इस कडी की तीन कहानियां पिछली पोस्ट में थीं। शेष आज
कत्ल
एक मकान के पास वह रुक गया.इसमें दोस्त रहता है,उसने दरवाजा खटखटाया.
"कौन है?"
"मैं"
"मैं कौन?"
"तुम्हारा दोस्त."उसने टूटती आवाज में कहा."
"वह नहीं आया."भीतर से आवाज आयी.
"अच्छा!मैंने उसे कत्ल कर दिया"उसने दरवाजे पर लात जमायी
दोस्त
वह शहर के अंधेरे में उजली सड़कों पर भटक रहा है.अस्पताल पीछे छूट गया,जनाना अस्पताल से आती चीख की आवाजें पीछे छूट गयीं.गश्त में निकले पुलिस के सिपाहियों ने उसे अनदेखा किया.उसे थाने जाना चाहिये.
"थाना किधर है?"वह सिपाहियों के सामने खड़ा हो गया.
"उधर"एक सिपाही ने उस तरफ़ संकेत किया जहां आग जल रही थी.वह उधर बढ़ गया.
वहां आग जल रही है और लोग बैठे हैं.
"तुम लोग कौन हो?"उसने पूछा.
"हम तुम्हारे दोस्त हैं"
"दोस्त! तुम्हारे घर कहां हैं?"
"हमारे घर नहीं हैं"
"सुबह उठ कर कहां जाओगे?"उसका संशय दूर नहीं हुआ.
"सूरज की रोशनी में किसी को घर की जरूरत नहीं रहती"
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Tuesday, July 27, 2010
Monday, May 25, 2009
गुरूदीप खुराना की लघु कथा
गुरुदीप खुराना महत्वपूर्ण कथाकार हैं। दिखावे की किसी भी तरह की संस्कृति से उन्हें परहेज है। रचना में ही नहीं सामान्य जीवन में भी उनके मित्र उन्हें इसी तरह पाते हैं। उनकी रचनाओं की खास विशेषता है कि वे ऐसे ही, जैसे कोई बहुत चुपके से, आपके बगल में आकर कुछ कह गया हो और आप उस वक्त किसी दूसरे काम में उलझे होने के कारण उस पर ध्यान न दे पाए हों लेकिन वह बात जब दुबारा दोहराई ही न जानी हो तो आप उस क्षण में अपने भीतर अटक गए बहुत सारे शब्दों, स्थितियों को दोहराते हुए उस तक पहुंचने को उतावले हो जा रहे हो कि आखिर क्या कहा गया था। उनकी रचनाओं पर आलोचकों की एक खास किस्म की चुप्पी की एक वजह यह भी है। वरना नई आर्थिक औद्योगिक नीति ने किस तरह से नौकरशाहों के चरित्र को आकार दिया है, इसे जानना हो तो उनके उपन्यास बागडोर को पढ़ना जरूरी हो जाता है। उजाले अपने-अपने उनका एक अन्य उपन्यास है जो उस नयी आर्थिक नीति के कारण परेशानियों में उलझी दुनिया को बाबा महात्माओं तक ले जाने वाले कारणों और आए दिन धर्म के बाजार में नई से नई सजती जा रही दुकान के खेल का ताना बाना कैसे खड़ा होता है, इसे रखने में सक्षम है।
भाग्य
-गुरूदीप खुराना
हम तीनों एक दूसरे का हाथ थामें, साथ-साथ टहल रहे थे।
अचानक एक गोली कहीं से आकर। बीच वाले को लगी और वह वही ढेर हो गया।
गोली उसी को क्यों लगी, दोनो में से किसी को क्यों नहीं? मैनें पूछा। दूसरे ने कहा यह भाग्य है और मैं धबराया रहा।
मेरा यह भाग्यवादी साथी, निश्चित था क्यों कि उसकी कुण्डली में अस्सी पार करना लिखा था। वह खूब मस्ती में गुनगुना रहा था-जाको राखे साईया मार सके न कोए।।।
वह दोहा पूरा कर पाता इससे पहले एक और गोली कहीं से आयी और उसके सीने से आर पार हो गई।
वह भी गया। पर वह मेरा तरह घबराया हुआ नहीं रहा। वह अतं तक निश्चिंत बना रहा और मस्त रहा।
भाग्य
-गुरूदीप खुराना
हम तीनों एक दूसरे का हाथ थामें, साथ-साथ टहल रहे थे।
अचानक एक गोली कहीं से आकर। बीच वाले को लगी और वह वही ढेर हो गया।
