Monday, November 28, 2011

तीन सौ पैंसठ दिन तीन सौ पैंसठ प्रजातियों के भात का भोग

सिवा मार काट और नकारात्मक खबरों से भरे राष्ट्रीय मीडिया से विलुप्त होते गये कश्मीर पर  हमारे वरिष्ठ साथी और जिम्मेदार नागरिक यादवेन्द्र जी की एक  बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी ...

दशकों से आमतौर पर अनवरत सैनिक और असैनिक हिंसक वारदातों और मानव अधिकार हनन के लिए सुर्ख़ियों में रहने वाले जम्मू कश्मीर से शीतल हवा के झोंके जैसी पिछले दिनों एक सुखद खबर आई-- इस महीने के शुरू में श्रीनगर में राज्य के बागवानी विभाग ने एक फल प्रदर्शनी का आयोजन किया जिसमें चार सौ से ज्यादा  फलों से जनता को रु ब रु कराया गया.सरकारी विज्ञप्ति में हाँलाकि यह खुलासा किया गया कि ये सभी प्रजातियाँ सिर्फ जम्मू कश्मीर राज्य में होती हों ऐसा नहीं है और अनेक प्रजातियाँ दूसरे राज्यों से इस उद्देश्य से ला कर प्रदर्शित की गयीं जिस से राज्य के किसान इन्हें भी उगाने की पहल करें. यहाँ ध्यान देने वाली बात खास तौर पर यह है कि आज के समय में किसी व्यक्ति से अपने जीवन में भारत के विभिन्न हिस्सों में देखे फलों का नाम पूछा जाये तो बहुत मशक्कत कर के भी  बीस पचीस से ज्यादा फलों के नाम लेना उसके लिए मुश्किल होगा. ऐसी स्थिति में चार सौ से ज्यादा फलों को देखना भर बेहद रोमांचकारी अनुभव होगा.  
जहाँ तक जम्मू कश्मीर की अर्थव्यवस्था का प्रश्न है,  पर्यटन   के बाद फल उत्पादन यहाँ का दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है.सरकारी आंकड़े बताते हैं कि ताजे फलों और सूखे मेवों से राज्य को प्रतिवर्ष करीब ढाई हजार करोड़ रु. कि परपी होती है.देश  में पैदा होने वाले सेब का तीन चौथाई हिस्सा अकेले जम्मू कश्मीर में होता है.सेब की अनेक स्वादिष्ट प्रजातियाँ  तो इस राज्य से इतर कहीं और होतीं ही नहीं और सूखे मेवे (खास तौर पर अखरोट)की सौगात भी  प्रकृति ने  इसी राज्य को दी है.देश के सभी हिस्सों में यहाँ पैदा किये हुए फल तो जाते ही हैं,अनेक पडोसी देशों में भी यहाँ के फलों का खासा निर्यात होता है.करीब पाँच लाख किसान फलों की खेती में शामिल हैं और अनुमान है कि राज्य में एक हेक्टेयर के फल के बाग़ से प्रति वर्ष चार सौ मानव दिवस का व्यवसाय पैदा होता है. 
जलवायु परिवर्तन के इस देश में लक्षित दुष्प्रभावों में सेब की पैदावार का निरंतर कम होना  शुमार किया जाता है पर जम्मू कश्मीर में अमन चैन के लौटने की ख़ुशी में मानों सेब की पैदावार लगातार बढती जा रही है.अभी चार पाँच साल पहले तक यहाँ जहाँ दस बारह लाख टन सेब हुआ करता था,यह मात्रा बढ़ कर 2010 में बीस लाख टन तक पहुँच गयी और 2014  तक इसके चालीस लाख के आंकड़े को पार कर जाने की उम्मीद जताई जा रही है. 

दुनिया के अनेक देशों की तरह हमारे देश का भी दुर्भाग्य है कि आम,केला,सेब,अंगूर,अनानास,अनार,पपीता सरीखे लोकप्रिय और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध फलों के सामने बेर,करोंदा,जामुन,बेल,खिरनी,फालसा,आंवला,अंजीर,कोकम,बड़हल, शरीफा जैसे कम मात्रा में पैदा होने वाले दोयम दर्जे के दुर्बल फलों का स्वाद लोग बाग़ बाजार में उपलब्ध न होने के कारण भूलते जा रहे हैं...बस इसकी  व्यवसायिक वजह यही बताई जाती है कि उपभोक्ता माँग कम या नहीं के बराबर होने के कारण थोक व्यापारी इसमें रूचि नहीं लेता. 
आम का ही उदाहरण देखें...सुदूर दक्षिण से लेकर उत्तर पूर्व तक फैले विशाल भू भाग में इसकी देश में कोई एक हजार प्रजातियाँ रही हैं जिनके रंग,रूप ,गंध और स्वाद एक दूसरे से अलहदा रहे हैं.पर आज की तारीख में दशहरी, लंगड़ा ,अल्फंजो  जैसी  भारी माँग वाली प्रजातियों ने इतने आक्रामक ढंग से बाजार को अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि अन्य प्रजातियाँ कुछ सालों बड़ हाथ में दिया लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगी.
पर ऐसा नहीं है कि उन्मूलन की इस भेंडचाल में आम की प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने का भागीरथ प्रयास  नहीं कर रहे हैं.. लखनऊ के पास मलीहाबाद में हाजी कलीमुल्ला का जिक्र इस मामले में अक्सर आता है जो खानदानी तौर पर आम के एक ही वृक्ष पर सैकड़ों दुर्लभ प्रजातियों  का प्रत्यर्पण करने में माहिर हैं.राष्ट्रपति द्वारा उद्यान पंडित और पद्मश्री का सम्मान प्राप्त करने वाले किसान ने सौ साल आयु के एक आम के पेड़ पर तीन सौ किस्म के आम के प्रत्यारोपण किये हैं...इसके लिए उनका नाम गिनीज बुक में भी दर्ज है.
इस लेखक को आज भी बचपन में बिहार के हाजीपुर में स्थापित केला अनुसन्धान केंद्र के दिन बखूबी याद हैं जब केले की रंग बिरंगी  सैकड़ों प्रजातियाँ हुआ करती थीं ....उनके स्वाद अब भी मन में बसे हुए हैं पर पौधे शायद अब विलुप्ति की कगार पर हैं.इनमें से सबसे विशिष्ट मालभोग केला तो काफी भाग दौड़ के बाद  पिछले साल खाने को मिल गया था पर इसकी क्या गारंटी है की अगली  पीढ़ी भी उसका स्वाद चख पायेगी.
कहते हैं कि पुरी के  भगवान् जगन्नाथ को साल के तीन सौ पैंसठ दिन तीन सौ पैंसठ प्रजातियों के भात का भोग लगाया जाता था जिस से साल में किसी   किस्म कि पुनरावृत्ति न हो...पर आज तो यह किसी परी कथा जैसा आख्यान लगता है...
कहाँ हैं धान  की  इतनी प्रजातियाँ? जीवन की आपा धापी में हम धरती को उलट पलट के बहुमूल्य सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर जिस तेजी से नष्ट करते जा रहे हैं उसमें थोड़ा ठहर कर सही आकलन करने  की फुर्सत   यदि हम नहीं निकालेंगे तो पुनर्जीवन के सभी रास्ते बंद हो जाने का अंदेशा सिर पर मुँह बाए खड़ा है...
-यादवेन्द्र 
yapandey@gmail.com

