Friday, October 24, 2014

गंवर्इ आधुनिकता में सांस लेती हिन्दी कहानी

 यह आलेख हिन्दी चेतना के कथा आलोचना विशेषांक में प्रकाशित हुआ है। 

विजय गौड़

बेशक साहितियक रचनाओं को इतिहास न कहा जा सके पर उनमें दर्ज होता यथार्थ, दौर विशेष की सामाजिकी को ऐतिहासिक नजरिये से खंगालने का अवसर तो देता ही है। कथादेश, अक्टूबर 2012 में प्रकाशित कथाकार हरीचरण प्रकाश की कहानी सुख का कुंआ खोदते हुए- दिन प्रतिदिन मध्यवर्गीय जीवन के समकालीन यथार्थ को ऐसी ही करीबी से पकड़ती है। उसका पाठ भारतीय समाज के ऐतिहासिक अव्लोकन की मांग करने लगता है। पिछले 60-70 सालों की हिन्दी कहानियों में दर्ज होते समय से गुजरे बिना उसको समझा भी नहीं जा सकता है। कथ्य की संगतता में वह अपनी जैसी जिन अन्य कहानियों को याद करवाती है उनमें प्रमुख हैं- कथाकार ज्ञानरंजन की सबसे ज्यादा याद आने वाली कहानी पिता, उदय प्रकाश की तिरिछ और सुभाष पंत की ए सिटच इन टाइम। आजादी के बाद लगातार आगे बढ़ते समय में पिता और पुत्र के संबंधों की एक श्रृंखला बनाती ये चारों कहानियां भारतीय समाज व्यवस्था के विकासक्रम का सांखियकी आंकड़ा जैसा प्रस्तुत करने लगती है। ''सुख का कुंआ खोदते हुए- दिन प्रतिदिन का पिता जहां कुछ ही समय पहले लिखी गयी कहानी 'ए सिटच इन टाइम के पिता का हम उम्र साथी नजर आता है तो वहीं नब्बे के दशक में आयी 'तिरिछ’ के पिता से उसका पुत्र का सा संबंध बन रहा है और 'पिता का पिता उसे दादा-पोते के से रिश्ते में बांधता हुआ है। कथाकार कामतानाथ की कहानी संक्रमण भी पिता-पुत्र के ही संबंधों पर रची गयी है। सतत सामाजिक बदलावों की संगत में उसके कथ्य को इन चारों कहानियों के ठीक मध्य में रखा जा सकता है। दकियानूस सामंती जकड़न के विरूद्ध 'पिता’ कहानी का अंदाज जहां 'लव-हे’ रिलेशनशिप के साथ है, वहीं 'तिरिछ’ में मिथकीय आख्यान जीवन्त हो उठता है। सुभाष पंत के यहां भावनात्मक संवेदना के अतिरिक्त उभार में असंवेदनशील होता जा रहा समय बोलने लगता है तो हरीचरण प्रकाश की कहानी परिसिथतियों के वस्तुगत बदलाव में यकीन जताती है। सामाजिक बदलावों के इस प्रवाह की मध्यस्ता में खड़ी 'संक्रमण उन अवस्थओं को पुन:सृजित करती है जो बदलाव को एक सीमित गतिविधि या वय की एक अवस्था भर मान रही हैं और पुत्र में संकि्रमत होते पिता के साथ अपना होना सुनिशिचत करती है।    

दुनियावी विकास का वास्तविक पैमाना हमेशा तकनीक से निर्धारित होता है और सामाजिक ठहराव में हलचल भी उसी के बदलाव पर निर्भर करती रही है। लेकिन पिछले लगभग दो सौ सालों से मुनाफाखौर बाजार ने एक ही तरह के उत्पाद की भिन्न-भिन्न किस्मों को ही तकनीक की तरह प्रचारित कर विज्ञान का भी कर्मकाण्ड फैलाया है और तकनीक के बदलावों को दो भिन्न स्तरो पर विभाजित किया है। ये दो स्तर हैं- 'मेजर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट एवं 'माइनर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट। 'माइनर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट की राह चलता समकालीन विज्ञान उत्पादों के विशिष्ट 'वर्जन के साथ ही पूंजी की सेवादारी में संलग्न है। हिन्दी ही नहीं, भारतीय मध्यवर्ग की गैर-वैज्ञानिक गंवर्इ आधुनिकता तकनीक और उत्पाद के फर्क को अलग-अलग न मान पायी। बलिक उत्पाद को ही तकनीक मानती रही और पुरजोर तरह से तकनीक के ही विरोध में जुटी रही। इस गैर वैज्ञानिक समझदारी के प्रति तार्किक रूख अपनाते हुए जिस मध्यवर्गीय आधुनिकता का विकास होना चाहिए था, सामंती सरोकारी से मुक्त न हो पायी राजनैतिक सिथतियों में वह होना संभव नहीं था। जिसके चलते गंवर्इपन से मुकित की राह खोजता मध्यवर्ग उत्पाद को ही तकनीक मान लेने वाली लपक में आता रहा।
उद्धृत की जा रही कहानियां के अलावा भी कर्इ कहानियां हो सकती है जिनमें पिता-पुत्र का संबंध करीब से गुजरा हो। पर इन चारों कहानियों की तारतम्यता आजादी के बाद विकसित होते मध्यवर्ग के भीतर लगातार पनपती और घर बनाती गर्इ गंवर्इ आधुनिकता को चिहिनत करने में मददगार है। वैसे गंवर्इ आधुनिकता एक भिन्न पद है लेकिन यह भिन्नता सिर्फ शाबिदक नहीं है। बलिक रचनात्मक दौर की प्रवृतितयों को चिहिनत किये बगैर, उसको आंदोलन मान लेने वाली प्रवृतित से नाइतितफाकी है, जिसकी मांग हरी चरण प्रकाश की कहानी भी कर रही है। तात्कालिकता को एक आंदोलन मान लेने वाली गैर विश्लेषणात्मक पद्धति ही आलोचना के ऐसे मान दण्ड खड़ी करती रही है जिसमें रचना से इतर रचनाकार को ही ध्यान में रखकर, पहले से तय निष्कषोर्ं को ही आरोपित किया जाने लगता है। लेखक तो कहानी के इस दौर को गंवर्इ आधुनिकता, से नवाजे जाने वाली संज्ञा के पक्ष में है और कहानी आंदोलन के नाम पर अभी तक जारी सारी संज्ञाओं को तथाकथित मानने को मजबूर है। 

पिछले लगभग 70-80 वर्षो के भारतीय समाजिक ढांचे को देखें तो उसका गंवर्इ आधुनिकपन साफ तरह से समझा जा सकता है। आधुनिक काल के आरमिभक समय में उसका व्यवहार किस तरह और कौन से मध्यवर्गीय रास्तों की राह को पकड़ कर वह आगे बढ़ रही है, इसे भी जाना जा सकता है। हरीचरण प्रकाश की कहानी यहां दूसरे छोर पर है और पहला छोर कथाकार ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता’ के मार्फत ज्यादा साफ दिख रहा है। बिना किसी आग्रह-दुराग्रह के यदि बहस में उतरें तो अनेकों सवालों से टकराना होगा और गंवर्इ आधुनिकता से मध्यवर्गीय आधुनिकता में छलांग लगाते भारतीय मध्यवर्ग का चेहरा किस रूप में हमारे कथा साहित्य में दर्ज हुआ है उसे जानना-समझना संभव हो सकता है। 

सवाल है कि गंवर्इ आधुनिकता है क्या ? हरीचरण प्रकाश की कहानी और उसके बहाने याद आ रही अन्य कहानियों से उसका क्या संबंध बनता है ? स्पष्ट है कि गंवर्इ आधुनिकता का वास्तविक अर्थ हिन्दी साहित्य की अभी तक की उस दुनिया से भिन्न नहीं है, जो मेहनतकश आवाम के प्रति पक्षधर रही। वैशिवक पूंजी के आक्रामक बदलावों से नाइत्तफाकी ही उसका आदर्श है। लाख कहा जाये कि हिन्दी साहित्य के पाठकों की दुनिया सीमित है तो भी इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि  भारतीय मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा साहित्य के आदर्शोे की रोशनी में ही आवाम के प्रति संवेदनशील बना रहा है, यह उस गंवर्इपन की सकारात्मकता ही है। निम्न वर्गीय सामाजिक पष्ठभूमि से भरे कथ्य के बावजूद संवाद की मध्यवर्गीय जड़ताओं के दायरे में सिमटा होना इसके कमजोर पक्ष के रूप में रहा है। भले-भले से विचार और मेहनतकश आवाम के प्रति पक्षधर होने के बावजूद भी बदलाव के सतही नारों की शिकार रही राजनैतिक पृष्ठभूमि इसकी सीमा निर्धारित करती रही। जिसके चलते तकनीकी बदलावों को ठीक से समझने और उस आधार पर सामाजिक आदर्श को गढ़ने की प्रक्रिया में अवरोध ही बना रहा। इसका सीधा असर उन मूल्य-आदर्शों पर पड़ा जो समाज की खुशहाली का स्वप्न बुनने में सहायक होते। सिर्फ कोरे आदशोर्ं के कुछ ऐसे प्रतिमान गढ़े गये जिसने आधुनिकता की ओर संक्रमण करते समाज को घोर निराशा में जीने को मजबूर किया। व्यकितगत महत्वाकांक्षाओं की तुषिट के लिए बचाव की भूमिका ही व्यकित का आदर्श होती गर्इ। जनतांत्रिक मध्यवर्गीय आधुनिकता की बजाय भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता को जन्म देने वाली सिथतियां ऐसे तथ्यों के साक्ष्य है। 

चूंकि हरीचरण प्रकाश की कहानी सुख का कुंआ--- गंवर्इ आधुनिकता के अंत होते दौर को बयान करती है। इसीलिए जरूरी हो जाता है कि इस अंत होती गंवर्इ आधुनिकता की पड़ताल पूर्ववर्ती कहानियों के सहारे की जाये। और उस मध्यवर्गीय आधुनिकता को भी समझा जाये जो सामाजिक बदलाव की स्वाभाविक वैज्ञानिक प्रक्रिया की बजाय बलात आरोपित होती हुर्इ है। पायेगें कि गंवर्इ आधुनिकता का परित्याग अकस्मात झटके के साथ नहीं हो रहा है बलिक सामाजिक आदर्श और नैतिकताओं से धीरे-धीरे किनारा करते ऐसे मध्यवर्गीय रुझानों के साथ है जो अस्वीकार एवं स्वीकारोकित की सिथतियों की द्विविधा में गैर सामाजिक हो जाने के अंदेशों से कांपती भी रहती है। कांपने की थर-थरहाट को शिल्प और भाषा पर जरूररत से ज्यादा जोर देकर लिखी गयी कहानियों के रूप में देख सकते हैं। बिना किसी असमंजस के यदि ऐसी कहानियों का जिक्र करना पड़े तो योगेन्द्र आहूजा की पांच मिनट, मनोज रूपड़ा की रददोबदल गीत चतुर्वेदी की सावंत आंटी..., पिंक सिलप डेडी का जिक्र किया जा सकता है। ऐसी अन्य कहानियों से गुजरते हुए देखा जा सकता है कि तरह-तरह के उपभोक्ता उत्पाद की भूख पैदा करने वाली मुनाफाखौर पूंजी के विरोध के नाम पर विषय की विशिष्टता, शिल्प और अति भाषायी सजगता में मनोगत कारणों के प्रभाव ही ज्यादा प्रबल होते हुए हैं। 

दुनियावी विकास का वास्तविक पैमाना हमेशा तकनीक से निर्धारित होता है और सामाजिक ठहराव में हलचल भी उसी के बदलाव पर निर्भर करती रही है। लेकिन पिछले लगभग दो सौ सालों से मुनाफाखौर बाजार ने एक ही तरह के उत्पाद की भिन्न-भिन्न किस्मों को ही तकनीक की तरह प्रचारित कर विज्ञान का भी कर्मकाण्ड फैलाया है और तकनीक के बदलावों को दो भिन्न स्तरो पर विभाजित किया है। ये दो स्तर हैं- 'मेजर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट एवं 'माइनर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट। 'माइनर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट की राह चलता समकालीन विज्ञान उत्पादों के विशिष्ट 'वर्जन के साथ ही पूंजी की सेवादारी में संलग्न है। हिन्दी ही नहीं, भारतीय मध्यवर्ग की गैर-वैज्ञानिक गंवर्इ आधुनिकता तकनीक और उत्पाद के फर्क को अलग-अलग न मान पायी। बलिक उत्पाद को ही तकनीक मानती रही और पुरजोर तरह से तकनीक के ही विरोध में जुटी रही। इस गैर वैज्ञानिक समझदारी के प्रति तार्किक रूख अपनाते हुए जिस मध्यवर्गीय आधुनिकता का विकास होना चाहिए था, सामंती सरोकारी से मुक्त न हो पायी राजनैतिक सिथतियों में वह होना संभव नहीं था। जिसके चलते गंवर्इपन से मुकित की राह खोजता मध्यवर्ग उत्पाद को ही तकनीक मान लेने वाली लपक में आता रहा। लोभ और भ्रष्टता का दल-दल समाज में ऐसे भी अपना दायरा बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2012 में प्रकाशित कथाकार हरीचरण प्रकाश की कहानी उसके होने और उससे निषेध की बहुत क्षीण आवाज का प्रमाण प्रस्तुत कर रही है।

