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Monday, June 7, 2010

विलुप्ति के कगार पर भाषा-बोलियां

आज से पांच दशक पूर्व जब मैं शोध हेतु राजियों की जंगली बस्तियों में गया तो मैंने पाया कि वे अलगाव की स्थिति से बहुत कुछ उबर चुके थे। कभी की गुहावासी और पत्रधारिणी जाति के वे लोग अपने पड़ोसियों के खेतों में खेतिहर मजदूरों का काम करने लगे थे। लकड़ी के बरतनों के बदले अनाज लेकर चुपचाप खिसक जाने की जगह सौदा तय करने की स्थिति में आ गए थे। इसके लिए उन्हें पड़ोसियों की भाषा सीखनी पड़ी और इस तरह उनकी भाषा में अन्य भाषा-बोलियों के शब्द घुसपैठ करने लगे। आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक दबावों के चलते आज राजी भाषा उनके अपने घर-परिवार से भी बहिष्कृत होने लगी है। डॉक्टर कविता श्रीवास्तव के अनुसार भी राजी भाषा आज उनके धार्मिक रीति-रिवाजों और घर-परिवार तक ही इतनी सीमित हो चुकी है कि वहां भी अब पड़ोस की भाषा-बोलियों के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग होने लगा है। संपर्क की भाषा कुमाऊंनी-नेपाली या विशेष रूप से हिंदी हो चुकी है। नई पीढ़ी अपनी भाषा के प्रति पूर्णत: उदासीन लगती है और यह भाषा विलुप्त होने की जद में है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट में हिमालयी किरातस्कंधीय तथा अन्य उन बोलियों के नाम आए हैं जो खतरे में हैं लेकिन राजी का नाम नहीं है। जबकि इस अल्पसंख्यक जनजाति की भाषा का कोई भविष्य दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी के समीप पुरानी जौहारी जो दरमियां-चौंदासी-ब्यांसी के अपने ही सर्वनामीय वर्ग की थीं, बहुत पहले विलुप्त हो गईं थीं और उसकी जगह आज कुंमाऊनी बोली जाती है। लगता है यही स्थिति राजी भाषा की भी होने वाली है।
- डॉ. शोभाराम शर्मा
डॉ. शोभाराम शर्मा
राजी, राजी भाषा और उसका क्षेत्र:


पश्चिम में हिंदुकुश-पामीर की वादियों से लेकर पूरब में अरुणाचल प्रदेश तक भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल हिमालयी क्षेत्र में जिन भाषा-बोलियों का प्रचलन रहा या है उनमें से उत्तराखंड के पूर्वी छोर और पश्चिमोत्तर नेपाल के जंगलों में व्यवहृत एक अल्पसंख्यक राजी नामक जनजाति की भाषा भी है। काली नदी जो उत्तराखंड और नेपाल को अलग करती है, उसी के आर-पार के जंगलों में राजी भाषा-भाषी भी निवास करते हैं। यह नदी नैनीताल जिले के टनकपुर-बनबसा तक काली कहलाती है और यहीं तक वह उत्तराखंड की पूर्वी सीमा का निर्धारण करती है। इसके आगे वह शारदा, अयोध्या में सरयू और अंतत: घाघरा नाम से गंगा में समाहित हो जाती है। उत्तराखंड के पूर्वी जिलों पिथौरागढ़ एवं चंपावत के धारचुला, डीडीहाट, पिथौरागढ़ और चंपावत तहसीलों के जंगल ही राजी भाषा-भाषियों के मुख्य आवास-स्थल हैं। इधर नैनीताल के चकरपुर में भी इनके कुछ परिवारों का पता चला है।
    भारतीय सीमा के भीतर सन् 2001 की जनगणना के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या मात्र 517 आंकी गई है। नेपाल की सीमा में भी इस जनजाति की लगभग यही स्थिति है। राजी के अतिरिक्त इन्हें बनरौत, रावत, वनमानुष या जंगली या जंगल के राजा भी कहा जाता है। अटकिन्सन आदि के अनुसार राजी राजकिरात का तद्भव है। पौराणिक ग्रंथ हिमालयी जनजातियों में किन्नर किरातों और राज किरातों का उल्लेख भी करते हैं। ये राजकिरात किरात ही थे या किरातों पर शासन करने वाली दूसरी जाति के लोग थे इसकी छानबीन करना सरल नहीं है। राजी अपने को अस्कोट के रजवारों में से मानते हैं। जबकि अस्कोट आदि के रजवार कत्यूरी वंश के हैं और कत्यूरी खस थे या बाद के शक-कुषाण, यह विवादास्पद है। राजियों के वर्तमान रूप-रंग और आकार-प्रकार को देखकर यही प्रतीत होता है कि राजी एक वर्णसंकर कबीला है जिसमें मुख्यत: निषाद जातीय तत्व प्राप्त होते हैं और गौण रूप में मंगोल प्रभाव भी परिलक्षित होता है। यही कारण है कि वे तराई-भाबर के थारू एवं बोक्सों से अधिक मेल खाते हैं। इस दृष्टि से इस जाति को मलयेशियन जातियों के समकक्ष रखा जा सकता है। जिनमें मंगोल और आस्ट्रिक जातियों का सम्मिश्रण प्राप्त होता है।
   राजियों की भाषा का अलग से कोई स्वतंत्र नाम नहीं है। जाति के नाम से ही इसे राजी नाम मिला है। विकल्प से इसे रौती या जंगली भी कह दिया जाता है और ये नाम भी बनरौत एवं जंगली जैसे जाति नामों पर ही आधारित हैं। जाति और उसकी भाषा के लिए जंगली नाम का उल्लेख सर्वप्रथम जार्ज ग्रिर्यसन ने सन् 1909 के अपने सर्वेक्षण में किया था।

