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Thursday, October 2, 2008
इस जमीन पर कभी गाँधी चलते थे
मोहनदास करमचन्द गाँधी का नाम लेना भी आज एक दुष्कर कार्य है। उनका नाम ज़हन में आता है और जल्दी ही गायब हो जाता है। अपना विश्वास टूटने लगता है। अपनी नैतिक ताकत की हालत समझ में आ जाती है। अब सरलताओं से डर लगता है। सरल विचारों से दूर भागने की इच्छा होती है। हो सकता है, जीवन सचमुच जटिल हो चुका हो। सत्ता-विमर्श में बहुत ज्यादा संस्थान, विचार, समुदाय और बाजार एक साथ विभिन्न आन्तरिक टकरावों के साथ सक्रिय होने से पेचीदगियाँ बढ़ी हैं। इनके बीच सही घटना को चिन्हित करना कठिन हुआ है। अच्छे विचारों के बीच में पतित लोगों ने भी अपनी पैठ बना ली है। एक वैध् सक्रियता के साथ रहते हुए कभी खराब प्रवृत्तियों द्वारा संचालित किए जाने का खतरा भी बराबर बना रहता है, लेकिन मनुष्यता अपने रूप और गतिशीलता में हमेशा ही सरल होती है। उसके नियम बहुत सादे और समझ में आने वाले होते हैं। दूसरे व्यक्ति का दु:ख हमारे दु:ख की ही तरह है। वह मैं ही हूँ, जो बाढ़ में बेघर हो गया है। मुझे ही गोली मार दी गई है। हत्यारे मुझे ही ढूँढ रहे हैं। हत्यारों से सीधे सम्वाद करना होगा। उसकी वृत्ति के लिए हम ही जिम्मेदार हैं। वह जरूर तकलीपफ़ में है। हमने उसे कभी ठीक से सुना नहीं। उसे अकेला छोड़कर हम अपने लालच की चाशनी में डूब चुके हैं।
गाँधी ने इस भावनात्मक विचार को सामाजिक क्रिया के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। इसका व्यवहारिक पक्ष यह है कि साध्नों को सरल होना चाहिए। यान्त्रिकी और आधुनिक उपकरण उस सीमा तक ही सरल हैं जब वे सभी नागरिकों को समान रूप से उपलब्ध् हों, लेकिन यह लोकनीति हर व्यक्ति से अनुशासन की माँग करती है। जीवन की जो चीजें सिपर्फ आपने हथिया ली हैं और दूसरों को वंचित किया है, वह सब छोड़नी होंगी। इसी अनुशासन से बचने के लिए पहले काँग्रेस ने गाँधी का नाम ही लेना छोड़ दिया। काँग्रेस ही क्यों पूरे देश को अब गाँधी अप्रासंगिक लगते हैं, इसीलिए गाँधी को पहले महात्मा के रूप में स्थापित किया गया ताकि उनको जड़ बनाया जा सके। हम सभी को इससे आसानी रहती है।
गाँधी को जानने के लिए सत्य-अहिंसा जैसे शब्दों के बजाय उनके सोचने के उत्स को जानना जरूरी है। मनुष्य को बदलने पर उनका विश्वास ही उनको महान बनाता है। निर्दोष लोगों के बीच कायरतापूर्ण तरीके से बम रखकर हिंसा करने वालों से सीध सम्वाद करने के नैतिक साहस की अब कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्या यह सम्भव है कि सिपर्फ ताकत के बल पर इस क्रूरता पर विजय पाई जा सके ? घृणा, हिंसा, क्रूरता और अविश्वास के विचार एक-दूसरे के लिए प्रेरक तत्व होते हैं। क्षणिक सपफलता के लिए गाँधी के विचारों में कहीं जगह नहीं है। दुश्मन की मृत्यु भी वास्तव में अपनी ही मृत्यु है। यह समझ कमजोर व्यक्ति से नहीं उपजती, इसीलिए गाँधी का मन्त्रा है, निर्भय बनो। हमारे भयभीत समाज को निर्भय होने के लिए कभी न कभी अपने भीतर और बाहर जूझना ही होगा।
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