सामंती मानसिकता में रंगी जिस गंवर्इ आधुनिकता ने आजादी के आंदोलन में भारतीय जन मानस का नेतृत्व किया, आगे के समय में पीढ़ी दर पीढ़ी उसका ज्यों का त्यों बना रहना भी सामंती मूल्यों को पोषित करती राजनीति की ही देन रहा। उपभोक्ता संस्कृति की मुखालफत में मशीनीकरण का ही विरोध भारतीय मध्यवर्ग की भी आवाज होता गया। परिणामत: नाक भौं सिकोड़ोते हुए भी वैशिवक पूंजी की मंशाओं को पूरी तरह से पर्दा फाश करने में प्रगतिशील धारा की राजनीतिक सीमायें भी सामाजिक निराशा को जन्म देती रही है। व्यवस्था रूपी संख्याबल से बाहर हो जाने की चिन्ताओं में वह खुद अपने भीतर के मैकेनिज्म में भी वैसी ही सिथतियों को यथावत बने रहने देने वाली कार्यशैली को अपनाने वाली रही, जिसने गैर वैज्ञानिकता का ही साथ दिया। भारतीय राजनीति के इस 'प्रगतिशील रूप की बहुत साफ तस्वीर हिन्दी साहित्य में देखी जा सकती है। विचारभूमि की ऐसी सिथतियाें में ही हिन्दी कहानी का केन्द्र दया, करुणा वाले नैतिक आदर्शों से आगे नहीं बढ़ पाया। शोषण के प्रतिरोध की सदइच्छायें, साम्प्रदायिकता जैसे कुतिसत विचार की मुखालफत में भी एक ऐसा दार्शनिक अंदाज जो धर्म पर चोट करने को कतर्इ जरूरी नहीं मानता रहा। प्रगतिशीलता के ऐसे ही मानदण्ड संस्कृति और कला के घालमेली करण में वहां-वहां तर्क बन कर सामने आते रहे जहां पूजा पंडालों वाले उत्सवों के साथ बली प्रथाओं जैसी अमानवीय प्रवृत्तियां आज तक खुले आम जारी हैं, बल्कि सरकारी संरक्षण देता वर्दी धारी कानूनी राज मानो उनके लिए ही पहरे पर हो। 

उन कहानियों का जिक्र फिर कभी जो भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता का चेहरा हो रही हैं, अभी तो गंवर्इ आधुनिकता की तलाश में जुटते हुए कहा जा सकता है कि भारतीय समाज के चेहरे पर उभर आने वाले गंवर्इपन को पूरी तरह से मिटा पाने में असमर्थ और स्वंय को आधुनिक मान लेने के मुगालते में जीता मध्यवर्ग, न टूट पाये सामंती मूल्यों की जड़ता में वर्ण संकर जैसा जरूर हुआ। सामंतवादी मूल्य और आदर्शों से मुकित की सिथतियां इस वर्ग के निजी दायरे में भी वहीं तक प्रवेश कर पायी हैं जिनकी वजह से उसकी मौज मस्ती में खलल पड़ सकती थी। यदा कदा के प्रतिरोधी प्रदर्शनों वाले 'इवेन्ट को खबर बनाकर पेश करने वाले मीडिया पर भी इस वर्ग का यकीन ही जनतंत्र का झूठ रचकर आजादी का झण्डा फहराती मुनाफाखौर पूंजी की षडयंत्रकारी गतिविधियों में भी सहायक हुआ है। सिर्फ मुनाफे की हवस से भरी दलाल पूंजी ने सामंतवादी मूल्यों को पोषित करती शासन-प्रशासन की नीतियों को ही राष्ट्रीयता का नाम दिया। वैशिवक पूंजी ने स्वंय के विस्तार के लिए भी, तंत्र की इस खूबी को पहचानते हुए उसे यथावत बना रहने देने की हर भरसक कोशिश की। उसके दोहरेपन ने, जो एक ओर तो स्तंत्रता और संपभुता का स्वीकार प्रस्तुत करता रहा और दूसरी ओर वैसी सिथतियों में जारी सिथतियों को छुपाये रखने वाली मानसिकता का पक्ष चुनता रहा, स्वतंत्रता के मायने कभी पूरी तरह से परिभाषित नहीं होने दिये और स्थानीय पूंजी के दलाल रूप पर भी पर्दा पड़ा रहा। जात-पांत, क्षेत्र, धर्म और लैंगिक भेदभाव को फैलानी वाली विभेदकारी शकितयों के लगातार आगे बढ़ते रहने की सिथतियां भारतीय राजनीति की सीमा रही। बदलाव की वैशिवक भूमिका में स्वंय को प्रगतिशील मानती ताकतें भी व्यवहार में भिन्न नहीं हो पायीं। सीमित स्वत्रंता वाली स्थानीय पूंजी को अपना पिछलग्गू बनाये रखने और संसाधनों पर सीधे कब्जे वाली एफ.डी.आर्इ की हिस्सेदारी पर मन मसौस-मसौस कर भी स्वीकारोकित का वातावरण मौजूद रहा। इस प्रक्रिया में इतिहासबोध और सांस्कृतिकपन की जितनी जरूरत थी, भारतीय मध्यवर्ग ने उसे स्वीकारने में कभी कोर्इ हिचक नहीं दिखायी। घुड़सवारी, तैराकी और तमाम रोमांचक गतिविधियों में दक्षता के साथ पुरूष को पति परमेश्वर मानते रहने वाली स्कूली शिक्षा के आदर्श इसका एक नमूना मात्र है। ऐसी विशेष भारतीय सामाजिकी में जिस तरह की रचना उपज सकती हैं, वे गंवर्इ आधुनिकता से भिन्न हो नहीं सकती थी। न ही हो पायी हैं। देख सकते हैं कि दलित धारा की रचनायें भी इसी गंवर्इ आधुनिकता के भीतर सांस लेती हुर्इ हैं। लेकिन आलोचना की चालू पद्धति में वे भी उसी तरह एक अलग धारा के रूप में परिभाषित हुर्इ हैं, जैसे स्त्री सवालों की वे रचनायें जो सामंती मूल्यों की बगावत में तो लिखी गर्इं लेकिन विमर्श के भीतर आकार लेते आर्थिक स्वतंत्रता और दैहिक सजगता से भरे दो भिन्न पाठों में बंट कर रह गयीं। 

आज तक की हिन्दी कहानी मुख्यतौर पर शिल्प और पासंग में भाषायी बदलाव के साथ ही दिखायी देती  हैं। आलोचना के स्तर पर भी कलात्मक सौन्दर्य के ऐसे ही प्रतिमानों की स्थापना में रचनात्मक साहित्य के मूल्यांकन की जो पद्धति अपनायी गयी वह दृषिट में तात्कालिक और प्रस्तुति में निर्णायक ही ज्यादा रही, जिसके लक्ष्य न सिर्फ खुद में अतिमहत्वाकांक्षा से भरे रहे बलिक रचना जगत के सामने जिसने व्यकितवादी होने के मानदण्डों वाली नैतिकता के आदर्श को स्वीकारोकित प्र्रदान की। राजनैतिक ढुलमुलपन में वास्तविक प्रतिरोध के प्रतिमानों की चूकती गयी स्थापनाओं ने ही रचनात्मक जगत को भी ऐसे तार्किक आधार दिये कि सामंतवाद को उसके क्रूरतम में चिहिनत करना प्राथमिक नहीं रहा। संस्कृति को ध्वस्त किये बगैर आजादी के आंदोलन में पैदा होती आधुनिकता, आजादी के बाद भी सामंती संस्कारों से मुक्त नहीं हो सकी बलिक शासन प्रशासन के भीतर तक घुसपैठ करते हुए संवैधानिक ढांचे की शक्ल अखितयार करती गर्इ। भारतीय नौकरशाही के मूल चरित्र को उसने 'बासिज्म की ऐसी ठकुरार्इ प्रदान की कि कानून चौराहे पर खड़े सिपाही का हाथ होता गया। यानी किसी भी सीट पर बैठा कर्मचारी अपनी सीमित समझ और मनोगत कारणों से जन्म लेती व्याख्यायों को ही कानून बनाकर सामान्य जन की मुसिबतों को बढ़ाने की छूट पाता रहा। 

60 के दशक में लिखी गयी कथाकार ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता', दौर विशेष के भीतर मौजूद सामंती मूल्यों की भिड़न्त में आधुनिकता की जिस तस्वीर को प्रस्तुत करती है उसमें नये जीवन मूल्य के समर्थन में खड़ी भारतीय राजनीति की प्रगतिशील धारा के तत्कालिन मानदण्ड साफ दिखायी देते हैं। पिछड़ी तकनीक को जिददीपन की हद तक जीवन का आदर्श मान रहे पिता से आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के पक्ष को चुनने वाले पुत्र का मतभेद कहानी का मूल विषय है। लेकिन इस प्रगतिशीलता की अपनी सीमायें रही जिसमें तकनीक के बजाय उत्पाद के प्रति मोह को आधुनिक मान लिये जाने का खतरा था और उसी की गिरफ्त में फंसती गर्इ आधुनिकता का प्रवाह ही परवर्ती काल की विशेषता बन कर उभरने लगा। सामंती अन्तर्विरोधों को उभारते हुए भी उनसे पूरी तरह से मुक्त न हो पाने की त्रासदी भारतीय मध्यवर्गीय आधुनिकता की वह तस्वीर है जो वास्तविक रूप में आधुनिक होने की बजाय गंवर्इपन के झूठे विलगाव में भ्रष्ट हो जाने का आधार प्रदान करती है। संबंधों में एक किस्म का आत्मीय अनुराग लेकिन अभिव्यकित पर ताले लगाने को मजबूर करता सामंतीपन यहां सतत मौजूद रहता है। विवरणों में पुत्र की नफरत है लेकिन नफरत की वजह पुत्र का अपनी पहचान का संकट है। वह झूठी पहचान, जो सामंती ठसक में नाक को ऊंची रखने के लिए जिन्दा रहती है। लू के थपेड़ो वाली गर्मी की रात पंखे में लेटने की बजाय पिता घर के बाहर 'बान वाली चारपार्इ को भिगो-भिगो कर उस पर लेटते हुए गर्मी से निपटने की युक्ती खोज रहे हैं। पंखे की हवा में लेटा पुत्र चिनितत है कि गर्मी के कारण हो रही बेचैनी से पिता निजात पा जायें और चैन की नींद सो सकें। इस निजात पाने में पिता की हरकतों पर ध्यान देने की आशंका से भरा ऐसा आस-पास है जो पुत्र को इस कदर डराये है कि अब नाक कटी कि तब। नाक का यह सवाल ही भारतीय मध्यवर्ग की आधुनिकता के साथ आगे बढ़ता गया है। स्वस्थ पूंजीवादी प्रभावों के असर में नहीं बलिक आरोपित किस्म के पूंजीवाद ने जिस तरह सामंती गठजोड़ को आकार दिया, बिल्कुल वही। सृंजय की एक कहानी है ''मूंछ" जिसमें इस विशेष भारतीय पूंजीवादी-सामंती गठजोड़ की स्तिथियाें पर करारा व्यंग्य हुआ है। 

'पिता’ भारतीय समाज के उस वर्ग का चेहरा बनती है जिसने आजादी के बाद आकार लेना शुरू किया है। तकनीक का उपयोग जिसे खुद के जीवन को सरल बनाता हुआ लग रहा था और अपने सीमित संसाधनों में वह उनका उपयोग भी करने लगा था।  यथा,

''उसने जम्हार्इ ली, पंखे की हवा बहुत गरम थी और वह पुराना होने की वजह से चिढ़ाती सी आवाज भी कर रहा है।''

वह एक पुराना पंखा है जो खड़खड़ाहट करने की सिथति तक पहुंच चुका है। उपभोक्तावाद ने यहां अभी अपने पांव नहीं पसारे हैं। यानी जरूरत के हिसाब से पुरानी-धुरानी चीजों के साथ जीवन आगे बढ़ रहा है। अपने सीमित साधनों में ही पहुंच की सीमायें हैं।

''... लेकिन दूसरे कमरे के पंखे पुराने नहीं हैं।''

  ये अनिवार्य सुविधायें नये उभरते वर्ग की जरूरत का हिस्सा होती जा रही हैं और नयी और पुरानी पीढ़ी के बीच जीवन मूल्यों की खींचतान ऐसे मुददों पर ही अपने-अपने तर्क के साथ आगे बढ़ती है।

'' वे पुत्र, जो पिता के लिए कुल्लू का सेब मंगाते और दिल्ली एम्पोरियम से बढि़यां धोतियां मंगाकर उन्हें पहनाने का उत्साह रखते थे, अब तेजी से पिता विरोधी होते जा रहे हैं।''

पिछड़ेपन की जिद पर अड़े रहने वाले पिता से मतभेद के बावजूद अपने विरोध को सीधे रखने की एक स्पष्ट हिचकिचाहट यहां नयी पीढ़ी के भीतर सतत मौजूद है। बलिक पिता की भूमिका यहां कुछ आक्रामक ही बनी रहती है और गैर जनतांत्रिकता और सामंतीपन सामाजिक मूल्य के रूप में ज्यों के त्यों बचे रहते हैं।

''आप लोग जाइए न भार्इ, काफी हाऊस में बैठिये, झूठी वैनिटी के लिए बेयरा को टिप दीजिए, रहमान के यहां डेढ़ वाला बाल कटाइए, मुझे क्यों घसीटते हैं ?''