इस ब्लाग पत्रिका की पिछली पोस्टों पर भी यादवेन्द्र जी ने एक मेल में जो टिप्पणी की पाठकों तक वह भी पहुंच सके, यहां इसी आशय के साथ प्रस्तुत है- 
नयी पोस्ट में हिमालय यात्रा का  आपका वृत्तान्त...जनसत्ता में पढ़ा था,पिता की पीठ पर बैठे बच्चे वाला प्रतीक इस पूरे विवरण को एक नया आयाम देता है...मेरी बेटी को भी खूब पसंद आया था यह वृत्तान्त...इन सब को संकलित करके एल जिल्द में छापें...खुद की लेह यात्रा के बाद आजकल मैं कृष्ण नाथ जी के हिमाचल और लदाख यात्रा वृत्तान्त दुबारा पढ़ रहा हूँ और हिंदी के इस अद्भुत रचनाकार की उपेक्षा पर बेहद गुस्सा आता है... 
अरुण असफल की धारदार टिप्पणी...बिज्जी मेरे भी बेहद प्रिय कथाकार हैं और उनका मूल्यांकन समय उनकी रचनाशी
लता से करेगा,विष्णु जी के लिखे  से नहीं...फिर,यदि कोई रचनाकार नोबेल प्राप्त करने की इच्छा करे तो इसमें बुरा क्या....
-यादवेन्द्र 


 

Sunday, November 27, 2011

डगमगाते हुए पांवों के एहसास पर


 


