उस वक्त उसने
मुझे पूरी तरह से जकड़ ही लिया था।
मैं उस कागज के
पीछे दौडने ही वाला था,
जो भागे जा रहे अखबार वाले की साइकिल के पीछे, कैरियर में बंधे अखबारों के बीच से निकलकर उड़ रहा था। बेशक किसी उत्पाद या, दी जाने वाली सर्विस का विज्ञापन उसमें रहा होगा, लेकिन विज्ञापन की बजाय मुझे उसके पृष्ठ भाग का कोरापन भा रहा था। उसे भी एक
वैसे ही कोरे कागज की जरूरत थी। बल्कि, वह तो
बिना रंगीनी वाला व्हाई ब्लैंक पेपर ही खोज रहा था। कागज में छपे विज्ञापन से उसे
भी कुछ लेना-देना नहीं था। अखबार के बीच रखकर लोगों के घरों तक पहुंचाये जाने वाले
कागजों में अक्सर कोई न काई विज्ञापन ही रहता है। उत्पाद को घर के भीतर पहुंचाने
और नागरिकों को ललचाने के, ऐसे कितने ही ढंग बाजार ने ढूंढ
निकाले हैं कि लोग-बाग एक दिन खुद ही उसके आदी हुए जाते हैं। वैसे ही ग्लेजी
कागजों के रंगीनपन या उनके कोरे पृष्ठ, मैं अपने दोस्त के
लिए इकट्ठा करता रहता हूं। दोस्ताने का प्रतिदान कहें, चाहे कुछ और,
पर यह सच है कि ऐसा करते हुए मेरे लिए वह दिन हमेशा खुशियों
वाला होता है जब मेरे दिये किसी कागज का कोरापन, या दूसरी ओर छपी तस्वीरों का रंग, मेरे दोस्त को
अपने काम का लगता है और वह तह लगाकर उसे भविष्य के उपयोग के लिए संभाल लेता है।
बाजार की मुखालफत के लिए हर वक्त धड़कता मेरा मित्र अपने विचारों की अभिव्यक्ति के
लिए अक्सर ऐसे कागजों के रंगीनपन को ही अपना हथियार बना लेता है। मेरे नये भवन को
अपनी पेंटिग्स और कोलाजों से कलात्मक सौंदर्य देने में दोस्तानेपन के ऐसे ताहफों
से उसने हमें भी नवाजा था। मेरे घर आने वाले मेहमान भौंचक रह जाते हैं जब पेंटिग
और कोलाज में बहुत नीचे दर्ज उसके हस्ताक्षरों को पाते हैं। वे हस्ताक्षर उन्हें
आश्चर्य में डुबो देते और उनके सामने मेरा कद कुछ ज्यादा ही ऊंचा हो जाता है। मेरे
घर में टंगी एक नामी पेंटर की पेंटिंग उनके भीतर ईर्ष्या के बीज बोने लगती है।
खबरों के मार्फत उन्होंने जाना हुआ होता है कि उन हस्ताक्षरों वाली पेंटिग्स और
कोलाजों की कीमत कितनी है। किसी निम्न मध्यवर्गीय आदमी की जीवनभर की सम्पूर्ण कमाई
से भी कहीं ज्यादा। मेरे जैसे मामूली आदमी के घर की दीवारों पर उनका टंगा देख वे
अपने भीतर की ईर्ष्या को छुपाते हुए वे ऐसे पेश आते हैं मानो मैं कोई अति विशिष्ट
व्यक्ति हूं। मेरी पत्नी तो फूल कर कुप्पा हो रही होती है उस वक्त जब उसकी कोई
सहेली या सहेली का पति हैरान होकर कहते,
‘‘आजकल
आर्ट गैलरियों की सैर हो रही है शायद।’’
पूछे गये सवाल का
जवाब सीधे तरह से देने की बजाय वे बातों को ऐसे घुमाती कि पूछने वाले को यही नहीं
मालूम रह पाता कि उसने पूछा क्या था। पेंटिग्स की व्याख्यायें तक करने लगती हैं।
दोस्त ने जिस तरह से उनकी व्याख्यायें कभी यदा-कदा की बातचीत में की होंगी, उन्हीं बातों का तर्जुमा करते हुए वह उन्हें ऐसे सुनाती कि यह भी झलकता रहे कि वाकई हम ऐसे महत्वपूर्ण
लोग हैं जिनके घर ऐसी एक नहीं कई पेंटिंग्स हैं। और उन्हें यहीं हमारे सामने रंगा
गया है। वह भी एक मशहूर पेंटर के द्वारा। कोई रंगीन विज्ञापनी चित्र कैसे कागज की
कतरन हुआ और कैसे कतरनों से निर्मित होता हुआ कोलाज अर्थवान हो जाता है, हम इसके गवाह हैं। बाज दफे किन्हीं खास अर्थों के रंगों के ब्रश भी कोलाज
पर जहां तहां अपना प्रभाव कैसे छोड़ते हैं, यह भी हमसे छुपा
नहीं है। जिज्ञासु और भी अचम्भित होते, जब वे बतातीं कि
इसमें तो माध्यम ही पुराने रंगीन कागजों की कतरने एवं वाटर कलर हैं। जमाने की नजर
में रद्दी हो गये तमाम ग्लेजी कागजों का रंगीनपन अनेकों कतरनों के बाद कैसे किसी
आकर्षक कोलाज में ढलता है, यह तो हम दोनों ही जानने
लगे थे। कागज की कतरनों को चिपका कर कोलाज बनाने को कई बार पत्नी मुझे भी उकसा
चुकी थी। उस वक्त उसके जेहन में कला से ज्यादा पेंटिग की कीमत मचल रही होती। कहती
भी,
‘‘ कुछ भी नही तो दस
बीस हजार में तो आपका काम भी निकल ही जायेगा .. बनाइये तो सही।’’
लेकिन मैं भी कुछ
वैसा ही कारनामा कर सकूं,
यह संभव नहीं था। यह बात मैं पत्नी को समझा नहीं सकता था
क्योंकि उसके दिमाग में तो लाखों रूपये कुलबुला ले (इसे
हटाओ) रहे होते हैं। मैं क्या, मेरी
तरह का सामान्य, कोई दूसरा व्यक्ति भी वैसा नहीं कर सकता। वे
कोलाज एक प्रतिभावान कालाकार की कल्पनाओं से आकार लेती तस्वीरें होती हैं।
दोस्तानेपन के उस
दान का प्रतिदान चुकाने के लिए ही मैं ऐसे कागजों को, जहां दिख जाये, जुटा कर, मित्र के हवाले कर देने की हर चंद कोशिश करने लगा हूं। संग-साथ के कारण अब
वैसे भी कुछ-कुछ तो
मैं भी समझने लगा हूं कि कौन सा कागज काम का हो सकता है। सड़क के पार उड़ रहे कागज
का पृष्ठ जो एकदम कोरा था, मुझे उम्मीद थी कि उसकी सतह पर एक
शानदार पेंटिग आकार ले सकती है। मैं यही सोच कर उसे उठा लेना चाहता था। वैसे उसके
दूसरी दूसरी ओर भी जो तस्वीर थी, कई सारे आकर्षक रंग उसमें
मौजूद थे। तब भी वह उड़ता हुआ कागज तो अपने
कोरेपन की वजह से ही मेरी आंखों में अटक गया था। तेज गति से आ जा रही गाड़ियों की पट-पटाट
से वातावरण को आंदोलित कर देने वाली हवाएं कागज को उड़ाए चली जा रही थीं। सड़क पार
करना मुश्किल हो रहा था और मुझे दो मिनट से भी ज्यादा हो गये थे उस कागज को वैसे
ही ताकते हुए। वहां कोई जेबरा क्रासिंग नहीं था। मेरी ही तरह वहां से सड़क पार करने
वाले कुछ और भी लोग थे। वे सारे के सारे और उनके साथ मैं भी, कुछ दूर चलकर जेबरा क्रासिंग से सड़क पार करने की बजाय मौके की ताक में
रहने वाले ऐसे लोग थे जो हमेशा ही इस फिराक में रहते हैं कि ट्रैफिक कुछ गुंजाइश
दे तो झट कहीं से भी पार हो जाएं। वह भी शायद इसी ताक में था लेकिन सड़क पार करने
का उतावलापन उसकी आंखों में उतना नहीं था जितना वह मुझे ताक रहा था। कुछ कहना
चाहता है, यह सोचकर ही जब मैंने उससे मुखातिब होना चाहा तो
उसी क्षण उसने निगाहें दूसरी ओर फेर ली थी। मैं खुद ही झेंप सा गया और अब जितनी
जल्दी हो, सड़क पार कर लेना चाहता था। उसका फिर से ताकते रहना
मुझे असामान्य किये दे रहा था।
हवा कागज को मेरी
पहुंच से काफी दूर कर चुकी थी। कागज को उसने सड़क के दूसरे छोर पर पहुंचा दिया था
और अभी भी उड़ाये जा रही थी। अपनी ही जगह पर स्थिर, मैं
कागज पर आंखें गड़ाये था और वह शख्स मुझ पर। कागज वैसे ही उड़ता जा रहा था, जैसे मेरा पेंटर मित्र उड़ता रहता था हर उस वक्त जब कोई पेंटिग पिछले सभी
दामों से ज्यादा कीमत पर बिक कर नये मानदण्ड खड़े कर देती थी। या, फिर, जैसे मेरे प्रिय लेखक उड़ रहे थे पुरस्कार
वितरण समारोह के दौरान। जबकि स्वागत के फूल गले की माला बनकर कंधों को झुका देना
चाहते थे। पुरस्कार समारोह की धूम तो किसी को भी उड़ा देती है। मेरी स्मृति में वे
पल एकदम साक्षात थे। लेकिन उन पलों की स्मृतियों के गहरे असर के बावजूद न तो मैं
घर जाने के रास्ते को भूला था और न ही पिछली स्मृतियां धुंधलायीं थीं। लेखक को भी
अपने मित्रों की बिरादरी से बाहर करने का कोई मतलब नहीं। बेशक खिलाफ हो जाने वाले
बहुत से साथियों के हस्ताक्षरों के बीच विरोध पत्र पर मैंने भी हस्ताक्षर किये
हैं। मित्र के प्रति दोस्तानेपन को निभाने वाली स्मृतियां और बिना जेबराक्रास से
रास्ता पार करते हुए घर जाने की हड़बड़ी में भी सब कुछ ज्यों का त्यों मौजूद था।
तालियों की वह
जबरदस्त गड़गड़ाहट थी। हाथों में जब सम्मान-पत्र सौंपा गया था। सम्मानित किये जाने
से पूर्व तेज तर्रार युवा ने उसका पाठ किया था। युवापन के जोश की उस साफ आवाज में
अपने बारे में दर्ज किये गये शब्दों को सुनते हुए कंधे पर झूल रहा शॉल बार-बार आगे
को लटक आता था।
दर्शकों की आंखें
शॉल का गिरना देख न पाईं !!