इस आक्रामकता का तार्किक जवाब देने की बजाय सिथति को यथावत जारी रहने देने के लिए तात्कलिक तौर पर किनारा कर लेने में ही विरोध की गढ़ी जाती तमीज ने उस मध्यवर्गीय व्यवहार को जन्म दिया जो भले-भले बने रहने की मानसिकता में ही समाज का चेहरा होती गयी।

''कमरे से पहले एक भार्इ खिसकेगा, फिर दूसरा, फिर बहन और फिर तीसरा चुपचाप। सब खीझे हारे खिसकते रहेंगे। अंदर फिर मां जाण्ंगी और पिता, विजयी पिता कमरे में गीता पढ़ने लगेंगे या झोला लेकर बाजार सौदा लेने चले जाएंगे।''

आधुनिकता के नाम पर बचा रह जा रहा यह सामंतीपन अगली पीढ़ी तक स्थायित्व होता चला गया। 'तिरछ कहानी में ऐसे ही पिता की तस्वीर आदर्श पिता के रूप में दर्ज है। जीवन मूल्यों में बदलाव की हिमायती होने के बावजूद भी समय के साथ वैसी ही जिदद के संक्रमण का यही रूप बाद के दौर में कथाकार कामतानाथ की कहानी 'संक्रमण' में दिखता है।

''थोड़ा समय गुजर जाने के बाद फिर लोगों का मन पिता के लिए उमड़ने लगता है। लोग मौका ढूंढ़ने लगते हैं, पिता को किसी प्रकार अपने साथ की सुविधाओं में थोड़ा बहुत शामिल कर सकें।''  - पिता, ज्ञानरंजन

यूं गैरजनतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ यहां मुखरता की सिथति फिर भी साफ-साफ है। कहानी के विवरण बतातें हैं कि पिता अपनी ही तरह की अकड़ ओर जिदद के साथ हैं। सामंती मानसिकता ने पिता को इस कदर जकड़ा हुआ है कि बढ़ती तकनीक की आधुनिकता में भी उन्हें असहजता महसूस होती है और वे उसका विरोध करने को मजबूर होते हैं। उनकी सांस्कृतिक शुद्धता के आगे तकनीक की आधुनिकता भी, बेशक वह कितना ही मनुष्य के हक में हो, त्याज्य है। भारतीय आजादी के आंदोलन में यह विचार गांधी के प्रभाव से मुखर हुआ और जिसे बाद के काल में स्वतंत्र चिंतन की सीमित सिथतियों के साथ, मौखिक रूप से गांधी से असहमति के बावजूद, ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया। एक लम्बे समय तक, बलिक आज तक, ऐसे प्रभाव में जकड़ा हिन्दी भाषा, समाज और उसका पूरा बौद्धिक वातावरण इसका गवाह है। गांधी का गांधीवाद तो गंवर्इ दौर की सिथतियों में सांस लेता था लेकिन आधुनिक होते समाज के भीतर भी उसकी ज्यों की त्यों सिथति को फिर 'गंवर्इ आधुनिकता क्यों नहीं कहा जाना चाहिए ? भारतीय राजनीति का यह एक ऐसा चेहरा था जिसके कारण औपनिवेशिक दासता की छाया से पूरी तरह मुकित का रास्ता तलाशना भी मुशिकल हुआ। वामपंथी राजनीति के भटकाव की गलियां भी एक हद तक ऐसी ही खाइयों में धंसी देखी जा सकती हैं। जहां उत्पाद को ही तकनीक मानते रहने की समझ काम करती रही। पायेंगे कि इंक्लाब का नारा बुलन्द करती  क्रान्तिकारी धारा तक ने अपने को ट्रेड यूनियन आंदोलन से बचाये रखते हुए नवजनवादी क्रानित के उस नारे को बुलन्द किया है जो पिछड़े तरह के औजारों और दैवीय अनुकम्पा में टिकी खेती का हिस्सा हो जाता है। 'आधुनिक किस्म के उपक्रमों में काम कर रहे मजदूर और कर्मचारियों की तकलीफें उसके दायरे से बाहर रही और झूठे जनवाद की वकालत में जुटी संसदीय राजनीति के आसरे मजबूत संभावनाओं वाले ट्रेड यूनियन आंदोलन का जो हश्र और पतन होना था, वह लगातार जारी रहा। बौद्धिक जमात और साहित्य, संस्कृति और कला में जुटे समाज से भी क्रानितकारी धारा की एक हद तक दूरी इसी लिए बनी रही- खासतौर पर हिन्दी भाषी क्षेत्र में तो इसे दूरी के रूप में भी चिहिनत नहीं किया जा सकता। परिणामत: सांस्कृतिक बिरादरी का अधिकांश हिस्सा सामाजिक परिवर्तन की किसी सकारात्मक कार्यवाही से बाहर ही खड़ा रहा और बदलाव की क्रानितकारी धारा ही नहीं बलिक बदलाव का परस्पर रास्ता तक विकसित नहीं हो पाया। सिथतियों की यह विकटता जनपक्षधर प्रतिबद्ध रचनाकार जमात को भी अपने औजार तलाशने के अवसरों से वंचित करने वाली साबित हुर्इ। साहित्य की दुनिया के ऐतिहासिक पड़ाव को रचनाकारों के नामों के साथ जोड़कर, या कोर्इ नया सा नाम देकर, स्थापित होने की व्यकितवादी प्रवृतित ही आगे बढ़ती रही। 19 वीं सदी से शुरू हुर्इ आधुनिक हिन्दी साहित्य की पड़ताल में जुटी हिन्दी आलोचना का ऐतिहासिकताबोध तो इस बात की तथ्यात्मक पुष्टी करता है। जहां कितने ही पड़ावों से हिन्दी की आधुनिक धारा को परिभाषित होते हुए देखने के बाद भी किसी एक रचना को पढ़कर यह अनुमान लगाना संभव नहीं कि इसे किस खांचे में रखकर पढ़ा जाये जब तक कि रचनाकार का नाम और रचना के काल एवं उसको प्रकाशित करने वाले ग्रुप के साथ जोड़ने वाली सूचनाओं का अभाव हो। यानी प्रवृतित में एक ही तरह की रचनायें, कमोबेश कालक्रम के कारण आ रहे छोटे मोटे बदलावों में सांस लेने के कारण कुछ भिन्नता भी बेशक लिए हों, लगातार पनपती और विकसित होती व्यकितवादी प्रवृतितयों के कारण जन्म लेते गये खेमों में बंटी हुर्इ रही। व्यवहार में गिरोहगर्द होते जाने का इतिहास निर्माण जारी रहा और आलोचना, आत्मआलोचना का दायरा सिकुड़ता चला गया। भारतीय राजनीति के संसदीय चेहरे को निखारने में जुटे साहित्यक संगठनों ने इस प्रक्रिया में खाद पानी का काम किया और मनोगत कारणों से व्याख्यायित होती झूठी प्रगतिशीलता की स्थापनाओं को आधार प्रदान किया। हिन्दी कथा साहित्य में ऐसे यथार्थ की अनेकों तस्वीरें साफ-साफ दर्ज हुर्इ हैं जो स्वत: इस बात का भी प्रमाण हैं कि बिना किसी दूरगामी राजनीति के साहित्य भी किसी नये कल्पनालोक की स्थापनाओं का वास्तविक पक्षधर नहीं हो सकता।

संदर्भित कहानी 'पिता’ में निसंदेह सामंतवाद के प्रति एक निषेध तो दिखता है लेकिन समाज में बहुत भीतर तक जड़ जमायी सामंती प्रवृति से पूरी तरह से मुक्त न हो पाये रचनाकार का मानस भी अपना असर डालता है। कथाकार ज्ञानरंजन की आलोचना में कहा जाये तो स्पष्टतौर से कहना पड़ेगा कि वे 'अकहानी के दौर के ऐसे रचनाकार हैं जिनके यहां मानवीय संबंधों की आत्मीय पुकार सामंती मुकित से पूरी तरह विलग संसार रचने में एक पड़ाव भर ही रही। प्रतिरोध की मुक्कमल तस्वीर नहीं बनाती। हां, यह जरूर है कि पिता कहानी में मानवीय संबंधों की ऊष्मा को बचाए रखने की कोशिश अपने समय के हिसाब से ज्यादा तार्किक और संबंधों में आ रहे बदलावों को ज्यादा करीब से पकड़ती है। इस कहानी के साथ ही शुरु हुआ दौर कुछ भिन्न इसीलिए भी दिखायी देता है कि यहीं से हिन्दी कहानी जिन्दगी के ऊबड़ खाबड़ पन को ज्यादा मारक तरह से रखने वाली भाषा को गढ़ने के साथ आगे बढ़ती हुर्इ दिखने लगी। लेकिन अनुतरित रह जा रही सामंती सिथतियों से छलांग लगाकर मध्यवर्गीय होते जीवन के उस कथा संसार से बहुत भिन्न न हो पायीं जो छायावादी युगीन काव्य-कोमलता से आगे निकल आने के बावजूद मध्ववर्गीय जीवन के कलह-झगड़े, प्रेम और नफरत के कोमल-कोमल से दृश्य ही लगातार रच रही थी । यहां तक कि निर्ममता से भरी मुनाफाखोर संस्कृति पर राजनैतिक दृढ़ता से भरे हमले की ठोस पहल को प्रेरित करने में भी अपनी सीमाओं के साथ रहीं। सांस्कृतिक वातवारण के निर्माण में ही नहीं अपितु वास्तविक अर्थोें में भी वित्तीय पूंजी की बढ़ती चौधराहट के साथ कामगार वर्ग पर तेज हो रहे हमलों से बच निकल जा रहा हिन्दी का रचनात्मक संसार सिर्फ भाषायी प्रयोग और कलात्मक अभिव्यकित में बदलाव के साथ भिन्न नहीं हो सकता था और न ही है भी।
     
इतिहास अपनी व्याख्याओं में 'ऐसा था होने की स्थितियों का नाम नहीं बल्कि 'यही थ’ होने की तार्किकता का समर्थक होता है। और उस 'यही था को प्रस्तुत करने के लिए उसे साक्ष्यों को रखना अनिवार्य शर्त जैसा हो जाता है। गल्प और कथाऐं 'ऐसा था’ होने की आवृतित के साथ इतिहास जैसी आवाज हो जाती है। क्योंकि तथ्यों का अनुसंधान और उनके अनिवार्य विश्लेषण में वे अपना होना साबित करती हैं। साक्ष्यों की उपसिथति की वहां कोर्इ जरूरत भी नहीं लगती। साहित्य की यह खूबी किसी भी घटना के एकांगी पाठ की सीमाओं को तोड़ देती है और रचनाकार के मंतव्य का भी अतिक्रमण करते हुए अनेकों पाठ की छूट ले लेती है। संभावनाओं की अनंत दिशाओं के द्वार खोलते पाठों के रास्ते ही 'ऐसा था से 'ऐसा होगा तक की व्याख्याऐं जन्म लेना शुरू होती है। यानी, साहित्य की प्रासंगिकता इस दृषिटकोण से भी महत्वपूर्ण होती है कि वह मात्र सांखियकी आंकड़ों के आधार पर किसी मसले को पूरी तरह से समझने की सीमाओं को चिहिनत करती है। 'तिरिछ कहानी का पाठ घटना के विश्लेषण को विभिन्न स्तरों पर मांग का पक्षधर है। पिता की मृत्यु हो जाना एक घटना है और मृत्यु के कारणों की खोज में जो ताना-बाना है वह किस कदर वास्तविक कारणों तक पहुंचना चाहता है कि उससे गुजरना दिलचस्प है। मृत्यु तिरिछ के काट लेने से हुर्इ है। लेकिन प्रश्न है कि वह तिरिछ एक जहरीला जंगली जानवर भर है, जो किसी अंधेरी खोह में रहता है, या सर्वत्र व्याप्त तिरिछ की सिथतियां मृत्यु का कारण हैं ? साथ ही उपचार की वह कौन सी पद्धति है जो पूरी तरह से स्वस्थ कर पाने में कारगर हो सकती है ? कल्पनाओं की अनंत उछालों के साथ रची गयी यह कहानी अभी तक की ज्ञान-विज्ञान की जानकरियों से उपजी पद्धति तक को सवालों के घेरे में लेती है और अज्ञात रह गये बहुत से क्षेत्रों तक आगे बढ़ने का इशारा करती है। तिरिछ के काट लिये जाने पर समुचित रूप से उपचारित होने की संभवानायें बेशक यहां निशाने पर नहीं हैं पर धतुरे का काढ़ा पिलाकर किये जा रहे उपचार की विधि पर आधारित तथाकथित 'आधुनिक चिकित्सा पद्धति की सैद्धानितकी तो निशाने पर है ही। 'तिरिछ’ कहानी का यह पाठ भी उसको एक महत्वपूर्ण कहानी बनाता है। भाषा और शिल्प के स्तर पर गंवर्इ आधुनिकता में धंसे समाज की अनेको-अनेक पर्तों को उदघाटित करने की सचेत कोशिश भी कहानी को महत्वपूर्ण बना रही है।

