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Thursday, January 31, 2013

छिन्नमस्ता:सुषमा नैथानी की कविता

(सुषमा नैथानी की कवितायें इस ब्लॉग के पाठक पहले भी पढ़ चुके हैं.यहां प्रस्तुत है उनकी ताजा कविता जो उनके ब्लॉग स्वप्नदर्शी से साभार ली गयी है)






छिन्नमस्ता!
 

मैं तिरुपति नहीं गयी

तिरुपति से लौटी औरतें देखीं

शोक तज आयीं  

केश तज आयीं   



देखीं

हिन्दू विधवा 

शिन्तो विधवा  

नन

संयासिन  

और ऑर्थोडॉक्स यहूदी सधवा

कामना तज आयीं 

केश तज आयीं    



क्या नहीं रीझतीं 

नहीं रिझातीं मुंडिता 

किसकी कामना हैं केश 

किसकी मुक्ति 

क्या हैं  स्त्री के केश  

किस विषवृक्ष की शाख पर 

किस ऋतु के खिले

वर्जित, बैगैरत कामना फूल!



तिरुपति से विग में गुंथी

कोई परकटी लालसा

क्या कभी नहीं पहुंचती 

न्यूयॉर्क, बोस्टन

पेरिस, इजरायल  

विरहराग नहीं सुनती विगधारिणी

तब  किस तरह 

लालसा और कामना की नदी में 

पूरब-पश्चिम

उत्तर-दक्षिण 

तिल तिल तिरोहित होती 

छिन्नमुण्डा !

वज्रयोगिनी!

छिन्नमस्ता!


Wednesday, April 11, 2012

सुषमा नैथानी की कवितायें

बारिश के बाद बडी सुकूनदेह है ये गीली धूप
ये घुले-घुले और धुले-से सन्नाटे में ठहरे पल
आसमान पर धूप के अक्षरों से कविता लिखने की हिमाकत कर सकने वाली सुषमा नैथानी से मेरा परिचय लगभग दस वर्ष पूर्व इंटरनेट में नैथानी वंश नाम ढूंढने की सहज उत्कंठा के परिणाम-स्वरूप हुआ…बाद में ब्लाग की दुनिया में विचरते हुए सुषमा के कवि रूप से मुलाकात हुई!अमेरिकाअ में जीव-विग्यान में शोध और अध्यापन से जुडी सुषमा का कविता संग्रह “उडते हैं अबाबील” हाल ही में अन्तिका प्रकाशन से आया है. सुषमा की कविताओं में संवेदना की कताई बरबस ध्यान खींचती आई.इस संग्रह से कुछ कवितायें प्रस्तुत हें
(नवीन कुमार नैथानी)
आगंतुक
एक दिन अचानक
चला आया प्रेम दबे पांव
समूचे चौकन्नेपन के बावजूद
सहूलियत नहीं छोडी उसने
एक सिरे से खारिज होने की
नहीं बैठता किसी ठौर
किसी औने-कोने ठीक
शब्द
शब्द तुम
मेरे पास आना तो कौतुक छोडे आना
न आना बुझव्वल की तरह
आना कभी मेरी गली तो
आजमाए जुमलों की शक्ल में न आना
न गुजरना नारों की तरह
आओ तो अपने पूरे अर्थ में आना
काले पनियल बादल-सा आना
बिसार देना शब्दकोश और कुंजियां
व्यंजना व्याकरण नदी के तीर बहा आना
अटरम-पटरम,साज-सामान सब
बेस कैम्प पर ही छोडे आना
पामीर की ऊंचाई तक न भी बने
तब भी कुछ ऊंचाई तक चले आना
सपनों की रंगत में
उदासी और उल्लास बन
अपने अंतर का संगीत लिये आना
किसी राग की तरह आना
मनभावन गीत बन आना
शब्द अपने पूरे अर्थ में आना तुम…
बंटवार
किसी अबाबील की तरह
दिन उडते हैं
पंजों में दबाये जीवन
हर रोज कुछ शब्द बचे रहते
कुछ प्यार बचा रहता
सत्रह इच्छायें सर उठाती हैं
उसी का बंटवार है
उसी में कुछ बचे रहते हम…

