"यदि मुझसे पूछा जाए कि आज की कविता में क्या देखा जाना चाहिए तो मैं कहूंगा कि आदमी के अस्तित्व और उसके सामने खड़े सारे संकटों को लेकर चिंता और प्रतिबद्धता, मानव होने के रोमांचक मामले में गहरी दिलचस्पी, जीवन और रिश्तों के अनंत वैविध्य के प्रति उत्सुकता और इस सब को अपनी भाषा और शैली में कह पाने की क्षमता। अवधेश कुमार की ये कविताएं इन सारी शर्तों को पूरा-पूरा निभाती हों यह न तो जरुरी है और न संभव- किन्तु इसमें संदेह नहीं कि इन कविताओं में इन शर्तों का पूरा-पूरा अहसास है।"
1980 में प्रकाशित अवधेश कुमार के कविता संग्रह जिप्सी लड़की की भूमिका में कवि एवं अलोचक विष्णु खरे ने अवधेश कुमार की कविताओं में भविष्य की जो संभावना देखी थी वे अकारण नहीं थी। लेकिन दुर्भाग्य है कि अपने आगे के दौर में लिखे गये को अवधेश सुरक्षित न रख पाए और असमय ही हमारे बीच से विदा हो गए। विभिन्न अंतरालों में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी रचनाओं को खोजना कोई आसान काम भी नहीं। फिर उन पत्रिकाओं की उपलब्धता कहां-कहां संभव हो सकती है, इस बारे में भी कोई ठोस सूचना उपलब्ध नहीं।
कविता-कोश के अनिल जन विजय जी का लम्बे समय से आग्रह रहा कि कवि अवधेश कुमार की कविताओं को खोजकर उपलब्ध करा पांऊ। लिहाजा अवधे्श कुमार की कविता पुस्तक जिप्सी लड़की से कुछ कविताएं यहां प्रस्तुत है। इन कविताओं का चयन हमारे साथी राजेश सकलानी ने किया।
अवधेश कुमार
मिलो दोस्त, जल्दी मिलो
सुबह--एक हल्की-सी चीख की तरह
बहुत पीली और उदास धरती की करवट में
पूरब की तरफ एक जमुहाई की तरह
मनहूस दिन की शुरुआत में खिल पड़ी ।
मैं गरीब, मेरी जेब गरीब पर इरादे गरम
लू के थपेड़ों से झुलसती हुई आंखों में
दावानल की तरह सुलगती उम्मीद ।
गुमशुदा होकर इस शहर की भीड़ को
ठेंगा दिखाते हुए न जाने कितने नौजवान
क्ब कहां चढ़े बसों में ओर कहां उतरे
जाकर : यह कोई नहीं जानता ।
कल मेरे पास कुछ पैसे होंगे
बसों में भीड़ कम होगी
संसद की छुट्टी रहेगी
सप्ताह भर के हादसों का निपटारा
हो चुकेगा सुबह-सुबह
अखबारों की भगोड़ी पीठ पर लिखा हुआ ।
सड़कें खाली होने की हद तक बहुत कम
भरी होंगी : पूरी तरह भरी होगी दोपहर
जलाती हुई इस शहर का कलेजा ।
और किस-किस का कलेजा नहीं जलाती हुई ।
यह दोपहर आदमी को नाकामयाब करने की
हद तक डराती हुई उसके शरीर के चारों तरफ ।
मिलो दोस्त, जल्दी मिलो
मैं गरीब, तुम गरीब
पर हमारे इरादे गरम ।
फोन
नौमंजिला इमारत चढ़ने में लगता है समय
जितना कि नौमंजिला कविता लिखने में नहीं लगता ।
नौ मंजिल चढ़कर मिला मैं जिस आदमी से
उससे मिला था मैं जमीन पर अपने बच्चपन में ।
वहीं पर उससे दोस्ती हुई थी।
इतनी दूर-
और नौ मंजिल ऊपर
नहीं मिल पाता जब मैं उस दोस्त से : वह मुझे
जब बहुत दिनों बाद मिलता है
तो पूछता है कि
क्यों नहीं कर लिया मैंने उसको फोन ?
बच्चा
बच्चा अपने आपसे कम से कम क्या मांग सकता है ?
एक चांद
एक शेर
किसी परीकथा में अपनी हिस्सेदारी
या आपका जूता !
आप उसे ज्यादा से ज्यादा क्या दे सकते हैं ?
आप उसे दे सकते हैं केवल एक चीज -
अपना जूता : बाकी तीन
चीजें आप किताब के हवाले कर देते हैं ।
कि फर वह बच्चा जिन्दगी भर सोचता रह जाता है
कि अपना पैर किस्में डाले
उस किताब में या आपके जूते में !