गांव-गंवर्इ का ठेठ देशीपन जो सामूहिकता के साथ ही विपदाओं से निपटने को तैयार रहता है, बदलती सामाजिक सिथतियों में 'तिरिछ के पिता को धतुरे का काढ़ा पिलाकर निशिचत हो जाता है। लेकिन एक ऐसा पिता (एक समय का पुत्र) जो सामंती जकड़न से अपने को पूरी तरह से मुक्त नहीं कर पाया, साम्राज्यवादी शहरीकरण के बीच उसके खो जाने की आशंका निमर्ूल नहीं थी। भविष्य के पिता और वर्तमान पुत्र द्वारा पूर्व पुत्र और वर्तमान पिता को खोजने के लिए बहुत से बंद पड़े दरवाजों को खड़-खड़ाना इसीलिए जरूरी भी था।   

''पिताजी के साथ एक दिक्कत यह भी थी कि गांव या जंगल की पगडंडियां तो उन्हें याद रहती थीं, शहर की सड़कों को वे भूल जाते थे।   - तिरिछ

तिरिछ कहानी का पिता पिता कहानी का वह पुत्र है जो एक दौर में पिछली पीढ़ी से एक हद तक आधुनिक हुआ था। और इस आधे-अधूरे आधुनिकत पिता पर उसके पुत्र का यकीन स्पष्ट है। पिता का जिक्र यहां कुछ इस तरह से होता है,

''दुबला शरीर, बाल बिल्कुल मक्के के भुटटे जैसे सफेद। सिर पर जैसे रूर्इ रखी हो। वे सोचते ज्यादा थे बोलते बहुत कम। जब बोलते तो हमं राहत मिलती जैसे देर से रुकी हुर्इ सांस निकल रही हो।"

आदर्शवादी और दूसरों से कुछ आधुनिक पिता पर मुग्ध यह पुत्र चश्मदीद गवाह, पत्रकार सत्येन्द्र थपलियाल के कहे पर यकीन नहीं कर सकता कि उसका पिता किसी सर्राफ की बीबी और बेटी पर हमला करने वाला शख्स हो सकता है। पिता के आदर्श और उनकी नैतिकता पर उसका पूरा भरोसा है। किन्हीं अनजानों को बेवजह गालियां देने वाले पिता की तो वह कल्पना ही नहीं कर सकता।

''मेरा अनुमान है कि पिताजी उनके पास या तो पानी मांगने गये होंगे या बकेली जाने वाली सड़क के बारे में पूछने। उस एक पल के लिए पिताजी को होश जरूर रहा होगा। लेकिन इस हुलिये के आदमी को अपने इतना करीब देखकर वे औरतें डरकर चीखनें लगी होंगी।"

भारतीय राजनीति के इंक्लाबी दौर का सातवां, आठवां दशक इस बात का गवाह है कि सामंतवाद को पहला शत्रु मानने वाला पुत्र नव औपनिवेशिक ढांचे के साथ विस्तार लेती जा रही सिथतियों को नजरअंदाज कर रहा था, ट्रेड यूनियन आंदोलन में हिस्सेदारी से परहेज कर गांव-देहातों से जंगल के भीतर तक सुरक्षित आधार तैयार कर लेना उसकी प्राथमिकी में रहा और आज तक बना हुआ है। इसीलिए वह उन गहरे अंधेरों के तिरिछों से निपटना तो जानता था जो किसी खोह में, नदी के तट पर या किसी गाछ की जड़ में दिख जाते हैं लेकिन शहरी वातावरण में हर ओर मौजूद ज्यादा जहरीले तिरिछ की उसे पहचान नहीं हो सकती थी।

किराये के मकान में रहते हुए मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी ढोता तिरिछ कहानी का पिता साठ के दशक के पुत्र होने के पूरे प्रमाण छोड़ता है। पारिवारिक ढांचा यहां सिर्फ पत्नी और ब्च्चों वाली तस्वीर में मौजूद है। संयुक्त परिवारों वाली सामूहिकता यहां गायब होने लगी है। साथ ही छल-छदम और हर तरह से मारकाट के निर्मित होते वातारवरण में परिवार के मुखिया की चिंताएं अपने परिवार की सुख-सुविधाओं को बचाये रखने की है। जीवन के इस संघर्ष में न सिर्फ मध्यवर्गीय जड़ताएं हैं बलिक सामंती प्रभावों में जन्म लेती बहुत-सी दैनिक दिक्कतें हैं जो उसे घेरे रहती हैं।

''उस समय पिताजी सिर्फ तिरिछ के जहर और धतूरे के नशे के खिलाफ ही नहीं लड़ रहे थे बलिक हमारे मकान को बचाने की चिन्ता भी कहीं न कहीं उनके नशे की नींद में बार-बार सिर उठा रही थी।"

यहां पिता का अपने परिवार और बच्चों से जो रिश्ता है, उसमें एक हद तक खुलापन है। वह यदा-कदा बच्चों के साथ घूमने भी जाता है। पारिवारिक ढांचे में एक सीमित हद तक बराबरी के भाव भी रखना चाहता है। पुरानी पीढ़ी से भिन्न उसकी यह छवी ही उसे अपनी संततियों के सामने एक आदर्श पिता का व्यकितत्व प्रदान करती है।

''कभी-कभी, वैसे ऐसा सालों में ही होता, वे शाम को हमें अपने साथ टहलाने बाहर ले जाते। चलने से पहले वे मुंह में तंबाकू भर लेते। तंबाकू के कारण वे कुछ बोल नहीं पाते थे। वे चुप रहते। यह चुप्पी हमें बहुत गंभीर, गौरवशाली, आश्चर्यजनक और भारी-भरकम लगती।"

कितना साफ दर्ज है कि पिता कहानी में जहां पुत्र पिता का विरोधी नजर आता है, वहीं तिरिछ का पुत्र विरोध तो बहुत दूर की बात, उस तरह की किसी अभिव्यकित को भी अपने भीतर नहीं उपजने देता। पिता पर उसके यकीन के ढेरों साक्ष्य कहानी में हैं,

"एक तरह की राहत और मुक्ति की खुशी मेरे भीतर धीरे-धीरे पैदा हो रही थी। कारण, एक तो यही कि पिताजी ने तिरिछ को तुरन्त मार डाला था और दूसरा यह कि मेरा सबसे खतरनाक, पुराना परिचित शत्रु आखिरकार मर चुका था। उसका वध हो गया था और मैं अपने सपने भीतर, कहीं भी, बिना किसी डर के सीटी बजाता घूम सकता था।"

 देख सकते हैं कि संबंधों को बचाये रखने के नाम पर सामंती सरोकार से मुकित की कोर्इ स्पष्ट राह नहीं बन पाती। बलिक जो थोड़ा-बहुत रास्ता बन भी रहा होता है उसमें भी गतिरोध पैदा होने लगा। जनतांत्रिक प्रक्रिया बाधित होने लगी है और अन्तर्विरोधों के उभरने की बजाय स्वीकारोकित का यथासिथ्तिवाद जन्म लेने लगा। पिता की आधुनिकता को ही अनितम रूप से स्वीकारते हुए, पीढ़ीगत अन्तर्विरोध जैसा भी कुछ नहीं उभरता। पूरी तरह से सहमत पुत्र के भीतर स्थापित हो रहे आदर्शों को अपनाने में किसी भी तरह की कोर्इ द्विविधा नहीं रहती। यह विचारणीय है कि सामाजिक बदलाव की यह गति क्या उतनी ही स्वाभाविक थी जितनी सरलता से वह साहित्य में दर्ज हो रही थी ?

यह विवरण भी कहानी में ही है कि पिता को जहां सबसे ज्यादा प्रताड़ना मिली वह इतवारी कालोनी है। विकसित होती आर्थिक व्यवस्था का स्थायी कहा जा सकने वाला डेरा, जहां साम्राज्वादी पूंजी की खुरचन से जीने के नये अंदाजों की ओर बढ़ते मध्यवर्ग का विस्तार दिखायी देता है। तिरिछ कहानी के पुत्र का अपने पिता के बारे में दिया जा रहा यह विवरण उल्लेखनीय है,

''इस घटना का संबंध पिताजी से है। मेरे सपने से है। और शहरों से भी है। शहर के प्रति जो एक जन्मजात भय होता है, उससे भी है।"

मध्यवर्गीय जीवन शैली कैसे नितांत व्यकितगत बनाती जाती है और सामूहिकता को नष्ट करती जाती है, बदलते भारतीय समाज की आरमिभक पदचापों में ही उसके संकेत दिखने लगे थे।

''एक सबसे बड़ी विडम्बना भी इसी बीच हुर्इ। हमारे ग्राम-पंचायत के सरपंच और पिताजी के बचपन के पुराने दोस्त पंडित कंधर्इ राम तिवारी लगभग साढ़े तीन बजे नेशनल रेस्टोरेंट के सामने, सड़क से गुजरे थे। वे रिक्शे पर थे। उन्हें अगले चौराहे से बस लेकर गांव लौटना था। उन्होंने उस ढाबे के सामने इक्टठी भीड़ को भी देखा और उन्हें यह पता भी चल गया था कि वहां पर किसी आदमी को मारा जा रहा है। उनकी यह इच्छा भी हुर्इ कि वहां जाकर देखें कि आखिर मामला क्या है। उन्होंने रिक्शा रुकवा ली थी। लेकिन उनके पूछने पर किसी ने कहा कि कोर्इ पाकिस्तानी जासूस पकड़ा गया है जो पानी की टंकी में जहर डालने जा रहा था, उसे ही लोग मार रहे हैं। ठीक इसी समय पंडित कंधर्इ राम को गांव जाने वाली बस आती हुर्इ दिखी और उन्होंने रिक्शेवाले से अगले चौराहे तक जल्दी-जल्दी रिक्शा बढ़ाने के लिए कहा। गांव जाने वाली यह आखिरी बस थी। अगर उस बस के आने में तीन-चार मिनट की भी देरी हो जाती तो वे निशिचत ही वहां जाकर पिताजी को देखते और उन्हें पहचान लेते।"

आरोपित शहरी जीवन की सामूहिकता यहां निशाने पर है, बेशक स्वााभाविक रूप से विकसित होते शहरों की बुनावट का जिक्र नहीं लेकिन उस तरह के क्रमिक विकास पर सोचने का रास्ता तो कहानी देती ही है। गफलतों में विकसित होती शहरी मानसिकता के शिकार पिता भीड़ के हत्थे चढ़े हैं।

कहानी से बाहर जाकर यदि तत्कालिन समय को खंगाले तो तथ्य बताने लगेंगे कि सामंतवाद को पहला शत्रु मानने वाले पिता ने नव औपनिवेशिक विस्तार के खतरों से बिना डरे और उससे निपटने के ट्रेड यूनियनवादी तरीकों को गैर इंक्लाबी रूझान मानकर उनसे किनारा करना ही उचित समझा। आंदोलन के केन्द्र सिर्फ पिछड़े इलाकों तक ही केन्द्रीत होते चले गये। कहानी में दर्ज समय 1972 अनायास नहीं माना जा सकता। बावजूद बदलते हुए समय के, पुत्र अपने पिता के प्रति अभी भी सहृदय है। पिता सामंती प्रवृतितयों के तिरिछ के काटे जाने के शिकार हुए हैं। बलिक कथा विवरणों के सहारे आगे बढ़े तो कह सकते हैं कि सामंती दौर से भी पहले की समाज व्यवस्था का प्रतीक,

''तालाब के किनारे जो बड़ी-बड़ी चटटानों के ढेर थे और जो दोपहर में खूब गर्म हो जाते थे, उनमें से किसी चटटान की दरार से निकलकर वह पानी पीने तालाब की ओर जा रहा था।"

