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Thursday, January 26, 2012

तोहफ़े


मदन शर्मा
संजीव और मैं, एक ही सरकारी संस्थान में नौकरी करते थे। हमारे बीच मित्रता का भाव था। जब भी समय या अवसर मिलता, हम इधर-उधर की दिलचस्प बातें करके, अपना और पास बैठे लोगों का दिल बहलाया करते। संजीव, कुछ अर्सा पहले, सरकारी नौकरी छोड़, किस्मत आज़मार्इ के लिये किसी प्राइवेट फ़र्म में जा लगा था। सुना है, वह आजकल दिल्ली में रह कर कारों के कारोबार में, खूब रूपये कमा रहा है।
    यहां से जाने से पूर्व, संजीव मुझे दो ऐसी चीज़ें सौंप गया, जिसके कारण, मैं शायद ही उसे कभी भूल पाऊं!
    मेरे घर में टी वी तो था, मगर रेडियो या ट्रांसिस्टर नहीं था। आकाशवाणी से प्रसारित अपनी कहानियां या व्यंग्य सुनने के लिये, मुझे इसकी ज़रूरत थी। संजीव ने बताया, कि उसके पास एक बढि़या रेडियो सेट पड़ा है। कहानियां सुनने के लिये वह काफ़ी होगा। नया लेने की क्या ज़रूरत है।
    रेडियो सौंपते हुए संजीव ने बताया, कि इसमें मामूली-सा नुक्स है। पांच-सात रूपये में यह अच्छा काम करने लगेगा।
    चालीस रूपये ख़र्च करके रेडियो ठीक चलने लगा। अपनी एक-आध रचना भी उस पर सुन ली। घर में रेडियो और मेरी कहानी की प्रशंसा हुर्इ। किंतु सप्ताह भर बाद ही उस रेडियो की मरम्मत का ऐसा सिलसिला चला, कि महसूस होने लगा, कि यह मरम्मत यदि यों ही चलती रही, तो इस बढि़या रेडियो के साथ-साथ, मेरा टी वी और फि्रज भी बिक जायेगा।
    संजीव ने वायदा किया, कि वह मुझे कहीं से नया टं्रासिस्टर सस्ते में दिला देगा। मगर उसका मौक़ा ही न आया।
    संस्थान में कुछ वर्करों का प्रमोशन हो जाने पर, उन्हें अलग अलग अनुभागों या दफ़तरों में नियुक्त किया जाना था। संजीव ने चुपके से मुझे सुझाया,  "आप गुरमीत को अपने स्टाफ में ले लो, बहुत बढि़या आदमी है।"
"मैंने तो सुना है, वह शराब पीता है।"
"तो क्या हुआ? मैं शराब नहीं पीता? यक़ीन मानो, उस जैसा आदमी आपको खोजने पर भी नहीं मिलेगा।"
    मैंने ऊपर कहसुन कर, गुरमीत को अपने स्टाफ में ले लिया। लम्बा-चौड़ा मगर ढीला-ढाला और फैला हुआ सा शरीर, उसी तरह की ढीली पगड़ी और दाढ़ी। लिबास तुड़ा-मुड़ा। आंखों में और चेहरे पर सुर्खी, जैसी शराबियों के चेहरों पर तमतमाहट-सी होती है।
"आप यहां मेहनत से काम कर सकेंगे?" मैंने पूछा।
"बिल्कुल जी। आप जैसा भी कहेंगे, वैसा ही करेंगे जी।"
    चार-पांच दिन में ही पता चल गया, गरमीत नाम की यह चीज़, उस रेडियो से कुछ अलग नहीं। यह आदमी तो यहां का साधारण कार्य भी सीखने के योग्य नहीं। बड़ी ग़लती हो गर्इ! मगर अब क्या हो! मैंने तो स्वयं ही सिफ़ारिश करके यह बला, अपने सिर पर ले ली है!
    उससे कोर्इ भी काम नहीं हो पा रहा था। न उसकी समझ में कुछ आ रहा था। परेशान होकर मैंने उसे रिकार्ड स्पलायर का काम करने को कह दिया।
    सुपरवाइज़र के पद पर होकर, रिकार्डस्पलायर का काम सौंपे जाने पर उसने कोर्इ आपति न की। वह बड़े उत्साह में भरकर यह काम करने लगा। बलिक जब अर्दली छुटटी पर होता, तो चाय तैयार करके, पूरे स्टाफ़ को सर्व कर देता।
    वह थोड़ा लंगडा कर चलता था। पता चला, कभी फुटबाल खेलते हुए उसका एक्सीडेंट हो गया था। यह भी पता चला, वह अच्छे घर से है।  बड़ी बहन डाक्टर है। बच्चे पढ़ने लिखने में तेज़ हैं और इसकी पत्नी किसी अच्छे स्कूल में अंग्रेजी़ पढ़ाती है।
    दफ़तर में उससे किसी को कोर्इ शिकायत न थी। वह बड़ी विनम्रता से बात करता। कभी किसी की निंदा वह नहीं करता था।
    उसे कभी किसी बात पर क्रोध न आता था। कोर्इ बीमार होता, तो वह पता लेने उसके घर या अस्पताल पहुंचता। कोर्इ मौत हो जाने पर, वह अंतिम कि्रया में शामिल होने के लिये सबसे पहले मौजूद रहता। वह कितने ही ज़रूरतमंद रोगियों को अपना खून दे चुका था और खूबी यह, कि वह ये सब काम हंसते हुए और सहज भाव से करता था। मैं उसे 'संत जी कहने लगा।
    शराब तो वह पीता ही था। अब कुछ और अधिक पीने लगा। वह स्वयं पीता और यार-दोस्तों को भी पिलाता और शराब के साथ मछली के पकौड़े भी ज़रूर होते। यही साथ पीने वाले यार भार्इ ही उसे उस खर्च के लिये रूपये सूद पर उधार देते और बड़ी सख्ती से वसूल भी करते।
    कई लोग उसे दफ़तर में ही मिलने आने लगे। उसे बाहर ले जाकर मालूम नहीं, कैसे धमकाते रहते। वह वापिस लौटता, तो उसका चेहरा बुझा-बुझा-सा होता।
    पता चला, गुरमीत के सिर पर भारी कर्ज चढ़ चुका है। वे लोग दफ़तर में आकर ही उसे धमकाने लगे। मैंने उन लोगों का दफ़तर में आना बंद करा दिया, तो कर्ज वसूल करने वाले, उसे बाहर सड़क पर घेरने लगे। जेब में जो कुछ होता, वे छीन लेते। जेब खाली होती, तो उसके दो-चार हाथ जड़ देते।
    शराब पीने के लिये गरमीत जो रूपये उधार लेता, वह दस के बारह रूपये वाला होता था। वह तीन सौ उधार लेता, जो कुछ ही दि्नों में दो हज़ार हो जाता। बढ़-बढ़ कर क़र्ज़ की यह राशि साठ हज़ार तक पहुंच गर्इ थी। पूरा वेतन, ओवर टाइम और एरियर के पैसों में से, उसके पास कुछ भी हाथ में न रहता। घर खाली हाथ पहुंचता, तो वहां भी अच्छी आवभगत होती। खाने को कुछ न दिया जाता। दिन में भी भूखा रहता। छुटटी के बाद फिर कोर्इ मिल जाता, जो उधार रूपये देता और उसके साथ ठेके पर चल कर शराब पीता और मछली के पकौड़ों का मज़ा लेता।
    गुरमीत कई दिन से दफ़तर नहीं आ रहा था। पता चला, वह घर से भी ग़ायब है। बीस दिन बाद, दफतर वाले, उसे सड़क पर घूमते हुए को पकड़ कर ले आये।
    उसके कपड़े फटे और बेहद गंदे थे। नहाना तो क्या, उसने शायद कर्इ दिन से मुंह भी नहीं धोया था। आंखों में कीच भरी थी। दाढ़ी उलझी हुई। मुंह से गंदा-सा पानी बाहर को आ रहा था। उसके शरीर से बदबू आ रही थी। हाथ में छुटटी का आवेदन लिये, वह मेरे सामने सहमा-सा खड़ा था।
    "बैठिये संत जी।" मैंने कहा।
    वह बैठ गया।
    "छुटटी की अर्जी बाद में देखेंगे। पहले यह बताइये, बीस दिन तक कहां ऐश उड़ाते रहे?"
    वह रोने लग पड़ा। थोड़ा शांत हुआ, तो बोला, "कौन सी ऐश साहब, बीस दिन से धक्के खाता फिर रहा हूं। किसी की सब्ज़ी की दुकान पर, आलुओं के ढेर पर सोता रहा हूं। कमर बुरी तरह दर्द कर रही है।"
    "मगर घर से भागे क्यों?"
    "भागा कहां, धक्के मार कर निकाला गया। वरना अपना घर छोड़कर जाने को किसका मन होता है!"
   "जब घर पर कुछ दोगे नहीं, तो धक्के ही मिलेंगे। वह बेचारी प्राइवेट स्कूल की नौकरी करके घर चला रही है और तुम्हें शराब पीने से फर्सत नहीं। शरम आनी चाहिये!"
    वह फिर रोने लग पड़ा। चुप हुआ, तो कहने लगा, "यह बात नहीं सर! कभी किसी ने यह नहीं सोचा, गुरमीत शराब क्यों पीता है।"
    "क्यों पीता है?" मैंने जानना चाहा।
    "मैं आप को अब क्या बताऊं!... मेरा जब से एक्सीडेंट हुआ है, मैं तब से... वह दरअसल अपने स्कूल के एक टीचर के साथ ... बच्चे स्कूल जाते हैं और वह घर में जमा रहता है...।"
    "तुमने मना नहीं किया?"
    "वह तो उसे ही भला मानती है। दोनों ने मिलकर ही तो मुझे घर से बाहर निकाला था।"
    मगर मिसेज गुरमीत ने किसी को बताया कि उसका पति एक नम्बर का झूठा है। वह अपनी मर्जी़ से घर छोड़ कर गया है। यह घर तो उसी का है। जब चाहे, लौट कर आ सकता है।
    कुछ दिन के बाद मिसेस गुरमीत ने महाप्रबंधक के पास अपील कर दी, कि उसका पति घर में बाल बच्चों की परवरिश के लिये, एक पैसा भी नहीं देता, लिहाज़ा घर में गुज़र के लिये, वेतन की राशि, बेदी के बजाय, स्वयं उसे देने की व्यवस्था कर दी जाये।
    महाप्रबंधक ने मुझे अपने दफ़तर में बुलाकर कहा, "आपके स्टाफ़ का कोर्इ गै़र जि़म्मेदार आदमी है, जिस की बीवी ने अपील की है। आप इस केस को जल्दी निबटाइये।"
    मैंने श्रमकल्याण अधिकारी और कैशप्रभारी से मिलकर, व्यवस्था करा दी, जिससे गुरमीत का वेतन हर मास, उसकी पत्नी को फैक्टरी गेट पर दिया जा सके।
    गुरमीत रोनी सूरत लिये मेरे पास आकर बोला, "सर, यह आपने क्या कर डाला! अब मेरा क्या होगा?"
    मैंने उसे सांत्वना दी, "मेरी बात हो चुकी है। तुम्हें घर से दोनों वक़्त का खाना और नाश्ता मिलेगा। धुले कपड़े और बस का किराया भी मिलेगा। और क्या चाहिये?"
"साहब मेरे पीने का क्या होगा?"
    मन हुआ, जूता निकाल कर, इसके सिर पर दे मारूं! मगर उस मरदद की शक्ल ही कुछ ऐसी थी, कि पहले देखते ही मुंह पर दो थप्पड़ मारने की इच्छा होती थी। मगर उसके चेहरे पर पसरी बेबसी देख, फिर उसके लिये कुछ करने का कर्तव्य बोध होने लगता था।
    मैंने बार बार कोशिश की, कि गुरमीत नाम की इस बीमारी को अपने दफ़तर से भगा दूं। मगर कोर्इ सुनने को तैयार ही न था। उपमहाप्रबंधक हंसकर कहते, "यह हीरा तो आपने अपनी मर्जी से ही चुनकर लिया है। इसे अपने पास ही रखिये। कोई और इसे लेने को तैयार भी नहीं । वैसे मुझे आपसे पूरी हमदर्दी है!"
    मिसेस गुरमीत हर महीने मेनगेट पर आकर, गुरमीत का वेतन ले जाती। मेरी सिफ़ारिश पर गुरमीत को तफ़रीह के लिये भी थोड़ा-बहुत मिल जाता। सभी कुछ सामान्य हो चला। किंतु गुरमीत से जो क़र्ज वसूल करने वाले थे, वे तो परेशान हो चले थे। एक दो बिफरे हुए से आकर मुझे भी कह गये थे... शर्मा साहब, आपने हमें मुशिकल में डाल दिया है...।
    गुरमीत के वेतन का एक भाग, हम उसके बैंक के खाते में डालते जा रहे थे। पास बुक हम लोगों ने अपने पास सम्भाल ली थी और बैंक वालों से कह रखा था, कि गुरमीत को बिना पास बुक, रूपया न निकालने दें। दरअसल हम दफ़तर वाले यह चाहते थे, कि यह रूपया इकटठा करके गुरमीत की बेटी के विवाह पर दे देंगे।
    किंतु एक दिन सभी यह जान कर चकित रह गये, कि गुरमीत के एकाउंट में कुछ भी नहीं है। पता भी न चला, वह कब से, बैंक के किसी कर्मचारी को पटा या पिला कर अपना कार्य सम्पन्न करने लग पड़ा था।
    गुरमीत की फिर पिटार्इ हो गई। इस बार अच्छी खासी धुनाई हुई थी। पूरा मुंह सूजा पड़ा था। ठीक से चला भी नहीं जा रहा था। कपड़े फटे पडे़ थे। बराबर रोये चला जा रहा था। दफ़तर वालों ने आपस में मिलकर रूपये इकटठे किये और संडे मार्किट से उसके लिये कपड़े ख़रीद कर लाये। मैंने स्वयं अपने घर में वे कपड़े धो, सुखा और प्रेस करके उसे पहनने को दिये।
    मैं बार बार संजीव की जान को रो रहा था।
मिसेस गुरमीत को नियमित रूपये मिल रहे थे। गुरमीत का अपना काम चल ही रहा था। किंतु क़र्ज़ वसूल करने वाले तो बराबर तिलमिला रहे थे। वे क्या करें, मार पिटार्इ से उनके हाथ में कुछ भी नहीं पड़ रहा था। उन्हीं में से एक ने जाकर मिसेस गुरमीत को कह डाला, "गुरमीत  के दफ़तर वाले, आपके स्कूल के किसी टीचर के साथ, आपके सम्बन्धों की चर्चा करते रहते हैं। वहां का इंचार्ज मदन शर्मा नाम का आदमी, इस बारे में कोर्इ कहानी लिख कर अख़बार में देने वाला है।"
    मिसेस गुरमीत ने तुरंत लिख कर, महाप्रबंधक के पास शिकायत भेज दी, कि दरअसल गुरमीत के दफ़तर वाले ही उसे तबाह और बर्बाद कर रहे थे। इसलिये उसकी किसी अन्य अनुभाग में बदली कर दी जाये।
    गुरमीत  भागता हुआ मेरे पास आया और बोला, "सर, मेरा यहां से ट्रांसफर हो रहा है। मैं साफ़ कहे देता हूं, मैं यहां से कहीं नहीं जाउंगा। आप किसी तरह मुझे यहीं रूकवा लें।"
मैंने कहा, "मैं भला कैसे रूकवा सकता हूं! जी. एम. का आर्डर है। तुम्हें यहां से जाना होगा।"
"नहीं सर, मैं यहीं रहूंगा। ऐसे लोग मुझे कहां मिल सकेंगे, जो मेरा इतना ध्यान रखें। आप जैसे इंचार्ज को मैं कभी छोड़कर नहीं जा सकता, भले ही मुझे अपने बाल बच्चों को छोड़ना पड़ जाये।"
"मगर अब तो बहुत देर हो चुकी है।"
"कोई देर नहीं हुई जी, मैं अभी जनरल मैनेजर के पास जा रहा हूं। मैं उन्हं बता देता हूं। मैं उन्हें बता देता हूं, किस किसने हमारे खि़लाफ़ साजि़श की है।"
संजीव ने एक बात तो ठीक ही कही थी... गुरमीत जैसा आदमी खोजने पर भी नहीं मिलेगा!

