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Tuesday, April 2, 2024

लोक में वास करता विश्व



अकसर सुनते हैं कि फिल्म डायरेक्टर का माध्यम है और नाटक पात्रों का। हालांकि देखा जाए तो अभिनय की ये  दोनों विधाएं ही मूल रूप से है तो पात्रों का ही माध्यम। फिर भी यदि कहावत को सच की तरह स्वीकारें तो भी यह आश्चर्य की बात ही होगी कि 1 अप्रैल 2024 को दून विश्वविद्यालय के डॉ नित्यानंद ऑडोटोरियम में खेले गए गढवाली नाटक “रुमेलो” को देखने के बाद कहना पड़ रहा है कि प्रदर्शित हुआ नाटक निर्देशन के कौशल का नमूना रहा। शेक्सपियर के नाटक “ओथेलो” पर आधारित रुमेलो की मंच परिकल्पना एवं निर्देशन दून विश्वविद्यालय में रंगमंच विभाग के शिक्षक डॉ अजीत पंवार ने किया। यह उल्लेखनीय है कीं नाटक के सभी पात्र दून विश्वविद्यालय के वे विद्यार्थी थे जिनमें से ज्यादतर के मंच पर उतरने के अनुभव नगण्य ही थे। मंचीय अनुभव सम्पन्न विद्यार्थियों की बात भी की जाए तो वे भी सीमित ही। यानि सीमित और नगण्य अनुभवों वाले कलाकारों से एक परिपक्व नाट्य प्रस्तुति को रच ले जाना बिना कुशल निर्देशकीय कौशल के सम्भव ही नहीं था। लेकिन सिर्फ इस एक मानक पर खरे उतरने के बाद भी यह कहना तो शायद उचित नहीं कि यह नाटक  निर्देशन के कौशल का नमूना रहा

जरूरी है कि उन अन्य जरूरी उपादानों का भी जिक्र हो जिन्होंने मंचित हुए इस नाटक में वे प्रभाव पैदा किये। इसीलिए सबसे पहला जिक्र होगा उस सेट का जो वातावरण का निर्माण करने के लिए नाटक में इस्तेमाल हुआ
, अन्य अर्थों में कहें तो जिसे न सिर्फ तकनीक के समुचित प्रयोग से रचा गया, बल्कि जिंदगी के राग रंग स्पष्ट तरह से दर्शकों तक पहुंच सकें, उस तरह से व्यवस्थित किया गया। यह कहना कतई ज्यादा न होगा कि सेट के कारण जो वातावरण सृजित हुआ, उसके प्रभाव में ही दर्शक उतराखण्ड की इतिहास कथा के आस्वाद को मंचित होते दृश्यों में महसूस करते रहे।  दृश्यों के प्रभाव उस पार्श्व संगीत से ओथेलो को रुमेलो में बदल रहे थे जो लोक की स्थानिकता में लयबद्ध होकर मंचीय संतुलन को सम्भाल रहा था और प्रकाश के सुनियोजन से प्रदीप्त हो रहा था। निर्देशकीय कौशल क़े ये उल्लेखनीय पक्ष भी भी शायद यह भ्रम रचने में असमर्थ रह जाते कि दर्शक शेक्सपियर का ओथेलो नहीं बल्कि गढवाली भाषा का ही कोई मूल नाटक देख रहे हैं, यदि नाटक का स्क्रिप्ट भाषायी रूपांतरण के रचनात्मक कौशल में न तैयार हुआ होता। नाट्य आलेख के लेखक दिनेश बिजल्वाण ने कथा के योरोपीय विन्यास से भिन्न उत्तराखण्डी भूगोल को ला खड़ा किया। सम्वादों में गढवाली भाषा का लालित्य उन मुहावरों में रचा जिन्होंने पात्रों की स्थानिकता को विश्वसनीय चरित्र की तरह पेश किया। नाटक के किरदार ओथेलो, डेसिमोना, इयागो, ऐमिला, कैशियो आदि के रूप में नहीं बल्कि अपनी स्थानिक आभा और चारित्रिक विशेषताओं के साथ रुमेलो, रुकमा, बिघ्नी, मायालू, बिच्छा आदि क़े रूप में दर्शकों के सामने आते हैं।

  

यह कहने में संकोच नहीं कि न सिर्फ मंचन की दृष्टि से बल्कि लेखन की दृष्टि से भी शेक्सपियर के नाटक “ओथेलो” पर आधारित रुमेलो दून विश्वविद्यालय की ऐतिहासिक उपलब्धि होने का पात्र तो हुआ ही है, साथ ही आयोजित किये गये इस सात दिवसीय नाट्य उत्सव की भी उपलब्धि है। ज्ञात हो की इस नाट्य उत्सव का अयोजन उत्त्र नाट्य संस्थान एवं रंगमंच, देहरादून और लोक कला विभाग दून विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में किया गया है और 27 मार्च 2024 को रंगमंच दिवस के दिन शुरु हुआ।


अभिनय के स्तर पर हर पात्र की कोशिश अपने सर्वोत्तम के साथ प्रस्तुत होती हुई थी। घटना के प्रभावों में बिघ्नी की भूमिका में सृजन जोशी, रुमेलो- सृजन डोभाल, रुकमा- साक्षी देवरानी, बिच्छा आयूष चौहान, राजा- सिद्धार्थ डंगवाल, सुनार- संयम बिष्ट कई दिनों तक याद रहने वाले अभिनय हैं। जोत्रा के रूप में अनन्य डोभाल, मायालू- अंशुमन सजवाण, अलका- कनिष्का उनियाल, जलका- संध्या, कलदारसाह- राजदीप राणा और अन्य ग्रामीणों के रूप में मंच पर मौजूद रहे पात्रों की उपस्थिति के बिना तो नाटक के दृश्य भीं स्मृतियों में न उतर पाएंगे।       



 


