डा. रश्मि रावत
यह दुनिया जिसमें जो कुछ भी हलचल भरा
है, वह पुरुषों की उपस्थिति से ही गुंजायमान
दिखायी देता है। यहां तक कि दोस्तियों के किस्से भी। स्त्रियों की निरंतर, अबाधित, बेशर्त दोस्तियों
के नमूने तो नजर ही नहीं आते, जहाँ वे
एक-दूसरे के साथ जो चाहे सो कर सकें और कोई न उंगली उठाए और न बीच में आए। बिना
ऊँच-नीच सोचे एक-दूसरे के सुख-दुख में सहभागिता कर सकें। सहेलियाँ ही नहीं, एक ही घर में पलने वाली बहनें भी शादी के बाद
अलग-अलग किनारों पर जा लगती हैं और नई व्यवस्था से ही खुद को परिभाषित करती हैं।
खुद अपनी ही पहली पहचान से एक किस्म का बेगानापन उनकी वर्तमान जिन्दगी का भारतीय
परिवेश है। इसलिए विवाहित बहनें भी खुद को एक धरातल पर नहीं पातीं हैं। अपनेपन का, परस्परता का वह प्यारा सा साथ जो पिता के घर में
मिलता रहा, प्रायः एक औपचारिक
रिश्तेदारी में बदल जाता है। हाल ही में रिलीज हुई शंशाक घोष निर्देशित ‘वीरे दि वैडिंग’
बॉलीवुड मुख्यधारा की सम्भवतः ऐसी ही पहली फिल्म
है जो इन स्थितियों से
अलग, बल्कि विपरीत वातावरण रचती है।
फिल्म की चार सखियों के बीच बड़ी
गहरी बॉंडिंग है। आपस में उन्मुक्त भाव से दुनिया से बेपरवाह हो कर ये सहेलियाँ मौज-मस्ती
और मनमर्जियाँ करती हैं। फिल्म के नाम से ही जाहिर है कि इन मनमर्जियों में
स्त्री-मन की अद्वितीयता और गहरी परतें नहीं मिलेंगी। बचपन से एक-दूसरे की मनमीत
ये सखियाँ छाती ठोक कर अपने को ‘वीरे’ जो कहती हैं। जीवन-भर साथ चलने वाले ऐसे गहरे याराने पुरुषों के बीच तो आम हैं और घर-परिवार-समाज में इस कदर स्वीकृत कि
दोस्तों के बीच कोई नहीं आता। पुरूषों की दुनिया के ये दोस्ताने तो ऐसे सम्बंध तक स्वीकृत रहते हैं कि कई बार परिवार के दायरे तक पहुंच जाते हैं। सवाल है कि अटूट यारानों का बिन दरो-दीवार का ऐसा जीवंत
परिवार क्या स्त्रियाँ नहीं बना सकतीं?
फिल्म में महानगर
की चार आधुनिक स्त्रियाँ ऐसा खुला परिवार रचने की यात्रा पर जब निकलीं तो खुद को ‘वीरे’ मान लेती हैं। वे नाम-मात्र की वीरे नहीं हैं, हर सुख-दुख में, रस्मों-रिवाजों के
मॉडर्न रूपों को निभाने में एक-दूसरे के साथ खड़ी हैं। फिल्म में गाना
बजता है- “कन्यादान करेगा वीरा/मत बुलवाना डैडी। वीरा पूछ्यां क्या
शादी का मीनिंग/
मैं क्या बेटा जेल हो गई।”
दिक्कत यही है कि फिल्म इस तरह का सवाल खड़ा नहीं करती है
कि कन्या क्या
वस्तु है जिसे दान में दिया जा सकता है ? कन्यादान भी दोस्तों से ही करवा लेना
चाहती हैं वे। कन्यादान की परम्परा की तह में जा कर सोचने के लिए फिल्म कोई राह नहीं बनाती है।
अतः जिन प्रश्नों को इसमें उठाया गया है, वे स्त्रीत्व के विकास में क्या और कैसे
जोड़ते हैं, इस पर चर्चा जरूरी हो जाती है।
स्त्रियों
की आजादी में सबसे बड़ी बाधा सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी जड़ें जमाए उसके संस्कार ही
बनते हैं और ये बाधक समाज फिल्म में लगभग गायब सा है। चारों कथा पात्र ऐसे किसी
भी सवाल कम
