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Saturday, November 25, 2017

वह बौद्धिक साहस और चेतना के साथ सतत लेखन

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

आपमें यदि बौद्धिक साहस और एक चेतना के साथ सतत लिखने का माददा न होता तो कहा नहीं जा सकता कि वंचितों की आवाज बनकर लिखी जा रही रचनाओं के स्‍वर को दलित साहित्‍य की संज्ञा से पहचाने जाने में अभी कितना वक्‍त लगता। पत्रकार मोहनदास नैमिशराय की आत्‍मकथा, ‘अपने-अपने पिंजरे’ तो छप ही चुकी थी। लेकिन उसे दलित साहित्‍य  की रचना तो उस समय नहीं माना गया था। आपकी लगातार की जिदद भरी कोशिशों ने ही उस वातावरण का निर्माण करने में अहम भूमिका निभाई कि जिस ‘सदियों के संताप’ को छापते हुए भी उसे दलित साहित्‍य की रचना न कह पाने की हमारी कमजोरियां उसे दलित कविताओं की पुस्‍तक के रूप में स्‍थापित कर गई। हमारी कमजोरियों का कारण वह वातावरण भी तो था जो आलोचना के गैर पेशेवराना मिजाज के कारण नामगिनाऊ था। और उस नाम गिनाऊ आलोचना में आपकी कोई जगह ही न थी। फिर एक अकेले व्‍यक्ति में इतना साहस कहां से पैदा हो जाता कि पहली ही किताब को दलित साहित्‍य कह पाए। कोई संगठन होता, कोई बड़ा आंदोलन चल रहा होता तो निश्चित ही वैसा लिख देने का साहस हम बटोर ही लेते।

आपको ध्‍यान होगा कि पुस्‍तक छपने के बाद नेहरू युवक केन्‍द्र, ई सी रोड़, देहरादून के उस प्रांगण में जहां लीचियों के पेड़ झूमते थे, सिर्फ स्‍थानीय रचनाकारों की उपस्थिति में ही आयोजित हुई ‘फिलहाल’ की गोष्‍ठी में पुस्‍तक का लोकापर्ण और चर्चा हुई थी। अवधेश कौशल जी की वजह से नेहरू युवक केन्‍द्र दून के रंगकर्मियों के सर्वसुलभ जगह थी। उनका अड्डा थी। इस नाते हमारे गोष्‍ठी के लिए वह सर्वसुलभ ही थी। वरना गोष्‍ठी करने को भी तो कोई जगह हमारे पास नहीं थी। घरूवा गोष्‍ठी के रूप में सदियों के संताप के छप जाने का कोई मतलब नहीं था।

यूं उसे लोकार्पण भी तो नहीं कहा जा सकता। पुस्‍तक लोकार्पण  कैसे होता है, इसका भी तो हमें अनुभव कहां था। बस मित्र इक्‍टठे हुए, आने कविताएं पढ़ी और उन पर चर्चा हुई। पुस्‍तक पर सम्‍पूर्ण रूप से कोई बात नहीं हुई। हां, इतना जरूर हुआ कि उसके बाद पुस्‍तक को बेचना हमने शुरू कर दिया। शुरूआती दिनों तक तो वह अनाम ही रही, फिर जब आपकी कविताएं पहली बार ‘हस’ मासिक में छपी और हिंदी की दुनिया में उन्‍हें दलित साहित्‍य के रूप में पहचाना जाने लगा तो कितने ही पत्र पुस्‍तक की मांग के संबंध में आने लगे। यहां तक कि उनमें से कई पत्र तो इस तरह के होते थे जो ‘फिलहाल प्रकाशन’ को एक लगातार का प्रकाशन मानने की गलतफहमी में पूरा कैटलॉग भेजने की बात लिखते थे। सीमित प्रतियों को बेच लेने के बाद हम उन बहुत से पाठकों को पुस्‍तकें भेज सकने में असमर्थ थे। हमारा अंदाज भी कोई पेशेवराना नहीं था कि उन पत्रों के जवाब ही देते। वे बिना जवाबी खत होने लगे। यद्यपि यह जरूर हुआ कि बहुत जिददी लोगों को पुस्‍तक की कुछ फोटो कॉपी उस वक्‍त मुफ्त भेजी गयी। वह हमारे देहरादून में फोटोकॉपी मशीन के आ जाने का शुरूआती समय था।      

हिंदी में दलित साहित्‍य की अनुगूंज को जगाने का श्रेय बेशक ‘हंस’ और उसके सम्‍पादक राजेन्‍द्र यादव को दिया जाता रहे, पर आपके बौद्धिक साहस और सतत चेतना की जिदद के साथ आपके लिखने को दरकिनार नहीं किया जा सकता। वह भी तब, जबकि हिंदी साहित्‍य की मुख्‍यधारा की पत्रिकाओं में छपने से आपकी रचनाएं वंचित रहती जा रहा थी। आप तो वहां भी दलित की तरह ही ‘दलित’ पत्रिकाओं में ही छप रहे थे। कुछ नाम याद आते है, मुगेर, बिहार से निकलने वाली मरगिल्‍ली सी पत्रिका ‘पंछी’, राजस्‍थान से निकलने वाली ‘मरूगंधा’, देहरादून से निकलने वाला द्विभाषीय दैनिक ‘वैनगार्ड’, देहरादून से हस्‍तलिखित पत्रिका ‘अंक’, कविात फोल्‍डर ‘संकेत’ और फिलहाल’, घोषित रूप से मासिक लेकिन कभी कभी अनियमित हो होकर छपने वाली ‘नयी परिस्थितियां’, नागपुर से निकलने वाला मराठी साप्‍ताहिक ‘नागसेन’। बेशक हिंदी में आलोचना का कोई पेशेवराना रूप आज भी नहीं तो भी हिंदी साहित्‍य के इतिहास पर जब भी कुछ लिखा जाएगा तो आपाको जम्‍प करके निकल जाना किसी के लिए भी मुश्किल ही होगा। हिंदी में आलोचना का पेशेवराना रूप होता तो ऐसा हो नहीं सकता था कि शुद्ध साहित्‍य और पाप्‍लुर पर चलने वाली बहसें आज इतना शोर मचाती। या फिर फेसबुक पर छपने वाली रचनाओं को बिना पढ़े ही सिरे से खारिज करने वाली आवाजें ही ज्‍यादा गंभीर मानी जाती। पेशेवर आलोचक उनकी भी पड़ताल पेशेवराना ढंग से करते और आलोचना का कोई वस्‍तुनिष्‍ठ रूप उभरता। या यूं भी कि किसी एक आलोचक के बस चंद लेखक ही प्रिय नहीं होते, वह उन पर भी नाम गिनाऊं तरह से पुनारवृत्ति भरे आलेख भर नहीं लिखता, बल्कि उन पुस्‍तकों और लेखकों को भी खोजता जो बहुत नामालुम सी पत्रिकाओं में छपते और किसी अनजाने शहर के बांशिंदे होते। यहां चूंकि मैं अभी ऐसे उन बहुत से अनाम रह गई रचनाओं और रचनाकारों के बारे में बात नहीं करना चाहता। यहां तो सिर्फ आपकी ही बात करूंगा। क्‍योंकि, आप भी जानते हैं अच्‍छे से स्‍थापित हो जाने के बाद ही आपकी रचनाओं पर लिखा और सुना गया। जबकि, उन रचनाओं की त्‍वरा तो हमेशा ही एक जैसी रही। अपने लिखे जाने के वक्‍त भी और छप जाने के वक्‍त भी।

स्‍मृति

Friday, November 24, 2017

न्यू नतम लागत मूल्य और सदियों का संताप



कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

आपको ध्यान होगा, ऋषिकेश से एक कविता संग्रह प्राकाशित हुआ था। ‘उत्‍तर हिमानी’ नाम से प्रकाशित उस संग्रह में उत्‍तराखण्‍ड के अन्‍य कवियों की कविताएं भी थी। पार्थ सारथी डबराल के संपादक थे। 
‘सदियों की संताप’ आपकी कविता पुस्‍तक तो 1989 में प्रकाशित हुई। तब तक हम दोनों ने भी ‘उत्‍तर हिमानी’ के लिए कविताएं भेज दी थी। आपकी डायरी में सबसे अन्तिम कविता ‘तब तुम क्‍या करोगे’ ही थी उस वक्‍त। आपकी डायरी को पूरा पढ़ने के बाद डायरी की वह अंतिम कविता मेरे भीतर बहुत दिनों तक गूंजती रही थी।
पारंपरिक छापे की प्रक्रिया से छपने वाले कविता फोल्‍डर ‘फिल्‍हाल की टीम’ फिल्‍हाल के तीन अंक निकाल चुकी थी और इस नाते प्रकाशन के जोड़ घटाव से एक हद तक परिचित हो चुकी थी। उस अनुभव के नाते ही एक रोज शाम को अम्‍मा-अब्‍बा को खाना पहुंचाने जाते वक्त हम (मैं और आप) जब उस कविता संग्रह की बात कर रहे थे जिसमें सहयोग राशि के साथ हम दोनों की कविताएं छप रही थी (‘उत्‍तर हिमानी’) तो मैंने कहा था कि अब आपकी भी कविता पुस्‍तक छप जानी चाहिए। मेरी बात पर आपने मायूसी के साथ जवाब दिया था, ‘’
‘’कौन छापेगा किताब।
‘’हम खुद छाप सकते हैं न।‘’
‘’कैसे ?’’
‘’जैसे फिलहाल छापते हैं। 6 फोल्‍ड में मुश्किल से 300 रू खर्च होते हैं हमारे एक अंक छापने पर। यदि किताब मैं 50.60 पेज हों और हम उसकी 400-500 प्रतियां छापें तो किताब का खर्च मुश्किल से 1000-1200 रू ही आएगा। उसको भी हम किताब बेच कर निकाल लेगें।‘’
फिल्‍हाल की छपाई में मोटा कागज इस्‍तेमाल होता था, जिसका दाम सामान्‍य कागज से कहीं ज्‍यादा था। ‘युगवाणी’ पर पेज की 30 रू लेता था। चालीस से पचास रू के भीतर कवर में छपने वाले चित्र का ब्‍लाक बन जाता था और लगभग 60-70 रू में कागज की 120-130 सीट आ जाती थी। एक सीट से दो प्रति तैयार हो जाती थी। किताब को छापे जाने के पीछे मेरा तर्क था कि नब्‍बे का दशक बीत रहा है, लगातार की उपेक्षा के चलते आप क्‍यों नब्‍बे के बाद के दशक में गिने जाएं। उस वक्‍त थोड़ी बहुत आलोचनाएं पढ़ते हुए मैं इस बात को जानने लगा था कि आलोचना में दशक के रचनाकारों के जिक्र होते हैं। हालांकि सच बात तो यह हिन्‍दी कविताओं की आलोचना में कहीं यह आज तक दर्ज नहीं आप कौन से दशक के कवि हैं। ‘लांग नाइंटीज’ के विशेषणों वाली आलोचना भी आपके कवि होने को दर्ज नहीं कर पाई जबकि आप मूलत: कवि ही थे। परिस्थितिजन्‍यता में या कविता में शुद्धातावादियों के बोलबाले ने आपको कहानीकारों के खाते में ही डाले रखा।
न जाने वह कौन सा क्षण था, अम्मा-अब्बा को खाने पहुंचाने के बाद जब हम वापिस घर लौटे, आपने अपनी डायरी निकाली। अल्‍टी–पल्‍टी कुछ सोचा-विचार किया और मासूमियत भरी दृढ़ता से कहा, ‘’लो ले जाओ डायरी।‘’
डायरी को हाथ में थामते हुए एक बड़ी जिम्‍मेदारी के अहसास ने मुझे घेर लिया। आपसे विदा लेकर मैं घर चला आया। कविताओं को पढ़ा और जमाने को जाति की दासता में जकड़ने वाली ब्राहमणवादी प्रवृत्तियों से उलझता रहा। उस वक्‍त तक हिंदी में दलित साहित्‍य नहीं आया था। जब मैंने कुछ कविताओं के साथ एक पुस्तिकानुमा किताब को शीर्षक ‘’सदियों का संताप’’ के साथ आपके सामने रखा तो आपने मेरी इस अनुनय को भी स्‍वीकार लिया कि छपाई में जो अनुमानित खर्च्‍ रू 1300 के करीब आएगा, बतौर उधार दे देंगे। पुस्तिका की 200  प्रति छाप कर बेच लेने की मंशा के साथ उसका मूल्‍य रू 7 निर्धारित किया गया। यह संतोष की बात है कि लगभग 150 प्रतियां  बेची जा सकी और लगाये गए धन की वापसी न्‍यनतम मूल्‍य रख कर हासिल की जा सकी। याद कीजिए उस कविता पुस्‍तक का कवर भाई रतीनाथ योगेश्‍वर ने किया था, वह भी तब जबकि अवधेश कुमार जैसे बड़े आर्टिस्‍ट हमारे बीच थे। अवधेश कुमार की बजाय कवर पर रतीनाथ के हाथों की छाप कैसे अंकित हुई, उस कथा को बाद में कहूंगा। अभी तो इतना ही कि सदियों के संताप का जब आपके स्‍टार हो जाने के बादए कई सालों बाद उसका पुन:प्रकाशन एक अन्‍य प्रकाशक ने किया और कवर को लगभग ज्‍यों का त्‍यों एक दूसरे आर्टिस्‍ट के नाम से छाप दिया तो आपने इस पर कोई एतराज जाहिर नहीं किया, क्‍यों ? यहां तक कि एक रोज कभी यूंही आपने कहा था कि सदियों के संताप का यदि कोई पुन:प्रकाशन करता है तो मैं उसमें अपने उन अनुभवों को भूमिका के रूप में लिखूं जो पुस्‍तक के पहले प्रकाशन में हुए। लेकिन आपने जब उस पुन: प्रकाशित पुस्‍तक की प्रति मुझे भेंट की तो उसे अलटने पलटने के बाद मैंने एकाएक कहा था, वाह। पर दूसरे ही क्षण कवर पर कलाकार का बदला हुआ नाम देखकर आपकी निगाहों में ताकते हुए कहा था, ये क्‍या तो आप निगाह बचाते हुए जाने क्‍यों खामोश हो गए थे।