Sunday, August 13, 2023

महा परियोजनाओं का सांस्कृतिक परिदृश्य


देहरादून की नाट्य संस्था वातायन ने पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की  पहलकदमी दिखाई है, नाटकों के मंचन किये, इसमें कोई दो राय नहीं कि देहरादून रंगमंच के इतिहास में वह हमेशा दर्ज रहेगी. उन पर निगाह डाले तो आश्चर्यजनक खुशी मिलती है. मूल रूप से रंगमंच के लिए समर्पित इस संस्था की पिछली चार नाटय प्रस्तुतियां अपने विषय के कारण उल्लेखनीय कही जा सकती है. दिलचस्प है कि ये चारों प्रस्तुतियां कमोबेश अपने अपने तरह से भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष की कहानी और उस दौर के सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर ध्यान खींचतीं हैं. 2019 में रचा गया और मंचित किया गया नाटक दांडी से खाराखेत तक. स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में देश भर में व्याप्त नमक सत्याग्रह आंदोलन की आवाज देहरादून में लून नदी में नमक बनाने की कार्रवाई के साथ सुना गया था, नाटक उसी अल्पज्ञात इतिहास को सामने लाने के लिए गोरखाली समाज के नायक और नमक सत्याग्रह आंदोलन के दौरान ही गांधी जी के सम्पर्क में आए खड‌क बहादुर सिंह के नायकत्व को स्थापित करने की कोशिश करता है. उसके बाद  2022 में नागेंद्र सकलानी एवं तिलाड़ी कांड को आधार बना कर रचे और मंचित किया गया नाटक- मुखजात्रा, और आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष 2022-23 के  दौरान कथाकार प्रेमचंद के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास गोदान पर आधारित नाट्य आलेख का मंचन और इस माह अगस्त 11 एवं 12 की सबसे ताजा प्रस्तुति वीर चंद्र सिंह गढवाली’.    


इन चारों प्रस्तुतियों की एक खास बात यह है कि इनके नाट्य आलेखों को तैयार करने में वातायन के कलाकारों की भूमिका विशेष रही है और इनके प्रथम मंचन भी वातायन ने ही किये. दांडी से खाराखेत का नाट्य आलेख वातायन द्वारा 2019 में आयोजित उस रंग शिविर में तैयार हुआ जिसका संचालन निवेदिता बौंठियाल द्वारा किया. नाटक का निर्देशन निवेदिता बौंठियाल ने किया. लगभग 40-42 वर्ष पहले निवेदिता बौंठियाल (उनियाल) रंगमंच के अपने सफर की शुरुआत वातायन से ही की थी और पिछले लगभग 30-35 वर्षों से वे बम्बई में एवं कलाकार के रूप में सक्रिय हैं. मुखजात्रा सुनील कैंथोला द्वारा लिखे और प्रकाशित नाटक को एक रंग शिविर में मंचिय प्रक्रिया तक पहुंचाने का उपक्रम बना था. यह रंगशिविर उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ सुवर्ण रावत के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ था और वे ही नाटक के निर्देशक थे. सुनी सुनायी खबरों के हवाले से यह रंगशिविर गढवाल महासभा ने अयोजित किया था.शायद इसीलिए नाटक का पहला मंचन प्रशासन द्वारा आयोजित कौथीग-2022 में हुआ हो. कुछ दिनों बाद नाटक में कुछ मामूली बदलावों के साथ नाटक का मंचन टाउन हाल देहरादून में वातायन की ओर से किया गया और डॉ सुवर्ण रावत ही नाटक के निर्देशक थे. गोदान की स्क्रिप्ट को नाटक के निर्देशक मंजुल मयंक मिश्रा ने प्रेमचंद के उपन्यास के कुछ खास हिस्सों को लेकर तैयार किया. वीर चंद्र सिंह गढवाली के मंचन के दौरान वितरत फोल्डर से नाटय स्क्रिप्ट के लेखक के बारे में तो कोई सूचना नहीं मिलती है, लेकिन मंचन से पूर्व उदघोषक की सूचना से जानकारी मिली थी वातायन के कुछ युवा साथियों द्वारा यह नाट्य आलेख राहुल सांकृत्यायन द्वारा वीर चंद्र सिंह गढवाली की लिखी जीवनी पर आधारित है.    

चारों नाटको के विषय चयन को देखते हुए यह ध्यान बरबस ही जाता है कि कुछ बड़ा करने और बड़ा रचने की सदइच्छाओं के साथ वातायन लगातर अपने आपको तैयार करता जा रहा है. अति महत्वकांक्षा से भरी वातायन की यह परियोजना दून रंगकर्म पर किस तरह से प्रभाव डाल रही है और शेष भारत की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों से इनका क्या रिश्ता है ? उसे समझना चाहें तो वह समीकरण ही दिखाई देगा जिसका कमोबेश लक्ष्य यही होता है कि दिखती हुई दूरी के साथ अंदरखाने सत्ता से एक सम्पर्क सधा रहे ताकि कार्यक्रम आयोजित करने के लिए बजट, पुरस्कार, विदेश यात्राएं जैसे मिलने वाले लाभ झोली में बने रहें. गतिविधि विशेष को अलोचना के दायरे में  लाए बगैर भी कहा जा सकता है कहाँ सिर्फ विषय भर से और कहाँ विषय को एक सीमा तक तोड़ मरोड करके शुद्ध सांस्कृतिक कर्म किया जा सकता है और इतना ही नहीं,जनपक्षीय तक बना रहा जा सकता है. नाटक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की काव्य रचना राम की शक्ति पूजा से लेकर प्रेमचंद का गोदान के सहारे देशभर में नहीं विदेशों तक घूमा जा सकता है. बिना इस और सोचे हुए कि हवाई खर्चे से लेकर महंगे होटलों तक में रुकने की सुविधा के खर्च कहां से आते होंगे, कविकुंभों का हिस्सा हुआ जा सकता है. 

 

किसको पिता तुल्य कह दिया गया और किस तरह आयोवा हुआ जा सकता है, जब यह आज छुपाया नहीं जाया जा पा रहा है तो क्यों नहीं माथे पर त्रिपुंड लगाकर चिढाती हुई  हंसी हो लिया जाये? मंदिर के नाम पर दिए गए चंदे के चेक को लहरा लिया जाए. पुरस्कार वापसी जैसी जबरदस्त कार्रवाई का हिस्सा होते हुए बहुत भी आयोजित हो रहे किसी कार्यक्रम का चुपके से हिस्सा हो लिया जाये? साहित्य अकादमी ही आयोजक हो चाहे. तो फिर क्या हाल ही में मंचित वातायन के नाटक वीर चंद्र सिंह गढवाली भी उस महत्ती परियोजना का सबसे विकसित रूप तो नहीं जिसकी शुरुआत नजीबाबाद का इफ्तार हुसैन वाली मासूम संस्कृतिक चिंता से हुई थी?