राजी भाषा का संक्षिप्त इतिहास:

राजी जाति और उनकी भाषा का कोई क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नहीं है। राजी भाषा-भाषी आज तक भी अर्धघुम्मकड़ वन्य कबीले के रूप में जीवन-यापन करने से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं। इनकी भाषा को सामान्यत: बोली कहा जाता रहा है। लेकिन यह न तो अपने चारों ओर की आर्य परिवार की खस-प्राकृत से निसृत कुमाऊंनी और नेपाली से मेल खाती है और न उत्तर में पड़ोस की किरातस्कंधीय-दरमियां-चौंदासी-ब्यांसी जैसी तिब्बती-बर्मी वर्ग की बोलियों से ही सीधे-सीधे संबंधित है। अपने क्षेत्र विशेष में अलग-थलग पड़ी होने से इसे बोली की जगह भाषा कहना ही युक्तिसंगत लगता है।
भाषाविद् ब्रियान हार्टन हाग्सन ने किरातस्कंधीय बोलियों को सर्वनामीय एवं असर्वनामीय दो वर्गों में विभाजित किया है। इन दोनों वर्गों में एक भिन्नमूलक तलछंट पाई जाती है। जिसे भाषाविद् मुंडा परिवार का अवशेष मानते हैं। डॉक्टर स्टेन कोनी के इस मत को स्वीकार करते हुए ग्रिर्यसन का मानना है कि मुंडा के ये अवशेष असर्वनामीय वर्ग की जगह सर्वनामीय वर्ग में अधिक मुखर हैं। इस वर्ग की कुछ भाषा-बोलियों में तो ये अवशेष इतने अधिक हैं कि उन्हें मुंडा परिवार की भाषा-बोली कहने में संकोच नहीं होता।

   तिब्बत-बर्मी उप परिवार की भाषा-बोलियां हिमालय के दक्षिणी ढलानों और पूर्वोत्तर में बोली जाती हैं। इसी परिवार के भाषा-भाषियों को किरात कहा जाता है। भाषाविद् ब्रियान हार्टन हाग्सन ने किरातस्कंधीय बोलियों को सर्वनामीय एवं असर्वनामीय दो वर्गों में विभाजित किया है। इन दोनों वर्गों में एक भिन्नमूलक तलछंट पाई जाती है। जिसे भाषाविद् मुंडा परिवार का अवशेष मानते हैं। डॉक्टर स्टेन कोनी के इस मत को स्वीकार करते हुए ग्रिर्यसन का मानना है कि मुंडा के ये अवशेष असर्वनामीय वर्ग की जगह सर्वनामीय वर्ग में अधिक मुखर हैं। इस वर्ग की कुछ भाषा-बोलियों में तो ये अवशेष इतने अधिक हैं कि उन्हें मुंडा परिवार की भाषा-बोली कहने में संकोच नहीं होता। हिमाचल प्रदेश की कनावरी या किन्नौरी एक ऐसी ही बोली है जिसे कुछ भाषाविद् मुंडा परिवार की ही एक बोली मानते हैं। राजियों के समीप की किरातस्कंधीय बोलियां भी सर्वनामीय वर्ग की हैं किंतु उनके बोलने वाले भी राजी को समझ नहीं पाते। जबकि ग्रिर्यसन ने जंगली नाम से राजी भाषा को भी सर्वनामीय वर्ग में ही गिना जाता है। इसका कारण शायद यही है कि राजी भाषा में मुंडा के अवशेष इतने अधिक हैं कि उसे न तो किरातस्कंधीय और न आर्य भाषा-भाषी ही समझ पाते हैं। हिमालय के इस क्षेत्र में पूर्वी नेपाल की किरान्ति बोलियां भी सर्वनामीय वर्ग की हैं। मेघालय की खासी बोली को तो भाषाविद् कुन (KUHN) ने आग्नेय परिवार की मौन-ख्मेर के साथ जोड़ा है। उधर पश्चिम में कनावरी और उसके आस-पास की कतिपय बोलियां भी सर्वनामीय वर्ग की मानी जाती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि यह क्षेत्र कभी आस्ट्रो-एशियाटिक ;आग्नेय देशीय भाषा-भाषियों का गढ़ था और राजी भाषा भी उसी की एक बची-खुची निधि है जिस पर कालांतर में उत्तर की तिब्बत-बर्मी वर्ग की भाषा-बोलियों का प्रभाव भी कम नहीं है। कुछ लोग भौगोलिक सामीप्य और कुछ शब्दों के मिलने से उसे तिब्बत-बर्मी वर्ग की ही बोली मान लेते हैं। लेकिन राजियों की भाषा का वर्तमान रचनागत वैशिष्ट्य उसके मूल पर अधिक प्रकाश डालता है। राजियों की भाषा पर दो विजातीय प्रभाव तो स्पष्ट हैं, एकाक्षर परिवार की तिब्बत-बर्मी वर्ग का प्रभाव केवल शब्दों तक ही सीमित नहीं है बल्कि एकाक्षर धातुओं की उपलब्धि भी उसी प्राचीन प्रभाव की ओर इंगित करती है। आर्य प्रभाव शब्द ग्रहण के रूप में अधिक व्यापक है किंतु इन दोनों परिवारों से राजी भाषा में जो भिन्नताएं प्राप्त होती हैं वे इतनी मुखर, व्यापक और सूक्ष्म हैं कि राजी भाषा का इन दोनों परिवारों में से किसी एक में स्थान निर्धारित करना असंगत है। जहां तक द्रविड़ परिवार का संबंध है उसकी किसी जीवित बोली का हिमालय क्षेत्र में आज तक कोई पता नहीं चल पाया है। इस परिवार की भाषा-बोलियों से राजी भाषा की भौगोलिक दूरी ही नहीं अपितु रचनागत दूरी भी उतनी ही अधिक है। इस भाषा में यदि निम्न विशेषताएं प्राप्त न होतीं तो इसे बास्क, हायपर-बोरी, एनू और जापानी आदि की भांति भाषा परिवार की दृष्टि से अनिर्णीत कोटि में ही रखने पर बाध्य होना पड़ता। -