गोली उसी को क्यों लगी, दोनो में से किसी को क्यों नहीं? मैनें पूछा। दूसरे ने कहा यह भाग्य है और मैं धबराया रहा।
मेरा यह भाग्यवादी साथी, निश्चित था क्यों कि उसकी कुण्डली में अस्सी पार करना लिखा था। वह खूब मस्ती में गुनगुना रहा था-जाको राखे साईया मार सके न कोए।।।
वह दोहा पूरा कर पाता इससे पहले एक और गोली कहीं से आयी और उसके सीने से आर पार हो गई।
वह भी गया। पर वह मेरा तरह घबराया हुआ नहीं रहा। वह अतं तक निश्चिंत बना रहा और मस्त रहा।
Monday, December 8, 2008
दिल टेबिल क्लॉथ की तरह नहीं कि उसे हर किसी के सामने बिछाते फिरो
यूं तो अवधेश कुमार अपनी कविताओं या अपने स्केच के लिए जाने जाते रहे। पर अवधेश कहानियां भी लिखतेथे। "उसकी भूमिका" उनकी कहानियों का संग्रह इस बात का गवाह है। उनकी कहानियों में उनकी कवि दृष्टिकितनी गद्यात्मक है इसे उनकी लघु कथाओं से जाना जा सकता है।
अवधेश कुमार
भूख की सीमा से बाहर
उन्होंने मुझे पहले तीन बातें बताईं-
एक: जब तक लोहा काम करता है उस पर जंग नहीं लगता।
दो: जब तक मछली पानी में है, उसे कोई नहीं खरीद सकता।
तीन: दिल टेबिल क्लॉथ की तरह नहीं है कि उसे हर किसी के सामने बिछाते फिरो।
यह कहते हुए मेरे दुनियादार और अनुभवी मेजबान ने खाने की मेज पर छुरी के साथ एक बहुत बड़ी भुनी हुई मछली रख दी और बोले, "आओ यार अब इसे खाते हैं और थोड़ी देर के लिए भूल जाओ वे बातें जो भूख की सीमा के अन्दर नहीं आतीं।"
बच्चे की मांग
बच्चे ने अपने पिता से चार चीजें मांगीं। एक चांद। एक शेर। और एक परिकथा में हिस्सेदारी। चौथी चीज अपने पिता के जूते।
पिता ने अपने जूते उसे दे दिये। बाकी तीन चीजों के बदले उस बच्चे को कहानी की एक किताब थमा दी गई।
बच्चा सोचता रहा कि अपने पैर किसमें डाले ? जूते में या उस किताब में।
बच्चों का सपना
बच्चा दिनभर अपने माता-पिता से ऐसी-ऐसी चीजों की मांग करता रहा जो कि उसे सपने में भी नहीं मिल सकती थीं।
खैर वे उसे नहीं मिलीं।
श्रात को ज बवह सो गया तो उसकी नींद के दौरान उसका सपना उससे वो-वो चीजें छीनकर अपने पास छुपाता रहा जो-जो उसे सपने में नहीं दे सकता था।
अवधेश कुमार
भूख की सीमा से बाहर
उन्होंने मुझे पहले तीन बातें बताईं-
एक: जब तक लोहा काम करता है उस पर जंग नहीं लगता।
दो: जब तक मछली पानी में है, उसे कोई नहीं खरीद सकता।
तीन: दिल टेबिल क्लॉथ की तरह नहीं है कि उसे हर किसी के सामने बिछाते फिरो।
यह कहते हुए मेरे दुनियादार और अनुभवी मेजबान ने खाने की मेज पर छुरी के साथ एक बहुत बड़ी भुनी हुई मछली रख दी और बोले, "आओ यार अब इसे खाते हैं और थोड़ी देर के लिए भूल जाओ वे बातें जो भूख की सीमा के अन्दर नहीं आतीं।"
बच्चे की मांग
बच्चे ने अपने पिता से चार चीजें मांगीं। एक चांद। एक शेर। और एक परिकथा में हिस्सेदारी। चौथी चीज अपने पिता के जूते।
पिता ने अपने जूते उसे दे दिये। बाकी तीन चीजों के बदले उस बच्चे को कहानी की एक किताब थमा दी गई।
बच्चा सोचता रहा कि अपने पैर किसमें डाले ? जूते में या उस किताब में।
बच्चों का सपना
बच्चा दिनभर अपने माता-पिता से ऐसी-ऐसी चीजों की मांग करता रहा जो कि उसे सपने में भी नहीं मिल सकती थीं।
खैर वे उसे नहीं मिलीं।
