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Monday, August 22, 2022

आलोचना का सकारात्मक पक्ष

 

पुलिस में नौकरी, यानी धौंस-पट्टी का राज. वाह जी वाह, क्या हसीन है निजाम. पुलिस ही नहीं, गुप्तचर पुलिस, वह भी आफिसर . फिर तो कुछ बोलने की जरूरत तो शयद ही आए कि उससे पहले ही चेहरे के रूआब को देखकर, यदि मूंछे हुई तो और भी, आपराधी ही क्या, अपनी नौकरी पर तैनात कोई साधारण कर्मचारी, बेशक ओहदेदारी में किसी रेलवे स्टेशन का स्टेशन मास्टर तक हो चाहे, बुरी तरह से चेहरे पर हवाइयां उडते हुए हो जाए और यदि ओफिसर महोदय ने अपना परिचय दे ही दिया तो निश्चित घिघया जाये. यह चित्र बहुत आम है लेकिन एक सम्वेदनशील रचनाकार इस चित्र को ही बदलना चाहता है. निश्चित तौर पर श्री प्रकाश मिश्र भी ऐसे ही रचनाकर हैं. अपनी स्मृतियों के देहरादून को खंगालते हुए वे इससे भिन्न न तो हैं और न ही होना चाहेंगे, यह यकीन तो इस कारण से भी किया जा सकता है कि एक दौर में वे उन्न्यन जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का स्म्पादन करते रहे हैं.   

देहरादून की स्मृतियों पर केंन्द्रित होकर लिखे जा रहे संस्मरण के उन हिस्सों की भाषा से श्री प्रकाश मिश्र के पाठकों को ही फिर एतराज क्यों न हो, जहाँ उनका प्रिय लेखक उन्हें दिखाई न दे रहा हो. एक मॉडरेटर होने के नाते इस ब्लॉग के पाठकों की क्षुब्धता के लिए खेद व्यक्त करना मेरी नैतिक जिम्मेदारी है. फिर संस्मरण की भाषा पर एतराज तो किसी यदा कदा के पाठक का नहीं है, बल्कि जिम्मेदार नागरिक चेतना से भरे एक ऐसे संवेदंशील रचनाकर, चंद्रनाथ मिश्र, का विरोध है, जिनके सक्रिय योगदान से यह ब्लाग अपनी सामग्री समृद्ध करता रहता है. चंद्रनाथ मिश्र के एतराज मनोगत नहीं बल्कि तथ्यपूर्ण है, “एक वरिष्ठ लेखक और 'उन्नयन ' जैसी लघु पत्रिका के संपादक रहे श्री प्रकाश मिश्र जैसे व्यक्ति से इस तरह के आत्म केंद्रित और नकारात्मक सोच की आशा नहीं की जा सकती. पूरे आलेख में प्रारंभ से अंत तक उन के सानिध्य में आने वाले व्यक्तियों के जीवन और व्यक्तिगत रूप रंग पर आक्षेप के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं. रेलवे के छोटे कर्मचारी से लेकर स्टेशन मास्टर तक , पीतांबर दत्त बड़थ्वाल जैसे शिक्षाविद और वरिष्ठ साहित्यकार, उनकी संताने,उनके गांव के सारे लोग प्रकाश मिश्र की इस आवानछनीय टीका टिप्पणी के दायरे मे शामिल हैँ. देहरादून के तात्कालिक साहित्यिक परिप्रेक्ष्य पर उनकी कोई उल्लेखनीय टिप्पणी तो कहीं भी नजर नहीं आती. यहां के वरिष्ठ साहित्यकारों के साहित्य कर्म पर लिखने के बजाय, वे उनके व्यक्तिगत, शारीरिक, जातिगत और स्थान विशेष में रहने वालों को सामूहिक रूप से कुरूप और अनाकर्षक घोषित करने का प्रयत्न करते हुए दिखाई देते हैं.”

 

यह सही है कि एक पात्र की पहचान कराने के लिए एक गद्य लेखक अक्सर पात्र के रूप रंग, उसकी चाल, हंसने-बोलने के अंदाज, वस्त्र विन्यास और बहुत सी ऐसी रूपाकृतियों का जिक्र करना जरुरी समझते है और यह भी स्पष्ट है कि उस हुलिये के जरिये ही वे प्रस्तुत हो रहे पात्र के प्रति लेखकीय मंशा को भी चुपके से पाठक के भीतर डाल देते है. वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत जी के द्वारा अक्सर कही गई बात को दोहरा लेने का मन हो रहा, जब वे कहते है, "जब कोई लेखक अपने किसी पात्र के बारे में लिखता है कि 'वह चाय सुडक रहा था' तो उसे अपने पात्र के परिचय के बारे में अलग से कुछ बताने की जरुरत नहीं रह जाती कि वह अमुक पात्र कौन है, किस वर्ग और पृष्ठभूमि का पात्र है." कथाकार सुभाष पंत की यह सीख हमें भाषा की ताकत से परिचित कराती है और साथ ही उसे यथायोग्य बरतने के लिए सचेत भी करती है. श्री प्रकाश मिश्र एक जिम्मेदार लेखक है. स्वयं देख सकते हैं, भाषा को बरतने वह  चूक उनसे क्यों हो गई कि जिन व्यक्तियों को प्रेम से याद करना चाह रर्है थे, उनके हुलिये के वर्णन पर ही पर चन्द्र्नाथ मिश्र और देहरादून के अन्य जिम्मेदार नागरिक एवं रचनाकारों को असहमति के स्वर में सार्वजनिक होना पडा है.

