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Thursday, October 27, 2022

न जन्नत देखा, न जहन्नुम देखा, जो कुछ देखा, यहीं देखा

 भारती सिंह 


      "ब़कद्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगना-ए-ग़ज़ल 
      कुछ और चाहिए वुसअत मेरे बयाँ के लिए "
 अपने समय का प्रत्येक सृजनहार अपने-अपने तरीके से इतिहास के सहारे वर्तमान की चुनौतियों से लड़ते-भिड़ते, वक़्त की नब्ज को समझने की कोशिश करता है। यह अलग बात है कि अभिव्यक्ति की अपनी मौलिक धार से अपनी अनुभूतियों को कहां तक सशक्ति से प्रस्तुत कर पाता है। यह अनुभूतियाँ विभिन्न विधाओं का पैरहन बन, जन-मन तक, चेतना एवं विचारों को छूती हुई, देशकाल में बदलाव का अभीष्ट बयार लेकर आती हैं। इन्हीं विधाओं में ग़ज़ल का अपना रुआब और मिज़ाज रहा है। सदियों लम्बी यात्रा में बेशक़ ग़ज़ल को धीरज और भरोसे के साथ अपना सफ़र जारी रखना पड़ है। आज यही यात्रा अपने हासिल को पा सकी है। उर्दू के प्रभाव और संपर्क में पली-बढ़ी ग़ज़ल हिन्दी की जुबान को अपना कर अधिक असरकारक तथा समसामयिक मुद्दों पर और अधिक समृद्ध हुई है। 
कल्पनाओं के फ़लक से उतर कर, निजता एवं एकल मनोभावों से हटकर यथार्थ की ज़मीन पर अपनी नयी पहचान मुकर्रर की है। माधव कौशिक ने लिखा है-
       "सफ़र में दर्द भरी दस्तान रख दूंगा
        मैं पत्थरों पे लहू का निशान रख दूंगा"
 उस यथार्थ में जीवन की कितनी विषमताओं का यथार्थ है और कितना कुंठित कामनाओं का यथार्थ, इसकी भी पड़ताल एवं मूल्यांकन आवश्यक है। मानवीय तत्वों के विघटन से उत्पन्न कुंठाएं एवं वाह्य आवरण के ढकोंसलोंं ने इस सीमा तक पंगु एवं शिथिल बना दिया है कि अपनी अकर्मण्यता, निष्क्रियता एवं क्षरित मूल्यों का कारुणिक, विवादास्पद तथा अश्लीलता का प्रदर्शन ही उसकी नियति बन गई है। नतीजतन, कभी-कभी सृजनात्मकता हाशिए पर आ गई लगती है। ऐसे में चिंतन मनन तक में ना सिमटकर संवेदनाओं की मोटी पड़ती गई परत को खुरच कर अधिक संवेदनशील बनाने की सार्थक पहल आवश्यक होती है। तभी माधव कौशिक ने कहा है - 
     " ऊँगली ज़बान हाथ नज़र इस्तेमाल कर 
       बेखौफ़ होके वक़्त से सीधे सवाल कर।"
हिन्दी कविता के सृजन के लिए जिन तत्वों, जिन संवेदनाओं की आवश्यकता थी, उन्हीं को लेकर हिंदी ग़ज़लों की ज़मीन तैयार हुई है। हालांकि हिंदी साहित्य में गज़लों को वह मुकाम अब तक हासिल न हो सका है जिसकी वह हक़दार है। जबकि पचास, सत्तर वर्षो में ग़ज़लें ,गीत और दोहे ही हैं जो जन-जन तक अपनी पकड़ काफी मजबूत बनाए हुए हैं। फिर अन्य विधाओं की तरह ग़ज़ल को आलोचना के केंद्र में क्यों न रखा गया ! मैनेजर पाण्डेय जैसे वरिष्ठ आलोचक ने  माना है कि वह रचनाएँ  जो अनुशंसित एवं आलोचना के केंद्र में रहीं, काफी हद तक लोकप्रियता एवं सार्थकता की सीमा तक पहुंची। तो क्या हिन्दी कविता से हिन्दी ग़ज़ल को दूर ही रखा गया, या अन्जाने ही उपेक्षा की शिकार हुई । तभी ग़ज़लगो विनय कुमार मिश्र की पीड़ा छलछला उठी है इन पंक्तियों में-
                    "मैं किसे चाहूँ न चाहूँ बात होती है
                    पर ये भी तय कर रही है अब नई दिल्ली"
हालांकि ग़ज़लों की लंबी सुदृढ़ परंपरा में उर्दू ग़ज़लों  का रसूख एवं चलन जन- मन में अपनी मजबूत दखल बना चुका था। पाठकों की समृद्ध उपस्थिति भी देखने को मिलती रही है। लेकिन हिंदी में ग़ज़लें उपेक्षा एवं इग्नोरेंस की शिकार हुई, वज़ह हैरान करती है। नामवर सिंह जैसे आलोचना के शिखर पुरुष मिर्ज़ा ग़ालिब और अहमद फ़राज़ साहब की ग़ज़लों को कोट करते हुए अपने आख्यानों एवं वक्तव्यों की शुरुआत करते रहे हैं। लेकिन उनकी इनायत से ग़ज़ल महरूम रही। छह दशकों की लंबी यात्रा एवं हजारों ग़ज़लकारों की उन्नतिशील प्रवाहमय यात्रा आज भी अनवरत जारी है। फिर भी 'बड़ी हसरत से उम्मीद का चेहरा तकती' रही है। किंतु संतोषजनक बात है कि आज हिन्दी कविता के बीच ग़ज़ल अपनी शिनाख्त करा चुकी है। वैसे तो गज़लों की दीर्घ परम्परा रही है लेकिन हिन्दी में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें बड़ी अदब और दमखम के साथ साहित्यिक दुनिया में खुद को साबित करतीं हैं और फिर यहीं से ग़ज़ल कल्पना और रुमानियत की हद से बाहर निकल कर ज़िन्दगी की असलियत से वाकिफ होती है -
      " मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ 
         वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ 
दुष्यंत अपनी ग़ज़लों में ज़िन्दगी को आईने के बतौर पेश करते हैं। फिर भी कहन का विस्तार में रचना की ज़मीन संकुचित नहीं होती है, बल्कि उसका फ़लक बड़ा और घना है-
       " वे कह रहें हैं इश्क़ पर संजीदा गुफ़्तगू 
         मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है" 
हालांकि दुष्यंत इस आग्रह से ख़ुद को पूरी तरह से मुक्त नहीं कर पाते। गाहे- ब -गाहे यह रूहानी भाव कुछ यूँ अभिव्यक्ति को प्राप्त होता है-
     " तू किसी रेल सी गुज़रती है
        मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ 
         
       एक आदत सी बन गयी है तू 
       और आदत कभी नहीं जाती "
अद्भुत शैली, भाव एवं ताज़गी से छलकता यह क़लाम दुष्यंत की लेखनी की समृद्धि का सुंदरतम नमूना है।प्रेम की सहजता, सघनता की यह लयात्मक अभिव्यक्ति दुष्यंत को अमर करती है। शायर ने भिन्न-भिन्न तरीके से शैली बदल -बदल कर बात की है।
          "अब तो इस तालाब का पानी बदल दो 
           ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं"

