अवधेश कुमार हिन्दी की कुछ विलक्षण प्रतिभाओं में थे.कवि, चित्रकार,
कहानीकार,नाटक कार और रंगकर्मी अवधेश के नाम हिन्दी की कितनी ही प्रसिद्ध /अप्रसिद्ध पुस्तकों के आवरण पृष्ठ
भी दर्ज हैं .कितनी ही पत्रिकाओं में उनके रेखाचित्र बिखरे पडे हैं.१४ जनवरी १९९९में
यह दुनिया छोड़ चले अवधेश पर ‘लिखो यहाँ-वहाँ’ की विशेष शृँखला में आज प्रस्तुत हैं उनके दो गीत
मैं हूँ
जितने सूरज उतनी ही छायाएँ
मैं हूँ
उनसब छायाओं का जोड़
सूरज के भीतर का अँधियारा
छोटे-छोटे
अँधियारों का जोड़
नंगे पाँव चली
आहट उन्माद की
पार जिसे करनी
घाटी अवसाद की
एक द्वन्द्व का भँवर
समय की
कोख में
नाव जहाँ
डूबी है
यह संवाद की
जितने द्वन्द्व कि
उतनी ही भाषाएँ
मैं हूँ उन सब भाषाओं का जोड़
उग रही है घास
उग रही है घास
मौका है जहाँ
चुपचाप
जहाँ मिट्टी में जरा सी जान
है
जहाँ पानी का जरा सा नाम है
जहाँ इच्छा है जरा-सी धूप
में
हवा का भी बस जरा-सा काम
बन रहा आवास
मौका है जहाँ
चुपचाप
पेड़ सी ऊँची नहीं ये बात है
एक तिनका है बहुत छोटा
बाढ़ में सब जल सहित उखड़े
एक तिनका ये नहीं टूटा
पल रहा विश्वास
मौका है जहाँ चुपचाप