Tuesday, November 8, 2011

साफ़ ज़ाहिर है

कंवल ज़ियायी
उर्दू के सुप्रसिद्व शायर जनाब हरदयाल सिंह दत्ता  कंवल जियायी इस भैयादूज को, अर्थात दिनांक 28-10-2011 की सुबह, इस नश्वर संसार को अलविदा कह गये। वे चौरासी वर्ष के थे। कहा जाता है, कि केवल योगी ही चौरासी के होकर "चोला" बदला करते हैं।
    वे सचमुच योगी थे। उन्होंने जब पहले पहल पंडित लब्भुराम जोश मलसियानी की सरपरस्ती में शायरी का आगाज़ किया, उस वक्त उर्दू के अधिकांश शायर हुस्नोइश्क का इज़्हार अपनी शायरी के माध्यम से किया करते थे। मगर कंवल साहब ने उन दिनों भी जिस मौजूं को अपनी शायरी में लिया। वह ज़िंदगी की तल्ख हकीकत के बिल्कुल करीब था।
    पाकिस्तान के ज़िला सियालकोट के गांव कंजरूढ़ दत्ता में कंवल साहब का जन्म एक प्रतिष्ठित जमींदार घराने में हुआ। फिल्म अभिनेता पद्मश्री राजेन्द्र कुमार भी वहीं के थे और कंवल साहब के लंगोटिया यार थे। देश का बंटवार होने के बाद, ये दोनों पक्के दोस्त एक साथ पाकिस्तान से भारत (दिल्ली) चले आये। वहां से राजेन्द्र कुमार एक्टर बनने के लिये मुम्बई चले गये और कवंल साहब रक्षा-विभाग में लिपिक के तौर पर नौकरी करने लगे और उसी के साथ अपना रूझान साहित्य की और मोड़ा और शायरी के माध्यम से साहित्य सृजन में जुट गये।
    कंवल साहब एक बहुत ही मस्तमौला, फक्कड़, हँसमुख, स्प्ष्टवादी, संवदेनशील और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। बातें इतनी अच्छी करते, कि घंटों तक उनके पास बैठकर भी उठने को मन न होता। मगर वही कंवल साहब, जब शेर लिखने के लिये कलम हाथ में थामते, तो इस कद्र संजीदा हो जाते कि सामने मौजूदा प्राणी सहम कर रह जाता।
    उनकी शायरी जिंदगी के "कटुसत्य" से दोचार करने वाली संजीदा शायरी थी। बहुत ही सरल भाषा, या सीधे सादे शब्दों में, गहरी से गहरी बात कहने में उन्हें महारत हासिल थी। उसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि उन्होंने जीवन भर संघर्ष ही संघर्ष किया और जिंदगी को बेहद करीब से देखा, परखा और विचारा और तब जो कुछ महसूस किया, उसी को अपनी गज़लों, नज़मों या कतआत की शक्ल में उतारा।
    कंवल साहब एक उस्ताद शायर थे। उनके शागिर्दों की संख्या पर्याप्त है। कहा जाता है कि वे खुद एक "इंस्टीट्यू्शन" थे।
    कंवल साहब के अब तक केवल दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। "प्यासे जाम" सन् 1973 में राहुल प्रकाशन दिल्ली द्वारा देवनागरी लिपि में प्रका्शित हुआ। दूसरा काव्य संग्रह, "लफ्ज़ों की दीवार" 1993 में उर्दू लिपि में छपा। इन दोनों संग्रहों में कंवल साहब की चुनींदा गज़लों, नज़्मों और कतआत शामिल है।
    एक लम्बे अर्से से कंवल साहब अस्वस्थ चल रहे थे। इसलिये कहीं जाना आना न हो पा रहा था। इस दौरान वे और अधिक संजीदा रहने लगे थे। उन्हें निश्चित ही इस बात का एहसास हो चला था। कि उनके पास अब अधिक समय नहीं रहा। तभी उनके द्वारा लिखे अंतिम एशआर में दो शेर ये भी थे :-
        साफ़ ज़ाहिर है कि उम्र की आंधी
         इक दिया और बुझाने वाली है
       ज़िंदगी तखलिया कि पल भर में
       मौत तशरीफ़ लाने वाली है।

- मदन शर्मा 
9897692036
                                                         

Sunday, November 14, 2010

उसके कैमरे की शटर-स्पीड

वरिष्ठ कथाकार मदन शर्मा अपने नजदीकी मित्रों को (बहुत अनजान किस्म के लोगों को भी)  याद करते हुए  लगातार संस्मरण लिख रहे हैं। उनके संस्मरणों में देहरादून शहर की तस्वीर को ढलते हुए देखा जा सकता है। वी. के. अरोड़ा यूं वैसे कोई अनजाना नाम नहीं होना चाहिए पर यह सच्चाई है कि वह सचमुच अनजाना-सा ही नाम है। 
देहरादून थियेटर के बिल्कुल शुरूआती दौर को, बिना फ्लैशगन को इस्तेमाल किए, सिर्फ मंच के प्रकाश के सहारे ही श्वेत-श्याम तस्वीरें खींचने वाला जुनूनी शायद ही कभी देहरादून के रंगकर्मियों की जुबा पर अपने नाम को छोड़ पाया हो। हां, जिक्र छिड़ने पर ऐसे एक फोटोग्राफर की यादें तो किसी के भी भीतर जिन्दा हो सकती है पर उसका नाम उनके लिए अनजान ही रहा। अपने ही तरह का, मनमौजी, यह शख्स किसी के मुंह से अपनी तारीफ सुनना भी चाहता रहा, मुझे तो ऐसा कभी नहीं लगा।  
-वि.गौ.   