बहुत कम शब्दों का सहारा लेकर ग़ज़लों के मिज़ाज एवं तरबीयत पर कुछ तथ्य काबिले ग़ौर है कि कविताएं जहां एक खास वर्ग अर्थात बौद्धिक समाज एवं प्रबुद्ध पाठकों तक ही अपनी गरिमा को स्थापित कर पाईं, तब भी समय-समय पर इसकी स्थिति भी संतोषप्रद नहीं रही। कारण- शिक्षा का गिरता स्तर एवं पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं के प्रति पाठकों में कम होता लगाव। वहीं साहित्यिक अभिरुचि न रखने वाला व्यक्ति भी रोज़मर्रा की अपनी ज़िंदगी में ग़ज़लों की दो चार पंक्तियों के माध्यम से हमजुबा ग़ज़लों का सहारा लेकर अपनी अभिव्यक्ति को पुख्ता करता मिल जाता है। अब सवाल यह है कि ग़ज़लें इतनी लोकप्रिय होते हुए भी साहित्य की मुख्य धारा में स्वयं को सशक्ति से क्यों स्थापित नहीं कर पाईं। वज़ह साफ़ तौर पर यही मालूम होती है कि "ग़ज़ल को मुक्त छंद में लिखी जाने वाली कविता की तरह जीवन में खुली आवाजाही का अवकाश ज्यादा नहीं रहता, वह बहर और रदीफ़- क़ाफ़िया के बंधनों के अनुशासन में अपनी यात्रा तय करती है।" शायद एक यह भी वज़ह रही हो कि अभिव्यक्ति के लिए सरल और सहज पद्धति न होने के कारण ग़ज़लों को तनिक दुरूह मान लिया गया, जबकि मुक्त छंद में लिखी कविताओं को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना आसान रहा हो।अलंकार और मात्राओं की हद में बांधने की कवायद में कथ्य की संप्रेषणीयता, उसकी सरलता बाधित होने लगती हो, विषय-वस्तु, कहन का उद्देश्य व्यापक और जनकल्याणकारी हो तो उसे किसी बंदिश में न बाँधकर  मुक्त भी रखने में कोई ख़राबी नहीं है। महाप्राण निराला ने कभी न कभी इन्हीं नियमों एवं परम्पराओं की बंधन की लाचारगी को अवश्य समझा होगा तभी उन्होंने मुक्तक छंद की रवायतों पर बल दिया होगा। यह एक अलग वैचारिकता की मांग है। 
बहरहाल ग़ज़लों की समूची विरासत एवं इतिहास को मूल्यांकित करने के लिए व्यापक विमर्श एवं चर्चा की आवश्यकता को महसूस करना लाजमी है। इन संदर्भों को लेकर हाल के दिनों में कई पुस्तकें आई हैं जिन्‍होंने ग़ज़ल की परम्परा और मिज़ाज को परखने मेें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 
समकालीन ग़ज़ल में यथार्थ-बोध को लेेेकर कुछ चर्चा करना चाहूूँगी, उन ग़ज़लों में समय और समाज में फैली विषमता और त्रासदी को चिन्हित कर कुछ बात हो। ऐसे में  विनय मिश्र की इन पंक्तियों का आसरा लेना चाहूँगी-
      " तुक मिलाने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी थी कहन 
         बेतुकी-सी बात थी लेकिन ढिठाई से लिखा। "
ग़ज़ल के बंधन को निभाते हुए उसे आधुनिक रूप देना एक बड़ी रचनात्मक चुनौती है जिसे समकालीन ग़ज़लकारों ने बड़ी सफलता और सार्थकता के साथ निभाया। इसीलिए बल्ली सिंह चीमा ने लिखा है-
     " ये ग़ज़ल जो राजमहलों की कभी जागीर थी 
       अब तो इसको झोपड़ो की अंजुमन तक ले चलो"
बल्ली सिंह चीमा की यह ग़ज़ल इस बात का पुख्ता सबूत है कि समकालीन ग़ज़लकारों ने समय की संवेदना को बख़ूबी समझा और इस संकल्प के साथ अपनी साहित्यिक -यात्रा को जारी रखा कि अब ग़ज़लें एक ख़ास चौखटे से बाहर निकल कर जन-जन तक अपनी लोकप्रियता हासिल करें। ऐसे में इसका तेवर बदल गया। यह ग़ज़लें केवल मनोरंजन या शौक का जरिया नहीं रहीं बल्कि मनुष्य की विडम्बनाओं एवं सामाजिक अराजकता, असहिष्णुता और भौतिकतावदी मनोविकारों का सही-सही चित्र उकेरना इनका मूल उद्देश्य बना। इसलिए चीमा लिखते हैं-
         " बहुत जी लिए इन अंधेरों से डरकर 
           चलो देख लें काली रातों से लड़कर।"
 इसमें सबसे अधिक नुकसान मनुष्यता का हुआ -
         " जैसे तैसे बचा रह गया 
         आदमी और क्या रह गया" 
अपनी कहन एवं शैली के माध्यम से सामाजिक-बोध और जीवन-मूल्यों को सहेजने के लिए ग़ज़लकारों ने जिस आत्मसंघर्ष को अपनाया है, उसकी पड़ताल उदारता के साथ ही मुमकिन है। एक रचनाकार का संवेदन ही उसे सचेत और बेबाक बनाता है । विनय मिश्र की यह पंक्तियाँ क़ाबिल-ए-ग़ौर है -
       " ख़ुद में अपने से ही छूटकर 
         भीड़ में हर दफ़ा रह गया " 
 इन ग़ज़लों को पढ़ना और समझना अपने आप में अनुभव से गुजरते हुए परिपक्व होना है। इस दौर के ग़ज़लकारों की ख़ूबी यही है कि उनकी सृजनात्मकता का चेहरा निहायत व्यक्तिगत है, लेकिन इनमें गहरे उतरते जाएँ तो धीरे-धीरे वक़्त का अक्स उभरने लगता है। इन्होंने काल्पनिक सृजन-संसार की बजाय दुनिया की असलियत एवं गहरे जड़ जमाए हुए कुरीतियों और त्रासदियों को ग़ज़लों के लिए चुना। हरेराम समीप की लिखी यह पंक्तियाँ सोचने पर मजबूर करती हैं-
  " इस सियासत की गिनाऊ और क्या उपलब्धियां 
    त्रासदी- दर - त्रासदी -दर -त्रासदी -दर  त्रासदी " 
व्यंग्य मुस्कुराता हुआ है तो कहीं-कहीं यही व्यंग्य अधिक तल्ख और आक्रामकता के साथ हालातों को रखता है। अधिकतर विडंबनापूर्ण उक्तियाँ समय की जटिलता को व्यक्त करते हुए पाठकों को उत्तेजना और चिन्तन के लिए मजबूर करती हैं। अदम गोंडवी आक्रोश और आवेग- संपन्न रचनाकार हैं। उनका काव्यादर्श एक तीखी टिप्पणी बन पाठकों के भीतर बौखलाहट पैदा करता है। वह लिखते हैं- 
         "जी में आता है आईना को जला डालूँ
         भूख से जब मेरी बच्ची उदास होती है 

          जनता के पास एक ही चारा है बगावत
           ये बात कह रहा हूं होशो हवास में"
बगावती तेवर के साथ अपने अभाव एवं फकीरी में भी रचनाकार लिखता है और बिगुल फूंकता है कि अब हाथ पर हाथ धरे बैठने से कुछ ना होगा। अदम गोंडवी की ग़ज़लों में बेचैन आत्मा का संघर्ष पूरी शिद्दत और प्रमाणिकता के साथ मौजूद है। तेवर, मिज़ाज और कहन में तल्ख और आक्रोश एवं  विक्षुब्धता का गरजता स्वर है। उनकी ग़ज़लों में यथार्थ का स्वरूप अधिक आक्रामक और परिवर्तनकारी रहा है। यही वज़ह है कि अपने पूर्ववर्तियों और समकालीनों से अलग नज़र आते हैं ।सत्ता पर ,व्यवस्था पर काबिज़ अयोग्य एवं शोषकों को चुनौती देना होगा, तभी स्थितियाँ बदल सकती हैं, यह स्वर उनकी गज़लों  की पहचान है-
          " घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। 
            बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है।।
             ×            ×                ×                   ×
     बगावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
     मैं जब भी देखता हूं आंख बच्चों की पनीली है ।।"्र
इस अभिव्यक्ति से यथार्थ की पेशानी पर भी बल पड़ जाए। अनुभवों की तीखी चुभन और टीस अदम गोंडवी की रचनाओं की ज़मीन है -
       " सदन को घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे। 
         अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे।।" 
अदम गोंडवी विकृत सामाजिक व्यवस्था एवं अवयवों का खाका अपनी ग़ज़लों में रूपायित करते हैं जो वास्तव में विकृत और कुरूप हो चुके हैं। कभी कठिन परिस्थितियां रचनाकार को जन्म देती है तो कभी यही रचनाकार अपनी लेखनी की ताक़त से विश्वव्यापी परिवर्तन का कारण बनता है। सब कुछ सहने और चुप रहने की फ़ितरत पर अदम बौखला जाते हैं और फिर कहते हैं-
      " नीलोफर शबनम नहीं अंगार की बात करो
        वक्त के बदले हुए मेयार की बातें करो 

        भाप बन सकती नहीं,पानी अगर हो नीम गर्म
        क्रांति लाने के लिए हथियार की बातें करो। 
अदम गोंडवी यहीं तक नहीं रुकते, वह गाँधी की नीतियों पर भी सुबहा और सवाल करते हुए कहते हैं-
      " लगी है होड़-सी देखो अमीरों और गरीबों में
        यह गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी ख़राबी है