से कम टकराती तो नहीं
ही हैं।
मीरा
सूद (शिखा तलसानिया) अमरीकन पुरुष से प्रेम विवाह करके एक बच्चे की माँ भी बन चुकी
है। यह
विदेशी पुरुष सत्तात्मक रोग से मुक्त है उसके भरोसे बच्चा छोड़ कर न केवल दोस्तों
के साथ मौज की जा सकती है, वह एक संवेदनशील, समर्पित पति भी है। फिल्म में
दिखाये गए इस संबंध को इस तरह भी व्याख्यायित किया जा सकता है कि शायद ऐसा भारतीय पति पाना मुश्किल रहा होगा
तो मीरा के दिल के तार देश की सीमा को पार करके विदेशी धरती से जुड़े दिखाए गए
हैं। जैसे-तैसे अल्हड़, स्वच्छंद याराना के बीच आ सकने वाली किसी भी अड़चन को
काँट-छाँट दिया गया है कि सिर्फ इन चार महानगरीय बालाओं के आपसी खिलंदड़पने पर नजर
रहे। इस तरह उन्मुक्त, बिना विचारे जिंदगी का लुत्फ लेते रहने से तो गलतियाँ होना
लाजमी है। गलतियाँ होती हैं तो हों। यह तो टेक ही है फिल्म की। गाने में भी इस आशय
की बात है।
कालिंदी
पुरी (करीना कपूर), जिसकी वैडिंग के इर्द-गिर्द कहानी घूमती है, उसकी माँ की भी
यही सीख है कि बड़ों के लिए बाद में जो गलत साबित हो गया, उसे अपने लिए गलत मान कर जीना मत छोड़
देना। जो भी तुम्हें मन करे, सही लगे जरूर करना। तुम अपनी गलतियों से सीखना।
स्त्री को भी प्रयोग करने का अधिकार है। गलती के डर से जिंदगी का अनुभव कोष खाली
रखने के फिल्म सख्त खिलाफ है। यह फलसफा इसकी ताकत है। अपने आवेगों के प्रति
ईमानदार रह कर ही व्यक्ति समृद्ध होता है और समय के साथ परिपक्व होता है। गिरने के
डर से सुरक्षा की खोल में दुबके रहने से जिंदगी की घुड़सवारी कैसे होगी। पर जीवन
में सक्रिय हस्तक्षेप का संदेश उतनी खूबसूरती से संप्रेषित नहीं हो पाता। क्योंकि स्त्री देह पौरुष
साँचे में ढल कर आई है। एक-दूसरे को ‘ब्रो(BRO)’ कहने वाले महानगरीय दोस्त जो-जो करते
हैं, इन चारों आधुनिक स्त्रियों को सब कुछ वही-वही करना है। घटाघट पीना है, सिगरेट
के धुँए उड़ाते जाना है, इरोटिक बातें, गाली-गलौज करनी हैं। किसी भी बात पर ठहर कर
सोचे बिना उसे हँसी-मजाक, छेड़-छाड़ में उड़ा देना है। बारहवीं क्लास का अंतिम दिन
शैंपेन पीते हुए ब्वाय फ्रैंड, सैक्स की बात करते हुए जिसतरह बिताते हैं। दस वर्ष
की छलाँग के बाद जब कालिंदी की शादी के लिए दोबारा मिलते हैं, तब भी बातों में कोई
गुणात्मक फर्क नहीं दिखता। आवेगों और गलतियों से सीखने के लिए तो गलतियाँ और आवेग
खुद के होने चाहिए। फिल्म के मिजाज को देखते हुए सामाजिक भूमिका को नजरअंदाज कर भी
दिया जाए तो भी देह की संरचना बदलने से भी बहुत कुछ बदल जाता है। ‘दिल चाहता है’ और ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ फिल्मों में भी अलमस्त दोस्ती की
मौज-मस्तियाँ हैं। उन्हीं मौजों में वे परिपक्व होते जाते हैं। कॉलेज के समय के
अल्हड़ नवयुवक आगे चल कर जिम्मेदार, समझदार व्यक्ति में तब्दील होते हैं। ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ में एक-दूसरे को उनके मन में बसे डर और