श्रात को ज बवह सो गया तो उसकी नींद के दौरान उसका सपना उससे वो-वो चीजें छीनकर अपने पास छुपाता रहा जो-जो उसे सपने में नहीं दे सकता था।
Wednesday, March 19, 2008
लघु कथा
युवा रचनाकार
(चेखव को याद करते हुए)
विजय गौड
एक
वह एकदम युवा और तेजतर्रार था। जिस समय वह अपने हम उम्र और अपनी ही तरह के दूसरे तेजतर्रार साथियों के साथ खड़ा कॉलेज-गेट के बाहर बनी गुमटीनुमा चाय की दुकान में बतिया रहा था, उसके हाव भाव और उसकी जोशिली आवाज केा सुन कोई भी कह सकता था कि उसमें गजब का आत्मविश्वास है। बात रखने का उसका अंदाज ही ऐसा निराला था। उस वक्त उनकी बातचीत समकालीन पत्रिकाओं में छप रही अपनी रचनाओं और उन रचनाओं को लेकर साहित्यिक गलियारों में चल रही बहसों पर केन्द्रित थी। आये दिन निकलती चमचमाती गाड़ियों के नये से नये मॉडलों की तरह पत्रिकाओं की भीड़ ने रचनात्मक जगत की मीलों लम्बी सड़कों पर अफरातफरी का माहौल रच दिया था। रचनात्मक बिरादरी गति के विभ्रम में जीने को मजबूर हो चुकी थी। दृश्य की चकाचौंध की गिरफ्त में युवा रचनाकारों का आ जाना लाजिमि था। उन्हें इस बात के लिए एकतरफा तौर पर दोषी ठहराना कतई उचित नहीं। चुंधियाते दृश्यों के बावजूद काफी हद तक बदलते चुके माहौल पर उनकी पैनी निगाह उनके बुद्धिमान होने का एक अन्य साक्ष्य थी। उस वक्त एक बेफिक्र किस्म की हंसी में वे उन सभी पर छींटाकशी कर रहे थे, जो उनको साहित्यिक जगत में चल रही बहसों के केन्द्र मे ले आये सम्पादकों के खिलाफ, अपनी बचती बचाती टिप्पणियों को पत्रों के रुप में छपाने में लगे हुए थे। उस वक्त उनके सामने यह एक दम स्पष्ट था कि वे टिप्पणीकार लेखक भी एक हद तक वैसी ही महत्वाकांक्षाओं से ग्रसित हैं जैसे उनके आदरणीय सम्पादक। वे स्पष्ट देख पा रहे थे कि अपने सम्पूर्ण लेखन काल के अस्त होते दौर में और भविष्य में भी चर्चा से बाहर हो जाने की आंशकाओं ने उन्हें भी वैसे ही ग्रसित किया हुआ है। इस बात पर वे थोड़ा और जोर का ठहाका लगाकर हंसे थे और उस तेज तर्रार युवा लेखक से उसकी उस कहानी के विषय में जानने की कोशिश करने लगे जिसको वह जल्द ही लिखने वाला है। एक प्रतिष्ठित पत्रिका का ताजा अंक, जो उस वक्त उनके हाथों में उछाल ले रहा था उसमें अगले अंक के रचनाकारों के रुप में उस तेज तर्रार युवक का नाम घ्ाोषित हो चुका था। सभा इस बात पर विसर्जित हुई ''जाओ बच्चू जा कर लिखो कहानी, अगले अंक में पढ़गें।
"
दो
वे अभी इतने युवा थे कि एक स्त्री के मन और उसकी देह को जान सकने की उस उम्र तक अभी पूरी तरह से पहुॅचे भी नहीं थे कि साहित्य की ऐसी ही धारा की अंधेरी गलियों में भटकते हुए कहानी, कविता लिखने की ठान चुके थे। दुनिया के अन्य विषयों पर लिखने की बजाय उन्हें ऐसे विषय पर लिखना ज्यादा आसान लग रहा था। ऐसी रचनाओं के छपने की कोई ज्यादा दित थी नहीं। लेकिन उस दौर में छपना भी कोई मामूली बात नहीं थी जबकि पूरा हिन्दी साहित्य विमर्श के जिन अंतरों कानों में झांक रहा था वहां यौवन की उन्मांदकता से भरी स्त्री का जिस्म खोलती रचनाओं का ढेर लगता जा रहा था। उनके पास अनुभव का ऐसा कोई ठोस टुकड़ा भी नहीं था जो उन्हें स्त्री देह से अभी तक वाकिफ कर पाया हो। लिहाजा उन्होंने सपनों मेंं स्त्री के शरीर की गोलाई नापनी शुरु की और उस वक्त जो चेहरे उभरते रहे उसमें चाची, बुआ, भाभी और चंद चचेरी, मौसेरी बहनों के गुदाज शरीर उनकी मुटि्ठयों में भिंचते रहे। जब वे रचनायें लिखी गयीं तो पारखी नजरों ने पकड़ना शुरु किया कि बिल्कुल अन्जाने, अन्छुए अनुभवों का आकाश युवा रचनाकारों की रचनाओं में आकार लेने लगा है।
