मंचों से हास्य की बहुत क्षणिक फुहार बिखरने वाले कवियों के रूप्ा में ही मैं काका हाथरसी का जानता रहा। हिन्दुस्तानी कला, संगीत के प्रति उनके गहरे अनुराग वाली गम्भीरता से मेरा कोई परिचय न था। मैं तो हिन्दूस्तानी संगीत की शिक्षा ले रही बिटिया से उसके विषय की एक हद तक जानकारी के साथ उससे बातचीत कर सकने भर के लिए कोई ऐसी पुस्तक खोजना चाहता था जो मुझे हिन्दुस्तानी संगीत से परिचित करा दे। लेकिन जानता था कि हिन्दी में ऐसी किताब खोजना अपने आप में yyyyyyyyyकोई आसान काम नहीं। क्योंकि हिन्दी के प्रकाशन जगत में यदि देखें तो सरकारी खरीद में खपने वाली शुद्ध साहित्यिक पुस्तकों के अलावा अन्य विषयों की पुस्तकों का कोई विशेष प्रकाशन नहीं। मसलन आप खेल संबंधी जानकारियों से वाकिफ होना खहते हैं तो भूल जाइये कि कोई अच्छी किताब आप ढूंढ सकें, विज्ञान, अर्थशास्त्र या अन्य कोई भी विषय। सिर्फ पाठ्य पुस्तकनुमा बेशक मिल जाये लेकिन विषयगत रूप्ा में किताबों को ढूंढने के लिए आपको उन्हीं प्रकाशकों की सूचियों को खंगालना होगा और कहीं गलती से कोई एक-आध किताब मिल भी सकती है। लेकिन उन किताबों का अंंदाज भी साहित्यनुमा ही होगा और पड़ताल करेगें तो पायेगें कि कोई साहित्यकार महोदय ही हैं जिन्होंने फिल्म पर कोई अच्छी किताब लिखी तो प्रकाशक से उसे छाप दिया। किताब ढूंढने की अपनी परेशानी को मैंने पुस्तक मेले में होने के दौरान भाई योगेन्द्र आहूजा से शेयर किया और हम दोनों ही मेले में वैसी कोई किताब ढूंढने लगे। एन0बी0टी0 के स्टाल पर वाद्ययंत्रों की जानकारी देती एक किताब थी जो कभी पहले मैं खरीद चुका था। उसके अलावा कहीं कुछ नहीं दिखा। योगेन्द्र जी की जानकारी में काका हाथरसी का नाम था कि उन्होंने हिन्दूस्तानी संगीत पर शायद कुछ लिखा है। लेकिन बहुत स्पष्टतौर पर वे कुछ बता नहीं पा रहे थे। चूंकि योगेन्द्र जी खुद संगीत के अच्छे अनुरागी हैं और गम्भीर व्यक्ति हैं, इसलिए मैं उनकी जानकारी और यादाश्त को दरकिनार नहीं कर सकता था लेकिन काका हाथरसी जी के नाम के साथ अपने मन मुताबिक किताब ढूंढ पाऊंगा, इस बात के लिए आश्वस्त नहीं हो पा रहा था। हाल नम्बर 18 के भीतर यूंही विचरते हुए यकायक हम एक ऐसे स्टााल के सामने थे जहां गायन, वादन और नृत्य से ही संबंधित पुस्तकें ही तरतीब से रखी थी। यह काका हाथरसी का प्रकाशन था, 'संगीत कार्यालय, हाथरस""।
यकीन जानिये ऐसा विशेष काम बिना गम्भीर हुए संभव नहीं। व्यवसाय मात्र की समझ से भी अंजाम नहीं दिया जा सकता। क्योंकि हिन्दी की सरकारी खरीद यहां वैसा मंजर नहीं रचेगी जो किसी को भी धंधा कर लेने को उकसाने वाला हो। लेकिन यह तय बात बात है कि हिन्द में ऐसे विषयगत प्रकाशकों की रिक्तिता अभी भी एक बड़े बाजार की संभावनाओं के साथ है जो पाठक पर निर्भर हो सकता है। फिल्म पर, पेटिंग पर, मूर्तिशिल्प पर, और भी न जाने कितने ही विषय हो सकते हैं जो नये उभरते उद्यमी को व्यवसाय का आधार दे सकते हैं और शुद्ध साहित्यिक पुस्तकों के अलावा भी अन्य तरह की पुस्ताकों का प्रकाशन हिन्दी में शुरू हो।