उत्तर नाट्य संस्थान
एवं दून विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित नाट्य समारोह का आखिरी नाटक
2 अप्रैल 2024 की शाम दून विश्वविद्यालय के डॉ नित्यानंद सभागार में मंचित हुआ।
नाट्य समारोह की शुरुआत विश्व रंगमंच दिवस, 27 मार्च
2024 को हुई थी। समारोह का आखिरी नाटक-अन्वेषक दून विश्वविद्यालय के रंगमंच विभाग
के विद्यार्थियों द्वारा खेला गया। वर्ष 2023 के लिए संगीत नाटक अकादमी से
सम्मानित किए गए डॉ राकेश भट्ट के निर्देशन में खेले गए इस नाटक का यह दूसरा
प्रदर्शन था। मई 2023 में भी दून विश्वविद्यालय में इसको मंचित किया गया था।
कहानीकार और नाट्य लेखक प्रताप सहगल के द्वारा लिखा गया नाटक “अन्वेषक” प्राचीन भारतीय इतिहास की विसंगतियो को केंद्र
में रखकर रचा गया है। महान खगोलविद और वैज्ञानिक आर्यभट के अनुसंधान- पृथ्वी
चलायमान है, के प्रति पुरोहितों द्वारा की गई अवहेलना इस
नाटक का कथा बिंदू है। 20 वीं सदी के आखरी दशक में प्रकाशित हुए इस नाट्य आलेख पर
बात करने से पहले मंचन की खूबियों-खामियों पर बात कर ली जाए।
कुछ छोटी मोटी तकनीकी
खामियों के बावजूद 2 अप्रैल 2024 की शाम दून विश्वविद्यालय के डॉ नित्यानंद सभागार
में मंचित हुए “अनवेषक” की प्रस्तुति को संतोषजनक कहा जा सकता है। मंचन में यदि
कोई व्यवधान बन रहा था तो वह था नाटक का पर्श्व संगीत- जो अखरने वाला रहा। अभिनय
के लिहाज से कहा जाये तो पात्र उस दायरे में रहे जिसे लेखक के रचे हुए के साथ संगत
बैठाते हुए निर्देशक ने परिकल्पित किया। फिर चाहे नट-नटी (गणेश गौरव, सोनिया नौटियाल) के किरदारों का चुलबुलापन हो और चाहे संयत और धीर गम्भीर व्यवहार
में राजा बुधगुप्त ( अरुण ठाकुर) या आर्यभट ( कपिल पाल) का अभिनय।
निर्देशक की
परिकल्पना के पहलुओं पर विचार किया जाये तो पाएंगे कि लेखक ने जिन उद्देश्यों को
ध्यान में रखकर नाटक लिखा, निर्देशक ने उनकी प्राप्ति के
लिए ही हर सम्भव स्थितियों को नाट्य तत्वों में पिरोने की कोशिश की। स्पष्ट है कि लेखकीय
उद्देश्य उस विचार की साम्यता में हैं, जो अतीत के गौरव गान
को ही राष्ट्रीयता और देशप्रेम मानता है। वह एक ऐसा विचार,
जो जब राजनीति का चोला पहनता है तो दुनिया के सारे ज्ञान और किसी भी अनुसंधान को सिर्फ
अपने धर्मग्रंथों में तलाशता है, बल्कि जिद्द की हद तक धर्मग्रंथों
को ही प्राथमिक स्रोत माने रहता है। बदलती हुई दुनिया के मूल्यबोध उसके आड़े आते
हैं तो शुरु में तिलमिलाता है। लेकिन जब यह जान लेता है कि समाज उन बदले हुए
मूल्यबोध से इतर व्यवहार नहीं करेगा तो इस तरह पैंतरा बदलता है कि मूल्यबोधों को
स्वीकारने की बजाय प्रतीकों के माध्यम से
खुद को भी उनका हिमायती होने का झूठ रचता है। उसका झूठ पकड़ में न आए इसलिए प्रतीकों
के झंडे बनाकर लहराने लगता है। मसलन, भगत सिंह जैसे
क्रांतिकारी ने आजादी की जो कल्पना की, उसके प्रति नफरत भरा
होते हुए भी राष्ट्र भक्ति का झूठ रचने के लिए वह पहले भगत सिंह को पगड़ी पहनाता है
और फिर उसे देव स्वरूप पूज्य बनाता है। अहिंसा के विचारक गांधी की हत्या करता है, लेकिन झूठ को रचने के लिए चश्मे को लहराते हुए ही गांधीवाद का पूजारी
दिखना चाहता है।
प्रताप सहगल का नाट्य
आलेख भी ऐसे ही झूठ के साथ वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न आर्यभट की उस खोज को कथा में
जगह देता है जिसने धार्मिक मान्यताओ को चौनौती दी थी। वे मान्यताएं, जिनका स्पष्ट मत था कि पृथ्वी स्थिर है और रात दिन की चक्रियता दैवीय
चामत्कार है। ग्रहणों की स्थितियां राक्षसों के उत्पात हैं और उनके उपाय के लिए ही
दैवीय उपासना और दान दक्षिणा के उपक्रम आवश्यक हैं।
चूंकि नाटक का विषय
यह नहीं है कि वह उन कारणों को जानने के लिए लिखा गया है कि आखिर क्यों और कैसे एक