   मदन शर्मा
       बिछुड़े मित्रों में, वी0 के0 अरोड़ा की कभी-कभी बहुत याद आती है। पूरा नाम वीरेन्द्र कुमार अरोड़ा, दुबला-पतला, कांगड़ी सा शरीर, रंग गेहवां, नक्श तीखे और आवाज़ थोड़ी तीखी। ऐनक के शीशों को चीरती शरारती नज़रें। स्वयं कम हंसता, मगर दूसरों को हंसा-हंसा कर रूला डालता।
    मुझे यह काफी बाद में पता चला, कि वह उसी सरकारी संस्थान में सुपरवाइज़र है, जहां मैं काम करता था। उससे मेरी पहली भेंट मसूरी में हुई। एडवोकेट अविनन्दा, अपनी सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था 'जागृति" की पूरी टीम लेकर, मसूरी के हॉकमनस होटल में 'शो" देने जाने लगे, तो अपना 'तमाशा" दिखाने के लिये, मुझे भी साथ ले गये।
    हम लोग, मसूरी के 'टाउनहाल" में ठहरे हुए थे। कार्यक्रम शाम सात बजे आरम्भ होना था। सभी कलाकारों को कार्यक्रम स्थल पर पांच बजे तक पहुंच जाना ज़रूरी था। नन्दा जी ने मुझे कुछ नोट थमाते हुए कहा, "शर्मा जी, आप कुलरी के किसी रेस्टरेंट में इन सभी के लिये नाश्ते की व्यवस्था कर दें। मगर एक बात का ध्यान रहे, कोई भी आदमी प्रोग्राम के लिये, देर से न पहुंचे।''
    मैंने चेतावनी दे दी, कि सभी लोग चार बजे तक, 'नीलम रेस्टरेंट पहुंच जायें। वहां चार पच्चीस के बाद पहुंचने वालों को अपने चाय नाश्ते का स्वयं बंदोबस्त करना होगा।
    जैसा अपेक्षित था, निर्धारित समय पर, केवल एक चौथाई सदस्य ही नाश्ता कर पाये। शेष  आदमी टाउनहाल में कंघियों से अपने बालों के स्टाइल बनाते रहे और लड़कियां अपने लिये साड़ियों का चुनाव करती रह गईं
    मेरी इस हरकत पर एक व्यक्ति, न जाने कब से नज़र जमाये था।
    वह मेरे नज़दीक आकर बोला, ""आप शायद मुझे नहीं पहचानते। मैं भी ऑर्डनैंस फैक्टरी में ही काम करता हूं। मैं आपके वक्त की पाबंदी से काफ़ी प्रभावित हुआ हूं।''
    समझ में न आया, उसकी बात का क्या उत्तर दूं। तभी वह बोल पड़ा, ""सुना है, इन्हीं दिनों आपने कोई अश्लील उपन्यास लिखा है।'' मैंने कहा, 'उपन्यास छप चुका है", तो वह हंस कर बोला, ""छपने के बाद ही, लोगों ने पढ़ा होगा। मैं भी उस किताब को पढ़ना चाहूंगा।'' मैंने कहा, ""देहरादून पहुंचने पर मैं आप को उपन्यास की प्रति दे दूंगा।''
    मैंने उपन्यास की प्रति उसे दी, तो उसने तुरंत ज़ेब से पर्स निकाल, किताब की कीमत मेरे हाथ पर रख दी।
""यह आप क्या कर रहे हैं?'' मैंने चकित होकर पूछा।
""मुआफ़ कीजिये, मुझे मुफ्त किताबें पढ़ने का बिल्कुल शौक नहीं।''
    एक सप्ताह बाद वह मिला और कहने लगा, ""आपकी किताब पढ़कर मुझे काफी निरा्शा हुई है। उसमें मुझे अश्लीलता तो नज़र ही नहीं आईं।''
    ""काफी बोर हुए होंगे?'' मैंने पूछा।
    ""नहीं, बोर तो बिल्कुल नहीं हुआ। कहानी में आपने काफी चटपटे मसाले भर रखे हैं। मगर छपाई की इतनी गलतियां हैं कि बस--- वैसे आपने यह किताब किस गधे से छपवाई?'' मैंने भास्कर प्रेस और उसके मालिक सुमेध कुमार गुप्ता का नाम बता दिया। वह बोला, ""किसी दिन जाकर उसका फोटो ज़रूर उतारूंगा।''
    वह फैक्टरी के एयर कंडीशनिंग प्लांट का सुपरवाइज़र था। अपने इस ट्रेड में वह जितना दक्ष था, उससे कहीं बढ़कर वह अपनी हॉबी, अर्थात फ़ोटोग्राफ़ी में निपुण था। फोटोग्राफी  में लोग उसे कलाकार मानते थे। वह उस कलाकारी में, कभी कभी दीवानगी की सीमाएं भी पार कर जाया करता था। 'जागृति" के ही एक अन्य कार्यक्रम में वह हमारे साथ ऋषिकेश गया। वहां भी एक सांस्कृतिक कार्यक्रम था। खाली वक्त में वह अपना कैमरा उठा कर जंगल की ओर चल दिया। वहां से काफी देर बाद लौटा तो चेहरा लहूलुहान और पूरे द्रारीर पर खरोंचें।
""यह क्या हुआ?'' मैंने हैरान होकर पूछा।
वह हंस कर बोला, ""ऐसा हुआ, कि मुझे उधर एक बड़ा ही खूबसूरत हिरन दिखाई पड़ा। मेरा जी ललचा गया। सोचा, एक स्नैप ले लूं। मैंने तब यह ध्यान ही नहीं दिया था, कि उस हिरन के बड़े बड़े सींग भी हैं। कैमरा देखते ही, पता नहीं क्यों, उसका मूड़ ही खराब हो गया और एक दीवार पर चढ़ गया। वरना वह तो मुझे मार ही डालता।''
""उस फोटो का क्या रहा?'' मैंने पूछा, तो बोला,
""फोटो तो मैं लेकर ही रहा, मैं इसका प्रिंट आपको दूंगा।''
    उसका छायांकन सुन्दर ही होता था। मगर वह एक नम्बर का मूड़ी था। अपनी मर्जी से आपके दस फ़ोटों खींच मारेगा, किंतु दूसरे के कहने पर, टस से मस नहीं। कोई पकड़कर ज़ब्रदस्ती ले भी जाता, तो पछताता।
    एक मित्र धर्मप्रकाश वर्मा, अपने सम्बंधों और प्यार का वास्ता देकर, उसे अपनी शादी के मौके पर ले गये और फ़ोटो-ग्राफी के लिये पुरज़ोर अपील की। अरोड़ा तैयार हो गया।
    वर्मा जी का शुभ विवाह धूमधाम से संपन्न हो गया। एटहोम और हनीमून निपट गये। एक वर्ष के बाद घर में शिशु ने भी जन्म ले लिया, मगर अरोड़ा से शादी वाले वे फ़ोटो न मिले। वर्मा जी ने कई बार याद दिलाया। मगर।।। वर्मा जी ने एक दिन फिर तकाज़ा किया, तो अरोड़ा ने पूछा,
""यार तुम किस फ़ोटो की बात करते रहते हो?''
""मेरी शादी के फोटो।''
""तुम्हारी शादी के फ़ोटो?--- अरे, वो तुम्हारी शादी के फ़ोटो थे? वो तो बहुत दिन तक मेरी मेज़ पर पड़े रहे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था, किस के हैं।''
""मेरे हैं, तुम लाकर दे दो।''
""दे दो? वो तो सभी मैंने फाड़ ड़ाले। समझ में ही नहीं आ रहा था, किस बेवकूफ़ के फ़ोटो इतने दिन से पड़े सड़ रहे हैं।''
    एक दिन वह किसी शरीफ़ आदमी का फ़ोटो लेने लगा। वह आदमी, पुराने ज़माने की तरह, बहुत ही गम्भीर मुद्रा में और सांस रोककर कैमरे के सामने खड़ा हो गया। अरोड़ा ने कैमरे से नज़र हटाकर उस आदमी से कहा, ""हज़ूर आप इस तरह अकड़ कर क्यों खड़े हो गये? मैं आपका फ़ोटो ही तो ले रहा हूं। कोई गोली तो नहीं मार रहा!'' मैंने उसे टोका और कहा, ""प्रथम श्रेणी के एक राजपत्रित अधिकारी से यह कैसी बात कह दी!''
वह हंसकर कहने लगा, ""मैं कौन सा राजपत्रित अधिकारी को सचमुच ही गोली मारने लगा था!''
    मेरे मित्र डा0 आर0 के0 वर्मा को 26 जनवरी के दिन, अपने साप्ताहिक पत्र '1970" का जन्म दिन मनाना था। उस भव्य आयोजन में ज़िलाधीश, पुलिस अधीक्षक के अतिरिक्त, नगर की सभी बड़ी हस्तियां मौजूद थीं। मेरे मना करने पर भी, डाक्टर साहब ने अरोड़ा को फ़ोटोग्राफी के लिये बुला लिया। प्रोग्राम शानदार रहा। कई लोगों ने, बड़े  लोगों के साथ पोज़ बनाबना कर फोटो उतरवाये।