चलिए, इसको थोड़ा परख लिया जाए और नाटक के उस अंतिम दृश्य को याद कर लिया जाए जो नाटक की टैग लाइन बना दिया गया- आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? और इस बात तक को दरकिनार कर दिया जाए कि एक इक्लाबी चरित्र किस तरह रिड्यूस होकर अपनी गरिमा खो दे रहा है. यह दृश्य आजादी के बाद उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पेशावर कांड के सिपाही वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को दी गई तुच्छ पेंशन पर सवाल उठाते हुए नाटक का अंत करता है और यहीं पर नाटक का किरदार- राहुल सांकृत्यायन चीख चीख कर चिल्ला रहा है - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? इतना नहीं  अपने साथी किरदार के साथ जीवन की घटनाओं को शेयर करता वीर चंद्र सिंह गढवाली का किरदार भी दाहड़ मारकर रोते हुए वही दोहरा रहा है - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? नाटक अपने अंत की ओर है और पार्श्व से अन्य कलाकार भी अब मंच पर आकर उतनी ही तीखी आवाज और कोरस के से स्वर में दोहरा रहे हैं - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया?


यह आरोप नहीं बल्कि उस अनुगूंज को याद दिलाना है, पिछले कुछ सालों से जिसका हल्ला खूब सुनाई दे रहा है कि मानो भारत देश मात्र आठ दस साल पहले आजाद हुआ हो और अब आजाद देश की जो पहली सरकार है, वह पहले के दौर की सरकारों से भिन्न है.

सरकारी चरित्र में वास करती अमानवीयता को छुपाते हुए गैर राजनैतिक दिखने का यही साहित्यिक-सांस्कृतिक तरीका है. और यही समझदारी तथ्यों में हेर फेर कर देने का उत्स होती है. देख लेते हैं कि राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में पेशावर कांड के सिपाही की स्थिति क्या है, 

“ ... 25  जुलाई 1955  को उत्तर प्रदेश सरकार ने लिखा कि राज्यपाल को इसके लिये बड़ी प्रसन्नता है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली को अब १४ रुपया मासिक आजीवन पेन्शन दी जायगी। यह जले पर नमक छिड़कना था। भला आजकल के जमाने में 14 रुपये से क्या बनता है? बड़े भाई ने 16  अगस्त 1955 को सरकार को चिट्टी लिखकर इस पेंशन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। यह खबर समाचार-पत्रों में भी प्रकाशित हुई। बड़े भाई की चिट्टी का कुछ अंश निम्न प्रकार है-

.. मेरी उमर 65 साल की है। आपने 14  रुपये मुझे पेंशन दिये हैं। क्या मैं यह समझँ कि हमारे गणतन्त्र राज्य ने मेरे लिये अन्तिम कार्य के लिये उपरोक्त पेंशन ही उचित और काफी समझी....? मैं आपके भेजे हुये पेंशन के पत्र को वापस करता हूँ.... । क्षमा । “[1]


कोई भी रचना या कलाकृति अपने समकाल से निरपेक्ष नहीं हो सकती। किसी बदले हुए समय में उसके पाठ भी अपने समय भिन्न कैसे हो सकते हैं फिर। राहुल सांकृत्यायन के पात्र के माध्यम से नाटक का यह अंत आखिर कहना क्या चाहता है? यह बिंदु अहम रूप से विचारणीय है। यह एक बड़ी विडंबना है, जब रचनात्मकता सत्ता की भाषा हो जाना चाहती है और एक नायक के जीवन से केवल उन क्षणों को

चुनती है जो उसके द्वारा चुन लिए गए अंत का विकास कर सकते हैं
, या थोड़ा बहुत तोड़ मरोड़ कर, कुछ अतिरिक्त जोड़ घटाकर, वैसा कर सकने में सहायक हो सकते हैं।

 



राजनैतिक पार्टी और सरकार के फर्क को भूला देने वाली राजनीति की चेतना ही पेशावर के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जेल जीवन के दौरान डिप्रेशन में दिखा सकती है। उसे खुद के कपड़े फाड़ कर बिलख बिलख कर रोता हुआ दिखा सकती है। वरना राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी पेशावर कांड का घटनाक्रम घटने से पहले ही नहीं, बल्कि बाद में सजा पाए गढ़वाली को भी जेल में अन्य कैदियों के साथ सम्पर्क बनाये रखते हुए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करते वीर का परिचय देती है। मूल जीवनी का निम्न हिस्सा यहां देख सकते हैं,

इस एकान्त काल कोठरी में चन्द्र सिंह कभी सोचते— “चन्द्र सिंह, तुम क्या कर बैठे ? मारे जाओगे। पिता, स्त्रि[i]याँ, बच्चे सदा के लिये तुमसे छूट चुके । तुम इस अंधेरी कोठरी में पड़े हुए हो, न जाने कब तक के लिये ?"

फिर उनके मन में यह सोचकर गर्व हो उठता- "चन्द्र सिंह शाबाश, तुमने मानुष जीवन का फल पा लिया। अपनी तुच्छ शक्ति के अनुसार तुमने देश माता के लिये यह सब कुछ किया। देश-भक्ति कसूर नहीं है। यह शर्म करने या घबराने की चीज नहीं है। तुमने अपने जीवन की कीमत वसूल कर ली। अपने परम कर्त्तव्य को पूरा कर लिया। जब तक साँस चलती है, तब तक इस कोठरी में आनंद से रहो। जो तुम चाहते थे, वही तुमको मिला।" वह इस प्रकार के विचारों में अपने आपको भूल गये इसी समय बूटों की आहट से उनका ध्यान टूटा। जंगले से बाहर शौककर देखा कि नम्बर १ और नम्बर ४ प्लाटून के सैनिक जा रहे हैं उन्होंने जोर से आवाज़ दी — “ जवानों, घबड़ाना मत। मैं भी यहीं हूँ” [2]

                                              

सिर्फ अपने बारे में, परिवार, मां, बाप, पत्नी और बच्चों के बारे में सोचते हुए अपने किये पर पश्चाताप करते हुए डिप्रेशन का शिकार होकर विक्षिप्त अवस्था को प्राप्त हो चुके चन्द्र सिंह गढवाली को प्रस्तुत करने के लिए पूरे नाटक का जो ताना बाना बुना गया उसकी शुरुआती झलक एक मांगल गीत से होती है. जिसे गाते हुए कलाकार दर्शकों पर फूल बरसाते हुए एक दम बीचोंचीच से जाते हुए गुजरते हैं, मंच पर सामूहिक अभिनंदन करते हैं और विंग्स के पीछे निकल जाते हैं. यहाँ उस तरह की ओपनिंग और मंगल गीत की प्रासंगिकता का सवाल करना बेमानी है क्योंकि अभी आप नहीं जानते कि नाटक किस तरह से डेवेलप होगा. और वह अपने पहले दृश्य में उस बालक च्न्द्र सिंह से परिचित कराता है जिसकी बहादुरी का यह किस्सा नाटय टीम  के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कैसे बालक चंद्र सिंह एक क्रोधित अंग्रेज अधिकारी के सिर पर एक तांत्रिक के मंत्र से शक्तिकृत भभूत चुपके से छिडक कर उसके क्रोध को कम कर देता है और निर्दोष लेकिन गुनहगार ठहराये जा रहे गांव वाले सिर्फ छोटे से जुर्माने की सजा में ही निपट जाते हैं.