तीन
ओशो ने कहा- मान लेना जान लेना नहीं होता। वे माने बैठे थे कि यह दौर विमर्श का दौर है। विमर्श क्या है, यह नहीं जान पाये थे। घ्ार से भागती हुई लड़कियां इस दौर का यथार्थ है, ऐसा मानने लगे थे। जबकि भागने के नाम पर वह उस छोटे से बच्चे का नाम भी नहीं जानते थे, एक लम्बी दूरी निश्चित समय में दौड़ने के बाद भी जिसके फेफड़ों को चैक करने के बाद डाक्टरों ने कहा था- 'बिल्कुल सामान्य हंै।" वे तो उन्हीं लोगों की तरह अचम्भित थे जो ऐसी अन्होनी घ्ाटना को जानने के बाद इस चिन्ता में घ्ाुले जा रहे थे कि क्या होगा हमारे प्रोटिन युक्त डिब्बा बन्द उन आहारों का जिनमें हृष्ट-पुष्ट और खिल खिलाते बच्चे का चित्र धंुधला पड़ने लगा है। वे मानने लगे थे, ऐंसे ही भागती होगीं लड़कियां भी अपने घ्ारों से। वे उन संभावित लड़कियों के करीब जाने का सलीका और शऊर जानना चाहते थे। कल्पना के घ्ाोड़ों की उड़ान पर जब वे किसी गम्भीर समस्या पर लिखने की कोशिश भी करते तो उस वक्त भागती हुई लड़कियां उनकी रचनाओं का हिस्सा होने लगती और वे उनके करीब जाने के ऐसे नये से नये अंदाजों को खोजने की कवायद करते कि उनकी रचनाओं में मौलिकता और शिल्प का अनूठापन पारखी निगाहों को चमत्कृत करने लगता। और उनके भीतर छिपी अनंत संभावनाओं का अहसास होते ही साहित्य के कुभ के कुंभ लगने लगे थे।
(चेखव को याद करते हुए)
विजय गौड
एक
वह एकदम युवा और तेजतर्रार था। जिस समय वह अपने हम उम्र और अपनी ही तरह के दूसरे तेजतर्रार साथियों के साथ खड़ा कॉलेज-गेट के बाहर बनी गुमटीनुमा चाय की दुकान में बतिया रहा था, उसके हाव भाव और उसकी जोशिली आवाज केा सुन कोई भी कह सकता था कि उसमें गजब का आत्मविश्वास है। बात रखने का उसका अंदाज ही ऐसा निराला था। उस वक्त उनकी बातचीत समकालीन पत्रिकाओं में छप रही अपनी रचनाओं और उन रचनाओं को लेकर साहित्यिक गलियारों में चल रही बहसों पर केन्द्रित थी। आये दिन निकलती चमचमाती गाड़ियों के नये से नये मॉडलों की तरह पत्रिकाओं की भीड़ ने रचनात्मक जगत की मीलों लम्बी सड़कों पर अफरातफरी का माहौल रच दिया था। रचनात्मक बिरादरी गति के विभ्रम में जीने को मजबूर हो चुकी थी। दृश्य की चकाचौंध की गिरफ्त में युवा रचनाकारों का आ जाना लाजिमि था। उन्हें इस बात के लिए एकतरफा तौर पर दोषी ठहराना कतई उचित नहीं। चुंधियाते दृश्यों के बावजूद काफी हद तक बदलते चुके माहौल पर उनकी पैनी निगाह उनके बुद्धिमान होने का एक अन्य साक्ष्य थी। उस वक्त एक बेफिक्र किस्म की हंसी में वे उन सभी पर छींटाकशी कर रहे थे, जो उनको साहित्यिक जगत में चल रही बहसों के केन्द्र मे ले आये सम्पादकों के खिलाफ, अपनी बचती बचाती टिप्पणियों को पत्रों के रुप में छपाने में लगे हुए थे। उस वक्त उनके सामने यह एक दम स्पष्ट था कि वे टिप्पणीकार लेखक भी एक हद तक वैसी ही महत्वाकांक्षाओं से ग्रसित हैं जैसे उनके आदरणीय सम्पादक। वे स्पष्ट देख पा रहे थे कि