छुपाए रखने की
कोशिश इतनी चुपचाप थी कि शायद ही किसी निगाह की पकड़ में आयी हो। सम्मानित हो रहे
लेखक का अपना भीतर तो फिर भी दिख गए की आशंका से भरा था और उभर आई असहजता को आंखों
में छुपने नहीं दे रहा था।
बार-बार शॉल को
कंधें के ऊपर की ओर फेंकते और कम्बख्त शॉल फिर ढुलक जाता।
‘दर्शक
कहीं सोचने न लगे कि सम्मान लेखक को सहज नहीं रहने दे रहा है !!’
एक असहज किस्म की
मनःस्थिति में ध्यान रह-रह कर हर क्षण अपने को ही देखने को मजबूर कर रही थी। अपने
ही हाव- भाव का अजीबपन खटकने वाला था। बैठने,
देखने में सहजता के भाव बने रहें, सचेत
कोशिशों के बावजूद खुद को ही लग जाता कि एक असहजता है जो भीतर से बाहर तक फूट रही
है। आंखों में वैसे ही भाव लगातार तैर रहे थे।
उत्तेजना का न
जाने वह कौन सा क्षण होता कि शॉल नीचे और फिर-फिर नीचे ढुलक जाता।
क्या तो आलोचना
और क्या तो सम्मान, लेखक को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए
- ऐसे ही किसी अन्य सम्मान समारोह में दोहराया गया वाक्य याद आता रहा।
‘भीतर की
असहजता को मुस्कराते चेहरे से ही ढका जा सकता है।’
हर वक्त खिली- खिली मुस्कराहट ऐसे ही मौकों की देन थी जो व्यक्तित्व को भी
गढ़ती चली गई थी। यदा-कदा की असहमतियां भी जिसके भीतर ढकी रहतीं। ‘
‘चेहरे पर हमेशा बनी रहने
वाली मुस्कराहट के जरिये होंठों की फांक तक को छुपाये रखा जा सकता है और देखने
वाले के लिए खिले-खिले चेहरे के साथ पेश आया जा सकता है। आंखों में आत्मीय सहजता
को उभार कर ही द्विचितेपन की भीतरी असहजता से उबरने में भी मद्द मिलती है।’
लेकिन वक्त ऐसी
बातों को सोचने का न था।
रबर के उजले
दस्ताने पहने डाक्टर ने जब कहा था, एक व्हाईट ब्लैंक
पेपर लाओ तो वह अकबका गया था। अकबकाहट ऐसी कि तुरन्त कुछ समझ ही नहीं आया। साथी की
तबियत विचलित किये थी। रक्त का बहना रुक चुका था। घाव पर स्टिचिंग हो रही थी और वह
अर्द्धमूर्च्छित अवस्था में था। डॉक्टर के कहे शब्द फिर भी कहीं भीतर जाकर अटक गये
थे। पीछे की जेब से पर्स निकाल कर कागज खोजना चाहा लेकिन ऐसा कोई कागज नहीं मिला
कि उसे डॉक्टर के आगे बढा दिया जाये कि लिख दो इस पर। मन ही मन डॉक्टर के ऊपर
गुस्सा आने लगा। ‘उपचार का मतलब इंजेक्शन, पट्टी और गले में आला-टाला टांगना ही है क्या ?’ घायल
साथी का उपचार मानो व्हाईट ब्लैंक पेपर पर ही लिख दिया जाएगा तुरत-फुरत। तुरत-फुरत
की उस हड़बड़ाहट में कुछ आगे को गिरना हुआ था। संभलने की कोशिश में दूसरा कदम कुछ
लड़खड़ाया था। उस क्षणांश में ही एक साथ कई सारी ऐसी जगहों की तस्वीरें उभर आईं, जहां एक कोरा कागज फौरन मिल सकता था। लेकिन उन स्थानों तक जाना मानो समय जाया
करना ही था। घायल पड़े मित्र को अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था। कोई निश्चित फैसला
लेना संभव न हुआ। इस बात में कोई विचलन नहीं था कि मात्र एक व्हाईट पेपर तो कहीं
भी मिल जाएगा और यही सोचकर मरीजों के लिए लिख दी गई हिदायतों के हिसाब से दवा
खिलाने वाली नर्स से संकोच और झेंपती हुई आवाज में कहा था,
‘‘सिस्टर...एक
व्हाईट पेपर ...।’’
काजल लगी आंखों
के भीतर से झांकते सफेद हिस्से पर सिस्टर के भीतर की बहुत सारी झल्लहाट दिखाई देने
लगी थी। जिसके मायने साफ थे कि दिखाई नहीं दे रहा मरीजों से उलझी हूं। यूं
दूधियापन के रबर-दस्ताने और नील लगे उजले कपड़ों की सफेदी में वह पूरी की पूरी एक
व्हाईट ब्लैंक पेपर नजर आ रही थी।
एक मात्र व्हाईट
पेपर की फड़फड़ाहट के लिए क्यों सुनूं किसी की बात, यही
सोचकर एमरजेंसी वार्ड के उस छोटे से कमरे में, एक किनारे
टेबल पर झुककर किसी रोगी के आवश्यक विवरण को दर्ज कर रहे क्लर्क की गर्दन के उठने
का इंतजार करना भी जरूरी नहीं समझा और आगे खड़ी भीड़ के पीछे से ही गर्दन उचकाते हुए
ऊंची आवाज में कह दिया,
‘‘एक
व्हाईट ब्लैंक पेपर होगा...?’’
‘‘हुं...हूं...’’
झुकी हुई गर्दन
के साथ ही एक हमिंग सी उठी थी, लेकिन बिल्कुल नजदीक
खड़ी भीड़ भी नहीं जान सकती थी कि कहां से आ रही है आवाज!!
