Friday, October 23, 2015

प्रेम जैसे पहाड़ का सबसे ऊँचा शिखर

डॉ नूतन डिमरी गैरोला को 90 के दौर से पढ़ रहा हूं ।
इधर उनको थोड़ा करीब से जानना और पढ़ना हुआ। पेशे से डॉक्टर नूतन डिमरी गैरोला अपने भीतर की उस स्त्री के साथ हैं जो सामाजिक नैतिकताओं के ताने बाने में जीने को मजबूर हैं लेकिन तब भी अपने ऊपर होने वाले प्रहारों से मुक्त नहीं। उनकी कविताओं में एक ऐसी अकुलाहट है जो रह रह कर उन स्थितियों को सवालों के घेरे में लाती है जिनका वास्ता जीत और हार की निर्मिति को रचने में संलग्न रहता है। जहां प्रेम उम्मीदों का वसंत होकर नहीं आता बल्कि हांफ हांफ कर पछाड़ खाता है और हत्यारी जंग से निपटने के लिए मामूली सा सहारा भी नहीं बन पाता। बेशक उनके इस स्वर से आप पूरी तरह सहमत नहीं हो सकते लेकिन इस सवाल पर थोड़ी देर ठहरना तो चाहिए कि ऐसे निर्मम और जड़ समय में एक स्त्री की कातर पुकार क्या इससे भिन्न कोई दूसरा स्वर गुनगुना सकती है- 
कितना मैं अपनी ज़िद पर अड़ी/जिंदगी को हर दिन गुलदान में/सजा देती हूँ /ताकि महकता रहे घर भर...। 
वि गौ

प्रेम जैसे पहाड़ का सबसे ऊँचा शिखर 


प्रेम जैसे
पहाड़ का सबसे ऊँचा शिखर
एक अजीब खिंचाव
पहाड़ को फ़तेह करने को आतुर 
एक प्रेमी मन विभोर हो जाता है|
खड़ी अडचने,
उनकोपस्त हो हांफ हांफ कर करता पार
पहुँचता है शिखर
पर |
जहां
कठिन होता है ठहराव
अविश्वासअहंकारअसहमतियों की बारिश,
शिखर पर जब बरसती है जोर से
तब पहाड़ पर होता है भूस्खलन
ऐसे में वह मन चोटी से फिसल कर
लुढक जाता है
 बहुत तीखी ढलानों पर
और चकनाचूर हो जाता है|

नीचे बहती है एक उदास, तन्हा, नदी|

अपनी ह्त्या के खिलाफ


मुझे इस्तेमाल करना है जिंदगी को 
अपने ही हाथों
 
अपनी ह्त्या के खिलाफ

रोज़
 उम्मीदों की देह पर उमगते नासूर
ह्त्या की साजिश करते हैं 
और नीम अँधेरी रातों में  
सुर्ख़ उगते सूरज के विचार
विचलित होते मन की पीठ पर
 
हाथ धरते हैं|

मैं अपनी ज़िद पर अड़ी
जिंदगी को हर दिन गुलदान में
सजा देती हूँ
ताकि महकता रहे घर भर
 ……

 उसके साथ मुस्कुराता है बसंत

उसने देखी थी तस्वीर
अपनी ही सखी की
जिसमे स्त्री हो जाती है
जंगली
जिसके तन पर उग आती है पत्तियाँ
बलखाती बेलें अनावृत सी
कुछ टीले टापू और ढलानें
और
जंगल के बीच अलमस्त बैठी वह
स्त्री  
सारा जंगल समेटे हुए
प्रशंसक हैं कि टकटकी बाँध घेरे
हुए तस्वीर को  
और चितेरे अपने मन के रंग भरते
हुए ..........
तब धिक्कारती है वह अपने
भीतर की स्त्री को 
कि जिसने
देह के सजीले पुष्प और महक को
छुपा कर रखा बरसों
किसी तहखाने में जन्मों से
कितने ही मौसमों तक
और तंग आ चुकती है वह तब
दुनिया
भर के आवरण और लाग लपेटों से.................

वह कुत्ते की दुम को सीधा
करना चाहती है
ठीक वैसे ही जैसे वह चाहती
है जंगली हो जाना
लेकिन उसके भीतर का जंगल
जिधर खुलता है
उधर बहती है एक नदी
तथाकथित संस्कारों की
जिसके पानी के ऊपर हरहरा
रहा है बेमौसमी जंगल
और वह देखती है एक मछली में खुद को
जो तैर रही है उस पानी में.....................  