स्‍मृति

Monday, November 20, 2017

हिन्दी में दलित कविता की आहट

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

हमारा वर्तमान देवत्‍व को प्राप्‍त हो चुके लोगों की ही स्‍मृतियों को सर्वोपरि मानने वाला है। उसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं, उन कारणों को ढूंढने के लिए तो सामाजिक-मनोवैज्ञानिक शोध ही रास्‍ता हो सकते हैं। अपने सीमित अनुभव से मैं एक कारण को खोज पाया हूं- हमारी पृष्‍ठभूमि एक महत्‍वपूर्ण कारक होती है। ‘पिछड़ी’ पृष्‍ठभूमि से आगे बढ़ चुका हमारा वर्तमान हमेशा आशंकित रहता है कि कहीं सामने वाला मुझे फिर से उस ‘पिछड़ेपन’ में धकेल देने को तैयार तो नहीं और उसकी बातों के जवाब में हम अक्‍सर आक्रामक रुख अपना लेते हैं। मैं किसी दूसरे की बात नहीं कहता, अपनी ही बताता हूं, कारखाने में बहुत छोटे स्‍तर से नौकरी शुरू की। आपके लिए यह समझना मुश्किल नहीं कि उस स्‍तर पर काम करने वाले कारीगर के प्रति कारखाने के ऑफिसर ही नहीं सुपरवाइजरी स्टाफ तक का व्‍यवहार कैसा होता है। आप भी उस रास्‍ते ही आगे बढ़े, जिस पर मेरा वर्तमान गतिशील है। ट्रेड एप्रैटिंस करने के बाद एक दिन ड्राफ्टसमैन हुए, बाद में ड्राफ्टसमैन का पद कार्यवेक्षक में समाहित हुआ तो कार्यवेक्षक कहलाए और इस तरह से सीढ़ी दर सीढ़ी पदोनन्तियों के बाद एक अधिकारी के तौर अपनी सामाजिक स्थिति का वह वर्तमान हासिल करते रहे जो आपको सामाजिक रूप से एक हद तक सम्‍मानजनक बनाता रहा। आपकी पृष्‍ठभूमि में तो सामाजिक सम्‍मान का सबसे क्रूरतम चक्र भी पीछा करने वाला रहा। आपने यदि हमेशा देवत्‍व को प्राप्‍त हो गए लोगों को ही अपनी प्रेरणा के रूप में दर्ज किया तो मैं इसमें आपको वैसा दोष नहीं देना चाहता जैसा अक्‍सर निजी बातचीतों में लोग देते रहे। आपके बारे में दुर्भवाना रखने वाले या अन्‍यथा भी आपकी आलोचना करने वाले जानते हैं कि उनकी ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने के मध्‍यवर्गीय व्‍यवहार से मुक्‍त रहते हुए ही मैंने जब-तब उनकी मुखालिफत की है। साथ ही आपकी पृष्‍ठभूमि के पक्ष को ठीक से रखने की कोशिश की है, जिसके कारण एक व्‍यक्ति का वर्तमान व्‍यवहार निर्भर करता है। यद्यपि यह बात तो मुझे भी सालती रही कि आपने कभी भी अपनी प्रेरणा में ‘कवि जी’ यानी ‘वैनगार्ड’ के संपादक सुखबीर विश्‍वकर्मा का जिक्र तक  नहीं किया। ‘कवि जी’ से मुझे तो आपने ही परिचित कराया था। बल्कि कहूं कि देहरादून के लिखने पढ़ने वालों की बिरादरी का हिस्‍सा मैं आपके साथ ही हुआ। वह लघु पत्रिकाओं का दौर था, अतुल शर्मा, नवीन नैथानी, राजेश सकलानी, विश्‍वनाथ आदि और भी कई साथी मिलकर एक हस्‍त लिखित पत्रिका निकाल रहे थे। पतिका का नाम था ‘अंक’। ‘अंक’ का पहला अंक निकल चुका था। दूसरे अंक की तैयारी थी, प्रका‍शन के बाद उसका विमोचन हम लोगों ने सहस्‍त्रधारा में किया था। ‘कवि जी’ को उस रोज मैंने पहली बार देखा था। राजेश सेमवाल जी से भी वहीं पहली बार मुलाकात हुई थी। आपने ही बताया था देहरादून में नयी कविता के माहौल को बनाने वाले सुखबीर विश्‍वकर्मा अकेले शख्‍स रहे। आपके साथ ही मैं न जाने कितनी बार वैनगार्ड गया। मेरे ही सामने आपने नयी लिखी हुई कितनी ही कविताएं वैनगार्ड में छपने को दी। जरूरी हुआ तो ‘कवि जी’ की सलाह पर कविता में आवश्‍यक रद्दोबदल भी कीं। ‘कवि जी’ आपको बेहद प्‍यार करते थे। आप भी उनकी प्रति अथाह स्‍नेह और श्रद्धा से भरे रहे। हिन्‍दी में दलित साहित्‍य नाम की कोई संज्ञा उस वक्‍त नहीं थी। ‘कवि जी’ की कविताओं की मार्फत ही मैं दलित धारा की रचनाओं के कन्‍टेंट को समझ रहा था। आप उनकी व्‍याख्‍या करते थे और मैं सीखने समझने की कोशिश करता था। वरना आपकी कविताओं में जो गुस्‍सा और बदलाव की छटपटाहट मैं देखता था, उससे दलित कविता को समझना मुश्किल हो रहा था। उस समय लिखी जा रही जनवादी और प्रगतिशील कविता से उनका स्‍वर मुझे भिन्‍न नहीं दिखता था। ‘कवि जी’ की कविता का आक्रोश मिथकीय पात्रों को संबोधित होते हुए रहता था। आप ही बताते थे कि मराठी दलित कविता मिथकीय पात्रों की तार्किक व्‍याख्‍याओं से भरी हैं। मराठी कविताएं मैंने पढ़ी नहीं थी। शायद ही ‘कवि जी’ ने भी पढ़ी हों। यह उस समय की बात जब न तो आपने ‘अम्‍मा की झाड़ू’ (शीर्षक शायद मैं भूल न‍हीं कर रहा तो)  लिखी थी, न ‘तब तुम क्‍या करोगे’ लिखी थी और न ही तब तक आपकी कविताओं की वह पुस्तिका प्रकाशित हुई थी, जिसके प्रकाशन की जिम्‍मेदारी देहरादून से प्रकाशित होने वाले कविता फोल्‍डर ‘फिलहाल’ ने उठायी थी। हां, ‘ठाकुर का कुंआ’ उस वक्‍त आपकी सबसे धारदार कविता थी। लेकिन हिन्‍दी कविता की जगर मगर दुनिया और उसके आलोचक तब तक न तो उस कविता से परिचित थे न ही जानते थे कि किसी ओमप्रकाश वाल्‍मीकि नाम के बहुत नामलूम से कवि की कविता ‘ठाकुर का कुंआ’ हिन्‍दी में दलित कविता की आहट पैदा कर चुकी है।

उस वक्‍त आपके मार्फत जिन दो व्‍यक्तियों को मैं जानता था, उसमें एक कवि जी रहे और दूसरे उस समय भारत सरकार के प्रकाशन संस्‍थान के मुखिया श्‍याम सिंह ‘शशि’। श्‍याम सिंह ‘शशि’ जी से मेरी कभी प्रत्‍यक्ष मुलाकात नहीं रही। लेकिन आपके मुंह से अनेक बार उनका नाम सुनते रहने के कारण एक मेरे भीतर उनकी एक आत्‍मीय छवि बनी रही।
#स्‍मृति