1 अश्लिष्ट योगात्मकता: राजी के क्रियापद में कर्म और कर्ता प्रत्ययवत् संयुक्त हो जाते हैं। भिन्न भावों और वृत्तियों तथा कालों के लिए प्रत्यय जुड़ते हैं। नए शब्द भी प्रत्यय जुड़ने से निर्मित होते हैं किंतु योग संश्लिष्ट नहीं हो पाता। कुछ वाक्यों में योगात्मकता संश्लिष्ट रूप में प्राप्त होती है किंतु उनकी संख्या नितांत न्यून है।
2 अंत: प्रत्यय की विद्यमानता।
3 क्रिया में निश्चयात्मकता के लिए निर्धारक निपात का योग।
4 क्रिया के आत्मबोधक, परस्पर बोधक और समभिहारार्थक रूप।
5 निपीड़ित व्यंजनों ;अर्धव्यंजनों की प्राप्ति।
6 कंठद्वारीय अवरोध।
7 आंशिक क्लिकत्व।
   उपर्युक्त विशेषताएं अपने-आप में इतनी महत्वपूर्ण हैं कि ये राजी भाषा के परिवार की ओर स्वत: इंगित कर देती हैं। आग्नेय-देशी-मुंडा आदि की इन विशेषताओं के प्राप्त होने से स्पष्ट हो जाता है कि राजी भाषा इसी परिवार से संबंध रखती है। शब्द-भंडार भी अधिकतर इसी मूल का है। युगों से संबंध टूट जाने से और भिन्नमूलक भाषाओं के प्रभाव स्वरूप अनेक अंतर भी उत्पन्न हो गए हैं। कंठद्वारीय अवरोध प्राप्त तो होता है किंतु उसका वही रूप नहीं है जो मुंडा वर्ग की भाषा-बोलियों में है। राजी भाषा में इस अवरोध के पश्चात प्राय: हृस्व या फुसफुसाहट वाले स्वरों का उच्चारण हो जाता है। इसी प्रकार चेतन पदार्थों में द्विवचन, बहुवचन के लिए पुरुषवाचक सर्वनाम के रूपों का योग भी राजी भाषा में स्पष्ट नहीं है। स्वराघात की दृष्टि से भी राजी भाषा मुंडा के बलात्मक स्वराघात का अनुगमन नहीं करती। फिर भी राजी भाषा का ध्वन्यात्मक गठन, व्याकरण और शब्द-भंडार तीनों इस बात के प्रमाण हैं कि आज चाहे जितने स्थूल अंतर क्यों न उत्पन्न हो गए हों, राजी भाषा मूलत: आग्नेय परिवार से संबंधित मुंडा परिवार की बोली है।

संदर्भ-ग्रंथों की सूची:

1 कुमाऊं तथा पच्च्चिमी नेपाल के राजियों (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन,
डॉ. शोभाराम शर्मा
2 एस्से रिलेटिंग टू इंडियन सब्जैक्ट्स- खंड-1, ग्रियान हारटन हाग्सन
3 कुमाऊं का इतिहास, श्री बद्रीदत्त पांडे
4 गजेटियर(अल्मोड़ा) अटकिन्सन
5 लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, जार्ज इब्राहम ग्रिर्यसन(हिंदी अनुवाद- भारत का भाषा सर्वेक्षण, डॉक्टर उदित नारायण तिवारी)
6 लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, भाग-2, ;मौन-ख्मेर एवं ताई परिवार, जार्ज इब्राहम ग्रिर्यसनद्ध
7 भारत की भाषाएं तथा भाषा संबंधी समस्याएं, डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी
8 भारतीय संस्कृति में आर्येतरांश, श्री शिवशेखर मिश्र
9 हिमालय परिचय (कुमाऊं), राहुल सांकृत्यायन
10 राजी: लैंग्वेज ऑफ ए वेनिशिंग हिमालयन ट्राइब, डॉक्टर कविता श्रीवास्तव
11 प्रीहिस्टोरिक इंडिया, स्टूवर्ट पिगॉट