अगले दृश्य पार्श्व में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोशित जनसमूह की आवाजें हैं, मंच पर हवलदार चन्द्र सिन्ह और उसकी बटालियन के दूसरे सिपाहियों को जनता पर गोली चलाने का हुक्म देते अंग्रेज फौजी अफसर हैं और जवाब में अपने साथियों सीज फायर का हुक्म देता हवलदार चन्द्र सिन्ह है.यही है पेशावर विद्रोह. जो ऐसे लगता है जैसे एकाएक घटा हो. ऐसा नहीं है कि तैयारी की आवश्यक कार्रवाइयों के विवरण राहुल संकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में न हो. लगभग 415 पृष्ठ और 26 प्र्करणों में लिखी मूल जीवनी के लगभग 350 पृष्ठ ऐसे ही विवरणों से भरे हैं. लेकिन नाटय टीम की दिक्कत है कि यदि वह उन विवरणों के एक छोटे से प्रकरण को भी मंच पर लाए तो दो समस्यायें हैं.

1.      नाटक की समयावधि बढ सकती है क्योंकि बाकी वे हिस्से तो उसके लिए जरूरी ही हैं जिनसे अपनी कर्रवाई पर पछताते हुए असहाय से दिखते चंद्र सिंह के प्रति दर्शकों के भीतर सहानुभूति का भाव उपजाने और अपने लक्ष्य तक पहुंचना है.

2.      वैसे दूसरी दिक्कत ज्यादा बड़ी है,क्योंकि दर्शकों के भीतर पहले से ही मौजूद वीर चंद्र सिंह गढवाली की छवि को तोड‌ना तो मुश्किल ही हो जाएगा तो फिर अपनी पेंशन के लिए लाचार होकर गिडगिडाते चंद्र सिंह गढवाली को कैसे दिखाया जा सकता था.

घटनाक्रम के बाद जेल जीवन के दृश्य हैं और उससे पहले मोर्चे से वापिस भेज दिये गए बगावती सिपाहियों की आपसी बतचीत है. जिसमें चन्द्र सिन्ह के आर्यसमाजी हिंदू होने का खुलासा नाटय टीम को ज्यादा महत्वपूर्ण लगा है. खैर, प्रसंगों के चयन में  नाट्य टीम की स्वतंत्रता को सवाल क्यों किया जाए ? जबकि राहुल सांकृत्यायन की मूल जीवनी और पृष्ट 198 में दर्ज एक ऐसा ही विवरण हमारे पास हो,उसे देख लेते हैं,

            “चन्द्र सिंह के ऊपर आर्यसमाजी होने की बात कह करके एक और इल्जाम खड़ा किया गया था, जिसके लिये कोर्ट मार्शल ने एबटाबाद के डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट कर्नल एम० ई० रेकी से गवाही ली थी, बयान भी लिया था।“[3]

यह विवरण राहुल उस वक्त देते हैं जब चंद्र्सिंह को बगावत का गुनाहगार घोषित करने के लिए सरकारी गवाह सूबेदार जय सिंह और सूबेदार त्रिलोक सिंह के बयानों का जिक्र मूल जीवनी में हो रहा है. सवाल है पेशावर कांड के वीर सिपाही को आर्यसमाजी हिंदू साबित करके वातायन नाट्य दल क्या कहना चाहता है. यहां यह आग्रह  नहीं कि वातायन को नागेंद्र सकलानी हो चाहे चन्द्र सिंह गढवाली, दोनों की कम्यूनिस्ट पहचान दिखानी ही चाहिए थी. जबकि अपनी परियोजना के सबसे मह्त्वपूर्ण नाटक मुखजात्रा में नागेंद्र सकलानी की मूल पहचान-कम्यूनिस्ट को छुपाने का एक इतिहास पहले से है. मूल जीवनी से चन्द्र सिंह गढवाली की जो छवि बंनती है उसकी एक बानगी यहां प्रस्तुत है कि अपने जनसमाज के बारे में वह समझदारी क्या थी,   


“हमारे गढ़वाल में ताँबा -लोहे की खानें हैं। नाना प्रकार की जड़ी-बूटियाँ, औषधियाँ हैं। पत्थर, लकड़ी है, कागज बनाने की सामग्री, मधु, शिलाजीत, इंगुर, फूल और फलों से जंगल सम्पन्न हैं। इससे भी बड़ी और महत्व की चीज बहती हुई गंगा की धारा है, जिससे हम करोड़ों किलोवाट बिजली पैदा करके घर-घर पहुँचा सकेंगे। हमारा गढ़वाल औद्योगिक प्रदेश हो जायगा । हम समय और शक्ति का सदुपयोग करेंगे।”

"हमें स्वस्तन्त्र भारत में जनतान्त्रिक गढ़वाल बनाने का मौका मिलेगा। हम १० लाख गढ़वालियों की आर्थिक समस्या, संस्कृति, भाषा, भारत के ६६० जिलों से भिन्न है। "