बंधनों से मुक्त करने में तीनों दोस्त मददगार साबित होते हैं।‘वीरे दि वैडिंग’ में उम्र के साथ व्यक्तित्व में ऐसा
उठान तो नहीं दिखता पर दुनिया में हर हाल में अपने साथ खड़े, बेशर्त स्वीकार करने
वाले चंद लोगों के साथ होने का आत्मविश्वास लगातार जीवंतता को बनाए रखने और
अपनी-अपनी कैद से मुक्त होने की राह जरूर बनाता है।
सगाई की पार्टी में चारों अपनी-अपनी उलझनों
में इस कदर घिरी हुई हैं कि सब अपने-अपने द्वीप में कैद सी हो जाती हैं। दुनिया के
सरोकारों से तो पहले ही कटे हुए से थे चारों। निजी समस्या के बढ़ने पर एक-दूसरे से
भी कट जाती हैं। सच्चे दोस्त नजर नहीं आ रहे थे और फॉर्म हाउस में तड़क-भड़क,
शोर-शराबे में होने वाली बेहद खर्चीली झूठे दिखावे वाली सगाई में अकेली पड़ कर
दुल्हन को एहसास होता है कि उसे दिखावे के लिए शादी नहीं करनी और वह भाग जाती है
और फिर एक-दूसरे की गलतियों के हवाले दे-दे कर थोड़ी देर चीखना-चिल्लाना, रूठना
होता है। इस अवरोध को तोड़ता है करोड़पति बाप की बेटी साक्षी सोनी (स्वरा भास्कर)
का फोन और चारों निकल पड़ती है फुकेत में गलैमर से भरपूर मौज-मस्ती करने। फिल्म की
कहानी के झोल कोई क्या देखे। स्त्रियों के लिए तो मात्र इतनी सी बात काफी रोमांच
से भरी है कि एक सबके लिए दिल खोल कर खर्च करे और बाकि बेझिझक स्वीकार करके अकुंठ
भाव से छोड़ दें खुद को जिंदगी के बहाव में। वहाँ झकास जगहों पर
घूमते-फिरते-तैरते-खाते-पीते, हँसते-गपियाते अपनी वह बातें इतने सहज भाव से
एक-दूसरे से बोल देती हैं, जिसने उन्हें भीतर ही भीतर अपनी गिरफ्त में लिया हुआ
था। कोई किसी के लिए कभी जजमेंटल नहीं होता। हास-परिहास करते हैं, खुलेपन चुहल और
छेड़-छाड़ करते हैं। किसी को कभी किसी भी दूसरे की बात इतनी गम्भीर, इतनी बोझिल
नहीं लगती जिसके साथ जिया न जा सके। एक साथ बोलने-बतियाने भर से गाँठें खुल-खुल
जाती हैं। एक दूसरे से दूर होने पर जिसे बोझ की तरह छाती पर ढो रहे थे। एक धरातल
पर खड़ी चार जिंदगियाँ एक ताल पर एक साथ धड़क कर मानो अपनी धमक भर से उसे रूई की
तरह धुन के उड़ा देती हैं। स्त्री की डोर स्त्री से जुड़ते जाने में ही स्त्रीत्व
की शक्ति निहित है। यह बहनापा जिस दिन मजबूत हो गया स्त्री को कमतर व्यक्ति बनाने
वाली पारम्परिक समाज की चूलें पूरी तरह हिल जाएँगी। हर स्त्री अपने-अपने द्वीप में
कैद है, उनके बीच निर्बंध, निर्द्वंद्व आपसदारी के सम्बंध पुरुषों की तुलना में
बहुत कम विकसित होते हैं इसलिए समाज में तमाम सामान्यीकरण, कायदे-कानून पुरुषों की
अनुकूलता में विकसित होते हैं। पुरुषों की गलतियों पर उंगली नहीं उठाई जाती,
उन्हें हर वक्त समाज की निगाहों की बंदिशें, बरजती उंगलियाँ नहीं बरदाश्त करनी
पड़तीं। गलतियाँ करते हैं, उससे सबक ले कर अनुभव का दायरा विस्तृत कर आगे बढ़ जाते
हैं। लेकिन समाज की निगाहों में गलत एक कदम स्त्री के पूरे जीवन को प्रभावित करता
है। फिल्म की ये चार स्त्रियाँ एक-दूसरे से अपने अनुभव साझा न करतीं तो नामालूम सी