दशहरे के मैदान में दहन होते रावण के पुतले या मेले-ठेले में भीड़ के बीच दूर तक देखने की बच्चे की अभिलाषा को बहलाते पिता को देखा है कभी ? आतिशी बाण रावण की नाभी पर आकर टकराया या, अपने आप धूं धूं कर उठी लपटें- पिता के कंधें पर इठलाता बच्चा ऐसी मगजमारी करने की बजाय खूब-खूब होता है खुश। बहुत भीड़ भरी स्थिति में बमों के फटने के साथ चिथड़े-चिथड़े हो रहे रावण, मेघनाद और कुम्भकरण के पुतलों को देखने के लिए पिता के कंधें की जरूरत होती है। पिता की बांहों के सहारे कंधे पर पांव रख और बच्चा ऊँचे और ऊँचे ताकने लगता हैं। पिता की बांहें बिगड़ जा रहे संतुलन को सहारा दे रही होती। बाज दफा ऊँचाई के खौफ को दूर फेंक वह सिर के ऊपर ही खड़ा होना चाह रहा होता है। संतुलन को बरकरार रखने की कोशिश में उठी पिता की बांहें भी उस वक्त छोटी पड़ जाती हैं। बच्चे की उत्सुकता के आगे लाचार पिता अपनी हदों के पार भी कंधों के लम्बवत और शीष के सामानन्तर बांह को खींचते चले जाते हैं। शीष पर खड़े बच्चे का हैरान कर देने वाला संतुलन पिता की बांहों का मनोवैज्ञानिक आधार बना रहता है। बिना घबराये वह खिलखिलाता है, तालियां बजाता है। वश चले तो उड़ा चला जाये चिंदी-चिंदी उड़ रहे रावण के परखचों के साथ। पिता की लम्बवत बांहें ऐसे किसी भी खतरे से खेलने की ख्वाइश से पहले ही उसे सचेत किये होती हैं। डगमगाते हुए पांवों के बहुत हल्के अहसास पर ही खुली हथेलियों की पकड़ में होता है पूरा शरीर। पिता की बांहों के यागदान को कुछ ज्यादा बढ़ा चढ़ा देने की को मंशा नहीं। हकीकत को और ज्यादा करीब से जानने के लिए अभ्यास के बल पर किसी चोटी पर पहुँचे पर्वतारोही से पूछा जा सकता है कि पहाड़ के शीष पर खड़े होकर डर नहीं लगता क्या ? बहुत गुंजाइश है कि कोई जवाब मिले जिसमें बगल की किसी चोटी का सहारा पर्वतारोही को हिम्मत बंधाता हुआ हो। मेले के बीच पिता के शीष पर खड़े होकर दृश्य का लुल्फ उठाते बच्चे के पांवों की सी लड़खड़ाहट पर सचेत हो जाने की स्थितियां पर्वताराही को भी और उचकने की गुस्ताखी नहीं करने देती हैं। उचकने की कोशिश में उठी हुई बांहों की पकड़ छूट जाने का सा अहसास होता है और धम्म से बैठने को मजबूर हो जाने की स्थितियां होती हैं। चोटियों के पाद सरीखे दिखते दर्रे पिता के कंधें जैसे होते हैं जहां खड़े होकर कुछ लापरवाह हो जाना खड़ी हुई चोटियों के सहारे ही संभव होता है। करेरी झील से उतरते नाले के बांये छोर के सहारे हम मिन्कियानी दर्रे की ओर बढ़ रहे थे।
मिन्कियानी दर्रा पिता का कंधा है। मिन्कियानी ही क्यों, कोई भी दर्रा पिता का कंधा ही होता है। दोनों ओर को उठी चोटियों कंधों से ऊपर उठ गये पिता के हाथ हैं, जो कंधे पर उचक रहे बच्चे को संभालने की कोशिश में उठे होते हैं। पिता चाहें तो अपनें हाथों को किसी भी दिशा में ऊपर-नीचे, कहीं भी घुमा सकते हैं। शीश के साथ उठी हुई पिता की बांहें वे चोटियां हैं जो पर्वतारोहियों को उकसाने लगती हैं। कई दफा हाथों को बहुत ऊपर खींचते हुए किसी एक खड़ी उंगली सी तीखी हो गई चोटियों पर चढ़ना कितने भी जोखिम के बाद संभव नहीं। ऐसी तीखे उभार वाली चाटियों के मध्य दिख रहे किसी दर्रे की कल्पना करो, निश्चित ही वह बेहद संकरा हो जाएगा। लमखागा पास कुछ ऐसा ही तीखा दर्रा है, जो हर्षिल के रास्ते जलंधरी के विपरीत दूसरी ओर किन्नौर में उतरने का रास्ता देता है। मिन्कियानी दर्रा वैसा तीखा नहीं। चौड़े कंधे वाले पिता की तरह उसका विस्तार है। मध्य जून में बर्फ के पिघल जाने पाने पर हरी घास से भर जाता है। नडडी तक पहुंचने के बाद जीप मार्ग को एक ओर छोड़ सीधे एक ढाल उतरता है भतेर खडढ तक। भतेर खडढ के किनारे है गदरी गांव। पर्यटन विभाग के नक्शों में ऐसे छोटे-छोटे गांवों का जिक्र बहुत मुश्किलों से होता है। इतिहास को दर्ज करने वाले नक्शों की तथ्यात्मकता के आधार पर सत्यता को जांचते हुए आगे बढ़ जाते हैं।
हम कोई इतिहासविद्ध नही तो भी यह तो कह ही सकते हैं कि सत्ता के लिए खूनी संघर्ष से भरे सामंतों के आपसी झगड़े और उनकी वंशावलियों की सांख्यिकी से भरी इतिहास की पाठ्य-पुस्तकें ऐतिहासिक दृष्टि से इस देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्थिति को समुचित रुप से रख पाने में अक्षम हैं। उत्तरोतर भारत के बारे में हमारे पास बहुत ही सीमित जानकारी है। वहां रहने वाले लोगों का इतिहास क्या नृशंस आक्रमणों से जान बचाकर भागे हुए लोगों का इतिहास है ? पश्चिम भारत को हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के बाद हमने खंगाला है क्या ? दक्षिण भारत में क्या एक ही दिन में विजय नगर राज्य की स्थापना हो गयी ? सिंहली और तमिलों के विवाद की जड़ कहां है ? नागा, कुकी और मिजो जन-जाति की संस्कृति को हम कैसे जान पायेगें ? जंगलों के भीतर निवास करने वाले लोगों से हमारा रिश्ता कैसा होना चाहिए ? ऐसे ढेरों सवालों के हल ढूंढने के लिए दुनिया से साक्षत मुठभेड़ के सबसे अधिक अवसर यात्राओं के जरिये ही मिलते हैं। हिमाचल के कांगड़ा क्षेत्र के इस बहुत अंदरूनी इलाके को सबसे ज्यादा परिचित नाम वाली जगहों चिहि्नत करें तो धर्मशाला और मैकलाडगंज दिखायी देते हैं। नड्डी मोटर रोड़ का आखिरी क्षेत्र है जो मैकलोडगंज से कुछ पहले ही कैंट की ओर मुड़ने के बाद आता है। मैकलोडगंज शरणार्थी तिब्बतियों का मिनी ल्हासा है, जहां दलाई लामा रहते हैं। नाम्बग्याल मोनेस्ट्री में। अपनी कसांग के साथ। मैकलोडगंज की संस्कृति में तिब्बत की हवा है। नक्शे में गदरी ही नहीं, आगे के मार्ग में पड़ने वाले गजनाले के पार बसा भोंटू गांव भी नहीं। भोंटू से ऊपर रवां भी नहीं। भोंटू से आगे न नौर न करेरी गांव। मिन्कियानी दर्रा करेरी के बाद कितनी ही चढ़ाई और उतराई के बाद है।
देवदार, बन, चीड़, अखरोट, बुरांस, कैंथ, बुधु और खरैड़ी यानी हिंसर की झाड़ियों चारों ओर से करेरी गांव का घ्ोरा डाले हुए होती हैं। वन विभाग के विश्राम गृह से उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर रिंगाल की झाड़ियां, एलड़, तिरंड के घने जंगलों के बीच से जो रास्ता जाता है, उसे आगे गजेऊ नाला काटता है, जिस पर लकड़ी का पुल है। पुल के इस पार से ही गजेऊ नाले के बांये छोर से सर्पीले रास्ते पर बढ़ लिये। पुल पार नहीं निकले। पुल पार कर लेते तो नौली, मल्ली, कनोल, बो, दरींडी आदि गांवों में पहुंच जाते।