    ये फोटो, विशेषांक में छापे जाने थे। विशेषांक के बाद भी अखबार के कई अंक प्रकाशित हो गये। मगर अरोड़ा से वे फोटो न मिल पाये। पता चला, उसके कैमरे में डाली गई रील खराब थी, या कैमरे में रील थी ही नहीं और वह खाली फ्लैश ही मारता हो!
    मगर वह जब मूड में होता तो, कमाल ही कर देता। आधी रात के समय, देहरादून से मसूरी का फ़ोटो लेने के लिये, वह महीना भर रायपुर रोड और तपोवन के जंगलों में घूमता रहा। मगर फ़ोटो अपने हिसाब से 'ठीक" लेकर ही टला। एक बार किसी टयूर से लौटते हुए, बस से उतर कर उसने आधे मिनट में, एक दृश्य को कैमरे में कैद कर लिया। यह छायाचित्र उसका 'मास्टरपीस" कहा जा सकता है।
    वह जब कोई कलात्मक फ़ोटो तैयार करता, उसका एक प्रिंट मुझे अवश्य भेंट करता। मैं पैसे देने लगता, तो हंसकर हाथ जोड़ देता।
    मैंने एक बार पूछ ही लिया, ""फिर किताब के पैसे क्यों दिये थे?''
बोला, ""तब बात और थी। अब तो, आप मेरे बड़े भाई हैं। बड़े भाई से जूते खाये जा सकते हैं, पैसे नहीं लिये जा सकते ।''
    वह स्कूटर बहुत तेज़ चलाता था। मैंने इसके लिये कई बार टोका। मगर वह कब किसी की सुनने वाला था। एक दिन एक्सीडेंट कर ही बैठा। सिर फट गया और उसे अस्पताल में भरती कराना पड़ा। दो तीन दिन बाद वह ज़रा बात करने काबल हुआ, तो मैंने कहा, ""शुक्र है भगवान का, जान बच गई!''
    वह हंस कर बोला, ""भगवान साले ने तो मुझे मार ही डाला था। यह तो डाक्टर भट्टाचार्य का कमाल है, जिसने बचा लिया।
    अपनी शादी के कार्ड छपवा कर, वह स्वयं ही बांटने निकल पड़ा। हमारे दफ़तर के दरवाजे की चौखट पर खड़े खड़े ही वह कई मेज़ों पर कार्ड फेंकते हुए बोला, ""भाई लोगों यह मेरे शुभ विवाह का कार्ड है। आपके पास फ़ाल्तू वक्त हो, तो अवश्य दर्शन दें। वैसे कोई ज़ब्रदस्ती वाली बात नहीं है, क्योंकि शादी तो सिर्फ मेरी है। मेरा वहां उपस्थित होना ज़रूरी है। आपको तो सिर्फ तमाशा देखना है। या प्लेटें चाटनी हैं।''
    इसके बावजूद, हम सभी उसकी शादी में शामिल हुए।
    वहां वह पूरे समय गम्भीर बना रहा। हालांकि मैं डरा हुआ था, कि फेरों के समय, वह कोई उल्टी सीधी हरकत न कर दे।
    शादी के बाद, वह काफी सुधर गया लगता था। कई बार ऊषा जी को लेकर हमारे घर आया और कई बार हम उनके घर गये।
    एक बार पता चला, ऊषा जी की तबीयत कुछ खराब है। मैं सरोज के साथ, पता लेने उनके क्वार्टर पर पहुंचा। पूछा, ""अब क्या हाल है?''
    वह बोल पड़ा, ""आपने यह तो पूछा नहीं इसे क्या बीमारी है।।। दरअसल इसे कोई बीमारी नहीं। इसके सिर्फ़ सिर में दर्द है और दर्द तब होने लगता है, जब कोई मेहमान घर में आ जाये और इसे चाय- वाय बनानी पड़ जाये।''
    ऊषा जी नाराज़ हो गई। मुझ से शिकायत की, ""देख लीजिये भाई साहब, यह मुझे तकलीफ़ में देख कर भी कभी सीरियस नहीं होते और मज़ाक उड़ाते रहते हैं। आप तो अपने ही हैं, कोई बात नहीं। मगर ये तो बाहर वालों के सामने भी मेरा अपमान करने से नहीं चूकते।''
    एक सुबह, वह अपने एयरकंडीशनिंग प्लांट वाले रूम में अपने रोज़मर्रा के कार्य में व्यस्त था। एक मित्र अपना टिफ़िन कैरियर उठाये वहीं आ पहुंचा। अरोड़ा ने कहा, ""आ भई सरदारा, बैठ जा। मगर तू सुबह सुबह यह क्या उठा लाया? मैं तो यार, घर से नाश्ता करके आया हूं।''
    वह बोला, ""तेरे लिये नहीं, यह मेरा दोपहर का खाना है। यहां रख ले, दोपहर को उठा लूंगा।''
    ""यहां कहां रखूं?''
    ""कहीं भी रख दे।''
    फैक्टरी में लंच टाइम का हूटर हुआ, तो सरदार जसवीर सिंह खाने का डिब्बा लेने आ पहुंचा।
    ""कहां है भई मेरा टिफिन कैरियर?''
    ""वो पड़ा है चैम्बर में। अपने आप निकाल ले।''
    जसवीर सिंह ने चैम्बर खोला, तो अपना सिर पीट लिया। बहुत कम तापमान में, टिफ़िन कैरिया, भोजन सहित, चिपक कर रह गया था।
    ""अरोड़ा, यह तूने क्या किया।''
    अरोड़ा ने हंस कर कहा, ""तुम्हीं ने तो कहा था, कहीं भी रख दे। ---यार अब तू रो मत, आज खाना मेरे साथ खा।''
    मेरा उपन्यास 'वायलिन" साप्ताहिक 'जंजीर" में धारावाहिक छापने के लिये, सम्पादक चन्द्रप्रकाश को, वॉयलिन बजाती किसी खूबसूरत लड़की की तस्वीर चाहिये थी। मैंने इसका ज़िक्र अरोड़ा से किया, तो वह बोला, ""मामूली बात है, दो तीन दिन में ऐसा फोटो आपको मिल जायेगा।''   
    वह दो दिन बाद ही वायॅलिन बजाती हुई लड़की का फ़ोटो ले आया। ब्लाक तैयार हो गया और उपन्यास की पहली किस्त भी छप गई।
    किस्त छपने के अगले ही दिन, मुझे फोन कर सेक्योरिटी-इंचार्ज के कमरे में बुला लिया गया।
सेक्योरिटी इंचार्ज का मूड़ काफी खराब था, बोला, ""कम से कम, मुझे आप जैसे द्रारीफ़ आदमी से ऐसी उम्मीद नहीं थी।''
""मगर हुआ क्या?'' मैंने हैरान होकर पूछा।
""यह देखिये।।। यह आप ही की कोई कहानी छपी है और यह फोटो मेरी बेटी का है, जिसकी अगले महीने शादी है।'' मैंने कहा, ""मुझे वाकई बहुत अफ़सोस है। यदि मुझे मालूम होता तो कभी।।।''
वह बोला, ""मैं जानता हूं, यह सिर्फ़ अरोड़ा की शरारत है। मगर आप को भी थोड़ा विचार करना चाहिये।''
मैंने कहा, ""आप निश्चिंत रहे। आगे किसी भी अंक में यह फोटो नहीं छपेगा।''
    उपन्यास की अगली किस्तों के लिये नया ब्लाक तैयार करना पड़ा।
    वह लाडपुर ग्राम में अपना मकान तामीर करा रहा था। मिस्त्री लोगों के साथ, वह स्वयं भी काम में पिला रहता। हर काम उन्हें अपने हिसाब से कराता। पलम्बर पाइप पर चूड़ियां काटने लगा, तो उसे रोक, स्वयं चूड़ियां काटने लग पड़ा। पलम्बर मुंह बनाने लगा तो बोला, "तुझे मज़दूरी पूरी मिलेगी। बात सिर्फ इतनी है, कि तुम चूड़ी काटोगे, तो लीकेज रोकने के लिये धागे बांधने पड़ेंगे। मैं चूड़ी काटूंगा, तो बिना धागा बांधे भी कभी पानी लीक नहीं करेगा।''
    मैंने एक दिन पूछा, "बाल बच्चेदार हो गये हो। अब तो स्कूटर ज्यादा तेज़ नहीं चलाया करते?''
    वह लापरवाही से बोला, "अब कहां तेज़ चलाता हूं, अस्सी नब्बे से ऊपर, कभी स्पीड नहीं जाने देता।''
    कुछ ही दिन बाद की बात है, वह अपनी बेटी को, स्कूटर पर मसूरी छोड़ने जा रहा था। मालूम नहीं, तब स्पीड क्या रही थी, क्योंकि टर सामने आते वाहन ने दे मारी थी। बिटिया को तो मामूली चोंटे आईं। मगर वह स्वय---इस बार उसे न तो भगवान बचा सका और न ही कोई डाक्टर!
                           

