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Friday, August 12, 2022

कहने और सुनने का बोध

कानपुर में रहने वाले युवा कवि योगेश ध्यानी की ये कविताएं यूं तो शीर्षक विहीन है. लेकिन एक अंतर्धारा इन्हें फिर भी इतना करीब से जोड्ती है मानो खंडों मे लिखी कोई लम्बी कविता हो. एक ऐसी कविता, जिसका पाठ और जिसकी अर्थ व्यापति किसी सीमा में नहीं रहना चाह्ती है. अपने तरह से सार्वभौमिक होने को उद्यत रहती है, वैश्विक दुनिया का वह अनुभव, पेशेगत अवसरों के कारण जिन्होंने कवि के व्यक्तित्व में स्थाई रूप से वास किया हो शायद. कवि का परिचय बता रहा है पेशे के रूप में कवि योगेश ध्यानी मर्चेंट नेवी मे अभियन्ता के रूप मे कार्यरत है. अपनी स्थानिकता के साथ गुथ्मगुथा होने की तमीज को धारण करते हुए वैश्विक चिंताओं से भरी योगेश ध्यानी की ये कविताएँ एक चिंतनशील एवं विवेकवान नागरिक का परिचय खुद ब खुद दे देती है. पाठक उसका अस्वाद अपने से ले सके, इस उम्मीद के साथ ही इन्हें प्रकाशित माना जाये.

परिचय:

आयु – 38 वर्ष

मर्चेंट नेवी मे अभियन्ता के रूप मे कार्यरत

साहित्य मे छात्र जीवन से ही गहरी रुचि

कादम्बिनी, बहुमत, प्रेरणा अंशु, साहित्यनामा आदि पत्रिकाओं तथा पोषम पा, अनुनाद, इन्द्रधनुष, कथान्तर-अवान्तर, मालोटा फोक्स, हमारा मोर्चा, साहित्यिकी आदि वेब पोर्टल पर कुछ कविताओं का प्रकाशन हुआ।

कुछ विश्व कविताओं के हिन्दी अनुवाद पोषम पा पर प्रकाशित हैं।



कविताएं


योगेश ध्यानी


1

किसी के पूरा पुकारने पर
थोड़ा पंहुचता हूँ
ढूंढता हूँ कहाँ हूँ
छूटा बचा हुआ मैं

होने और न होने के बीच
वह क्या है जो छूट गया है
जिसमें पूर्णता का बोध है

पूरा निकलता हूँ घर से
और आधा लौटता हूँ वापस
थोड़ा-थोड़ा मन मार आता हूँ
इच्छाओं पर
खाली मन में
अनिच्छाएं लिये लौटता हूँ

कोई दाख़िल नहीं होता
समूचा भविष्य में
अतीत में छूटता जाता है थोड़ा
मैं छूटता जा रहा हूँ थोड़ा सा
स्वयं से हर क्षण

जीवन जब आखिरी क्षण पर होगा
सिर्फ सार बचेगा
उससे ठीक पहले पिछले क्षण में
छूट चुका हूंगा सारा मैं ।

 

2

अधूरी पंक्ति के पूरा होने तक
लेखक के भीतर रहता है
कुछ अधूरा

हर लेखक के भीतर रहते हैं
कितने अधूरे

हर अधूरा दूसरे अधूरों से
इतना पृथक होता है
कि सारे अधूरे मिलकर भी
नहीं हो पाते पूर्ण

एक लेखक
जीवन भर ढोता है अपूर्णताएं
और दफ्न हो जाता है
मृत्यु पश्चात
उन सारे अधूरों के साथ
जिनके भाग्य में नहीं थी पूर्णता ।

 

3

एक आदमी कुछ कह रहा है
बाकी सब समवेत स्वर में कहते हैं
"सही बात"

बतकही चलती रहती है
कुछ समय बाद
दूसरा आदमी कहता है
पहले से ठीक उल्टी बात
बाकी सब फिर कहते हैं समवेत
"सही बात"

ये सब किसी मुद्दे के हल के लिए नहीं बैठे
अपने-अपने सन्नाटों से ऊबकर
सिर्फ साथ बैठने के सुख के लिये
बैठे हैं साथ ।

4

गेंहू और पानी जितने अलग हैं,
बाहर से
तुम्हारे और मेरे दुख

मगर भीतर से इतने समान
कि यकीन जानो
गूंथा जा सकता है उन्हें,
बेला जा सकता है
और बदला जा सकता है
खूबसूरत आकार की
रोटियों में ।


5

कब चाही मैंने हत्या,
रक्त के पक्ष में कब सुनी
तुमने मेरी दलील

मैंने तो रोपना चाहा जीवन,
चाहा सदा फूलों का सानिध्य

किस सांचे में ढाली
तुमने मेरी धार

तुम तो समझ सकते थे
कुल्हाड़ी और कुदाल का फर्क

मेरे मन की क्यों नहीं सुनी
तुमने लोहार !