बहुत संभव है कि
क्लर्क के होंठ फड़फड़ाए हों, या फिर बंद-दराजों के भीतर छुपे बैठे न
जाने कितने ही ब्लैंक पेपरों का सामूहिक गान रहा होगा। दराज में रखे, स्टेप्लर, पिन, पोकर और
व्यक्तिगत जैसे कुछ जरूरी कागज भी न जाने कितनी जोर से उस हमिंग में शामिल हुए थे।
कागज, जिस पर मरीज का विवरण दर्ज किया जा रहा था, पेन की रगड़ से चर्रा गया और एक खामोशी बिखेरने लगा। क्लर्क की मेज के
सामने खड़े रहना अब कतई जरूरी नहीं रह गया था। मन थोड़ा खराब-सा हुआ, पर कुछ कहने की ताकत जुटायी नहीं जा सकी। हर दिन की ऐसी कितनी ही
स्थितियां तो यूं भी दुनिया भर के लोगों की ताकत को निचोड़ देती है। कभी किसी
काल्पनिक मदद की जरूरत में संबंध खराब न कर लेने का वातावरण ऐसे ही नहीं चारों ओर
व्याप्त हुआ है। भले-भले बने रहने की ऐसी आदत में न जाने कितनी जलालत खुद ही झेलते
रहने की मानसिकता ने हर किसी को जकड़ा है। क्लर्क जिन कागजों में विवरण दर्ज कर रहा
था,
उनका मटमैलापन और भी ज्यादा मटमैला लगा। एक सादा कागज, हो सकता है वह भी अपनी सफेदी खोया हुआ ही हो, उसके भर के लिए भी ऐसी तौहीन!! भीतरी मन ने अभी हिम्मत पूरी तरह से नहीं हारी
थी। लेकिन ऐसा कमजोर उतावलापन अभी नहीं उभर सकता था कि अस्पताल परिसर से ही बाहर
निकलना पड़ जाये मात्र एक कागज के लिए और सड़क को इस आवाजाही वाली जगह से पार करने
को मजबूर कर दे। मुझ जैसे नाउम्मीद से भी उम्मीद की गुहार लगाना तक हो जाये।
किसी भी
घटना-दुर्घटना के वास्तविक कारणों को न जाने पाने की स्थिति में सारा दोष समय पर
मढ़ देने की रीत में यह कहना आसान था, ‘‘वक्त बुरा आ गया
है।’’ कुछ ऐसा ही कहा था शायद उसने। ठीक से न सुन पाने की स्थिति में भी मैंने
अनुमान लगा लिया था वह क्या कह रहा है और अपने आस-पास को मैं ज्यादा ही गौर से
देखने लगा था।
सम्मान की महत्वपूर्ण
बेला में लेखक ने भी समय को धन्यवाद दिया था। घड़ी की सुइयां जहां टिकी थी वहां
बहुत उजले हाथों में वह सम्मान पत्र था जिसे ग्रहण करते हुए कमर दोहरी हो गई थी।
पहले भी ऐसे ही मौकों के कारण दिख जाने वाला कमर का दोहरापन रात-बे-रात लिखने-पढ़ने
के लिए जागते रहने और दिन भर जीवन को चलाये रहने वाली गतिविधियों में खटने के कारण
हैं, ऐसा मानना मुगालते में रहना था। रक्त- सने उन हाथों से सम्मान ग्रहण करते हुए एक क्षण को उभरी असहमति को हमेशा
बनी रहने वाली मुस्कराहट ने ढक दिया था और निगाह उठाकर सामने देखने की स्थिति के
रहने पर उनको झुकाये रखने की कवायद में कमर तक को झुकाना पड़ गया था।
यूं, सम्मान थमाने वाले उन हाथों में उस वक्त कोई दाग न था जिसकी
वजह से कोई सताने वाला अपराधबोध पैदा हो। उजलेपन का एक दूधिया अहसास था जो रबर के
दस्ताने पहने डाक्टर, नर्स, वार्ड
ब्वाय और मरहम-पट्टी के रोजानापन में अस्पताल के किसी कर्मचारी के हाथों में होता
है।
घायल की
मरहम-पटटी करने के बाद डाक्टर, नर्स, वार्ड ब्वाय के धुले-पुंछे हाथों की तुलना किसी मानवीय व्यापार से ही की
जा सकती है, घृणा के रक्त से सने प्रपंच से नहीं। भाव- विह्वल होकर सम्मान का जखीरा लेखक को पकड़ाये जाने वाले उन हाथों के
उजलेपन से करना तो बेमानी ही है।
वे किसी भी
उजलेपन से ज्यादा ही उजले थे... बल्कि उनके उजलेपन की तुलना किसी सचमुच की उजली
चीज से भी नहीं की जा सकती थी। तुलना की ऐसी संगत में तो भाषा का बाजारूपन व्याप्त
होता है- ‘‘तेरी कमीज मेरी कमीज से उजली कैसी ?’’
एक निर्विवादित
सत्य उनके उजलेपन पर फिर भी सवालिया निशाना लगाते हुए था कि प्रकाश जिस रंग से
सबसे कम प्रकीर्णित होता है वह उजला नहीं लाल होता है। हत्या दर हत्या से लसलसाये
हाथों की लालिमा से प्रकीर्णित होता प्रकाश बहुत दूर बैठे दर्शक की निगाहों में सिग्नल
लाइट की तरह अटक ही न गया हो कहीं!! सावधानी बरतने की हद तक, खौफ पैदा करने वाली,
रक्त दर रक्त गंदली चिपचिपाहट के प्रकीर्णन की संभावनाओं को
नेस्तेनाबूद करने की गतिविधि का नाम ही तो राष्ट्रीय गौरव है। वरना तो एक ही जैसा
है रंग। वही सुर्ख लाल। गर्द-गुबार में सन कर जिसकी ललाई को ऐंठन लगाई जा सकती है।
धुले- पुंछे होने पर भी जिसकी लालिमा मिटती नहीं।
हां, भक्त लोग उसे चेहरे और शरीर पर बिखरे हुए तेज की तरह
देखने लगते हैं।
चेहरे पर बिखरे
उस तेज का समागम, त्रिशूल, बल्लम और
भाले लिए, चेलों को उकसाने वाली मुद्राओं से भरे वक्तव्यों
वाला तो नहीं ही कहा जा सकता था। उस वक्त तो वह रचनात्मक जगत के चमचमाते सितारे को
सम्मानित करते हुए ओज पूर्ण वाणी में कृतित्व की चर्चा भरा ‘ ॐ (ओहम)- ॐ ’ था।
बोलने के लिए खड़े ही हुए थे, हाथों को ऐसे उठाया था मानो
अभिवादन में उठे हों जैसे, लेकिन उनका फैलाव आर्शीवाद देता
हुआ हो गया था। प्रत्युतर में भक्त जनों की जय-जयकार थी। जय-जयकार भरा अभिनन्दन
लेखक के चेहरे पर भी बिखर रहे तेज को बहुत निरापद कैसे रहने देता भला। वक्तव्य में
कोई हुंकार जरूर ऐसी थी जो बम-बम की आवाजों का सा कोलाहल मचा रही थी।
ऐन उसी वक्त, आने-जाने वाली गाड़ियों का तांता, जब
क्षण भर को कुछ थमा था और सड़क पार कर सकना संभव हुआ, पीछे से
उसने बांह पकड़ कर आगे बढ़ने से रोक ही दिया। जमाने के अनजानेपन में भी मुझे कुछ जान
पहचान का पाकर मदद की उम्मीद के साथ था वह शायद। यह कहना कतई संगत नहीं कि सिर्फ
एक रचनाकार की अभिव्यक्ति में सुनायी देती पंक्तियां ही जमाने का सच थी, ‘‘हमको गहरी उम्मीद से देखो बच्चों, हम रद्दी कागजों
की तरह उड़ रहे हैं’’, मेरे जैसा साधारणपन भी जब उसकी उम्मीद
आसरा हुआ जा रहा हो तो यह अनुमान लगाना तो मुश्किल नहीं कि मदद की कितनी गुहारें
सक्षम समझी जाने वाली न जाने कितनी शख्सियतों से की जा चुकी होंगी। ऐसी अवस्था में
यकीन के खम्भे को मजबूती से गढ़े रहने का सहारा बेशक मेरे व्यक्तित्व का दलदलापन भी
पूरी तरह से नहीं दे रहा होगा, फिर भी उम्मीद की गहराइयों
में उतरे पांव मेरा रास्ता रोके थे। हालांकि, उसे रास्ता
रोकने के अर्थों में नहीं लिया जाना चाहिए। वह तो कदापि उसका उद्देश्य नहीं रहा
होगा। पर ऐसा मानते हुए एक सवाल का जवाब तो मिल ही जाता है कि जरूरी नहीं घटना का
परिणाम उद्देश्यों के अनुरूप ही आये। घटना दर घटना और परिणाम दर परिणाम की संगति
में ही बनने वाली धारणा वैज्ञानिक कही जा सकती है। कल्पना से विचार तक की यात्रा
में घटना और परिणाम महत्वपूर्ण पड़ाव हैं।
उम्मीदों की
व्यापप्ति का आलम घनघोर आदर्शों में डूबे उस युवा कार्यकर्ता की कथा में ज्यादा
गहरा रहा है जिसे मैंने गहरे तक टूटे हुए, उस दिन करीब से
देखा था जब वह नाउम्मीदों में घिरा हुआ था। सफेद कागज पर लिखे उन पत्रों की भाषा
को बांचने की जरूरत उस वक्त शायद उचित न थी जिनमें उसके प्रिय रचनाकारों की
लिखावटें आज भी वैसी ही आश्वस्ति के साथ दर्ज है जैसी आश्वस्ति उनको पहली बार पढ़े
जाने के वक्त महसूस की गयी थी लेकिन जिनके प्रभाव सिर्फ लिखावटों की स्याही के
अलावा किसी भी दूसरे तत्व के रूप में ईमानदार नहीं रहे। लगातार मटमैला होता गया उन
कागजों का रंग तक भी अपने को पूर्ववत नहीं रख पाया।
वह एक ट्रेड
यूनियन कार्यकर्ता था और लगातार फंदा कसती नीतियों के विरोध में उन भाषणों की तरह
दहकता हुआ, जो प्रतिरोध के रूप में दिन ब दिन सुनी
जाने लगी थी।
अपनी शिक्षा के
अधूरे परिणामों से व्यथित एक शिक्षाविद की वह ऐसी जिद्द थी जो हर कीमत पर अपने को
सही साबित करना चाहती थी। अपनी पेशेवराना भूमिका बदल लेने के साथ उसने पहले-पहल उन
नीतियों को लागू करने का मसविदा तैयार किया था। जाने क्यों उसे आर्थिक नीतियों का