Friday, October 31, 2008
Sunday, October 5, 2008
संवेदना देहरादून, मासिक गोष्ठी-अक्टूबर २००८
और तभी जब वह उनके घेरे में सिर झुकाए चल रहा था एक लोकल आई और प्लेटफार्म पर भीड़ का रेला फैलगया। वह पस्त होने के बावजूद चौकन्ना था और वे अपने शिकार को दबोच लेने की लापरवाही की मस्ती में थे।उसने मौके का फायदा उठाया और उन्हें चकमा देकर भीड़ में गायब हो गया। वह छुपते-छुपाते पिछले गेट पर पहुंचा और पुलिस की शरण के लिए सड़को और लेनों में दौड़ने लगा। अगर यह दौड़ सुल्तानपुर के उसके फूहड़ गांवकी होती तो उसके साथ हमदर्दी में पूरा नहीं तो कमस्कम आधा गांव उसके साथ दौड़ रहा होता। मगर वह मुंबई की सड़कों पर दौड़ रहा था जहां सारी दौड़े वांछित और जन समर्थित हैं, चाहे वे हत्या करने के लिए हों अथवा हत्या से बचने के लिए---
शहर ने दौड़ में कोई दखल नहीं दिखाया। गलती शहर से नहीं, उससे हुई। वही उलटी दिशा में दौड़अ यह हैरानी की बात थी कि सड़कों की पैंतीस साल की पहचान पलक झपकते ही गायब हो गई थी। वह दौड़ रहा था। जैसे अन्जानी जगह दौड़ रहा हो। उसने विकटोरिया टर्मीनस को भी नहीं पहाचाना जिसकी दुनियाभर में एक मुकम्मिल पहचानहै। उसकी निगाह सिर्फ पुलिस चौकी ढूंढ रही थी।
आखिर उसने बेतहाशा दौड़ते हुए पुलिस चौकी ढूंढ ही ली।
"हजारों कबूतरों और समुद्र की उछाल खाती लहरों में। लहरों ने तुम्हें भिगोया। कबूतर तुम्हारे कंधों और आहलाद में फैली हथेलियों पर बैठे। शहर ने तुम्हारे आगमन का ऐसे उत्सव रचा था। तुमने भी इस शहर की शुभकामनाओं के लिए कबूतर उड़ाए थे--- और फिर पच्चीस साल बाद जब यह हमारी आत्मा में बस गया--- तो---" आगे के लफ्ज ठोस धातु के टुकड़ो में बदलकर महावीर के गले में फंस गए।
यह वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की उस कहानी का हिस्सा है जो अभी अपने मुक्कमल स्वरुप को पाने की कार्रवाईयों से गुजर रही है। कथाकार सुभाष पंत की लिखी जा रही ताजा कहानी के अभी तक तैयार उस ड्राफ्ट का एक अंश जिसे संवेदना की मासिक गोष्ठी में आज शाम 5 अक्टूबर को पढ़ा गया। अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ लिखी गई यह एक ऐसी कहानी है जिसमें घटनाओं का ताना बाना हाल के घटनाक्रमों को समेटता हुआ सा है। कहानी को गोष्ठी में उपस्थित अन्य रचनाकार साथियों एवं पाठकों द्वारा पसंद किया गया। विस्तृत विवेचना में कुछ सुझाव भी आये जिन्हें कथाकार सुभाष पंत अपने विवेक से यदि जरुरी समझेगें तो कहानी में शामिल करेगें। कथाकार सुभाष पंत की इस ताजा कहानी का शीर्षक है - अन्नाभाई का सलाम। इससे पूर्व डॉ विद्या सिंह ने भी एक कहानी पढ़ी।
दो अन्य कहानियां समय आभाव के कारण पढ़े जाने से वंचित रह गई। जिसमें डॉ जितेन्द्र भारती और कथाकार मदन शर्मा की कहानियां है। नवम्बर माह की गोष्ठी में उनके पाठ संभव होगें।
उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, जितेन्द्र भारती,, प्रेम साहिल, एस.पी. सेमवाल सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला, पत्रकार भास्कर उप्रेती, कीर्ति सुन्दरियाल, पूजा सुनीता आदि मौजूद थे।
शहर ने दौड़ में कोई दखल नहीं दिखाया। गलती शहर से नहीं, उससे हुई। वही उलटी दिशा में दौड़अ यह हैरानी की बात थी कि सड़कों की पैंतीस साल की पहचान पलक झपकते ही गायब हो गई थी। वह दौड़ रहा था। जैसे अन्जानी जगह दौड़ रहा हो। उसने विकटोरिया टर्मीनस को भी नहीं पहाचाना जिसकी दुनियाभर में एक मुकम्मिल पहचानहै। उसकी निगाह सिर्फ पुलिस चौकी ढूंढ रही थी।
आखिर उसने बेतहाशा दौड़ते हुए पुलिस चौकी ढूंढ ही ली।
"हजारों कबूतरों और समुद्र की उछाल खाती लहरों में। लहरों ने तुम्हें भिगोया। कबूतर तुम्हारे कंधों और आहलाद में फैली हथेलियों पर बैठे। शहर ने तुम्हारे आगमन का ऐसे उत्सव रचा था। तुमने भी इस शहर की शुभकामनाओं के लिए कबूतर उड़ाए थे--- और फिर पच्चीस साल बाद जब यह हमारी आत्मा में बस गया--- तो---" आगे के लफ्ज ठोस धातु के टुकड़ो में बदलकर महावीर के गले में फंस गए।
