Saturday, November 5, 2011

दिल्ली से रांची या चंडीगढ़ की दूरी



गुरशरण सिंह

राम दयाल मुंडा


सितम्बर माह के आखिरी दिनों में देश ने ऐसी दो  विभूतियाँ खोयी हैं जिनकी जड़ें अपने अपने समाज में बेहद गहरी थीं पर जिनके क्रियाकलाप  पूरे देश की सांस्कृतिक अस्मिता को क्रियाशील बनाये रखने के लिए  प्राणवायु का काम कर रहे थे.लम्बे सक्रिय जीवन के बाद इन दोनों का विदा होना जितना अप्रत्याशित नहीं था उस से ज्यादा चौंकाने वाला था हमारे राष्ट्रीय कहे जाने वाले मेनस्ट्रीम सूचना माध्यमों का उनका नाम लेने की जरुरत से इनकार.इनमें से एक गुरशरण सिंह पंजाबी गाँवों शहरों में पंजाबी भाषा में अपना काम करते हुए चंडीगढ़ में गुज़र गए तो दूसरे राम दयाल मुंडा झारखण्ड के आदिवासी समाज का कायापलट करने का स्वप्न लिए हुए पूरी दुनिया में अपनी योग्यता का झंडा गाड़ने के बाद रांची के एक अस्पताल में लगभग गुमनामी में चल बसे....क्या दिल्ली से इन इलाकों की दूरी इतनी ज्यादा है कि सन्देश पहुंचना मुमकिन नहीं?
गुरशरण सिंह
27 सितम्बर को अंतिम साँस लेने वाले तत्कालीन पाकिस्तान में पैदा हुए और पिछले पचास साल से भी ज्यादा समय से पंजाब के गाँव गाँव में निर्भीकता पूर्वक अलख जगाने  वाले 82 वर्षीय गुरशरण सिंह देश में नुक्कड़ नाटकों के भीष्म पितामह के रूप में जाने जाते हैं पर उनका कद ऐसा था कि राजनैतिक जागरण का माध्यम बने नुक्कड़ नाटकों को कलाविहीन कह कर नाक भौं सिकोड़ने वाले कला पंडितों को भी उन्हें संगीत नाटक अकादमी और कालिदास सम्मान  प्रदान करना पड़ा.बिजली विभाग में इंजिनियर की नौकरी परवाह न करते हुए उन्होंने शहीद भगत सिंह के संदेशों को गाँव गाँव में पहुँचाने का जो संकल्प लिया था उसको आखिरी दम तक पूरा  किया.इमरजेंसी की सख्त पाबंदियों को धता बताते हुए और हिंसक उग्रवाद के दिनों में भी अन्याय का प्रतिकार करने और आपसी भाईचारा बनाये रखने का सन्देश देते हुए उन्होंने अपनी नाटक मंडली को निरंतर सक्रिय रखा.वामपंथी सोच वाले संस्कृतिकर्मी देश के किसी भी कोने में क्यों न काम कर रहे हों गुरशरण सिंह के नुक्कड़ नाटक उनके प्रमुख हथियार रहे और ऐसे जत्थों में या तो ग़दर की शैली  में जनगीत गए जाते थे या फिर गुरशरण सिंह की शैली में...यहाँ तक कि उन्होंने प्रसिद्ध उद्बोधन गीत इंटरनेश्नल को भी ठेठ पंजाबी धुनों में प्रस्तुत किया.कहा जाता है कि पंजाब में हर सरकारी दस्तावेज में पिता के साथ साथ माँ का नाम अनिवार्य तौर पर लिखने की पहल उन्होंने ही की और खुले तौर पर मंचों से उनको कहते सुना गया कि सामाजिकरूप में स्त्री पुरुष की  बराबरी के बारे में बहुत सी बातें अपनी बेटी से सिखने को मिलीं.उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता ऐसी थी कि मृत्यु के बाद कोई धार्मिक कार्यक्रम नहीं किया गया और अंतिम तौर पर उनके अवशेष भगत सिंह के  शहादत  स्थल हुसैनीवाला  पर ले जाकर मिट्टी को सुपुर्द कर दिए गए.पर उनकी मृत्यु की खबर पंजाबी सूबे से बाहर सुर्कियों में नहीं आ पाई...कम से कम हिंदी की मुख्यधारा को तो इसमें प्रेरणादायक मसाला  दिखा नहीं...या गुरशरण सिंह को पंजाबी भाषा भाषियों की जिम्मेदारी पर ही छोड़ने का सद्विचार  उत्पन्न हो गया.           
 