Thursday, August 6, 2009

सबी धाणी देहरादून, होणी खाणी देहरादून



उत्तराखण्ड की स्थायी राजधानी के सवाल पर गठित दीक्षित आयोग की रिपोर्ट जिस तरह से राजधानी के सवाल का हल ढूंढती है उससे यह साफ हो गया है कि राज्य का गठन ही उन जन भावनाओं के साथ नहीं हुआ जिसमें अपने जल, जंगल और जमीन पर यकीन करने वाली जनता के सपनों का संसार आकार ले सकता है।
गैरसैंण जो राज्य आंदोलन के समय से ही राजधानी के रूप में जनता की जबान पर रहा और रिपोर्ट के प्रस्तुत हो जाने के बाद भी है, उसको जिन कारणों से आयोग ने स्थायी राजधानी के लिए उपयुक्त नहीं माना, उत्तराखण्ड का राज्य आंदोलन वैसे ही सवालों का लावा था। भौगालिक विशिष्टता जो पहाड़ का सच है, यातायात के समूचित साधनों का होना और दूसरे उन स्थितियों का अभाव जो शहरी क्षेत्र के विकास की संभावनाओं को जन्म देने वाली होती हैं गैरसैंण का ही नहीं बल्कि उत्तराखण्ड के एक विशाल क्षेत्र का सच रहा। बावजूद इसके जनता ने गैरसैंण को ही राज्य की राजधानी माना तो तय है कि एक साफ समझ इसके पीछे रही कि यदि राजधानी किसी ठेठ पहाड़ी इलाके में बनेगी तो उन सारी संभावनाओं के रास्ते खुलेंगे। लेकिन विकास के टापू बनाने वाले तंत्र का हिमायती दीक्षित आयोग शुद्ध मुनाफे वाली मानसिकता के साथ देहरादून को ही स्थायी राजधानी के लिए चुन रहा है, जहां दूसरे पहाड़ी क्षेत्रों की अपेक्षा स्थिति कुछ बेहतर है। दूसरा गढ़वाल और कुमाऊ के दो बड़े क्षेत्रों में फैले उत्तराखण्ड राज्य का लगभग एक भौगोलिक केन्द्र होना भी गैरसैंण को राजधानी के लिए उपयुक्त तर्क रहा, जिसके चलते भी गैरसैंण जनता के सपनों की राजधानी आज भी बना हुआ है। नैनीताल समाचार के सम्पादक और सक्रिय राज्य आंदोलनकारी राजीवलोचन शाह के आलेख का प्रस्तुत अंश ऐसे ही सवालों को छेड़ रहा है।
-वि़.गौ.




राजीवलोचन शाह


देहरादून में अखबार कुकुरमुत्तों की तरह फैल रहे हैं। शराब के बड़े ठेकेदार और भू माफिया रंगीन पत्रिकायें निकाल रहे हें और उनके संवाददाता किसी भी आन्दोलनात्मक गतिविधि को उपहास की तरह देखते हैं। जब उनके मालिक अपने धंधे निपटा रहे हैं तो वे भी क्यों न मंत्रियों विधायकों के साथ गलबहिंयां डाले अपने लिए विलास के साधन जुटाने में लगें ? उनके लिए सिर्फ भगवान से प्रार्थना की जा सकती है कि उन्हें सदबुद्धि मिले।
लेकिन उन पुराने पत्रकारों,जो कि कभी राज्य आन्दोलन की रीढ़ हुआ करते थे,के पतन पर वास्तव में दुख होता है। क्या उनका जमीर इतना सस्ता था? क्या उनके लालच इतने छोटे थे कि नौ साल में प्राप्त छाटे माटे प्रलोभनों में ही वे फिसल गये? क्या उनके पास उाराखंड राज्य आन्दोलन की ही तरह इस नवोदित प्रदेश के लिए कोई सपना नहीं था? वे इतना भी नहीं जानते कि राजधानी शासन प्रशासन का एक केन्द्र होता हे, बाजार या स्वास्थ्य शिक्षा की सुविधाओं का नहीं। राजधानी एक विचार होता है और गैरसैंण तो हमारी कल्पनाशीलता ओर रचनात्मकता के लिए असीमित संभावनायें भी छोड़ता है। जिस तरह कुम्हार एक मिट्टी के लोंदे को आकार देता है हम दसियों मील तक फैले इस खूबसूरत पर्वतीय प्रांतर को गढ़ सकते हैं। मुगलों और अंग्रेजों ने इतने खूबसूरत शहर बसाये ,हम क्यों नहीं बसा सकते ? लेकिन नहीं, भ्रष्ट हो चुके दिमागों में सकारात्मक सोच आ ही नहीं सकती।
यह इस "बागी" हो चुके मीडिया और अपनी अपनी जगहों पर फिट हो चुके आन्दोलनकारियों के ही कुकर्म हैं कि उत्तराखंड आन्दोलन के मु्द्दे अब शहरों, खासकर देहरादून में भी उतनी भीड़ नहीं जुटा पाते। लेकिन आन्दोलन के मुद्दे तो अभी जीवित हैं। पहाड़ के दूरस्थ इलाके तो अभी भी उतने ही उपेक्षित उतने ही पिछड़े हैं,जितने उत्तराखंड राज्य बनने से पहले थे। वहां से कुछ चुनिन्दा लोग, जिनके पास कुछ था, बेच बाच कर देहरादून, ऋषिकेश, कोटद्वार,हल्द्वानी, टनकपुर या रामनगर में अवश्य आ बसे हैं लेकिन वहां की बहुसंख्य जनता तो अभी भी बदहाली में जी रही है । तो क्या वह अपने हालातों को अनन्त काल तक यूं ही स्वीकार किये रहेगी? कभी न कभी तो वह उठ खड़ी होगी और जब वह खड़ी होगी तो भ्रष्ट हुए आन्दोलनकारियों की भी पिटाई लगायेगी और मीडिया की भी। गैरसैण तो एक टिमटिमाते हुए दिये की तरह उनकी स्मृति में है ओर बना रहेगा---तब तक जब तक उत्तराखंड राज्य, बलिदानी शहीदों की आकांक्षाओं के अनुरूप एक खुशहाल राज्य नहीं बन जाता।