हिन्दी कहानी की राजनैतिक और वैचारिक सीमा उस समाज से भिन्न नहीं, जो हर स्तर पर गंवर्इ मानसिकता में सिमटा रहा। घटना के कारणों को बहुस्तरीय मानते हुए भी समाज निर्माण में विभिन्न स्तरों को निधार्रित करती चलाक व्यव्स्था के पेचोंखम इसीलिए अपने तीखेपन के साथ दर्ज नहीं हो पाते। उनका आभाव ही समाज को निर्णायक बदलाव वाले संघर्ष तक ले जाने में बाधा बन जाता है। सिर्फ प्रचलित शहरी और गंवर्इ मानसिकता के अन्तर्विरोध ही प्रधान बने रहते हैं। जबकि वे कारण, जो समाज को पिछड़ा बनाये रखने के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं और जिनके कारण यह दिखायी देता हो कि चालाक व्यवस्था किस तरह से अपने मंसूबों को साधने के लिए 'आधुनिक चोला ओढ़ती है, अछूते रह जाते हैं। सिर्फ मिथकों, धार्मिक विश्वासों और गैर तार्किक धारणाओं को आधार बनाकर गल्प रचने का यह जादुर्इपन रचनाकार की उस अवधारणा से उपजा होता है जिसमें राजनीति से परहेज करना एक रचनाकार के लिए जरूरी मान लिया जाता है।  
'तिरिछ’ से आगे बढ़ते हैं तो सुभाष पंत की कहानी 'ए सिटच इन टाइम’ पिता की भूमिका में तब्दील हुए पुत्र का साक्ष्य बनती है। बहुत करीब से गुजरता समय यहां दिखायी देने लगता है। उस करीब के समय में ही सामाजिक वंचना के नये-नये रूप भी दिखायी देने लगे हैं। बेरोजगारी उन्हीं में से एक ऐसी आधुनिक अवधारणा है जिसकी शुरूआत पारम्परिक और पुश्तैनी कार्यव्यापार के ध्वस्त होने के साथ और उधोग की नयी केन्द्रीकृत सिथतियों में जन्म लेती है। ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता का दौर भारतीय समाज में आ रहे बदलावों का वह दौर है जिसमें पुश्तैनी कार्यव्यापार को ध्वस्त कर सृजित होते हुए नये उधोगों की आर्थिकी पनपती है। इस आर्थिकी की परिणिति में ही नये किस्म की बेरोजगारी भी जन्म लेती है। यहीं से भारतीय राजनीति का वह घुमावदार रास्ता भी शुरू होता है जो कारणों की तलाश में उत्पाद को ही तकनीक मान लेने वाली गैर तार्किकता के साथ तकनीक का ही विरोधी करने लगता है। इस तरह की सिथतियों से पूंजी के षड़यंत्रों का पर्दाफाश होने की बजाय षड़यंत्रकारी ताकतों को पूंजी के विभ्रम का तानाबाना बुनने में ही मदद मिली और आरोपित बेरोजगारी के भी भयावह मंजर दिखायी देने लगे। कथाकार सुभाष पंत की कहानी 'ए सिटच इन टाइम में आरोपित की जा रही बेरोजगारी का चेहरा ज्यादा भयावह है। ज्ञान रंजन की कहानी के दौर की बेरोजगारी की सिथतियों से भिन्न यहां पैने नाखूनों वाले जालिम जमाने का अदृश्य विभत्सपन लेखकीय चिन्ताओं के दायरे में है। चमचमाती दृनिया की चकाचौंध से पैदा होते अंधकार में ठीक से पांव भी न उठा पाने की बेचैनी यहां साफ दर्ज होती है। सिथति का सामना करने की बजाय अवसाद में डूबते जाने की मजबूरियां लेखकीय बेचारगी की भी गवाह बन रही हैं। अपने चुराये एकान्त में बेरोजगार बना दिये जा रहे कारणों की पहचान करने का अवकाश भी यहां मौजूद नहीं है। बावजूद इसके कि 'ए सिटच इन टाइम ऐलानिया बाजार के प्र्रतिरोध में लिखी रचना है लेकिन देख सकते हैं कि ऐलानिया बाजार के आदर्शों का हव्वा कहानी के उस पात्र के भीतर भी मौजूद है जो प्रतिरोध के प्रतीक के तौर पर लेखकीय आदर्श के रूप में दिखता रहता है। यह वही पिता है जो तकनीक और उत्पाद को अलग-अलग देख पाने में चूक जाने के कारण प्रतिरोध की किसी सामूहिक कार्यवाही का हिस्सा होने की बजाय खुद को हारा हुआ महसूस करता है। ऐलानिया बाजार से मतभेद के बावजूद झूठी जीत के आदर्शों से भरी उसके भीतर की अभिव्यकितयां कुछ इस तरह हैं,

''मैंने फोरन अमन टेलर्ज से सिलवार्इ कमीज निकालकर मेज पर फैला दी। यह सिर्फ मेरे लिए सिली गर्इ कमीज थी, जो ऐलानिया बाजार में खरीदी या बेची नहीं जा सकती थी और मेरी एक अलग पहचान कायम करती थी।''

यूनिक होने और यूनिक दिखने के ये जो आदर्श हैं, ऐलानिया बाजार के प्रतिरोध को बेहद बचकाना साबित कर दे रहे हैं। जबकि 'यूनिकनेस का प्र्रोपोगण्डा फैलाता ऐलानिया बाजार वस्तुओं को उपयोगिता से ज्यादा उनके विशिष्ट होने के ही आदर्श से गढ़ रहा है। पक्ष का यह ऐसा प्र्रतिपक्ष है जिसकी पहचान में ही न सिर्फ राजनैतिक दिशा गड़बड़ायी है बलिक इस देश की तमाम बौद्धिकता लाचार साबित हुर्इ है। खास तौर पर हिन्दी क्षेत्र में सतही तरह के विरोध। इस देश के कामगार वर्ग ने ऐसे बौद्धिकपन की कमजोरी को अच्छे से पहचाना है। पाठक का रोना रोते हिन्दी समाज का विश्लेषण करें तो देख सकते हैं कि संकटों से बाहर निकलने की कोर्इ स्पष्ट राह न सुझा पा रहे साहित्य से आम जन की दूरी दिखायी दे सकती है,

''दरअसल अब रेडीमेड गारमेंटस का जमाना है। इन्हें बचाने के लिए आइ बड़ी कम्पनियों ने दर्जियों के कारोबार को मंदी में धकेल दिया है। कारीगरों का मेहनताना निकालना ही मुशिकल हो गया। हमारा यह धंधा बंद होने के कगार पर है। बच्चों का मन दुकान से पूरी तरह उचट गया है। बड़ी मछली के सामने छोटी मछली बहुत दिन टिकी नहीं रह सकती ... कभी हमारे भी दिन थे।''

यहां देख सकते हैं कि अमन टेलर न सिर्फ खुद की सिथति और सहानुभूति की आवाज में बतियाते किसी ग्र्राहक के भीतरी मन से वाबस्ता है बलिक व्याप्त माहौल की गिरफ्त में जीवन जीती खुद की संततियों से भी उसे कोर्इ उम्मीद नजर नहीं आती। उसे कोर्इ अंदेशा नहीं कि यूनिकनेस का जादू एक दिन उसे अपने ग्र्राहकों से पूरी तरह से जुदा कर देगा क्योंकि मशीनी कुशलता के आगे तो मानवीय कौशल वैसे भी पिछड़ना ही है। फिर रंग की यूंनिकनेस, स्टफ की यूनिकनेस और दूसरे ऐसे बहुत से कारक जिन पर बड़ी पूंजी का स्पष्ट नियंत्रण है। सचमुच की यूनिक कमीज जो किसी एक ग्राहक विशेष के लिए ही हो सकती है, वैसा मानदण्ड खड़ा करने के लिए मात्र कारीगरी काफी नहीं है। उसे अपने ग्र्राहक की भीतरी मनसिथति भी अच्छे से मालूम है जो बाजारू पूंजी के विरोध में उत्पाद की नहीं बलिक तकनीक का ही विरोधी करती है और स्वंय कलात्मक यूनिकनेस की सी जद में होती जा रही है,

''उसे पहनते ही मैंने महसूस किया मैं बदल गया हूं। मैं ज्यादा संस्कारित, सभ्य और कीमती हो गया। बड़प्पन की ऐंठ से मेरी छाती फैल गर्इ। सीना गदबदाने लगा और आंखों की झिलिलयां फैल गर्इ। मेरे पीछे ताकतें थी। आला दिमाग, श्रेष्ठ अभिकल्प और महानायक थे। मैं सतह से ऊपर उठ चुका था।''

ब्र्राण्डेड कमीज और अमन टेलर की सीली कमीज के बीच तुलना की एक अन्य सिथति भी कहानी में देखी जा सकती हैं जो अमन टेलर वाले समाज के भीतर निराशा पैदा करती है,

''टीना की कमीज मेरी नाप के अनुसार नहीं थी। ऐसी कमीजें किसी के भी नाप के मुताबिक नहीं होती। ये पहनने वाले से रिश्ता कायम करके नहीं बनार्इ जाती। इनका नाप स्टेटिस्टीस्कम की मोस्ट अकरिंग फ्रिक्वेंसिज है। बहरहाल, ढीली फिटिंग के बावजूद उसमें आक्रामक उत्तेजना थी। शोख, गुस्सैल और मोहक लड़की की तरह। इनके साथ समझोता करना होता है। मैंने भी किया और कमीज पहन ली।''

उत्पाद और तकनीक को एकमेव मानते हुए बड़ी पूंजी के विरोध का जो रूप 'पिता' में दिखता हैं उससे भिन्न समझदारी 'ए सिटच इन टाइम' के पिता की भी नहीं बन पा रही है। 'पिता’ कहानी में पिता अपने पुत्रों को लताड़ते हुए कहते है,

''मैं सबको जानता हूं, वही म्यूनिसिपल मार्केट के छोटे-मोटे दर्जियों से काम कराते है और अपना लेबल लगा लेते हैं। साहब लोग, मैंने कलकत्ते के 'हाल एण्डरसन के सिले कोट पहने हैं अपने जमाने में, जिनके यहां अच्छे-खासे यूरोपियन लोग कपड़े सिलवाते थे। ये फैशन-वैशन, जिसके आगे आप लोग चक्कर लगाया करते हैं, उसके आगे पांव की धूल हैं। मुझे व्यर्थ पैसा नहीं खर्च करना है।               ..... पिता, ज्ञानरंजन    

ठीक वैसे ही मन:सिथति 'ए सिटच इन टाइम' के कारीगर को फंतासी में ले जाती है,

'' आखिरकार हमारी फैक्ट्री ने घुटने टेक दिए और वह ठेके पर 'एक्सेल गारमेंटस मल्टीनेशनल' का माल बनाने लगी। इन बड़ी और सारी दुनिया में फैली कम्पनियों की अपनी फैक्ट्रीयां नहीं होती। ये गरीब मुल्कों की फैक्ट्रीयों में अपना माल बनवाती है। इनका तो बस नाम चलता है। ये नाम का पैसा बटोरती हैं। गरीब मुल्क की फैक्ट्रीयां तालाबंदी के डर से लागत से भी कम में इनका माल तैयार करने को मजबूर हो जाती है।''              
अन्तत: अनिच्छा के बावजूद लाचारी भरी सिथतियों में ब्राण्डेड कमीज को पहन कर जश्न का हिस्सा हो जाते पिता का चेहरा भारतीय मध्यवर्ग का यर्थाथवादी चित्र उकेरता है। भले-भले बने रहने और भले-भले दिखने का इससे साफ चित्र दूसरा नहीं हो सकता। एक लम्बे अंतराल में बहुत सी हो चुकी तब्दलियों में देखा जा सकता है कि पिता अब मजबूर हैं पुत्री के सामने। यहां पुत्र के रूप में पुत्री की उपसिथति उस सामाजिक बदलाव का एक ऐसा सकारात्मक संकेत जरूर है जहां पुरूष प्रधान समाज के सामने चुनौतियां पेश होनी शुरू हो चुकी हैं। एक खास तबके में पुत्र और पुत्री में भेद को जायज नहीं माना जाने लगा है।  
साम्राज्यवादी पूंजी का प्रसार ब्रांडेड उपभोक्ता वस्तुओं के रूप में स्थापित हो चुका है। देशी किस्म कारीगरी तक को मशीनी उत्पादन ने लील लिया है। गुणवत्ता के पैमाने बहुत चुस्त दुरस्त दिखने वाले हुए हैं। पैकेजिंग के तीखे नोकदार उभार गुणवत्ता की प्राथमिकी में स्थापित हुए हैं। लेकिन पिता अभी भी देशी कारीगर के हाथ से बनी हुर्इ कमीज पहनना चाहता है। उसका पूरा यकीन उस कारगरी पर है जो रोजी-रोटी के अवसरों का विकंन्द्रीकरण कर सकती है। लेकिन उसका यह चाहना सिर्फ मनोगत भाव है। वरना व्यवहार में उसके लगातार खत्म होते जाने की सिथतियां बनी रहती हैं। 'कपड़े विचार हैं, यह सूत्र वाक्य है 'ए सिटच इन टाइम का। बर्थडे पार्टियों की सिथतियां यहां एक क्षण-विशेष को जीना मात्र नहीं बलिक बाजारू संस्कृति की लगातार चाहत का नमूना है। एक तरफ बदलती सिथतियों से विरोध तो दूसरी ओर उसकी स्वीकार्यता की मजबूरी। इन्हीं सिथतियों की संगत में समाज के उस चेहरे को देख सकते हैं जहां दुनिया के बदलाव के संघर्ष के लिए हमेशा बेचैन रहने वाले पिताओं तक की भावी संततियां कैसे बाजारू मूल्यबोध के साथ अपने होने को साबित करती रही है। किसी व्यकित विशेष का नाम लेकर अलोचना को व्यकित केनिद्रत कर देना होगा। एक लम्बे दौर की राजनैतिक शखिसयतों एवं बदलाव की राजनीति से इतफाक रखने वाले बौद्धिकों तक की भावी संततियां किन रास्तों से गुजरी हैं और गुजर रही हैं, यह छुपा हुआ नहीं है। साम्राज्वाद विरोध का दावा घर की चारदीवारी के भीतर ही ध्वस्त हुआ है। तुर्रा यह कि व्यकितगत आजादी का सिद्धान्त बघारते हुए भी झूठ से लिपटे रहने की सिथतियां चहूं ओर हैं। 'ए सिटच इन टाइम के पिता का संकट ऐसी ही सिथतियों की उपज है जहां घर के भीतर साम्राज्यवादी चाल-चलन के नशे में धुत होकर लड़खड़ाता परिवारिक वातावरण है। हर तरह की सुविधा संपन्नता का ताउम्र इंतजाम करते पिता की द्धिविधा उसे स्वंय ही उन अवस्थाओं तक नहीं ले जाती जब जाने और अनजाने उसने ही अपनी संततियों के आगे कोर्इ आदर्श गढ़ा होता है या उसके लिए वातावरण बनाया होता है।