यह वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की उस कहानी का हिस्सा है जो अभी अपने मुक्कमल स्वरुप को पाने की कार्रवाईयों से गुजर रही है। कथाकार सुभाष पंत की लिखी जा रही ताजा कहानी के अभी तक तैयार उस ड्राफ्ट का एक अंश जिसे संवेदना की मासिक गोष्ठी में आज शाम 5 अक्टूबर को पढ़ा गया। अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ लिखी गई यह एक ऐसी कहानी है जिसमें घटनाओं का ताना बाना हाल के घटनाक्रमों को समेटता हुआ सा है। कहानी को गोष्ठी में उपस्थित अन्य रचनाकार साथियों एवं पाठकों द्वारा पसंद किया गया। विस्तृत विवेचना में कुछ सुझाव भी आये जिन्हें कथाकार सुभाष पंत अपने विवेक से यदि जरुरी समझेगें तो कहानी में शामिल करेगें। कथाकार सुभाष पंत की इस ताजा कहानी का शीर्षक है - अन्नाभाई का सलाम। इससे पूर्व डॉ विद्या सिंह ने भी एक कहानी पढ़ी।
दो अन्य कहानियां समय आभाव के कारण पढ़े जाने से वंचित रह गई। जिसमें डॉ जितेन्द्र भारती और कथाकार मदन शर्मा की कहानियां है। नवम्बर माह की गोष्ठी में उनके पाठ संभव होगें।
उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, जितेन्द्र भारती,, प्रेम साहिल, एस.पी. सेमवाल सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला, पत्रकार भास्कर उप्रेती, कीर्ति सुन्दरियाल, पूजा सुनीता आदि मौजूद थे।
Saturday, October 4, 2008
प्रसिद्ध है नजीबाबाद का पतीसा
दिनेश चन्द्र जोशी कथाकार हैं, कवि हैं और व्यंग्य लिखते हैं। पिछले ही वर्ष उनका एक कथा संग्रह राजयोग प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है उनकी ताजा कविता जो हाल की घटनाओं को समेटे हुए है।
आकाशवाणी नजीबाबाद
दिनेश चन्द्र जोशी
संदेह के घेरे में थे जिन दिनों बहुत सारे मुसलमान
आये रोज पकड़े जा रहे थे विस्फोटों में संलिप्त आतंकी,
आजमगढ़ खास निशाने पर था,
आजमगढ़ से बार बार जुड़ रहे थे आतंकियों के तार
ऐन उन्हीं दिनों मैं घूम रहा था नजीबाबाद में,
नजर आ रहे थे वहां मुसलमान ही मुसलमान, बाजार, गली
सड़कों पर दीख रहीं थी बुर्के वाली औरतें
दुकानों, ठेलियों, रेहड़ियों, इक्कों, तांगों पर थे गोल टोपी
पहने, दाड़ी वाले मुसलमान,
अब्बू,चच्चा,मियां,लईक, कल्लू ,गफ्फार,सलमान
भोले भाले अपने काम में रमे हुए इंसान,
अफजल खां रोड की गली में किरियाने की दुकानों से
आ रही थी खुसबू, हींग,जीरा,मिर्च मशाले हल्दी,छुहारे बदाम की
इसी गली से खरीदा पतीसा,
प्रसिद्ध है नजीबाबाद का पतीसा,सुना था यारों के मुह से,
तासीर लगी नजीबाबाद की
सचमुच पतीसे की तरह मीठी और करारी
'नहीं, नहीं बन सकता नजीबाबाद की अफजल खां रोड से
कोई भी आतंकी', आवाज आई मन के कोने से साफ साफ
नजीबाबाद जैसे सैकड़ों कस्बे हैं देश में,
रहते हैं जंहा लाखों मुसलमान
आजमगढ़ भी उनमें से एक है
आजमगढ़ में लगाओ आकाशवाणी नजीबाबाद
पकड़ेगा रेडियो, जरूर पकड़ेगा।
आकाशवाणी नजीबाबाद
दिनेश चन्द्र जोशी
संदेह के घेरे में थे जिन दिनों बहुत सारे मुसलमान
आये रोज पकड़े जा रहे थे विस्फोटों में संलिप्त आतंकी,
आजमगढ़ खास निशाने पर था,
आजमगढ़ से बार बार जुड़ रहे थे आतंकियों के तार
ऐन उन्हीं दिनों मैं घूम रहा था नजीबाबाद में,
नजर आ रहे थे वहां मुसलमान ही मुसलमान, बाजार, गली
सड़कों पर दीख रहीं थी बुर्के वाली औरतें
दुकानों, ठेलियों, रेहड़ियों, इक्कों, तांगों पर थे गोल टोपी
पहने, दाड़ी वाले मुसलमान,
अब्बू,चच्चा,मियां,लईक, कल्लू ,गफ्फार,सलमान
भोले भाले अपने काम में रमे हुए इंसान,
अफजल खां रोड की गली में किरियाने की दुकानों से
आ रही थी खुसबू, हींग,जीरा,मिर्च मशाले हल्दी,छुहारे बदाम की
इसी गली से खरीदा पतीसा,
प्रसिद्ध है नजीबाबाद का पतीसा,सुना था यारों के मुह से,
तासीर लगी नजीबाबाद की
सचमुच पतीसे की तरह मीठी और करारी
'नहीं, नहीं बन सकता नजीबाबाद की अफजल खां रोड से
कोई भी आतंकी', आवाज आई मन के कोने से साफ साफ
नजीबाबाद जैसे सैकड़ों कस्बे हैं देश में,
रहते हैं जंहा लाखों मुसलमान
आजमगढ़ भी उनमें से एक है
आजमगढ़ में लगाओ आकाशवाणी नजीबाबाद
पकड़ेगा रेडियो, जरूर पकड़ेगा।
Thursday, October 2, 2008
इस जमीन पर कभी गाँधी चलते थे
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5vTiQjx_cIyzqHGl-pXYw8z5bQxDoj5v0wq5Iq2Iv7SpFIDRdtpUeI_Jy8QjQ84CbX2FwNAkdbynQTKwHXqVoHlly-FLfXL71KjclMkTT_4n-J8AracpJioE31MHiXh0ROhNGhL4wmCI/s320/gandhi.jpg)