प्रस्तुति;
दिनेश चन्द्र जोशी
युगवाणी से साभार


शीर्षक: उत्तराखण्ड के लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी के गीत की पंक्ति

Wednesday, August 5, 2009

चलो चलें मेरे हम सफर इंक्लाब की राह पर

अरविन्द शेखर मेरा मित्र है। अखबार में काम करता है । अरविन्द के व्यक्तित्व पर कभी फिर बात हो सकती है पर जिस वजह से मैं यहां उसका जिक्र करना चाहता हूं वह यही कि निरंतर सामाजिक बदलाव के सपनों को देखने वाले अरविन्द के मार्फत मैं पाकिस्तान के लाल बैंड तक पहुंच पाया हूं। एक ऐसे बैंण्ड तक जिसके युवा साथियों के जोश और इंक्लाबी जुनून को यू टयूब में देखा और सुना जा सकता है। शाहराम, तैमूर रहमान, हैदर रहमान और महाविश वकार जैसे लाल बैंड के युवा साथियों का जोश जिन कारणों से उल्लेखनीय है उसे उनके ही मुंह से सुना जा सकता है। वे कहते हैं कि हमारा संगीत आवाम की निजात के लिए है। गरीबी और बदहाली में जीती पाकिस्तानी आवाम के प्रति अपने प्रतिबद्धता को प्रकट करते हुए उनको सुना जा सकता है कि हमारी कोशिश खुद का विकास भी है और युवाओं में प्रगतिशील चेतना को प्रसार भी। लाल बैण्ड का सफर उम्मीद-ए-सहर का सफर है। जिसमें हबीब जालिब, फैज अहमद फैज और अहमद फराज जैसे तरक्की पसंद शाइरों की शाइरी गूंज रही है। अरविन्द के ही हवाले से एक रिपोर्ट भी यहां प्रस्तुत है:-



उत्तराखंड की तीन संरक्षित विरासतें गुम

देहरादून।
उत्तराखंड में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित 44 विरासतों में से तीन का कोई अता-पता नहीं है। अल्मोड़ा जिले की रानीखेत तहसील के द्वाराहाट स्थित कुटंबरी मंदिर, हरिद्वार जिले की रुड़की तहसील के खेड़ा की बंदी और नैनीताल जिले की रामनगर तहसील के ढिकुली स्थित विराटपत्तन की प्राचीन इमारतों के अवशेषों का भी कुछ पता नहीं है।

उत्तराखंड में केंद्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का देहरादून सर्किल प्रदेश में 44 पुरातात्विक महत्व के ढांचों और स्थानों का देखरेख करता है। इनमें से तीन का गुम हो जाना अचरज की बात है। मालूम हो कि हाल में ही केंद्र सरकार ने स्वीकार किया है कि देश भर में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित कुल 3675 पुरातात्विक महत्व की इमारतों व स्थानों में से 36 गुम हो गई हैं। इनमें से तीन उत्तराखंड, 12 दिल्ली की, आठ यूपी की, तीन जम्मू कश्मीर, दो राजस्थान, दो हरियाणा, दो गुजरात, दो कर्नाटक व एक-एक असम व अरुणाचल प्रदेश से हैं। देहरादून सर्किल के अधीक्षण पुरातत्वविद डा. देवकी नंदन डिमरी का कहना है कि पचास के दशक में जब देश में पहली बार पुरातत्व स्थलों की सूची बनाई गई तो उसमें कई नाम स्थानीय लोगों की सूचना पर दर्ज कर लिए गए। इनमें से कई स्थानों का पुरातत्व विभाग ने भौतिक सत्यापन भी नहीं किया। तब पुरातत्व विभाग ने द्वाराहाट के कुटुंबरी मंदिर के बारे में स्थानीय लोगों से जानकारी चाही तो उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं थी। बहुत संभव है कि वह द्वाराहाट के मंदिर समूहों में से ही कोई मंदिर रहा हो या समय की मार से नष्ट हो गया हो। ढिकुली के विराटपत्तन के बारे में कहा जाता है कि यहां महाभारत का विराटनगर था और यहां पांडव आए थे। वैसे ढिकुली में कत्यूरी शासक जाड़ों में धूप तापने आते थे। यहां आज भी खुदाई में कत्यूरी काल की इमारतों के अवशेष मिल जाते हैं, लेकिन एएसआई के मुताबिक विराटपत्तन का अब तक कुछ पता नहीं है। तीसरी गुम हुई जगह रुड़की की खेड़ा बांदी कब्र है। डा. डिमरी का कहना है कि खेड़ा बांदी के गुम होने के बारे में भ्रम है, क्योंकि इसी नाम का एक स्थल आगरा सर्किल में भी संरक्षित है। दरअसल पचास के दशक में जब पुरातात्विक जगहों का नोटिफिकेशन हुआ तब तक यह क्षेत्र सहारनपुर जिले में था। उस समय रुड़की, हरिद्वार भी सहारनपुर जिले में था।