भारतीय समाज की इस यात्रा से गुजरते हुए यह देखना दिलचस्प है कि कथाकार हरी चरण प्रकाश की कहानी के विवरण गंवर्इ आधुनिकता से मुक्त होते भारतीय समाज का इससे भिन्न चेहरा नहीं रचते। कहानी के मार्फत जान सकते हैं कि 'प्रोफेशनली अप-टू-डेट न हो पा रही मध्यवर्गीय आधुनिकता कैसे तकनीक के ही प्रतिरोध में जाने को विवश है। कहानी का एक हिस्सा इस बात का गवाह है कि घर में काम करने वाली बार्इ से बतियाते हुए कथा नायिका ऋचा अपनी चिन्ताओं को दोहराती है,

''करता तो तुम्हारा आदमी भी कुछ नहीं।"
''ऐसा न बालो मैडम जब मैंने शादी की तो खूब काम करता था। मैं तुम्हें बताऊं, मेरी मौसी ने शादी नहीं बनार्इ क्योंकि शादी के बाद मालिक का घर छोड़ना पड़ता था। मुझे भी कहा, सोच समझ कर शादी कर। मैं बोली मेरा हसबैण्ड इतना अच्छा कैमरा चलाता है उसे काम की क्या कमी। आज झोपड़पटटी में रह लूंगी, कल को अच्छा मिलेगा, लेकिन फिर वही किस्मत, नए किस्म के कैमरे आ गए और उसका काम खत्म हो गया।"
''सून रहे हो ऋचा की आवाज वेद के कान खींचने लगी। ऋचा हमेशा यह कोशिश करती थी कि वेद साफ्टवेयर की नर्इ टेक्नालाजी सीखे और प्रोफेशनली अप-टू-डेट रहे लेकिन यह अलहदी लड़का आगे बढ़ने का तैयार नहीं था।"   
हरीचरण प्रकाश की कहानी का नैरेटर इस बात से सचेत तो दिखता है कि तकनीक के साथ प्रोफेशनली अप-टू-डेट होना आज की जरूरत है। वह बाजारूपन की उस चालाकी से भी वाबस्ता है जो किसी भी उत्पाद को बेचने के लिए आइडेनिटटी पालीटिक्स करता है। मसलन, भोजन के ही रूप में शाकाहार की आइडेनिटटी पालीटिक्स जहां पंजाबी थाली, राजस्थानी थाली, वैष्णव थाली इत्यादी नामों से अपने ग्राहकों को लक्षित करती है। लेकिन उसके पास भी यह तर्क एक दूसरे किस्म के बाजारूपन को प्रसारित करती मानसिकता से पैदा होता हुआ दिखता है। वह मानसिकता जो न सिर्फ आर्थिक स्तर पर बलिक सांस्कृतिक स्तर पर भी गुलाम बना लेना चाहती है। सौन्दर्य का मतलब, तराशा हुआ जिस्म जिसके पैमाने हैं और देख सकते हैं कि कहानी उन्हीं रास्तों से आगे बढ़ने लगती है। जिम जाने को ही आधुनिक मान लिया जाना एक लक्षण के तौर पर उभरता है। बेशक यह स्वास्थय की चिन्ता करती मासूमियत के साथ आता है। स्वमंत्रता के मायने यहां निर्वस्त्र होकर घूम सकने की छूट ले लेना जैसे हो रहे है।

सकारात्मक सिथतियों के तौर पर यहां पति-पत्नी के आपसी रिश्तों में एक हद तक आ रही बराबरी की भावना को पुरानी पीढ़ी की स्वीकार्यता मिलने लगी है। लेकिन बदलाव की गति सामंती सरकारों से पूरी तरह अभी भी मुक्त नहीं हुर्इ है। बहुत सी द्विविधाऐं अभी भी ज्यों की त्यों हैं। परिसिथतियां जिस तरह का मोड़ ले रही उसमें उनको टूटना ही है। कहानी में एक प्रसंग आता है जहां कुछ रोज के लिए मेड छुटटी पर जा रही हैं। मेड की अनुपसिथति में घर को संभालने का संकट दोनों काम-काजी पती-पत्नी, वेद एवं ऋचा के सामने है। बच्चे की केयरिंग को लेकर उनके बीच के संवाद और कहानी के विवरण उल्लेखनीय है,

'' डोन्ट वरी, मैं घर से काम कर लूंगा। वेद ने सीनियर साफ्टवेयर इंजिनियरों की इस सुविधा का उल्लेख किया।"
''आज तो नहीं।"
''आज मैं छुटटी लूंगी। कल से चाहे जो करना। बस इस समय मैं तुम्हारी शक्ल नहीं देखना चाहती।, कहने हेतु उसने ऐसी सांस खींची  किवह भी सुनार्इ पड़ गर्इ।
"मैं चुपचाप बैठा अवि की पीठ सहलाता रहा। ऋचा ने जब मेरी ओर देखा तो सहमकर मैंने पीठ सहलाना बन्द कर दिया। "

क्या यह अनायास है कि सुभाष पंत की कहानी में जहां पुत्री को पुत्र के रूप में देखना संभव होता है वहीं हरीचरण प्रकाश की कहानी पुत्र एवं पुत्रवधु दोनों के साथ ही आधुनिक पुत्र रूपी पात्र प्रकट हो रहे हैं। बदलाव के ये चिहन जिस तरह से गंवर्इ आधुनिकता को लांधते हुए हैं, उसी के साथ ही मध्यवर्गीय आधुनिकता का चेहरा भी आकार लेता हुआ सामने होने लगता है। लैंगिक समानता की सिथतियों के एक हद तक स्वीकार की ये सकारात्मक मध्यवर्गीय मानसिकता समाज में दिखायी देने लगी है। यधपि व्यापक जनसमाज में अभी भी वह पिछड़ी मानसिकता की जकड़ में ही है। परिस्थितिजन्य बदलाव से असमहति का स्वर कहानी में ही दर्ज होता हुआ है, पिता की त्रासद स्वरों में उसे सुना जा सकता है,

 ''कल मेरा बेटा ही मां का दायित्व निभायेगा, यह ख्याल आते ही मुझे सीरियल गुस्सा आने लगा। पहले बहू पर, फिर बेटे पर और अन्त में अपने आप पर।"

भारतीय मध्यवर्ग के व्यवहार में होते गये इस बदलाव को उस पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है जो उसे परम्परागत और पुरातन मूल्यों से पूरी तरह मुक्त नहीं होने दे रही थी। बहुत सी ऐसी सिथतियां जिनसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया अवरूद्ध हो रही हो, उसे जानते बूझते हुए भी उससे पूरी तरह मुक्त न हो पाने की भारतीय मध्यवर्गीय समझदारी यहां अपनी सीमाओं में दिखती है। अन्य सिथतियों में भी ऐसे प्रभावों को देखने के लिए यह कहानी हवाला बन जाती है,

'' हमने कभी आध्यातिमक होने की तैयारी नहीं की। मैं आसितक जरूर था लेकिन पूजा पाठ में मन नहीं लगता था, वह भी आसितक थी लेकिन इतना ही कि जल चढ़ाने के बाद ही सबेरे की चरय पीती थी।" -. हरीचरण प्रकाश

'योजनामय प्रेम विवाह’ के दौर की ओर बढ़ रही सामाजिक स्थितियों में अपने बुढ़ापे को इन्जाय करते इस पिता की तस्वीर अभी तक की गंवर्इ आधुनिकता का अनितम सोपान बन रही है लेकिन आधुनिकता की जिस उछाल में वह प्रवेश करती है, वहां उत्पाद को ही पूरी तरह से तकनीक मान लेने की वह आरमिभक गड़बड़ जिस तरह का माहौल रचती है उसे नये ज्ञान की उत्सुकता और चीजों के प्रति मात्र आकर्षण से परिभाषित नहीं किया जा सकता। नव- औपनिवेशिक आदर्शो के प्रति ललचायी दृषिट से भरी 'मध्यवर्गीय आधुनिकता का वह रूप जो बड़ी पूंजी के प्रतिरोध में होने की सदइच्छा के साथ भी उसके समर्थन में जुटा होता है, उसे पहचानने तक की सुध-बुध यहां पूरी तरह से गायब हो जाती है।

''उन दिनों मैं और पत्नी विवाह प्र्रस्तावों की कटार्इ छंटार्इ में लगे हुए थे कि बेटे ने खुद ही अपने विवाह का प्रस्ताव कर दिया। लड़की मुसलमान नहीं है, हमने राहत की सांस ली। इसके बाद तो हम दोनों के बीच अनुलोम प्रतिलोम किस्म का संवाद होने लगा। हिन्दू है तो जाति क्या है ? जाति से क्या मतलब जब वह हमारे तरफ की हिन्दू नहीं है, केरल की हिन्दू है, कोर्इ पूछे तो ? कौन पूछता है और कौन सी हमें दूसरी औलाद ब्याहनी है, इकलौता बेटा।''

रोजगार ने क्षेत्र विशेष की हदबंदी को जिस तरह से तोड़ा है, उसमें एक हद तक जातिगत विभेद का तंत्र थोड़ा ढीला हुआ है। शहरीकरण की प्र्रक्रिया में जातिगत जड़ताएं अपने पुराने रूप में रह पाने की सिथति में नहीं रह गयीं। लेकिन सामाजिक बदलाव की यह प्र्रक्रिया सामंती नैतिकता और आदर्श को पूरी तरह से बदलने वाली नहीं रही क्योंकि प्र्रगतिशील नैतिक मूल्यों और आदर्शों की स्थापना की प्र्रक्रिया आरोपित शहरीकरण के कारण जन्म लेने वाली रही। स्वाभाविक गति में उसका विकास न हुआ। स्पष्ट है कि विकास के टापू खड़े करता बड़ी पूंजी का माडल सामाजिक बदलाव के प्र्रति किसी भी तरह की सजग जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था। मुनाफे के मंसूबे उसकी प्र्राथमिकता को तय करते रहे। इसीलिए क्षेत्र और एक हद तक जातिबंधन से मुक्त हो चुकी मानसिकता में धर्म की चार दीवारियां ज्यों की त्यों खड़ी दिखायी देती हैं। बलिक इसे धर्म की धार्मिकता की तरह भी चिहिनत नहीं किया जा सकता। विभेदों का दानव घृणा को ही जन्म देने वाला रहा और धार्मिक वैमनस्य के साथ श्रैष्ठताबोध में संलग्न धार्मिकता का माडल तैयार होता रहा। विकास की असंतुलित और लड़खड़ाती गति में पीछे छुट जा रहे लोगों के धर्म विशेष के प्रति घृणा फैलाता राजनैतिक ताना-बाना बुनना आसान हुआ है। यूं विश्लेषण की इस पद्धति से सीधे तौर पर हरीचरण प्रकाश की कहानी से तथ्य नहीं जुटाये जा सकते। बलिक अपने मिजाज में ऐसी मुखालफत के साथ वह इस ओर ही सोचने को मजबूर करती है कि क्या जाति और क्षेत्र के बंधनों को तोड़ने में सुक्ष्म से सुक्ष्म होते जा रहे परिवारिक ढांचे की कोइ भूमिका है ? सीमित संतानों वाली सिथति में सामाजिक बदलाव की कोर्इ नयी सिथति जन्म ले रही है ? यह निशिचत ही एक दिलचस्प विचारणीय पहलू है। हिन्दी कथा साहित्य में दर्ज सामाजिक बदलाव के ऐसे विवरण साहित्य की भूमिका को महत्वपूर्ण तरह से स्थापित कर रहे हैं। ऐसे ही वातावरण में गंवर्इ आधुनिकता से मध्यवर्गीय आधुनिकता की ओर सरक रहे जमाने का जो रूप दिख रहा है वह बहुत आशानिवत नहीं करता।