मोहनदास करमचन्द गाँधी का नाम लेना भी आज एक दुष्कर कार्य है। उनका नाम ज़हन में आता है और जल्दी ही गायब हो जाता है। अपना विश्वास टूटने लगता है। अपनी नैतिक ताकत की हालत समझ में आ जाती है। अब सरलताओं से डर लगता है। सरल विचारों से दूर भागने की इच्छा होती है। हो सकता है, जीवन सचमुच जटिल हो चुका हो। सत्ता-विमर्श में बहुत ज्यादा संस्थान, विचार, समुदाय और बाजार एक साथ विभिन्न आन्तरिक टकरावों के साथ सक्रिय होने से पेचीदगियाँ बढ़ी हैं। इनके बीच सही घटना को चिन्हित करना कठिन हुआ है। अच्छे विचारों के बीच में पतित लोगों ने भी अपनी पैठ बना ली है। एक वैध् सक्रियता के साथ रहते हुए कभी खराब प्रवृत्तियों द्वारा संचालित किए जाने का खतरा भी बराबर बना रहता है, लेकिन मनुष्यता अपने रूप और गतिशीलता में हमेशा ही सरल होती है। उसके नियम बहुत सादे और समझ में आने वाले होते हैं। दूसरे व्यक्ति का दु:ख हमारे दु:ख की ही तरह है। वह मैं ही हूँ, जो बाढ़ में बेघर हो गया है। मुझे ही गोली मार दी गई है। हत्यारे मुझे ही ढूँढ रहे हैं। हत्यारों से सीधे सम्वाद करना होगा। उसकी वृत्ति के लिए हम ही जिम्मेदार हैं। वह जरूर तकलीपफ़ में है। हमने उसे कभी ठीक से सुना नहीं। उसे अकेला छोड़कर हम अपने लालच की चाशनी में डूब चुके हैं।
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5vTiQjx_cIyzqHGl-pXYw8z5bQxDoj5v0wq5Iq2Iv7SpFIDRdtpUeI_Jy8QjQ84CbX2FwNAkdbynQTKwHXqVoHlly-FLfXL71KjclMkTT_4n-J8AracpJioE31MHiXh0ROhNGhL4wmCI/s320/gandhi.jpg)
गाँधी ने इस भावनात्मक विचार को सामाजिक क्रिया के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। इसका व्यवहारिक पक्ष यह है कि साध्नों को सरल होना चाहिए। यान्त्रिकी और आधुनिक उपकरण उस सीमा तक ही सरल हैं जब वे सभी नागरिकों को समान रूप से उपलब्ध् हों, लेकिन यह लोकनीति हर व्यक्ति से अनुशासन की माँग करती है। जीवन की जो चीजें सिपर्फ आपने हथिया ली हैं और दूसरों को वंचित किया है, वह सब छोड़नी होंगी। इसी अनुशासन से बचने के लिए पहले काँग्रेस ने गाँधी का नाम ही लेना छोड़ दिया। काँग्रेस ही क्यों पूरे देश को अब गाँधी अप्रासंगिक लगते हैं, इसीलिए गाँधी को पहले महात्मा के रूप में स्थापित किया गया ताकि उनको जड़ बनाया जा सके। हम सभी को इससे आसानी रहती है।
गाँधी को जानने के लिए सत्य-अहिंसा जैसे शब्दों के बजाय उनके सोचने के उत्स को जानना जरूरी है। मनुष्य को बदलने पर उनका विश्वास ही उनको महान बनाता है। निर्दोष लोगों के बीच कायरतापूर्ण तरीके से बम रखकर हिंसा करने वालों से सीध सम्वाद करने के नैतिक साहस की अब कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्या यह सम्भव है कि सिपर्फ ताकत के बल पर इस क्रूरता पर विजय पाई जा सके ? घृणा, हिंसा, क्रूरता और अविश्वास के विचार एक-दूसरे के लिए प्रेरक तत्व होते हैं। क्षणिक सपफलता के लिए गाँधी के विचारों में कहीं जगह नहीं है। दुश्मन की मृत्यु भी वास्तव में अपनी ही मृत्यु है। यह समझ कमजोर व्यक्ति से नहीं उपजती, इसीलिए गाँधी का मन्त्रा है, निर्भय बनो। हमारे भयभीत समाज को निर्भय होने के लिए कभी न कभी अपने भीतर और बाहर जूझना ही होगा।
वे गांधीवादी हैं
विजय गौड
वे गांधीवादी हैं, या न भी हों
पर गांधी जैसा ही है उनका चेहरा
खल्वाट खोपड़ी भी चमकती है वैसे ही
वे गांधीवादी हैं, या न भी हों
गांधीवादी बने रहना भी तो
नहीं है इतना आसान;
चारों ओर मचा हो घमासान
तो बचते-बचाते हुए भी
उठ ही जाती है उनके भीतर कुढ़न
वैसे, गुस्सा तो नहीं ही करते हैं वे
पर भीतर तो उठता ही है
गांधी जी भी रहते ही थे गुस्से से भरे,
कहते हैं वे,
गांधी नफरत से करते थे परहेज,
गुस्से से नहीं
वे गांधीवादी हैं, या न भी हों
गांधी 'स्वदेशी" पसंद थे
कातते थे सूत
पहनते थे खद्दर
वे चाहें भी तो
पहन ही नहीं सकते खद्दर
सरकार गांधीवादी नहीं है, कहते हैं वे
विशिष्टताबोध को त्यागकर ही
गांधी हुए थे गांधी
गांधीवादी होना विशिष्टता को त्यागना ही है
वे गांधीवादी हैं, या न भी हों
अहिंसा गांधी का मूल-मंत्र था
पर हिंसा से नहीं था इंकार गांधी जी को,
कहते हैं वे,
समयकाल के साथ चलकर ही
किया जा सकता है गांधी का अनुसरण।
Wednesday, October 1, 2008
एस आर हरनोट के कथा संग्रह जीनकाठी का लोकार्पण