Friday, November 17, 2017

चल निगोड़े

मेरी उम्र चालीस के पास पहुंच रही थी उस वक्‍त। आपको ख्‍याल नहीं था। चंदा भाभी को भी ख्‍याल नहीं रहा होगा। मुझे याद नहीं भाभी ने न जाने क्‍या मजाक किया था, आपकी मुस्‍कराहट याद है बस, और याद है वह जवाब जो मैंने उस वक्‍त दिया था। चंदा भाभी नहीं जानती थी कि मैंने वैसा जवाब क्‍यों दिया। आप समझ गए थे पर। आपके चेहरे की मुस्‍कराहट बुझ गयी थी। कही गयी बात को सुनते हुए बोलने वाले के भीतर चल रही प्रक्रिया को जानने का आपमें खूब सलीका था। रंगकर्मी जो थे आप। एक रंगकर्मी की पहचान ही है यह कि वह न सिर्फ अपनी ‘एक्जिट’ और ‘एंट्री’ से अपने पात्र का परिचय दे दे बल्कि अपने पात्र को तैयार करते हुए ऐसे कितने ही लोगों के चलने बोलने, देखने, सुनने, मुस्‍कराने, रुठने जैसे भावों का अध्‍ययन करे। आप जानते थे कि मेरे और आपके बीच वह लम्‍बे समय का अंतरंग साथ कुछ कम हुआ है। ऐसा आपको इसलिए भी लग सकता था कि आपके जबलपुर स्‍थानांतरित हो जाने के बाद हमारा हर वक्‍त का साथ नहीं रहा था। जबकि असल वजह इतनी भर नहीं थी, आप अब पहले वाले आमेप्रकाश वाल्‍मीकि नहीं रहे थे, हिन्‍दी के ‘सुपर स्‍टार’ लेखक हो चुके थे। अपने इर्द गिर्द एक घेरा खड़ा कर लेने वाले लेखक के रूप में जाने जाने लगे थे। अब आपको लौटती हुई रचनाओं के साथ किलसते हुए देखने वाला कोई नहीं हो सकता था। बल्कि आज यहां का बुलावा तो कल वहां के बुलावे पर आपको हर दिन कहीं न कहीं लेक्‍चर देने जाने के जाते हुए देखने पर हतप्रभ होने वाले लोग ही थे। मेरा संबंध तो उस वाल्‍मीकि से नहीं था। मैं तो उस वाल्‍मीकि को जानता था जो मेरा आत्‍मीय ही नहीं, सबसे करीबी मित्र और बड़ा भाई था। अपनी उस फितरत का क्‍या करूं जो महानता को प्राप्‍त हो गये लोगों के साथ मुझे तटस्‍थ रहने को मजबूर कर देती है। तब भी हल्‍के फुल्‍के और थोड़ा मजाकिया लहजे में ही मैंने चंदा भाभी की बात का जवाब दिया था, 
‘’देखो अब मुझे अठारह साल का किशोर न समझो भाभी। आप लोगों से भी ज्‍यादा उम्र हो गई मेरी।‘’

भाभी मेरी बात पर चौंकी थी। चौंके तो आप भी थे। क्‍योंकि वास्‍तविकता तो यही है कि उम्र तो हर व्‍यक्ति समय के सापेक्ष ही बढ़ती है। दरअसल उस वक्‍त मेरे मन एकाएक ख्‍याल उठा था कि हम जब करीब आए थे आपकी उम्र कितनी रही होगी। आपको याद होगा कि कुछ ही देर पहले आपने बताया था कि बस दो साल रह गए रिटायरमेंट के। उस वक्‍त हम मार्च 2009 के अप्रैल की धूप ही तो सेंक रहे थे आपके आवास की बॉलकनी में बैठकर। अपनी बात को स्‍पष्‍ट करते हुए मैंने कहा था, 
‘’अच्‍छा बताओ भाभी जब हम पहली बार मिले थे आपकी उम्र कितनी थी ?’’ 
वे समय का अनुमान लगाते हुए कुछ गिनती सी करने लगीं थीं। आपके मन में भी कोई ख्‍याल तो आया ही होगा। वे जब तक जवाब तक पहुंचती, मैंने उनका रास्‍ता आसान कर देना चाहा था, 
‘’मैं बताता हूं, 37 या 38 के आस-पास ही रही होगी।‘’ 
वे खामोशी से मुझे सुनती रहीं। आप भी। मेरा बोलना जारी था, 
‘’तब बताइये, आज मैं चालीस पूरे करने की ओर हूं... तो हुआ नहीं क्‍या आपसे बड़ा?’’ 
भाभी बहुत जोर से हंसी थी और एक धौल जमाते हुए उन्‍होंने सिर्फ इतना ही कहा था, 
‘’चल निगोड़े’’ 
आपके चेहरे पर बहुत धूमिल सी  मुस्‍कराहट ठहर गई थी। वैसे आप भी जानते होंगे रंगमंच मेरा भी क्षेत्र रहा और मैंने चेहरे की मुद्रा के बावजूद मुस्‍कराहट को मुस्‍कराहट की तरह नहीं पकड़ा था।    

#स्‍मृति

Sunday, December 25, 2011

दलित साहित्य के पुरोहित


        हिन्दी दलित साहित्य में कुछ ऎसी बहस करते रहने की परम्परा विकसित की जा रही है जिसका कोई औचित्य नहीं रह गया है .ये बहसे मराठी दलित साहित्य में खत्म हो चुकी हैं.लेकिन हिन्दी में इसे फिर नये सिरे से उठाया जा रहा है .वह भी मराठी के उन दलित रचना कारों के सन्दर्भ से, जो मराठी में अप्रासंगिक हो चुके हैं.उनकी मान्यताओं को मराठी दलित साहित्य में स्वीकार नहीं किया गया ,उन्हें हिन्दी में उठाने की जद्दोजहद जारी है.मसलन दलित शब्द को लेकर , आत्मकथा को लेकर .मराठी के ज्यादातर चर्चित आत्मकथाकार,रचना कार दलित ,शब्द को आन्दोलन से उपजा क्रांति बोधक शब्द मानते हैं. बाबुराव बागूल. दया पवार,नामदेव ढसाल ,शरणकुमार लिम्बाले, लोकनाथ यशवंत, गंगाधर पानतावणे, वामनराव निम्बालकर, अर्जुन डांगले, राजा ढाले,आदि. इसी तरह आत्मकथा के लिए आत्मकथा शब्द की ही पैरवी करने वालों में वे सभी हैं जिनकी आत्मकथाओं ने साहित्य में एक स्थान निर्मित किया है.चाहे शरण कुमार लिम्बाले (अक्करमाशी),दयापवार (बलूत),बेबी काम्बले (आमच्या जीवन), लक्ष्मण माने ( उपरा), लक्ष्मण गायकवाड (उचल्या), शांताबाई काम्बले ( माझी जन्माची चित्रकथा),प्र.ई.सोनकाम्बले ( आठवणीचे पक्षी),ये वे आत्मकथायें हैं जिन्होंने दलित आन्दोलन को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्मित की. इन आत्मकथाकारों को आत्मकथा शब्द से कोई दिक्कत नहीं है. लेखकों को कोई परेशानी नही हैं.यही स्थिति हिन्दी में भी है. लेकिन हिन्दी में अपेक्षा पत्रिका के  सम्पादक डा. तेज सिंह् को दलित शब्द और आत्मकथा दोनों शब्दों से एतराज है. उपरोक्त सम्पादक को दलित आत्मकथाओं में वर्णित प्रसंग भी काल्पनिक लगते हैं.कभी कभी तो लगता है कि ये सम्पादक महोदय दलित जीवन से परिचित हैं भी या नहीं ?क्योंकि दलित आत्मकथाओं में वर्णित दुख दर्द ,जीवन की विषमतायें,जातिगत दुराग्रह,उत्पीडन की पराकाष्टा,इन महाशय को कल्पनाजन्य लगती हैं..उनके सुर में सुर मिला कर  आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी  को भी आत्मकथाओं के मूल्यांकन में मुश्किलों का सामना करना पड रहा है.वे कहते हैं कि आत्मकथन क्योंकि आपबीती है,जिए हुए अनुभवों का पुनर्लेखन है,इसलिए उनकी प्रामाणिकता का सवाल प्राथमिक हो जाता है..क्या आत्मवृतों (आत्मकथाओं) की प्रमाणिकता जांची जा सकती है? क्या उन्हें जांचा जाना चाहिए? अगर हां तो क्या ये आत्मवृत (आत्मकथा) खुद को जांचे जाने को प्रस्तुत हैं? क्या अभी तक कोई आंतरिक मूल्यांकन प्रणाली विकसित हो पाई है? हम कैसे तय करें कि कोई अनुभव विशेष ,कोई जीवन प्रसंग कितना सच है और कितना अतिरंजित?   (अपेक्षा,जुलाई-दिसम्बर,2010,पृष्ठ-37)
      बजरंग बिहारी तिवारी    के ये सवाल कितने जायज हैं कितने नहीं ? इसे पहले तय कर लिया जाये तो ज्यादा बेहतर होगा. क्योंकि यह सिर्फ लेखक की अभिव्यक्ति पर ही आक्षेप नहीं है,बल्कि इस विधा को भी खारिज करने का षडयंत्र दिखाई दे रहा है.साथ ही यहां एक  ऎसा सवाल भी उठता है कि क्या एक आलोचक लेखक का नियंता हो सकता है? इस सवाल के सन्दर्भ में  कथाकार, सम्पादक  महीप सिंह का यह कथन प्रासंगिक लगता है.

        डा. महीप सिंह  का कहना है कि हिन्दी संसार के दो जातीय गुण हैं- जैसे ही कुछ सफलता और महत्ता प्राप्त करता है,वह एक मठ बनाने लगता है.कानपुर की भाषा में ऎसा  व्यक्ति गुरू कहलाता है.साहित्य क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है.थोडी सी आलोचना शैली ,थोडा सा वक्तृत्व कौशल ,थोडा सा विदेशी साहित्य का अध्ययन ,थोडी सी अपने पद की आभा और थोडी सी चतुराई से इस गुरूता की ओर बढा जा सकता है.कुछ समय में ऎसा व्यक्ति फतवे जारी करने के योग्य हो जाता है.एक दिन वह किसी के अद्वितीय का निकाल कर और किसी के नाम के साथ जोड देता है. ( हिन्दी कहानी : दर्पण और मरीचिका ,हिन्दुस्तानी जबान,,अंक अप्रैल-जून,2011,पृष्ठ- 15)

      बजरंग बिहारी तिवारी के सन्दर्भ में यहां बात की जा रही है, वे सिर्फ इतने भर से ही नहीं रुकते वे और भी गम्भीर आरोप लगाने लगते हैं, .आरोपों की इस दौड में वे बेलागाम घोडे की तरह दौडते नजर आते हैं.वे कहते हैं –‘विमर्श को चटकीला बनाने का दबाव,अपनी वेदना को खास बनाने की इच्छा किन रूपों में प्रतिफलित  होंग़े?