आज के टिहरी गढ़वाल और ब्रिटिश गढ़वाल, अपर-गढ़वाल और लोअर - गढ़वाल, ठाकुर और ब्राह्मण, डोम और बिष्ट, खैकर और हिस्सेदार, राजा और प्रजा, नहीं रहेंगे, लेकिन, हमको उस समय के इन्तजार में बैठे नहीं रहना होगा। हमें उस समय को लाने के लिये महान् से महान् प्रयत्न करने होंगे। जनता के बीच जाकर, उनके दुःखों का अध्ययन करके, उन्हीं के सामने रखकर उनको दूर करने का प्रयास करना होगा। जन-संगठन के द्वारा शक्ति प्राप्त करना, जनता में राजनीतिक जागृति लाना। भूख, महामारी, हर प्रकार के आशंकाओं के समय उनकी सहायता करके उनमें विश्वास प्राप्त करना होगा। आज संसार में ऐतिहासिक परिवर्तन होने जा रहा है। हमको भी इस ऐतिहासिक निर्माण में सक्रिय भाग लेना पड़ेगा। हमारी आजादी भी संसार की आजादी में निहित है, इसलिये हमें आपसी छोटे-छोटे झगड़ों को छोड़ देना चाहिये। वैसे तो डोला- पालकी का सवाल भी गौण सवाल नहीं है। इसमें भी नागरिक अधिकार और सामाजिक स्वतन्त्रता की माँग मौजूद है। मगर इस झगड़े से आम डोम जाति का उपकार हो सकेगा। शब्दों में चाहे आर्य कहो या हरिजन, अछूत कहो या आदिवासी, या डोम; उनके लिये अलग मंदिर बना दो, अलग कुआँ खोद दो या थोड़ी देर के लिये उनके हाथ का बनाया लड्डू भी खा लो, इन सबसे उनका असली उपकार नहीं हो पायेगा।“[4]

मंचन के लिहाज से बात की जाये तो बहुत ही बचकाना सा मामला था. जबकि अपने इस नाटक के साथ ही वातायन अपनी रंग यात्रा के 45 वर्षों का जिक्र करती है. इतना ही नहीं आजादी के अमृत महोत्सव के समय की अपनी इस नाटक को दिल्ली के गिन्नी बब्बर से निर्देशित करवाती है. जिनके परिचय में दर्ज करती है कि उन्होने  वर्ष 2012 में श्रीराम सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर,नई दिल्ली से दो वर्षा का अभिनय में डिप्लोमा प्राप्त किया है. राजेंद्र नाथ, त्रिपुरारी शर्मा, बापी बोस,हेम सिंह, लेंडी ब्रायन, राज बिसारिया, रुद्र्दीप चक्रवर्ती,स्वरूपा घोष, चितरंजन गिरी,के एस राजेंद्रन,मुश्ताक काक व कई अन्य जाने-माने राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्तियों/निर्देशकों के सानिध्य में काम किया है.       



[1] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, ध्रुवपुर (1950) ,  पृष्ठ 415

 

[2] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, गिरफ्तारी (1930 में),  पृष्ठ 179

 

[3][3] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, फौजी फैसला (1930 में),  पृष्ठ 198

 

[4][4] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, गांधी जी के पास,  पृष्ठ 305



उपयोग की जा रही सभी तस्‍वीरों के लिए जयदेव भट्टाचार्य का आभार। तस्‍वीरें उनके कैमरे का कमाल हैं।  

Wednesday, April 5, 2023

देहरादून में गोदान का सफल मंचन

 

यह स्‍वीकृत सत्‍य है कि नाटक अभिनेता/ अभिनेत्री का माध्‍यम है और इसी बात को एक बार फिर से साबित किया वातायन द्वारा मंचित नाटक गोदान ने। गोदान का मंचन  3 एवं 4 मार्च 2023 को टाउन हाल देहरादून में संपन्‍न हुआ। मंजुल मयंक मिश्रा क निर्देशन में खेला गया यह नाटक वातायन के युवा और वर्षो से रंगमंच कर रहे रंगकर्मियों का ऐसा सुंदर संतुलन था जिसमें निर्देशकीय समझ निश्चित ही सफलता का एक पैमाना बन रही थी।   

प्रस्‍तुति के लिहाज से संदर्भित नाटक ने न सिर्फ वातयान को ऐतिहासिक सफलता से गौरवान्वित होने का अवसर दिया, अपितु देहरादून रंगमंच के लिए भी यह प्रस्‍तुति एक यादगार प्रस्‍तुति के रूप में याद रखे जाने वाले इतिहास को गढने में सफल कही जा सकती है। 

 

संदर्भित नाटक का आलेख, हिंदी में यथार्थवादी साहित्‍य के प्रणेता कथाकार प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्‍यास ‘’गोदान’’ के आधार पर तैयार किया गया था और उपन्‍यास की उस मूल कथा को आधार बनाकर रचा गया है, आजादी पूर्व भारतीय किसान के जीवन की त्रासदी के प्रतीक के रूप में जिसके मुख्‍य चरित्र होरी के  जीवन का खाका प्रमुख तरह से प्रकट होता है। यानि ग्रामीण समाज के जंजाल को ही नाटक में प्रमुखता से उकेरा गया है। यद्यपि नाटक के उत्‍तरार्द्ध में गांव से भाग कर, शहरी जीवन के अनुभव से विकासित हुए गोबर के चरित्र की एक हल्की झलक भी मिल जाती है। लेकिन शहरी जीवन के छल छद्म और आजादी पूर्व के ग्रामीण समाज के जीवन को प्रभावित कर रही शहरी हवा और इन अर्न्‍तसंबंधों को परिभाषित करने वाले गोदान उपन्‍यास के अंशों से एक सचेत दूरी बरतते हुए निर्देशक ने जिस नाट्य आलेख के साथ गोदान को प्रस्‍तुत करने की परिकल्‍पना की, उसने नाटक की सफलता की जिम्‍मेदारी होरी और धनिया के कंधों पर पहले ही डाल दी। यानि नाट्य आलेख के इस रूप ने भी निर्देशक को पार्श्‍व में धकेलते हुए पात्रों को ही असरकारी भूमिका में प्रस्‍तुत होने का एक अतिरिक्‍त अवसर दिया। मंचन के दौरान यह स्‍पष्‍टतौर पर दिखा भी। धनिया के पात्र को जीते हुए सोनिया नौटिायन गैरोला और होरी की भूमिका में धीरज सिंह रावत ने निर्देशकीय मंतव्‍य को प्रस्‍तुत करने में अहम भूमिका अदा की। बल्कि यह कहना ज्‍यादा उचित होगा कि होरी के परिवार के अन्‍य पात्रों:  सोना के रूप में अनामिका राज, रूपा की भूमिका में सिद्धि भण्‍डारी और गोबर की भूमिका में शुभम बहुगुणा दर्शकों की निगाहों में ज्‍यादा प्रभावी तरह से प्रस्‍तुत होते रहे। लेकिन यह भी सत्‍य है कि अवसर की अनुकूलता के कारण से ही नहीं, अपितु अपने जीवन के सम्‍पूर्ण अनुभव को प्रतिभा के द्रव में घोलकर जिस तरह से सोनिया नौटियाल गैरोला ने धनिया के किरदार का जीवंत रूप में प्रस्‍तुत किया, उसे उनका दर्शक‍ एक लम्‍बे समय तक भुला नहीं पाएगा। रंगकर्म के अपने छोटे से जीवन में ही एक परिपक्‍व अभिनेत्री के रूप में सोनिया नौटियाल गैरोला को देखना और वैसे ही छोटे अंतराल के रंगकर्म के सफर में होरी के किरदार धीरज सिंह रावत का अभिनय इस बात की आश्‍वस्ति दे रहा है कि दून रंगमंच अपने ऐतिहासिक मुकाम की नयी यात्रा पर आगे जरूर बढेगा। रंग संस्‍था वातायन के लिए भी यह आश्‍वस्‍तकारी है कि नये-उत्‍साही और गंभीरता से नाटक करने वाले रंगकर्मियों का इजाफा उनके यहां हुआ है।