कथाकार एस. आर. हरनोट की कथा पुस्तक जीनकाठी का लोकार्पण शिमला में सुप्रसिद्ध साहित्यकार डा। गिरिराज किशोर ने 22 सितम्बर, 2008 को श्री बी। के। अग्रवाल, सचिव (कला, भाषा एवं संस्कृति) हि। प्र। व 150 से भी अधिक साहित्यकारों, पत्रकारों व पाठकों की उपिंस्थति में किया। "जीनकाठी तथा अन्य कहानियां" आधार प्रकाशन प्रकाशन प्रा0लि0 ने प्रकाशित की है। इस कृति के साथ हरनोट के पांच कहानी संग्रह, एक उपन्यास और पांच पुस्तकें हिमाचल व अन्य विषयों प्रकाशित हो गई हैं।
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIAyWQlMbtJC5fyv613iMnP8hrUxepmU5fo0VoxF77ooex7BUCoEcMslbmiwntmaRQ_f-2hun44cHuyr6328L37sdtk1PeMVMjvNCzFi_FGxBgUUu-KEPw0VdzZykuWwRd93lPLXa-hjM/s320/giriraj+ji+ke+saath.JPG)
एस।आर हरनोट के कहानी सग्रह "जीनकाठी" का लोकार्पण करते प्रख्यात साहित्यकार डॉ0 गिरिराज किशोर। उनके साथ है सचिव, कला, भाषा और संस्कृति बी।के। अग्रवाल और लेखक राजेन्द्र राजन।
कानपुर(उ0प्र0) से पधारे प्रख्यात साहित्यकार डा। गिरिराज किशोर ने कहा कि सभी भाषाओं के साहित्य की प्रगति पाठकों से होती है लेकिन आज के समय में लेखकों के समक्ष यह संकट गहराता जा रहा है। बच्चे अपनी भाषा के साहित्य को नहीं पढ़ते जो भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं है। डॉ गिरिराज ने प्रसन्नता व्यक्त की कि उन्हें भविष्य के एक बड़े कथाकार के कहानी संग्रह के विस्तरण का शिमला में मौका मिला। उन्होंने हरनोट की कहानियों पर बात करते हुए कहा कि इन कहानियों में दलित और जाति विमर्श के उम्दा स्वर तो हैं पर उस तरह की घोर प्रतिबद्धता, आक्रोश और प्रतिशोध की भावनाएं नहीं है जिस तरह आज के साहित्य में दिखाई दे रही है। उन्होंने दो बातों की तरफ संकेत किया कि आत्मकथात्मक लेखन आसान होता है लेकिन वस्तुपरक लेखन बहुत कठिन है क्योंकि उसमें हम दूसरों के अनुभवों और अनुभूतियों को आत्मसात करके रचना करते हैं। हरनोट में यह खूबी है कि वह दूसरों के अनुभवों में अपने आप को, समाज और उसकी अंतरंग परम्पराओं को समाविष्ट करके एक वैज्ञानिक की तरह पात्रों को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करते हैं। उनका मानना था कि इतनी गहरी, इतनी आत्मसात करने वाली, इतनी तथ्यापरक और यथार्थपरक कहानियां बिना निजी अनुभव के नहीं लिखी जा सकती। उन्होंने शैलेश मटियानी को प्रेमचंद से बड़ा लेखक मानते हुए स्पष्ट किया कि मटियानी ने छोटे से छोटे और बहुत छोटे तपके और विषय पर मार्मिक कहानियां लिखी हैं और इसी तरह हरनोट के पात्र और विषय भी समाज के बहुत निचले पादान से आकर हमारे सामने अनेक चुनौतियां प्रस्तुत करते हैं। हरनोट का विजन एक बडे कथाकार है। उन्होंने संग्रह की कहानियों जीनकाठी, सवर्ण देवता दलित देवता, एम डॉट काम, कालिख, रोबो, मोबाइल, चश्मदीद, देवताओं के बहाने और मां पढ़ती है पर विस्तार से बात करते हुए स्पष्ट किया कि इन कहानियों में हरनोट ने किसी न किसी मोटिफ का समाज और दबे-कुचले लोगों के पक्ष में इस्तेमाल किया है जो उन्हें आज के कहानीकारों से अलग बनाता है। हरनोट की संवेदनाएं कितनी गहरी हैं इसका उदाहरण मां पढ़ती है और कई दूसरी कहानियों में देखा जा सकता है।
जानेमाने आलोचक और शोधकर्ता और वर्तमान में उच्च अध्ययन संस्थान में अध्येता डॉ0 वीरभारत तलवार का मानना था संग्रह की दो महत्वपूर्ण कहानियों-"जीनकाठी" और "दलित देवता सवर्ण देवता" पर बिना दलित और स्त्री विमर्श के बात नहीं की जा सकती। ये दोनों कहानियां प्रेमचंद की "ठाकुर का कुआं" और "दूध का दाम" कहानियों से कहीं आगे जाती है। उन्होंने हरनोट के उपन्यास हिडिम्ब का विशेष रूप से उल्लेख किया कि दलित पात्र और एक अनूठे अछूते विषय को लेकर लिखा गया इस तरह का दूसरा उपन्यास हिन्दी साहित्य में नहीं मिलता। माऊसेतु का उदाहरण देते हुए उनका कहना था कि क्रान्ति उस दिन शुरू होती है जिस दिन आप व्यवस्था की वैधता पर सवाल खड़ा करते हैं, उस पर शंका करने लगते हैं। जीनकाठी की कहानियों में भी व्यवस्था और परम्पराओं पर अनेक सवाल खडे किए गए हैं जो इन कहानियों की मुख्य विशेषताएं हैं। उन्होंने कहा कि वे हरनोट की कहानियां बहुत पहले से पढ़ते रहे हैं और आज हरनोट लिखते हुए कितनी ऊंचाई पर पहुंच गए हैं जो बड़ी बात है। उनकी कहानियों में गजब का कलात्मक परिर्वतन हुआ है। उनकी कहानियों की बॉडी लंग्वेज अर्थात दैहिक भंगिमाएं और उनका विस्तार अति सूक्ष्म और मार्मिक है जिसे डॉ। तलवार ने जीनकाठी, कालिख और मां पढ़ती है कहानियों के कई अंशों को पढ़ कर सुनाते प्रमाणित किया। हरनोट के अद्भुत वर्णन मन को मुग्ध कर देते हैं। "मां पढ़ती हुई कहानी" को उन्होंने एक सुन्दर कविता कहा जैसे कि मानो हम केदारनाथ सिंह की कविता पढ़ रहे हो। हरनोट की कहानियों की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि वे बाहर के और भीतर के वातावरण को एकाकार करके चलते हैं जिसके लिए निर्मल वर्मा विशेष रूप से जाने जाते हैं।