     बजरंग बिहारी तिवारी अपनी अध्ययनशीलता और उद्दरण देने की कला का दबाव बनाते हुए लुडविंग विट्गेंस्टाईन का सन्दर्भ देते हुए अपने तर्क को मजबूत करने की कोशिश करते  हैं.अपने ही पूर्व लेखन और स्थापनाओं को खारिज करने का नाटक करते हैं.. दलित साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा को यह आलोचक एक झटके में धाराशायी करने का आखिरी दांव चलता है .  दलित आत्मकथाओं की बढती लोकप्रियता और सामाजिक प्रतिबद्धता को किस दबाव के तहत नकार ने  की यह् चाल है, यह जानना जरूरी लगने लगता है.वे अपनी गुरूता , जो बडी मेहनत और भाग दौड से हासिल की  है,से आखिर फतवा जारी करने की कोशिश करते हैं एक अर्थ में आत्मकथन अनुर्वर विधा है.वह रचनाकार को खालीपन का एहसास कराती है.अनुभव वस्तुत: रचनात्मकता के कच्चे माल के रूप में होते हैं.....आत्मकथन में रचनात्मक दृष्टि के ,विजन के निर्माण की न्यूनतम गुंजाईश होती है......एक विभ्रम की सृष्टि की आशंका भी इस विधा में मौजूद है. (अपेक्षा,जुलाई-दिसम्बर,2010,पृष्ठ-37)
         यहां बजरंग बिहारी तिवारी तथ्यों का सामान्यीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं.दलित आत्मकथाओं ने समस्त भारतीय भाषाओं में अपनी रचनात्मकता से यह सिद्ध कर दिया है कि आत्मकथा अनुर्वर विधा नहीं है.न ही वह रचनाकार को खालीपन का एहसास ही कराती है .और इस बात को भी ये आत्मकथाएं सिरे से नकारती हैं कि इस विधा में रचनात्मक दृष्टि के विजन की न्यूनतम गुंजाईश है.
      आत्मकथाओं के सन्दर्भ में दया पवार कहते हैं,- वर्तमान समय में मराठी की आस्वाद की प्रक्रिया एक जैसी नहीं है .सांस्कृतिक भिन्नता के कारण आस्वाद प्रक्रिया भी भिन्न भिन्न हो रही है.यह दलित आत्मकथाओं का समय है; जिनकी काफी चर्चा रही है.परंतु इन आत्मकथाओं के मूल में जो सामाजिक विचार है ,उसे सदैव नजर अन्दाज किया जाता है. केवल व्यक्ति और व्यक्तिगत अनुभव इसी बिन्दु के चारों ओर इसकी चर्चा होती है.आगे वे कहते हैं,-दलितों का सफेदपोश पाठक अपने भूतकाल से बेचैन हो गया है.उसे खुद से शर्म महसूस होने लगी है.कचरे के ढेर में से कचरा ही निकलेगा? इस प्रकार के प्रश्न भी उन्होंने उपस्थित किये.वास्तविकता तो यह है कि यह केवल भूतकाल नहीं है.बल्कि आज भी दलितों का एक बडा समुदाय इसी प्रकार का जीवन जी रहा है.दलितों के सफेद पोश वर्ग को इसी की शर्म क्यों आ रही है?वास्तव में संस्कृति के सन्दर्भ में बडी-बडी बातें करने वाली व्यवस्था को इसकी शर्म आनी चाहिए........कुछ लोगों को ये आत्मकथाएं झूठी लगती हैं.सात समुन्दर पार किसी अजनबी देश की आत्मकथाएं,जिस जीवन को उन्होंने कभी देखा नहीं है,उनकी आत्मकथाएं इन्हें सच्ची लगती हैं.परंतु गांव की सीमाओं के बाहर का विश्व कभी दिखाई नहीं देता.इस दृष्टि भ्रम को क्या कहें.(दलितों के आन्दोअलन जब तीव्र होने लगते हैं,तब जन्म लेता है दलित साहित्य ,अस्मितादर्श लेखक-पाठक सम्मेलन सोलापुर,1983)
       अक्सर देखने में आता है कि हिंन्दी आलोचकों की यह कोशिश रहती है कि दलित साहित्य के सामाजिक सरोकारों से इतर मुद्दों  को ज्यादा रेखांकित किया जाये ताकि भटकाव की स्थिति उत्पन्न हो .यह भटकाव कभी अपरिपक्वता के रूप में आरोपित होता है ,तो कभी भाषा की अनगढता के रूप में,तो कभी वैचारिक विचलन के रूप में  आरोपित किया जाता है. कभी विधागत , तो कभी शैलीगत होता है.
       किसी भी आन्दोलन की विकास यात्रा में अनेक पडाव आते हैं.दलित साहित्य के ऎसे आलोचक दलित मुद्दों से हटकर वैश्विकता को ही दलित का सबसे बडा मुद्दा घोषित करने में लग जायें तो इसे क्या कहा जाये? क्या यह असली मुद्दों से बहकाने की साजिश नहीं होगी.क्योंकि ऎसे आलोचक इससे पूर्व भी यह काम बखूबी करने की कोशिश में लगे रहे हैं.लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली.कभी दलित साहित्य में रोमानी रचनाओं की कमी का रोना रोते हैं,तो कभी प्रेम का,तो कभी दलित साहित्य को स्त्री विरोधी कहने में भी पीछे नहीं रहे हैं.उनकी ये घोषणायें नये लेखकों को भरमाने की कोशिश ही कही जायेंगी.क्योंकि हजारों साल का उत्पीडन नये-नये मुखौटे पहन कर साहित्य को भरमाने का काम पहले भी करता रहा है.ये लुभावने और वाक चातुर्य से भरे हुए जरूर लगते हैं,लेकिन इनके दूरगामी परिणाम क्या होंगे इसे जानना जरूरी है.आन्दोलन की इस यात्रा में भी ये पडाव आये हैं.इस लिए यदि नयी पीढी अपनी अस्मिता और संघर्षशील चेतना के साथ दलित  चेतना का विस्तार करती है तो दलित साहित्य की एक नई और विशिष्ट निर्मिति होगी.
      यहां यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि   दलित साहित्य में आत्मकथाओं ने जिस वातावरण का निर्माण किया है.वह् अदभुत है.जिसे चाहे विद्वान आलोचक जो कहें, लेकिन दलित जीवन की विद्रुपताओं को जिस साहस और लेखकीय प्रतिबद्धता के साथ दलित आत्मकथाओं में  प्रस्तुत किया है,वह भारतीय साहित्य में अनोखा प्रयोग है.जिसे प्रारम्भ से ही आलोचक अनदेखा करने की कोशिश करते रहे हैं.क्योंकि आत्मकथाओं ने भारतीय समाज व्यवस्था और संस्कृति की महानता के सारे  दावे खोखले सिद्ध  कर दिये हैं.साथ ही साहित्य में स्थापित पुरोहितवाद,आचार्यवाद् और वर्णवाद की भी जडें खोखली की हैं.साहित्यिक ही नहीं भारतीय संस्कृति की महानता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाये हैं और जिस गुरू की महानता से हिन्दी साहित्य भरा पडा है उसे कटघरे में खडा करने का साहस सिर्फ दलित लेखकों ने किया है जिसे बजरंग बिहारी तिवारी जैसे आलोचक सिरे से नकार कर अपनी विद्वता का परचम लहराकर आचार्यत्व की ओर बढने की कोशिश कर रहे हैं. आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर भी आक्षेप करके पाठकों को दिग्भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं.क्या उनकी साहित्यिक प्रतिबद्धता बदल गयी हैंया गुरूता भाव में लेखक का नियंता बनने की कोशिश की जा रही है?यह शंका जेहन में उभरती है.

       
              यहां मेरा बजरंग जी से सीधा सवाल है, दलित साहित्य स्त्री विरोधी नहीं है.यदि कोई लेखक इस तरह के विचार रखता है तो आप उसे किस बिना पर दलित साहित्य कह रहे हैं ? सिर्फ इस लिए कि वह जन्मना दलित है.मेरे विचार से दलित साहित्य की अंत:चेतना को पुन: देख लें. डा. अम्बेडकर की वैचारिकता में कहीं भी स्त्री विरोध नहीं है. और दलित साहित्य अम्बेडकर विचार से ऊर्जा ग्रहण करता है. जिसे सभी दलित  रचनाकारों ने, चाहे वे मराठी के हों या गुजराती ,कन्नड,तेलुगु या अन्य किसी भाषा के .यदि कोई जन्मना दलित स्त्री विरोधी है और जाति व्यवस्था में भी विश्वास रखता है,तो आप उसे एक दलित लेखक किस आधार पर कह रहे हैं? यह दलित साहित्य की समस्या नहीं है,यहा तो उस मानसिकता की समस्या है जो आप  जैसे आचार्य   विकसित  कर रहे .       
     समाज में स्थापित भेदभाव की जडें गहरी करने में साहित्य का बहुत बडा योगदान रहा है.जिसे अनदेखा करते रहने की हिन्दी आलोचकों की विवशता है.और उसे महिमा मण्डित करते जाने को अभिशप्त हैं.ऎसी स्थितियों में दलित आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाने की एक सोची समझी चाल है.बल्कि यह साहित्यिक आलोचना में स्थापित पुरोहितवाद है जो साहित्य में कुंडली मारकर बैठा है.हिन्दी साहित्य को यदि लोकतांत्रिक छवि निर्मित करनी है तो इस पुरोहितवाद और गुरूडम से बाहर निकलना ही होगा. यदि वह ऎसा नहीं करता है तो उस पर यह आरोप तो लगते ही रहेंगे कि हिन्दी साहित्य आज भी ब्राह्मणवादी मानसिकता से भरा हुआ है.अपने सामंती स्वरूप को स्थापित करते रहने का मोह पाले हुए है.
  
● ओम प्रकाश वाल्मीकि
 09412319034  

 

Wednesday, May 18, 2011

स्याह रात में चमकता जुगनू- जैसे उग आया अंधेरे के बीच एक सूरज


हिन्दी में दलित धारा के मूल्यांकन को लेकर एक बहस लगातार जारी है। क्षेत्रवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, लिंगभेद और अन्य गैर-प्रगतिशील मूल्यों के विरोध के साथ अम्बेडकर के विचार से पोषित हिन्दी की दलित धारा किसी भी जनवादी संघर्ष के साथ कदम दर कदम बढ़ाते हुए है।  साम्राज्यवादी पूंजी की मुखालफ़त और आवाम की खुशहाली का स्वप्न उसकी संवेदनाओं का हिस्सा है। ऎसे तमाम मसलों से टकराते हुए और एक स्पष्ट पक्षधरता की वकालत के साथ, अपनी उपस्थित के एक बहुत छोटे से अंतराल में ही, हिन्दी दलित धारा ने आलोचना के क्षेत्र को भी प्रभावित किया है। विधाओं के तमाम क्षेत्रों में दलित धारा के रचनाकारों की आवाजाही कोई आनायास नहीं है।
ओम प्रकाश वाल्मीकि मूलतः कवि हैं लेकिन कविता, कहानी, नाटक, आलोचना आदि के बीच उनके लगातार हस्तक्षेप से हिन्दी का पाठक जगत अपरिचित नहीं है। सदियों का संताप उनकी पहली काव्य पुस्तिका है, जिसने बिना ज्यादा शौर मचाए हिन्दी में दलित धारा की पदचाप को स्वर दिया है। बेशक उस पुस्तिका का प्रकाशन एक छोटे से शहर के बेहद अनजान  प्रकाशन से हुआ और प्रकाशन के वक्त हिन्दी में दलित धारा की किंचित अनुपस्थिति के चलते काव्य पुस्तिका में दलित धारा को दर्ज करने का एक संकोच रहा पर कथ्य के लिहाज से देख सकते हैं कि उन रचनाओं की काव्य संवेदना तत्कालीन हिन्दी की कविताओं से कुछ भिन्न स्वर के साथ हैं-
यदि तुम्हें,
धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाये
पानी तक न लेने दिया जाये कुंए से
दुतकारा-फटकारा जाये
चिलचिलाती दुपहर में
कहा जाये तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाये खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे।
हाल में ही लिखी कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि की कुछ अन्य कविताओं यहां प्रस्तुत है। इन कविताओं पर अलग से बातचीत हो,  पाठकों से अनुरोध एवं अपेक्षा है कि वे हिस्सेदारी करें।










opvalmiki@gmail.com
०९४१२३१९०३४

शब्द झूठ नहीं बोलते

मेरा विश्वास है
तुम्हारी तमाम कोशिशों के बाद भी
शब्द जिन्दा रहेंगे
समय की सीढियों पर
अपने पांव के निशान
गोदने के लिए
बदल देने के लिए
हवाओं का रुख