हिन्दी कहानी ही नहीं किसी भी विधा के लिए यह प्राथमिक सवाल होना चाहिए कि गंवर्इ आधुनिकता से मुक्त होते दौर को वास्तविक जनतांत्रिक मूल्यों के लिए माहौल बना सकने वाली मध्यवर्गीय आधुनिकता का पाठ रचे। उसे ठीक से चिहनत कर पाये। ताकि झूठे रूप में भले-भले बने रहने की बजाय वास्तविक जनवाद का माहौल जन्म ले। तकनीक और उत्पाद के फर्क के साथ वैशिवक पूंजी के उस षड़यंत्र का भी पर्दाफाश हो सके, जो अनुसंधान पर अबोली रोक बनाये रखते हुए विज्ञान के भी कर्मकाण्ड का माहौल रच रही है। एक रचना की सार्थकता इस बात में भी है कि वह ऐसे सवालों से टकराने को भी प्रेरित कर सके है। हरीचरण प्रकाश की कहानी इस कारण से भी एक यादगार कहानी है कि उसके बहाने ऐसे बहुत से सवाल सहजता से उठा पाना संभव हो रहा है। 

एक अण्डे का स्वागत गान:जितेन ठाकुर

(जितेन ठाकुर की कहानियों में विषयों की विविधता बरबस ध्यान खींचती है.अण्डे का स्वागत गान इसलिये भी पढ़ी जानी चाहिये कि तरक्की की मध्यमवर्गीय लहरों के बीच यह कहानी समाज के तलछट की जिन्दगी को  संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है)

    लड़के ने प्लासटिक की पतली सफैद तांत से बुना हुआ बोरा उठाया हुआ था। लड़के की उम्र सात-आठ साल से ज्यादा नहीं थी और बोरा उसके दुबले-पतले छोटे से कद की तुलना में कहीं ज्यादा लम्बा था। वह कांधे से ढ़लक-ढ़लक जाते बोरे को बार-बार खींच कर संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था। लड़के के काले जिस्म पर कुछ वैसे ही बदरंग और बेतरतीब कपडे़ थे जैसे किसी भी कूड़ा बीनने वाले दूसरे लड़के के जिस्म पर हो सकते हैं। बोरा लगभग खाली था और पिचका हुआ था। अभी सुबह की शुरुआत थी और बोरा भरने के लिए अभी पूरा दिन बाकी था। शायद इसीलिए लड़का जल्दी में नहीं था। लड़का चाय की एक दुकान के सामने इतिमनान से खड़ा हुआ, लोहे की तारों से बनार्इ गर्इ उस टोकरी को हसरत भरी नजरों से देख रहा था, जिससे झांकते हुए सफैद अण्डों का सिलसिला, करीने से कुछ इस तरह जमाया गया था कि वह बरबस ही रह गुजर की नजर खींच लेता।
    “क्या चाहिए?" दुकानदार ने सड़क पर देर से खड़े हुए लड़के को हंस कर पूछा
    “अण्डा।" लड़के ने बेझिझक उत्तर दिया
    “पैसे हैं?" उसने फिर पूछा
   “नहीं।" लड़के ने मासूमियत से सिर हिलाया
    “तो भाग फिर।" अब दुकानदार ने डपटा
    लड़का उदास हो गया और जाने को मुड़ा, पर तभी दुकानदार ने उसे पुकार कर रोक लिया। दुकानदार ने टोकरी से एक अंडा निकालकर उसकी छोटी सी हथेली को भर दिया। लड़के की आँखे चमकने लगीं।
    दरअसल दुकानदार को पंडितों से नफरत थी और वह उन्हें ठग समझता था। इसके विपरीत उसकी पत्नी पंडितों पर बहुत विश्वास करती थी। वह अक्सर पति पर दबाव बनाती कि वह सोमवार को सफैद चीज का दान दे और बृहस्पतिवार को पीली चीज दान करे। पत्नी का मानना था कि पंडितों ने उसका पत्रा बांच कर ही, ग्रहों के बुरे प्रभाव को कम करने के लिए यह उपाए सुझाए थे। इससे रोजगार में बढ़ोत्तरी होना तय था। आज सोमवार था और वह पत्नी से बिना झूठ बोले यह कह सकता था कि उसने अण्डा दान करके सफैद और पीली वस्तु एक साथ दान में दे दी है। इस तरह पंडितों का मजाक उड़ाने और पत्नी को चिढ़ाने का एक बेहतरीन मौका उसके हाथ आ गया था।
    बहरहाल, कूड़ा बीनने वाला वह छोटा सा लड़का बेहद खुशी और हिफाज़त के साथ अण्डे को हथेली में दबाए हुए कूड़े के ढ़ोल से घुस गया। पर अब समस्या अण्डे को कहीं रखने की थी। क्योंकि एक हाथ से झोला पकड़ कर ही दूसरे हाथ से काम की चीजें बीन कर उसमें डाली जा सकती थीं। पर हाथ में अण्डे रहते हुए यह सबकर पाना मुमकिन नहीं था। लिहाजा लड़के ने अण्डा लोहे के कूड़े वाले ढ़ोल के चौड़े किनारों पर इस तरह टिका दिया कि वह लुढ़क न पाए। इतना करके वह अभी कचरे पर झुका ही था कि काफी देर से उसके पीछे-पीछे आता हुआ कुत्ता कूद कर ढ़ोल पर चढ़ गया और अण्डे को सूंघने लगा। लड़के की सांस अटक गर्इ। उसे लगा कि अभी अण्डा गिरकर फूट जाएगा। उसने बिजली की तेजी से झपटकर अण्डा उठा लिया और कूद कर ढ़ोल से बाहर आ गया। अलबत्ता, कुत्ता वहीं उसी ढ़ोल पर कुछ सूंघता हुआ खड़ा रहा।
    लड़का अब अण्डे की सुरक्षा के प्रति अतिरिक्त सतर्क हो गया था।
    जब से शहर की साफ-सफार्इ का ठेका किसी कम्पनी को दिया गया था- शहर में कूडे़ के ढ़ोल बहुत कम हो गए थे। कम्पनी के कारिंदे घर-घर से कूड़ा उठाते और उसमें से काम की चीजें बीन कर कबाड़ी को बेच देते। इस कारण लड़के के लिए संघर्ष बढ़ गया था। अब उसे कूड़े की खोज में दूर-दूर जाना पड़ता और वह सारे दिन में बा-मुशिकल दस-बीस  रुपए ही कमा पाता। टोकरियों में लटकते हुए सफैद अण्डे उसे लुभाते थे, वह उन्हें खरीदना चाहता था, खाना चाहता था। पर माँ समझी कि अण्ड़े की कीमत में डिबरी भर तेल खरीदा जा सकता है जिससे कुछ रातें उजियारी हो सकती हैं। वह मन मसोस कर रह जाता। पर आज तो उसे मुफ्त में अण्डा मिल गया था और वह खुश था, इतना खुश कि अण्डे को चूम रहा था और बार-बार उसे अपने गालों से छुवा कर उसकी ठंडक महसूस कर रहा था।
    अपने छोटे-छोटे कदमों से लम्बे रास्ते को नाप कर लड़का अब जहाँ पहुँचा था वह कूड़े से भरा हुआ एक खुला प्लाट था। उसने आस-पास देखा। वहाँ कोर्इ कुत्ता नहीं था। उसने अण्डे को हौले से एक इर्ंट पर रख दिया और ताजे फैंके गए कूड़े को कुरेदने लगा। कूड़े को कुरेदते हुए अभी उसे कुछ हासिल नहीं हो पाया था कि उसने अपने ऊपर किसी साए को अनुभव किया और चांैक गया। उसने गर्दन उठाकर आकाश की तरफ देखा। एक चील उसके ऊपर से होती हुर्इ निकल गर्इ थी। उसने पक्षियों की किताबें तो नहीं पढ़ी थीं पर इतना जानता था कि चील की नजर बहुत तेज होती है। उसके मन में शक पैदा हुआ कि हो न हो चील की नियत अण्डे पर डोल गर्इ हो। वह कुछ देर आसमान की तरफ देखता रहा। उसने देखा कि एक चक्कर लेकर चील वापिस लौट रही है। जहाज की तरह बिना पंख फड़फड़ाए हुए नीचे की तरफ झुकती हुर्इ। उसने झट से छलांगे लगा कर अण्डा उठा लिया और चल पड़ा। चील फिर ऊपर उठने लगी थी।
    लड़के को कूडे़ के नए ढ़ोल तक पहुँचने के लिए फिर एक लम्बी दूरी नापनी पड़ी। ढ़ोल के पास पहुँच कर उसने दूर तक जाती सड़क को देखा- कहीं कोर्इ कुत्ता नहीं था। फिर देर तक आसमान को देखता रहा, चील, कऊआ या कोर्इभी परिंदा आसमान में नहीं उड़ रहा था। अलबत्ता छोटी-छोटी चिडि़यों के झुंड यहाँ-वहाँ उड़ते हुए चहक रहे थे- फुदक रहे थे। वह निशिचंत हो गया। यहाँ अण्डे को कोर्इ खतरा नहीं था। कूड़े सेभरे हुए गहरे ढ़ोल में घुसने के लिए लड़का अ्भी ईंट पर चढ़ा ही था कि उसका कलेजा मुंह को आ गया। ढ़ोल के          अंधेरे में झुक कर कबाड़ बीनता हुआ एक तगड़ा लड़का अचानक सीधा खड़ा हो गया था और अब दिखलार्इ देने लगा था। यह लड़का कर्इ बार उसे पीट कर उससे कबाड़ छीन चुका था। तय था कि आज वह अण्डा छीन ही लेगा। लड़के ने बिना समय गंवाए हुए छलांग लगार्इ और सड़क पर अपनी पूरी ताकत से दौड़ पड़ा। वह जल्दी से जल्दी आने वाली मुसीबत की जद से बाहर निकल जाना चाहता था।
    लड़का फिर रास्ते में कहीं नहीं रुका। जब वह पेड़ों से बांधे गए काले तिरपाल वाले अपने सिकुड़े हुए घर में पहुँचा तो बुरी तरह हांफ रहा था। बदन पसीने से तर था जिस कारण  कमीज का कपड़ा चिपचिपाने लगा था। थकान से टांगें कांप रही थीं। वह अपनी जिंदगी में इतना कभी नहीं भागा था। इसके बावजूद वह खुश था कि उसने अण्डे को लुटने से बचा लिया था।
    “क्या हुआ? आज कुछ नहीं मिला क्या?" ईंटों के चूल्हे पर रोटी सेंकती हुर्इ माँ ने उसके खाली झोले के देख कर पूछा
   “मिला - ये अण्डा! मुफ्त!" उसने सांस को किसी तरह काबू करके उत्तर दिया। उसे कमार्इ न होने का कोर्इ मलाल नहीं था। वह जानता था कि वह दस-बीस रुपए कमा भी लेता तो उनसे अण्डा खरीदने की इजाजत हरगिज न मिलती।
    उसकी छोटी सी हथेली के ठीक बीच में रखा हुआ झक्क सफैद अण्डा चमक रहा था। माँ ने उसकी आँखों की चमक देखी और अण्डा उठाते हुए कुछ नहीं बोली। माँ को लगा कि वह आज की कमार्इ अण्डे पर उड़ा आया है, पर अब तो अण्डा खरीदा जा चुका था, इसलिए कुछ भी कहने का कोर्इ फायदा नहीं था। अलबत्ता छोटी ने अण्डे की खुशी में पहले  भार्इ से लिपट कर उसे प्यार किया और फिर उछल-उछल कर चिल्लाने लगी। वह अण्डे के लिए कोर्इ गाना गा रही थी जो किसी को  भी समझ नहीं आ रहा था।
    माँ ने अण्डा गर्म राख में दबा दिया। लड़का तिरपाल के नीचे बिछी हुर्इ दरी पर लेट गया और लम्बी-लम्बी सांसे भरकर थकान कम करने की कोशिश करने लगा। उसने हसरत के साथ आग के भरे चूल्हे की उस राख को देखा जिसके नीचे दबा हुआ अण्डा सिक रहा था।
    “माँ हम अण्डा कब खाएंगें?’ छोटी उतावली हो रही थी।
    “जब बाबा आ जाएंगें?” माँ ने रोटी तवे पर डालते हुए कहा।
    संतोष से्भरे हुए लड़के को लगा कि कुछ देर बाद जब यह अण्डा सिक कर राख से बाहर निकलेगा तो पूरा घरा जश्न के माहोल में डूब जाएगा।
    लड़के की खुली हुर्इ आँखों में अचानक, सिके हुए अण्डों से भरा हुआ बोरा समाने लगा।   उसने देखा कि बोरे से निकल कर अण्डों की जर्दी रूर्इ के नर्म फोहों की तरह उड़ने लगी है। जर्दी के उन गोल-गोल पीले बादलों में तैरते हुए लड़के ने बहन के उगते हुए नन्हें पंखों को देखा। उसने देखा कि पिता ने खांसना बंद कर दिया है और माँ चिड़चिड़ा नहीं रही है। अल्यूमीनियम की थाली बड़े-बड़े सफैद अंडों सेभरी हुर्इ है और आसमान में चील भी नहीं है। सड़क पर न तो कुत्ता है औन न ही मोटा लड़का। अलबत्ता, चिडि़याँ गा रही है।
    उबा देने वाले मनहूस काले तिरपाल के नीचे ऐसा खुशनुमा माहोल उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।