Thursday, July 16, 2009

हरेला के शुभ अवसर पर

उत्तराखंड में मनाये जाने वाले त्यौहारों में से एक प्रमुख त्यौहार हरेला भी है। इस त्यौहार को मुख्यतया कृषि के साथ जोड़ा जाता है।
हरेले को प्रतिवर्ष श्रावण मास के प्रथम दिन मनाया जाता है। इसे मनाने का विधि विधान बहुत दिलचस्प होता है। जिस दिन यह पर्व मनाया जाता है उससे 10 दिन पहले इसकी शुरूआत हो जाती है। इसके लिये सात प्रकार के अनाजों को जिसमें - जौ, गेहूं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत और भट्ट (गहत और भट्ट पहाड़ों में होने वाली दालें हैं) के दानों को रिंगाल से बनी टोकरियों, लकड़ी से बने छोटे-छोटे बक्सों में या पत्तों से बने हुए दोनों में बोया जाता है।

हरेला बोने के लिये हरेले के बर्तनों में पहले मिट्टी की एक परत बिछायी जाती है जिसके उपर सारे बीजों को मिलाकर उन्हें डाला जाता है और इसके उपर फिर मिट्टी की परत बिछाते हैं और फिर बीज डालते हैं। यह क्रम 5-7 बार अपनाया जाता है। और इसके बाद इतने ही बार इसमें पानी डाला जाता है और इन बर्तनों को मंदिर के पास रख दिया जाता है। इन्हें सूर्य की रोशनी से भी बचा के रखा जाता है।

इन बर्तनों में नियमानुसार सुबह-शाम थोड़ा-थोड़ा पानी डाला जाता है। कुछ दिन के बाद ही बीजों में अंकुरण होने लगता है और फिर धीरे-धीरे ये बीज नन्हे-नन्हे पौंधों का रूप लेने लगते हैं। सूर्य की रोशनी न मिल पाने के कारण ये पौंधे पीले रंग के होते हैं। 9 दिनों में ये पौंधे काफी बड़े हो जाते हैं और 9वें दिन ही इन पौंधों को पाती (एक प्रकार का पहाड़ी पौंधा) से गोड़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जिसके पौंधे जितने अच्छे होते हैं उसके घर में उस वर्ष फसल भी उतनी ही अच्छी होती है।

10 वें दिन इन पौंधों को उसी स्थान पर काटा जाता है। काटने के बाद हरेले को सबसे पहले पूरे विधि - विधान के साथ भगवान को अर्पण किया जाता है। उसके बाद परिवार का मुखिया या परिवार की मुख्य स्त्री हरेले के तिनकों को सभी परिवारजनों के पैरों से लगाती हुई सर तक लाती है और फिर सर या कान में हरेले के तिनकों को रख देती है। हरेला रखते समय आशीष के रूप में यह लाइनें कही जाती हैं -
लाग हरियाव, लाग दसें, लाग बगवाल,
जी रये, जागी रये, धरति जतुक चाकव है जये,
अगासक तार है जये, स्यों कस तराण हो,
स्याव कस बुद्धि हो, दुब जस पंगुरिये,
सिल पियी भात खाये


(अर्थात - हरेला पर्व आपके लिये शुभ हो, जीते रहो, आप हमेशा सजग रहो, पृथ्वी के समान धैर्यवान बनो, आकाश के समान विशाल होओ, सिंह के समान बलशाली बनो, सियार के जैसे कुशाग्र बुद्धि वाले बनो, दूब घास के समान खूब फैलो और इतने दीर्घायु होओ कि दंतहीन होने के कारण तुम्हे सिल में पिसा भात खाने को मिले।)

जो लोग उस दिन अपने परिवार के साथ नहीं होते हैं उन्हें हरेले के तिनके पोस्ट द्वारा या किसी के हाथों भिजवाये जाते हैं। कुमाऊँ में यह त्यौहार आज भी पूरे रीति-रिवाज और उत्साह के साथ मनाया जाता है।

-विनीता यशस्वी

Tuesday, May 20, 2008

यमुना के बागी बेटे

यमुना के बागी बेटे कथाकार विद्यासागर नौटियाल का उपन्यास है। यह उपन्यास रंवाई के ढंढक की पृष्ठभूमि में लिखा गया है।
रवांई का ढंढक की वह घ्ाटना 20 मई 1930 को घटी थी। यानि 23 अप्रैल 1930 को जहां एक ओर अंग्रेज फौज के सिपाही पेशावर में निहत्थे देशवासियों पर हथियार उठाने से इंकार कर चुके थे। वहीं उस घ्ाटना के महीने भर के भीतर ही टिहरी रियासत का दीवान चक्रधर जुयाल राज्य की जनता पर हथियार चला रहा था।
पर्यावरणविद्ध सुन्दरलाल बहुगुणा के आलेखों और अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों के हवाले से इतिहासकार शिवप्रासद डबराल द्वारा लिखे उत्तराखण्ड का इतिहास भाग-8 में दर्ज रवांई के इस ढंढक की गाथा को देखा जा सकता है।