वह कुढती है खुद से
वह उठाती है कलम
और कागज में खींचना चाहती
है एक जंगल बेतरतीब सा
पर शब्द भी ऐसे हैं उसके कि जंगली
हो नहीं पाते

ईमानदारी से जानने लगी
है वह
जंगली हो पाना कितना कठिन है  
असंभव
ही नहीं उसके लिए नामुमकिन है
वह छटपटाती है
हाथ पैर मारती है
वह मन के विषम जंगल से बाहर
निकल पड़ती है ......
................................................

और जिधर से गुजरती है वह
उसके मन के जंगल से गिर जाता है
सहज हरा धरती पर
प्रकृति खिल उठती है
हरियाली लहलहाने लगती है
प्युली खिल उठती है पहाड़ों में
कोयल गीत गाती है
और बसंत मुस्कुराता है

स्त्री में  तितली 

स्त्री करती है प्यार
कोमलता से
रंगों से
खुश्बू से
इस तरह वह बनाए रखना चाहती है
प्रेममयी पुष्प को
अपने ह्रदय में
अपने आँगन में
.......
स्त्री हो जाना चाहती है तितली
---------------------------
वर्जानाओं की जद में
तिलमिलाती वह
दीपक की लौ में
अंतिम लपलपाहट देखती है
तो मुस्कुराती है..

स्त्रियाँ

गुजर जाती हैं अजनबी से जंगलों से
जानवरों के भरोसे
जिनका सत्य वे जानती हैं
.
सड़क के किनारे तख्ती पे लिखा होता है
सावधान, आगे हाथियों से खतरा है 
.
और वे पार कर चुकी होती हैं जंगल सारा 
.......
फिर भी गुजर नहीं पातीं
स्याह रात में सड़कों और बस्तियों से
कांपती है रूह उनकी
कि
तख्तियां
उनके विश्वास की सड़क पर
लाल रंग से जड़ी जा चुकी हैं
कि
सावधान
यहाँ आदमियों से खतरा है.............

चेताती है स्त्री  

मेरी हदों को पार कर
मत आना तुम यहाँ
मुझमे छिपे हैं शूल और
विषदंश भी जहाँ |
फूल है तो खुश्बू मिलेगी
तोड़ने के ख्वाब न रखना|
सीमा का गर उलंघन होगा
कांटो की चुभन मिलेगी
सुनिश्चित है मेरी हद
मैं नहीं
मकरंद मीठा शहद ..
हलाहल हूँ मेरा पान न करना |
याद रखना
मर्यादाओं का उलंघन न करना ||

Monday, October 19, 2015

बीच का आदमी

बीच का आदमी सतत रचनारत रहने वाले वरिष्‍ठ कथाकार मदन शर्मा का ताजा उपन्‍यास है। हाल ही में उपन्‍यास से गुजरने का अवसर मिला। अपने शीर्षक की अर्थ ध्‍वनि को प्रक्षेपित करती उपन्‍यास की कथा में भले भले बने रहने की मध्‍यवर्गीय प्रवृत्तियो को अच्‍छे से सामने रखती है। मदन शर्मा के कथा विन्‍यास की खूबी संवादों भरी भाषा में परिलक्षित होती है। पात्रों की सहजता एवं स्‍वाभाविकता वातावरण के साथ जन्‍म लेती है। कारखाने के जन जीवन को करीब से देखने वाले उपन्‍यासकार मदन शर्मा के उपन्‍यासों से गुजरना एक ऐसा अनुभव है जो बहुत बगल से गुजर जा रहे समय को देखने समझने की दृष्टि देता है। उनके उपन्‍यास का एक छोटा सा अंश यहां प्रस्‍तुत है।    
 वि गौ

उपन्यास अंश

   सभी कुछ बदस्तूर जारी था। आठ से पांच तक साधारण डयूटी, जिसमें एक से दो बजे तक लंचब्रेक और शाम, पांच से सात तक ओवरटाइम। वही मशीनों की कीं कीं और चीं चीं, लगातार खटखट, वही वर्कर लोगाों का आपसी गालीगलौज, मुक्कम-मुक्का, अश्लील मज़ाक और सुबह से शाम तक 'ऊपरवालों के साथ नाज़ायज़ रिश्तेदारियां क़ायम करना। वही अधिकारी वर्ग के उल्टे-सीधे और मूर्खतापूर्ण आदेश और निदेश, वही लम्बी लम्बी बहसें और तकरार... अरे मेरा काम तो सबसे अधिक हुआ था, फिर पीस वर्क प्राफिट, दूसरों को कैसे अधिक मिला?... लो, मेरा टूल फिर चोरी हो गया। मैंने अभी अभी ग्राइंड करके, यहां फ़ेस-प्लेट पर रखा था... उसका मिलिंग कटर ब्लंट हुआ पड़ा है और वह भद्र पुरूष बिना देखे ही कट देता चला जा रहा है... मुझे इस बार साबुन की टिकिया क्यों नहीं मिली? हाथ कैसे धोऊंगा?... उसकी मशीन का पानी बदला था। मगर यहां तो... मेरा काम इतना बढि़या बना, तब भी इंस्पेक्शन वालों ने पास नहीं किया। उन्हेें चाय की ट्रे और समोसे जो नहीं पहुंचाये गये... मेरा ट्रेडटेस्ट, मालूम नहीं कब होगा! छह महीने से ये लोग झांसा दिये जा रहे हैं! ... भर्इ वाह! उसका दो बार प्रमोशन हो गया! यह होता है रिश्तेदार होने का फ़ायदा!... आप कुछ करते क्यों नहीं? क्यों नहीं कुछ करते?
गरदन उठा कर देखा, लोकराम खड़ा है। 
- बुलाया है? मैंने जानते हुए भी पूछा।
-फौरन पहुुुंचने को कहा है।
- और कौन-कौन हैं वहां?
-अकेले हैं इस वक़्त तो।
-चलो, मैं आ रहा हूं।