यूं इस तरह से गांवों की यात्रा जन के बीच घमासान तो नहीं होती पर उखड़ते मेले से घर लौटती भीड़ की तरह लौटना तो कहलाता ही। मेला देखे बगैर घर लौटने का तो सोचा भी नहीं जा सकता। बेशक उछाल ले-लेकर नीचे को तेजी से दौड़ रहा नाला चाहे जितना ललचाये और अपने साथ दौड़ लगाने को उकसाता रहे। उसके मोह में पड़े बगैर उसकी धार के विपरीत बढ़ कर ही मिन्कियानी की ऊंचाई तक पहुंचा जा सकता था। पहाड़ की पीठ पर उतरता नाला ऐसे दौड़ रहा था मानो पिता की पीठ पर नीचे को रिपटने का खेल, खेल रहा हो। पिता हैं कि पीठ लम्बी से लम्बी किये जा रहे हैं। छोटा करने की कोशिशों में होते तो तीव्र घुमावों के साथ नाला भी घूम के रिपटता। बल्कि घुमावों पर तो उसकी गति आश्चर्यमय तीव्रता की हो जाती। पैदल मार्ग के लिए बनी पगडंडी भी ऐसे तीव्र घुमावों पर सीढ़ी दार। हम पिता की पीठ पर चढ़कर कंधें की ऊंचाई तक पहुंच जाना चाहते थे। कंधे पर खड़े होकर दुनिया को निहारने के बाद मिन्कियानी की दूसरी ओर की ढलान पर उतर जाना हमारा उद्देश्य था। दूसरी ओर नाले के साथ-साथ, पिता की दूसरी पीठ पर उतर जाना चाहते थे। दोंनों ओर की ढलान पिता की पीठ थी। पिता का हमसे कोई सामना नहीं जो हमें अपनी छाती दिखाते। वे दोनों ओर अपनी पीठ पर हमारे बोझ को झेलने लेने की विनम्रता भरी हरियाली से बंधे हैं। अपने कंधें को दर्रे में बदल देने वाले पिता की धौलादार पीठ पर मिन्कियानी दर्रा हमारा गंतव्य था। करेरी, नौली, छतरिमू, कोठराना, शेड, चमियारा, गांवों के लोग अपने जानवरों के साथ करेरी लेक के गोल घ्ोरे से बाहर दिखायी देती पत्थरीली जमीन पर छितराये हुए थे। गाय भैंसों को उससे आगे की चढ़ाई पर ले जाना बेहद कठिन है। लेक के उस गोल धेरे में अपने अपने कोठे में वे टिक गये। जवान छोकरे बकरियों को लेकर लमडल की ओर निकल गए। बकरियां दूसरे दूधारू-पालतू जानवरों से भिन्न हैं। कद-काठी की भिन्नता और देह में दूसरों से अधिक चपलता के कारण वे पहाड़ के बहुत तीखे पाखों पर पहुंच जाती हैं। हरी घास का बहुत छोटा सा तृण भी उन्हें तीखी ढलानों तक पहुंच जाने के लिए उकसा सकता है। वे चाहें तो किसी भी ऊंचाई तक जा सकती हैं। लेकिन उनके रखवाले जानते हैं कि एक सीमित ऊंचाई के बाद भेड़-बकरियों के खाने के लिए घ्ाास तो क्या वनस्पति का भी नामोनिशान नहीं। ऊंचाई की दृष्टि से कहें तो लगभग 14000-15000 फुट की ऊंचाई के बाद जमीन बंजर ढंगार है। बर्फ से जली हुई चट्टानों के बाद बर्फ के लिहाफ को ओढ़ती चटटानों की उदासी अपने बंजर को ढकने की कोशिश में बहुत कोमल और कटी फटी हो जाती है। ऊंचाईयों तक उठते उनके शीष, उदासी का उत्सव मनाते हुए, गले मिलने की चाह में दो चोटियों के बीच दर्रे का निर्माण कर देते हैं। बहुत फासले की चोटियों के मिलन पर होने वाले दर्रे का निर्माण इसी लिए बाज दफा एक सुन्दर मैदान नजर आने लगता है। मिन्कियानी वैसा चोड़ा मैंदान तो नहीं, लेकिन सीमित समतलता में वह हरियाला नजर आता है। तीखी ढलान वाला दर्रा।
करेरी लेक से मिन्कियानी के रास्ते बोल्डरों पर चलना आसान नहीं। वह भी तीखी चढ़ाई में। कुछ जगहों पर चट्टान इतनी तीखी हो जाती है कि बिना किसी दूसरे साथी का सहारा लिये चढ़ा नहीं जा सकता। एक संकरी सी गली जिसके दूसरी ओर भी वैसा ही तीखा ढाल और पत्थरों का सम्राज्य है, मिन्कियानी कहलाता हुआ है। करेरी के बाद मिन्कियानी पार करने से पहले एक ओर झील है। मिन्कियानी के दूसरी ओर भी एक बड़ी झील- गजेल का डेरा है। गजेल का डेरा खूबसूरत कैम्पिंग ग्राऊंड है। गदि्दयों का घ्ार कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं। पीने के लिए पानी हो, भेड़ बकरियों के चारे के लिए घ्ाास हो और सहारे के लिए ओट- बस इतना ही तो एक गद्दी का ठिकाना। कितनी खोह और कितने उडयार पनाहगाह हैं लेकिन घ्ार नहीं कह सकते उन्हें।  कितने ही अमावास और चांद की भरी पूरी रात गुजारते हुए भेड़ो के बदन पर चिपकती झुर-झुरी और कच्ची बर्फ ऊन में बदलने का खेल ऐसे ही जोखिमों में खेला जा सकता है। कितनी गुद-गुदी और कितनी चिपचिपाहट है बर्फ में, ठिठुरन कितनी, कितने ही रतजगे हैं गद्दी के जीवन में घुलती चिन्ताओं के कि अबकि बर्फ देर से पड़े और देर तक बची रहे घ्ाास। भेड़-बेरियों के लिए बची रहे घास, उनके सपनों में ऐसे ही उतरती है रात।   
बहते पानी के साथ आगे बढ़ें तो एक झील पर पहुंचेगें। जिसके रास्ते हमें दरकुंड पहुंचना है। यदि पानी के विपरीत दिशा में बढ़ें तो सीधे लमडल पहुंच जायेगें। गजेल के डेरे से लगभग चार गुना बड़ी झील। लमडल तक का रास्ता झीलों का रास्ता है। लमडल से निकल कर भागता जल झील के रूप में कैद हो जाता है। लमडल भी एक झील है। बल्कि लमडल तक पूरी सात झीलें हैं। लमडल से निकल कर तेज ढाल पर भागते पानी की खैर नहीं। नदी होने से पहले उसे जगह जगह मौजूद झीलों के साथ कुछ समय गुजारना है। रूप बदलकर हर क्षण भागती बर्फ को अपने आगोश में समेट लेने को आतुर धौलादार की यह श्रृंखला इस मायने में अदभुत है। लमडल से उत्तर-पूर्व की ओर बढें तो चन्द्रगुफा तक पहुंच सकते हैं। चंद्रगुफा भी एक झील है। वहां से आगे नगामण्डल निकल सकते हैं। एक झील का अपना सौन्दर्य है। लमडल एक बड़ी झील है। नीचे की ओर उतरते हुए झीलों के आकार अनुपात में छोटे होते चले गए हैं। नागमण्डल को इन्द्राहार पास के रास्ते का ही पड़ाव कह सकते हैं। यूं नागमडल से नीचे उतरने लगे तो होली गांव पहुंचा जा सकता है। धौलादार की इस श्रृंखला में भुहार, बल्यानी, मिन्कियानी, भीम की सूत्री, इन्द्राहार, जालसू, थमसर और न जाने कितने ही दर्रे हैं जो कांगड़ा और चम्बा घाटी के द्वार भी कहे जा सकते हैं। वैसे इन्हें पिता का कंधा कहें तो पिता के कंधे पर चढ़कर मेला देखने का उत्साह अपनी तरह से उकसाता है।  
 

