Friday, July 18, 2014

स्कूली शिक्षा का प्रोजक्टीय रूप

समाज शास्त्री एवं स्कूली शिक्षा जैसे विषयों से लगातार टकराने वाले रचनाकार प्रेमपाल शर्मा जी का यह महत्वपूर्ण आलेख जनसत्ता से साभार प्रस्तुत है. आलेख आज के जनसत्ता में "दुनिया मेरे आगे" स्तम्भ में प्रकाशित हुआ है. आलेख दिल्ली के पब्लिक स्कूलों में जारी स्थितियों से मुखातिब है पर देख सकते हैं कि देश के दूसरे क्षेत्रों में भी स्थितियां कमोबेश इससे अलग नहीं. स्कूली शिक्षा का यह ’प्रोजक्टीय’ रूप हर ओर व्याप्त है.

स्कूल में धंधा

प्रेमपाल शर्मा
prempalsharma@yahoo.co.in

दिल्ली की संभ्रांत कॉलोनियों के बीच स्थित किताब, स्टेशनरी की दुकान। जब से यहां निजी स्कूल बढ़े हैं, उससे कई गुना ज्यादा ऐसी दुकानें बढ़ी हैं, जहां बच्चों के होमवर्क, मॉडल, अंग्रेजी की किताबें आसानी से मिल सकती हैं। स्कूल खुलने से पहले होमवर्क पूरा न होने का तनाव। दुकान के बाहर मां-बाप और उनकी अंगुली पकड़े बच्चों की कतार है। एक महिला पूछती है- ‘आपके पास सुपर विलेन का चार्ट होगा!’ व्यस्त दिख रहा दुकान का मालिक सोचने का अभिनय करता है- ‘सुपर विलेन नहीं, विलेन का चार्ट है।’ बच्चे और उसकी मां को नहीं मंजूर, क्योंकि स्कूल के होमवर्क में ‘सुपर विलेन’ लिखा है। वह दुकानदार क्या जो अपने ग्राहक को वापस जाने दे! उसने शाम को आने को कहा कि कंप्यूटर से निकलवा देंगे। कल आकर ले जाना। जाहिर है, कल मुंहमांगे पैसे देकर ‘सुपर विलेन’ का चार्ट मिल जाएगा, उस बच्चे के लिए, जिसकी उम्र मुश्किल से पांच वर्ष होगी। दूसरे बच्चे के साथ माता-पिता दोनों हैं। ‘स्नो मैन बनाना है। उसका सामान दे दीजिए।’ दुकानदार को पता है। वह थर्माकोल, तार, कॉटन, फेवीकॉल, बटन आदि निकाल कर दर्जन भर चीजें रखता जाता है। घर पर बनाने का काम मां-बाप का। अगला होमवर्क है गैस का ग्लोब गुब्बारा बनाना। दुकानदार समझाता है कि हम बना-बनाया दे देंगे। पैसे की सौदेबाजी हुई। मामला तय हो गया। चलते-चलते अभिभावक ने इतना वादा लिया कि कल सुबह ही चाहिए, क्योंकि परसों स्कूल खुल जाएगा। दिल्ली जैसे महानगरों के हजारों निजी स्कूलों और उसमें पढ़ने वाले लाखों बच्चे। सबको उनके निजी स्कूलों में ऐसे ही विचित्र ‘प्रोजेक्ट’ दिए जाते हैं। अंग्रेजी की कुछ किताबें रटने के साथ-साथ। मैंने हिम्मत करके पूछा तो पता लगा कि लगभग पंद्रह सौ रुपए तो खर्च हो ही जाएंगे तीसरी क्लास की बच्ची के ‘प्रोजेक्ट’ पर। मैंने कहा- ‘आप मना क्यों नहीं करते कि इससे बच्चों की पढ़ाई का क्या लेना-देना है? विलेन, स्नो मैन के मॉडल दूसरी-तीसरी का बच्चा कैसे बनाएगा और क्यों? स्कूल का नाम क्या है?’ अचानक उस बच्चे की मां चुप हो गई। मानो स्कूल का नाम बताने से कहीं स्कूल से ही न निकाल दिया जाए। मैंने फिर ललकारा कि आप स्कूल के शिक्षक को समझाओ तो सही कि ये मां-बाप का होमवर्क है या बच्चों का! अब उन्होंने चुप्पी तोड़ी- ‘हमारे अकेले के कहने से क्या होता है।’ और वे वहां से निकल गए। यह है आजादी के साढ़े छह दशक बाद के लोकतंत्र में दिल्ली में शिक्षा की स्थिति। यह उस मध्यवर्गीय कायरता का भी बयान है जिसकी सही मुद्दों पर बोलने पर भी घिग्गी बंधी हुई है। आप पाएंगे कि नब्बे फीसद इस किस्म के होमवर्क में जीवन की समझ का एक भी होमवर्क नहीं है। इससे कई गुना अच्छा तो ग्रामीण वातावरण में पढ़े बच्चे होते हैं, जिन्हें फसल, खेती आदि के सभी काम अपने आप आ जाते हैं। शुरुआत होती थी कई बार भैंस या गाय के गले में सांकल डालने और खूंटे से रस्सी में अंटा बांधने से। जरूरी नहीं कि शहर के बच्चों को यही काम सिखाए जाएं, लेकिन खाना पकाना, सफाई या रोजाना की शहरी जिंदगी के वातावरण से जुड़ी वह शिक्षा तो दी ही जा सकती है जो पश्चिमी शिक्षा पद्धति में भी शामिल है। कम से कम वे ‘स्नो मैन’ या ‘सुपर विलेन’ जैसे वाहियात काम पर पैसे और समय की बर्बादी से तो बचेंगे। महात्मा गांधी के प्रसिद्ध निबंध ‘छात्र और छुट्टियां’ को इन स्कूलों में फिर से पढ़ाने की जरूरत है। गांधीजी ने यह भाषण इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1920 के आसपास दिया था। उन्होंने विद्यार्थियों को सलाह दी कि छुट्टियों के दिनों में वे किताबी दुनिया से दूर रहें और देश के नए-नए क्षेत्रों और स्थानों को देखें, सफाई शिक्षा के सामाजिक कार्यों से अपने को जोड़ें। छुट्टियां होती ही इसीलिए हैं कि आपका अनुभव संसार बढ़े। पढ़ने के लिए तो पूरा वर्ष होता ही है। इस पैमाने से कम से कम देश के ग्रामीण क्षेत्र के स्कूल तो बेहतर ही कहे जा सकते हैं। अफसोस यह है कि आदिवासी या पिछड़े क्षेत्रों के इन बच्चों का ज्ञान और अनुभव कई गुना बेहतर होने के बावजूद देश की किसी परीक्षा में नहीं पूछा जाता। परीक्षा में पूछा जाता है निजी अंग्रेजीदां स्कूलों का बनावटी ज्ञान और रटंत। इसी के बूते वे बड़े पद पाने के योग्य समझे जाते हैं। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में पिछले दो-तीन वर्ष में किए गए बदलाव इसीलिए ग्रामीण पृष्ठभूमि के बच्चों के खिलाफ जा रहे हैं। लेकिन इसे बदला जाए तो कैसे? न बच्चे के अभिभावक स्कूल के खिलाफ मुंह खोलने को तैयार और न मेरे शहर के बड़े लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार। इसमें पिस रहे हैं तो वे मासूम बच्चे और उनके मां-बाप, जिन्हें इन ‘प्रोजेक्ट’ का न मतलब पता, न उद्देश्य। सरकार को तुरंत ‘प्रोजेक्ट’ के इस धंधे पर रोक लगाना चाहिए।

1 comment:

Onkar said...

सटीक लेख