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Saturday, March 2, 2013

पंखुरी सिन्हा की कवितायें



अफ़वाह

अफवाहें,

बिलकुल अंग्रेजों के ज़माने सी,

या उससे भी पहले,

मुग़लिया काल की,

बंद बंद ज़माने की,

बंद, बंद समय की एक,

बंद समाज की,

बंद, बंद सबकुछ की,

जब उड़ने के नाम पर,

उड़ती थी, अफवाहें,

साथ, साथ, धूल के बवंडर के,

कि फलां कुँए में मांस डला है,

डाला गया है,

डलवाया गया है,

कारतूस पर मांस है,

मांस झटका या हलाल है,

फलां लड़की के प्रेम सम्बन्ध हैं,

एक प्रेमी है,

या शायद दो भी,

एक के बाद दूसरा,

या क्या पता एक साथ,

प्यार एक से, दूसरे से दोस्ती,

जाने क्या है,

पर अब भी वह बाहर नज़र आती है,

नज़रबंद नहीं।















अपरिचय



 


कैफे की खूबसूरत सी मेज़ कुर्सी पर,

या किसी रोज़,

सिर्फ एक नए से कैफे की,

तरो, ताज़ा, मेज़ कुर्सी पर,

थामकर, किसी अद्भुत नाम का कोई पेय,

या थाम कर, उसी, अद्भुत नाम का, अक्सर का पेय,

छिड़ककर दालचीनी की अबरख,

पसर जाना, कैफ़े की गर्माहट में,

ये ख्याल घर छोड़ कर,

कि मकान मालकिन के सोफे पर भी लिखा जा सकता था,

सरकती हुई धूप में,

देखते उस अदृश्य पर्शियन बिल्ली को,

घर छोड़ते,

उतरते, सोफे के गुदगुदे पन से,

पसर जाना कैफ़े की मसरूफियत में,

जहाँ कोई नहीं जानता उसे,

ये भी नहीं कि वह वैनिला भी छिड़कना चाह रही थी,

अपनी ड्रिंक पर,

कॉफ़ी में चॉकलेट डली,

जाने क्या क्या मीठी,

नफीस चीज़ें डलीं,

अपनी ड्रिंक पर,

और कि उसने वैनिला का बीन्स कभी नहीं देखा,

और ज़रूर देखना चाहेगी,

और वह क्रीम भी डालना, उडेलना चाहती थी, अपनी ड्रिंक में,

और कि उसके सबकुछ डालने का उपक्रम करते ही,

क्यों वह आदमी ढेरों चीनी उड़ेलने लगता है,

उसकी बगल में आकर,

शायद वह जानता हो,

वह इस कैफ़े में अक्सर आया करती है,

मुमकिन है और लोग भी जानते हों,

ये भी कि वह पड़ोस में रहती हो?

शायद मकान का नंबर भी?

ये भी कि मकान मालकिन से बहस हुई उसकी,

और जाने क्या?

कोई कैसे पहुंचे कैफ़े में,

सिर्फ हाबर्मास के उस कैफ़े में?