कबाड़
उसके चले जाने के बाद
कुछ भी शेष नहीं बचा उसका
मेरे सिवा...
स्वीकारोक्ती
कई बार रात के बीचो बीच
फूट-फूट पड़ती है मेरी रुलाई...
फिर अपने आंसुओं को मना कर
भेजती हूँ वापस
उन्हीं से आज जगमग है ये दुनिया
और बुझ पायी है मेरी धधक भी...
विभाजन
हम दोनों के बीचो बीच
पसरी हुई है रात
रूप रंग बदलती हुई निरंतर
एक तारा टूटा उसकी चुनर से
स्मृतियों के
ओर जा कर टंग गया सुदूर आकाश में
एकाकी...
बिछोह
तुम हो कि वहां बना रहे हो एक घर
और मैं हूं यहां ढहाती हुई
स्मृतियां एक एक कर
तुम्हारा घर तो खुला रहेगा सारी दुनिया के लिये
पर मेरी स्मृतियां
कुछ भी तो नहीं तुम्हारी निगाहों की पहुंच के सिवा...
समुद्री सफर
क्यों होता है ऐसा
कि जब ऊंघने लगती है हवा
तो बे-वतनी
अचानक फड़फड़ाने लगती हैं
मेरे तंग कपड़ों के अंदर ही अंदर...
क्षतीपूर्ति
जब भी सर्द सड़कें पसरने लगती हैं मेरे सामने
और चुकने लगती है मेरी रज़ाई की तपिश
मैं निकालती हूं उसे अपनी स्मृतियों की तिजोरी से
और लौ जला देती हूं उसमें
कोमलता की तीली से...
अनुवाद : यादवेन्द्र
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