बात की जीवन भर सजा भोगतीं और यह वास्तविक जीवन में होता भी है क्योंकि स्त्री को
कॉमन प्लेटफॉर्म नहीं मिल पाता। हालांकि सशक्त कहानी न होने के कारण बातें असंगत
लग सकती हैं कि ये कैसे सम्भव है किसाक्षी जैसी अमीर, मॉडर्न, पढ़ी-लिखी बोल्ड
लड़की अपनी यौनिकता की पूर्ति करने के लिए इतना अपराध बोध पालेगी कि सबके ताने
झेलती रहे और किसी से कुछ भी न कह पाए, उसकी शादी टूट जाए और उसका नकचढ़ा पति उसे
इस एक्शन के लिए ब्लैकमेल करता रहे कि यदि उसे 5 करोड़ न दिए तो वह सबको बता देगा।
ऐसे ही आत्मविश्वास से भरी मीरा बच्चे होने के बाद आए मोटापे और शारीरिक बदलावों
के कारण दाम्पत्य रस खो दे। दिल्ली जैसे महानगर में वकील सुंदर, स्मार्ट अवनि
शर्मा ( सोनम कपूर) अपने लिए उपयुक्त जीवन साथी न खोज पाने और माँ की शादी की रट
और उम्र निकली जा रही के बारम्बार उद्घोष से घबरा जाए और कालिंदी तो प्रेम और
विवाह के द्वंद्व से हैरान-परेशान है। वह अपने प्रेमी ऋषभ मल्होत्रा से अलग भी
नहीं रह सकती और शादी में बँधना भी नहीं चाहती।
पारम्परिक समाज में स्त्री के शोषण की आधार भूमि ही बनता है परिवार तो डर
लाजमी भी है। बहनापे की यह डोर कुंजी बनती है जिंदगी में जड़े तालों को खोलने के।
अनगढ़
स्क्रिप्ट और अपरिष्कृत ट्रीटमेंट के बावजूद फिल्म से यह संदेश तो साफ मिलता है कि स्त्री के
साथ स्त्री का साथ होने मात्र से जिंदगी में बेवजह आने वाली चुनौतियाँ अशक्त हो कर
झड़ जाती हैं। समय के साथ स्त्री जब अपने खुद के वजूद के साथ अपने ही साँचे में
सशक्त ढंग से बहनापे के रिश्ते बनाएंगी, न कि वीरे के, तब उसमें जिंदगी की वो उठान होगी,
आनंद की ऐसी लहरें होंगी कि जिंदगी सार्थक हो उठेगी और वह समाज की एक महत्वपूर्ण
कड़ी बनेगी। तब वह अपनी देह के रोम-रोम से जिएगी। इस फिल्म के किरदारों के आनंद के
स्रोत तो मुख्य रूप से दो अंगों तक सिमट कर रह गए हैं। जबकि स्त्री के अंग-अंग में
सक्रियता की, सार्थकता की अनेकानेक गूँजें छिपी हैं। सदियों के बाद तो स्त्री को (
फिलहाल छोटे से तबके को ही सही) अपने खुद के शरीर पर मालकियत मिली है। उसके पास
अवकाश है। मास-मज्जा की सुंदरतम सजीव कृति को वह अपने ढंग से बरत सकती है। क्या न
कर ले इससे। रोम-रोम से नृत्य, खेलना-कूदना, दौड़ना-भागना, पहाड़ों की चोटियाँ
लाँघना, पानी की थाह पाना, झिलमिलाते तारों का राज खोजना, अपनी ही साँसों का संगीत
सुनना, गति-स्थिति, वेग-ठहराव......हर चीज का एहसास करना। अपनी सचेतन जाग से सोई
हुई सम्भाव्यता को जगा भर लेना है, जो सचमुच के ‘वीरे’ नहीं समझ पाएँगे, क्योंकि उनके पास यह शरीर और ये मौके
हमेशा से उपलब्ध थे। उन्हें स्त्रियों की तरह अनथक कोशिशों से इन्हें अर्जित नहीं
करना पड़ता।
1 comment:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-07-2018) को "अज्ञानी को ज्ञान नहीं" (चर्चा अंक-3042) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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