नया मसविदा कहा जा रहा था जबकि वह इतिहास के गहरे गर्त में वे देश के आर्थिक
निर्माण के साथ ही रोपे हुए बीजों से अलग रूप में नहीं थी। बहुत सुप्तावस्था में
उसके उस भयानकपन का अंदाज नहीं लगाया जा सकता था। जैसे बीते दिनों में भी नहीं
दिखा था कि जब जेब में फूल टांक कर उन्हें लागू किया गया था। दुनिया को तेजी से इक्कसवीं
सदी में ले जाने वाले कोमल ख्यालों ने उन्हें जब पूरी तरह से लागू किया तो गति को
अतिरिक्त रफ्तार के साथ बढ़ा भी दिया। लोगों का जीना ही दूभर होने लगा था। छूटती
नौकरियों के साथ आत्महत्याओं का भयानक मंजर चहुं ओर था। कठिन स्थितियों का मुकाबला
कैसे किया जाये, यह स्पष्ट नहीं दिख रहा था। आम जन मानस को
लगातार रूदन के लिए मजबूर करते परिणाम उनके गलों तक को सुखा देने वाली उस आक्रामकता
के हवाले थे जो हत्यारी स्थितियों से उपजी सहानुभूति की लहर पर चढ़कर चली आयी थी और
फिर से एक वैसी ही सहानुभूति के हवाले आगे बढ़ती हुई थी।
ऐसे कठिन समय में
यूनियन का कोई समारोह हो,
बेशक पचास साला जश्न सही, लेकिन समारोह के समापन पर रंगारग कार्यक्रमों के नाम पर ऑरकेस्ट्रा नहीं
बजवाया जा सकता था। यद्यपि यह स्पष्ट है कि एवज में थोड़ा सांस्कृतिक होने के नाम
पर फूहड़ हास्य से भरी कविताओं के पाठ के अलावा कोई दूसरा विकल्प तक किसी के पास
नहीं था और ऐसे ही किसी आयोजन के लिए एक-एक सदस्य से जुटाई गयी चंदे की रकम को डुबो
दिया जा सकता था। युवा कार्यकर्ता के अनुभव बहुत सीमित थे लेकिन जोश और होश का
संयोग उसे ऐसे किसी भी कार्यक्रम का हिस्सा नहीं होने देना चाहता था। वह चाहता था
कि भांड-भड़ैती की बजाय जनपक्षधर रचनाओं के जरिए ही कार्यक्रम सम्पन्न हो।
प्रस्ताव जब उसने सदन में रखा तो यूनियन के सभी वरिष्ठों को भाया और मान लिया गया
था। अपने युवा कार्यकर्ता के उत्साह और चीजों को सही दिशा में रखने की चिंताओं से
वे सभी वाबस्ता थे पर ऐसे प्रिय रचनाकारों से वाकिफ न थे जो भाषा की गढ़न के साथ आम
जन के पक्ष में ही रचनारत रहते हों। जानते होते तो वे भी उन्हें दिल से प्यार
करते। यूं सोवियत संघ से छपने वाली और कम दामों पर खरीदी जा सकने वाली किताबें
उन्हें साहित्य की भूमिका से परिचित किये थी। लेकिन अपने जन समाज के वैसे नायकों
से उनका वास्ता नहीं था। यह विचारणीय विषय हो सकता है कि ऐसा क्यों था ? क्या इसमें वे एकतरफा दोषी थे ? किसी भी नये सवाल
से उलझने की बजाय ऐसे संवेदनशील लोगों से कैसे और कहां संपर्क हो सकता है, काम उस अकेले को सौंप दिया गया था।
एक कोरे कागज पर
लिख लिया गया नमूना पत्र ही नकल किया जाना शेष रह गया था। पत्र के जरिये ही वे
अपने प्रिय रचनाकारों से सम्पर्क कर सकते थे। सामूहिक रूप से लिखे गये उस नमूना
पत्र की भाषा आकर्षक और आत्मीय थी। भविष्य के महत्वपूर्ण गद्यकार एवं उस समय भी
पूरी सघनता से दखलदांजी करने वाले लेखक का ड्राफ्ट था वह लेकिन उसे एक रूप देने
में दूसरे लोगों की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।
बेशक एकल गतिविधि
है लेखन, लेकिन सामूहिक चर्चा से ही भिन्न-भिन्न
पहलू उजागर होते हैं। भिन्न-भिन्न पहलू को उजागर कर सकने वाले लेखन के ही रूप
दुनियावी मसलों से निपटने में महत्वपूर्ण दस्तावेज हो जाते हैं। बहुत घर-घुस्सू
होकर लिखना और लेखन को एकल कार्यवाही मानने का दूसरा नाम कलावाद भी हो सकता है।
बेशक कलावाद को परिभाषित करने के लिए कितने ही अन्य मानदण्ड भी हैं।
कला और जन के बीच
बंटे साहित्य की जनपक्षधर धारा को संबोधित, वह मजूदरों की
पुकार थी। खत का मजमून पुकारने वालों की तस्वीर था। सरोकारों में जन का पक्ष चुनता
हुआ। जवाब में तपाक-तपाक पहुंचे थे वे पत्र जिनमें कार्यक्रम से सहमति और उपस्थित
हो सकने के आश्वासन थे। डाक में पहुंचते पत्रों को वह बार- बार पलटता और खूब उत्साहित था। गहरी उम्मीदों से। यूनियन के
हर साथी को हर क्षण की सूचना देते हुए उसके भीतर का उत्साह उछाले मारता हुआ। महीन
से महीन चीजों को आकाश की ऊंचाइयों तक उड़ा देने वाली कल्पनाओं से भरी रचनाओं के
ताव से भरे वे सारे के सारे पत्र इस बात की उम्मीद जगाते थे कि सिर्फ कोरी कल्पना
की उपज नहीं बल्कि अनुभव के ताप से पैदा होने वाले ज्वार का जलजला ही होता है रचना
में जो सीधी कार्रवाई को ही बदलाव का सबसे जरूरी अस्त्र मानती है। अपने प्रिय
रचनाकारों के प्रति वह इतने गहरे सम्मान से भरा था कि उनकी रचनाओं में दर्ज
पंक्तियांे के उजाले में ही जमाने को अंधकार में डुबोने वाली ताकतों को पहचान पा रहा
था।
अपनी उपस्थिति की
सहमति देते हुए वे इस कदर विनम्र थे कि ऐसे कार्यक्रम में खुद के होने को एक अवसर
की तरह देख रहे थे। बकायदा उनके पत्रों की भाषा और टेलीफोन वार्ताओं में सुनायी
देते लफ्जों का कोई दूसरा अर्थ कैसे लगाया जाये। अपनी ही दिक्कतों की वजह से उपस्थित
न हो सकने वाले तो पहुंच न पाने की असमर्थता पहले ही जाहिर कर चुके थे। स्वीकृति
की संख्याओं का अनुपात जतायी गयी असमर्थताओं का मलाल मिटा देने को काफी था। खिचड़ी
खाकर कहीं भी सो जाने वाली आवाज की कोमलता इतनी उम्मीदों भरी थी कि वातानुकूलित
द्वितिय शयन यान के टिकट पर ही यात्रा करने वाले उस एक मात्र पत्र का भी मलाल नहीं
रह गया था, जिसके जवाब में कहना पड़ा था, ‘किराये के एवज में देने के लिए शयनयान श्रेणी ही हमारी सीमा है।’ कार्यक्रम वाले दिन भी यदि कहीं कोई आकस्मिकता में फंस ही गया तो भी दूसरे
आने वालों की स्थितियां कार्यक्रम को गति देने के लिए पर्याप्त थी।
सहमतियों के
पत्रों का कागज तो आज भी उस नर्स की ड्रेस-सा सफेद है जो डाक्टर के एकदम करीब ही
बनी हुई थी उस वक्त भी,
जब डाक्टर ने कहा था, ‘एक सफेद कागज लाओ
तो।’
समय पर कार्यक्रम
शुरू हो,
यह चिन्ता उस अकेले युवा की ही नहीं थी बल्कि यूनियन के
वरिष्ठ साथियों के स्वर भी उसी अकुलाहट में थे। पहुंचने वाले रचनाकारों की कोई खबर
न मिली थी। एकदम अंतिम क्षणों में तय हुआ फोन खड़खड़ा लिए जायें। कितने ही सफेद कागज
एक साथ फड़फड़ा उठे थे जिन्हें फिर-फिर पढ़ने पर भी कहीं से भी यह नहीं लगता था कि
प्रिय कवि अनुपस्थित हो जाएंगे। हर ओर से अनुपस्थितियों पर क्षमा प्रार्थी होने का
औपचारिकता थी।
अनुपस्थिति का वह कैसा रंग था, सहमति के पत्रों के कागज पर जो अनुपस्थित हो जाते हुए भी रक्त के से
धब्बों के रूप में न चमकता हो! बेशक होता तो वह भी हूबहू उन उजली हथेलियों सा ही
है जो सम्मान का टोकरा लिये ऐेसे फिरती हैं कि अति महत्वाकांक्षाओं के रोगी के सिर
को ही ढक देती हैं। अपने ही सवालों को ताक पर रख कर कमर तक को दोहरा करे देने वाली
हो जाती हैं। बल्कि उस वक्त उनसे ‘आशीर्वाद’ लेते हुए तो कोई ऐसा ख्याल भी नहीं सताता कि मुखालफत के हस्ताक्षर अभियान
में खुद की लकीर को लम्बी करते जाने वाली जनपक्षधरता किस कदर सक्रिय हो सकती है और
खुद को किसी दूसरे खेमे में फेंक देने का आधार हो सकती है।
धुले-धुले, उजले हाथों का स्पर्श़ कैसे-कैसे अहसासों से भर रहा था,
सम्मान-पत्र पकड़ाते हुए जब वे पीठ पर और कंधों पर थपकियां दे रहे
थे। सम्मान की सबसे पहली कार्रवाई में ओढ़ाया गया शॉल, कंधों
से पूरी तरह से नीचे ढुलक गया। देह को उघाड़ता हुआ। यौवन की उमंगों से भरी हाना
स्मिथ की तांबई देह उघड़ आयी हो मानो। वह युवा नायिका का बदन था। मानवता की हिंसक
कार्रवाई की दोषी ‘द रीडर’ फिल्म की
नायिका हाना स्मिथ। एक जघन्य अपराध को चुनौती देती जिसके प्रेम की मांसलता में
न्यायालय की दीवारें तक खामोश हो गयी थी।
‘आई वॉस
जस्ट अ गार्ड, डूईंग माय डयूटी। वट वुड यू हैव डन इन माय
पोजिशन ?’