उम्मीद है श्री प्रकाश मिश्र जी चंद्रनाथ मिश्र के एतराजों को सकारत्मक रूप से ग्रहण करेंगे और पुस्तक के रूप संकलित किये जाने से पहले वे दोस्ताना एतराज एक बार लेखक को दुबारा से अपनी भाषा के भीतर से गुजरने की राह बनेगें.      


विजय गौड़ 

   

Sunday, October 17, 2021

एक तीर से दो निशाने

 

पिछले दिनों अनिल कुमार यादव और अखिलेश विवाद के बाद मैंने फेसबुक पर दोनों से ही असहमत होते हुए एक पोस्‍ट लगाई थी। मित्रों ने कमेंट किये। बहुत से मित्र संदर्भ को पकड़ नहीं पाये। कुछ ने संदर्भ पकड़ लिया था। मेरा अनुमान है कि संदर्भ न पकड़ पाने वाले मित्रों में निश्चित ही दो तरह के लोग हैं। एक वे, जो वाकई अनजान थे और दूसरे वे जो संदर्भ से वाकिफ होते हुए भी चाहते रहे होंगे कि मैं स्‍पष्‍ट तरह से कुछ कहूं। हालांकि उनके लिए भाई शशिभूषण बडूनी के कमेंट का जवाब देते हुए मैंने एक इशारा छोड़ दिया था। खैर, जो फिर भी नहीं समझ पाये तो मैं अब इस उधेड़बुन में नहीं पड़ना चाहता कि वे वाकई नादान थे, या वे मेरे पक्ष को स्‍पष्‍ट जानने के लिए कुछ कह रहे थे। वैसे एक दिलचस्‍प वाकया भी घटा था, मीना चुग नाम की कोई एक पाठक (जिसका नाम उससे पहले मैंने कभी नहीं जाना),  जो संदर्भों से पूरी तरह वाकिफ रही, कुछ मित्रवत संवाद में अनिल कुमार यादव का पक्ष लेते हुए जरूर आयीं। लेकिन अफसोस की संवाद समाप्ति पर उस श्रृंखला का अब कोई कमेंट मेरी पोस्‍ट पर नहीं दिख रहा। और खोजने पर मीना चुग नाम की उस प्रोफाइल को ढूंढना संभव नहीं हो रहा।संभवत: छद्म नाम की उस प्रोफाइल के पीछे कोई करीबी मित्र ही होना चाहिए। चूंकि पोस्‍ट के मूल में वह सिर्फ अनिल कुमार यादव का विरोध देख रही/रहे थी/थे, इसलिए उन्‍हें मेरे जवाबी कमेंट सिर्फ अनिल कुमार यादव के विरोध में ही दिख सकते थे। लिहाजा जरूरी हो गया कि मुझे खुलासा कर देना चाहिए कि मेरा पक्ष आखिर क्‍या है।

 

सर्वप्रथम तो यह स्‍पष्‍ट है कि लम्‍बे समय तक खामोशी का प्रकरण, जिसे लेखक अनिल कुमार यादव ने एक पत्रिका 'तदभव' के संपादक अखिलेश के विरुद्ध दर्ज किया, मैं उसे हिंदी की दुनिया (पत्र पत्रिकाओं सहित अन्‍य जगहों पर भी) के भीतर व्‍याप्‍त अलोकतांत्रिक और गैर पेशेवर मानता हूं और इस बिना पर पत्र पत्रिकाओं के संपादकों के व्‍यवाहर में उस चेहरों को देखता हूं जिसका अक्‍श अकसर ब्‍यूरोक्रेटिक व्‍यवाहर वाला रहता है। लेकिन अनिल कुमार यादव के स्‍वर में जो विरोध मुझे दिखता है, उसके चेहरे को इससे भिन्‍न भी नहीं पा रहा हूं। यानी, इसे दो ब्‍यूरोक्रेट के बीच के झगड़े से भिन्‍न नहीं मान रहा हूं। दिक्‍कत यह है कि दोनों ही अपने-अपने कारण से मुझे पसंद हैं और दोनों से ही असहमति है।