उम्‍मीद की जा सकती है कि गोदान के मंचन की यह सफलता वातायन को नयी ऊर्जा से जरूर भरेगी। बेहतर टीम वर्क ही उल्‍लेखित नाटक के मंचन  की सफलता को तय करता हुआ दिख रहा था। संगीत और प्रकाश का खूबसूरत संयोजन भी नाटक को प्रभावी बनाने में अहम भूमिका अदा कर रहा था।




उपयोग की जा रही सभी तस्‍वीरों के लिए जयदेव भट्टाचार्य का आभार। तस्‍वीरें उनके कैमरे का कमाल हैं।  

Friday, November 10, 2017

खाने में जो भी स्वाद था, सब नमक की वजह से था



यह एक स्‍वीकृत सत्‍य है कि नाटक एक्‍टर का माध्‍यम है तो फिल्‍म डाइरेक्‍टर का। लेकिन फिल्‍म एवं नाटकों की दुनिया का यथार्थ जो तस्‍वीर बनाता रहा है, वह तस्‍वीर कुछ भिन्‍न प्रभाव छोड़ती रही है। इधर यह भिन्‍नता कुछ ज्‍यादा चमकीली हुई है। हिन्‍दी नाटकों की दुनिया में यह रौशनी कई बार तडि़त की सी चौंध बिखेरती हुई है। नाटकों की दुनिया में उभरते सिद्धांत और व्‍यवहार के ये अन्‍तर्विरोध कोलकाता में आयोजित हुए राष्‍ट्रीय नाटय महोत्‍सव ‘जश्‍न-ए-रंग’ में प्रदर्शित हुए नाटकों में भी दिखायी देते रहे। 

‘जश्‍न-ए-रंग’ कोलकाता की नाट्य संस्‍था लिटिल थेस्पियन के प्रयासों का सातवां क्रम था। पिछले कुछ वर्षों से लिटिल थेस्पियन, कोलकाता द्वारा आयोजित होने वाले ऐसे जलशों में देश भर की कई नाट्य मण्‍डलियां कोलकाता पहुंचती रही हैं। इस बार, 3 नवम्‍बर से 8 नवम्‍बर 2017 तक आयोजित हुए इस नाट्य उत्‍सव में लिटिल थेस्पियन के अलावा जम्‍मू से ‘एमेच्‍योर थियेटर ग्रुप’, इलाहाबाद से ‘बैक स्‍टेज’, नई दिल्‍ली से ‘पीपुल्‍स थियेटर’ एवं बेगुसराय से ‘आशीर्वाद रंगमण्‍डल‘ नाट्य दलों की उपस्थिति रही। इस उत्‍सव की विशेषता थी कि नाटकों के साथ रंग के अन्‍य प्रयोग जैसे किस्‍सा कहानी, नुक्‍कड़ एवं कहानी पाठ जैसी अन्‍य गतिविधियां उत्‍सव का मंच बनी। कोलकाता के बाशिंदे एवं गुजराती भाषा के कलाकार- दिलीप दवे एवं दिनेश वडेरा, मॉरिसस के कलाकार- लीलाश्री, शावीन, शाबरीन एवं वोमेश, पटना से दिनकर एवं बहुत से अन्‍य कलाकारों ने इस तरह की गतिविधियों से 6 दिन तक चले इस उत्‍सव को यादगार बनाने की पहलकदमी में अपनी भूमिका निभायी। 6 दिवसीय इस आयोजन में एक नाटकों के विकास में अखबारों एवं शिक्षण संस्‍थानों की भूमिका पर भी विचार विमर्श हुआ। प्रबंधन के कौशल के पेशेवराना अंदाज के कारण भी लिटिल थेस्पियन का यह एक महत्‍वपूर्ण आयोजन कहा जा सकता है। हर दिन के कार्यक्रम की जानाकारी को फोन एवं एसएमएस के माध्‍यम से दर्शकों तक पहुंचाने और सीधे सम्‍पर्क बनाये रखने वाले लिटिल थेस्पियन के युवा कार्यताओं की भूमिका इस मायने में उल्‍लेखनीय रही। ध्‍यान रहे कि लिटिल थेस्पियन, कोलकाता शौकिया रंगकर्मियों की संस्‍था है जो अपने सीमित साधनों से बांगला भाषी कोलकाता में लगातार हिन्‍दी नाटकों का पक्ष प्रस्‍तुत करती रहती है।  



नाट्य समारोह के दौरान मंचित हुए नाटकों पर अलग अलग बात करने की बजाय एक लय में बहती उस समानता को देखें जो हिंदी नाटकों का वर्तमान हो रही है तो मन में यह सवाल बार--बार  उठ रहा कि कलाकारों के माध्‍यम नाटक में सिद्धांत और व्‍यवहार का यह अन्‍तर्विरोध क्‍यों उभर रहा है कि प्रमुखता निर्देशन को ही मिलती जा रही है और कलाकार हाशिए में होता जा रहा है ?