वह संवाद जो अपने
ऊपर लगे अपराधों को कबूल लेने के बाद भी न्यायाधीश को ही नहीं बल्कि गेस्टापों से
बच निकली उन स्त्रियों को भी स्तब्ध कर गया था जो मुकदमे की गवाह थीं और बदले की
आग से सुलग रही थीं। कैमरा उनके भीतर घुमड़ रहे अनेकों भावों को फोकस करता हुआ उनके
चेहरों पर केंद्रित था। उसी क्षण वह युवा नायक तिलमियलाया था जो कहीं से भी अपनी
प्रेमिका को अपराधी मानने को तैयार नहीं था। मात्र देह के नशे भर के सुरूर में
नहीं था वह। हालांकि, अपनी किशोर वय को जवां मर्द में तब्दील
करते उन कोमल अहसासों और उत्तेजक सांसों के असर को भूल नहीं सकता था। देह के राग
में सुनायी देती वह पुर-सुकून खामोशी जो गिरी हुई पलकों के साथ दुनियावी ही नहीं
बल्कि किसी आकस्मिक खतरे की भी आशंका का अंदाजा नहीं लगा सकती थी। यद्यपि बाज दफे
चैंकने के साथ देर तक घूरती रहने वाली अजनबियत भी उनकी एक अदा थी। प्रेम का राग
रंग उम्र के बंधनों के पार था लेकिन दुनियावी मसलों को जानने के लिए वह हर वक्त
अपनी प्रेमिका के ही आगोश में नहीं रह सकता था। हाना स्मिथ भी कहां परे थी वैसी
गतिविधियों के जंजाल से जो जीवन को चलाने के लिए रोजी-रोजगार का बहाना होती है। बस
की कंडक्टरी में टिकट काटते-काटते वह भी थक ही जाती थी। लेकिन किसी अनिश्चित समय
में अपने ठिकाने वापिस पहुंचने वाली बस में एक रोज बैठ जायेगी, इसकी कल्पना वह कैसे कर लेता भला। मानवता को त्रस्त करती भयावह स्थितियों
से बच निकले ज्यूस की संतान होने के बाद भी वह नहीं जान सकता था कि वैसे ही
अपराधों से निर्मित मानसिकता में ही देह की हिंसक मांसलता किस रंग में रंगी होती
है। उसके भीतर तो हर वक्त भीतर बजता रहता प्रेम का राग हाना- हाना दोहराता था। नहीं जानता था कि यूं मुलाकत होगी उस एकाएक गायब हो गये
चांद से जिसके बदन की रोशनी में ममत्व का गहरा सुकून और एक साथी की खुशबू तक के
कोमल अहसास लम्बे फासले के बाद भी पीछा करने वाले साबित हुए।
अपराध और और
कानूनी जगत के मसलों को निपटाने के लिए उस ऐतिहासिक मुकदमे के आधार पर अपने मास्टर
और साथियों से उलझना था उसे। मुकदमा दिलचस्प था और जमाने की नफरत में बदले की आग
से धड़कते साथियों को अपराधी के प्रति पहले से ही एक राय में जकड़े था।
धुले-धुले उजले
हाथों पर बेशक भाले, बरछे और त्रिशूल की नोंक पर खींच दी गई
अंतड़ियों से निकलने वाले गाढ़े रक्त के निशान दिखाई नहीं दे रहे थे लेकिन हकीकत थी
कि वे इतने गहरे थे कि एक सचेत नागरिक के लिए उन्हें देखना कतई मुश्किल नहीं था।
संवेदनशील लेखक के लिए तो और भी मुश्किल नहीं। उनकी ललायी के तेजोमय रूप पर ही
न्यौछवर थी भक्तों के मन में उमड़ती श्रद्धा। सम्मान पत्र की अपारदर्शी सतह भी
उन्हीं के असर से प्रदीप्त हो कर पारदर्शी हो रही थी। लेकिन पीछा ही नहीं छोड़ रहा
था उनका वीभत्स रुप।
‘कैसे न
दिख रहा होगा दूसरों को भी यह सब ?’
मन के भीतर ही
भीतर उठी थी आवाज और परेशानी के भाव चेहरे पर एकबारगी फिर से उभर आये थे। ऐन उसी वक्त अदाकारा हाना स्मिथ की स्मृतियां
तार्किक सहारा देती रही।
अपने ऊपर लगे
आरोपों को बेशक अनंत तक इंकार करने वाली दृढ़ता से परे थी हाना लेकिन किसी भी तरह
की गिड़गिड़ाहट उससे कोसों दूर थी। उसका यही प्रबल पक्ष लेखकीय चेतना का आधार था।
क्या मुझे अपराधी मानने वाले वस्तुगत स्थितियों को नही देखना चाहते ? उस स्थिति के बीच क्या उन्हें खुद का किसी दूसरे अपराध में
निर्लिप्त होना दिखायी न देने लगेगा, बेशक ओरोपित भी न हुए
हों चाहे ?
अपराध के साबित
हो जाने का भय हाना स्मिथ को सता नहीं रहा था। बल्कि उसके व्यक्तित्व की दृढ़ता का
प्रभाव इतना गहरा था कि भीतर ही भीतर ढेरों सवालों से उलझ रहा दर्शक भी दीवारों तक
को खामोश कर देने वाले सवालों के जद में आ जाये और न्यायधीश एवं अदालत में मौजूद
लोगों का अभिनय कर रहे पात्रों की तरह वह स्वतः ही निरूत्तर हो जाये। इसे सिर्फ
फिल्मकार के भीतर के उदगार ही नहीं माना जा सकता कि दृश्य में नाटकीय मोड़ देने के
लिए उसे एक ऐसे पात्र को भी वहां रखना था जो उस वक्त भी तफसीलों के आधार पर चालू
बहस मुबाहिसों को झूठा बता सकता था। प्रकृति में मौजूद द्वंदात्मकता इसी का नाम
है। पानी की तरलता में ही ठोस बर्फ हो जाने की स्थितियां छुपी होती हैं। संभावनाओं
के पौधे पृथ्वी के ध्वंस के बाद ही जन्म लेते हैं। अपने समूचे अनुभव सत्य के हवाले
से वह बीच मुकदमे के चिल्ला सकता था कि अपराध के कबूले जाने का कारण आरोपित का
नाजी कैम्प का गार्ड होना कतई नहीं है।
‘किसी भी
तरह का कोई लिखित आदेश वाला पूर्जा जो अपराध के साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया
गया, उसके किसी नाजी कैम्प का गार्ड होने का सबूत हो नहीं
सकता मि लार्ड।‘ लगाये जा रहे आरोपों को इस आधार पर ही खारिज
किया जा सकता हैं कि पेशे के रूप में ट्राम कन्डेक्टरी करने वाली आरोपिता तो पूरी
तरह से अशिक्षित है, किसी भी तरह का कोई लिखित आदेश देना
उसके लिए संभव ही नहीं। यकीन न हो तो आप उसे उसकी सबसे पसंदीदा कहानी ‘द लेडी विद डॉग’ पढ़ने को दे दीजिये चाहे।
नाजी बर्बरता के
युद्ध अपराधी अमेरिकी ऑटो चालक जॉन देमजानजुक की कहानी से फिल्म का कोई संबंध नहीं
था। लेकिन उस बर्बरता के गहरे घावों से बिलखते आज तक समय में भी उसे कानून आधार पर
उम्र के आखिरी पायदान में होने का लाभ दिया नहीं दिया जा सकता था। सत्ताईस हजार नौ
सौ ज्यूस को सोरबीबोर बोर एवं मजडेक नाजी कैम्पों में मौत के घाट उतार देने के जघन्य
अपराध में लिप्त उस आरोपी को अदालतें माफ नहीं कर सकती थी। बेशक मृत्यु ही उसे
निरपराधी होने का अवसर वरण कर देने वाली हो जाये। अदालतें उसकी पहचान को परत दर
परत उतार देना चाहतीं थी। प्रस्तुत होते साक्ष्य बता रहे थे कि नाजी सेना के हाथों
गिरफ्तार हो चुके इवान देमजानजुक ने ही भीख में मिले प्राणों के लिए कैम्प गार्ड
होना स्वीकारा था और बाद में अपनी पहचान को छुपाने के लिए जॉन देमजानजुक होकर
अमेरिकी नागरिक हो जाने में ही अपना भला माना था।
गाड़ियों की चपेट
में उड़ता जा रहा वह कागज अपने रंगीनपन में फिल्म की अदाकारा कैट विंसलेट की तस्वीर
होने की संभावना जाता रहा था। हाना स्मिथ के रूप में उसका अभिनय तब भी स्मृतियों
को झकझोर दे रहा था।
दैहिक उछाल के वे
कितने ही दृश्य थे जिनमें सिर्फ स्पर्श की भाषा में साथ होना उस किशोर को स्कूल
में पढ़े गये अध्यायों को दोहराने के लिए उत्सुक किये रहता। द लेडी विद डॉग। खुली
हुई किताब में दर्ज कहानी को मुग्ध भाव से सुनती हाना खुद पढ़ने की स्थितियों को
टालती जाती। अदालत की खामोशी में सांसे फिर भी अटकी की अटकी रह गई थी, कुछ भी कह पाना संभव नहीं हुआ। जान रहा था कि एक सच की
अभिव्यक्ति में दूसरे कितने ही सत्यों को उदघाटित करने के साक्ष्य जुटाने के लिए
फिर उसी हाना स्मिथ के बयानों को गवाह होना होगा, जबिक हाना
के भीतर बैठा फिल्मकार उसे अपराधी साबित हो जाने की हद तक मजबूर किये था। वह खुद
ही अपने अपराध को कबूल चुकी। भीतर मौजूद बदले की यहूदी पहचान भी हिटलर के नाजी
कैम्पों के सुरक्षागार्ड को अपराधी नहीं मानने दे रही थी पर।
मानवता को गैस चेम्बरों
में जिन्दा जला देने वाले निर्मम हत्याकाण्ड की दोषी वह, अपनी देह के कटाव से नहीं बल्कि अपने तर्कों से न्यायपालिका
की दीवारों तक को खामोश कर रही थी।
उसे फिल्मांकन
मात्र नहीं, जमाने की हकीकत का सन्नाटा कहा जाना ज्यादा
ठीक होगा।
वह चलचित्र नहीं
था और न ही कोई रेडियो रूपक। एक कवि का बयान था, जो
फोन में दी जा चुकी स्वीकृति के बाद खुद को एक ही तरह से दोहराता- हम तो जमीन का
ही आदमी हूं... खिचड़ी-पिचड़ी कुछ भी खा लूंगा। यूं कागज का अभाव तो नहीं ही रहा
होगा। लेकिन एक अव्यवस्थित जीवनशैली को जीने में खत लिखने जैसे मामूली काम को ही
सब कुछ क्यों मान लिया जाये। फिर जिस समाज में जुबान के झूठ हो जाने पर मूंछे कटवा
देने वाली मर्दानगी एक मुहावरे के रूप में चहुं ओर व्याप्त हो, वहां कही गयी बात को लिखे से ज्यादा महत्व क्यों न दिया जाये?