Saturday, June 25, 2011

क्या बनोगे बच्चे

भौतिक जगत की एक छोटी सी मुलाकात और आभासी दुनिया की आवाजाही में युवा कवि सुषमा नैथानी का संग साथ एक ऐसी मित्रता के रूप में है जिसमें एक संवेदनशील और लगातार लगातार एक अपनी ही किस्म की धुन में रमी स्त्री को देखा है। पिछले दिनों सुषमा ने अपना काव्य संग्रह भेजा था पढ़ने को जिसे भविष्य में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होना है। डिजिटल रूप में प्राप्त संग्रह को माउस की क्लिक के सहारे पढ़ना दिक्कत भरा तो था लेकिन कविताओं में जो ताजगी थी वह पढ़ने के उत्साह को गाढ़ा करती रही। बहुत से अनजाने अनुभवों से गुजरते हुए सुषमा के उस मूल स्वर को पकड़ना चाहता रहा जो उन्हें कविता कहने को प्रेरित या मजबूर करता होगा। यूं अपने तई दूसरी बहुत सी कविताएं हो सकती हैं जिनमें उस स्वर को पकड़ा जा सकता है। मैं जिन कविताओं में उनके स्वर को पकड़ पाया हूं उनमें बेहद आत्मीयता से भरी लेकिन लिजलिजेपन वाली भावुकता से परहेज करती युवा कवि की छवी दिखाई देती है। विस्मृतियों की गहन खोह से वे अपनी काव्य यात्रा का शुभारंभ करती हैं। देश दुनिया की भौगोलिक सीमाएं ही नहीं भाषायी बंधनों से भी मुक्त जीवन की चाह में वे रास्ते की मुलाकात के अवसरों में भी स्त्री जीवन के कितने ही घने एकान्त के पार हो आती हैं। यहां प्रस्तुत है उनकी दो कविताएं। 
वि.गौ.
बच्चे और माँ की कहानी

पांच साल का बच्चा
देखादेखी में पाल लेना चाहता है कुत्ता
एक हरे रंग का...बिन दांतों वाला
माँ सुकूं से है...मिले तो पालने को तैयार
बच्चा लाना चाहता है एक सांप
माँ मछली पर राज़ी है
बच्चे को याद है साल भर पहले पाली गयी मछलियाँ
छूट गयी जो पीछे छूटे शहर में
अब किसी कोने बचा है अनमना मन.....


बच्चे के मन बहलाव में माँ को याद आया
एक प्यारा...भूरा...भोटिया कुत्ता
पीछे दूर...बहुत दूर छूटा
किसी दूसरे जन्म का किस्सा
बच्चा पलटकर कहता है
"दिस इस नोट फेयर...यू हेड अ डोग एंड आई डोंट"
माँ पलटकर कहती है
“यू हेव सो मेनी कारस एंड टीवी...आई हेड नन"
बच्चा माँ के बिन टीवी
बिन रिमोट कंट्रोल वाले बचपन में
उलझता है कुछ दूर
फिर पसीजकर कहता है
"कोई बात नहीं, पर अब तो खेल सकती हो"
बच्चा माँ के साथ खेलना चाहता है
माँ को निपटाने है कई ज़रूरी काम
खीज़कर बच्चा कहता है
"तुम खेलना नहीं चाहती
पापा को नए खिलौने ख़रीदने पर गुस्सा करती हो"


माँ रंग बिरंगे बाज़ार के फंसाव को याद करती है

कि कितना मुश्किल है ढूंढना बच्चे की उम्र का खिलौना
अचानक मॉल में मिली दो औरते बिफ़रकर कहती है
"कहाँ है वे खिलौने
जो बाप के लिए नहीं बच्चे के लिए बने हैं?"
खिलौना कंपनी की मार्केटिंग टीम खूब जानती है कि
खिलौना कुछ बाप और कुछ बच्चे के लिए बनाये
बाप के पास है ज़ेब और बच्चे का बहाना
रोशनी आवाजों वाला इलेक्ट्रोनिक गेजेड्स सलोना
भरता होगा बाप के बचपन का कोई खाली कोना
माँ खिलौने के जंगल से बेज़ार
बचपन के कई संभवना भरे दिनों में से कुछ
चुराना चाहती है बच्चे के लिए.....