Thursday, January 8, 2009

किसी नयेपन की तलाश में

संस्मरण

मदन शर्मा

देहरादून में, घंटाघर चौराहे से, पल्टन बाजार और चकराता रोड के मध्य और हनुमान मंदिर के पीछे, 'चाट वाली गली" है। इसी गली से निकलती एक अन्य गली, 'भगवान नगर" कहलाती है। इसी भगवान नगर के एक मकान के प्रथम तल पर, हिंदी की सुप्रसिद्ध कथा लेखिका शशि प्रभा शास्त्री का निवास था।
मैं अब तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में, शशी प्रभा शास्त्री की रचनाएं पढ़ता रहा था। किंतु यह नहीं मालूम था, कि वे देहरादून में ही रहती है। एक दिन, जब '1970" साप्ताहिक के साहित्य सम्पादक इन्द्र कुमार कड़, श्रीमती शास्त्री से भेंट के लिये जाने लगे, तो मैं भी उनके साथ हो लिया।
उनकी सादगी देख, ऐसा ज़रा भी नहीं लगा, कि वे एक बड़ी या प्रसिद्ध लेखिका हैं। साधारण पहनावा, जैसे अचानक किचन से निकल कर इधर आ बैठी हों। घर का रख-रखाव और बातचीत भी अति साधारण और सहज।
इन्द्र कुमार ने उन्हें मेरे बारे में बताया, कि मैं कहानियां वगैरा लिखता हूं और हाल ही में, एक उपन्यास भी प्रकाच्चित हुआ है। सुन कर वे प्रसन्न हुईं और उपन्यास दिखाने का आग्रह किया। मैं 'शीतलहर" की प्रति साथ लेकर गया था। झिझक के साथ, प्रति उन्हें भेंट कर दी।
एक सप्ताह बाद, उनका पत्र मिला। पढ़ने की कोशिश की, तो पढ़ा ही नहीं गया। इतना ही अनुमान लगा सका, कि 'शीतलहर" के बारे में कुछ लिखा है और किसी दिन मिलने का भी आग्रह किया है।
मेरा यह प्रथम उपन्यास, किस स्तर का है, मुझे पता चल ही चुका था। उस पर अन्य क्या-क्या टिप्पणियां सुनने को मिल सकती हैं, इसका अनुमान भी लगा चुका था। इस के बावजूद, मैं भगवान नगर जा पहुंचा।
सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर पहुंचा और कालबेल का बटन दबाया। दरवाज़ा खुला और वे नज़र आईं।
""कहिये?'' उन्होंने प्रश्न किया।
अर्थात, उन्होंने मुझे नहीं पहचाना था।
""मैं मदन शर्मा हूं।'' मैंने लज्जित सा होकर कहा।
""अरे अरे, मैं भी बस क्या हूं! आइये आइये।।। बैठिये।''
कुशल क्षेम पूछ, वे भीतर जाकर चाय बना कर ले आईं। चाय के साथ-साथ उन्होंने 'शीतलहर" के बारे में बातचीत शुरू कर दी।।। मैंने आपका उपन्यास पढ़ लिया। आप अच्छा लिखते हैं, मगर पुस्तक में छपाई की बहुत गलतियां हैं। संवादों में कहीं कहीं कच्चेपन की झलक है। भा्षा में भी कई जगह अटपटापन नज़र आता है। मगर एक बात है, कि आप कहानी और घटनाओं को काफी रंगीन बना लेते हैं। वैसे ओवर आल, आप का यह उपन्यास रोचक है।।।
मैं कुछ नहीं बोला।
अचानक उन्होंने पूछा, ""आपने एम0 ए0 किस विषय में किया था?''
मैंने कहा, ""मैंने तो बी0 ए0 भी नहीं किया। दरअसल, मैं बहुत कम पढ़ा लिखा हूं। थोड़ी उर्दू और अंग्रेज़ी ही पढ़ी है।''
वे न जाने क्या सोचने लगीं। फिर बोलीं, ""आप जब अपना अगला उपन्यास छपने के लिये भेजने लगें, तो मुझे ज़रूर दिखा दें।''
मैंने बताया, कि मैं अगला उपन्यास प्रका्शक के पास भेज चुका हूं।
तब उन्होंने पुन:शीतलहर पर बातचीत शुरू कर दी और उसकी कमियों की ओर मेरा ध्यान दिलाया।
द्राच्चिप्रभा शास्त्री से मेरी तीसरी भेंट, उनके एम0 के0 पी0 कालेज में हुई। उस समय वे वहां प्रचार्या के पद पर थीं। मैं अपने संस्थान की ओर से, अपने एक सहयोगी के साथ, डिफेंसफंड एकत्रित करने के सिलसिले में वहां गया था। उन्होंने इस बार भी मुझे नहीं पहचाना था। हम लोग डिफेंस फंड के बारे में बातचीत करते रहे। जब उठने लगे, तो मैंने कह ही दिया, ""आपने शायद मुझे पहचाना नहीं।''
""आप को मैंने।।। कहीं देखा तो है।'' वे कुछ याद करने की कोशिश कर रही थीं।
""मैं मदन शर्मा हूं।'' आज मैं, फिर से अपना परिचय देते लज्जित नहीं हुआ।
""ओह।।।!''
उन्हें अपनी स्मरण शक्ति पर, सचमुच अफ़सोस हो रहा था। मैंने 'कोई बात नहीं" कहा और हम दोनों हंसते हुए, दफ़तर से बाहर चले आये। मैं अब अपने सहयोगी से आँखें चुरा रहा था, क्योंकि मैंने अपने संस्थान में डींग मार रखी थी, कि मेरा शशिप्रभा शास्त्री से, अच्छा परिचय है।
दैनिक 'पंजाब केसरी" के साहित्य सम्पादक अशोक प्रेमी ने आग्रह किया था, कि मैं कथा लेखिका शशिप्रभा शास्त्री के बारे में एक लेख लिख कर भेजूं। मैंने तुंरत इन शब्दों के साथ लेख शुरू कर दिया--- आप को यदि श्रीमती शशिप्रभा शास्त्री से भेंट करनी हो, तो भगवान नगर जाना होगा और जितनी बार आप उन से मिलना चाहेंगे, हर बार नये सिरे से आपको अपना परिचय देना होगा---
'पंजाब केसरी" में छपा मेरा वह लेख चर्चित हुआ। शशिप्रभा ने उसे पढ़ा और किसी दिन मिलने के लिये मुझे पत्र लिखा।
मैं अपने नव प्रकाशित उपन्यास 'अंधकार और प्रकाश" की प्रति लेकर उनके निवास पर पहुंचा। उस दिन दरवाजा, उनके पति धर्मेंद्र शास्त्री जी ने खोला। वे बोले,
""वे तो घर पर नहीं हैं। मेसेज छोड़ जाइये।''
""कह दीजियेगा, मदन द्रार्मा आया था।''
""अरे, आप मदन शर्मा हैं! आइये आइये, भीतर आकर बैठिये।''
धर्मेंद्र शास्त्री के बारे में मैंने सुन रखा था, कि वे यहां के डी0 ए0 वी0 कालेज में संस्कृत के विभागाघ्यक्ष हैं और किसी ऐरे-गैरे को घास डालना पसन्द नहीं करते। किंतु उस दिन जिस गरम जोशी के साथ, उन्होंने मेरा स्वागत किया, स्वयं चाय बना कर लाये, तो लोगों की उनके प्रति बनी धारणा निर्मूल सिद्ध हुई।
""आप का पंजाब केसरी में छपा लेख मैंने पढ़ा। वाह! क्या खूब लिखते हैं आप!
मज़ा आ गया!''
मैं पानी-पानी हुआ जा रहा था। पछता रहा था, क्यों मैंने यह हिमाकत की!
इतने में शशिप्रभा जी भी आ पहुंची। आज उन्होंने मुझे पहचानने में भूल नहीं की थी। बजाय नाराज़ होने के, उन्होंने भी मेरे लेख की प्रशंसा की और यह भी कहा,
""मदन जी, आप में एक अच्छे व्यंग्य लेखक होने के गुण मौजूद हैं। आप अपने अभ्यास को जारी रखें और मैं यह बात मज़ाक में नहीं कह रही हूं।''
मैंने अपने नये उपन्यास की प्रति उन्हें भेंट की। वे बहुत खु्श हुई और कहा, ""पढ़ कर बताउंगी, कैसा हैं।'' मेरा यह उपन्यास उन्हें बहुत पसन्द आया था। उन्होंने तीन प्रष्ठ लम्बी प्रतिक्रिया के साथ, आश्चर्य भी व्यक्त किया, कि शीत लहर जैसे अति साधारण उपन्यास के एक दम बाद मैं कैसे एक अच्छा उपन्यास लिख पाया।
उसके बाद, मैं अकसर प्रकाशनार्थ भेजने से पूर्व, अपनी रचना के बारे में शशिप्रभा जी से राय ले लेता। वे अपनी नि्श्पक्ष राय देतीं। किंतु यह कभी ज़ाहिर न होने देतीं, कि वे स्वयं बहुत बड़ी साहित्यकार हैं। वे स्वयं अपनी रचनाओं के बारे में मेरी राय जानना चाहतीं। उन्होंने अपने कई उपन्यास और कहानी संग्रह स्ास्नेह मुझे भेंट किये। उन्होंने ही मुझे 'संवेदना" और 'साहित्य संसद" की गोष्ठियों में नियमित भाग लेने की सलाह दी और बताया, कि वे स्वयं जो कुछ सीख पाई हैं, वह इन गोष्ठियों के माध्यम से ही सम्भव हुआ है।
बहुत से लोगों का उन के बारे में नज़रिया कुछ भिन्न ही रहा।।। वे घंमडी हैं लोगों से मिलना जुलना या बात करना पसंद नहीं करतीं, वगैरा वगैरा--- मगर मुझे वे कभी ऐसी नहीं लगीं। मूडी ज़रूर थीं। रिज़र्व भी थीं। बात तभी करती थीं, जब बहुत ज़रूरी हो। मैं जब भी उन से मिला, वे प्रसन्न ही नज़र आई। घंटों तक बातचीत होती। वे एक अच्छी मेहमान नवाज़ थीं।
एक दिन मैंने कह ही दिया, ""दीदी, आप अपने माहौल से कभी बाहर क्यों नहीं निकलती?''
वे चकित होकर बोली, ""कौन सा माहौल?''
""लोगों से मिलिये जुलिये। आम लोगों की तकलीफ़ों और समस्याओं को नज़दीक से परखिये। कम से कम, कमरे से बाहर निकल कर, ताज़ा हवा में चहल कदमी का आनन्द लीजिये।''
वे हंसने लगीं। फिर पूछा, ""उस से क्या हो जायेगा?''
""बहुत कुछ नया मिलेगा। लेखन में ताज़गी आयेगी।''
वे अब गम्भीर नज़र आने लगीं। फिर लम्बी सांस लेकर बोलीं, ""क्या करना नयेपन या ताज़गी का! मेरे लिये यह पुराना और बासी ही काफ़ी हैं। वैसे मैं लिखती भी क्या हूं! बस, यों ही उल्टी सीधी लकीरें खींच मारती हूं।''
मैंने पूछा, ""आप के हाथ से लिखा, प्रेस वाले पढ़ते कैसे होंगे?'' वे हँस कर बोली, ""टाइप कर के भेजती हूं।''
किंतु वे जब एक बार अपने उस कमरे या घर से बाहर निकलीं, तो सीधी अमरीका ही जा पहुंचीं। उनका बेटा वहां सपरिवार रहता था। वहां वे कई महीने रहीं। वहीं से लिखा उनका पत्र मिला। लिखा था--- यहां बहुत कुछ देख लिया। नया और ताज़ा, यही तो चाहते थे न आप! अब शीघ्र ही वापिस लौटूंगी और आप सभी से मिलूंगी--- वे वहां से यादों का पुलंदा बांध कर अपने साथ लाईं और यहां आते ही एक संस्मरणात्मक उपन्यास लिख डालां यह उपन्यास पर्याप्त रोचक था, किंतु यह भी उनके अन्य उपन्यासों की तरह र्चर्चित न हो पाया।
उनके कई उपन्यास और कहानी संग्रह पढ़ने को मिले। किंतु एक छोटा सा उपन्यास 'छोटे छोटे महाभारत" मुझे सबसे अच्छा मालूम पड़ा। हालांिक स्वयं शशिप्रभा जी को अपना यह उपन्यास बहुत मामूली लगा था।
कुछ महानुभावों का कहना था, कि उनके अपने पति के साथ सम्बन्ध खुशगवार न थे। मगर मुझे कभी ऐसा नहीं लगां। एक रात जब शास्त्री जी सोये, तो सुबह, जगाये जाने पर भी न उठे। तब उन पर जैसे गम का पहाड़ ही टूट पड़ा था। उसके बाद मैंने उन्हें कभी हंसतें हुए नहीं देखा। ऐसा लगता था, जैसे टूट सी गई हों। उसके बाद उन्होंने जो लिखा, वह भी जैसे बेमन से ही लिखा।
फिर वे कभी बच्चों के पास दिल्ली चली जातीं और कभी देहरादून लौट आतीं। फिर पता भी न चला, उन्होंने कब देहरादून वाला अपना मकान बेच कर, नोएडा में एक फलैट खरीद लिया और देहरादून स्थायी रूप से छोड़ दिया।
उनकी अंतिम रचनाओं में, 'हंस" में प्रकाशित एक कहानी, देहरादून में काफी चर्चित हुई। दरअसल यह कहानी, स्त्री विमर्श के मसीहा श्री राजेन्द्र यादव के 'टेस्ट" की थीं। किंतु शशिप्रभा शास्त्री के स्वभाव के बिल्कुल बरअक्स। इस रचना में देहरादून के चंद साहित्यकार मित्रों को बेबाकी से लपेट लिया गया था और इस प्रकार की कहानी की, कम से कम शशिप्रभा से उम्मीद न थीं। मुझे इस किस्म की कहानी पढ़कर धा सा लगा। मैंने पत्र लिख कर कहानी का ज़िक्र किया, तो उन्होंने टालने के मूड़ में मुझी से पूछा, कि मेरा नाटक 'एडीटर" आकाशवाणी से प्रसारित हुआ या नहीं।
उसके बाद बहुत दिन तक उनका कोई समाचार न मिला और न कोई रचना ही कहीं पढ़ने में आई।
अर्सा बाद, एक पोस्ट कार्ड मिला। लिखा था--- मैं इन दिनों काफी बीमार हूं। कमज़ोरी बहुत बढ़ गई है।।।
मैंने उन्हें फ़ोन पर सूचित किया, कि उन्हें देखने नोएडा पहुंच रहा हूं। उन्होंने 'अच्छा" कहा। किंतु साथ ही पत्र लिखा।।। मदन जी, आप अभी इधर न आयें। मैं इस वक्त आप का स्वागत करने की स्थिति में नहीं हूं।।।
मैं बड़ा निरा्श हुआ, क्योंकि मैं यहां से चलने के लिये तैयार था और वहां सिर्फ उनका पता लेने ही जाना था।
कुछ दिन बाद, उनका फिर पत्र मिला--- मैं अब पहले से काफी ठीक हंू। आप यहां अवश्य आयें। मिलकर अच्छा लगेगा।।।
उस समय मैं स्वयं बीमार पड़ा था। या समझिये, मिलना भाग्य में न था।
थोड़े ही दिन बाद, अखबार में समाचार छपा था।।। हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका शशिप्रभ शास्त्री अब नहीं रहीं---
घुली हुई शाम, वीरान रास्ते और झरने, अमलतास, नावें, सीढ़िया, छोटे छोटे महाभारत, परछाइयों के पीछे और कितनी ही अन्य छोटी या लम्बी रचनाओं की यात्रा समाप्त कर, वे शायद किसी नयेपन की तलाश में, बहुत दूर जा पहंुची थीं और मैंने अपनी स्नेहमयी बड़ी दीदी को हमे्शा के लिये खो दिया था।