गनीमत होती कि
बदलती दुनिया जुबान के कोरे पन को व्यवहार की पारदर्शिता तक कायम रखती। यकीनन
दुनिया का बड़ा सा बड़ा फैसला भी, पीढ़ी दर पीढ़ी समाज
को संचालित करते हुए संस्कृति का हिस्सा हो गया होता। लेकिन चालाक मंसूबो वालों ने
संसाधनों पर कब्जे का जो आलम रचा है उसमें कायदे कानूनों के लिखित रूप का महत्व
बढ़ा है, उनके अनुपालन की चौकसी के लिए अदालती व्यवस्था में
कितनी ही बार झूठ को भी सच की तरह प्रस्तुत करना साक्ष्य हुआ है। सच को सच की तरह
दिखा सकने वाली व्यवस्था के कानून, मात्र लिखित दस्तावेज से
नहीं बल्कि समाज निर्माण की प्रक्रिया में ही अपना होना साबित कर सकते हैं।
एक सफेद कागज के
लिए इतना घमासान !! ऐसा उसने कल्पना में भी कभी नहीं सोचा था। उस वक्त वह
डिस्पेंसरी की उस धक्का-मुक्की के साथ था, जहां
दवाओं के परचे बाहर को सरकते जा रहे थे और अभ्यर्थना के बावजूद मायूस हो जाते
चेहरों की गहरी छायाएं, अस्पताल के बाहर दवाओं की दुकानों पर
पर्चा आगे बढ़ाने को मजबूर करती जा रही थी। भला कब तक लाइन लगाए!! और कहीं काउंटर
के एकदम नजदीक पहुंच जाने पर अन्दर से बाहर की ओर झांकती आंखें गुस्से से तरेरती
हुई बिलबिला पड़ें तो...!!
कदम थे कि उस ऑफिस
को खोज लेना चाहते थे, जहां एक नहीं दर्जनों सफेद कागज यूंही मुड़े
तुड़े से बिखरे पड़े हो सकने की संभावनाओं के साथ थे- किसी क्लर्क के डस्टबिन में
भी।
‘‘ऑफिस
कहां है ?’’
अपने मरीजों की
परेशानी में घिरे लोगों को किसी दूसरे के सवाल से जूझने की फुर्सत नहीं थी। मज़ार से
लेकर पीपल के पेड़ तक के गोल घेरे का तीसरा चक्कर लगाया जा चुका था। ऑफिस कहीं नजर
नहीं आता था। एक बड़ा सा कमरा था जो अपने सामने की चारदीवारी के टूटे होने की वजह
से सड़क से ही साफ नजर आता था, साइकिल स्टैण्ड वाले
ने उसी ओर इशारा करते हुए कहा था,
‘‘वो तो
रहा’’,
ऑफिस के ठीक
सामने की चारदीवारी टूटी हुई थी। सड़क पर खुलते उसके दरवाजे के कारण उसे अस्पताल का
हिस्सा नहीं माना जा सकता था। लेकिन हकीकत उसके उलट थी। टूटी हुई दीवार को टाप कर
सामने की हलचल भरी सड़क पर सरपट दौड़ा जा सकता था। ऑफिस में बैठा क्लर्क बहुत अक्खड़
था- सीधे जवाब देने की बजाय टका सा जवाब ही उसकी जबान से फूटा,
‘‘खैरात
बंट रही है क्या ... दुकानें हैं बाहर ... एक छोड़ दस लो।’’
मन तो हुआ कि
सुना दे अभी कि खैरात बंटती है क्या उस वक्त जब दोपहर का खाना खाते हुए बड़ी बेरहमी
से बिछा लिया जाता है एक नया नकोर कागज यूं ही ? डस्टबिन
में पड़े, सब्जी के दाग लगे कागजों ने ध्यान खींचा था। पर
घायल साथी के पास तुरन्त पहुंच जाने की जल्दबाजीं ने मुंह को खुलने से रोक दिया।
अपनी परेशानी को जाहिर कर दयनीय दिखने की इच्छा भी न थी। गुस्सा क्लर्क पर नहीं
अपने पर ही था, एक कागज के लिए इतनी क्यों सुनूं ! टूटी हुई
चारदीवारी के बाहर दृश्य उम्मीद जगाने वाला था।
कागज की दुकान
में मार-कागजों के बण्डल उतर रहे थे। पल्लेदार बण्डलों को पीठ में रखते और सड़क से
कुछ ऊपर उठी हुई उस दुकान में, सीढ़ियों वाले रास्ते
से उपर चढ़कर एक ओर पटक देते। दुकान का नौकर उन्हें व्यवस्थित करने में जुटा था और
व्यापारी बेफिक्र मुद्रा में फोन पर बतिया रहा था। माल को यहां से वहां पहुंचने की
सूचना लेते-देते हुए वह अपने में ही व्यस्त था। एक फोन पर बात चल ही रही होती कि
दूसरा फोन बज ही रहा होता। जरूरी निर्णय शायद उस अकेले को ही लेने थे, उसकी व्यवस्तता को देखकर अंदाज लगाया जा सकता था कि गहमा-गहमी में चलने
वाली इस दुनयिां की गतिविधियां कैसे मात्र कुछ सीमित लोगों के द्वारा जारी रहती
हैं। समय पर आर्डर न पहुंचा पाये ग्राहकों से ढेरों बहाने बनाते हुए वह अगले रोज
माल पहुंच जाने के वायदे ही करते जा रहा था। व्यवस्त व्यापारी से तो कुछ भी
कहना-पूछना संभव नहीं था और कागजों की इतनी बड़ी दुकान में एक कागज के लिए किसी ने
कुछ पूछ जाने पर मिल जाने वाले कैसे भी जवाब की आशंका ने संकोची ही बना दिया था।
कागजों के बण्डल को सेट कर रहे नौकर से पूछते हुए खुद को ही लग रहा था कि जैसे
मिन्नतें की जा रही हैं। मिन्नतों भरी उस आवाज का ही असर था कि नौकर ने झिड़का नहीं,
आराम से ही कहा,
‘‘एक कागज
की तो यहां कोई गुंजाइश ही नहीं है भैय्या... कोई रिम फट-फटा गया होता तो भी बात
थी...‘‘
मायूसी भरे चेहरे
पर उभरे वे न जाने कैसे भाव थे जिनका मायने नौकर ने जब अपनी तरह से निकाले तो
तसल्ली के दो बोल उसकी जुबान पर आ गये थे,
‘‘...यार
एक कागज तो कहीं भी मिल जाएगा...न हो तो किसी पनवाड़ी से ही ले लो।’’
पनवाड़ी की दुकान
के बगल में ही टेलीफोन-बूथ था। रात के आठ बज चुके थे और कॉल रेट आधा हो चुका था।
यूं ग्यारह बजे के बाद एक चौथाई रेट पर बात की जा सकती थी। लेकिन इतनी रात को किसी
शरीफ आदमी और वह भी जिसके कृपा भाव से आप पहले ही खुद को कृतज्ञ महसूस किये हों, फोन नहीं किया जा सकता था। ऐसे में सामान्य वक्त पर ही फोन
किया जा चाहिए, बेशक कितना भी खर्च आये। फिर कौन सा बहुत
लम्बी चौड़ी बात करनी थी। आदर के साथ सूचना देते हुए डाक पता ही तो मांगना था। ताकि
कार्यक्रम की विस्तृत सूचना भेज कर सहमति की दरख्वास्त की जा सके।
यूं ज्यादातर
कवियों के पते हासिल हो गये थे लेकिन... ‘‘उनका
पता कहां से हासिल हो जिन्हें खुद का पता नहीं।’’ कार्यक्रम
को योजनाबद्ध तरह से आयोजित करने में सहयोग दे रहे युवा कार्यकर्ता के मित्र कवि
ने अपने अंदाज में चुटकी ली थी। चुटीलेपन के बावजूद अभिव्यक्त भावों का सार कवि के
प्रति गहरे सम्मान से भरा था। यह एक ऐसे कवि के पते को खोजना था जिसकी कविताओं में
दुनिया के महीन से महीन आब्जेक्ट स्वतः दर्ज हो जाते थे और पाठक के भीरत दुनिया को
रंगीन बनाने का स्वप्न भरने लगते थे। गहरे आदर और सम्मान से पुकारे जाने वाले ऐसे
रचनाकार का जीवन महत्वाकांक्षाओं के दुनियावी झंझट से परे मेहनतकशों के संग साथ का