स्वर्णमंडित सिंहासन पर
आध्यात्मिक प्रवचनों में
या फिर संसद के गलियारॉं में
अखबारों की बदलती प्रतिबद्धताओं में
टीवी और सिनेमा की कल्पनाओं में
कसमसाता शब्द
जब आयेगा बाहर
मुक्त होकर
सुनाई पडेंगे असंख्य धमाके
विखण्डित होकर
फिर –फिर जुडने के

बंद कमरों में भले ही
न सुनाई पडे
शब्द के चारों ओर कसी
सांकल के टूटने की आवाज़

खेत –खलिहान
कच्चे घर
बाढ में डूबती फसलें
आत्महत्या करते किसान
उत्पीडित जनों की सिसकियों में
फिर भी शब्द की चीख
गूंजती रहती है हर वक्त

गहरी नींद में सोए
अलसाये भी जाग जाते हैं
जब शब्द आग बनकर
उतरता है उनकी सांसों में

मौज-मस्ती में डूबे लोग
सहम जाते हैं

थके हारे मजदूरों की फुसफुसाहटों में
बामन की दुत्कार सहते
दो घूंट पानी के लिए मिन्नते करते
पीडितजनों की आह में
जिन्दा रहते हैं शब्द
जो कभी नहीं मरते
खडे रहते हैं
सच को सच कहने के लिए

क्योंकि,
शब्द कभी झूठ नहीं बोलते !
4 मई,2011



 जुगनू


स्याह रात में
चमकता जुगनू
जैसे उग आया
अंधेरे के बीच
एक सूरज

जुगनू अपनी पीठ के नीचे
लटकाये घूमता है
एक रोशनी का लट्टू
अंधेरे मे भटकते
जरूरतमंदों को राह दिखाने के लिए

जुगनू की यह छोटी सी चमक भी
कितनी बडी होती है
निपट अंधेरे में

जिसके होने का सही-सही अर्थ
जानते हैं वे
जो अंधेरे की दुनिया में
पडे हैं सदियों से

जिनका जन्म लेना
और मरना
एक जैसा है

जिंनके पुरखे छोड जाते हैं
विरासत में
अंधेरे की गुलामगिरि

रोशनी के खरीदार
एक दिन छीन लेंगे जुगनू से

उसकी यह छोटी - सी चमक भी
बंद कर लेंगे तिजोरी में
जो बेची जायेगी बाजार में
ऊंचे दामों पर
संस्कृति का लोगो चिपका कर !



29.04.2011




अंधेरे में शब्द

रात गहरी और काली है
अकालग्रस्त त्रासदी जैसी

जहां हजारों शब्द दफन हैं
इतने गहरे
कि उनकी सिसकियां भी
सुनाई नहीं देती


समय के चक्रवात से भयभीत होकर
मृत शब्द को पुनर्जीवित करने की
तमाम कोशिशें
हो जायेंगी नाकाम
जिसे नहीं पहचान पायेगी
समय की आवाज़ भी

ऊंची आवाज में मुनादी करने वाले भी
अब चुप हो गये हैं
’गोद में बच्चा
गांव में ढिंढोरा’
मुहावरा भी अब
अर्थ खो चुका है

पुरानी पड गयी है
ढोल की धमक भी

पर्वत कन्दराओं की भीत पर
उकेरे शब्द भी
अब सिर्फ
रेखाएं भर हैं

जिन्हें चिन्हित करना
तुम्हारे लिए वैसा ही है
जैसा ‘काला अक्षर भैंस बराबर’
भयभीत शब्द ने मरने से पहले
किया था आर्तनाद
जिसे न तुम सुन सके
न तुम्हारा व्याकरण ही


कविता में अब कोई
ऎसा छन्द नहीं है
जो बयान कर सके
दहकते शब्द की तपिश

बस, कुछ उच्छवास हैं
जो शब्दों के अंधेरों से
निकल कर आये हैं
शुन्यता पाटने के लिए !

3 मई,2011

Friday, March 11, 2011

• प्रेमचन्द और दलित समस्या

हिन्दी भाषी भौगोलिक क्षेत्र में दलित राजनीति का उभार और हिन्दी साहित्य में दलित धारा का उदय का आरम्भिक काल लगभग एक समान आक्रामकता का चरण कहा जा सकता है। राजनीति में तिलक, तराजू और--- की गूंज तो सत्ता की चौहदी के लिए बेशक चरदार गलियों में गलबहियां डालने को मजबूर हो गई पर संवेदनाओं के गहरे दंश को अपने लेखन का हिस्सा बनाने वाले रचनाकारों ने अपने संशयों से मुक्ति की रचना के साथ एक ठोस वैचारिक जमीन को आधार बनाया है और साहित्य के मूल्यांकन के कुछ ऐसे मानदण्डों को खड़ा करने का लगातार प्रयास किया है जिसकी रोशनी में भारतीय समाज व्यवस्था के सामंति ढांचे में बहुत भीतर तक पैठी हुई मानसिकता उदघाटित होती हुई है। हाल में जनसत्ता में प्रकाशित दलित धारा के चिंतक, रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि का आलेख जो कथादेश मासिक फरवरी में प्रकाशित आलोचक चमन लाल के आलेख के प्रत्युत्तर में है, उसकी एक बानगी कहा जा सकता है। कथाकार प्रेमचंद की रचनाओं के मूल्यांकन के सवाल पर यह आलेख दलित धारा के चिंतन के उस दृष्टिकोण को सामने रखता है जिससे एक बहस जन्म ले रही है। दलित धारा के साहित्य के शुरुआती समय में जो बहस कफन कहानी को लेकर समकालीन जनमत से शुरू हुई थी बिल्कुल एक अलग ही अंदाज में आज दुबारा जिन्दा होती हुई है। कथाकार और कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि का मूल आलेख बिना किसी भी तरह के संपादन के साथ यहां इसी उद्देश्य से प्रकाशित किया जा रहा है कि एक स्वस्थ बहस आकार ले। अपनी प्रतिक्रिया तो मैं अवश्य ही लिखूंगा, चाहता हूं कि इस ब्लाग के सचेत पाठक और जिम्मेदार लेख कइस बहस को आगे बढ़ाये। अपनी प्रतिक्रियाओं के टिप्पणी के अलावा विस्तार से भी मेल कर सकते हैं- vggaurvijay@gmail.com