महत्वपूर्ण अनुसंधान की पुस्तक पूरे इतिहास में विलुप्त रही, इसलिए यह आलेख भी उन स्थितियों को नहीं उठा रहा। जबकि यह कौन नहीं जानता कि
झूठ को फैलाते रहने वाले धर्मग्रंथ ही नहीं, उनकी टिकाएँ तक
सुरक्षित तरह से संरक्षित रहीं हैं। इसलिए यह प्रश्न विचारणीय होते हुए भी मुझे छोड़
देना पड़ रहा है कि क्यों ऐसा हुआ कि सिर्फ दो दो पंक्तियों में लिखे गए 121
श्लोकों की पुस्तक आर्यभटीय जो गणित और ज्योतिष विज्ञान के जटिल विषयों को
सूत्रबद्ध किये थी, सैकड़ों सालो तक विलुप्त रही ? मेरी यह टिप्पणी सिर्फ उतने की ही बात करने के लिए बाध्य है जो मंचित हुए नाटक
“अन्वेषक” का घटनाक्रम है।
दिलचस्प है ऊपर के
सवालों को दरकिनार करते हुए ही नाट्य आलेख उस गौरवगान का आख्यान बनने के साथ है जो
“अतीत के सुवर्ण काल” को स्थापित करने वाला है। नाटक में आर्यभट को गुप्त शासक बुधगुप्त
के समर्थन से अनुसंधान करते दिखाया जाना उसी अतीत को गौरवांवित करना है जो
धर्मशास्त्रों पर टिकी मान्यताओं को ज्यादा मुस्तैदी से प्रसारित करने वाला हुआ। इतिहास
गवाह है कि राजदरबारों के समर्थन कला साहित्य की उन गतिविधियों के लिए रहे, जो या तो सीधे धर्मग्रंथों की मान्यता को स्थापित कर रही थी, या फिर कुछ नया करते हुए इस बात का ध्यान रखती थी कि समाज में फैले
अंधकार को चुनौती न देती हो। गुप्त काल के एक शासक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के
दरबार के नौ रत्नों के बारे में इतिहास से जानकारी मिलती है। “तथाकथित रूप से कवि
कालिदास के नाम से प्रसिद्ध, परन्तु दरअसल 12वीं सदी में
लिखी गई 'ज्योतिर्विदाभरण' नामक जाली
पोथी के एक श्लोक में भी इन नौ रत्नों की सूची है- धन्वंतरि क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेतालभट्ट,
घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर
और वररुचि । यानी पाटलिपुत्र में पूजित ज्ञान को प्रतिष्ठित करने वाले गुप्तकाल के
ही के प्रथम महान गणितज्ञ आर्यभट का नामोल्लेख, नहीं है!
क्या यह भारतीय विज्ञान के प्रथम पौरुषेय कृतित्व को और उसके रचनाकार को
लोक-परम्परा से ही बहिष्कृत कर देने वाला प्रयत्नपूर्वक किया गया प्रयास नहीं है?”
(गुणाकर मूले, शैक्षिक संदर्भ, जुलाई-अगस्त 1998) । भारतीय गणित के इतिहास की व्याख्या करने वाले विद्वान
गुणाकर मूले स्पष्ट लिखते हैं, “आर्यभट के भूभ्रमण वाद पर
हमला करने वाले पहले ज्योतिषी वराहमिहिर (मृत्यु : 587 ई.)
हैं। आर्यभट के भूभ्रमणवाद पर कठोर प्रहार करने वाले दूसरे व गणितज्ञ-ज्योतिषी
ब्रह्मगुप्त हैं।“(गुणाकर मूले, शैक्षिक
संदर्भ, जुलाई-अगस्त 1998)। आर्यभट द्वारा प्रतिपादित
भूभ्रमण का सिद्धांत पुरोहित-वर्ग के लिए एक नई चुनौती थी। “'परमभागवत' गुप्तों के शासनकाल में यह वर्ग काफी
बलशाली बन गया था। वेदों और धर्मशास्त्रों के हवाले देकर अचला पृथ्वी का जो
लोकविश्वास कायम किया गया था उसे टिकाए रखने में सबसे ज़्यादा हित पुरोहित वर्ग का
ही था। इसलिए समाज के इस प्रभावशाली वर्ग ने आर्यभट के भूभ्रमणवाद के उन्मूलन के
लिए हर संभव प्रयास किया हो, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात
नहीं है।““(गुणाकर मूले, वही)
नाटक स्पष्टत: दिखाता
है कि अन्वेषक आर्यभट ने अपनी पुस्तक “आर्यभटीय” बुधगुप्त को सौंपी। यद्यपि तथ्य है, “आर्यभट अपनी कृति में किसी भी राजा या सामंत का उल्लेख नहीं करते हैं। समकालीन
राजनींतिक परिस्थितियां भी अनुकूल नहीं थी। आर्यभट का जन्म 476 ई में हुआ।“ (गुणाकर
मुले, महान गणितज्ञ- ज्योतिशी आर्यभट, राजकमल
प्रकाशन, पेज 136)। फिर भी यदि नाटक की कथा को यदि सत्य मान लिया
जाये तो फिर सवाल है कि ज्ञान विज्ञान को संरक्षण देने वाला राजदरबार ऐसे महान
अनुसंधान की पुस्तक को गुप्त शासन के क्षेत्र में क्यों संरक्षित नहीं रख पाया ?