नोट: यह यात्रा संस्मरण २० नव्म्बर २०११ के जनसत्ता में प्रकाशित हुआ है।

Friday, November 25, 2011

मुझे मालूम है



  
अरुण कुमार "असफल" ऐसे रचनाकार है जिन्हें बहुत मुखर होकर बोलते हुए कम लोगों ने ही सुना होगा। लेकिन आस पास के वातावरण, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों पर उनकी दृष्टि हमेशा बेबाक रही। हां उस आवाज को सुनने के लिए अक्सर हो सकता है कि आपको अरुण के बहुत करीब जाना पड़े। लेकिन इस बार उनका बोलना आप सुन सकें- अरुण की वह टिप्पणी जिसका जिक्र फेसबुक के माध्यम से अरुण ने किया था, यहां आप सभी के लिए सादर प्रस्तुत है।
बहुत चुपके चुपके घुमड़ने वाली असहमतियों को दर्ज करना हमारी कोशिश का एक ऐसा हिस्सा है जिसमें इस ब्लाग की सार्थकता भी साबित हो सकती है और पद, उम्र या श्रेष्ठता के दूसरे मानदण्डों के आगे असहमतियों को दर्ज न कर सकने की सामंति मानसिकता से मुक्ति का रास्ता भी बनता है। हमारा मानना है कि असमहति एक स्वस्थ बहस का आधार होती है। विश्वास है कि पाठकों तक हमारे मंतव्य सकारात्मक प्रभाव छोड़ेंगे।
 -वि. गौ.
  
सूप तो सूप चलनी भी बोली
-अरुण कुमार 'असफल"
 वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु खरे ने जनसत्ता के दिनॉक 09-10-2011 अंक में प्रकाशित अपने लेख ' सूत न कपास" में नोबेल पुरस्कार के बहाने  वरिष्ठ साहित्यकार विजयदान देथा पर जो अपमान जनक  टिप्पणियॉ की हैं उससे पूरा साहित्य समाज स्तब्ध है। लेख की भाषा और मिज़ाज से मालूम होता है कि लेखक ने कोई "पुराना हिसाब" चुकता करने के उद्देश्य से ही इसे लिखा है। एक ऐसे  वयोवृद्ध महान साहित्यकार, जो कि कूल्हे की हड्डी पर चोट की वजह से काफी समय से बिस्तर पर हो और सर में चोट लग जाने से जिनकी स्मरण क्षमता प्रभावित हुई हो, उन पर ऐसे फिकरे कसने का क्या मतलब था? बिज्जी की हालत इस समय ऐसी है कि वे इस लेख का जवाब देना तो दूर, अभी पढ़ने की भी स्थिति में नहीं हैं। एक जगह तो लेख में विष्णु खरे लिखतें हैं "यह (नोबेल पुरस्कार)  आलोचना या मूल्यॉकन का कोई मापदण्ड नहीं है " पर दूसरी जगह यह भी लिखतें हैं " नियम यह है कि खोटे सिक्के असली सिक्कों को बाहर कर देतें हैं " तथा "इन दो गिलट के रुपयों नें फिलहाल भारत में स्वीडी कलदार तोमस त्रॉस्त्रमार को चर्चा से बाहर कर दिया है---"। लेख में मूल्यॉकन के कोई अन्य तर्क रखे बगैर लेखक ने इन दो साहित्यकारों को गिलट के सिक्के और त्रॉस्त्रमार को खरा सिक्का साबित कर दिया। स्पष्ट है कि स्वयं लेखक के पास भी नोबेल पुरस्कार के अलावा मूल्यॉकन का कोई और तरीका नहीं है। निस्संदेह त्रॉस्त्रमार श्रेष्ठ कवि हैं लेकिन किसी की श्रेष्ठता साबित करते हुये किसी पर अपनी भड़ास निकालना आवश्यक है क्या? लेख में लेखक ने यह भी साबित करने की कोशिश की है कि इन दो भारतीय साहित्यकारों ने जमकर लॉबिंग की होगी। जहॉ तक विज्जी की बात है तो उनके बारे में ऊपर ही उल्लेख कर दिया गया हैं कि वे गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं। उनका लिखना पढ़ना तो स्थगित है ही, बोलना बतियाना भी सीमित है। न ही किसी साहित्यिक संस्था या साहित्यकार ने कोई उनकी सुध ली और न ही उनका किसी से सम्पर्क है। तब उन्होने लॉबिंग कैसे की? क्या विष्णु खरे को यह नहीं मालूम कि बिज्जी की कहानियॉ बहुत पहले ही विश्व की कई भाषाओं में अनूदित हों चुकीं हैं और  वि्श्व साहित्यिक परिदृश्य में विजयदान देथा एक जाना पहचाना नाम है। हिन्दी में भी लोग सत्तर के दशक से उन्हे जानने लगे थे। 1979 हिन्दी में अनूदित उनकी कहानियों का पहला संकलन "दुविधा तथा अन्य कहानियॉ" आया तथा 1982 में दूसरी किताब "उलझन" आईं। "दुविधा" पर मणिकौल ने फिल्म बनाई तथा "फितरी चोर" कहानी पर हबीब तनवीर ने नाटक खेला। उनकी कई कहानियों पर फिल्में बनी हैं तथा नाटक खेले गए हैं। पर उन्होने इसके लिए न अन्य कहानीकरों की तरह मुम्बई के बारंबार चर लगाये और न ही नाटककारों के दरवाजे खटखटाये (एक ख्यातिप्राप्त नाटककार तो काफी समय तक उनकी एक कहानी पर अपना नाम देकर नाटक खेलते रहे)। यह तो उनकी कहानियों की अर्न्तवस्तु में बसी लोकजीवन की  गन्ध है जो लोगों को अपनी ओर खींचती हैं। कहानियों को इस काबिल बनाना इतना आसान कार्य नहीं है। इसके लिये 'लोक" की यात्रा करनी पड़ती है। बिज्जी ने यह यात्रा पचास साठ के दद्गाक में आरंभ कर दी थी। जब रास्ते के नाम पर रेत के ढूहे और वाहन के नाम पर ऊंट गाड़ी ही सर्वत्र दिखतें थे तब लोक कथाओं को लुप्त होने से बचाने की अदम्य इच्छा लिये विज्जी ने गॉव गॉव की यात्रा की और बड़े बुजुर्गो की स्मृतियों में बची लोक कथाओं को अभिलेखित किया। इस कार्य के लिये उसे अचित पारिश्रमिक भी दिया और सन्दर्भ में उसका जिक्र भी किया , अर्थात पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता भी बरती।