हिस्सा होने की कथा था। उन गतिविधियों का हिस्सा जहां संघर्ष का रूप कुछ हद बदलाव
की सीधी कार्रवाइयों में ही बीता हो, मानो। बहुत देर तक फोन
में बतियाते ऐसे कवि को साक्षात उसके शब्दों में सुनना एक अदभुत अनुभव था। उधर,
कवि भी बातों का लम्बे से लम्बा किये जा रहे थे। जारी बातचीत को बीच
में काट कर प्रिय कवि की तौहीन नहीं की जा सकती थी। फिर वे बातें भी कितनी तो
आत्मीय थी ! उनके नशे में यह ध्यान भी कहां रह सकता था कि कितने पैसे हैं जेब में।
उलटनी भर बाकी थी। चेहरे पर लाचारी के भावों को पढ़ कर ही बूथ वाला मामले को समझ गया
था,
‘‘कोई बात
नहीं भाई साहब... मैं समझ रहा हूं कि कोई जरूरी बात रही होगी जो इतना लम्बा फोन
करते हुए आपको बिल का ध्यान भी नहीं रहा... बाकी पैसे बाद में दे दीजिये... न तो
मैं रोजगार बंद कर रहा हूं और न आप भागे जा रहे हैं।’’
दुकानदार वाकई
मासूम इंसान था। नहीं जानता था कि बाजार जिस तरह से हर चीज पर अपना कब्जा किये हैं, उसमें किसी भी उत्पाद और उस उत्पाद से जुडे़ दूसरे पहलू की
उम्र, मसलन वह रोजगार भी हो चाहे, कितनी
है। तकनीक के सर्वोत्कृष्ट रूप को पूरी तरह से छुपाते हुए और तकनीक के बेहद सूक्ष्म
बदलावों से ही उत्पाद को अपग्रेडड कह कर बेचने वाले बाजारू षडयंत्रों की हिफाजत
करते विज्ञान का बेड़ा गरक हो जिसने आमजन पर जारी आक्रमणों के लिए हथियार होना
स्वीकारा है। रोजगार के लगातार कायम रहने की गहरी उम्मीद से था दुकानदार। एक सज्जन
से दिखते व्यक्ति को अपना पक्का ग्राहक बनाये रखना चाहता था।
आत्मीय रचनाकारों
की आत्मीय बातचीत के आगे कितनी भी रकम कोई मायने नहीं रखती थी ! लेकिन आत्मीयता के
वास्तविक मायने तो व्यवहार से जन्म लेते हैं। उस वक्त यही इहलाम हुआ था जब व्यवहार
का धरातल मुसीबत में डाले था। आयोजित कवि सम्मेलन का घोषित समय करीब से करीब आता
जा रहा था और प्रिय कवियों की कहीं कोई खबर न थी। यूनियन के पदाधिकारी चिन्तित थे।
अपनी सीमाओं को पहचानते हुए जिम्मा उस अकेले युवा कार्यकर्ता को सौंपा हुआ होना
उन्हें अब सताने लगा था। जानते थे कि वरिष्ठता के नाते उनकी जिम्मेदारी ज्यादा है।
कार्यक्रम संबंधी सवाल जवाब करने वाले भी उन्हीं से मुखातिब थे। लेकिन कार्यक्रम
कब और कैसे शुरू होगा, कोई भी सटीक जवाब न दे पाने को वे मजबूर
थे। उनकी सीमा युवा कार्यकर्ता की सूचनाओं पर ही निर्भर थी और युवा कार्यकर्ता के
पास कवियों के पहुंचने की कोई सूचना नहीं थी। ऐसा वे मान ही नहीं सकते थे कि युवा
कार्यकर्ता कैसी भी सूचना से पूरी तरह अनभिज्ञ हो लेकिन उनके कुछ समझ नहीं आ रहा
था, माजरा क्या है ! युवा कार्यकर्ता के पास बताने को कुछ
नहीं था। उसकी कोशिशें तो कार्यक्रम को निर्धारित समय पर शुरू करने की थी।
पनवाड़ी के बगल
वाले टेलीफोन बूथ के बाहर ही उसकी बेचैनी का जलजला उस वक्त भी अपने घरों में ही
बैठे कवियों को कैसे होता भला । हवाई यात्राओं से घर लौट कर थकान मिटा रहे कवि तो
जान ही नहीं सकते थे कि सदस्यों से चंदा लेकर जुटाये गये धन से आयोजित किये जाने
वाले कार्यक्रमों के प्रति किस तरह की जवाबदेही आयोजकों को जकड़े होती है। सरकारी
खर्चे पर यात्रा करते हुए चंदे के दम पर आयोजिम होने वाले किसी कार्यक्रम में
उपस्थिति होने की दी गयी सहमति के उनके लिए कोई मायने नहीं थे। लेकिन युवा
कार्यकर्ता ऐसा मान नहीं सकता था। प्राप्त हुए पत्रों की भाषा, टेलीफोन में हुई बातें और पढ़ी गयी रचनाओं के तथ्य उसके यकीन
को तोड़ नहीं सकते थे। वह अनुामन नहीं लगा सकता था कि जनपक्षधरता के
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर को हासिल कर चुके कवियों के लिए एक मजदूर यूनियन के
कार्यक्रम में उपस्थित होने का कोई आकर्षण शेष नहीं बचा होगा। या, उन कवियों की प्राथमिकता विशिष्टताबोध में ही अपना कवि होना देख रही थी।
उसके पास ऐसी कोई सूचना भी नहीं थी कि राजशाही की व्यवस्था को एक सीमित रूप से
सत्ता से उतार कर जनतंत्र को कायम करने के लिए आगे बढ़ रही पड़ोसी देश की सरकार ने
जनपक्षीय चेतना को विस्तार देने के लिए वैसा ही कोई कार्यक्रम आयोजित किया है
जिसमें स्थापित जनपक्षधर रचनाकार का बुलावा सरकारी खर्चं पर निर्धारित है। हवाई
उड़ान और दूसरी राजकीय सुविधायें ही नहीं बल्कि खुद को और ज्यादा जनपक्षधर साबित
करने का इससे दुर्लभ मौका कोई दूसरा हो नहीं सकता था। कवि कार्यक्रम में सहर्ष
उपस्थित होने के साथ थे और यात्रा से घर वापिस लौट आने के बाद परिवार के सदस्यों
के बीच अपनी पहली हवाई यात्रा के अनुभव और राजकीय सुविधाओं के किस्सों का लुत्फ
उठाना चाहते थे। ऐसी किसी भी सूचना का अनुमान लगा सकने का अधार युवा कार्यकर्ता के
पास नहीं था। उसकी स्मृतियों में तो खिचड़ी खाकर कहीं भी रात गुजार लेने जैसी बातों
का यकीन था।
कोई गाड़ी दूर से
आते हुए दिखायी देती तो निगाह उसी ओर उठ जाती। समय बीतता जा रहा था और युवा
कार्यकर्ता की बेचैनी बढ़ती जा रही। सारे के सारे कवि रास्ते में कहां अटक गए, उसकी समझ से बाहर था। सूचना के मुताबिक वे राजधानी में एक जगह
पर मिलने वाले थे और वहां से जरूरत के हिसाब गाड़ी बुक कर सीधे चले आने वाले थे।
सूचनाओं को सत्य
मानते हुए, युवा कार्यकर्ता और आयोजन में सहयोग दे रहे
स्थानीय रचनाकार अनुमान कर सकते थे कि हो न हो प्रिय कवि इस वक्त रास्ते में लगे
हुए किसी जाम में फंसे होगें और समय पर पहुंचने की छटपटाहाट उन्हें भी जरूर बेचैन
किये होगी।
कितनी भी विपरीत
परिस्थितियों में दोपहर में राजधानी से चली गाड़ी को अब तक पहुंच ही जाना चाहिए था, मुझे तो कुछ और ही लफड़ा लगता है।
हो न हो, शहर में पहुंच ही चुके हों और भटक रहे हों इधर से उधर। हमें
मालूम करना चाहिए किसी तरह।
लेकिन हो कहां
सकते हैं,...
ऐसा कर तू दिल्ली
फोन कर, घर पर तो कोई न कोई होगा ही। बस इतना मालूम
हो जाये कि वहां से कितने बजे निकले तो सोचते हैं
किस गाड़ी से
निकले, यदि उसका नम्बर भी मिल जाये तो....