      तुम्हारी मेज चांदी की तुम्हारे जाम सोने के 
     यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है"
अदम तल्खी और तेज़ाबी तेवर में दुष्यंत कुमार से एक क़दम आगे हैं। दुष्यंत की ग़ज़लों में जीवन की इसी असामानता, असहिष्णुता, अव्यवस्था, अराजकता , अनैतिकता से भिड़ने की पूरी वफ़ादारी मिलती है।
   " हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए "
लेकिन अदम गोंडवी के यहाँ यह चिंगारी पाठकों  को परिवर्तनकारी निष्कर्ष तक पहुँचाता है, जो शुरुआत की चिंगारी दुष्यंत कुमार देते हैं। अदम के यहाँ वह आग अधिक जनप्रिय होकर हर दिल में घर कर गयी है- 
     "जामो -मीना की खनक से थी ये वाबस्ता जरूर 
        देखिए अब जिन्दगी की तजुर्मानी है ग़ज़ल। "
आज़ादी के बाद जिस समृद्ध और विकसित समाज और देश की परिकल्पना की गई थी, वह चंद स्वार्थी तत्वों और सत्तासीन शासकों की महत्त्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ गयी।
       "कैसा सम्मोहन है उसकी बातों में 
        नेता तो पूरा जादूगर लगता है " 
क्या यह वर्तमान का यथार्थ नहीं है ! एक ऐसा यथार्थ,  जहां लोकतंत्र के नाम पर हम इस्तेमाल हो रहे हैं और चंद मुठ्ठी भर तथाकथित देश के कर्णधार बनते यह नेता अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से झांसे में लेकर हमारे अधिकारों एवं हितों का दोहन करते हैं और हम उनकी गिरफ्त में आ जाते हैं। हमारी स्थिति ऐसी है जैसे ' बहेलिया आएगा दाना डालेगा, फंसना नहीं'। लेकिन हमारी विडंबना है कि बहेलिया आता है, दाना डालता है, इसे रटते, समझते हुए भी हम 'फंस' जाते हैं। इस मुद्दे से ताल्लुक रखती महेश कटारे सुगम जी की ग़ज़ल भी स्वागत योग्य है-
      " बेईमान ख़िदमतगारों  से क्या होगा 
        लोक तंत्र के हत्यारों से क्या होगा " 
यह ग़ज़ल भी  समय को बताती है- 
     फट जाएंगे एक रोज़ शिक़म अहले हवश
     जनता का ये लोग बजट खाने में लगे हैं।" 
 विकास के नाम पर पूंजीवादी ताकतों का बंदरबांट, महत्वाकांक्षाओं एवं जरूरतों के बीच से मिटता भेद, आम जनजीवन को कितना खोखला और मूल्यरहित करता जा रहा है, इसकी बेचैनी इन पंक्तियों में देखी जा सकती है -
         "उन्हें पटरी बिछानी है, उन्हें सड़कें बनानी है
         तेरी खेती छिने या घर,उन्हें क्या फ़र्क पड़ता है।
राम नारायण हलधर की यह पंक्तियाँ भी समय की भयावहता को उजागर करती हैं। बेबसी और लाचारी का बड़ा मार्मिक चित्र पेश करते हैं अपनी ग़ज़लों में।अलग-अलग भाव-भूमि को लेकर ताज़गी और टटकेपन को बरकरार रखते हुए विभिन्न ग़ज़लगो ने बड़ी साफ़गोई से स्थितियों को उद्घाटित किया है। 
          "  श्रद्धा हो तो पत्थर शंकर लगता है 
             वरना शंकर में भी पत्थर लगता है।"
 लवलेश दत्त की इन पंक्तियों में लोक-जीवन में तैरता एक बंद 'मानो तो देव नहीं तो पत्थर' की स्मृतियों में ले जाता है। इसे जरा नए रूप में उतार कर अपनी लोक संस्कृति एवं आस्था को सहेजने का यह हुनर सराहनीय है। उनकी एक और ग़ज़ल की यह पंक्तियाँ बहुत स्पष्ट शब्दों में मौज़ूदा वक़्त को हमारे सामने रखती है-
      " रोटी कपड़ा घर को भूले 
        अब मंदिर-मस्जिद मुद्दा है " 
इतनी बेबाकी और स्पष्टता के साथ सृजन करना उसकी विश्वसनीयता को चिन्हित एवं सूचित करता है। यही वज़ह है कि रचनाकार को किसी खास विचारधारा अथवा खेमे से ताल्लुक न रखकर समसामयिक गतिविधियों एवं कार्यान्वयनो का सटीक परख होना, उसे दृष्टि संपन्न एवं कृतियों को कालजई बनाता है। हालातों को समझते हुए परिस्थितियों के साथ समझौते के लिए  विवश होने को इन पंक्तियों में बखूबी देखा जा सकता है-
      "अपनी शर्तों पर जीने का मंजर नहीं रहा
        जिंदा रहना अब अपने पर निर्भर नहीं रहा"
 मौजूदा दौर एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए किसी बड़ी विडंबना और विफलता के रूप में उपस्थित है। यह पंक्तियां साफ़तौर पर जता रही हैं। विषम परिस्थितियों से निर्मित खुरदरी ज़मीन पर विनय मिश्र की ग़ज़लें कहीं खिलखिलाती, कहीं मुस्कुराती तो कहीं उग्र तेवर का मिज़ाज लेकर प्रस्फुटित हुई हैं।
       "यह समय का खुरदुरापन है इसी पर तो 
       मेरी ग़ज़लों की उगी हैं मखमली घासें
        ×              ×        ×                 ×
       लड़ाई हार भी जाऊं मगर संघर्ष बोलेगा 
      मेरी ग़ज़लों में गूंगा देश भारतवर्ष बोलेगा "
मुलायमियत के साथ संघर्ष की चिंगारी को अपने भीतर जोगा कर रखती यह ग़ज़लें अपने उद्देश्यों को पुख्ता करती हैं, साथ ही आने वाली पीढ़ियों को समसामयिक अराजकता एवं व्यवस्था पर प्रतिरोध करने का हौसला देती हैं- 
     "हमारा काम है बाज़ार में भी आदमी गढ़ना 
      तुम्हारा काम घर आंगन को भी बाज़ार करना है"
उपनिवेशवादी ताकतों का फैलाव, बाज़ारवादी संस्कृतियों के हाथों हमारे सपने गिरवी रखे जा चुके हैं। विनय मिश्र आत्मसजग ग़ज़लगो हैं 
      "अपने घर में ही किराएदार हूँ 
      सोचिए मैं किस क़दर लाचार हूं"
भौतिकवादी मनोवृति आज इतना हावी हो चुकी है कि अपनी जरूरतों एवं महत्वाकांक्षाओं के बीच की खींची महीन लकीर को समझ पाने में पूर्णता असफल हो चुके हैं। नतीजा मनुष्य अकेलापन, हताशा और कुंठा का शिकार हो चुका है। अपनी अस्मिता को खोकर, संवेदनहीन हो मशीन बनता जा रहा है। इसलिए वह लिखते हैं -
             "यह आदमी जितना पढ़ो 
              पहचान में आता नहीं"

          बस किसी उम्मीद का था आसरा 
          इसलिए मैं टूट कर बिखरा ना था"
समय बार -बार अपने विद्रूप शक़्ल व सूरत में  बेढब और आक्रामक रूप से अलग-अलग ग़ज़लों में रूपायित होता  आया है ।ज़हीर कुरैशी की ग़ज़लों में समय का संत्रास, मनुष्य की जड़ता, एकाकीपन, मानसिक द्वंद, राजनीतिक पैतरेबाजी ,उपभोक्तावादी दबाव, बाज़ार का फैलता मकड़जाल का जटिल यथार्थ पेश करता है-
      "कितने हज़ार डर हैं हर एक आदमी के साथ
      क्या आपको भी आपके डर का पता लगा?"
 डर का यथार्थ कितने पुरज़ोर तरीक़े से मनुष्य से सवाल करता है कि प्रत्येक डरा हुआ व्यक्ति को अपने डर की वज़ह का पता चलता है। डर ,आशंका, हताशा के बीच से हमारी सहज मानवीय रागात्मकता कहीं लुटती जा रही है। अपने द्वारा रचे गए अप्राकृतिक परिवेश का कुछ तो असर रखेगा -
           "यहां हर व्यक्ति है डर की कहानी-
            बड़ी उलझी है अंतर की कहानी"
जीवनानुभूति जितनी गहन होगी, रचना उतनी ही प्रासंगिक एवं असरकारक होगी। ज़हीर कुरैशी ने लिखा है कि-
     " चिन्तन ने कोई गीत लिखा या ग़ज़ल कही
       जन्में हैं अपने आप ही दोहे कबीर के। "
विराट तकनीकी सभ्यता के विकास के समय में भी 'क्या खोया क्या पाया' का मलाल क़ायम रखना होगा। किन मूल्यों को खोकर, किस क़दर खोखला हो रहें हैं। 
     " सत्य का पक्ष लेने के बाद लोग कायर दिखाई दिए
       उस परीक्षा में हर प्रश्न के चार उत्तर दिखाई दिए" 
सत्य का कोई विकल्प नहीं होता है लेकिन आज का दौर की सच्चाई है कि सत्य का भी कई विकल्प है। सबके 'अपने-अपने सच' हैं। मेयार सनेही की कहन की शैली एवं विषय का यथार्थ की बानगी सोचने को विवश करती है-
        "कभी इसका तो कभी उसका निज़ाम आता है 
        देखना यह है कि कब दौरे आवाम आता है"
 ग़ज़ल की यह पंक्तियां लोकतंत्र पर कटाक्ष है। इस लोकतंत्र के दौर-ए-जहाँ में  कुछ भी सुरक्षित और स्थिर नहीं है। इसी तरह दिव्या जैन के अश्आरो  में जीवन का यही कड़वा यथार्थ समय की भयावहता को दर्शाता है-
     "मुझको अब घर से निकलते हुए डर लगता है 
      अब हर एक राम में रावण का बसर लगता है"
इसमें हमारे दौर का वह स्याह सच है,जिसे हम रोज़ सहते हैं और सहते रहने को अभिशप्त हैं।
     "ये रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी
     कि जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकाई है"