वि.गौ.
प्रेमचन्द ने अछूत समस्या पर जो भी लिखा ,उसे लेकर हिन्दी साहित्य में दो विपरीत ध्रुव निर्मित हो चुके है.हाल ही में कथादेश (फरवरी,2011) के अंक मे चमनलाल का आलेख ‘प्रेमचन्द साहित्य में दलित विमर्श ‘के द्वारा उस विभेद को और ज्यादा पुख्ता करने की कोशिश की गयी है.
क्या दलित रचनाकारोँ को अपना स्वतंत्र –मत निर्मित्त करना साहित्य – विमर्श में गैर जरूरी है? क्या प्रेमचन्द का साहित्य भी धार्मिक –साहित्य की श्रेणी में स्थापित कर दिया गया है, कि उसकी आलोचना नहीं की जा सकती ? जिससे कुछ लोगों की धार्मिक भावंना को ठेस लगती है.
अपने आलेख के प्रारम्भ मे ही बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के हवाले से चमनलाल जी प्रेमचन्द के विरुद्ध बोलने वालों को चेतावनी देते है- ‘प्रेमचन्द के निन्दक मारे जायेंगे ,लेकिन प्रेमचन्द जीवित रहेंगे ,’चमन लाल जी की दृष्टि मे दलितों द्वारा प्रेमचन्द पर उठाये गये सवाल अतिवादी दृष्टि कोण है.साहित्य आलोचना और विमर्श के लिए जो स्पेस होता है ,उसे अतिवादी दृष्टिकोण कहकर खारिज करना ,क्या साहित्य की मूल भावना और उसके सामाजिक उत्तरदायित्व के पक्ष में जाता है? क्या दलित रचनाकारोँ को अपना स्वतंत्र –मत निर्मित्त करना साहित्य – विमर्श में गैर जरूरी है? क्या प्रेमचन्द का साहित्य भी धार्मिक –साहित्य की श्रेणी में स्थापित कर दिया गया है, कि उसकी आलोचना नहीं की जा सकती ? जिससे कुछ लोगों की धार्मिक भावंना को ठेस लगती है. बेहतर होगा प्रेमचन्द को धार्मिक आडम्बरों से मुक्त रखा जाये .आज यदि प्रेमचन्द जिन्दा हैं तो उन निरंतर और नयी –नयी आयामो से होने वाली चर्चा के कारण. बिना चर्चा के किसी भी रचनाकार की श्रेष्ठ रचनायें भी समय के गर्त में खो जाती हैं. उन्हें भूला दिया जाता है.किसी आलोचक ने यदि कोई स्थापना दे दी तो क्या आने वाली पीढ़ी को भी उस स्थापना को आँख मूँद कर मानते रहना चाहिए ?क्या यह प्रवृत्ति साहित्य के कालजयी होने के पक्ष में जाती है? ‌‌‌
प्रेमचन्द की अछूत-समस्याओं के सन्दर्भ में ,जो शंकाये और विचार दलित लेखकों के मन मे उठे ,उन्हें बेबाकी से रखा गया .जिसमें प्रेमचन्द की निन्दा करना ध्येय नहीं रहा ,बल्कि दलित दृष्टिकोण से तथ्यों को परखने की कोशिश की गयी .इस कोशिश को ‘अतिवादी’ कह कर खारिज करने वालो की वाणी और सोच पर अंकुश लगाने की न तो दलित लेखको की कोई मंशा रही है,न जिद्द .अपने पूर्व साहित्यकारो के कृतित्व ,उनकी प्रतिबद्धता ,उनके सामाजिक दायित्व और उनके जीवन अनुभवो को जानना,समझना यदि साहित्यिक दृष्टि से गलत है,तो यह गलती दलित लेखको ने की है,अपनी सामाजिक चेतना और दायित्व के निर्वाह के लिए .क्योंकि साहित्य ही एक माध्यम है ,मानवीय संवेदनाओँ और सरोकारो को जानने का.
73-74 वर्ष पूर्व प्रेमचन्द ने ‘क़फन ’ कहानी लिखी थी,जो मूल उर्दू मे थी.हिन्दी में यह कहानी बाद मे छपी.हिन्दी आलोचको ,विद्वानो ने इस कहानी को कला,शिल्प और विचार की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ कहानी कहा. तब से और आज तक यही भाव साहित्य मे मान्य रहा है.लेकिन हिन्दी मे दलित साहित्य के उभरने के साथ –साथ इस कहानी पर सवाल उठने लगे ,तो हाय तौबा मच गयी......’अब प्रेमचन्द दलित विरोधी हो गये ...जैसे शीर्षक छपने लगे.और साहित्य मे एक अजीब तरह का वातावरण निर्मित करने की कोशिशे शुरू हो गयी .कई प्रतिष्ष्ठित आलोचको ने यह भी कहने मे गुरेज नहीं किया – दलित लेखक प्रेमचन्द से अच्छा लिख कर दिखाएँ ...यानि प्रेमचन्द रूपी लाठी से दलित लेखको को डराया –धमकाया जाने लगा.जैसे दलित लेखक उनके अहम और वर्चस्व को खंडित करने ,उनके आरक्षित क्षेत्र मे घुसपैठ करने की कोशिश कर रहे थे.लेकिन विद्वानो ने दलित पक्ष को जानने ,समझने का प्रयास ही नही किया .क्योंकि यह उनके संस्कारो के विरुद्ध है. उन्हें सिखाने की आदत है ,सीखने की नहीं.
दलित का कोई वैचारिक पक्ष भी हो सकता है ,यह सच्चाई गले नहीं उतर रही है.ऎसे ही विद्वानों ने ‘क़फन’ को दलित पक्षधरता की कहानी सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क गढ लिए थे.और इस कहानी को पाठ्यक्रमो में ससम्मान शामिल करते रहे हैं .शिक्षक भी उन्ही तर्कों के सहारे भाव विभोर होकर इस कहानी को संवेदनशील (?) कह कर छात्रों के भीतर उतारते रहे हैं.यह वह समय था, जब हिन्दी में कुछ खास प्रवृत्ति और संस्कारों के लेखकों ,आलोचकों ,शिक्षा-तंत्र से जुडे विद्वानो क वर्चस्व था. लेकिन गत शताब्दी के उत्तरार्द्ध् में स्थिति बदल गयी. इस कहानी की संवेदना ,श्रेष्ठता ,शिल्प ,गठन ,और दलित पक्षधरता पर सवाल उठने लगे. यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि हिन्दी साहित्य प्रारम्भ से ही सनातनी मूल्यों का ध्वजवाहक रहा है.’क़फन ‘ कहानी इन ध्वजवाहकों ,जिनमे मार्क्सवादी आलोचक भी काफी मात्रा मे हैं, की दृष्टि मे यह कहानी कलात्मक हो सकती है,संवेदनशील भी हो सकती है.क्योंकि साहित्य के सृजन और विश्लेषण मे संस्कारों का बहुत बड़ा हाथ होता है.लेकिन जब दलित चेतना और अस्मिता के साथ इस कहानी को जोड़कर देखने के प्रयास होते हैं ,तब ‘अर्थ’ और ‘आशय’ बदलने लगते हैं. यहाँ यह कहना भी असंगत नहीं होगा कि भारतीय समाज में हज़ारों साल से शूद्र ,अंत्यज,अस्पृश्यों, चाण्डाल् ,डोम आदि के प्रति घृणा की भावना को आदर्श रूप में नैसर्गिकता के साथ स्वीकार किया जाता रहा है.जो आज भी पूर्वाग्रहों के रूप में मौजूद है.हिन्दू समाज मे मौजूद इन पूर्वाग्रहों को यह कहानी अपने पूरे सरोकारो के साथ सुदृढ करती है. इसी लिए संस्कारी मन को यह कहानी संवेदनशील लगती है.लेकिन जब एक दलित अपनी चेतना और अस्मिता के साथ इस कहानी को पढ़ता है ,तो उसे यह कहानी वैसी नहीं लगती जैसी नामवर सिह ,परमानन्द श्रीवास्तव ,काशीनाथ सिह,विश्वनाथ त्रिपाठी ,राजेन्द्र यादव, पी.एन.सिह, बच्चन सिह ,चमन लाल ......आदि को लगती है.
प्रेमचन्द ने अछूत –समस्या पर विपुल साहित्य रचा है.नि:सन्देह ,यह सही भी है, इस समस्या पर उनसे ज्यादा किसी प्रतिष्ठित स्थापित लेखक ने नहीं लिखा .
दलित लेखको ने इस कहानी को लेकर जो सवाल उठाये हैं, उनके उत्तर देना चमनलाल जी को जरूरी नहीं लगा .अपने आलेख में भरपूर उद्धरणो के द्वारा यही सिद्ध करते हैं कि प्रेमचन्द ने अछूत –समस्या पर विपुल साहित्य रचा है.नि:सन्देह ,यह सही भी है, इस समस्या पर उनसे ज्यादा किसी प्रतिष्ठित स्थापित लेखक ने नहीं लिखा . उन्होंने वैचारिक लेख ,टिप्पणियाँ ,सम्पादकीय ,कहानी उपन्यास अछूत – समस्या पर लिखे.उनकी सहानुभूति किसान,मजदूर और अछूतों के साथ थी.लेकिन जब उनके ही जीवन काल में एक निर्णायक मोड़ आया तो स्थितियाँ बदल गयी .प्रेमचन्द ही नहीं ,तमाम पारम्परिक स्थापित लेखक ,प्रगतिशील,जनवादी,मार्क्सवादी ,कहे जाने वाले रचनाकारों ,आलोचकों ,विद्वानों की भी,ऎसे निर्णायक मोड आते ही, भूमिकाएँ और प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं. उस वक्त दलित उनकी प्राथमिकता से बाहर हो जाता है.यह पहले भी हुआ है और आज भी जारी है.
प्रेमचन्द के सामने भी ऎसा ही एक निर्णायक मोड़ आया था.जब दलितों ने सामाजिक वैमनस्य ,उत्पीडन ,शोषण ,और मौलिक अधिकारों से वंचित ,त्रस्त होकर डा. अम्बेडकर के नेतृत्व में ‘प्रथक –निर्वाचन’ की मांग रखी थी.जो उनके हज़ारों साल की दासता से मुक्त होने का सवाल था.यह निर्णायक मोड गाँधी जी को स्वीकार्य नहीं था, क्योंकि गाँधी जी की दृष्टि में यह हिन्दू धर्म के लिए खतरा था.इसी मुद्दे पर गाँधी जी गोलमेज –कांफ्रेंस से निराश और दुखी होकर लौटे थे. क्योंकि डा. अम्बेडकर ने यह ‘दलित –मुक्ति’ का सवाल अंतराष्ट्रीय मंच से उठाया था.इसी लिए गाँधी जी के लिए यह जीवन-मरण का सवाल बन गया था.और गाँधीजी ने भूख हड़ताल करके डा.अम्बेडकर पर दबाव बनाया कि वे इस सवाल और मांग को वापस लें. गाँधी जी इस में सफल रहे थे.पूना-पैक्ट के रूप में डा. अम्बेडकर को झुकना पडा. एक तरफा समझौता डा. अम्बेडकर की हार थी. ऎसे वक्त में प्रेमचन्द की भूमिका को भी जान लेना जरूरी है,कि इस निरणायक मोड पर वे किस ओर खडे़ थे.
‘प्रथक – निर्वाचन’ की मांग का मुद्दा गाँधी जी के लिए नैतिक और धार्मिक था.जबकि डा.अम्बेडकर के लिए ‘दलित –मुक्ति‘ और लोकतांत्रिक अधिकार पाने का सवाल था.प्रेमचन्द इस मुद्दे को गाँधी जी की दृष्टि से धार्मिक और राष्ट्रीय मान रहे थे.प्रेमचन्द भी दलितों की इस मांग को शंका की दृष्टि से ही देख रहे थे. यानि धर्म और राष्ट्र भी शोषितो .पीड़ितों की लाशों से ही फलते –फूलते हैं.’पूना –पैक्ट’ के बाद जहाँ डा.अम्बेडकर और दलितों में घोर निराशा थी,वहीं प्रेमचन्द इसे ‘राष्ट्रीयता की विजय ‘ कहकर ,इसी शीर्षक से 26,अक्टु,1932 ,के जागरण में सम्पादकीय लिख रहे थे- ‘.... शत्रू ने लक्ष्य भी उसी स्थान पर किया था ,जो कमजोर है,लेकिन गाँधी जी की तपस्या ने पासा पलट दिया और न जाने कितनी देवी शक्ति लेकर सामने आ गयी और शत्रूओं से घिरी हुई राष्ट्रीयता अपने मोरचे से निकल कर साम्प्रदायिकता का सहार कर रही है....’
‘प्रथक – निर्वाचन’ की मांग का मुद्दा गाँधी जी के लिए नैतिक और धार्मिक था.जबकि डा.अम्बेडकर के लिए ‘दलित –मुक्ति‘ और लोकतांत्रिक अधिकार पाने का सवाल था.प्रेमचन्द इस मुद्दे को गाँधी जी की दृष्टि से धार्मिक और राष्ट्रीय मान रहे थे.प्रेमचन्द भी दलितों की इस मांग को शंका की दृष्टि से ही देख रहे थे. यानि धर्म और राष्ट्र भी शोषितो .पीड़ितों की लाशों से ही फलते –फूलते हैं.’पूना –पैक्ट’ के बाद जहाँ डा.अम्बेडकर और दलितों में घोर निराशा थी,वहीं प्रेमचन्द इसे ‘राष्ट्रीयता की विजय ‘ कहकर ,इसी शीर्षक से 26,अक्टु,1932 ,के जागरण में सम्पादकीय लिख रहे थे- ‘.... शत्रू ने लक्ष्य भी उसी स्थान पर किया था ,जो कमजोर है,लेकिन गाँधी जी की तपस्या ने पासा पलट दिया और न जाने कितनी देवी शक्ति लेकर सामने आ गयी और शत्रूओं से घिरी हुई राष्ट्रीयता अपने मोरचे से निकल कर साम्प्रदायिकता का सहार कर रही है....’
यानि दलितों का हजारो साल की दासता से मुक्ति का संघर्ष प्रेमचन्द की दृष्टि में साम्प्रदायिक था,जिससे देश को दैविक शक्तियों ने बचाया .प्रेमचन्द की यह भूमिका और निर्णायक मोड पर आते ही अछूत – सहानुभूति अपना पाला बदल लेती है.’हंस’ के मुखपृष्ठ पर बाबा साहेब का चित्र तो छापते हैं,लेकिन उनकी प्राथमिकता में दलित पक्ष की जगह गाँधी जी का पक्ष ज्यादा महात्त्वपूर्ण था.जो पूना-पैक्ट के रूप में दलितों के हितों के खिलाफ ही गया.यह ऎतिहासिक सच्चाई है.और प्रेमचन्द उस वक्त भी डा.अम्बेडकर को शंका की दृष्टि से ही देख रहे थे.इस तथ्य को चमन लाल भी स्वीकार करते हैं- ‘..... दलित प्रश्न पर अधिक विचार मिलते हैं और ये विचार गाँधी और गाँधीवाद से प्रभावित हैं.’
अपने लेख में चमन लाल लिखते हैं – ‘..........पहली बार एक दलित को उपन्यास का नायक बनाने का सराहनीय समझा गया ,लेकिन उपन्यास छपने के अस्सी वर्ष बाद दलित नायकत्व स्थापित करने वाले उपन्यास को इस आधार पर ‘दलित विरोधी .कहा गया कि सूरदास क उल्लेख ‘जातिवाचक ‘नाम से किया गया है....” चमन लाल ही नहीं हिन्दी के स्वमनाम धन्य आलोचक इस बात से तो गदगद हैं कि एक दलित को नायकत्व प्रदान किया गया और अस्सी वर्षों तक इस नायकत्व पर किसी ने उंगली नहीं उठाई.लेकिन यह भूल जाते हैं कि उंगली उठाने वालों के हाथ में कलम कहाँ थी.और यदि थी भी तो उन्हें छापा नहीं जाता था.दूसरे प्रेमचन्द ने एक अछूत को नायकत्व प्रदान किया.लेकिन किस रूप में ?उस नायक के आदर्श क्या हैं ?एक दलित जो पैदा होते ही ‘जाति- उत्पीडन क दंश झेलते हुए बड़ा होता है,और घृणा के प्रति उसके मन में कहीं कोई प्रतिक्रिया न हो ,क्या यह सम्भव है?वहाँ कहीं कोई विरोध ,उस दंश की कोई छाया ,कोई अक्स, दिखाई नहीं पडता .उस पीडा ,दर्द को कहीँ किसी भी रूप में अभिव्यक्त नहीं करता ? हजारों साल के इस उत्पीडन पर यदि नायक चुप है,तो उस नायक के जीवन का उद्देश्य क्या है?नायक चेतना विहीन क्यों है?समाज ,धर्म ,व्यवस्था के प्रति उस नायक को कोई शिकवा नहीं ,कोई शिकायत नहीं ,ऎसे नायक पर गर्व किया जाये य उस पर शंर्मिन्दा हों ?सूरदास गाँधी जी के आदर्शों पर चलने वाला ‘दलित’ नहीं एक ‘हरिजन’ है.उसका सत्याग्रह भी गाँधी वादी आदर्शों की प्रतिछाया है. जबकि उस दौर में ,जब ‘रंगभूमि ‘उपन्यास ‘लिखा गया, डा. अम्बेडकर का ‘मुक्ति- आन्दोलन’समाज में चेतना पैदा कर रहा था.उ.प्र.में अछूतानन्द का आन्दोलन जारी था.पंजाब में मंगूराम ने अपने तरीके से दलितों को जागरुक करने का अभियान चलाया था.लेकिन प्रेमचन्द इन सभी आन्दोलनों को अनदेखा करके सिर्फ गाँधी जी के ‘अछूतोद्धार’ की सीमाओं में नायकत्व खड़ा कर रहे थे. इसी लिए सूरदास में दलित चेतना की शुन्यता है.
यही स्थिति ‘कफन’ कहानी की भी है.हजारों साल से हिन्दू समाज दलितों के प्रति नकारात्मक सोच रखता आ रहा है.यह सोच साहित्य के माध्यम से भी प्रचारित की गयी.और समाज में श्रेष्ठता भाव के साथ दलितों को दीन- हीन बनाने की मुहिम चलाई गयी.उनके लिए असभ्य,उज्जड,नीच,कमीन,ढेड,गंवार,निकम्मे,जाहिल जैसे शब्दों का प्रचलन जारी रहा है. बडे से बडे रचनाकारों आलोचकों ,विद्वानों ने इन शब्दों का प्रयोग दलितों के सन्दर्भ में किया है.दलित जातियों को गाली की तरह प्रयोग् करने की परम्परा आज भी समाज में मौजूद है.यही नकारात्मकता प्रेमचन्द के पात्रों ‘घीसू – माधो’ में भरपूर मात्रा में दिखाई देती है.जिसे प्रेमचन्द ने कुशलता से स्थापित किया है.यहाँ ‘कफन’ के शिल्प और संरचनात्मकता की बात नहीं कर रहे हैं .केवल ‘आशय’ की बात कर रहे हैं.क्योंकि चमन लाल जी के आलेख का केन्द्र बिन्दु भी यही है.
अक्सर ‘गोदान’ के मातादीन – सिलिया प्रसंग को आलोचक बहुत ऊंचे स्वर में रेखांकित करते हैं.इसी प्रसंग में प्रेमचन्द के अंतिम निष्कर्ष को भी देख लें .मातादीन और सिलिया का प्रेम-प्रकरण वियोगात्मक नहीं है.प्रेमचन्द उन दोनों के बीच होने वाले संवाद के जरिये बहुत कुछ ऎसा कहते हैं जिसे आलोचक अनदेखा करते रहे हैं –
‘......मैं डर रही हूँ,गांव वाले क्या कहेंगे ...’ ’जो भले आदमी हैं ,वह कहेंगे ,यही इसका धर्म था.जो बुरे हैं ,उनकी मैं परवाह नहीं करता.’ ’और तुम्हारा खाना कौन पकायेगा ?’ ’मेरी रानी ,सिलिया.’ ’तो ब्राह्मण कैसे रहोगे ?’ ’मैं ब्राह्मण नहीं ,चमार रहना चाहता हूँ .जो धरम का पालन करे ,वही ब्राह्मण ,जो धरम से मुँह मोडे़ ,वही चमार.’
सिलिया ने उसके गले में बाँहे डाल दी.( गोदान ,पृष्ठ -288-89 )
क्या प्रेमचन्द की उपरोक्त परिभाषा पूर्वाग्रहों पर आधारित नहीं है?इसी प्रकार के विरोधाभास प्रेमचन्द की अन्य रचनाओं में भी दिखाई देते हैं.मातादीन जिसके पूर्णत: बदल जाने का उल्लेख प्रेमचन्द करते हैं,उसके संवाद में श्रेष्ठता भाव जड़ जमाये बैठा है.मातादीन किस धर्म के पालन की बात कर रहा है,जो दलित का कभी हुआ ही नहीं.क्या एक चमार के लिए भी वह उतना ही स्वीकार्य है या नहीं ,इस बिन्दु पर प्रेमचन्द जैसे महान लेखक ने विचार करना क्यों जरूरी नहीं समझा ?क्या यह कथन् मानवीय गरिमा के अनुकूल है? इस वाक्य को जब एक चमार पढ़ता है ,तो क्या वह हीनता बोध का शिकार नहीं होगा ? यहाँ यह भी बताना जरूरी है कि ‘गोदान’ का रचनाकाल 1936 ई.है.प्रगतिशील् लेखक संघ अस्तित्व में आ चुका था.अम्बेडकर – आन्दोलन राष्ट्रीय पहचान बना चुका था.पूना- पैक्ट पर हस्ताक्षर हो चुके थे .उस दौर में प्रेमचन्द की यह टिप्पणी – जो धरम का पालन करे ,वही ब्राह्मण ,जो धरम से मुँह मोडे ,वही चमार.’, गले नहीं उतरती.चमनलाल जी विद्वान हैं ,किसी भी तर्क से प्रेमचन्द को सही सिद्ध कर सकते हैं.लेकिन एक दलित होने के नाते मुझे यह टिप्पणी पूर्वाग्रह से परिपूर्ण लगती है. यहाँ यह कहना भी जरूरी लगता है कि किसी भी रचना का मूल्यांकन ,विश्लेषण ,बौद्धिक शब्दजाल या आख्यान भर नहीं होता.इससे परे भी कुछ अर्थ होते हैं .जिनके सामाजिक सरोकार होते हैं.प्रेमचन्द की रचनाओं को एक दलित ठीक उसी तरह स्वीकार करे ,जैसे गैर दलित उन्हें समझा रहे हैं .क्या परिवेशगत ,पारिवारिक संस्कारों की मनुष्य की सामाजिक चेतना के निर्माण में कोई भूमिका नहीं होती?क्या उन समीक्षकों ,विद्वानों की स्थापनाओँ को आँख मूँद कर स्वीकार कर लेना चाहिए ,जो मंचो ,सभा गोष्ठियों में मार्क्सवादी हैं और घर की देहरी पर कट्टर सामंतवादी,ब्राह्मणवादी संस्कारो से लैस हैं ? जो वर्ण और जाति के समर्थक बने हुए हैं ? ऎसे लोगो को प्रेमचन्द के लेखन में अंतर्विरोध दिखाई नहीं देते हैं.क्योंकि उनके लिए यह सहज और सामान्य है.