4, ओल्ड सर्वे रोड़
देहरादून- 248001
   

Friday, October 3, 2014

उत्सव का रंग उद्देश्य से इतर नहीं





विजय गौड़ 


रंगों को वैज्ञानिक दृष्‍टी से देखा जाये और उसी भाषा में व्‍याख्‍यायित किया जाये, तो कह सकते हैं कि तरंगों की एक निश्चित दैर्ध्‍य ही रंग है। श्‍वेतप्रकाश का प्रिज्‍मेटिक विखण्‍डन का प्रयोगात्‍मक साक्ष्‍य उनकी भिन्‍नतओं का समुच्‍य है। देख सकते हैं कि प्रिज्‍म के पार एक स्‍पैक्‍ट्रम बनता है, जिसका एक छोर लाल और दूसरा बैंगनी पर समाप्‍त हो जाता है। स्‍पैक्‍ट्रम साबित करता है कि रंगों की भिन्‍नता तरंगों की दैर्ध्‍य है। खास दैर्ध्‍य की तरंग ही सुनी जाने वाली आवाज हो सकती है तो कभी वातावरण को गर्माने वाली भी। बादलों के गरजने से पहले बिजली का चमकना बताता है कि बादलों के संघटन पर दो भिन्‍न दैर्ध्‍य की तरंगों ने चमक और ध्‍वनि की उत्‍पति की है। एक चमक बनकर बिखर गयी और दूसरी आवाज बनकर सुनायी दी। तरंगों को ही आधार मानकर किये गये मानवीय शोधों ने बताया है कि घने अंधेरे में अवस्थिति किसी वस्‍तु को भी देखा जा सकता है, सिर्फ उसकी सतह से उठती तरंगों को यदि पकड़ लिया जाये तो। अनुसंधानों के विज्ञान ने उसे मुक्‍कमल करके भी दिखाया है और नाइट विजीन डिवाईस के नाम से पुकारे जाने वाले उत्‍पादों ने उसे संभव भी किया है। यानि कहा जा सकता है कि रंगों का न तो अपना कोई स्‍वतंत्र अस्तित्‍व है न ही वे किसी निश्चित स्थिति के परिचायक हैं। तो भी रंगों को भाषिक अर्थ देने वाले विद्धत जनों ने उनको कुछ निश्चित अर्थ दिये हैं। कलाकार उनकी उपस्थिति से ही चित्रों की अमूर्तता तक को वाणी देते हैं। मनोगत कारणों के प्रभाव में रंगों की भिन्‍न भिन्‍न व्‍याख्‍याओं ने भी कलाकारों को विशिष्‍टता प्रदान की है। जरूरी नहीं कि अपने चिरपरिचति अर्थों में जाने जाने वाले विरोध के रंग को ही कोई कलाकार अपने चित्र में विरोध के अर्थ में डाले। वह उसका अर्थ विस्‍तार उदासी में या मृत्‍यू तक भी कर देता है और कई बार तो मनोगत आग्रहों से जन्‍म लेती आलोचना भी उसे ही जिन्‍दगी की अकुलाहट को संजोये गर्भ का गहन अंधेरा कह सकती है।

यानि रंगों के आधार पर एक निश्चित अर्थ भरे निर्णय तक पहुंचना हमेशा मुश्किल ही है। वे समय काल और परिस्थितियों के आधार पर अपने मानक गढ़ते हैं। किसी विशेष रंग की ओढ़नी को ओढ़कर प्रतिकात्‍मक रूप में खुद का प्रकटीकरण, राजनैतिक मुहावरा तो हो सकता है लेकिन राजनीति का स्‍पष्‍ट रूप तो संचालित होती गतिविधियों और उनके परिणामों से ही तय किया जा सकता है।        
भिन्‍न भिन्‍न रंगों के प्रकाश के संयोजनों से पूजा पण्‍डालों की भव्‍यता, कोलकाता के पूजा महोत्‍सव को जश्‍न में बदल देती है। रंगो के संयोगों की व्‍युत्‍पत्ति का जश्‍न पूरे कोलकाता को तीन.चार रातों तक दोपहर की सी भीड़ में बदलत देता है और मध्‍यरात्रि में भी लग जाने वाले ट्रैफिक जाम को कन्‍ट्रोल करते जवानों की सीटियां, ढोल और ताशे की आवाज के विरूद्ध व्‍यवस्‍था को कायम रखने के लिए लगातार गूंज रही होती है। भीड़ की भीड़ सड़क के इस पार के पण्‍डाल से निकलकर सड़क के उस पार के पण्‍डाल में घुस जाना चाहती है। ठाकुर प्रतिमाओं के दर्शन के लिए। प्रकाश के संयोजन से दमकती प्रतिमाओं की आभाऐं ही भक्ति का सार्वजनीन रूप  बिखेरती है। जमींदारों के द्वारा सत्रहवीं सदी के आस पास शुरू की गयी पूजा पण्‍डालों की ठेठ अनुष्‍ठानिक पूजाओं के रूप को ही बीसवीं सदी ने सार्वजनीन  रूप दिया है।
यह मायके आयी बेटी के स्‍वागत का उत्‍सव है। उत्‍तराखण्‍ड के पहाड़ों में आयोजित ऐसे पर्व का नाम ही नन्‍दाजात है, जो विदाई का पर्व है। एक ऐसा धार्मिक पर्व, आस्‍थाओं का सिंदूर और पूजा प्रार्थनाओं के नियमबद्ध चरण, जिसको पारम्‍परिक वैधानिकता प्रदान करते हैं। उत्‍तराखण्‍ड में चौसिंगा खाडू (चारसिंग वाला बकरा) और बंगाल में कारीगरों द्वारा निर्मित दुर्गा, सरस्‍वती, लक्ष्‍मी, गणेश और कार्तिक इसके पारम्‍परिक प्रतिक हैं। बंगाली भद्रलोक की मानसिकता में यह सांस्‍कृतिक विशिष्‍टता का सालाना आयोजन है, जिसे दुर्गा पूजा के नाम से जाना जाता है। लक्‍खी पूजा (लक्ष्‍मी पूजा), काली पूजा और सरस्‍वती पूजा इसके अन्‍य पड़ाव है।


बुद्धि और विवेक के लिए जाने जाने वाले कोलकाता में पूजा पण्‍डालों की इस ठेठ धार्मिक गतिविधि को ही सांस्‍कृतिक विरासत की तार्किकता से व्‍याख्‍यायित किया जाता है। तब से ही जब सारा बंगाल बदलाव के प्रतिकात्‍मक अर्थों से भरे लाल रंग से दमकता हुआ था। बल्कि उस दौर ने ही ''तर्क'' की जिद्दीधुन में ऐसे आयोजनों को विशिष्‍ट कलात्‍मक प्रयोगों का दर्जा माना। पूजा कमेटियों के स्‍वतंत्र गठन के बावजूद विशिष्‍ट अंदाज में नियंत्रण बनाये रखा। पूजा पण्‍डालों में इंक्‍लाबी किताबों के स्‍टाल उनकी प्रत्‍यक्ष उपस्‍थतियों के साक्ष्‍य होते रहे। आज बहुरंगी होते जा रहे बंगाल में बचे हुए लाल रंगों के अवशेषों वाले इलाके के बीच उनकी ऐसी ही उपस्थिति को नेताजी नगर के उस पूजा पण्‍डाल में साक्षात देखा जा सकता है जहां एक विशेष पूजा पण्‍डाल के ही सामने बहुरंगी राजनीति के समर्थन से पोषित पूजा पण्‍डाल भी होड़ करता हुआ है। यह अंदाजा लगाना मुश्‍किल नहीं कि दो भिन्‍न राजनैतिक समर्थकों की पूजा कमेटी इन पूजा पण्‍डालों का जिम्‍मा निभाये होगी। भीतरी बुनावट में त्रिशूल भाले और फर्शे लहराते दोनों पण्‍डाल समान है और बाहरी रूप का फर्क सिर्फ इतना ही है कि एक बुद्ध की आकृति में सजी भव्‍यता के रूप में है तो दूसरा बिल्‍डर, प्रोमटरों की मानसिकता में ठेठ सधी हुई आक़ति वाली छवी बिखेरता हुआ, अपनी.अपनी 'थीम' के साथ दोनों ही। बुद्ध की आकृति में ढले पण्‍डाल की खूबी है कि सांस्‍कृतिक दिखने की अतिश्‍य कोशिश में वहां जगह जगह इस्‍तेमाल किये त्रिशूलों को लाल रंग की चुनरियों से बंधा कर उस विशिष्‍ट राजनैतिक विचार के साथ जोड़ने की कोशिश हुई है जो अपनी साक्षात उपस्थिति में पण्‍डाल के बाहर इंक्‍लाबी कितबों की दुकान सजाये शालीन बुजर्गो की उपस्थिती वाली है। साम्‍प्रदायिकता के मायने तय करती हमारी प्रगतिशीलता भी ऐसे ही तर्कों के आधार पर गढ़ी गयी, जिसने धर्म को निशाने में रखने की जरूरत महसूस नहीं की। बेशक, ऐसे मानदण्‍डों को आधार मानकर रचा गया साम्‍प्रदायिकता विरोध का साहित्‍य बदली हुई परिस्थितियों में साम्‍प्रदायिक लोगों का हथियार होता रहा। 
कलावादी नजरिये से बात की जाये तो दोनों ही पण्‍डालों में कारीगरों की कोशिश अप्रतिम है।
यूं कलावादी नजरिये को थोड़ा झटका देते हुए पण्‍डालों का जिक्र करना भी ज्‍यादा समीचीन होगा. एक उदयन मण्‍डल, नाकतल्‍ला का पूजा पण्‍डाल और दूसरा नेताजी जातीय सेवादल, टालीगंज का पण्‍डाल। पहले में जहां समुद्री लहरों पर हिचकोले खाती दुनियावी नाव की यात्रा की जा सकती है तो दूसरे में सूती धागों की बुनावट के जरिये हस्‍तशिल्‍प की कारीगरी को स्‍थापित करने की कोशिश को देखा जा सकता है। धार्मिक कर्मकाण्‍ड से एक हद तक किनारा करते से लगते ये थीम आधारित पण्‍डाल भी पूरी तरह कर्मकाण्‍ड मुक्‍त नहीं। यहां तक कि कुमारटूली का पण्‍डाल जो शिल्‍प वैशिष्‍टय में जीवन के उदय का चित्रित करता हो और चाहे मुहममद अली पार्क का शिवालय थीम। तेज अंधड़ भरी समुद्र की लहरों से उम्‍मीदों की आशा जगाती दैवी की प्रतिमा को देखकर ''आह'' और ''वाह'' के अलावा कोई दूसरा शब्‍द नहीं हो सकता। बेशक मंत्रोचार की प्रक्रिया में छूटे उच्‍छवास में इन शब्‍दों की उपस्थिति नहीं और कला के अप्रतिम सौन्‍दर्य का जादू बिखेरता कौशल है पर धार्मिक अनुष्‍ठानिक प्रक्रियाओं की संगत में जुड़े हुए हाथों की उपस्थिति से इंकार तो नहीं किया जा सकता न !

सांस्‍कृतिक विरासत के संरक्षण के नाम पर सुबह और शाम की संधि पूजाओं वाले अनुष्‍ठानिक कर्मकाण्‍ड ने पूरे कोलकाता में छोटे छोटे इतने सारे मंदिरों का निर्माण किया है कि हरिद्वार जैसी ठेठ धार्मिक स्‍थली में भी उनकी आनुपतिक संख्‍या पिछड़ जाये। बाजूओं में मंत्राये धागे और नग्‍न जडि़त अंगूठियों से भरी उंगलियों वाले बंगाली जनमानस को देखकर भ्रम होता है कि किसी वैज्ञानिक चेतना से भरे राजनैतिक विचार की वह कभी हिमायती रही है। पुलिसिया व्‍यवस्‍था के साथ जारी बली प्रथाओं वाला कोलकाता तो आश्‍चर्य में डालता है।
उपरोक्‍त पर बिना कोई अन्‍य टिप्‍पणी किये, यह कहना ज्‍यादा उचित है कि मनोगत आग्रहों से रंगों की व्‍याख्‍या करना ही कलावाद है। उत्सव का रंग उत्सव के मूल उद्देश्य से तय होता है.