वहीं लवलेश जी लिखा है - 
    " भूख से व्याकुल बचपना देखा है 
       हाट में बिकता यौवन देखा है " 
यानी, लगातार सभी संवेदनशील रचनाकारों ने अपने मिज़ाज और अनुभव के तर्ज़ पर समय को मूल्यांकित किया है। ऐसे ही तथाकथित सभ्य समाज का हकीकत बयां करते अदम अपनी लेखनी के दायरों को अधिक विस्तृत करते हुए जहां भूख और गरीबी को चिन्हित करते हैं, वहीं जीवन के फलसफे को भी हमारे समक्ष ला खड़ा करते हैं-
       "आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत
        वो कहानी है महज प्रतिशोध की, संत्रास की
          ×                 ×                ×                ×
        इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया 
       सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियां सल्फास की।" 
मिटती सभ्यता और घायल संस्कृति का मूल कारण बढ़ता बाज़ारवाद है और चाहे कि अनचाहे आज प्रत्येक व्यक्ति इसकी चपेट में आ गया है-
         " है कोई इन्सान जो उठकर कहे इस बज़्म में 
          मैंने अपने आप को बाज़ार में बेचा नहीं   " 
 कितना दारूण और स्याह पक्ष है हमारी तथाकथित उपलब्धियों का। जीवन का रंग और राग हमेशा के लिए रूठ गये लगते हैं। बाज़ार की रौनक बनती स्त्री, नई पीढ़ी का भटकाव, अतीत का मोह, राजनीति का गिरता स्तर ,समाजवाद का पतन, कामनाओं की अतिशयता, जातीयता और सांप्रदायिकता का बढ़ता विकृत रूप, भाषाई स्तर पर अलगाववाद का हिंसात्मक प्रतिरूप हर ओर विघटन है। ऐसे में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति प्रतिरोध का स्वर दबाकर नहीं रह सकता। बल्कि वह गुहार लगाता है - 
            हमसफ़ीरों न तुम ख़ामोश रहना 
             मैं आवाज़ दूँ, तुम आवाज़ देना" 
और उस आवाज़ में असर होता है। आवाज़ आवाज़ को आमंत्रित करती है और वह साथ होने का नमूना पेश करती है माधव कौशिक के अल्फ़ाज में -
          " मेरी तरह उदास थे कुछ लोग भी 
            ऐसा नहीं मैं शहर में तन्हा उदास था"
यह उदासी कई आयामों को ज़ाहिर करती है। यह उदासी है विस्थापन की, खोखलेपन की, चिन्तन की जड़ता की, प्रतिरोध की नपुसंकता की, प्रेम के प्रति एकनिष्ठता की।
     "उस घर से कितनी यादें जुड़ी हैं मैं क्या कहूँ 
      जिस घर में लौटकर मैं दुबारा नहीं गया "
कितनी खलिश है विनय मिश्र की इस पंक्ति में। बाज़ार की चकाचौंध और दो वक़्त की रोटी की तलाश में अपनों से किस क़दर दूर हो गये। लेकिन इन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ़ आवाज़ उठाने में भी हिचक अनुभव करते हैं लोग। और प्रतिरोध का मतलब आप अब उनके निशाने पर हैं ।तभी तो पुरुषोत्तम प्रतीक जी ने लिखा है -
     "चाकू के गांव में इंसान की बातें न कर 
      है बहुत खतरा यहां ईमान की बातें न कर "
अब यह आपका नैतिक दायित्व है कि आपको किस का पक्ष लेना है। अराजकता को हवा देंगे अथवा उन्हें रोकने, अंकुश लगाने के लिए अभिव्यक्ति के खतरे उठाएंगे।यह आपका निजी चुनाव है आप किस ओर रूख और करेंगे। इतिहास तो दोनों का लिखा जाना तय है और मनुष्यता एक न एक रोज़ कटघरे में खड़ा करेगी। तभी दुष्यंत को सुझा होगा - 
       "यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं 
       खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा"
यही आलम आज भी बना हुआ है। तभी मक़बूल मंजर की क़लम आह भरती है-
     "कहने को सलामत हूँ, मगर टूट रहा हूँ 
      हालात के हाथों का खिलौना जो हुआ" 
लेकिन ज़िन्दगी थमती नहीं, उम्मीदें टूटती नहीं। ' वो सुबहो कभी तो आएगी ' साहित्य समाज का प्रतिरूप है, और कल्पना उसमें नई भोर का अस्तित्व तलाशती है। 
यह तभी मुमकिन है जब हमारे भीतर ' जो है उससे बेहतर ' की चिंगारी जगी रहे। दुष्यंत के यहाँ यह भरोसा क़ायम है -
      " एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों 
        इस दीए में तेल से भीगी हुई बाती तो है"।
अमीर खुसरो से होते हुए भारतेंदु से लेकर चली हिंदी ग़ज़ल मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, दुष्यंत कुमार, नागार्जुन, पुरुषोत्तम प्रतीक ,केदार जी, रामकुमार  कृषक, अदम गोंडवी ,  ज़हीर कुरैशी, हरेराम समीप, बल्ली सिंह चीमा, ज्ञान प्रकाश विवेक, विनय मिश्र जैसे सशक्त ग़ज़लगो ने समय-समय पर मानवीय मूल्यों, वातावरण की संवेदना पर, वैश्विक सौहार्द्र,  सामाजिक समरसता के लिए, ग़ज़लों से सरोकार रखते हुए अभिव्यक्ति की तमाम आग्रहों को अपनाते हुए लेखनी की लंबी और चौड़ी रेखा खींची है। इन तमाम ग़ज़लों में अपने समय का समाज, आम आदमी की अजीयतें, प्रेम का पलायन ,अभावग्रस्त जीवन का संघर्ष, अव्यवस्था, महंगाई, शोषण से अभिशप्त जीवन जीने की बाध्यता को लेकर आए। साथ ही दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल की जो रहनुमाई की उसका अनुकरण करते हुए आगे की पीढ़ियां नए परिदृश्य रचने के लिए, बदलाव के बयार को लाने के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं -
    "दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
     और कुछ हो या ना हो आकाश-सी छाती तो है"।
निधि सिंह की ग़ज़लों में यही आश्वासन नज़र आता है -
     " बहुत मुमकिन है सोता फूट जाए 
       कई बरसों से हम पत्थर रहे हैं।" 


 परिचय





भारती सिंह 
साहित्यिक गतिविधि- दस्तावेज़, वागर्थ ,पाखी , लहक ,सापेक्ष, वाक ,परिकथा, चौपाल, ककसाड़,  सुबह की धूप आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित ।
संपर्क - नेहरू नगर ,चिनिया रोड, गढ़वा, झारखंड 
822114 
मोबाईल नम्बर- 9955660054

Saturday, February 23, 2019

मुक्तिबोध की कहानियों के कथ्य वैचारिक संघर्षों की झलक ही हैं


हिन्दी आलोचना में आलोचकीय विवेक की एक नयी तस्वीर इधर उभरती हुई दिख रही है। उसका चेहरा इस कारण भी आश्वस्तकारी है कि तथ्य, अनुसंधान के अकादमिक सलीके की बजाय पुन:निरीक्षण पर आधारित विश्ले्षण की पद्धति को प्राथमिकता के साथ बरतने की कोशिशें वहां स्पष्ट नजर आ रही हैं। स्थापित मान्यताओं तक से टकराने की यह कोशिश स्वा‍गत योग्य है। इस निगाहबानी के बाद ही यहां गीता दूबे और रश्मि रावत के आलेख पूर्व में प्रस्तुतत किये गये थे। हाल ही में ‘वाक’(30-31) में प्रकाशित डॉ भारती सिंह का आलेख जिसमें मुक्तिबोध के कहानीकार रूप की चर्चा है, उस कड़ी के हिस्से के तौर पर ही पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है। दस्ता‍वेज, वागर्थ, साखी आदि पत्रिकाओं में प्राकशित डॉ भारती सिंह के आलेखों से पाठक पहले से परिचित हैं।



डा. भारती सिंह
शैक्षणिक योग्यता - एम. ए., बर्दवान विश्वविद्यालय (प. बं.) , पी.एच.डी.  राँची विश्वविद्यालय,
संपर्क - नेहरू नगर,  चिनिया रोड,  गढ़वा , झारखंड .822114
मोबाइल नं.- 9955660054
साहित्यिक गतिविधि- दस्तावेज़ , वागर्थ,  पाखी , लहक,  सापेक्ष, सुबह की धूप,  वाक,  साखी आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित ।



डॉ भारती सिंह

हर सिम्त में इक सहरा बसर है ,  साग़र के क़फ़स में इक क़तरा नज़र है




यूँ तो साहित्य के भीतर भी  मौजूद समंदर की तरह  असीमित आवेश एवं आवेग को किसी एक विधा के प्रकोष्ठ में बाँध लेने की क्षमता नहीं होती। लेकिन फिर भी प्रत्येक विधा का साहित्य हर युग में  समय सापेक्ष होता है, और उस कालखंड के क्रियाकलापों, घटनाओं को स्वयं में समादृत कर उसे दस्तावेज़ की तरह आनेवाली पीढ़ियों का दिशानिर्देश करना एक कालजयी रचना की नैतिक ज़िम्मेदारी बन जाती है। और ये रचनाकार के व्यक्तित्व और उसकी संवेदनशीलता के आयतन का पता देती है। नि:संदेह  हिन्दी साहित्य के इतिहास में मुक्तिबोध एक युगपुरुष के रूप में चिन्हित किए जा चुके हैं एवं उनकी रचनाएँ सूक्ष्म अनुभूतियों का जीवंत चित्रण हैं। मुक्तिबोध की कहानियाँ भी उनकी कविताओं की तरह मानवतावादी सरोकार से जुड़ी दस्तावेज़ के रूप में ही स्वीकार की जानी चाहिए। लेकिन उनकी कहानियों पर बहुत कम चर्चा हुई, बहुत कम लिखा गया है। मुक्तिबोध की समग्रता को समझने और उसे परिभाषित करने के लिए ज़रूरी हो जाता है उनकी कहानियों का पुनर्पाठ। उन कहानियों पर चर्चा-परिचर्चा। कहानियों को छोड़कर सिर्फ कविताओं की बात एक तरह से मुक्तिबोध को अधूरेपन के साथ स्वीकार करना होगा, जो एक तरह से न्यायोचित नहीं है। एक ओर जहाँ 'अँधेरे मेंकविता उनकी अन्य रचनाओं का रचना-प्रक्रिया का पड़ाव है, वहीं उनकी कहानियाँ एवं अन्य रचनाएँ उस पड़ाव तक पहुँचने की एक यात्रा है। बल्कि यूँ कहा जाए कि मुक्तिबोध की जो संवेदनाएँ अपनी कहन में अधूरी रह गईं उसकी अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने साहित्य के अलग -अलग विधाओं में गुंजाइश को तलाशा और अभिव्यक्ति के सफलतम मकाम को हासिल किया। ग़ालिब को भी अभिव्यक्ति की इस पीड़ा से रू-ब-रू होना पड़ा था "- बकद्र- ए शौक नहीं ज़र्क तंगना -ए-ग़ज़ल /कुछ और चाहिए बुसअत मेरे बयाँ के लिए । " मुक्तिबोध ने अपनी रचनात्मकता में कई अभिनव प्रयोग किया है। कहानियों में कई लेयर हैं जो बार -बार सूक्ष्म समझ एवं अनुभूतियों की माँग करती हैं। एक अनूठे शिल्प का प्रयोग करते हैं। कविताएँ अद्भुत हैं। जो बातें कविताओं में अधूरी रह गयी , वह उन्हें निबंधो में लेकर आते हैं और जो अधूरापन वहाँ रहा वह डायरी में सिमटी और जो डायरी में अभिव्यक्त न हो सकी, वह कहानियों की जानिब पाठकों तक पहुँची । और मुमकीन है यही एक खास वजह रही कि रचनाओं के शीर्षक में दुहराव भी हुआ है ।