स्पष्ट है , हमारे यहॉ  "जेनुइन" लेखकों" को हाशये पर डालने और माखौल उड़ाने  की जो पंरपरा है  विष्णु खरे का सन्दर्भित लेख उसका बखूबी से निर्वाह करता है। विष्णु खरे ही क्या एक बार तो राजस्थान में भी कुछ साहित्यकारों ने मौलिकता के नाम पर खारिज करने का अभियान चलाया था। कोई उनसे यह पूछे कि एक पैरा या एक पेज़ की लोक कथाओं को दस बीस या पचास पेज़् की कथाओं में पुर्नसृजन करने वाला दूसरा और कौन है? वे लोक कथाओं को ऐसी कथाओं में पुर्नसृजित करतें हैं जिसमें स्त्री अपने देह का स्वतन्त्र निर्णय लेती है, दलित और श्रमिक तर्क करतें हैं और राजा या प्रभावशाली लोगों को मुंह की खानी पड़ती है। सदियों पुरानी लोककथाओं का ऐसा रूप देना जो फिर कभी बासी न लगें। इसका अन्यत्र उदाहरण कहॉ हैं?  यह तो केवल साहित्य के क्षेत्र में योगदान है। बहुतों को तो यह नहीं मालूम होगा कि बिज्जी अपने महत्तम प्रयास से बोरून्दा में लड़कियों के लिये आवासीय महाविद्द्यालय खुलवाने में सफल रहे। एक ऐसे राज्य में जिस के कई क्षेत्र में अभी भी मध्यकालीन सामन्ती संस्कारों का ऐसा बोलबाला है कि लड़कियों के जन्म को अभिशप्त के रूप में लिया जाता है वहॉ के एक गॉव में लड़कियों के लिये इस उद्देश्य से महाविद्द्यालय खोलना कि लड़कियॉ घर से निकल कर बाहर तो निकलें, इससे बड़ा जनवादी और प्रगतिशील कार्य क्या होगा ? क्या नोबेल पुरस्कार से इसको नापा जा सकता है? क्या जिस व्यक्ति ने जीवनपर्यन्त बोरुन्दा को कर्मभूमि बनाया हो उससे यह उम्मीद की जा सकती है क्या कि वह नोबेलॉकाक्षी होगा? होता तो उसका कोई न कोई ठिकाना देश की राजधनी में अवश्य होता। चलिये देश नही तो प्रदे्श की राजधनी में अक्सर ही उसके पड़ाव होते। लेकिन फिल्मकारो नाटककारों और अन्य कलाकारों के तो उसके गॉव में ही पड़ाव लगतें हैं? दे्श के कितने साहित्यकारों के साहित्य में इतना दम है जो दे्श दुनिया को अपने पास खींच सकें। विपरीत इसके, लेख से ज़ाहिर होता है कि विष्णु खरे ही नोबेल पुरस्कार से काफी वास्ता रखतें होगें।इसलिए कई जगह "मुझे मालूम है" की रट लगाये से दिखतें हैं। मसलन "मुझे मालूम है कि कभी जर्मनी के हिंदी विशेषज्ञ लोठार लुत्से से भी अनुशंसाए मॅगाईं गईं थीं। मुझे यह भी मालूम है---"। गोया कि नोबेल पुरस्कार समिति से वैसा ही जुड़ाव है जैसा कि भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समिति से। यह अलग बात है कि इस बार पुरस्कृत कवि को "हुड़ुकलुल्लु" की उपाधि न देकर पुरस्कार से वचिंत रह गये लोगो को ही कोसा है। जिनकी गलती सिर्फ इतनी ही है कि उनका नाम नोबेल सॅभावितों की सूची में आ गया है और इस तरह से वे नोबेलॉकाक्षियों की काली सूची में आ गयें हैं। जबकि विष्णु खरे एक जगह लिखतें हैं  "निर्णायक मंडल मुख्यत: जर्मन, फ्रेंच, इतालवी और इस्पानी भाषाओ के साहित्यिक अनुवादों पर निर्भर रहती है---" । तो क्या इसका यह अर्थ निकाल लिया जाये कि जिन साहित्यकारो ने इनमें से किसी देश की बारंबार यात्रा की है तो वे नोबेलॉकाक्षीं होगें या जो इनमें  से किसी भी दे्श की भाषा का जानकार है वह होगा नोबेलॉकाक्षीं? या यही  अर्थ निकाल लिया  जाये कि हिंदी के वे सम्राट नोबेलॉकाक्षी तो होगें ही जिन्होंने अपनी राजकुमारियों का ब्याह इन देशों के राजकुमारों से किया होगा। यदि ऐसा हो तो हो ! पर बिज्जी इस दंद-फंद से कोसों दूर हैं।

