पिछले दिनों युवा हाना मखमलबाफ की एक फ़िल्म देखने का अवसर मिला- Budha collapsed out of shame। फ़िल्म की कहानी एक रूपक कथा है। तालीबानी आक्रामकता को झेलने के बाद टूटी बोध गुफाओं में जीवन बीताते लोगों का जीवन और वहां के बच्चों के लिए तालीबानी आक्रमण भी कैसे एक खेल हो जाता है। हाना की फ़िल्म पर विस्तार से आगे पढ़ियेगा, अभी तो हमारे मित्र यादवेन्द्र जी मोहसिन मखमलबाफ (Mohsen Makhmalbaf) के बहाने आपसे मुखातिब हैं। |
मोहसिन मखमलबाफ इरान के बेहद चर्चित और विवादास्पद फ़िल्मकार हैं जिनकी ज्यादातर फिल्मों को विश्व स्तर पर प्रशंसित और पुरस्कृत किया गया.इरान की कट्टरपंथी सरकार ने उनकी फिल्मों की राह में तरह तरह से अड़ंगे लगाये,उन्हें प्रताड़ित किया...इन सब से तंग आकर उन्होंने देश छोड़ने का फैसला कर लिया.अब वे अमेरिका में रह कर एक फिल्म स्कूल चलाते हैं जिसमें उनके अलावा उनकी पत्नी,बेटियाँ और बेटा सब पढ़ते पढ़ाते हैं...अपनी अपनी तरह से यह पूरा परिवार ऎसे विषयों पर फ़िल्में बनाता है जो स्वस्थ बहस की मांग करते हैं.
पिछले राष्ट्रपति चुनाव में की गयी कथित धांधलियों के मुखर विरोधी रहे हैं मखमलबाफ.
उन्होंने कई साल पहले एक स्क्रिप्ट लिखी जिसका शीर्षक था एमनेसिया (स्मृति लोप).जैसा कि इरान का कानून है,उन्हें अपनी स्क्रिप्ट सरकार को अनुमति लेने के लिए जमा करानी पड़ी.इसमें इरान की इस्लामी क्रांति के सूत्रधार अयातोल्ला खोमेनी के एक अत्यंत निकट के सलाहकार (जो दृष्टिहीन थे, पर सांस्कृतिक मुद्दों पर अयातोल्ला के सबसे विश्वस्त परामर्शदाता और नीतिकार थे) के चरित्र को विकसित किया गया है जो देखे बगैर इरानी फिल्मकारों की फिल्मों की काट छाँट किया करता है...जैसा अनुमान था,इरान की सरकार ने अपने ही एक बड़े कारिंदे का मजाक बनाए वाली इस मुखर राजनैतिक विचारों से भरी फिल्म को बनाने की इजाज़त नहीं दी.संकीर्ण और तंग नजरिये से कलाकारों की वैचारिक और रचनात्मक क्रियाशीलता को कुचलने के इस निर्मम तानाशाही तंत्र की तस्वीर प्रस्तुत करने वाली इस फिल्म स्क्रिप्ट के कुछ सम्पादित अंश यहाँ प्रस्तुत हैं...साथी पाठक मेरी इस राय से इत्तेफाक करेंगे कि भूगोल बदल जाने से मानवीय बर्ताव और मनोविज्ञान नहीं बदलता...दुनिया के किसी भी कोने में जबतक बंदिशों और दमन की राज सत्ता रहेगी तो उसके प्रतिकार के लिए आगे बढ़ने वाले दिल दिमाग और हौसले भी रहेंगे...अरब देशों में कोई भी कीमत चुका कर उठाई जा रही आज़ादी की माँग से ज्यादा समीचीन और क्या उदाहरण होंगे :
अंधा आदमी: वहाँ तक पहुँचने में कितना समय लग जायेगा?
ड्राइवर: बहुत अधिक भीड़ है...कम से कम एक घंटा तो लगेगा ही.
अं.आ. : उनलोगों ने आफिस से रास्ते में सुनने के लिए कुछ भेजा है?
ड्रा : हाँ,म्यूजिक का एक टेप है.
ड्राइवर कार स्टीरियो स्टार्ट करता है.संगीत की स्वर लहरियां हवा में गूंजने लगती हैं..एक स्त्री का स्वर इनमें सबसे मुखर होकर उभरता है.
.अं.आ.: तुम्हारी गाड़ी में कितने स्पीकर्स हैं?
ड्रा: बारह.
अं.आ: इसमें से औरत की आवाज निकल दो.हमारा मजहब इसकी इजाज़त नहीं देता.
ड्राइवर एक बटन दबाता है और बज रहे संगीत से स्त्री स्वर गायब हो जाता है.अंधा आदमी थोड़ी देर तक बज रहे संगीत को खूब ध्यान लगा कर सुनता है.गौर करने पर उसको मालूम होता है कि मुख्य स्वर को संगत देने वाले समवेत स्वर में भी किसी स्त्री की आवाज शामिल है.
अं.आ: संगत करने वाली ध्वनि भी निकल दो...इसमें औरत की आवाज बहुत भड़कीली है.
ड्राइवर दूसरा बटन दबाता है और संगत करने वाले स्वर भी गायब हो जाते हैं.अब जो संगीत बजता है उसमें किसी व्यक्ति की आवाज शामिल नहीं है.
अं.आ: जरा स्पीकर का वाल्यूम तेज करो...मुझे तार वाले साजों की आवाज ठीक से सुननी है.
ड्राइवर वाल्यूम बढ़ाता है तो तार वाले साजों की आवाज साफ़ सुनाई देने लगती है.इनमें सबसे मुख्य स्वर कैचक का आता है.