मुक्तिबोध की ज़्यादातर कहानियाँ चरित्र-प्रधान नहीं रही हैं। उनके पात्र सामूहिक रूप से अपनी पूरी मौजूदगी के साथ कहानी की रवानगी को बनाए रखते हैं और अपने-अपने स्तर पर मुक्तिबोध के विचारों को उद्घाटित करते हैं। कारण स्पष्ट है कि उनकी कहानियाँ नायक प्रधान नहीं हुआ करती हैं, बल्कि समाज के भीतर ही रहनेवाला आम इंसान रहा है, जो जीवन मूल्यों के सैद्धान्तिकता को जीता हुआ पाठकों के समक्ष यथार्थ की सतह पर खड़ा मिलता है। हाँ, कहानियों में भी अभिव्यक्ति के लिए उन सारी सामग्रियों का सहारा लिया गया है जिनसे ‘अँधेरे में’ कविता गढ़ी गई है, जो हिन्दी साहित्य में एक क्लासिक है।


मुक्तिबोध के जीवन के केन्द्र में संघर्ष ही अधिक प्रबल रहा है। और संघर्षजनित त्रासदियाँ जीवनदृष्टि को अधिक धारदार बनाती गई । दृष्टि की यही धार सृजनात्मकता की पृष्ठभूमि को अधिक मजबूती देता गया। उनका संघर्ष पारिवारिक चौखटे को तोड़ता हुआ, सामाजिक दायरे को लाँघता हुआ देशान्तर पार विश्‍वव्यापी हो उठा। व्यक्ति और समाज के केन्द्र रहीं समस्याएँ दोनों के बीच एक टकराव की स्थिति उत्पन्न करने में अधिक सहायक रहीं। और इनसे रू-ब-रू कराना और मुक्ति का मार्ग तलाशना मुक्तिबोधीय लेखनी का कर्मसूत्र बन गया। उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि में जिन सामाजिक चेतना एवं मूल्यों की बात उठाई गई है उसके लिए चार कहानियों में उन संदर्भों को उल्लेखित करने की यहाँ कोशिश की गई है। ये कहानियाँ हैं- समझौता’, ‘ज़िन्दगी की कतरन’, ‘क्लॉड ईथरलीऔर एक दाखिल दफ्तर साँझ। ये कहानियाँ खास समझ और सूझबूझ के साथ लिखी गयी हैं ।यहाँ मौजूद बेचैनियाँ कोरी आत्माभिव्यक्ति या फिर आत्मसंघर्ष की नहीं हैं , बल्कि इनमें इन दोनों के साथ -साथ जनमानस के भीतर भी ये गहरी पीड़ा बनकर संप्रेषित हों , मुक्तिबोध की सृजन की यही प्रतिबद्धता रही है । मुक्तिबोध की  कहानियाँ अपने आकार में छोटी भले ही हों , किन्तु सुगठित एवं विशिष्ठ शैली में गढ़ी गयी ये कहानियाँ प्रभावशाली तथा दूरदृष्टि सम्पन्न नज़र आती हैं ।जो बात बिहारीलाल के दोहो के लिए कही गयी है , वह मुक्तिबोध की कहानियों पर भी सटीक लगती है -" देखन में छोटन लगै घाव करै गंभीर"।                      

मुक्तिबोध की ज़्यादातर कहानियाँ चरित्र-प्रधान नहीं रही हैं। उनके पात्र सामूहिक रूप से अपनी पूरी मौजूदगी के साथ कहानी की रवानगी को बनाए रखते हैं और अपने-अपने स्तर पर मुक्तिबोध के विचारों को उद्घाटित करते हैं। कारण स्पष्ट है कि उनकी कहानियाँ नायक प्रधान नहीं हुआ करती हैं, बल्कि समाज के भीतर ही रहनेवाला आम इंसान रहा है, जो जीवन मूल्यों के सैद्धान्तिकता को जीता हुआ पाठकों के समक्ष यथार्थ की सतह पर खड़ा मिलता है। हाँ, कहानियों में भी अभिव्यक्ति के लिए उन सारी सामग्रियों का सहारा लिया गया है जिनसे अँधेरे मेंकविता गढ़ी गई है, जो हिन्दी साहित्य में एक क्लासिक है। वही तनाव, वही बेचैनी, वही आक्रोश, वही तल्ख़ी, वही विद्रोह, वही व्याकुलता- कुल मिलाकर एक बग़ावती तेवर और अभिव्यक्ति की बेचैनी- मेरे पास एक पिस्तौल है, और मान लीजिए मैं उस व्यक्ति का, जो मेरा अफसर है, मित्र है, बंधु है- अब खून कर डालता हूँ। लेकिन पिस्तौल अच्छी है, गोली भी अच्छी है; पर काम - काम बुरा है।’ (समझौता)

कहानी में पात्र एक ऐसी भाव-भूमि पर खड़ा है जहाँ ऐसे आपराधिक विचारधाराएँ पनपती हैं। हालाँकि उसका विवेकशील मन यह स्वीकारता है कि यह ठीक नहीं है। कई जगहों पर कहानी में फैंटेसी के सहारे कथानक को गति देने के साथ उसे प्रभावशाली बनाया गया है। वह फैंटेसी किशोरवय की भावुकता में गढ़ी गई फैंटेसी नहीं है, बल्कि आत्म-संघर्ष और जीवन-मूल्यों की चरम परिणति के लिए गढ़ी गई फैंटेसी है। ताकि अभिव्यक्ति को पूरी जटीलता एवं परिवेश के स्याहपन के साथ प्रस्तुत किया जा सके। मुक्तिबोध का समूचा साहित्य ही फिक्शन और फैंटेसी के सहारे अभिव्यक्ति के चरम तक पहुँच सका है। क्योंकि जीवन में अगर कल्पनाएँ न हों तो उसकी गतिशीलता अवरुद्ध हो जाएगी। इस बात की पुष्टि मुक्तिबोध की अति प्रसिद्ध उक्ति से की जा सकती है- फैंटेसी अनुभूति की कन्या है और अनुभूति का जन्म कहाँ से होता है, जब इस सवाल पर आते हैं तब उत्तर आता है कि जीवन-यथार्थ से। कल्पना का काम इस जीवन-यथार्थ को अधिक मूर्तता और रंगीनी प्रदान करना है। यही कल्पना की भरोसेमंदी है।इसीलिए इस कल्पना का सहारा लेते हुए कहानी को गति देते हुए  कल्पना की भरोसेमंदी को यहाँ साबित किया है - सबसे अच्छा है कि एकाएक आसमान से हवाईजहाज मँडराए, बमबारी हो, और यह कमरा ढह पड़े, जिससे मैं और वह दोनों खत्म हो जाएँ। अलबत्ता, भूकंप भी यह काम कर सकता है।’ (समझौता)  मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय सोच ही उन्हें कई समस्याओं से जकड़े रहता है। और ये स्थितियाँ कहीं न कहीं अमानवीयता की हद तक पहुँच जाती हैं। समस्याओं से घिरा व्यक्ति मुक्ति का कोई मार्ग न पा कर वह मुक्ति का  मार्ग आत्महत्या में ही तलाशता है। बेचैनियों की बीहड़ता में फँसा आदमी बार-बार गिरता है, उठता है, हाथों से उम्मीद की रौशनी को थामना चाहता है। लेकिन अंततः ऐसा नहीं होता। उसे अपनी आत्मा का ही कायान्तरण करने को बाध्य होना पड़ता है, क्योंकि समाज में उसे सर्वाइव करना है। -" किन्तु भावनात्मक रूप से अपनी निस्सहायता को पुनः अनुभव कर वह कहने लगा, ' नौकरी में , वर्मा साहबकोई किसी का न दोस्त है, न दुश्मन । जब किसी पर आ बनती है तब कौन अपनी गरदन फँसाकर दूसरों की मदद करता है।" ( एक दाखिल दफ़्तर साँझ )। 

कहानी में कथाकार मुक्तिबोध ने पात्रों के जरिए एक ऐसा मनोविश्‍लेषणात्मक परिवेश रचा है जिसमें साफ़  इशारा किया है कि सैद्धान्तिक लड़ाइयों में व्यक्ति सामाजिक स्तर पर ही नहीं लड़ता है, बल्कि वह अपने भीतर भी मानसिक स्तर पर एक लड़ाई लड़ता है। और वहाँ अपने मानवीय गुणों को कटघरे में खड़ा कर उससे जिरह करता है। उचित-अनुचित का, नैतिक-अनैतिक का। -कौन नहीं जानता कि क्लॉड ईथरली अणु-युद्ध का विरोध करनेवाली आत्मा की आवाज़ का दूसरा नाम है। हाँ! ईथरली मानसिक रोगी नहीं है। आध्यात्मिक अशांति का आध्यात्मिक उद्विग्नता का ज्वलंत प्रतीक है। क्या इससे तुम इनकार करते हो।’ (क्लॉड ईथरली)

छठे दशक में लिखी गई मुक्तिबोध की कहानी क्लाड ईथरलीतत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक बदलाव के परिदृश्य को छूती हुई लिखी गई है। विश्‍व फलक पर उपनिवेशवाद की पकड़ मजबूत हो रही थी। देश लम्बे समय तक गुलामी के दंश को झेल कर आज़ाद हो चुका था। विश्‍व पटल पर आर्थिक-सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना का दबाव झेलता हुआ देश संघर्ष के एक और गलियारे से गुजर रहा था। अमेरिका सरीखे शक्तिशाली देश पूर्वोत्तर विकास के साथ विश्‍व में अपनी प्रभुता के प्रदर्शन में तल्लीन हो चुका था। जिसका खामियाजा जापान को भी भुगतना पड़ा था। शायद इसीलिए वाल्टर बेंजामिन ने लिखा है- विकास का हर नया सोपान बर्बरता के नए रूपों को जन्म देता है।