सवाल के जवाब को ‘जश्‍न-ए-रंग’ में प्रदर्शित हुए नाटकों की मूर्तता में तलाशते हुए देखा जा सकता है कि तकनीक के विकास ने नाटय निर्देशकों को सहूलियत दी है कि वे दृश्‍य जिन्‍हें पहले कभी मंचित कर पाना मुश्किल था, आज उन्‍हें भी मंचित करना आसान हुआ है। इस तरह से देखें तो यह सुखद स्थिति होनी चाहिए थी, लेकिन कुछ ही मामलों में ऐसे सुखद क्षणों के बावजूद इसने अभिनेता की स्‍वतंत्रता का ही हनन किया है। उन्‍नत तकनीक के प्रयोग से रचे जा रहे दृश्‍यबंधों ने निर्देशक को तो स्‍थापित करने में भूमिका निभायी है लेकिन प्रयुक्‍त तकनीक से सामंजस्‍य बैठाने की चिंता में ही उलझे अभिनेता को अपने पात्र में कन्‍स्‍ट्रेट होकर अभिनय करने की स्‍वतंतत्रा में बाधाएं भी खड़ी की है। परिणमत: निर्देशकों के व्‍यवहार में एक अजीब तरह की अराजकता के साथ अतिमहत्‍वकांक्षा ने भी जन्‍म लिया है। ‘जश्‍ने-ए-रंग’ के तीसरे दिन मंचित हुए ‘एमेच्‍योर थियेटर ग्रुप’, जम्‍मू के नाटक ‘द चेयर्स’ के बाद चचिर्ति निर्देशक मुश्‍ताक काक का यह कहना इस बात का गवाह है। जब वे कहते हैं, ‘’चीयर्स एक एब्‍सर्ड नाटक है और मैं हमेशा ऐसे ही नाटकों की तलाश में रहता हूं। हां, मेरे ये कलाकार जरूर मुझे हमेशा टोकते हैं कि कभी इनसे हटकर भी करूं। लेकिन मुझे तो यही पसंद हैं।‘’ इस वक्‍तव्‍य के साथ आत्‍मश्‍लाघा से भरी मुश्‍ताक काक की हंसी की आवाज भी सुनायी देती है। यूं कलाकारों के अभिनय के लिहाज से यह खूबसूरत प्रस्‍तुति थी।

‘द चेयर्स’ फ्रांसिसी नाटककार यूजिन ने लगभग पचास के दशक में लिखा है। नाटक की कथा एक निर्जन द्वीप में एकाकी जीवन बिताते एक बूढ़े दम्‍पति की है। एकाकीपन ने जिन्‍हें एक सामान्‍य मनुष्‍य भी नहीं रहने दिया है। समाज की वास्‍तविकता से कटे होने के कारण वे कुछ कुछ पगलेट तरह के असमान्‍य व्‍यवहार में जीने को मजबूर हैं। यूजिन जिस वक्‍त इस नाटक को लिखा, उस वक्‍त का फ्रांसीसी साहित्‍य अस्तितवादी के दर्शन के पक्षधर ज्‍या पॉल सात्र से प्रभावित है। अस्तित्‍ववाद के साथ अपने वर्तमान को अमूर्तता में देखने का वह दौर द्वितीय विश्‍वयुद्ध की निराशा और पस्‍ती में मनुष्‍य के जीवन को ही उददेश्‍य विहीन एवं निर्थक मानता रहा है। अस्तित्‍ववादी एवं अमूर्तता के पक्षधर मानते रहे हैं कि विश्‍व की अमूर्तता (जटिलता) का कोई तार्किक हल नहीं। आज जब दुनिया की जटिलताएं उतनी अमूर्त नहीं रह गई हैं, ‘द चेयर्स’ का मंचन करते हुए आत्‍मगौरव से भरे रहने का कारण समझ नहीं आता। इसे विशिष्‍टताबोध से भरे निर्देशक को कसने वाली अतिमहत्‍वाकांक्षा क्‍यों न माना जाए ? यद्यपि यह नाटक निर्देशक की उपरोक्‍त वर्णित प्रश्‍नांकिकता के बावजूद तकनीक के अतिश्‍य प्रयोग के बोझ से न दबी होने के कारण कलाकारों को अभिनय करने की पूर्ण स्‍वतंत्रता देती हुई थी। नाटक के दोनों ही कलाकारों ने उस अवसर को भरसक ही उपयोग किया। फिर भी अपने निर्देशक के उपरोक्‍त वक्‍तव्‍य पर उनके चेहरे पर भी एक थका देने वाली मुस्‍कान ही बिखरती रही। यह नाटक की समाप्ति पर मंच पर घट रही एक ऐसी वास्‍तविकता का नाटक था जिसकी अनुगूंज अतिमहत्‍वाकांक्षा की डोर के सहारे उड़ायी जाने वाली पतंग की सरसराहट में मंचन के सफल प्रयोग को कलाकारों की सामूहिकता में देखने की बजाय निर्देशक को प्राथमिक बना दे रही थी।