अं.आ: इन तार वाले साजों की आवाज भी ख़तम कर दो.कहते हैं कि इस जनम में जो संगीत सुनता है वो जन्नत में जाने के बाद इनसे महरूम हो जाता है.
ड्राइवर एक बटन दबाता है और तार वाले साजों की आवाज भी गायब हो जाती है.अब सिर्फ म्यूजिक बेस या ड्रम बीट्स सुनाई पड़ते हैं.इसको सुन कर ऐसा लगता है जैसे युद्ध के लिए ललकारा जा रहा हो.
ड्रा: सर,जन्नत में संगीत होता है क्या?
अं.आ: जब मंद मंद बयार पेड़ों की पत्तियों को छू कर निकलती है तो ईश्वरीय संगीत का जन्म होता है.
ड्रा: अब जो संगीत बज रहा है इसके बारे में आपका क्या ख्याल है सर?
अं.आ; सिर्फ इसी संगीत की कानून इजाज़त देता है ..पर यदि इस से भी तौबा कर ली जाये तो खुदा ज्यादा खुश होगा.
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सेंसर आफिस के अंदर का दृष्य:
अं.आ.कई बड़े बड़े हाल पार कर के सेंसर आफिस के अंदर दाखिल होता है.
अं.आ: दोस्तों,सलाम वाले कुम.
दूसरा: हमेशा समय पर हाजिर रहने वाले जनाब,आपको भी वाले कुम सलाम.
अं.आ: माफ़ करना,मेरी बीवी बीमार थी और मुझे किसी को उसके पास रहने के लिए छोड़ कर आने के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ा.
प्रोजेक्शनिस्ट; मैं अपना काम शुरू करूँ सर?
अं.आ: बिलकुल शुरू करो..आगे बढ़ो.
कमरे में अँधेरा पसर जाता है और प्रोजेक्शन लाइट चारों ओर घूमते हुए वहाँ मौजूद लोगों के चेहरे पर भी बारी बारी से पड़ती है.प्रो.अपना काम शुरू करता है,अं.आ. के पास पहुँच कर स्क्रीन पर चल रही गतिविधियों के बारे में उसको बताने लगता है.
प्रो: एक औरत घर से बाहर कदम निकालती है..फिर अपने चेहरे पर एक मुखौटा लगा लेती है.
दूसरा: यह एक प्रतीकात्मक सीन है...डाइरेक्टर यह बतलाने की कोशिश कर रहा है कि इस समाज में आप साँस भी नहीं ले सकते.
प्रो: औरत आगे बढती जाती है..एक ऐसी गली में पहुँच जाती है जहाँ धुंआ ही धुंआ भरा हुआ है....हाथ के इशारे से वो एक टैक्सी वाले को बुलाती है.
अं.आ: किस दिशा में उठता है उसका हाथ?..बाँये या दाँये?
प्रो: दाँयी दिशा में सर.
दूसरा: नहीं भाई,वो बाँयी दिशा में इशारा कर रही है...गौर से देखो,उसका दाहिना हाथ हमारी बाँयी ओर पड़ता है.
अं.आ: जाहिर है डाइरेक्टर कहना चाहता है कि समाज का यदि उद्धार करना है तो हमें बाँयी तरफ रुख करना पड़ेगा...इस सीन को काट कर अलग करो.
प्रो: आस पास धुंआ इतना घना हो जाता है कि औरत लड़खड़ा कर गिर पड़ती है.. एक एम्बुलेंस आती है...दो नर्सें उनसे निकल कर बाहर आती हैं...दोनों के चेहरे पर मुखौटा..वे उस औरत को उठा कर एम्बुलेंस में डालती हैं.
दूसरा: डाइरेक्टर यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि हम उदारवादियों को जेल तक ले जाने के लिए एम्बुलेंस का उपयोग करते हैं.
अं.आ: नहीं नहीं...वह कहना चाहता है कि हमने सूप में इतना नामक झोंक दिया है कि रसोइया भी अब इस ज्यादती की शिकायत दर्ज करने लगा है.नर्सों ने मुखौटे क्यों लगा रखे हैं? इस लिए कि अब हुकूमत को भी इसका आभास होने लगा है कि हमारे समाज में सहज ढंग से साँस लेने की जगह अब नहीं बची है... हमें यह सीन भी काट कर अलग करना होगा.
दूसरा: इस सीन को भी काट कर अलग करना होगा...क्या कह रहें हैं जनाब आप?..आप कहना क्या चाहते हैं?...जनाब,इस पूरी फिल्म पर पाबन्दी लगायी जानी चाहिए...और डाइरेक्टर को जेल के अंदर ठूँस देना चाहिए..
अं.आ: ऐसी हड़बड़ी मत करो भाई...इसपर थोड़ा और गौर फरमा लेते हैं.
इसी बीच फोन की घंटी बजने लगती है,प्रोजेक्शनिस्ट फोन उठाता है..धीमी आवाज में कुछ बात करता है और अं.आ. को फोन थमा देता है.
प्रो; फोन आपके लिए है सर.
अं.आ: अच्छा.. तो आप हैं?...अभी?..मैं तो इस वक्त फिल्मों को रिव्यू कर रहा हूँ...क्या बहुत जरुरी है?..अच्छा,मैं आता हूँ.(वह उठ कर चलने लगता है)...माफ़ करना दोस्तों,मुझे इसी वक्त यहाँ से जाना पड़ेगा.
चयन और प्रस्तुति: यादवेन्द्र मो. 9411100294