युद्ध के पीछे कई परिस्थितियाँ वाहक होती हैं अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए। कभी शक्ति प्रदर्शन तो कभी खुद का बचाव भी युद्ध की ओर ढकेलता है। क्लॉड ईथरली में प्रभुता, शक्ति की सम्पन्नता पूरी दुनिया में खुद को स्थापित करने का दंभ जहाँ दिखता है वहीं उसके बाद पश्‍चाताप का घोर विषाद भी नज़र आया है, जो इस बात की ओर इशारा करता है कि विनाश किसी भी सूरत में मानसिक सुख या संतोष का वायस नहीं हो सकता। भले ही यह पछतावा प्रभुता की दावेदारी करनेवाली अमरीकी शासन का नहीं हो पर इस काम में यूज़किया गया एक साधारण नागरिक का है, जिसे वार हीरोअमेरिका घोषित करता है। वह वार हीरोहो गया, लेकिन उसकी आत्मा कहती थी कि उसने पाप किया है, जघन्य पाप किया है। ...उसने नौकरी छोड़ दी। मामूली से मामूली काम किया। लेकिन, फिर भी वह वार हीरोथा, महान था। क्लॉड ईथरली महानता नहीं, दंड चाहता था, दंड।

मानवीय मूल्यों का हनन कर निज अहं की तुष्टि की खातिर विनाश का कोई भी मार्ग किसी भी इंसान को संतोष के शिखर तक नहीं ले जा सकता। इतिहास गवाह रहा है कि सम्राट अशोक जैसा महान शासक भी विश्‍वविजेता के शीर्ष तक पहुँचकर अंततः पश्‍चाताप एवं आत्मग्लानि से भर उठा था। अपराधबोध उसकी आत्मा पर एक शिलापट की तरह जम गया था। युद्ध भूमि के दृश्य ने अशोक के मस्तिष्क पर हावी सत्ता का चतुर्दिक कामना को ध्वस्त कर हृदय में कोमल स्वच्छ करुणाश्रोत को खोल दिया और वह विश्‍व में शांति का अग्रदूत बन बैठा। अतिशयता किसी भी वस्तु का या भाव का अहितकर ही साबित हुआ है। चाहे पद का, पूँजी का, शक्ति का या फिर विशिष्टता का। क्लॉड ईथरली में ऐसी ही अतिशयता का परिणाम और परिमाण देखने को मिलता है। पूँजीवादी स्वायत्तता का चरम और चरम तक पहुँचकर दुनिया को तल में पाना और अपनी विशिष्टता के अट्टाहास में बाकियों की चीखों में सुकून को तलाशना, कुंठित व्यक्तित्व एवं संकीर्ण सोच को ही अभिव्यक्त करता है। परन्तु वार हीरोआत्मग्लानि से भर उठता है। संवेदनाएँ उसके अन्दर जीवित हैं, क्योंकि वह एक आम नागरिक है। वह कहता गया, ‘इस आध्यात्मिक अशांति, इस आध्यात्मिक उद्विग्नता को समझनेवाले लोग कितने हैं! उन्हें विचित्र-विलक्षण विक्षिप्त कहकर पागलखाने में डालने की इच्छा रखने वाले लोग न जाने कितने हैं! इसलिए पुराने जमाने में हमारे बहुतेरी विद्रोही सन्तों को भी पागल कहा गया। आज भी बहुतों को पागल कहा जाता है। अगर वह बहुत तुच्छ हुए तो सिर्फ उनकी उपेक्षा की जाती है। जिससे कि उनकी बात प्रकट न हो और फैल न जाए।मुक्तिबोध की संवेदना को मुक्तिबोधीय संवेदना कहा गया है, क्योंकि कटुता एवं कठोरता के पर्याय में उन्होंने मानवीय संवेदना को संभावित किया है। ये संवेदना ही मनुष्यता एवं पाश्‍विकता के अंतर को परिभाषित करता है। मुक्तिबोध अपनी कहन, अभिव्यक्ति एवं विषय में समय सापेक्ष तो रहे किन्तु फिर भी अपने समकालीन रचनाकारों की तुलना में उनकी दूरदर्शिता उन्हें समय से आगे ले गई है। समय की नब्ज को सीधा पकड़ते हैं। साथ ही आनेवाले दिनों में उसकी भयावहता से भी आगाह करते हैं। इसलिए उनकी कहानियाँ अपने समकालीन रचनाकारों में  उन्हें एक अलग मुकाम पर ले जाती हैं। परम्परागत ढाँचे को नकारती ये कहानियाँ नितांत एक नयी शैली में सजी-बँधी , सामाजिक पृष्ठभूमि में अपनी नैतिक जिम्मेदारियों की गठरी लिए पूरी कर्मठता के साथ अपने समय में प्रवेश करतीं हैं ।एक पूरी साहित्यक जिम्मेदारी के साथ समय से मुठभेड़ करने के लिए ।

मुक्तिबोध की कहानियाँ देश और समाज में फैलती, बल्कि तेजी से जड़ें जमाती जा रही असमानता का, विद्रूपता का जो परिदृश्य खड़ा करती हैं, वह मात्र सोचने विचारने का विषयभर नहीं रह गयी हैं, बल्कि गहन चिन्तन के साथ उन्हें विच्छिन्न करने की सिफ़ारिश करती नज़र आती हैं। कहानियों के रेशे-रेशे को खंगाला जाए तो उनकी ज़िन्दगी की विसंगतियाँ वहाँ पूरे विद्रूपता एवं विदीर्णता के साथ मौजूद मिलती हैं। और सृजनात्मकता में उसकी अभिव्यक्ति मुक्तिबोध की अपनी जवाबदेही रही है। शब्दों, परिवेशों का बार-बार दुहराव मुक्तिबोध का ज़िन्दगी से घुमा फिर कर टकराना ही दिखाता है, क्योंकि कठिनाइयाँ चाहे पारिवारिक रहीं या आर्थिक या फिर अभिव्यक्ति की, बार-बार उनके समक्ष  चुनौती बनकर आन खड़ी हुईं। -"आख़िरकार उसने जोकर बनने का बीड़ा उठाया। भूख ने उसे काफी निर्लज्ज भी बना दिया था।" (समझौता) 

परत-दर-परत कहानियों में ज़िन्दगी की दारुण मर्म ने अभिव्यक्ति पाई है और इन कहानियों को पढ़ते समय कहीं पर भी चेतना शिथिल नहीं होती, बल्कि पाठक एक तरह से दिमागी तनाव और बेचैनी से गुजरता है, जो इन कहानियों के कहन की बड़ी सफलता एवं सार्थकता है। इन्हें एक बार पढ़ लेने के बाद अवचेतन के हाशिए पर नहीं फेंका जा सकता।  कहानियों का आद्योपान्त पठन बेहद सजगता और बौद्धिक समझ की माँग करता है ।  ज़िन्दगी में आती मुश्किलों के दरम्यान ये कहानियाँ अपनी पूरी रचनात्मक-संवेदना के साथ पाठकों के स्मरण में बनी रहती हैं। 'ज़िन्दगी की कतरन' में  बढ़ती पूँजीवादी व्यवस्था, तथाकथित कथित आधुनिकता की लुभावनी दलदल में धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को खोती कई ज़िन्दगियाँ अन्जाने ही मौत को दावत दे जाती हैं। कारण स्पष्ट है, अकेलापन, भूख की मारबढ़ती मंहगाईबाज़ारवाद और इनसे उबरने के लिए रात-दिन मशीन की तरह मेहनत में जुटे रहना -"इस तालाब में जान देने वे आएँ हैं जिन्हें एक श्रेणी में रखा जा सकता है। ज़िन्दगी से उकताए और घबराए पर ग्लानि के लम्बे काल में उस व्यक्ति ने न मालूम क्या-क्या सोचा होगा!" (ज़िन्दगी की कतरन)। मुक्तिबोध की कहानियों में ज़िन्दगी का स्याह रंग अधिक गाढ़ेपन के साथ उभरा है। कारण है, कहानियाँ रूमानीयत के फ्रेम में फिट कर नहीं लिखी गयीं, ये कहानीकार के गहन चिन्तन और उससे उपजी बेचैनी से बाहर निकलकर आई हैं।


शहर के बीच में वह तालाब और उसके किनारे बैठकर किसी रूमानीयत के भँवर में बह जाने का खयाल नहीं आता, बल्कि उसके स्याह जल को देख और उसके विवादास्पद कहानी को याद कर आत्महत्या का विचार तो ज़रूर उभरता है-"तालाब के इस श्याम दृश्य का विस्तार इतनी अजीब-सी भावना भर देता है कि उसके किनारे बैठकर मुझे उदासमलिन भाव ही व्यक्त करने की इच्छा होती आई है ।" (ज़िन्दगी की कतरन)

मुक्तिबोध का चिन्तन भी एक प्रकार से द्वंद्व का चिन्तन है। और यह द्वंद्व मानसिक यंत्रणा का परिणाम था । उनके अंतस की बेचैनियाँ मुक्ति का आसरा  टटोलती फिरती रहीं, परन्तु कई जगह पूरी तरह मुक्त होने की कोशिश में भी नहीं जुटीँ- "हमारे अपने-अपने मन-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है जहाँ हम उन उच्च पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं, जिससे कि धीरे-धीरे या तो वह खुद बदलकर समझौतावादी पोशाक पहनकर सभ्य, भद्र हो जाए यानी दुरुस्त हो जाए या उसी पागलखाने में पड़ा रहे!" (क्लाड ईथरली)


अंतस के द्वन्द्व को बेहद कलात्मक एवं सहानुभूतिपूर्वक दिखाते हैं, जो आरोपित नहीं बल्कि कहानियों के सौन्दर्यतत्व के रूप में उभरी हैं और यह सौन्दर्यतत्व उनके पात्रों के नैसर्गिक रूप में ही है। लादी गयी आधुनिकता को वह खतरे के रूप में देखते थे, जो मौलिकता को नष्ट करते हैं।उनकी तलस्पर्शिनी दृष्टि आगामी भयावहता से आक्रान्त थी । मानवतावादी मूल्यों के लिए इसे जबरदस्त ख़तरा मानते थे- "भारत के हर बड़े नगर में एक- एक अमेरिका है! विकास के नाम पर अपनी-अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को दरकिनार कर खोखली जमीन पर जड़ जमाने की महत् एक अहमकाना ज़िद ही तो है जो सतत् मानवीय मूल्यों को एक-एक कर खोता जा रहा है।" (क्लाड ईथरली)