Friday, August 13, 2010

सफाई देवता कोई इतिहास पुस्तक नहीं

’’सफाई देवता’’ कोई इतिहास पुस्तक नहीं है। पर दलित विमर्श के साथ इतिहास में हस्तक्षेप करने की कोशिश इसमें साफ दिखायी देती है।

इतिहास की प्रचलित मान्यताओं पर समकालीन दलित धारा क्या दृष्टिकोण रखती है, इसके संकेत तो पुस्तक से मिलते ही हैं। यह संयोग ही है कि भारतीय दलित धारा के विद्धान कांचा ऐलय्या की पुस्तक ’’व्हाई आई एम नाॅट हिन्दू’’ का हिन्दी अनुवाद भी ओम प्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक सफाई देवता के साथ ही आया है। इस पुस्तक का अनुवाद भी ओम प्रकाश वाल्मीकि ने ही किया है। बेशक दोनों पुस्तकों का एक साथ प्रकाशन संयोग हो पर यह संयोग नहीं है कि ओम प्रकाश वाल्मीकि सफाई देवता भी लिखें और कांचा ऐलयया का अनुवाद भी करें। इसीलिए सफाई देवता को इतिहास के बजाय इतिहास में हस्तक्षेप करती दलित धारा की उपस्थिति के रुप में ही देखा जाना चाहिए।

एक बात स्पष्ट है कि समाज का वह तबका, वर्षों की गुलामी झेलते-झेलते, जो अब गुलामी के जुए को उतार फेंकना चाहता है, एक सुन्दर भविष्य की कामना के लिए तत्पर हुआ है। ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों की पड़ताल करते हुए मेहनतकश््रा आवाम के जीवन की अस्मिता का प्रश्न उसको उद्ववेलित किये है। अभी तक प्रकाश में आये दलित धारा के साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि भाषा और शैली के लिहाज से सहज-सरल सा लगना वाला यह साहित्य समाज की जितनी जटिलताओं को सामने रखने में सफल हुआ है उसमें दलित चेतना की सतत बह रही धारा भी परिष्कृत हो रही है।

दलित रचनाकारों के आग्रह, जो प्रारम्भ में किन्हीं खास बिन्दुओं को लेकर उभरते रहे, अब उसी रूप में नहीं रह रहे हैं। जातीय अस्मिता के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक जटिलता के प्रश्न पर भी वे लगातार टकरा रहे हैं। यही वजह है कि रचनाओं के पाठ भी उतने इकहरे नहीं है कि कोई उनमें सिर्फ एक व्यक्ति के जीवन वृत्त को ही उसका आधार मान ले। इतिहास, समाज, अर्थव्यवस्था और अन्य विषयों पर भी दलित धारा के रचनाकारों की राय बिना एक दूसरे से व्यक्तिगत मतैक्य रखते हुए विमर्श की स्वस्थ बहस को जिन्दा कर रही है। इसी परिप्रेक्ष्य में ओम प्रकाश वाल्मीकि की किताब सफाई देवता दलितों में भी दलित, समाज के सबसे उपेक्षित तबके के सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश को आधार बनकार एक ऐतिहासिक मूल्यांकन करने का प्रयास है।

उनके मंतव्य से सहमति पर भारतीय समाज के उनके विश्लेषण से असहमति रखते हुए कहूं तो कह सकता हूं कि यह किताब एक बहस को जन्म दे रही है। स्वाभाविक है कि हर तरह की सामाजिक स्थितियों से दर-किनार कर दिये गये ‘अछूत’ भी किसी समय विशेष में विज्ञान की जानकारी की सीमा के चलते अपने डर और संश्यों के लिए, अन्यों की तरह, अदृश्य शक्ति की कल्पना करने को मजबूर रहे। चूंकि समाज की सामूहिक गतिविधियों से बहिष्कृत रहने के कारण उनके देवताओं के रूप, आकार और नाम वही नहीं रह सकते थे, जो चातुर्वणीय व्यवस्था के अन्य वर्णो के हो सकते थे, तो यह एक फर्क उनमें दिखायी देना ही था। वे ब्राहमणी मुख्यधारा के देवताओं की पूजा अर्चना से वंचित थे, इसलिए काफी हद तक वे न तो उन देवताओं के नामों से परिचित हो सकते थे और न ही उनके रूप से। आदिम समाज के जातीय टोटम उनके साथ बने ही रहने थे।