  30 सितम्बर  को देश की आदिवासी संस्कृति के बड़े विद्वान और पैरोकार 72 वर्षीय प्रो. राम दयाल मुंडा का निधन हो गया पर राष्ट्रीय कहे जाने वाले  बड़े समाचार माध्यमों में इस घटना की कहीं कोई गूंज नहीं सुनाई दी.झारखण्ड प्रदेश की परिकल्पना को व्यवहारिक रूप देने वाले विचारकों में प्रो.मुंडा अग्रणी थे, बरसों अमेरिकी शिक्षा संस्थानों में अध्यापन करने के बाद रांची विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे.  कहा जाता है कि प्रो. मुंडा का कमरा झारखण्ड के युवा नेतृत्व  का उदगम और प्रशिक्षण स्थल रहा.दुर्भाग्य यह कि आदिवासी समाज,संस्कृति और भाषाओं पर उनका काम देश में कम  और विदेशों में ज्यादा समादृत  था इसी लिए अमेरिका सहित अनेक देशों में वे   अध्यापन कार्य करते रहे. 'नाची से बांची" का जुमला बार बार दुहराने वाले प्रो.मुंडा  एक स्वतः स्फूर्त लोक  गायक और नर्तक के रूप में भी जाने जाते थे और 2004 में मुंबई संपन्न वर्ल्ड सोशल फोरम में उनकी शिरकत में यह पक्ष खुल कर सामने आया. .उनकी इन्ही विशेषज्ञताओं  की बदौलत उन्हें  पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी की सस्यता से सम्मानित किया गया.कुछ समय पहले उन्हें राज्य सभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया था.अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए पहले उन्होंने खुद अपना एक राजनैतिक दल बनाया पर संगठन का अनुभव  न होने के कारण उसको उन्हें शिबू सोरेन के दल झारखण्ड मुक्ति मोर्चा  में शामिल करना पड़ा.वहाँ भी उनको जब कोई सार्थक काम होता हुआ नहीं दिखा तो कांग्रेस में शामिल हो गए.
राम दयाल मुंडा
उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि आदिवासी समाज के दस करोड़ सदस्यों को(हिन्दू समुदाय के बाद दूसरा सबसे बड़ा समुदाय) जबरन हिन्दू या ईसाई समुदाय के अंदर समाहित करने की साजिश आजादी के बाद से की जाती रही है.पर आदिवासियों की आराधना पद्धति विशिष्ट तौर पर प्रकृति पूजा की है और उन्हें देश के छह धार्मिक समुदायों से अलग मान्यता मिलनी चाहिए...उनकी धार्मिक मान्यता को नयी पहचान प्रदान करने के लिए उन्होंने आदि धर्म का आन्दोलन शुरू किया था...इसी नाम से उन्होंने आदिवासियों की प्रचलित आराधना पद्धतियों को संकलित करते हुए एक किताब भी लिखी थी.प्रो.मुंडा की अनेक स्थापनाओं से हमारी असहमति हो सकती है पर अपनी माटी और बिरासत से गहन रूप से जुड़े हुए ऐसे  इतिहास पुरुष के बारे में जानना सिर्फ झारखंडी समाज के लिए जरुरी है? क्या ऐसे मनस्वी के निधन के बाद झारखण्ड से इतर समाज के अख़बारों और समाचार माध्यमों में उनको कुछ पंक्तियों का स्थान देना भी हमारे अ-सहिष्णु समाज को मंजूर नहीं?   
 
     प्रस्तुति:-       यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com

1 comment:

विजय गौड़ said...

Anonymous

8:12 PM (13 hours ago)

to me
Anonymous has left a new comment on your post "दिल्ली से रांची या चंडीगढ़ की दूरी":

I have the same type of blog myself so I will come back back to read again.