Tuesday, November 8, 2011

साफ़ ज़ाहिर है

कंवल ज़ियायी
उर्दू के सुप्रसिद्व शायर जनाब हरदयाल सिंह दत्ता  कंवल जियायी इस भैयादूज को, अर्थात दिनांक 28-10-2011 की सुबह, इस नश्वर संसार को अलविदा कह गये। वे चौरासी वर्ष के थे। कहा जाता है, कि केवल योगी ही चौरासी के होकर "चोला" बदला करते हैं।
    वे सचमुच योगी थे। उन्होंने जब पहले पहल पंडित लब्भुराम जोश मलसियानी की सरपरस्ती में शायरी का आगाज़ किया, उस वक्त उर्दू के अधिकांश शायर हुस्नोइश्क का इज़्हार अपनी शायरी के माध्यम से किया करते थे। मगर कंवल साहब ने उन दिनों भी जिस मौजूं को अपनी शायरी में लिया। वह ज़िंदगी की तल्ख हकीकत के बिल्कुल करीब था।
    पाकिस्तान के ज़िला सियालकोट के गांव कंजरूढ़ दत्ता में कंवल साहब का जन्म एक प्रतिष्ठित जमींदार घराने में हुआ। फिल्म अभिनेता पद्मश्री राजेन्द्र कुमार भी वहीं के थे और कंवल साहब के लंगोटिया यार थे। देश का बंटवार होने के बाद, ये दोनों पक्के दोस्त एक साथ पाकिस्तान से भारत (दिल्ली) चले आये। वहां से राजेन्द्र कुमार एक्टर बनने के लिये मुम्बई चले गये और कवंल साहब रक्षा-विभाग में लिपिक के तौर पर नौकरी करने लगे और उसी के साथ अपना रूझान साहित्य की और मोड़ा और शायरी के माध्यम से साहित्य सृजन में जुट गये।
    कंवल साहब एक बहुत ही मस्तमौला, फक्कड़, हँसमुख, स्प्ष्टवादी, संवदेनशील और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। बातें इतनी अच्छी करते, कि घंटों तक उनके पास बैठकर भी उठने को मन न होता। मगर वही कंवल साहब, जब शेर लिखने के लिये कलम हाथ में थामते, तो इस कद्र संजीदा हो जाते कि सामने मौजूदा प्राणी सहम कर रह जाता।
    उनकी शायरी जिंदगी के "कटुसत्य" से दोचार करने वाली संजीदा शायरी थी। बहुत ही सरल भाषा, या सीधे सादे शब्दों में, गहरी से गहरी बात कहने में उन्हें महारत हासिल थी। उसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि उन्होंने जीवन भर संघर्ष ही संघर्ष किया और जिंदगी को बेहद करीब से देखा, परखा और विचारा और तब जो कुछ महसूस किया, उसी को अपनी गज़लों, नज़मों या कतआत की शक्ल में उतारा।
    कंवल साहब एक उस्ताद शायर थे। उनके शागिर्दों की संख्या पर्याप्त है। कहा जाता है कि वे खुद एक "इंस्टीट्यू्शन" थे।
    कंवल साहब के अब तक केवल दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। "प्यासे जाम" सन् 1973 में राहुल प्रकाशन दिल्ली द्वारा देवनागरी लिपि में प्रका्शित हुआ। दूसरा काव्य संग्रह, "लफ्ज़ों की दीवार" 1993 में उर्दू लिपि में छपा। इन दोनों संग्रहों में कंवल साहब की चुनींदा गज़लों, नज़्मों और कतआत शामिल है।
    एक लम्बे अर्से से कंवल साहब अस्वस्थ चल रहे थे। इसलिये कहीं जाना आना न हो पा रहा था। इस दौरान वे और अधिक संजीदा रहने लगे थे। उन्हें निश्चित ही इस बात का एहसास हो चला था। कि उनके पास अब अधिक समय नहीं रहा। तभी उनके द्वारा लिखे अंतिम एशआर में दो शेर ये भी थे :-
        साफ़ ज़ाहिर है कि उम्र की आंधी
         इक दिया और बुझाने वाली है
       ज़िंदगी तखलिया कि पल भर में
       मौत तशरीफ़ लाने वाली है।