Saturday, August 23, 2008

दोस्ती फूलों की बरसात नहीं है भाई



दीवान सिंह मफ्तून और कवि कुलहड़ के साथ अपने अंतरंग संबंधों से भरे, वरिष्ठ कहानीकार और व्यंग्यकार, मदन शर्मा के लिखे संस्मरणों को यहां हम पहले भी दे चुके हैं । मदन शर्मा अपने अंतरंग मित्रों के साथ बिताए समय को सिल सिलेवार दर्ज करते हुए हमें एक दौर के देहरादून से परिचित कराते जा रहे हैं। हम आभारी है उनकी इस सदाश्यता के कि हमारे अनुरोध पर बिना किसी हिचकिचाट के वे हमारी इस चिटठा-पत्रिका के पाठकों के लिए लगातार लिख रहे हैं। अपने पाठकों को सूचित करना अपना कर्तव्य समझते हैं कि ब्लाग वाणी के आंकड़ों के मुताबिक मदन शर्मा इस चिटठा-पत्रिका के अभी तक सबसे ज्यादा पढ़े गए लेखक हैं।
मदन शर्मा 0135-2788210


एक अज़ीम शायर कंवल ज़ियायी



कुछ अर्सा पहले, हिंदी साहित्य के वरिष्ठ आलोचक डा0 नामवर सिंह ने, जब उर्दू शायरी पर अपने खय़ालात का इज़्हार करते हुए, अचानक ही यह फ़रमान जारी कर डाला, कि बशीर बद्र इस सदी के सब से बड़े शायर हैं, तो मेरा चौंक जाना स्वाभाविक था। मेरी नज़र में, बशीर बद्र, एक असाधारण शायर है। मैं स्वयं उनकी उम्दा शायरी का प्रशंसक रहा हूं। मगर दर हकीक़त, इस या पिछली सदी के दौरान, उर्दू में एक से बढ़कर एक, चोटी के शायर हुए हैं, जिन्होंने अपनी बेमिसाल शयरी की बदौलत, उर्दू अदब को अपनी बेहतरीन खिदमत पेश की हैं। अब मैं यहां पर, यदि अपने करीबी रिश्तों के मद्देनज़र यह कह डालूं, कि जनाब 'कंवल" ज़ियायी ऐशिया के सबसे बड़े शायर हैं, तो यह उर्दू अदब के साथ, नाइन्साफ़ी होगी। चुनांचे मैं अपने इस लेख में, महज़ इतना कहना चाहूंगा, कि जनाब हरदयाल दता 'कंवल" ज़ियायी, इस दौर के एक अज़ीम शायर हैं।
एक मुशायरे में, बशीर बद्र के ही, अनेक जुगनुओं से सुशोभित अशआर के जवाब में, जब कवंल साहब ने निम्नलिखित शेर पढ़ा तो पंडाल में देर तक तालियों का शोर बरपा रहा :-
तुम जुगनुओं की लाश लिये घूमते रहोलोगों ने बढ़ के हाथ पर सूरज उठा लिया
'कंवल" ज़ियायी साहब का संबंध, पंजाब के ज़मींदार घराने से है। सुप्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता राजेन्द्र कुमार इनके बचपन के दोस्त थे। यह दोस्ती ताउम्र कायम रहने वाली पी दोस्ती थी। दोनों एक ही गांव 'करूंड़दतां' में, जो ज़िला सियालकोट (पाकिस्तान) में है। वहीं जन्मे, पले पढ़े, खेले और शरारतें कीं। मुल्क की तकसीम के बाद, वे एक साथ दिल्ली पहुंचे और जिंदगी के लिये संघर्ष शुरू किया। यहां से, एक फ़िल्मों में किस्मत आज़माई के लिये बम्बई रवाना हो गया। दूसरे ने भारतीय-सेना में कलर्की को अपना लिया और शायरी शुरू कर दी। मगर ये अलग हुए रास्ते, सिर्फ रोज़ी कमाने के माध्यम थे। उनकी दोस्ती की राह एक थी, जिस पर चलते हुए, वे न तो कभी फिसले और न थके। 'कंवल" साहब का ज़मींदाराना कददावर शरीर, रोआबदार चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें और आंखों में तैरती सुर्खी देख, कितने ही लोग धोखा खा चुके हैं। एक किस्सा वह खुद ही बयान किया करते हैं--- किसी मुशायरे में हिस्सा लेने, वे अन्य शायरों के साथ जब हॉल में दाखिल हुए, तो इनके सियाहफ़ाम चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें देख, किसी ने सरगोशी की--- ये साहब गज़ल पढ़ने आयें हैं या डाका डालने! 'कंवल" साहब ने स्टेज पर खड़े होकर जब यह शेर पढ़ा, तो श्रोताओं के दिल पर, सचमुच ही डाका पड़ गया :-
शक्ल मेरी देखना चाहें तो हाज़िर हैं मगरमेरे दिल को मेरे द्रोरों में उतर कर देखिये
जिस तरह 'कंवल" साहब के कलम में बला की ताकत है, भाषा में सादगी और रवानगी है, शब्दों का उम्दा चयन है, उसी तरह उनकी ज़बान में भी चाश्नी है। उनके पास बैठे कितनी देर तक बातचीत करते जायें, कभी उठने को मन न होगा। शायरी में बेहद संजीदा और बातचीत में उतने ही मस्त और फक्कड़। 'कंवल" साहब की आंखों मे जो सुर्खी तैरती नज़र आती है, वह शराब की नहीं, शायरी का 'खुमार" है। मौजूदा बदनज़ामी और बेहूदगियों के खिलाफ़ एक आग है, जो हरदम उनके दिल में भी धधकती रहती हैं। वे शराब नहीं पीते। कभी पी भी नहीं। हाथ में थामें जाम से, कोका कोला के घूंट भर-भर कर, वे कितनों को धोखा दे चुके हैं। शराब कभी न चख कर भी, वे शराब पर अनगिनत शेर कह चुके हैं :-
रात जो मयकदे में कट जायेकाबिल-ए-रश्क रात होती हैबाज़ औकात मय काहर कतराइक मुकम्मल हयात होती है
'कंवल" साहब एक खुद्दार शायर हैं। वे दूसरों पर एहसान करना जानते हैं, एहसान लेना नहीं जानते। कभी अपनी रचना किसी के पास छपने के लिये नहीं भेजेंगे। कोई यार दोस्त या ज़रूरतमंद, रचना मांग ले, तो अपनी नवीनतम गज़ल या नज़्म भी, उठा कर बड़ी विनम्रता और खलूस से पेश कर देंगे। उन के अब तक दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। 'प्यासे जाम' उनके कलाम का पहला संग्रह था, जिस का हिन्दी रूपांतर तैयार करने का शुभ अवसर मुझे प्राप्त हुआ था। इन्द्र कुमार कड़ ने इस पुस्तक का संपादन किया था। दूसरा संग्रह 'लफ़ज़ों की दीवार" उर्दू लिपि में छपा, जिसका विमोचन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा जी ने किया। इन दोनों संग्रहों में शामिल गज़लों, नज़्मों या कतआत का एक भी मिस्रा ऐसा नहीं, जिसे किसी भी जानिब से कमज़ोर कहा जा सके। फिल्म अभिनेता पदम श्री राजेन्द्र कुमार के साथ, 'कंवल" साहब की दोस्ती, मुस्तकिल और पुख्ता थी। दोनों ही, यह रिश्ता निभाने में माहिर निकले। 'कंवल" साहब चाहते, तो एक मामूली से इशारे पर ही, राजेन्द्र कुमार इनकी गज़लों यां नज़्मों का इस्तेमाल, स्तरीय संगीतकारों के माध्यम से फ़िल्मों में करा सकते थे, जिस से 'कंवल" साहब रूपयों से मालामाल हो जाते। मगर कंवल साहब ऐसा इशारा करने वाले नहीं थे और राजेन्द्र कुमार अपनी ओर से कुछ करने में इसीलिये संकोच करते रहे कि ऐसा करने से कहीं दोस्त की 'खुददारी" को ठेस न पहुंच जाये :-खुदी मेरी नहीं कायल किसी एहसानमंदी कीमेरे खून-ए-जिगर से मेरा अफ़साना लिखा जाये 'कंवल साहब" से, पहली बार मेरी मुलाकात, एक अदबी नशिस्त के दौरान हुई। इस गोष्ठी में मेरे संस्थान के साथी और शायर स्व0 कृपाल सिंह 'राही" को अपनी नई लिखी गज़ल, समीक्षा के लिये पेश करनी थी। 