कथाकार और उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो डॉ0 जयवन्ती डिमरी ने हरनोट को बधाई देते हुए कहा कि वह हरनोट की कहानियों और उपन्यास की आद्योपांत पाठिका रही है। किसी लेखक की खूबी यही होती है कि पाठक उसकी रचना को शुरू करे तो पढ़ता ही जाए और यह खूबी हरनोट की रचनाओं में हैं। डॉ। डिमरी ने हरनोट की कहानियों में स्त्री और दलित विमर्श के साथ बाजारवाद और भूमंडलीकरण के स्वरों के साथ हिमाचल के स्वर मौजूद होने की बात कही। उन्होंने अपनी बात को प्रमाणित करने की दृष्टि से हरनोट की कहानियों पर प्रख्यात लेखक दूधनाथ सिंह के लिखे कुछ उद्धरण भी प्रस्तुत किए।
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वरिष्ठ कहानीकार सुन्दर लोहिया ने अपने वक्तव्य में कहा कि हरनोट की कहानियों जिस तरह की सोच और विविधता आज दिखई दे रही है वह गंभीर बहस मांगती है। हरनोट ने अपनी कहानियों में अनेक सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने चश्मदीद कहानी का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि कचहरी में जब एक कुत्ता मनुष्य के बदले गवाही देने या सच्चाई बताने आता है तो हरनोट ने उसे बिन वजह ही कहानी में नहीं डाला है, आज के संदर्भ में उसके गहरे मायने हैं जो प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। स तरह हरनोट की कहानियां समाज के लिए कड़ी चुनौती हैं जिनमें जाति और वर्ग के सामंजस्य की चिंताएं हैं, नारी विमर्श हैं, बाजारवाद है और विशेषकर हिमाचल में जो देव संस्कृति के सकारात्मक और नकारात्मक तथा शोषणात्मक पक्ष है उसकी हरनोट गहराई से विवेचना करके कई बड़े सवाल खड़े करते हैं। लोहिया ने हरनोट की कहानियों में पहाड़ी भाषा के शब्दों के प्रयोग को सुखद बताते हुए कहा कि इससे हिन्दी भाषा स्मृद्ध होती है और आज के लेखक जिस भयावह समय में लिख रहे हैं हरनोट ने उसे एक जिम्मेदारी और चुनौती के रूप में स्वीकारा है क्योंकि उनकी कहानियां समाज में एक सामाजिक कार्यवाही है-एक एक्शन है।
हिमाचल विश्वविद्यालय के सान्ध्य अध्ययन केन्द्र में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर व लेखक डॉ0 मीनाक्षी एस। पाल ने हरनोट की कहानियों पर सबसे पहले अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि हरनोट जितने सादे, मिलनसार और संवेदनशील लेखक है उनकी रचनाएं भी उतनी ही सरल और सादी है। परन्तु उसके बावजूद भी वे मन की गहराईयों में उतर जाती है। इसलिए भी कि आज जब साहित्य हाशिये पर जाता दिखाई देता है तो वे अपनी कहानियों में नए और दुर्लभ विषय ले कर आते हैं जो पाठकों और आलोचकों का स्वत: ही ध्यान आकर्षित करती हैं। उनकी कहानियों में हिमाचल की विविध संस्कृति, समाज के अनेक रूप, राजनीति के नकारात्मक और सकारात्मक पहलू, दबे और शोषित वर्ग की पीड़ाएं, गांव के लोगों विशेषकर माओं और दादी-चाचियों का जुझारू और अकेलापन बड़े ही सुन्दर ढंग से उकेरे गए हैं। उनकी कहानियों में पर्यावरण को लेकर भी गहरी चिन्ताएं देखी जा सकती हैं। वे मूलत: पहाड़ और गांव के कथाकार हैं।
लोकापर्ण समारोह के अध्यक्ष और कला, भाषा और संस्कृति के सचिव बी।के अग्रवाल जो स्वयं भी साहित्यकार हैं ने हरनोट की कथा पुस्तक के रलीज होने और इतने भव्य आयोजन पर बधाई दी। उन्होंने हरनोट की कहानियों को आज के समाज की सच्चाईयां बताया और संतोष व्यक्त किया कि हिमाचल जैसे छोटे से पहाड़ी प्रदेश से राष्ट्रीय स्तर पर भी यहां के लेखन का नोटिस लिया जा रहा। उन्होंने गर्व महसूस किया कि हरनोट ने अपने लेखन से अपनी और हिमाचल की देश और विदेश में पहचान बनाई है। उन्होंने हरनोट की कई कहानियों पर विस्तार से विवेचना की। उन्होंने विशेषकर डॉ0 गिरिराज किशोर के इस समारोह में आने के लिए भी उनका आभार व्यक्त किया।