बच्चा फिर घूमकर चिड़िया पर लौटा है
और हरियल तोते को लेकर है फिक्रोफिराक में
कि तोते पर न चढ़ जाय छोटे भाई की ज़बान
फिर फिर मन के फेर में घूमता है बच्चा
माँ अब डरती है दूकान से
देखना नहीं चाहती पेटको में
मकड़ी...कुछ रंग बिरंगे चूहे...छिपकली
कछुए...सांप और ऐसे ही तमाम चित्र विचित्र
महीनेभर तौलमोल के बाद तय हुआ
कि कुछ केंचुए एक बोतल में दो दिन मेहमान बनकर आयें
फिर वापस अपने घर... भुरभुरी मिट्टी में
फिलहाल बच्चा और माँ दोनों सहमत....



 बच्चे क्या बनोगे तुम?

जिज्ञासावश नहीं आता सवाल
हमेशा मुखर हो ये ज़रूरी नही
उत्तर की आरज़ू में नही पूछा जाता
कुछ ज़रूरी ज़बाब है
जिन्हें चुपके से...चालाकी से उकेर दिया जाता है
कोमल कोरे मन की तहों पर अचानक
खिलौनों के बीच खेलते हुए
किसी रंगीन लुभावनी किताब को पलटते हुए
सीधे नहाकर कपडे पहनते हुए भी
एक बड़े की आशीष के बीच
कि कुछ एक होने के लिए
कुछ एक बनने के लिए ही है जीवन…..


क्या बनना है बच्चे को?
बच्चा अभी कहाँ जान पायेगा कि
ये कुछ एक बनने की लहरदार सीढ़ी
चुनाव और रुझान से ज्यादा
कब एक जुए की शक्ल ले लेगा
जो भाग्य...भविष्य
और बदलते बाज़ार की ज़रुरत के दांव से खेला जाएगा
बच्चा दूसरे के देखे सपने में दाखिल होगा
कभी डॉक्टर बनकर घिरा रहेगा दिन भर
बीमारी...बेबसी...के व्यापार के बीच
डेंटिस्ट की शक्ल में होगा बदबू मारती साँसों के बीच
कभी एक फटेहाल टीचर की शक्ल में दिखेगा
जो अपने जीवन के सबसे ज़रूरी पाठों को पढने से रह गया
कभी नींद में बौखलाए पायलेट की तरह
जो बिन मंजिल की यात्रा में बदल गया है
कभी किसी एयरहोस्टेस की शक्ल में

जिसके लिए रोमान और ग्लैमर की जगह
जूठी प्लेटों के ढ़ेर में है जीवन…..


कभी इन्ही सपनों में दाखिल होंगे
निर्वासित वैज्ञानिक...इंजीनियर
जो बस हाथ बनकर रह गए है
जिनका दिमाग भी हाथ का ही विस्तार है
कुछ ज्यादा कठिन कसरतों के लिए
ये दिमाग खांचे से बाहर
जीवन से ज़िरह के लिए नहीं
सवाल के लिए नहीं है
बिन रुके एक प्रोजेक्ट से दूसरे को निपटाने के लिए है
कभी आयेगा एक पत्रकार की शक्ल में
टीवी पर लहकते लड़के लड़कियों के लिए

विद्रूप से विद्रूपतर शक्लों में आयेगा जीवन
बहुत से बच्चों के लिए
जिनसे कोई पूछ न सका कि
क्या बनोगे बच्चे?