'राही" साहब ने गज़ल का एक-एक शेर पढ़ना शुरू किया। प्रतिक्रिया देने के इरादे से 'कंवल" साहब ने हर शोर गौर से सुना और जब प्रतिक्रिया स्वरूप कहना शुरू किया, तो 'राही" साहब को तो ऊपर से नीचे तक तो पसीना आया ही, स्वयं मेरी भी हालत, लगभग 'राही" साहब जैसी हो गई, क्योंकि मैं भी अपना अफसाना 'बचपन का दोस्त" यहां पढ़ने के इरादे से, कोट की जेब में रख कर ले आया था। 'राही" साहब की हालत देख, मेरा हाथ, कोट की जेब तक पहुंचने के लिये हिल भी नहीं पाया और खुदा गवाह है, कि मैं आज तक, अपनी कोई रचना, उनके सामने पेश करने को हौंसला नहीं कर पाया। यह दीगर बात है कि 'कंवल" साहब से मुझे हमेशा अपनों जैसा प्यार और विश्वास मिला है। फिर हमारी मुलाकातों का सिलसिला ही शुरू हो गया। साहित्य सम्पादक इन्द्र कुमार कड़ के साथ मुझे कितनी ही बार 'कंवल" साहब के निवास पर जाकर, उन से बातचीत करने का मौका मिलता रहा। वहां हमें, उन से बहुत कुछ सीखने को मिला, जिस का संबंध, शायरी के अलावा, इन्सान और जिंदगीं की किताब से था। 'कंवल" साहब के ज्ञान का दायरा बहुत विस्तृत है और उन्होंने जिंदगीं को बडे करीब से देखा है।
जिंदगीं मेहरबान थी कल तकआज मैं जिंदगीं का मारा हूंआसमां के हसीन दामन काइक टूटा हुआ सितारा हूं
कंवल साहब के शागिर्दों की तादाद लंबी है। कहा जाता है, कि वे अपने आप में एक 'इस्टीटयूशन' हैं। 'बज़्म-ए-जिगर' नाम की साहित्य-संस्था के माध्यम से, उन्होंने एक लम्बे अर्से तक देहरादून के माहौल को उर्दूमय बनाये रखा। अपनी शायरी की आरंभिक अवस्था में उन्होंने प्रसिद्ध शायर जनाब पंडित लब्भूराम 'जोश' मलसियानी साहब से इस्लाह ली। इनकी शायरी, हज़रत 'दाग' की रवायती शायरी के काफ़ी नज़दीक तसलीम की जाती है। 'कंवल' साहब की शायरी के बारे में, मैं स्वयं अपनी तरफ़ से कुछ कहने के लिये, मौज़ूं अलफ़ाज़ तलाश करना, मेरे लिये बहुत कठिन काम है। ऐसे अलफ़ाज़, जो 'कंवल' साहब की शायरी के स्तर को छू सकें। वैसे भी इस बारे में जो कुछ कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी 'सहर', 'साहिर' होशियारपुरी, रामकृष्ण 'मुज़्तिर", पदमश्री राजेन्द्र कुमार, साहित्य समीक्षक इन्द्रकुमार कक्कड़, 'विकल' ज़ेबाई, अवधेश कुमार, राशिद जमाल 'फ़ारूकी' और दीगर साहिबान, लिख चुके हैं, उसके बाद लिखने को कुछ भी बाकी नहीं रह जाता। अलबता अपनी जानिब से मैं 'लफ्जों की दीवार' कविता-संग्रह से चंद अशार दर्ज करना चाहूंगा, ताकि पढ़ कर आप खुद अंदाज़ा लगा सकें, कि जनाब 'कंवल' ज़ियायी का, उर्दू और हिंदी के मौजूदा दौर में, शायरी का क्या मकाम है।
लफ्ज़ों की दीवार के आगे अक्स उभर आया है किसकाखंजर लेकर कौन खड़ा है लफ्ज़ों की दीवार के पीछे
मैं छुप कर घर में आना चाहता हूंलगी है किस गली में घात लिखना
जिंदगीं आज है इक ऐसे अपाहिज की तरहला के जंगल में जिसे छोड़ दिया बच्चों नेआज के दौर की तहज़ीब का पत्थर लेकरएक दीवाने का सिर फोड़ दिया बच्चों ने
हमारा खून का रिश्ता है सरहदों का नहींहमारे खून में गंगा भी है चिनाव भी है
हम न हिंदु हैं न मुसलिम है फ्क़त इन्सां हैंहम फ़कीरों की कोई ज़ात नहीं है भाईदोस्ती उड़ती हुई गर्द है वीरानों कीदोस्ती फूलों की बरसात नहीं है भाई
मैं भी इन्सां हूं तू भी इन्सां हैक्यों मुझे देखता है खुदा की तरह
इक इन्कलाब आके मेरे पास रूक गयामुझ से ही मेरे घर का पता पूछता हुआतू मुझ को क्या पढ़ेगी ऐ निगाह-ए-वक्तवो खत हूं जिसका हर लफ्ज़ है मिटा हुआ
सोच रहा हूं कदम बढ़ाऊं किस जानिबआगे आग का दरिया है पीछे सूली है
कांधों पर रख के अपने फ़रायज़ के बोझ कोअपने ही घर में हम रहे मेहमान की तरह
वोह शख्स मेरे सामने मुजरिम की तरह हैमैं उस के रूबरू हूं गुनाहगार की तरह
मुफ़लिस तो हूं ज़रूर बिकाऊ नहीं हूं मैंक्यों मुझको देखता है खरीदार की तरह
साफ़ था जब ज़ीस्त का शीशा तो आंखें खुश्क थींज़ीस्त के शीशे में बाल आया तो रोना आ गया
हमारी मुफ़लिसी की आबरू इसी में हैन तुझ से मैं ही कुछ मांगू न मुझ से तू मांगे
जिन जंगलों में छोड़ गई हम को ज़िदगींउन जंगलों से लौट कर कोई न घर गया
पेट के शोलों का जब आयेगा होंटों पर सवालएक रोटी से करेंगे मेरा सौदा आप भीधज्जियां जिस की उड़ा दी हैं बदलते वक्त नेदरम्यां इक दिन गिरा देंगे वोह पर्दा आप भी
सुना है आप के हाथों में इक करिश्मा हैजो हो सके तो सकूने-ए-अवाम लौटा दो
बातचीत के दम पर आओ वक्त काट लेंदोस्ती पे गुफ्तगू दोस्ती से बेहतर है
जब से खाई है कसम तुमने वफ़ादारी कीइक नये रूप का इनसान निकल आया हैजिस को दरवेश समझ बैठे थे बाज़ार के लोगवोह इसी शहर का धनवान निकल आया है
अपनी ही जगह अच्छी अपना ही मकाम अच्छाअम्बर से उतर आओ धरती पे चलो यारो
हम किसी तौर-ए-तअल्लुक के नहीं कायलजो सज़ा हम को सुनानी है सुना दी जाये
शक सा होने लगा है देख कर माहौल कोघर को शायद लूट लेना चाहते हैं घर के लोग
अब न दीवाना कोई है न कोई उठती नज़रघर का दरवाज़ा अंधेरे में खुला रहने दोमौत अपनी का तमाशा भी तो खुद देख सकेहर नई लाश की आंखों को खुला रहने दो
चंद साँसों के लिये बिकती नहीं है खुद्दारीज़िंदगीं हाथ पे रखी है उठा कर ले जा
'कंवल" ज़ियायी साहब ने, एक कलर्क का आम जीवन भी हँसते-खेलते और बड़ी शान के साथ व्यतीत किया है। उसी अल्प आय में, उन्होंने बच्चों को पाला, पढ़ाया-लिखाया और शादियां कीं। उर्दू साहित्य में आज वे जिस मकाम पर हैं, वहां तक पहुंचाने में, निश्चित ही आदरणीया श्रीमती वेदरानी दत्ता साहिबा का बड़ा हाथ रहा है, जिन्होंने 'कंवल" साहब की शायरी को, कभी 'सौत" नहीं माना और ज़िंदगीं के हर एक नरम या सख्त दौर में, एक आदर्श भारतीय नारी की तरह पति का साथ दिया और सेवा की है। उन्हीं से सुनी एक दिलचस्प घटना का ज़िक्र कर रहा हूं। एक बार किसी महफ़िल में, चंद दोस्तों ने शरारतन, 'कंवल" साहब के कपड़ों पर शराब छिड़क दी। वे दरअसल देखना चाहते थे, कि 'कंवल" साहब जब घर तशरीफ़ ले जायेंगे, तो भाभी जी उनका किस तरीके से इस्तकबाल करती हैं। वे घर पहुंचे और 'कंवल" साहब के कपड़ों से निकलती गंध नाक तक पहुंची, तो उन्होंने हंसते हुए महज़ इतना ही दरियाफ्त किया, 'यह शरारत किसने की है?'