अपने मूल जड़ से कटता आदमी परिस्थितियों का गुलाम बनता जाता है। और उसका विद्रोही तेवर निस्तेज होने लगता है। "मैं उस शब्द से नहीं डरता, क्योंकि एक समय था जब उस शब्द को मैं अपना विशेषण मानता था।" (एक दाखिल दफ़्तर साँझ) कहानियों के इन संवादों में मुक्तिबोध खुद को ही ध्वनित करते हैं। "मैं किसी शब्द से नहीं डरता। लेकिन अब मैं सरकारी नौकर हूँ। पेट की ग़ुलामी कर रहा हूँ, आत्मा को बेचकर।" (एक दाखिल दफ़्तर साँझ)

आत्महत्या के खयाल के जटिल द्वन्द्व से आदमी बाहर आकर समझौतावादी रुख अख्तियार करता है- "अच्छा, मैं अपने-आपको करैक्ट कर लेता हूँ, अवसर प्राप्त क्रांतिकारी। वर्मा क्रुरतापूर्वक ज़ोर से हँस पड़ा।" (एक दाखिल दफ़्तर साँझ) हालाँकि इन संवादों में दोनों शोषित हैं। दोनों के शोषण के पीछे अफ़सरशाही नीतियाँ ही हैं। और अगला व्यक्ति के पास सब कुछ जानते-समझते हुए भी कोई विकल्प शेष न रह जाए तो वह 'समझौता' करना ही मुनासीब समझता है- "उसने मौखिक व्यायाम-सा करते हुए कहा, "मैं हर शर्त मानने के लिए तैयार हूँ। झाड़ू दूँगा। पानी भरूँगा। जो कहेंगे सो करूँगा।" " ज़िन्दगी का एक ढर्रा तो शुरू हो जाएगा' के लिए वह अपने सिद्धांतों, अपने आदर्शों और यहाँ तक कि अपने ज़मीर तक को गिरवी रख देता है और कुछ शब्दों, कुछ वाक्यों के जरिए उसे दार्शनिक भाव से सान्त्वना की कीमत चुका दी जाती है। ऐसा करना आम भाषा में तथाकथित व्यावहारिक समझ कही जाती है। "भाईसमझौता करके चलना पड़ता है ज़िन्दगी में, कभी-कभी जान-बूझकर अपने सिर बुराई भी मोल लेनी पड़ती है। लेकिन उससे फ़ायदा भी होता है। सिर सलामत तो टोपी हज़ार।" (समझौता)

दोनों ही पात्र मुक्तिबोध के विचारों और उससे उपजे द्वन्द्व को ही संप्रेषित करते हैं, भले ही इसके पीछे परिस्थितियाँ वाहक रहीं हों। किन्तु दोनों के हालात एक-से हैं- "अबे डरता क्या है, मैं भी तेरे ही सरीखा हूँ, मुझे भी पशु बनाया गया है, सिर्फ़ मैं शेर की खाल पहने हुए हूँ, तू रीछ की!" (समझौता)। दोनों अपने हालात से वाक़िफ हैं। दोनों हिंसक बनने की क़वायद करते हैं, धोखा देने को विवश होते हैं, ताकि वह जिंदा रह सके। जिंदा रहने की इस क़वायद में उन्हें क़दम-क़दम पर मरना पड़ता है- "यह तो सोचो कि वह कौन मैनेजर है जो हमें तुम्हें सबको रीछ-शेर-भालू-चीता-हाथी बनाए हुए है!" (समझौता)। कहानी में जो शोषक है उसे भी एक लोककथा याद आती है और जो शोषित है उसे भी। क्योंकि वह दोनों किसी तीसरे द्वारा शोषित हैं। किस प्रकार समाज में एक वर्ग शोषक की भूमिका निभाता है। ऐसा करना कभी-कभी परिस्थितिवश भी होता है और प्रायः रूग्ण मानसिकता भी वज़ह बनती है। इसके बीच पिसता व्यक्ति आक्रोश से भर जाता है और सोचने को बाध्य होता है कि आदमी या तो हर जगह है। मैंने ही इंसानियत का अकेले ठेका तो नहीं ले रखा है। और उसे ज़िन्दगी 'बड़ा लम्बा, बड़ा भारी संघर्ष है' लगती है। 'समझौता', 'ज़िन्दगी की कतरन' , 'क्लाड ईथरली' , 'एक दाखिल दफ़्तर साँझ' इन सभी कहानियों के पात्र मध्यमवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज के अभिशप्त वर्ग हैं और इनमें से अधिकांश पात्र अलग-अलग चरित्रों का वहन करते हुए मुक्तिबोध का ही प्रतिनिधित्व करते हैं- ''पता नहीं क्यों मैं बहुत ईमानदारी की ज़िन्दगी जीता हूँ, झूठ नहीं बोला करता, पर-स्त्री को नहीं देखता, रिश्वत नहीं लेता, भ्रष्टाचारी नहीं हूँ; दंगा या फरेब नहीं करता; अलबत्ता कर्ज़ मुझ पर ज़रूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज़ में जाती है। इस पर भी मैं यह सोचता हूँ कि बुनियादी तौर से बेईमान हूँ। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूँ।'' (क्लॉड ईथरली)

कई कहानियों में मुक्तिबोध ने अपने अस्तित्व के दबे-कुचले रूप को दिखाया है, जो आदर्शवाद का बोझ कंधे पर उठाए फिरता है और उसकी मेरुदंड उस बोझ से झुकने लगी है। वह हँस पड़ा! बोला, ''यह एक लोककथा है। इसके कई रूप प्रचलित हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वह रीछ  बी. ए. नहीं था हिन्दी में एम. ए. था।'' (समझौता) 

इसमें छिपे गहरे व्यंग्य एवं दंश को महसूस किया जा सकता है। दो पात्रों के भीतर आपसी संवादों में कहीं न कहीं पाठक भी तीसरे पात्र की तरह कहानी मे दाखिल रहता है और उन चरित्रों से तर्क वितर्क करता उन कहानियों का हिस्सा बना रहता है और उसकी ये उपस्थिति लंबे अंतराल तक बनी रहती है , जब तक ये कहानियाँ अंतस में जड़े जमाए रहती हैं ।बल्कि जब -जब इन कहानियों पर जिरह होती है , पाठक भी संवाद की स्थिति में बना रहता है।आधुनिक हिन्दी कहानियों की परम्परा में अपनी मजबूत पकड़ बनाती मुक्तिबोध की ये कहानियाँ मनोविज्ञान का व्यापक प्रभाव से गुथी हुई मिलती हैं  ।अपनी उम्र के बहुत कम समय को मुक्तिबोध ने अपने जीवन में कठोर यथार्थ और झंझावातों को सहा और ये झंझावातें क्रांतिकारी चेतना के रूप में उनमें गहरे पैठती गईं, रचना-कर्म को और प्रखरता देती गईं। श्रीकांत वर्मा ने उनकी कहानी 'सतह से उठता आदमी' के एक पात्र की व्याख्या करते हुए लिखा है- ''वे भारतीय इतिहास के सर्वनाश के जीवित प्रतीक हैं; जिन्हें परिभाषित करने की अनिवार्यता ने मुक्तिबोध को इन कहानियों की रचना के लिए विवश किया।''

महान दार्शनिक अरस्तू ने लिखा है कि 'साहित्य में व्यक्तियों के नामों और घटनाओं के अलावा सब कुछ सच ही हुआ करता है।'' लेकिन यहाँ मुक्तिबोध के मामले में व्यक्तियों के नाम बदले हो सकते हैं किंतु घटनाएँ अधिकांश उनके 'भोगे हुए यथार्थ' की ही बानगी है। श्रीकांत वर्मा को मुक्तिबोध की कहानियाँ सार्त्र के नाटक 'नो एक्ज़िट' की याद दिलाती हैं। वास्तव में देखा जाए तो इन कहानियों का सरफेस खुरदरा है। इसका खुरदुरापन रूमानीयत का ख्वाब नहीं बुनने देती, बल्कि पल भर के आलसपन में आई झपकी से भी चोंकन्ना कर देती हैं। परिवेश का चित्रण एवं उनमें तत्त्वों का चरित्रांकन कहानी को घनत्व देता है- ''रात में बुरे बासते पानी के विस्तार की गहराई सियाह हो उठती है, और, ऊपरी सतह पर बिजली की पीली रोशनी के बल्बों का रेखाबद्ध निष्कम्प, प्रतिबिम्ब वर्तमान मानवी सभ्यता को सूखेपन और वीरानी का ही इज़हार करते से प्रतीत होते हैं।'' (ज़िन्दगी की कतरन) ''लेकिन प्रकाश नाराज़-नाराज़-सा, उकताया-उकताया-सा फैला'', ''अफ़सर के चेहरे पर गहरा कड़वा ख़याल जग गया था'' -जैसी पंक्तियाँ मुक्तिबोध के विचारों का प्रतिनिधित्व करने  लगती हैं। मुक्तिबोध ने कहानी में लिखा है- ''मध्यवर्गीय समाज की साँवली गहराइयों की रूँधी हवा की गन्ध से मैं इस तरह वाकिफ़ हूँ जैसे मल्लाह समुन्दर की नमकीन दवा से।''  इन कहानियों के गढ़न के लिए जिस परिवेश को उठाया है एवं परिवेशजनित जिन-जिन समसामयिक घटनाओं को कहानी में दर्शाया है उनके यथार्थपरक चित्रण के लिए शब्दों का चुनाव बेहद संजीदगी और वैचारिक संघर्षों के बाद किया है । कालान्तर मे जब-जब इन  कहानियों पर चर्चा की जाएगी इनमें परत-दर-परत नये सूत्रों एवं तथ्यों को उजागर होने की निश्चित संभावनाएँ हैं । 