बेशक जिम्मेदारी
अकेले युवा कार्यकर्ता की थी लेकिन वह उतना अकेला नहीं था। उस छोटे से शहर के वे
सब लिखने पढ़ने वाले उसके साथ थे जिन्होंने ने भी सुना था कि कवि सम्मेलन में उनके
ऐसे प्रिय कवि आमंत्रित हैं जिनको सुनना ही नहीं जिनका सानिंध्य ही एक दुर्लभ
अनुभव हो सकता है। हर संभव सहयोग देने के साथ वे भी उसी तरह बाट जोह रहे थे जैसे
यूनियन के दूसरे साथी।
टेलीफोन बूथ खाली
था। समयचक्र के साथ कॉल दरों का वह फुल रेट वक्त था। कुछ ही देर में आधे रेट हो
जाने की ओर खिसकती सूइयां राहत देने की बजाय आतंक मचाये थी। सुइयों के हाफ रेट
बिन्दु तक पहुंचने का इंतजार करना, धैर्यवान
कहलाना नहीं हो सकता था। आधे रेट के इंतजार में कॉल करने वालों की धक्क मुक्की में
हो न हो बूथ जब खाली मिले तब तक वह चौथाई दर में कॉल करने तक इंताजर करवाने वाला हो जाये। फुल रेट कॉल
दर वाले उस वक्त में ही टेलीफोन घन-घना
दिया गया।
राजधानी की
टेलीफोन लाइन से जुड़ती और सीधे कवि महोदय के निर्धारित अध्ययनकक्ष में रखे टेलीफोन
में उठती एसटीडी घनघनाहट ने बेसुध होकर सो रहे कवि की नींद में खलल डाल दिया था।
प्रत्युतर में दूसरी ओर सुनायी देती खरखराती आवाज का उनींदापन कवि महोदय की ही
आवाज का भ्रम देता हुआ था लेकिन उस पर यकीन नहीं किया जा सकता था। आंखों देखे और
कानों सुने के बाद भी झूठ हो जाने वाली स्थितियों को पार फेंकता वह टेलीफोन
वार्तालाप उस कवि से ही जारी था, राजकीय यात्रा की
थकान से जिसका बदन टूटा हुआ था। आवाज में ऐसी तटस्थता थी जो बहुत वाचाल को भी बात
आगे बढ़ाने का सिरा नहीं पकड़ने दे। संकोचपन की छायी चादर तो हट ही नहीं सकती। खामोश
ही बना देती है। घर छोड़ कर कहीं भी न निकल सकने वाली उनकी व्यस्तता के रूखेपन में
जो कुछ सूचनार्थ था वह आश्चर्य में डालने वाला था और क्षणांश के लिए ही नहीं
वर्षों-वर्षों की खामोशी में डूब जाने को मजबूर करने वाला था।
‘‘माफी
चाहता हूं भाई... पहुंच नहीं पा रहा हूं। घरेलू व्यस्तताओं में घिर गया हूं,
साले को एयरपोर्ट छोड़ने के लिए निकल रहा हूं... आज ही इंग्लैण्ड
जाना है।’’
हवाई यात्रा से
लौटे कवि को असमर्थता जाहिर करने के लिए शायद हवाई यात्रा की ही तुकबंदी ज्यादा
उपयुक्त लगी हो। वरना इंग्लैण्ड जाना मतलब चावड़ी बाजार जाना नहीं था। न तब न अभी
तक। वे कवि थे। सचमुच के कवि। यूंही कहलाने भर वाले कवि नहीं। साहित्य की जनपक्षधर
धारा के सर्वमान्य कवि। किसी भी मनःस्थिति में लम्बे समय तक रहने वाला उनका कविपन
हवाई यात्रा से बाहर नहीं था।
रास्ते में फंस
जाने के कारण नहीं, घर से ही न निकल पाने के लिए क्षमाप्रार्थी
थे वे। खिचड़ी खाकर कहीं भी कमर सीधे कर लेने वाले शरीर हवाई जहाज की गुदगुदी गद्दी
का मुलायमपन बरदाशत नहीं कर पाये थे शायद और कमर बुरी तरह से दुख रही थी। बिस्तर
से उठना मुश्किल था,
‘वरना कोई
वजह नहीं थी कि अपने मजदूर भाई बुलाये और हम न पहुंचे। मार ठेल के निकल भी लेते तो
मंचे पे तो चढ़ नहीं पाते। का करें बहुते शर्मिंदा हैं हम तो।’
पारिवारिक दायरे
के कवि, रोग की महामारी की जद में थे। पत्नी और
बच्चे की तीमारदारी के लिए महामारी ने केवल उन्हीं के स्वास्थ्य को बख्शा था।
इसीलिए मन के भीतर कचोट थी कि यार निकल ही क्यों न लें।
‘ज्वर से
करहाते बच्चे को छोड़ कर निकलना संभव नहीं है कामरेड, आप
अन्यथा न लें। मेरी ओर से यूनियन के सभी लोगों से क्षमा मांग ले।’
कागज के बण्डलों
को दुरस्त करने में जुटे दुकान के कामगार के अलावा किसी ने भी नहीं कहा, क्षमाप्रार्थी हूं दोस्त, एक भी ब्लैंक
पेपर नहीं इस वक्त तो।
तकलीफ से जूझ रहे
दोस्त का मामला न होता तो इतना जूझने का सवाल नहीं था। डॉक्टर पर भी गुस्सा आ रहा
था, क्या खुद एक कागज जुटा कर उस पर दवा का नाम
लिख कर नहीं दे सकता था। डॉक्टर न हुआ, कानून का पुतला हुआ।
निर्धारित काम से न इधर न उधर। क्या इतने क्लेरिकल लोगों को चिकित्सा जैसे क्षेत्र
में स्वीकृति मिलनी चाहिए?
मानवता के रक्त
सने हाथों का उजलापन तो कोई उजलापन नहीं। उन हाथों से मिलने वाला पुरस्कार
मानवीयता के प्रति बेमानी है।
पुरजोर हो विरोध।
कितने ही सवाल
युवा कार्यकर्ता को व्यथित किये थे। सार्वजनिक जिम्मेदारी का बोध न होता तो औंधे
होकर लेटने के अलावा कोई दूसरा विकल्प न सूझता। उधर मंच तैयार था। श्रोता आतुर थे।
एक व्हाईट ब्लैंक
पेपर के मिलने की सभी संभावनाओं से टकराने के बाद भी निराश होकर नहीं लौटा जा सकता
था। तकलीफ से पीड़ित साथी को स्वस्थ करने के लिए दवा का लिया जाना जरूरी था।
‘न सही एक
मुकम्मल कागज, साफ-सुथरा सा कोई टुकड़ा ही मिल जाये।’
उम्मीदों के
रास्ते ही एक कागज की दरकार में वह ऐसी सड़क तक पहुंच गया था जहां भागम भाग कुछ
ज्यादा थी। एक बड़े गोल चैराहे से आते ट्रैफिक की बांह कहना ज्यादा सही। गाड़ियों की
एक तरफा रफ्तार थमने का नाम न लेती थी। कोई क्षणिक अंतराल भर होता जब किसी एक दिशा
से निकलती गाड़ियों के काफिले को रोककर दूसरी दिशा से आने वाली गाड़ियों की रवानगी
की हरी बत्ती को ऑन कर चुका ट्रैफिक कन्ट्रोल सिस्टम चालू था। अनगिनत दिशाओं वाले
गोल चौराहे की उस बांह के एक ओर से दूसरी ओर पार करने का मौका ढूढना आसान नहीं था।
उड़ते हुए कागज तक पहुंचने में लगातार की रुकावट थी।
सड़क के उस पार
उड़-उड़ जा रहे उस कागज पर टिकी मेरी निगाहों से वह इस कदर परेशान था कि अपने से
पहले मुझे उस कागज तक पहुंचने नहीं देना चाहता था। मेरा हाथ पकड़ कर उसने ठीक उस
वक्त व्यवधान डाला था जब मैंने कदम बढ़ाया ही था। मुझे उसका इस तरह अवरोध पैदा करना
अच्छा नहीं लगा। बल्कि मैं गुस्से में भड़क सकता था लेकिन सड़क पार कर लेने का अवसर
मैं भी गंवाना नहीं चाहता था। जैसे-तैसे मैंने पहली लेन को पार कर लिया था और सड़क
के बीच ऐसी सुरक्षित जगह पर रूक गया था जहां आती हुई गाड़ियों से बचने के लिए मैं
कुछ सिकुड़ कर खड़ा तो हो सकता था लेकिन वहां से पीछे लौट कर अपनी पूर्व स्थिति में
जाना भी अब मेरे लिए संभव नहीं था। आगे निकलने के लिए मुझे एक लेन पार करने भर का
अवकाश निकालना था। वह भी मेरी तरह, बस एक
लेन भर के फासले पर बीच सड़क में दुबका था। कागज की बजाय उसकी निगाहें अब भी मुझ पर
ही टिकी थी।
कोई ऐसा ही वक्फा
था, ट्रैफिक कुछ थमा हो माने। पार की जाने वाली
लेन पर कोई गाड़ी नहीं थी। लपक कर हम दोनों ने ही सड़क पार कर ली थी और एक साथ ही उस
कागज तक पहुंच गये थे। तेज रफ्तार से दौड़ती गाड़ियों के बीच डोलता वह कागज काफी हद
तक फट चुका था। चीथड़ों पर रास्ते की धूल और काले से द्रव्य की चिपचिपाहट थी।
तस्वीर बनाने के लिए न तो उसका कोरापन शेष बचा था न ही रंगीनी सतह की चिकनाहट। झपट
कर हाथ आये टुकड़े को भी, मैंने उसी की ओर उछाल दिया।
उसके हाथ में जो
टुकड़ा था, उपचार के लिए लिखी जाने वाली दवा भर की जगह
का कोरापन उसमें भी शेष न बचा था लेकिन वह अब भी उम्मीद से था और मेरे द्वारा उछाल
दिये गये टुकड़े को हवा में ही पकड़ लेना चाहता था।
यह कहानी चार पांच वर्ष पूर्व "परिकथा" में प्रकाशित है।
यह कहानी चार पांच वर्ष पूर्व "परिकथा" में प्रकाशित है।
1 comment:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (08-05-2017) को "घर दिलों में बनाओ" " (चर्चा अंक-2964) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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