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Friday, April 24, 2009

आखेट पर निकलने का शौक रखने वालों



1931 में गलिली इलाके के सफ्फूरिया गांव में जन्मेंफिलिस्तिनी कवि ताहा मुहम्मद अली के अनुवाद यादवेन्द्रजी ने किए हैं। ताहा मुहम्मद की कई कविताओं के अनुवादकी यह दूसरी कड़ी है। ताहा की कविताओं में मानवीय गरिमाको बचाए रखने की जबरदस्त ललक है। उनके रचना संसारसे पाठकों का एक जीवन्त परिचय हो, यादवेन्द्र जी की इसपहल का हम स्वागत करते हैं। उनकी अन्य कविताओं कोअगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा।

फिलिस्तिनी कविता
ताहा मुहम्मद अली









चेतावनी

आखेट पर निकलने का शौक रखने वालों
और शिकार पर झपट्टा मारने का श्री गणेश करने वालों-
अपनी रायफल का
मुंह मत साधो मेरी खुशी की ओर-
यह इतना मूल्यवान नहीं
कि जाया की जाए इस पर एक भी गोली-
(बर्बादी है यह खालिस बर्बादी)
तुम्हें जो दिख रहा है
हिरन के बच्चे की तरह
फुर्तीला और मोहक
कुलांचें भरता हुआ
या तीतर की तरह पंख फड़फड़ाता हुआ-
यह मत समझ लेना कि
बस खुशी यही है
मेरा यकीन मानो
मेरी खुशी का
कुछ भी लेना देना नहीं है।









वही जगह


मैं आ तो गया फिर उसी जगह
पर जगह का मायना
केवल मिट्टी, पत्थर और मैदान होता है क्या ?
कहां है वह लाल दुम वाली चिड़िया
और बादाम की हरियाली
कहां है मिमियाते हुए मेमने
और अनारों वाली शामें ?
राटियों की सुगंध
और उनके लिए उठती कुनमुनाहटें कहां हैं ?
कहां गईं वे खिड़कियां
और अमीरा की बिखरी हुई लटें ?
कहां गुम हो गए सारे के सारे बटेर
और सफेद खुरों वाले हिनहिनाते हुए घ्ाोड़े
जिनकी केवल दाईं टांग खुली छोड़ी गयी थी ?
कहां गईं वे बारातें
और उनकी लजीज दावतें ?
वे रस्मों रिवाज और जैतून वाले भोज कहां चले गए ?
गेहूं की बालियों से भरे लहरदार खेत कहां गए
और कहां चली गईं फूलवाले पौधों की रोंएदार बरौनियां ?
हम खेलते थे जहां
लुकाछिपी का खेल देर-देर तक
वो खेत कहां चले गए ?
वो सुगंध से मदमस्त झाड़ियां कहां चली गईं ?
जन्नत से चूजों पर सीधे उतर आने वाली
पतंगे कहां गई
जिन्हें देखते ही
बुढिया के मुंह से निकलने लगती थीं गालियों की झड़ी :
हमारी चित्तीदार मुर्गियां चुराने वालों
सब के सब तुम, छिनाल हो-
मुझे मालूम है तुम उन्हें हजम नहीं कर सकते-
फूटो यहां से छिनालों
तुम मेरी मुर्गियां कतई हजम नहीं कर पाओगे।








हमारा मरना

जब हम मरेंगे
और थका हारा निढ़ाल दिल
मूंद लेगा अंतिम तौर पर अपनी पलकें
उन सबसे बेखबर
कि हमने जीवन भर किया क्या-क्या
कि पल-पल हमने किसकी उत्कंठा में बिताए
कि क्या-क्या देखते रहे स्वप्न
कि किन-किन बातों की करते रहे लालसा
और अनुभूति
तो
पहली चीज
जो सड़ गल कर नष्ट होना शुरू होगी
हमारे अंदर की दुनिया में
वह
होगी
नफरत।

Friday, April 17, 2009

यह विदाई का नहीं साथ चलने का वक्त है

यादवेन्द्र जी से हमारे पाठक अच्छे से परिचित हैं। विज्ञान के अध्येता यादवेन्द्र जी के काम के उस अनूठेपन, जिसमें मानव मूल्यों को बचाए रखने की उनकी चिताएं बार बार प्रकट हुई हैं, को भी पाठकों ने अच्छे से पहचाना हैं। यादवेन्द्र जी की यह खूबी भी है कि वे ढूंढ कर ऐसे साहित्य के अनुवाद से हिन्दी पाठक जगत को अवगत करानेके लिए पूरी प्रतिबद्धता के साथ जुटे हैं। फिलिस्तिनी कवि ताहा मुहम्मद अली को भी वे इसी के चलते खोज पाएं हैं।उनके द्वारा किए गए ताहा मुहम्मद की कई कविताओं के अनुवाद हमें प्राप्त हुए हैं। यहां उनके द्वारा भेजा गया ताहा मुहम्मद का संक्षिप्त परिचय और दो कविताएं प्रस्तुत हैं। अन्य कविताएं भी प्रकाशित हों तब तक के लिए कुछ प्रतीक्षा तो करनी ही होगी। सफर में बने रहें तो जल्द ही उन्हें भी पढ़ पाएंगे।