जार्ज लुकाज ने टॉमस मान के उपन्यासों के लिए- 'आलोचनात्मक बुर्जुआ यथार्थवाद' शब्द के विशेषण से नवाजा था, श्रीकांत वर्मा को यही विशेषण बिलकुल सटीक लगता है मुक्तिबोध के लिए। वहीं दूधनाथ सिंह ने कहा है- ''मुक्तिबोध की बेहतरीन कहानियों में तो चिलचिलाती दुपहरिया है, बंजर-वीरान में बिजली के खम्भे में टिकाई एक सीढ़ी है, जेल की  लगातार चलती जाती दीवार है, एक ठूँठ पेड़ है जिसमें हरे-हरे नये कंछे निकल रहे हैं।'' मुक्तिबोध की उम्दा कहानियों के ये 'हरे-हरे नये कंछे' एक उम्मीद की तरह ही हैं। जिन्हें अभी पल्लवितपुष्पित होना बाकी है, क्योंकि अंधेरा अभी कम नहीं हुआ है , स्थितियाँ अभी भयावह ही हैं, परिवेश अभी भी साँवला और स्याह ही है । बावड़ी के भीतर अब भी सभ्यता का विकास एवं मानवीय मूल्यों का अस्थि-पंजर पड़ा हुआ है । उनकी  समस्या किसी वर्ग या श्रेणी की समस्या नहीं है बल्कि समूची मानवजाति की है ।मनुष्य -विरोधी परिवेश ही चारों ओर बनता जा रहा है ।निरंतर बढ़ती जा रही संवेदनहीनता मौजूदा दौर की मूल समस्या बन गयी है ।अतः मुक्तिबोध का  विरोध किसी खास विचारधारा या व्यक्ति विशेष का  नहीं है वरन् सिस्टम का विरोध है । उनका साहित्य व्यवस्था के खिलाफ जन आन्दोलन की पूरजोर सिफारिश करता हुआ  चेतना को झकझोरता है । 

मार्क्सवाद का पूँजीवादी-विरोधी सूत्रउपभोक्ता वादी संस्कृति, व्यक्तित्व का द्वन्द्व एवं मानवीय मूल्यों का बचाव मुक्तिबोध के विचारों का, उनके चिन्तन का मुख्य हिस्सा बनती हैं। आज भले ही मुक्तिबोध की रचनाओं का वितान जितना भी व्यापक हो, किन्तु अपने समय में मुक्तिबोध को जीवन और रचना की अभिव्यक्ति में  भी जोखिम उठाना पड़ा था । निर्वासन की पीड़ा को सहना पड़ा था। बावजूद इसके, न तो उन्होंने अपनी जीवन दृष्टि बदली और न ही रचनात्मक कथ्य को। कई बार मुक्तिबोध का लेखन अन्योक्ति और अमूर्तता की हद को भी पार करते दिखाई देता है। फिर भी सृजनात्मकता के उस विषय को नकारते हुए आगे नहीं बढ़ा जा सकता, बल्कि पाठक सोचने पर मजबूर होता है और भविष्य को अंधकार की ओर क्रमशः बढ़ते हुए देख विचलित होता है। "किन्तु कल रात का उसका सपना, दु:स्वप्न  के भीतर का एक भीषण दुःस्वप्न रहा है।" (समझौता)

सामाजिक बंदिशें टूटती हैं तो टूट जाएँ, लेकिन व्यक्ति के मुक्ति के मार्ग को अवरुद्ध कर,  उसे कुंठित कर तथाकथित रूढ़िवादी परम्पराओं का निर्वहन होता रहे, मुक्तिबोध इसकी मुखालफत करते नज़र आते हैं। व्यक्ति की अस्मिता, उसके अस्तित्व की रक्षा मुक्तिबोधीय-संवेदना की अनिवार्य शर्त है। उन्हें कुचलकर,  दबा कर उनकी स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता का हनन कर किसी भी स्वस्थ समाज का निर्माण मुमकीन नहीं है। मुक्तिबोध समय और समाज में हो रहे परिवर्तनों को पूरी संवेदना एवं बेचैनियों के साथ परख रहे थे, उसे अनुभव कर रहे थे। उनकी 'बौद्धिकता' किसी ' एकेडेमिक कैम्पस' का ही हिस्सा नहीं रही थी, बल्कि जन-साधारण के बीज अधिक क्रियाशील रही। उनकी कार्यशाला समूचा विश्व रहा है। उनकी दृष्टि चेतना-सम्पन्न रही। क्योंकि अपने समय के तनावों और जटिलताओं से बखूबी वाकिफ़ रहे। इसलिए अपने समाज के प्रति नैतिक जिम्मेदारियों से सदैव सतर्क रहे। इन सबके लिए जीवटता, साहस और आत्मविश्वास मुक्तिबोध जीवन के यथार्थ से ग्रहण करते हैं।

मुक्तिबोध पर मार्क्सवादी विचारों का एक निश्चित प्रभाव रहा, किन्तु जीवन-दृष्टि मानवीय-मूल्यों से अधिक सम्पन्न रही। रचनात्मकता में भी द्वन्द्व रहा, और यह द्वन्द्व कहानियों के पात्रों में भी दिखा है। पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों में सिद्धान्तवादी विचारों का ही विनिमय होता दिखा है। एक तरह से वैचारिकता का द्वन्द्व भी उनके पात्रों की अभिव्यक्ति से समझा जा सकता है। इसलिए कहानियों की बुनावट जटिलता एवं दुरुहता के साथ संपन्न हुई है।वैसे देखा जाय तो उनकी अलग -अलग कहानियों में मुक्तिबोध का वैचारिक संघर्षों की झलक है और एक एक कहानियों की पृष्ठभूमि में मुक्तिबोध की बेचैनी , ईमानदारी , सच्चाईअधीरता , अकुलाहट सभी कुछ पाठकों के समझ और दुनिया के सामने सकुचाई हुई सी ही  आई हैं । फिर भी इन सभी कहानियों की एक ख़ासीयत रही है कि ये सारी कहानियाँ अलग -अलग पृष्ठभूमि को छूती हुई  भी एक दूसरे में विलय होती महसूस होती हैं । ये कहानियाँ जिन्दगी के विभिन्न रंगों एवं आयोजनों की तरह एक दूसरे से गहरा सरोकार रखी हुईं हैं । एक कहानी एक परिदृश्य को चित्राकित करती हुई जिस छोर पर खत्म होती है , वहीं से दूसरी कहानी बुनियाद रखी जा चुकी होती है । इसीलिए मुक्तिबोध की सभी कहानियाँ एक दूसरे की सीमांत को छूती हुई एक दूसरे से पूरी तरह संपृक्त हैं ।एक दूसरे की पूरक हैं ।हिन्दी कथा-साहित्य में मुक्तिबोध की ये कहानियाँ अपने आप में एक उपलब्धि हैं ।उनका सर्जनात्मक कौशल कहा जा सकता है कि सामान्य परिवेशसाधारण पात्र और समसामयिक घटनाओं के सहारे विशिष्ट एवं व्यापक कहानी का सृजन कर लेते हैं । संभवतः इसीलिए शमशेर बहादुर सिंह के अनुसार मुक्तिबोध की कहानियाँ सहज ही हर स्थिति के अतिसामान्य में असामान्य और अद्भुत का भरम पैदा कर देती हैं। इसे हम तटस्थ-सी काव्यकर्मी कल्पना-शक्ति का कमाल कह सकते हैं। ये कहानियाँ जीवन के ठहरे नैतिक मूल्यों पर सोचने के लिए पाठक को विवश करतीं हैं। 
माना जाता है कि आर्थिक दबाव में आकर कहानियाँ लिखी ।किन्तु उनकी कहानियाँ आर्थिक संकट एवं संघर्ष से मुक्ति पाने के लिए धनोपार्जन निमित्त नहीं लिखी गयी , बल्कि रूढ़िवादी नैतिकता को विखंडित करती , मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना की पैरोकार बनकर बौद्धिक उत्कृष्टता की बेजोड़ उदाहरण प्रस्तुत करती नज़र आती हैं ।साथ ही अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति पूरी तरह सजग एवं तत्पर दिखती हैं ।

मुक्तिबोध का जीवन-यथार्थ और सामाजिक-सरोकार के प्रति गहरा जुड़ाव रहा है और विज़न इतना स्पष्ट रहा है कि सारी सीमाओं और तमाम भाषायी बाधाओं के बावजूद कहानियों का कथ्य या कहन की शैली अपने पूरे प्रभावों के साथ प्रस्तुति पाई है। ज़िन्दगी की ये संवेदनाएँ मुक्तिबोध के समूचे साहित्य का मूल तत्व हैं और इन्हें पाठकों तक संप्रेषित कर ही मुक्तिबोध सच्चे मायने में जनसरोकार से जुड़े आत्मा के शिल्पीकार हैं।

नि:संदेह साहित्यकार युगीन परिस्थितियों से तटस्थ होकर साहित्य-सृजन नहीं कर सकता। युग विशेष की परिस्थितियों में सामाजिक और राजनीतिक स्थितियाँ विशेष रूप से चिन्हित की जाती हैं और रचनाकार इन परिस्थितियों के मद्देनजर ही अपनी सृजनात्मकता को आयाम देता है और उसका साहित्य समय-परिधि तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि अपने समय की नब्ज पर उँगली रखते हुए समय के पार जाकर भी मूल्यांकित होता है और कालजयी रचना सिद्ध होता है। मुक्तिबोध की ये कहानियाँ किसी सत्ता तक पहुँचने की सोपान नहीं रहीं बल्कि उनका साहित्य जन-चेतना का समुच्चय और जन-जागरण का व्यापक अभियान है।