटाहट बरकरार थी। मेरे सभी मित्रों की कई कई किताबें आ चुकी थीं और मैं अभी तक लिखने की बोहनी भी नहीं कर पाया था। मैं कहीं भी रहा, चाहे मुंबई या अहमदाबाद या पुणे, मुझे पंत जी के खूबसूरत पत्र मुझे मिलते रहे। अभी भी मेरे खजाने में उनके पचासों पत्र हैं जो हमेशा मुझे प्रेरित करते हैं। पंत जी मुझे बताते रहते कि बेशक लिखने में देर हो जाती है कई बार लेकिन लिखने की तैयारी में लगने वाला समय कभी भी जाया नहीं जाता। मेरा लेखन 1987 में शुरू हुआ और जब 1988 में मेरी तीसरी ही कहानी धर्मयुग में आयी तो देहरादून के मित्रों ने मेरा बहुत उत्साह बढ़ाया है खासकर पंत जी और अवधेश के पत्र मेरे लिए किसी खजाने से कम नहीं थे। वे पत्र मैंने आज भी संभाल कर रखे हैं।

मैं देहरादून बहुत कम रहा हूं और पिछले कई वर्षों से यानी लगभग 50 बरस से देहरादून से बाहर हूं लेकिन पंत जी से हमेशा पत्राचार के जरिए, टेलीफोन के जरिए नाता बना रहा और वह मेरे लेखन पर अपनी उंगली रखते रहे और बताते रहे कि मैं कहां ठीक काम कर रहा हूं और कहां सुधार की गुंजाइश है। उनके घर में मेरा हमेशा स्वागत होता रहा। मेरा सौभाग्य है कि इतने बड़े लेखक, जमीन से और पहाड़ से जुड़े लेखक का मुझे स्नेह और प्यार मिलता रहा है और मुझे कभी भी नहीं जताया गया कि मैं उनसे बहुत छोटा हूं और मेरा लेखन उनके लेखन के सामने कहीं नहीं ठहरता। उन्होंने हमेशा मुझे बराबरी का दर्जा दिया है और अपने परिवार में हमेशा मेरा स्वागत किया है।

पंत जी बता रहे थे कि बहुत पहले जब वे हिंदी में एमए कर रहे थे तो पेपर देखने पर पता चला कि उनकी कोई तैयारी नहीं थी। वे कोई भी प्रश्न हल नहीं कर सकते थे। अब तीन घंटे बैठ कर क्या करें। कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने क्वेश्चन पेपर की जगह तीन घंटे में एक पूरी कहानी का ड्राफ्ट लिख लिया था। वे साफ-सुथरे छोटे छोटे अक्षरों में लिखते हैं और कहीं कोई काट छांट नहीं होती।

जब मैं स्टोरीमिरर से जुड़ा तो सबसे पहले मैंने ये काम किया कि वहां से पंत जी, जितेन ठाकुर और धीरेन्द्र अस्थाना के कहानी संग्रह छपवाये। सीरीज और लंबी चलती लेकिन मनमुटाव के कारण मैंने संस्था ही छोड़ दी। पंत जी के कहानी संग्रह का जब लोकार्पण जब मुंबई में होना था तो पंत जी ने इच्छा जाहिर की कि किताब का लोकार्पण अगर प्रसिद्ध लेखक और कार्टूनिस्ट आबिद सुरती करें तो बेहतर। आबिद सुरती आये थे और पंत जी की किताब का लोकार्पण किया था।

और आखिर में चूंकि यह किस्सा पंत जी का ही सुनाया हुआ है तो यहां पर दर्ज करने में कोई हर्ज नहीं है।

बात बहुत पुरानी है।  पंत जी अवधेश से मिलने उसके घर गए। दरवाजा बंद था। आवाज दी। अवधेश के साथ वाले कमरे में उसके पिताजी रहा करते थे। उन्होंने पूछा – कौन है। पंत जी ने जब अपना नाम बताया तो अवधेश के पिता जी ने उन्हें भीतर बुला लिया और अपने पास बिठाकर समझाने लगे कि तुम अवधेश से बड़े हो और वो तुम्हारी बात मानता है। उसे समझाओ। वह बहुत पीने लगा है। घर की तरफ, बच्चों की तरफ ध्यान नहीं देता और पता नहीं कहाँ कहाँ घूमता रहता है। वे बहुत देर तक पंत जी को समझाते रहे। पंत जी के पास और कोई उपाय नहीं था सिवाय सुनते रहने के। बाद में उन्हें भी लगा कि पिताजी ठीक कह रहे हैं। अवधेश को पीना बंद कर देना चाहिए। उठते हुए पंत जी ने तय किया कि वे आज ही अवधेश से मिलकर उसे समझाएंगे कि वह पीना बंद कर दे और परिवार की तरफ ज्यादा ध्यान दे। वे यह सोच कर चले कि अगर अवधेश कहीं मिल जाए तो आज ही ये नेक काम करते चलें।

संयोग ऐसा हुआ की न्यू एंपायर थिएटर के पास सामने से अवधेश आता दिखायी दिया। पंत जी खुश कि इतनी जल्दी ये मौका मिल गया। बातचीत शुरू हुई। पंत जी बोले – अवधेश, तुमसे ज़रूरी बात करनी है। अवधेश ने कहा – जरूर, लेकिन ऐसे यहाँ खड़े खड़े कैसे बात करेंगे। चलिए, सामने बार है। बार में बैठ के बात करते हैं। पंत जी को लगा, लंबी बात होगी, बैठ कर बात करना ठीक रहेगा। दोनों बार में बैठे। पंत जी बात शुरू कर पाते, इससे पहले अवधेश ने पूछा - एक एक पैग मंगवा लें। खाली बैठे अच्छा नहीं लगेगा। पैग आ गये। पंत जी ने उसे समझाना शुरू कर दिया कि शराब पीने से उसे क्या क्या नुक्सान हो रहे हैं। उसे तुरंत पीनी छोड़ देनी चाहिये। ये और वो। पंत जी देर तक समझाते रहे और अवधेश पूरी बात ध्यान से सुनता रहा और सहमति में सिर हिलाता रहा। पैग आते रहे, बात होती रही।

किस्सा यहां खत्म होता है कि जब दोनों दो ढाई घंटे बाद बार से निकले तो दोनों पूरी तरह से टुन्न थे।