यह भी इतिहास है कि “सुदूर दक्षिण भारत में, मुख्यतः
मलयालम लिपि में, टीकाओं सहित आर्यभटीय की कई हस्तलिपियां
उपलब्ध थीं। उनमें से कुछ हस्तलिपियां यूरोप के संग्रहालयों में भी पहुंच गई थीं,
मगर उनका अध्ययन और प्रकाशन नहीं हो पाया था, और
न ही उनके आधार किसी यूरोपीय विद्वान ने आर्यभट प्रामाणिक परिचय प्रस्तुत किया था।
डा. भाऊ दाजी प्रथम यह काम किया लाड (1824-74 ई.) ने। उन्होंने 1865 ई. में केरल
की यात्रा करके वहां मलयालम लिपि में आर्यभटीय की तीन ताड़पत्र पोथियां खोजीं।
उनका अध्ययन करके भाऊ दाजी ने आर्यभट और आर्यभटीय के बारे में एक खोजपरक निबंध
तैयार किया।“(गुणाकर मूले, शैक्षिक
संदर्भ, मार्च-जून1998)।
स्पष्ट है प्रताप
सहगल के नाट्य आलेख में इंन तथ्यों की अवहेलना के कुछ निहितार्ठ हैं। यह नाटक अतीत
के गौरवगान के लिए ऐसे दृश्य रचता है कि राजा बुधगुप्त और उसके दरबारी बार बार ही आर्यभटीय
सिद्धांतों को लागू करने के लिए उद्यत हैं। यहाँ तक कि आर्यभट की स्थापना का विरोध
करने वालों को कारागार में डाल देते हैं। ऐसा करते हुए प्रताप सहगल न सिर्फ अतीत
का गौरव गान करने वाली राजनीति को मद्द करते है बल्कि आर्यभट की वैज्ञानिक उपलब्धि
को भी अतीत की उसी गौरवशाली परम्परा का हिस्सा बना देने का रास्ता सुझाते है जिसका
सारा कार्यव्यापार ही धार्मिक गतिविधियों को सर्वोपरि मानने वाला रहा है।
अतीत के गौरव गान के उद्देश्यों से तैयार प्रताप सहगल की यह स्क्रिप्ट राकेश भट्ट के निर्देशन में गुप्त काल के उस दौर को आधुनिक मूल्यबोध के उन रंगों से सजा देना चाहती हैं कि पुरातनपंथी वह दौर किस दर्शक की चाह न हो जाए जिसमें विद्ध्वत समाज की एक कुलपति स्त्री हो। पांच विद्वानों की उस सभा में दो स्त्रियां हो और उनमें से एक सभा की अध्यक्षता करे। तो कैसे नहीं वह पुरातनपंथी राजदरबार आज की जनता की चाह होने लगेगा। इतिहास की विकृति की ऐसी गौरव गाथाएं दून रंगमंच में पिछ्ले कुछ वर्षों में बहुत तेजी से बढी हैं। दिलचस्प है कि ऐसी सभी गतिविधियों में इतिहास के नायकों की वास्तविक भूमिका को चौपट करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी गई। फिर न तो वहां नागेंद्र सकलानी बच पाए हैं और न वीर चंद्र सिंह गढवाली। दून रंगमंच की यह चाल उस सिल्क्यारा मिशन की चाल है जो न तो सुरंग निर्माण के औचित्य पर बात करना चाहती है, न सुरंग में मजदूरों के फंस जाने के कारणों को तलाशना चाहती है और न ही उस श्रम का सम्मान करना चाहती है जिसके प्रतिफल से फंसे हुए मजदूरो को जीवन मिल पाया है। उसका उद्देश्य तो सिर्फ पैसा, पुरस्कार, प्रतिष्ठा और शासन प्रशासन में घुसपैठ को महत्व देना हुआ है।
यदि अपने आस पास के परिदृश्य पर निगाह डालें तो स्पष्ट देख सकते हैं कि
देश के पैमाने में जारी हिंदी रंगमंच की दुनिया का यह सिलक्यारा मिशन ही कभी
“राम की शक्तिपूजा” में शरण लेता है तो कभी प्रेमचंद के “गोदान” में।
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