थोड़ा विस्‍तार में कहने से पहले स्‍पष्‍ट करता चलूं कि संपादकों के अलोकतांत्रिक, गैरपेशेवर और ब्‍यूरोक्रेटिक व्‍यवाहर के बावजूद अकार, पहल (अब बंद हो गई), तदभव, हंस, कथादेश, परिकथा, समयांतर आदि कुछ हिंदी पत्रिकाएं मेरी पहली पसंद है। सवाल यह नहीं कि एक लेखक के रूप में मैं इनमें से किसी में कभी प्रकाशित हुआ, या, नहीं। उसके पीछे सीधी वजह है कि ये ऐसी पत्रिकाएं हैं जिनसे मुझे देश, दुनिया को देखने की तमीज मिलती रही है और मिलती रहती है। साथ ही यह भी कहना चाहता हूं कि कंटेट की खूबियों के बावजूद हिंदी की अलोकतांत्रिक दुनिया का असर इन पत्रिकाओं में भी भरपूर है। जिनमें कंटेट ही न भाये, उनके बाबत तो क्‍या ही कहूं, उनकी अलोकतांत्रिकता तो उस कारण भी दिख जाती है।

संपादकों का गैरपेशेवर व्‍यवाहर और झूठी अकड़ इनमें प्रकाशित होने वाली सामाग्री के संग्रह करने के तरीकों और उनके चयन में बरती गई व्‍यवाहरिकता को इतना अपारदर्शी बनाये रहती है कि एक आम पाठक उस प्रक्रिया को कभी भी और कहीं से भी, नहीं जान सकता। अपने सीमित अनुभव से कहूं तो लेखक और संपादक के बीच एक हद तक व्‍यक्तिगत संबंध ही वहां प्रभावी रहता है। रचना के आमंत्रण की बहुत औपचारिक सी घोषणा के बावजूद प्रकाशन के लिए रचना के चयन में संपादक-लेखक संबंध ही महत्‍वूपर्ण हो उठता है। इन सब स्थितियों की मार हमेशा उस रचनाकार पर पड़ती है जो नया-नया लिखना शुरु कर रहा है, या जो व्‍यक्तिगत संबंधों को बनाने में उतना माहिर नहीं, या उस तरह के व्‍यवाहर से परहेज रखता हो। जबकि वातावरण के झूठ से तैयार किये जा चुके 'स्‍टार' लेखकों के लिए छपना-छपाना कभी कोई प्रश्‍न ही नहीं रहता। जिसका जो 'गुट' वह हमेशा वहां का प्रका‍शित लेखक। बल्कि इतनी सहज स्थिति कि बेशक अभी किसी रचना का विचार भर कौंधा हो, और अपने 'प्रिय' संपादक से लेखक ने जिक्र भर कर दिया हो, तो अगले अंक में रचना की घोषणा हो चुकी होती है। जबकि पहले से रचना भेजा हुआ कोई अनाम/संकोची रचनाकार संपादक की स्‍वीकृति के इंतजार में सालों गुजारते हुए रहता है। ऐसे में 'स्‍टार' लेखक क्‍यों नहीं फिर अतिमहत्‍वाकांक्षाओं के झूले पर झूलें। वह दम्‍भ जो एक संपादक के भीतर है, वे उसे ही क्‍यों न वहन करें।

अनिल कुमार यादव के विरोध से मेरा विरोध का कारण उनके इस अंदाज में ही है। क्‍योंकि वहां भी संपादकीय अलोकतांत्रिकता का सवाल निजी वजहों की उपज है। खुद अनिल बताते हैं कि संपादक ने उनसे प्रकाशन के लिए कुछ मांगा। अब वह किंही कारणों से, मांगे जाने के बाद भी ताजे-ताजे प्रकाशित हो चुके अंक में नहीं दिखा होगा तो उनके अहम को जो चोट लगी, उसे संपादक सहलाये भी नहीं तो यह तो नहीं चलेगा। और फिर जो हो सकता था हुआ। उस होने का भी अपना मजा तो यह है न कि अतिमहत्‍वाकांक्षाओं के झूले की पेंग बढ़ाना और भी आसान है! एक तीर से दो निशाने। 'अलोकतांत्रिक' संपादक की हेकड़ी भी निकल जाये और ऐसा प्रचार भी हो जाये कि प्रकाशित होने से पहले ही अपना लिखा 'चर्चा' में आ जाये। क्‍योंकि हिंदी में पुस्‍तक प्रकाशन भी तो उसी गैरपेशेवराना अंदाज का खेला है, जहां चयन की प्रक्रिया का मानदण्‍ड रचना से नहीं, अकसर किंही अन्‍य वजहों से ही रंगा हुआ है।