टिहरी में वन व्यवस्था से असन्तोष

1927-28 में राज्य टिहरी राज्य में जो वन व्यवस्था की गयी उसमें वनों की सीमा निर्धारित करते समय ग्रामीणों के हितों की जानबूझकर अवहेलना की गयी। इससे वनोंे के निकट की ग्रामीण जनता में भारी असन्तोष फैला। परगना रवांई वनों की जो सीमा निर्धारित की गयी उसमें ग्रामीणों के आने जाने के मार्ग, खलीहान तथा पशुओं को बांधने के स्थान (छानी) भी वन की सीमा में चले गए। फलत: ग्रामीणों के चरान, चुगान और घास-लकड़ी काटने के अधिकार बन्द हो गए। वन विभाग की ओर से घोषणा की गई कि सुरक्षित वनों में ग्रामीणों को कोई अधिकार नहीं दिए जा सकते। कई वर्ष पहले से ही वनों पर ग्रामीणो
के अधिकारों को रोककर उनके विक्रय से अधिकाधिक धनराशि बटोरने का क्रम चला आ रहा था। राज्स की वन विभाग की नियमावली के अनुसार राज्य के समस्त वन राजा की व्यक्तिगत सम्पति के अनतर्गत गिने जाते थे। इसलिए कोई भी व्यक्ति किसी भी अन्य किसी भी वस्तु को अपने अधिकार के रुप में बिना मूल्य प्राप्त नहीं कर सकता था। यदि राज्य की ओर से किसी व्यक्ति को राज्य के वनों से किसी वस्तु को निशुल्क प्राप्त करने की छूट दे दी जाती है तो इसे महराजा की ''विशेष कृपा"" समझना चाहिए। जो सुविधाऐं वनों में जनता को दी गई हैं, उन्हें महाराजा स्वेच्छानुसार जब चाहे रद्द कर सकते हैं।

पशुचारण और कृषि के रोजगार पर निर्भर जनता के लिए अपने पशुओं के चारागाह बन्द हो गये। खेती के उपकरण, हल आदि जो विशेष जाति के वृक्षों से अनाए जाते थे, दुर्लभ हो गए। छप्परों को छाने के लिए बांस, घास और मालू आदि की पत्तियों एवे मालू के रेशों की की कमी हो गई। वनों पर निर्भर ग्रामीणों पर कठोर प्रतिबन्ध लगादेने से स्वभाव से ही उग्र एवं अदम्य स्वतंत्रताप्रिय रवांलटों का रुधिर खौलने लगा। जनता पूछती थी वन बन्द हो जाने से हमारे पशु कहां चरेगें ? सरकार की ओर क्षुद्र और विवेकशून्य कर्मचारी जवाब देते, "ढंगारों में फेंक दो।"