यह देखना दिलचस्‍प है कि नाटकों में विकसित तकनीकी के जिन प्रयोगों ने निर्देशकों को महत्‍वपूर्ण बनाया हैं, फिल्‍मों की दुनिया में वही तकनीक कलाकारों की भूमिका को ही महत्‍वपूर्ण रूप से स्‍थापित करने में सहायक हुई है। कलाकार की सुक्ष्‍म से सुक्ष्‍म अभिव्‍यक्ति को उभारने में वही मददगार है। जिसके प्रयोग में जबकि निर्देशक की निगाहें ही प्रमुख एवं निर्णायक होती हैं। नाटक हो चाहे फिल्‍म, दर्शकों से सीधे मुखतिब होने का अवसर तो कलाकार के पास ही रहता है। यही वजह है कि प्रयोग की जा रही तकनीक का सीधा प्रभाव भी कलाकार की अदाकारी पर ही पड़ता है। इलाहाबाद की नाट्य संस्‍था ‘बैक स्‍टेज’ प्रवीण शेखर के निर्देशन में भुवनेश्‍वर की कहानी ‘भेडि़ये’ का नाटय रूप ‘खारू का किस्‍सा’ मंचित करती है। दृश्‍य गंभीर है और कलाकार भरसक प्रयासों के साथ अभिनय करता है। भेडि़यों के हमले से खुद की जान बचाने के लिए बाप और बेटे के पास हथियारों का जखीरा खत्‍म हो चुका है। भेडि़ये हैं कि झुण्‍ड के रूप में दौड़ते चले आ रहे हैं। गाड़ी को खींचते बैल सरपट दौड़ते चले जा रहे हैं लेकिन भेडि़यों को पछाड़ना मुश्किल है। गाड़ी में तीन नटनियां भी सवार है जिसके कारण गाड़ी का बोझ खींचना बैलों के मुश्किल होता जा रहा है। बाप और बेटे तय करके एक नटनियां को भेडि़यों के शिकार के तौर पर गाड़ी से धकेल देना चाहते हैं लेकिन अपनी इस योजना का दर्शकों तक पहुंचाने के लिए खारू को गाड़ी से उतरकर मंच के अग्रभाग में आकर संवाद अदायगी करनी है और पाते हैं कि उस कारूणिक दृश्‍य में कुछ दर्शक है कि जोर जोर से हंस रहे हैं। ऐसा अगली नटनियाओं को फेंकते वक्‍त भी होता है और फिर वही हंसी पहले से ज्‍यादा तीव्र होकर सुनायी देती है। बैल खोल दिये जाने हैं ताकि भेडि़यों के झुण्‍ड से निपटा सके। लेकिन अभिनय की सारगर्भित अदायगी के बावजूद दर्शक हंस रहे हैं। बेट की सलामती के लिए बाप खुद भेडि़यों से मुठभेड़ करने के लिए गाड़ी से छलांग लगा देने की स्थिति में है और हंसने वाले दर्शक अब भी दृश्‍य की कारूणिकता के साथ नहीं हो पा रहे हैं। सवाल है कि ऐसा क्‍यों हुआ जबकि कलाकारों के हाव भाव, उनकी मुद्रा, उनकी आवाजों के उतार चढ़ाव तो उस दहशत को बयां करने में कतई कमतर नहीं थे। इसे सिर्फ यह कहकर हवा नहीं किया जा सकता कि वे वैसे ही वर्ग के दर्शक थे जिन्‍हें दूसरों की परेशानी में ही लुत्‍फ उठाने की आदत होती है। ऐसा निश्चित सत्‍य है कि आज समाज का एक वर्ग इस विकृत मानसिकता से भी ग्रसित है, पूंजी की चकाचौंध में जिसके भीतर अमानवीयता ही हावी है। लेकिन नाटक के दौरान ऐसे घटने के कारण बिल्‍कुल साफ थे कि जब कलाकार को संवाद अदायगी करनी होती थी, उस वक्‍त उसे नाटक में घट रहे घटनाक्रम वाली जगह से हटना जरूरी हो रहा था। खारू दौड़कर गाड़ी से नीचे उतरता, संवाद अदा करता और फिर गाड़ी में चढ़ जाता। क्‍योंकि गाड़ी रूपी तकनीक को मंच पर होना जरूरी है, बेशक चाहे कलाकार के उस पर चढ़ने और उतरने के दौरान दर्शक मंचित हो रहे घटनाक्रम से बाहर निकल जाए, निर्देशक को इसकी चिंता नहीं। निर्देशक की चिंता में तो दृश्‍य की सजीवता गाड़ी की उपस्थिति से ही हो रही है। उस सेट को डिजाइन करने में ही तो वह अपने निर्देशक को स्‍थापित होता हुआ देख रहा है। ‘खारू का किस्‍सा‘ फिर भी एक बेहतर प्रस्‍तुति कही जा सकती है। हां नाटक की स्क्रिप्‍ट में यदि अंत को नाटक वास्‍तविक अंत पर ही संपादित कर दिया जाए तो। क्‍योंकि खारू के किस्‍से का अंत हो जाने के बाद भी जारी रहने वाली उपदेशात्‍मकता नाटक के पूरे प्रभाव को ही लील जा रही थी। 


कुछ कुछ वही स्थितियां जो खारू के किस्‍से में सेट के कारण दिखायी दी, अमित रौशन के निर्देशन में मंचित हुए बेगूसराय की संस्‍था के नाटक ‘दो औरतें’ में भी दिखती है। नाटक में नैरेटर की भूमिका निभा रही अदाकारा को बीच मंच पर दोनों ओर लटक रही दो बड़ी बड़ी चावीनुमा औरतों से मुखातिब होना है। चावियों को औरत में बदलने के लिए कभी उसे उन्‍हें साथ में झूल रहे दो लम्‍बे लम्‍बे लाल दुपटटों से ढकना है कभी उन दुपटों के सहारे उसे स्‍कूटर की सवारी करनी है और कभी उन्‍हें अपने ईर्द गिर्द लपेटते हुए दर्द की आहें भरते हुए संवाद अदायगी करनी है। साथ ही बदलते हुए भावों के साथ बहुत तेज आवाज में गूंज रहे पार्श्‍व संगीत से पार पाते हुए भी अपनी आवाज दर्शकों तक पहुंचानी है। मंच के बीच एक लम्‍बा ब्‍लाक रखा है। ज्‍यादा असहजता समझे तो उस पर जाकर खड़ी हो जाए और संवाद अदा करे। इन स्थितियों में कवि नवेन्‍दु की कविता ‘नमक’ की पंक्तियां याद आ जाना स्‍वाभाविक है- खाने में जो भी स्‍वाद था, सब नमक की वजह से था। नाटक में तकनीक भी नमक की तरह से इस्‍तेमाल हो तो प्रस्‍तुति निखर उठती है लेकिन अधिकता पूरा मजा ही किरकिरा कर देती है। रंगकर्मी अजहर आलम के निर्देशन में मंचित हुए लिटिल थेस्पियन के नाटक ‘रूहे’ में तो भारी भरकम सेट पर चीख चीख कर संवाद अदा करते बूढे की दयनीयता का जिक्र करना ठीक ही नहीं लग रहा। संवाद अदायगी पर तंज कसते देहरादून थियेटर के दादा अशोक चक्रवर्ती की कही बातें याद आती हैं कि एक खाली डिब्‍बा लो, उसमें पत्‍थर भरो और जोर जोर से हिलाओ तो वे भी आवाज करते हैं। संवाद अदायगी खाली डिब्‍बे में भरे पत्‍थरों की आवाज नहीं हो सकती।


मुश्किल है दिल्‍ली की संस्‍था ‘पीपुल्‍स थिेयेटर’ के नाटक ‘अर्थ’ पर बात करना जिसका निर्देशन निलय राय ने किया। क्‍योंकि वहां तो कलाकारों को तमाम तरह के ड्रील करने थे और ड्रील करते करते ही संवाद अदा करने थे। अब वे ड्रील का अभ्‍यास किए होंगे कि अपने पात्र में डूबे होंगे। एक दूसरों की पीठ पर, कंधों पर चढ़कर जबकि कभी उनके पांव लड़खड़ाने को होते और कभी पूरा शरीर ही झूल कर लटक आने को हो रहा होता। तिस पर अतिमहत्‍वाकांक्षा में डूबा निर्देशक इतिहास कथा के उस कथानक के तार्किकता पर भी नहीं सोचता कि क्‍या चाणक्‍य की हत्‍या हो जाने और मौर्य वंश का विनाश हो जाने से ही बौद्ध धर्म कैसे अचानक उदित हो गया। बस सभी कलाकारों को गोल घेरे में बुद्धम शरणम गच्‍छामी उच्‍चारना है।