1931 में गलिली इलाके के सफ्फूरिया गांव में ताहा मुहम्मद अली का एक साधारण किसान परिवार में जन्म हुआ, और प्राइमरी स्तर कुल जमा 3 या 4 साल की पढ़ाई हुई। 1948 में इजरायल बना तो जबरन बड़े पैमानेंपर कब्जा करने का अभियान चलाया गया, अनेक गांव नेस्तेनाबूद कर दिए गए और हजारों स्थानीय फिलीस्तिनी परिवारों को सदा के लिए उनकी जमीन से बेदखल कर दिया गया---ताहा का परिवार भी उनमें से एक था। कुछ साल लेबनान में रहने के बाद यह परिवार नजारेथ (जो उनके गांव से कुछ दूर बसा हुआ एक इजरायली शहर है ) गए और यहीं का होकर रह गया। ताहा ने जीविका के लिए अंडे और छिट-पुट सामान बेचे और अब एक दुकान चलाते हैं। इसी दुकान में स्थानिय कवियों और लेखकों का जमावड़ा भी होता है। दिन भर दुकान चलाने के बाद ताहा रात में महान अरबी ग्रंथों का और साथ-साथ विश्व के महान ग्रंथों को अध्ययन करते रहें हैं। उनका पहला काव्य संकलन 42 साल की उम्र में छपा, और अब तक 5 काव्य संकलन और एक कथा संकलन छपा है। अपने अन्य समकालीन फिलिस्तिनी कवियों --- महमूद दरवेश और सामिह अल कासिम की तरह ताहा प्रतिरोध की कविताएं नहीं लिखते, बल्कि उनकी कविताओं का मूल स्वर विस्थापन और उजड़ जाने की व्यथा है। कोई ताज्जुब नहीं कि उनकी कविताओं और जीवन को दुनिया के सामने लाने का श्रैय पीटर कोल और उनकी पत्नी (दोनों यहूदी हैं) को है।





ताहा मुहम्मद अली

ढंग से विदाई भी नहीं

हम तो रोए नहीं बिल्कुल
विदा होते हुए
क्योंकि न तो थी हमारे पास फुर्सत
और न ही थे आंसू -
ढंग से हमारी विदाई भी नहीं हुई।

दूर जा रहे थे हम
पर हमें इल्म नहीं था
कि हमारा यह बिछुड़ना है सदा के लिए-
फिर कहां से बहती ऐसे में
हमारे आंसुओं की धार ?

बिछोह की वह पूरी रात थी और हम जगे नहीं रहे
(और न बेहोशी में सो ही गए)
जिस रात हम बिछुड़ रहे थे सदा-सदा के लिए।

उस रात
न तो अंधेरा था
न थी रोशनी
और न निखरा चांद ही।

उस रात
हमसे बिछुड़ गया हमारा सितारा-
चिराग ने किया हमारे सामने स्वांग
रतजगे का-
ऐसे में सजाते कहां से
अभियान
जागरण का ?

हो सकता है

पिछली रात
सपने में
देखा मैंने खुद को मरते हुए।

मौत खड़ी थी बिल्कुल सामने मेरे
आंखों से आंखें मिलाए
बड़ी शिद्दत से महसूस किया मैंने
कि सपने के अंदर ही है यह मौत।

सच तो यही है-
मुझे मालूम नहीं था पहले
कि मौत अपनी
अनगिनत सीढ़ियों से
बहकर उतर आएगी इतनी तरलता से:
जैसे धवल, गुनगुनी
प्रशस्त और मोहक काहिली
या सुस्ती की उनींदी कर देने वाली अनुभूति।

आम बोल चाल में कहें
तो इसमें क्लेश नहीं था
न ही था कोई भय;
हो सकता है
मौत को लेकर
हमारे भय के अतिरेक की जड़ें
जीवन लालसा के उद्वेग में
धंसी हुई हों गहरी-
ळो सकता है
कि हो ऐसा ही।

पर मेरी मौत में
एक अनसुलझा पेंच है
जिसके बारे में विस्तार से
अफसोस कि मैं बता नहीं पाऊंगा-
कि सहसा उठती है सिहरन पूरे बदन में
जब बोध होता है पक्का
अपने मरने का-
कि अब अगले ही पल अन्तर्धान हो जाएंगे
हमारे प्रियजन
कि हम नहीं देख पाएंगे उन्हें अब कभी भी
या कि सोच भी न पाएंगे
अब कभी उनके बारे में।

अनुवाद- यादवेन्द्र