आंदोलन भड़क उठा

पूरे भारत में गांधी जी के आहवान पर जनता ब्रिटिश सरकार निर्मित विधि-विधानों को अदम्य उत्साह के साथ तोड़ रही थी। सरकार के विरुद्ध आंदोलनकारियों का जयजयकार सर्वत्र बड़ी श्रद्धा, उत्साह एवं आवेश के साथ किया जाता था। चकरोता में रवांई को जाने वाले मार्ग पर स्थित राजतर नामक स्थान पर लाला रामप्रसाद की दूकान पर समाचारपत्र आते थे, जिनमें देशभर में फैले हुए सत्याग्रह के समाचार छपते थे। रवांई के निवासी इन समाचारों को बड़ी उत्सुकता से पढ़ते और सुनते थे।
रवांई में साहसी व्यक्तियों ने वनों में अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन आरम्भ कर दिया। आंदोलन का नेतृत्व नगाणगांव के हीरासिंह, कसरू के दयाराम और खुमण्डी-गोडर के बैजराम ने सम्भाला। इनके पास समाचार पहुंचाते रहने की व्यवस्था लाला रामप्रसाद ने की। रवा्रई निवासियों ने अपनी आजाद पंचायत की स्थापना कर डाली। आजाद पंचायत की ओर से घोषणा की गई कि वनों के बीच रहने वाली प्रजा को वन सम्पदा के उपभोग का सबसे अधिक अधिकार है। रवांई वासियों ने अपनी समानान्तर सरकार की स्थापना कर ली। हीरासिंह को पांच सरकार और बैजराम को तीन सरकार कहा जाने लगा। रवाईं निवासियों ने वनों की नई सीमाओं को मानना अस्वीकार कर दिया। आजाद पंचायत की ओर से लोटे की छाप का मुहर के रूप में प्रयोग करके आदेश भेजे जाने लगे।
सारे रवांई में क्रांति की फैली हुई लहर को देखकर राजदरबार की ओर से भूतपूर्व वजीर हरिकृष्ण रतूड़ी को रवांई भेजा गया। रतूड़ी के सम्मुख आंदोलनकारियों ने मांग रखी वनों का हम लोग अब तक जिस प्रकार उपयोग करते थे, उसी प्रकार की सुविधाएं अब भी मिलनी चाहिए। ग्रमीणों की मांगों को जायज मानते हुए अपनी ओर से आश्वासन देकर रतूड़ी वापिस चले गये।
जब एक ओर समझौते की बातचीत चल रही थीए दूसरी ओर रवांई के अन्तर्गत राजगढ़ी के एसडीएम सुरेन्द्रदत के न्ययालय में आंदोलन के प्रमुख नेताओं पर राज्य के वनों को हानि पहुंचाने के अपराध में अभियोग चलाया जा रहा था। यह अभियोग राज्य की ओर से वनविभाग के डीएफओ पद्मदत्त रतूड़ी द्वारा चलाया गया था। एसडीएम ने आंदोलन के प्रमुख नेता दयाराम, रुद्रसिंह रामप्रसाद और जमनसिंह को दोषी पाया और उन्हें कारावास का दण्ड सुनाया।
पटवारी और पुलिस के साथ एसडीएम एवं डीएफओ 20 मई 1930 को आंदोलन के उन नेताओं जिन्हें सजा सुना दी गयी थी, को लेकर राजगढ़ी से टिहरी की ओर प्रस्थान कर गये। डण्डियाल गांव के नजदीक पहुंचे ही थे कि आंदोलनकारियों ने अपने साथियों को छुड़ाने के लिए हमला कर दिया। दोनों ओर से जमकर गोलीबारी हुई। डीएफओ पदमदत्त रतूड़ी की रिवाल्वर से निकली गाली से ज्ञानसिंह मारा गया। जूनासिंह एवं अजितसिंह भी मारे गये। बहुत से घायल हो गये। एसडीएम भी गाली लगने से घ्ाायल हुआ। पदमदत्त रतूड़ी जिसके पास रिवालर था, भाग गया। पुलिस वाले भी भाग गये। एसडीएम सुरेन्द्रदत्त को आंदोलनकारियों ने बन्दी बना लिया। अपने साथियों को छुड़ाकर आदोलनकारी राजतर ले गये। समाचार पाकर दीवान चक्रधर जुयाल ने रवांई के निवासियों को ऐसा पाठ पढ़ाने की सोची, जिसे वे कभी भूल न सकें। राजा यूरोप की यात्रा में गया हुआ था। दीवान ने संयुक्त प्रदेश के गवर्नर से आंदोलन के दमन करने के लिए, यदि आवश्यकता पड़ी तो शस्त्रों का प्रयोग करने की अनुमति प्राप्त कर ली। टिहरी राज्य की सेना का अध्यक्ष कर्नल सुन्दरसिंह जब प्रजा पर गोलियां चलाने के लिए प्रस्तुत न हुआ तो दीवान ने उसे हटाकर नत्थूसिंह सजवाण को राज्य की सेना का सर्वोच्च अफसर बनाकर ढंढकियों का दमन करने के लिए भेजा।
धरासू के मार्ग से राज्य की सेना राजगढ़ी पहुंची। सेना का मार्ग रोकने के लिए ग्रामीणों ने वृक्षों को काटकर सड़क पर गिराने की योजना बनाई थी। किन्तु इससे विशेष बाधा न पड़ी। थोकदार रणजोरसिंह अपने दलबल सहित मदिरा के घड़ों को लेकर सेना के स्वागत के लिए खड़ा था। रात्रि विश्राम के वक्त सेना ने जम के नाचरंग और मदिरापान का आनंद उठाया। थेकदार लाखीराम और रणजोरसिंह ने जिसे चाहा, पकड़वाया।
टगले दिन तिलाड़ी के मैदान में, चांदाडोखरी नामक स्थान पर आजाद पंचायत की बैठक हुई। जिसमें सेना के आगमन तथा समझौते की शर्तो पर विचार-विमर्श होने लगा। सेना ने घ्ाटनास्थल पर तीन ओर से घेरा डाल दिया। सेना में रवांई का ही एक सैनिक अगमसिंह था। उसने आगे बढ़कर आंदोलनकारियों को सचेत करना चाहा कि दीवान ने सीटी बजा दी। दीवान की सीटी की आवाज पर सैनिकों ने गोलियों की बौछार शुरु कर दी। प्राण बचाने के लिए कुछ जमीन पर लेट गये, कुछ पेड़ों पर चढ़ गए, कुछ ने जान बचाने के लिए यमुना में छलांग लगा दी। न जाने कितने मारे गये और कितने घायल। जान बचाकर यमुना में कूदने वालों पर चलायी गयी गोली से यमुना के पार सुनाल्डी गांव में सैनिकों की गाली से एक गाय भी मर गयी।
यमुना के बागी बेटों का यह ऐसा दमन था जिसकी खबरें प्रकाशित नहीं हुई। आंदोलन पर यकीन रखने वालों के व्यक्तिगत प्रयासों से कहीं कोई छुट-पुट कोशिश हुई भी तो खबर के फैलने से पहले ही ब्रिटिश हुकूमत गिरफ्तारियों को उतावली रही। यमुना के बागी बेटो का इतिहास तो किस्से कहानियों में ही दर्ज है।