मंच संचालन लेखक और इरावती पत्रिका के संपादक राजेन्द्र राजन ने मुख्य अतिथि, अध्यक्ष और उपस्थिति लेखकों, पाठकों, मीडिया कर्मियों का स्वागत करते हुए हरनोट के व्यक्तित्व और कहानियों पर लम्बी टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए किया।
एस।आर हरनोट के कहानी सग्रह "जीनकाठी" का लोकार्पण करते प्रख्यात साहित्यकार डॉ0 गिरिराज किशोर। उनके साथ है सचिव, कला, भाषा और संस्कृति बी।के। अग्रवाल और लेखक राजेन्द्र राजन।
कानपुर(उ0प्र0) से पधारे प्रख्यात साहित्यकार डा। गिरिराज किशोर ने कहा कि सभी भाषाओं के साहित्य की प्रगति पाठकों से होती है लेकिन आज के समय में लेखकों के समक्ष यह संकट गहराता जा रहा है। बच्चे अपनी भाषा के साहित्य को नहीं पढ़ते जो भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं है। डॉ गिरिराज ने प्रसन्नता व्यक्त की कि उन्हें भविष्य के एक बड़े कथाकार के कहानी संग्रह के विस्तरण का शिमला में मौका मिला। उन्होंने हरनोट की कहानियों पर बात करते हुए कहा कि इन कहानियों में दलित और जाति विमर्श के उम्दा स्वर तो हैं पर उस तरह की घोर प्रतिबद्धता, आक्रोश और प्रतिशोध की भावनाएं नहीं है जिस तरह आज के साहित्य में दिखाई दे रही है। उन्होंने दो बातों की तरफ संकेत किया कि आत्मकथात्मक लेखन आसान होता है लेकिन वस्तुपरक लेखन बहुत कठिन है क्योंकि उसमें हम दूसरों के अनुभवों और अनुभूतियों को आत्मसात करके रचना करते हैं। हरनोट में यह खूबी है कि वह दूसरों के अनुभवों में अपने आप को, समाज और उसकी अंतरंग परम्पराओं को समाविष्ट करके एक वैज्ञानिक की तरह पात्रों को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करते हैं। उनका मानना था कि इतनी गहरी, इतनी आत्मसात करने वाली, इतनी तथ्यापरक और यथार्थपरक कहानियां बिना निजी अनुभव के नहीं लिखी जा सकती। उन्होंने शैलेश मटियानी को प्रेमचंद से बड़ा लेखक मानते हुए स्पष्ट किया कि मटियानी ने छोटे से छोटे और बहुत छोटे तपके और विषय पर मार्मिक कहानियां लिखी हैं और इसी तरह हरनोट के पात्र और विषय भी समाज के बहुत निचले पादान से आकर हमारे सामने अनेक चुनौतियां प्रस्तुत करते हैं। हरनोट का विजन एक बडे कथाकार है। उन्होंने संग्रह की कहानियों जीनकाठी, सवर्ण देवता दलित देवता, एम डॉट काम, कालिख, रोबो, मोबाइल, चश्मदीद, देवताओं के बहाने और मां पढ़ती है पर विस्तार से बात करते हुए स्पष्ट किया कि इन कहानियों में हरनोट ने किसी न किसी मोटिफ का समाज और दबे-कुचले लोगों के पक्ष में इस्तेमाल किया है जो उन्हें आज के कहानीकारों से अलग बनाता है। हरनोट की संवेदनाएं कितनी गहरी हैं इसका उदाहरण मां पढ़ती है और कई दूसरी कहानियों में देखा जा सकता है।
जानेमाने आलोचक और शोधकर्ता और वर्तमान में उच्च अध्ययन संस्थान में अध्येता डॉ0 वीरभारत तलवार का मानना था संग्रह की दो महत्वपूर्ण कहानियों-"जीनकाठी" और "दलित देवता सवर्ण देवता" पर बिना दलित और स्त्री विमर्श के बात नहीं की जा सकती। ये दोनों कहानियां प्रेमचंद की "ठाकुर का कुआं" और "दूध का दाम" कहानियों से कहीं आगे जाती है। उन्होंने हरनोट के उपन्यास हिडिम्ब का विशेष रूप से उल्लेख किया कि दलित पात्र और एक अनूठे अछूते विषय को लेकर लिखा गया इस तरह का दूसरा उपन्यास हिन्दी साहित्य में नहीं मिलता। माऊसेतु का उदाहरण देते हुए उनका कहना था कि क्रान्ति उस दिन शुरू होती है जिस दिन आप व्यवस्था की वैधता पर सवाल खड़ा करते हैं, उस पर शंका करने लगते हैं। जीनकाठी की कहानियों में भी व्यवस्था और परम्पराओं पर अनेक सवाल खडे किए गए हैं जो इन कहानियों की मुख्य विशेषताएं हैं। उन्होंने कहा कि वे हरनोट की कहानियां बहुत पहले से पढ़ते रहे हैं और आज हरनोट लिखते हुए कितनी ऊंचाई पर पहुंच गए हैं जो बड़ी बात है। उनकी कहानियों में गजब का कलात्मक परिर्वतन हुआ है। उनकी कहानियों की बॉडी लंग्वेज अर्थात दैहिक भंगिमाएं और उनका विस्तार अति सूक्ष्म और मार्मिक है जिसे डॉ। तलवार ने जीनकाठी, कालिख और मां पढ़ती है कहानियों के कई अंशों को पढ़ कर सुनाते प्रमाणित किया। हरनोट के अद्भुत वर्णन मन को मुग्ध कर देते हैं। "मां पढ़ती हुई कहानी" को उन्होंने एक सुन्दर कविता कहा जैसे कि मानो हम केदारनाथ सिंह की कविता पढ़ रहे हो। हरनोट की कहानियों की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि वे बाहर के और भीतर के वातावरण को एकाकार करके चलते हैं जिसके लिए निर्मल वर्मा विशेष रूप से जाने जाते हैं।