अपने सम्पूर्ण लेखन काल के अस्त होते दौर में और भविष्य में भी चर्चा से बाहर हो जाने की आंशकाओं ने उन्हें भी वैसे ही ग्रसित किया हुआ है। इस बात पर वे थोड़ा और जोर का ठहाका लगाकर हंसे थे और उस तेज तर्रार युवा लेखक से उसकी उस कहानी के विषय में जानने की कोशिश करने लगे जिसको वह जल्द ही लिखने वाला है। एक प्रतिष्ठित पत्रिका का ताजा अंक, जो उस वक्त उनके हाथों में उछाल ले रहा था उसमें अगले अंक के रचनाकारों के रुप में उस तेज तर्रार युवक का नाम घ्ाोषित हो चुका था। सभा इस बात पर विसर्जित हुई ''जाओ बच्चू जा कर लिखो कहानी, अगले अंक में पढ़गें।
"
दो
वे अभी इतने युवा थे कि एक स्त्री के मन और उसकी देह को जान सकने की उस उम्र तक अभी पूरी तरह से पहुॅचे भी नहीं थे कि साहित्य की ऐसी ही धारा की अंधेरी गलियों में भटकते हुए कहानी, कविता लिखने की ठान चुके थे। दुनिया के अन्य विषयों पर लिखने की बजाय उन्हें ऐसे विषय पर लिखना ज्यादा आसान लग रहा था। ऐसी रचनाओं के छपने की कोई ज्यादा दित थी नहीं। लेकिन उस दौर में छपना भी कोई मामूली बात नहीं थी जबकि पूरा हिन्दी साहित्य विमर्श के जिन अंतरों कानों में झांक रहा था वहां यौवन की उन्मांदकता से भरी स्त्री का जिस्म खोलती रचनाओं का ढेर लगता जा रहा था। उनके पास अनुभव का ऐसा कोई ठोस टुकड़ा भी नहीं था जो उन्हें स्त्री देह से अभी तक वाकिफ कर पाया हो। लिहाजा उन्होंने सपनों मेंं स्त्री के शरीर की गोलाई नापनी शुरु की और उस वक्त जो चेहरे उभरते रहे उसमें चाची, बुआ, भाभी और चंद चचेरी, मौसेरी बहनों के गुदाज शरीर उनकी मुटि्ठयों में भिंचते रहे। जब वे रचनायें लिखी गयीं तो पारखी नजरों ने पकड़ना शुरु किया कि बिल्कुल अन्जाने, अन्छुए अनुभवों का आकाश युवा रचनाकारों की रचनाओं में आकार लेने लगा है।
तीन
ओशो ने कहा- मान लेना जान लेना नहीं होता। वे माने बैठे थे कि यह दौर विमर्श का दौर है। विमर्श क्या है, यह नहीं जान पाये थे। घ्ार से भागती हुई लड़कियां इस दौर का यथार्थ है, ऐसा मानने लगे थे। जबकि भागने के नाम पर वह उस छोटे से बच्चे का नाम भी नहीं जानते थे, एक लम्बी दूरी निश्चित समय में दौड़ने के बाद भी जिसके फेफड़ों को चैक करने के बाद डाक्टरों ने कहा था- 'बिल्कुल सामान्य हंै।" वे तो उन्हीं लोगों की तरह अचम्भित थे जो ऐसी अन्होनी घ्ाटना को जानने के बाद इस चिन्ता में घ्ाुले जा रहे थे कि क्या होगा हमारे प्रोटिन युक्त डिब्बा बन्द उन आहारों का जिनमें हृष्ट-पुष्ट और खिल खिलाते बच्चे का चित्र धंुधला पड़ने लगा है। वे मानने लगे थे, ऐंसे ही भागती होगीं लड़कियां भी अपने घ्ारों से। वे उन संभावित लड़कियों के करीब जाने का सलीका और शऊर जानना चाहते थे। कल्पना के घ्ाोड़ों की उड़ान पर जब वे किसी गम्भीर समस्या पर लिखने की कोशिश भी करते तो उस वक्त भागती हुई लड़कियां उनकी रचनाओं का हिस्सा होने लगती और वे उनके करीब जाने के ऐसे नये से नये अंदाजों को खोजने की कवायद करते कि उनकी रचनाओं में मौलिकता और शिल्प का अनूठापन पारखी निगाहों को चमत्कृत करने लगता। और उनके भीतर छिपी अनंत संभावनाओं का अहसास होते ही साहित्य के कुभ के कुंभ लगने लगे थे।
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