जब सुन लेने पर ही पिघले हुए शीशे को कानों में उड़ेल दिया जाना था तो देखने की कोई कोशिश करने की हिमाकत कैसे होती भला! सम्पूर्ण दलित समाज को चातुर्वणीय व्यवस्था से अलग मानते हुए दिये गये दोनों ही विद्धानों के तर्क इसीलिए इस बहस को जन्म दे रहे हैं कि आखिर वास्तविकता को ही नकारने की यह कोशिश फिर कैसे भारतीय समाज के बीच मौजूद जातीय व्यवस्था को तोड़ पाने में सफल होगी ? यह आग्रह नहीं एक प्रश्न है। और तर्क के तौर पर वे स्थितियां हैं जहां यज्ञोपवित करके घंटों-घंटों पूजा में लीन रहने वाले दलित समाज के उस तबके को देखा जा सकता है, जो जाति को छुपाने के लिए मजबूर है। ये स्थितियां स्वंय ही ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक सफाई देवता में ज्यादा विस्तार से जगह पा रही है।

अपने इतिहास से किनारा करने और अपनी पहचान को छुपाने के लिए उनकी मजबूरी के कारणों पर आगे बाते हो सकती हैं, पर यह तथ्य के रुप में ही यहां रखते हुए कह सकते हैं कि दलितों में भी चातुर्वणीय व्यवस्था के ऊध्र्वाधर वर्गीकरण के साथ फैले क्षैतिज धरातल पर भी मनुष्य को बांटते चली गयी व्यवस्था भी उनके देवताओं मे वैसी ही समानता नहीं रहने दे रही है। स्वंय वाल्मीकि ने और कांचा ऐलयया दोनों ने ही विभिन्न जातियों के अलग-अलग देवताओं का जिक्र किया है। बल्कि सफाई देवता में तो एक पूरा अध्याय ही इस विषय पर लिखा गया है। चेचक, दलितों के यहां भी माता है और सवर्णों के यहां भी वह उसी रुप में है। अब नाम दुर्गा हो या पोचम्मा, इससे क्या फर्क पड़ता है। औद्योगिकरण की ओर बढ़ती दुनिया ने भारतीय समाज व्यवस्था को अपने खोल से बाहर निकलने को मजबूर तो किया ही है, बेशक उसके बुनियादी सामंती चरित्र को पूरी तरह से न बदल पाया हो पर सामाजिक बुनावट के चातुर्वणीय ढ़ांचे को एक हद तक ढीला तो किया ही है।

दलित चेतना के संवाहक अम्बेडकर द्वारा चलाये गये मंदिर आंदोलन, गांधी के दलिताद्वार और ऐसे ही अन्य समाजिक आंदोलन के परिणाम स्वरुप हुए सामाजिक बदलाव ने शहरी क्षेत्रों में सामूहिक कार्यक्रमों में दलितों को दरकिनार करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया है। एक हद तक गांवों में भी उसका प्रभाव हुआ है। सवर्णों के देवता ही आज दलितों के देवता के रूप में भी आज इसीलिए स्वीकार्य हो पाये हैं। फिर ऐसे में देवताओं के नामों और पूजा-पद्धतियों के आधार पर पायी जाने वाली भिन्नता को आधार बनाकर किये जा रहे जातिगत विश्लेषण में दलितों को उस ब्राहमणी व्यवस्था से अलग मानने का तर्क मेरी समझ के हिसाब से पुष्ट नहीं होता। मनुष्य को जातिगत आधार पर बांटने वाली व्यवस्था के विरोध का अर्थ क्या सम्पूर्ण दलित समाज को उससे बाहर मानने से हो सकता है ?

जिस तर्क के आधार पर कांचा ऐलय्या सम्पूर्ण दलित समाज को उस ब्राहमणी व्यवस्था में नहीं मानते ठीक उसी तरह की समझदारी ओम प्रकाश वाल्मीकि में भी दिखायी देती है। कांचा ऐल्य्या का काम ज्यादातर दक्षिण भारतीय समाज को आधार बनाकर हुआ लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि उत्तर भारत के समाज को आधार बनाकर बात करते हैं। दक्षिण भारतीय समाज के बारे में खुद की जानकारी के अभाव में मैं नहीं बता सकता कि कांचा ऐल्यया के तर्क कितना अपने समाज के विश्लेषण को तार्किकता प्रदान करते हैं पर उत्तर भारतीय समाज के बारे में अपनी एक हद तक जानकारी के देखता हूं तो दलितों को हिन्दू जाति व्यवस्था से बाहर मानने वाले ओम प्रकाश वाल्मीकि के तर्को से सहमत नहीं हो पा रहा हूं।
सवाल है कि फिर वो चातुर्वणय व्यवस्था क्या है ? समाज को चार जातियों में बांटने वाली व्यवस्था ही तो उसे शूद्र बना दे रही है। जिसका निषेध होना चाहिए। पर निषेध के मायने क्या सारे दलित समाज को उससे बाहर का मान कर कोई हल निकल सकता है, इस पर सोचा जाना चाहिए। कानून व्यवस्था का सहारा लेकर भ्रष्टाचार का तंत्र फैलाती नौकरशाही की जात क्या है ? क्या वह वर्ण व्यवस्था के आधार पर बंटे भारतीय समाज के वर्णों के लिए अलग-अलग तरह से योजनाओं को आबंटित कर भ्रष्टाचार की सांख्यिकी से भरी है या एक समान भाव से वह सब कुछ हड़प कर जाने के लिए मुंह खोले बैठी है ?

ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक में उठाये गये भ्रष्टाचार के मामले जिस रूप में उर्द्धत हुए, उनको ध्यान में रखकर यह प्रश्न उठता है। दलित विमर्श की वर्तमान चेतना मौजूदा तंत्र में फैले भ्रष्टाचार के घुन को भी क्यों सिर्फ इतना सीमित होकर देखना चाहती है। नौकरशही की जात क्या भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अलग अलग है! सामाजिक प्रश्न को राजनैतिक प्रश्न की तरह देखने पर ही वर्तमान दलित विमर्श की सीमायें दिखने लगती हैं। यहीं से यह सवाल उठता है कि क्या अमूर्त किस्म का राजनैतिक संघर्ष समाजिक बदलाव में सहायक हो सकता है ?

दलित विमर्श के विकास का यही प्रस्थान बिन्दू समाज व्यवस्था के बुनियादी बदलाव के संघर्ष में सहायक हो सकता है जिस पर गमभीरता से विचार होना चाहिए। भ्रष्टाचार से भरी वर्तमान व्यवस्था का विश्लेषण करने का दलित चिंतको का दृष्टिकोण पर बात करें तो उसकी कुछ अपनी सीमाऐं दिखायी देती है। वह सत्ता के बुनियादी चरित्र के बदलावों के संघर्ष की बजाय उसी के बीच में अपने लिए एक सुरक्षित जगह निकाल लेने के साथ है। एक नये समाज के सर्जन के लिए जिस तरह के विध्वंस की आवश्यकता होती है उससे उसका विचलन दलित पैंथर के आंदोलन के बिखरने के साथ ही हो चुका था।

पूंजीवादी लोकतंत्र की स्थापना के लिए प्रयासरत महान विचारक अमबेडकर की सीमाओं भी एक हद तक इसमें आड़े आती हैं। दलित विमर्श की संभावनाओं के द्वार भी उससे टकराकर ही खुल सकते है। व्यवस्था के सामंती ढांचे का खुलासा कर सकने की वैज्ञानिक सोच के साथ सामाजिक बदलाव की वास्तविक पहल को निश्चित ही उससे बल मिलेगा। दलित शोषित समाज के खिलाफ आक्रामक रुख अपनायी हुई सम्राज्यवादी नीतियों पर भी चोट कर सकने की संभावना भी यहीं से पैदा होगीं। मौजूदा व्यवस्था से माहभंग की स्थिति में पहुॅंचे शोषित समाज के सामने एक नयी और दलित शोषित के वर्गीय हितों का पोषण करने वाली एवं समता और न्याय की स्थापना के लिए सचेत व्यवस्था की कल्पना तभी संभव हो सकती है।

यह तय है कि भारतीय समाज का बहुसंख्यक शोषित वर्ग मूल रूप से वर्ण व्यवस्था के चैथे पायदान पर बैठा जन ही है। भारतीय सर्वहारा के इस चेहरे को न सिर्फ दलित धारा को पहचानना चाहिए बल्कि हर ऐसे समूह, जो देश दुनिया को बदलाव के लिए प्रयासरत है, समझना चाहिए। चर्चा की जा रही पुस्तक में दलित विमर्श का जो चेहरा सिर्फ रिपोर्ट को रख देने भर से उभर रहा है, वह सिर्फ एक जाति विशेष की समस्या के खात्मे पर ही बदलाव की इति श्री जैसा हो जाता है।

व्यवस्था का वर्तमान ढांचा जबकि इतना क्रूर है कि मेहनतकश वर्ग के आवाम के खिलाफ ही उसकी सारी नीतियां जारी है। जो बेरोजगारी बढ़ाने और भूखों मरने की नौबत पैदा करने वाला है। ऐसे में अपने जीने भर के लिए तमाम अमानवीय परिस्थितियों के बीच से रास्ता निकालने की कोशिश जारी हैं। फिर वह चाहे मोटर गैराज में तमाम चीकट कालिख के बीच गाड़ियों को अपनी छाती पर उठाये और उनका दुरस्त करता कोई मैकेनिक हो या, गटर के अन्दर उतर कर गटर की सफाई करने को मजबूर कामगार।

दोनों की स्थितियां जातीय आधार पर उन्हें कुछ खास सुविधा नहीं देती। सिर्फ फर्क है तो यही कि जो जिसके अनुभवों का हिस्सा है अमुक जाति का व्यक्ति उसी अनुभव को आधार बनाकर रोजी रोटी के जुगाड़ में जुटा है और जीने भर का रास्ता तलाशने को मजबूर है। यानी दलित वर्ग के मेहनतकश आवाम के अनुभवों में जो यातना दायक अनुभव है, मजबूरन उस वर्ग के बेरोजगार को उन्हें ही अपनाने की मजबूरी है। चालीस किलोमीटर पैदल चलते हुए सिर पर मैला ढोने को वह मजबूर है, जैसा कि पुस्तक में उल्लेख है। उसके बदले भी वाजिब मूल्य नहीं।

तो फिर इस निर्मम व्यवस्था के अमानवीय आक्रमण के खिलाफ रास्ता क्या है, यह सोचनिय प्रश्न है। क्या चंद कागजी कानूनों से व्यवस्था के वर्तमान स्वरुप को अमानवीय तरह के कारोबार के खिलाफ मान लिया जा सकता है ? बल्कि असलियत तो यह है कि उनके बचाये रखते हुए ही निराशा, हताशा में डूबी बहुसंख्यक आबादी को ऐसा भी न करने की स्थिति में निकम्मा और नक्कारा करार देने का तर्क गढ़ दिया जा रहा है।

आम मध्यवर्गीय खाते पीता वर्ग, जो जनता के धन सम्पदा को भकोस जाने वाली व्यवस्था की खुरचन पर टिका है, यूंही नहीं ऐसे तर्कों को अक्सर रखता है। ऐसी चालाक कोशिशें के पर्देफाश के लिए जो सचेत कार्यवाही होनी चाहिए, दलित विमर्श की वर्तमान धारा उस पर अभी केन्द्रित नहीं हो पायी है, पुस्तक में भी उसकी कमी अखरती ही है। मैं व्यक्तिगत तौर पर सफाई देवता को एक सही समय पर आयी ऐसी पुस्तक मानता हूं कि जो भारतीय समाज के बुनियादी चरित्र के विश्लेषण की बहस को जिन्दा करने में सहायक है।

-विजय गौड