वह हर रोज़ की तरह, कुर्सी पर तना बैठा था। काग़जों पर टिप्पणियां लिखने और हस्ताक्षर करने के बीच ही, वह मुझ से बोला, - क्या पोज़ीशन है आप के ग्रुप की इस महीने?
-पोज़ीशन ठीक है सर।
-ठीक का मतलब? टारगेट पूरे हो जायेंगे या नहीं?
-ख़याल तो यही है, कि हो जायेंगे।
-ख़याल? वह क्या होता है? मुझे पक्की बात बताओ।
-एक घंटे तक, चेक करकेे मैं आप को पूरी लिस्ट दे दूंगा।
-स्पेयर आर्डरस में भी ढील नहीं होनी चाहिये।
-इस बारे में आप निशिचंत रहें।
-ठीक है, चेक करने के बाद, लिस्ट बना कर दीजिये।
एक घंटे से भी कम समय में, मैं सूची तैयार करके पुन: मैनेजर के कार्यालय में उपसिथत हो गया। 
उसने सूची पर सरसरी नज़र दौड़ार्इ। महसूस हुआ, वह संतुष्ट नहीं हुआ। वैसे कोर्इ अप्रसन्नता भी उसने व्यक्त नहीं की। 
-अच्छा, ठीक है। ऐसा करना... मैं जहां जहां पेंसिल से लाल निशान लगा रहा हूं, ये काम सबसे पहले निकलवा देना।
-राइट सर।
मैं वापिस दरवाज़े तक ही पहुंचा था, आदेश मिला, -ज़रा रूकिये।
मैं पहले की तरह, फिर मेज के समीप जा खड़ा हुआ।
-मुझे एक बात याद आ गर्इ, बैठिये।
मैं 'थैंक्स कह कर बैठ गया।
वह कुछ सोचने लगा। फिर बोला, -उस लड़के का क्या रहा?
-जी?
- अरे भर्इ, वह खू़बसूरत और तेज़ तर्रार-सा लड़का, क्या नाम उसका?
-अनिल? 
- वही... कुछ पता चला उसका?
- कुछ पता नहीं चला सर।
- सो सैड! उसके घर वाले तो बहुत परेशान होंगे?
- बहुत ही बुरी हालत है उनके घर में!
- कौन कौन हैं घर में?
- बूढ़ी मां और दो बहनें हैं।
- एक तो वही, जो उस दिन मेरी कोठी पर आर्इ थी?
- जी। दूसरी उससे छोटी है।
--हूं..., कह कर वह पेपर व्हेट से खेलने लगा। फिर बोला, - तो उनके घर में कैसे चल पा रहा है?... हम लोगों को उन बेचारों की कुछ मदद करनी चाहिये। डिपार्टमेंट की तरफ़ से तो उन्हें अभी कुछ भी नहीं मिल सकता।
- वही तो परेशानी है सर। थोड़े से पैसे सेक्शन वालों ने इकटठे करके ज़रूर भिजवा दिये थे।
- उससे भला कितने दिन चलेगा? आपने क्या सोचा इस बारे में?
- इस बारे में, मेरा तो कुछ दिमाग़ काम नहीं कर रहा।
- तो... अच्छा, मैं बड़े साहब से बात करूंगा। लड़कियां कुछ पढ़ी लिखी हैं?
- बड़ी इन्टर पास है और छोटी इन्टर कर रही है।
- अच्छा... देखो, क्या होता है। बड़े साहब से बात करके ही कुछ बताउंगा।
मैं वहां से उठ कर बाहर आया। विश्वास नहीं हो पा रहा था, यह वही एन0 मोहन है!