कथाकार और उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो डॉ0 जयवन्ती डिमरी ने हरनोट को बधाई देते हुए कहा कि वह हरनोट की कहानियों और उपन्यास की आद्योपांत पाठिका रही है। किसी लेखक की खूबी यही होती है कि पाठक उसकी रचना को शुरू करे तो पढ़ता ही जाए और यह खूबी हरनोट की रचनाओं में हैं। डॉ। डिमरी ने हरनोट की कहानियों में स्त्री और दलित विमर्श के साथ बाजारवाद और भूमंडलीकरण के स्वरों के साथ हिमाचल के स्वर मौजूद होने की बात कही। उन्होंने अपनी बात को प्रमाणित करने की दृष्टि से हरनोट की कहानियों पर प्रख्यात लेखक दूधनाथ सिंह के लिखे कुछ उद्धरण भी प्रस्तुत किए।
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वरिष्ठ कहानीकार सुन्दर लोहिया ने अपने वक्तव्य में कहा कि हरनोट की कहानियों जिस तरह की सोच और विविधता आज दिखई दे रही है वह गंभीर बहस मांगती है। हरनोट ने अपनी कहानियों में अनेक सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने चश्मदीद कहानी का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि कचहरी में जब एक कुत्ता मनुष्य के बदले गवाही देने या सच्चाई बताने आता है तो हरनोट ने उसे बिन वजह ही कहानी में नहीं डाला है, आज के संदर्भ में उसके गहरे मायने हैं जो प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। स तरह हरनोट की कहानियां समाज के लिए कड़ी चुनौती हैं जिनमें जाति और वर्ग के सामंजस्य की चिंताएं हैं, नारी विमर्श हैं, बाजारवाद है और विशेषकर हिमाचल में जो देव संस्कृति के सकारात्मक और नकारात्मक तथा शोषणात्मक पक्ष है उसकी हरनोट गहराई से विवेचना करके कई बड़े सवाल खड़े करते हैं। लोहिया ने हरनोट की कहानियों में पहाड़ी भाषा के शब्दों के प्रयोग को सुखद बताते हुए कहा कि इससे हिन्दी भाषा स्मृद्ध होती है और आज के लेखक जिस भयावह समय में लिख रहे हैं हरनोट ने उसे एक जिम्मेदारी और चुनौती के रूप में स्वीकारा है क्योंकि उनकी कहानियां समाज में एक सामाजिक कार्यवाही है-एक एक्शन है।
हिमाचल विश्वविद्यालय के सान्ध्य अध्ययन केन्द्र में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर व लेखक डॉ0 मीनाक्षी एस। पाल ने हरनोट की कहानियों पर सबसे पहले अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि हरनोट जितने सादे, मिलनसार और संवेदनशील लेखक है उनकी रचनाएं भी उतनी ही सरल और सादी है। परन्तु उसके बावजूद भी वे मन की गहराईयों में उतर जाती है। इसलिए भी कि आज जब साहित्य हाशिये पर जाता दिखाई देता है तो वे अपनी कहानियों में नए और दुर्लभ विषय ले कर आते हैं जो पाठकों और आलोचकों का स्वत: ही ध्यान आकर्षित करती हैं। उनकी कहानियों में हिमाचल की विविध संस्कृति, समाज के अनेक रूप, राजनीति के नकारात्मक और सकारात्मक पहलू, दबे और शोषित वर्ग की पीड़ाएं, गांव के लोगों विशेषकर माओं और दादी-चाचियों का जुझारू और अकेलापन बड़े ही सुन्दर ढंग से उकेरे गए हैं। उनकी कहानियों में पर्यावरण को लेकर भी गहरी चिन्ताएं देखी जा सकती हैं। वे मूलत: पहाड़ और गांव के कथाकार हैं।
लोकापर्ण समारोह के अध्यक्ष और कला, भाषा और संस्कृति के सचिव बी।के अग्रवाल जो स्वयं भी साहित्यकार हैं ने हरनोट की कथा पुस्तक के रलीज होने और इतने भव्य आयोजन पर बधाई दी। उन्होंने हरनोट की कहानियों को आज के समाज की सच्चाईयां बताया और संतोष व्यक्त किया कि हिमाचल जैसे छोटे से पहाड़ी प्रदेश से राष्ट्रीय स्तर पर भी यहां के लेखन का नोटिस लिया जा रहा। उन्होंने गर्व महसूस किया कि हरनोट ने अपने लेखन से अपनी और हिमाचल की देश और विदेश में पहचान बनाई है। उन्होंने हरनोट की कई कहानियों पर विस्तार से विवेचना की। उन्होंने विशेषकर डॉ0 गिरिराज किशोर के इस समारोह में आने के लिए भी उनका आभार व्यक्त किया।
मंच संचालन लेखक और इरावती पत्रिका के संपादक राजेन्द्र राजन ने मुख्य अतिथि, अध्यक्ष और उपस्थिति लेखकों, पाठकों, मीडिया कर्मियों का स्वागत करते हुए हरनोट के व्यक्तित्व और कहानियों पर लम्बी टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए किया।
लेबल:
एस. आर. हरनोट,
पुस्तक विमोचन,
रिपोर्ट
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