- मदन शर्मा 
9897692036
                                                         

Saturday, November 5, 2011

दिल्ली से रांची या चंडीगढ़ की दूरी



गुरशरण सिंह

राम दयाल मुंडा


सितम्बर माह के आखिरी दिनों में देश ने ऐसी दो  विभूतियाँ खोयी हैं जिनकी जड़ें अपने अपने समाज में बेहद गहरी थीं पर जिनके क्रियाकलाप  पूरे देश की सांस्कृतिक अस्मिता को क्रियाशील बनाये रखने के लिए  प्राणवायु का काम कर रहे थे.लम्बे सक्रिय जीवन के बाद इन दोनों का विदा होना जितना अप्रत्याशित नहीं था उस से ज्यादा चौंकाने वाला था हमारे राष्ट्रीय कहे जाने वाले मेनस्ट्रीम सूचना माध्यमों का उनका नाम लेने की जरुरत से इनकार.इनमें से एक गुरशरण सिंह पंजाबी गाँवों शहरों में पंजाबी भाषा में अपना काम करते हुए चंडीगढ़ में गुज़र गए तो दूसरे राम दयाल मुंडा झारखण्ड के आदिवासी समाज का कायापलट करने का स्वप्न लिए हुए पूरी दुनिया में अपनी योग्यता का झंडा गाड़ने के बाद रांची के एक अस्पताल में लगभग गुमनामी में चल बसे....क्या दिल्ली से इन इलाकों की दूरी इतनी ज्यादा है कि सन्देश पहुंचना मुमकिन नहीं?
गुरशरण सिंह
27 सितम्बर को अंतिम साँस लेने वाले तत्कालीन पाकिस्तान में पैदा हुए और पिछले पचास साल से भी ज्यादा समय से पंजाब के गाँव गाँव में निर्भीकता पूर्वक अलख जगाने  वाले 82 वर्षीय गुरशरण सिंह देश में नुक्कड़ नाटकों के भीष्म पितामह के रूप में जाने जाते हैं पर उनका कद ऐसा था कि राजनैतिक जागरण का माध्यम बने नुक्कड़ नाटकों को कलाविहीन कह कर नाक भौं सिकोड़ने वाले कला पंडितों को भी उन्हें संगीत नाटक अकादमी और कालिदास सम्मान  प्रदान करना पड़ा.बिजली विभाग में इंजिनियर की नौकरी परवाह न करते हुए उन्होंने शहीद भगत सिंह के संदेशों को गाँव गाँव में पहुँचाने का जो संकल्प लिया था उसको आखिरी दम तक पूरा  किया.इमरजेंसी की सख्त पाबंदियों को धता बताते हुए और हिंसक उग्रवाद के दिनों में भी अन्याय का प्रतिकार करने और आपसी भाईचारा बनाये रखने का सन्देश देते हुए उन्होंने अपनी नाटक मंडली को निरंतर सक्रिय रखा.वामपंथी सोच वाले संस्कृतिकर्मी देश के किसी भी कोने में क्यों न काम कर रहे हों गुरशरण सिंह के नुक्कड़ नाटक उनके प्रमुख हथियार रहे और ऐसे जत्थों में या तो ग़दर की शैली  में जनगीत गए जाते थे या फिर गुरशरण सिंह की शैली में...यहाँ तक कि उन्होंने प्रसिद्ध उद्बोधन गीत इंटरनेश्नल को भी ठेठ पंजाबी धुनों में प्रस्तुत किया.कहा जाता है कि पंजाब में हर सरकारी दस्तावेज में पिता के साथ साथ माँ का नाम अनिवार्य तौर पर लिखने की पहल उन्होंने ही की और खुले तौर पर मंचों से उनको कहते सुना गया कि सामाजिकरूप में स्त्री पुरुष की  बराबरी के बारे में बहुत सी बातें अपनी बेटी से सिखने को मिलीं.उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता ऐसी थी कि मृत्यु के बाद कोई धार्मिक कार्यक्रम नहीं किया गया और अंतिम तौर पर उनके अवशेष भगत सिंह के  शहादत  स्थल हुसैनीवाला  पर ले जाकर मिट्टी को सुपुर्द कर दिए गए.पर उनकी मृत्यु की खबर पंजाबी सूबे से बाहर सुर्कियों में नहीं आ पाई...कम से कम हिंदी की मुख्यधारा को तो इसमें प्रेरणादायक मसाला  दिखा नहीं...या गुरशरण सिंह को पंजाबी भाषा भाषियों की जिम्मेदारी पर ही छोड़ने का सद्विचार  उत्पन्न हो गया.           
 
  30 सितम्बर  को देश की आदिवासी संस्कृति के बड़े विद्वान और पैरोकार 72 वर्षीय प्रो. राम दयाल मुंडा का निधन हो गया पर राष्ट्रीय कहे जाने वाले  बड़े समाचार माध्यमों में इस घटना की कहीं कोई गूंज नहीं सुनाई दी.झारखण्ड प्रदेश की परिकल्पना को व्यवहारिक रूप देने वाले विचारकों में प्रो.मुंडा अग्रणी थे, बरसों अमेरिकी शिक्षा संस्थानों में अध्यापन करने के बाद रांची विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे.  कहा जाता है कि प्रो. मुंडा का कमरा झारखण्ड के युवा नेतृत्व  का उदगम और प्रशिक्षण स्थल रहा.दुर्भाग्य यह कि आदिवासी समाज,संस्कृति और भाषाओं पर उनका काम देश में कम  और विदेशों में ज्यादा समादृत  था इसी लिए अमेरिका सहित अनेक देशों में वे   अध्यापन कार्य करते रहे. 'नाची से बांची" का जुमला बार बार दुहराने वाले प्रो.मुंडा  एक स्वतः स्फूर्त लोक  गायक और नर्तक के रूप में भी जाने जाते थे और 2004 में मुंबई संपन्न वर्ल्ड सोशल फोरम में उनकी शिरकत में यह पक्ष खुल कर सामने आया. .उनकी इन्ही विशेषज्ञताओं  की बदौलत उन्हें  पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी की सस्यता से सम्मानित किया गया.कुछ समय पहले उन्हें राज्य सभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया था.अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए पहले उन्होंने खुद अपना एक राजनैतिक दल बनाया पर संगठन का अनुभव  न होने के कारण उसको उन्हें शिबू सोरेन के दल झारखण्ड मुक्ति मोर्चा  में शामिल करना पड़ा.वहाँ भी उनको जब कोई सार्थक काम होता हुआ नहीं दिखा तो कांग्रेस में शामिल हो गए.
राम दयाल मुंडा
उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि आदिवासी समाज के दस करोड़ सदस्यों को(हिन्दू समुदाय के बाद दूसरा सबसे बड़ा समुदाय) जबरन हिन्दू या ईसाई समुदाय के अंदर समाहित करने की साजिश आजादी के बाद से की जाती रही है.पर आदिवासियों की आराधना पद्धति विशिष्ट तौर पर प्रकृति पूजा की है और उन्हें देश के छह धार्मिक समुदायों से अलग मान्यता मिलनी चाहिए...उनकी धार्मिक मान्यता को नयी पहचान प्रदान करने के लिए उन्होंने आदि धर्म का आन्दोलन शुरू किया था...इसी नाम से उन्होंने आदिवासियों की प्रचलित आराधना पद्धतियों को संकलित करते हुए एक किताब भी लिखी थी.प्रो.मुंडा की अनेक स्थापनाओं से हमारी असहमति हो सकती है पर अपनी माटी और बिरासत से गहन रूप से जुड़े हुए ऐसे  इतिहास पुरुष के बारे में जानना सिर्फ झारखंडी समाज के लिए जरुरी है? क्या ऐसे मनस्वी के निधन के बाद झारखण्ड से इतर समाज के अख़बारों और समाचार माध्यमों में उनको कुछ पंक्तियों का स्थान देना भी हमारे अ-सहिष्णु समाज को मंजूर नहीं?   
 
     प्रस्तुति:-       यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com