Sunday, April 27, 2008

अखबार में छपे मैटर की लाइफ एक दिन या हफ्ता भर और ब्लाग पर छ्पे की --- ?

सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" पर मदन शर्मा का संस्मरण

उर्दू पत्रकारिता के पितामह सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" ने अपनी आयु के अंतिम द्स वर्ष, राजपुर (देहरादून) में व्यतीत किये। उन दिनों उनसे मेरा निकट का सम्बन्ध रहा।
मफ्तून साहब ने दिल्ली में 54 वर्ष साप्ताहिक 'रियासत" का शानदार सफलतापूर्वक सम्पादन किया। वे एक उच्च कोटि के लेखक थे। उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ 'नाकाबिल-ए-फरामोश" और 'जज़बात-ए-मशरिक," भारतीय साहित्य में मील का पत्थर हैं। हज़रत जोश मलीहाबादी और महात्मागांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, खुशवंत सिंह और अन्य हज़ारों साहित्य प्रेमी उनके प्रशंसक, रियासतों के राजा-महाराजा, उनके नाम से ही जलते थे। उर्दू लेखक कृश्नचन्दर की प्रथम रचना को उन्होंने तब 'रियासत" में प्रकाशित किया था जब कृशनचन्दर कक्षा नौ के विद्यार्थी थे।
देहरादून में, राजपुर बस-स्टाप से बायें हाथ, चौड़ी पक्की सड़क मसूरी के लिए है। बिल्कुल सामने एक पतली-सी चढ़ाई, कदीम राजपुर के लिए खस्ताहाल मकानों से होते हुए, शंहशाही आश्रम की ओर ले जाती है। इन दोनों मार्गों के बीच, एक बाज़ूवाली गली है जो घूमकर पुराने राजपुर के उसी मार्ग से जा मिलती है। इसी गली में कभी, उर्दू पत्रकारिता के पितामह सरदार दीवान सिंह मफ्तून ने अपनी आयु के अंतिम दस वर्ष व्यतीत किये थे। यहाँ वे दो बड़े कमरों, लम्बें बरामदों और खुले आंगन वाले पुराने से मकान में अकेले रहते थे। आयु 80 के ऊपर थी। सीधा खड़ा होने में पूर्णत: असमर्थ। काफी झुककर या घिसट-घिसट कर किचिन या टॉयलेट तक जाते और अपना काम निबटाते। पड़ोस में रहने वाली स्वरूप जी, घर की साफ-सफाई कर जाती, या चाय-वाय की व्यवस्था कर देती। दिल्ली में, धड़ल्ले से छपने और देश-भर में तहलका मचा देने वाला साप्ताहिक 'रियासत" कभी का बंन्द हो चुका था। लेकिन राजपुर वाले इस मकान के दफ्तर में, लम्बी चौड़ी मेंज़ों पर मोटी-मोटी फ़ाइलें, रियासत के सिलसिलावर अंक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, कृश्नचन्दर, सआदत हसनमंटो और अन्य सैकड़ों प्रशंसकों द्धारा लिखे पत्र, अलग-अलग फ़ाइलों में मौजूद हैं। एक जगह खुशवंत सिंह का नाम भी दिखाई पड़ रहा है।
उस मकान में वह अकेले रहते थे। मगर हर रोज मिलने वालों का तांता लगा रहता। यार-दोस्त, प्रशंसक, पत्रकार, मश्वरा लेने वाले। वे एक माने हुए मेहमान नवाज़ थे। मेहमान को हमेशा भगवान का दर्जा दिया करते।
ज्ञानी जैल सिंह उन दिनों पंजाब के मुख्यमंत्री थे। मफ्तून साहब से मिलने आये थे। बात-चीत हुई। ज्ञानी जी ने कहा-" आप यहाँ उजाड़ में पड़े क्या कर रहे हैं, चंडीगढ़ आजाइये''
""चंडीगढ़ में क्या करूंगा?'' मफ्तून साहब ने पूछा। ज्ञानी जी ने सहज भाव से कहा, "बातें किया करेंगे।'' मफ्तूत साहब छूटते ही बोले, "तुमने मुझे सोर्स ऑफ एन्अरटेनमेंट समझ रखा है?''
दोनों खिलखिला पड़े। उन्हें दो जगह से पेंशन मिल रही थी। पंजाब सरकार से और केंद्र सरकार से भी। इसके अतिरिक्त कितने ही उनके पुराने प्रशंसक थे, जों अब भी उन्हें चेक भेजते रहते थे और उसमें से बहुत को वे जानते तक नहीं थे। वे कहा करते---" इस जमाने में भी आप अगर काबिल हैं और आपका क्रेक्टर है तो लोग आपके पीछे, रूपए की थैलियां लिए घूमेंगे ---''
मैंने अब तक उनके बारे में महज़ सुना था। मिलने का कभी मौका न मिला था। एक दिन इन्द्र कुमार कक्कड, ""1970'' साप्ताहिक के लिये उनका साक्षात्कार लेने गये, तो अपने मोटर साईकिल पर मुझे भी साथ ले गये।
वे लम्बे चौड़े शरीर के खुशमिज़ाज, मगर लाचार से व्यक्ति नज़र आये। बिस्तर पर तकियों के सहारे अध-लेटे हुए वे बातचीत कर रहे थे। बाद में भी वे अकसर ऐसी अवस्था में ही नज़र पड़े।
उन्होंने बारी-बारी, हम दोनों से परिचय प्राप्त किया। मेरे बारे में मालूम कर, कि मैं उपन्यास वगैरा लिखता हूँ, उन्होंने हंसते हुए, लेखकों और कवियों के बारे में दो-तीन लतीफे सुना दिये। मुझे फीका सा पड़ता देख, वे अखबार वालों की ओर पलट पड़े-"यह अखबार वाले, क्रिमनल-क्लास के आदमी होते हैं। और इनमें सबसे बड़ा ऐसा क्रिमनल मैं खुद रहा हूँ'' ऐसा कह वे कहकहा लगा कर हंसने लगे।
अचानक उन्होंने मुझ से पूछा, "आपकी पैदायश कहां की है?'' मैंने जगह का नाम बताया, तो वे चौंक कर बोले, "रियासत मलेरकोटला के। मैं वहां कई बार जा चुका हूँ। मैं जिन दिनों महाराजा की मुलाज़मत में था, कई जरूरी कामों के सिलसिले में, मुझे वहां के नवाब अहमद अली खां से मुलाकात का मौका मिला था। मलेरकोटला अच्छी ज्रगह है। वहां के लोग बेहद मेहनती, ईमानदार मगर कावर्ड क्लास के होते हैं। जिस जगह की मेरी पैदायश है वह जगह अब पाकिस्तान में है। वहां के लोग भी बहुत मेहनती होते हैं। पैसा खूब कमाना जानते हैं। वे अच्छे मेहमानवाज होते हैं। मगर उनमें एक खूबी यह भी है, कि वो दुश्मन को कभी मुआफ़ नहीं करते। बल्कि उसका खून पी जाते हैं।''
फिर वे लेखन की ओर मुडे "---कम लिखो, मगर ऐसा लिखो, जो दूसरों से कुछ अलग और अनूठा हो। उस लिखे की उम्र लम्बी होनी चाहिये। अखबार में छपे मैटर की लाइफ एक दिन या हफ्ता भर होती हैं। किसी रसाले में छपा, ज्यादा से ज्यादा एक महीने का मगर जो महात्मा तुलसी दास ने लिखा, उसे कई साल हो गये ---''
पंडित खुशदिल ने अपने उर्दू अखबार 'देश सेवक" के माध्यम से मफ्तून साहब की शान में, कुछ उल्टा-सीधा लिख दिया। मफ्तून साहब को नागवार गुज़रा, क्योंकि उनकी खुशदिल से उनकी पुरानी जान पहचान थी। वे कितनी बार सपरिवार दिल्ली में उनके मेहमान बनकर रहे थे और कितनी बार मफ्तून साहब ने पंडित खुशदिल की माली इमदाद भी की थी। खुशदिल को अपनी गलती का, बाद में एहसास भी हो गया और उसने मफ्तून साहब से मुआफ़ी मांगने की भी कोशिश की थी, मगर मफ्तून साहब की डिक्शनरी में तो मुआफ़ी शब्द मौजूद ही नहीं था। वे मुझे बुला कर कहने लगे, ""मदन जी, आप एक काम कीजिये, देहरादून का जो टॉपमोस्ट एडवोकेट हो, उससे मेरी मुलाकात का टाइम फिक्स कराइये। मैं खुशदिल पर मुकदमा ठोकूंगा और नाली में घुसेड़ दूंगा।''
मैं सरकारी मुलाज़िम होने की वजह से इन दिनों अखबारी शत्रुओं के पचड़ें मे पड़ना नहीं चाहता था, इसलिये चुप ही रहा।
कुछ दिन बाद, मफ्तून साहब का पत्र मिला ---"-आप छुट्टी के दिन इधर तशरीफ़ लायें। जरूरी मश्वरा करना है ---। दीवान सिंह''
मैं जाकर मिला। इधर-उधर की बातचीत और चाय के बाद उन्होंने पूछा, "आप उर्दू से हिंदी में तर्जुमा कर सकते हैं?'' मैंने कहा, "थोड़ा बहुत कर ही लेता हूँ।''
"थोड़ा-बहुत नहीं, मुझे अच्छा तर्जुमा चाहिये। आप फिलहाल एक आर्टिकल ले जाइये। इसे हिन्दी में कर के मुझे दिखाइये, ताकि मेरी तसल्ली हो जाये।''
मैं उनका लेख उठा लाया और अगले रविवार, अनुवाद सहित राजपुर जा पहुँचा।
""आप इसे पढ़ कर सुनाइये।''
मैंने पढ़कर सुना दिया। सुनकर वे चुपचाप बैठे रहे और मैं चाय पीकर वापस लौट आया।
तीन दिन बाद उनका पत्र मिला, जिसमें लिखा था- "मेरे ख्याल के मुताबिक आप एक फर्स्ट क्लास ट्रांस्लेटर हैं। आप अगले रविवार को तशरीफ़ लाकर मेरी किताब का पूरा मैटर तर्जुमे के लिये ले जा सकते हैं।''
मैं उनकी किताब का मसौदा लेने राजपुर पहुंचा, तो बोले, "आप एक बात साफ़-साफ़ बताइये, इस किताब के पूरा तर्जुमा करने के लिये कितना मुआवज़ा लेंगे?''
मैंने चकित होकर कहा, "यह आप क्या कह रहे हैं। मेरे लिये तो यह फ़ख्र की बात है, कि मैं आपकी किताब का हिंदी में अनुवाद कर रहा हूँ। वे मुस्करा कर बोले, "यह आप ऊपर-ऊपर से तो नहीं कह रहे?'' मैने उन्हें यकीन दिलाया, कि जो कह रहा हूँ, दिल से ही कह रहा हूँ। मैंने पूरी किताब का अनुवाद किया। इन्द्र कुमार कक्कड़ ने उसे तरतीब दी और डॉ. आर के वर्मा ने पुस्तक प्रकाशित कर दी।
यह पुस्तक, जिस का नाम 'खुशदिल का असली जीवन" था मफ्तून साहब ने लोगों में मुफ्त तकसीम की और उसके माध्यम से देश सेवक के सम्पादक पंडित खुशदिल को सचमुच नाली में घुसेड़ दिया।
उर्दू के मशहूर शायर जनाब जोश मलीहाबादी ने अपनी ज़ब्रदस्त किस्म की किताब 'यादों की बारात" के एक अध्याय में लिखा है --- पूरे हिंदुस्तान में शानदार किस्म की गाली देने वाले तीन व्यक्ति अपना जवाब नहीं रखते। उनमें पहले नम्बर पर फ़िराक गोरखपुरी का नाम आता है। दूसरे नम्बर पर सरदार दीवान सिंह मफ्तून और तीसरे नम्बर पर खुद जोश मलीहाबादी। इनमें पहले और तीसरे नम्बर के महानुभावों से मिलने का मुझे मौका न मिल सका। मगर मफ्तून साहब से, वर्षों तक मिलने और बातचीत करने के नायाब मौके मिले। सिख होने के बावजूद वे हमेशा उर्दू में ही बातचीत किया करते थे। मगर उस बातचीत के दौरान, वे जिन गालियों का अलंकार स्वरूप प्रयोग किया करते, वे ठेठ पंजाबी में होती। उन गालियों का प्रयोग वे बातचीत में इतना उम्दा तरीके से करते, कि सुनने वाला वाह कह उठता।
मफ्तून साहब की भाषा में एक अन्य विशेषता भी थी। वे जिस तरह बोलते थे, उसी तरह लिखते थे। यह दीगर बात है, कि उस लेखन में वे गालियां शामिल न होती थी। उनके द्धारा बोले या लिखे जाने वाले वाक्य, सरल उर्दू में लेकिन लम्बे होते थे। मगर उनमें व्याकरण की अशुद्धि कभी नहीं मिल सकती थी। उनकी सुप्रसिद्ध किताब नाकाबिल-ए-फ़रामोश का हिंदी संस्करण, 'त्रिवेणी" नाम से छपा। इस किताब के छपने से खूब नाम और पैसा मिला। पुस्तक में जो छपा है, वह मफ्तून साहब के संघर्षमय जीवन का 'सच" है, जो पाठकों के लिये एक मशाल का काम करता है।
नाकाबिल-ए-फ़रामोश के उर्दू संस्करण की सभी प्रतियां खप चुकी थी। किंतु 'त्रिवेणी" की काफी प्रतियां अभी मफ्तून साहब के पास मौजूद थी। उन्होंने अखबार में विज्ञापन दे दिया, कि जो व्यक्ति किताब का डाकव्यय उन्हें मनीआर्डर से भेज देगा, उसे त्रिवेणी की प्रति मुफ्त भेज दी जायेगी। उनका नौकर हर रोज़ किताबों के पैकेट बनाता और पोस्ट आफिस जा कर रजिस्ट्री करा देता। मैंने हैरान होकर कहा, "यह आप क्या कर रहे हैं। इतनी मंहगी किताब लोगों को मुफ्त भेजे चले जा रहे हैं।''
वे हँस कर बोले,
"अब मैं ज्यादा दिन नहीं चलूंगा। मेरे बाद लोग इन किताबों को फाड़-फाड़ कर, समोसे रख कर खाया करेंगे। इससे अच्छा है, जो इसे पढ़ना चाहे, वे पढ़ लें।''
एक दिन दैनिक 'दूनदपर्ण" के सम्पादक एस. वासु उनसे मिलने आये तो कहने लगे, "अपनी इस किताब की एक जिल्द इस नाचीज को भी इनायत फ़रमाई होती।''
मफ्तून साहब ने उतर दिया, "दरअसल यह किताब मैंने उन अच्छे लोगों के लिये लिखी है, जो इसे पढ़कर और अच्छा बना सकें। इसीलिये मैंने यह किताब आप को नहीं दी।''
वासु ने चकित होकर पूछा, ""मेरे अंदर आपने क्या कमी पाई?''
मफ्तून साहब ने उतर दिया, ""कुछ रोज़ पहले, आप रात के बारह बजे मेरे यहां शराब की बोतल हासिल करने की गरज़ से तशरीफ़ लाये थे न? आप यह किताब लेकर क्या करेंगे?''
हिंदी कहानी पत्रिका 'सारिका" में एक कॉलम 'गुस्ताखियाँ"" शीर्षक से छप रहा था, जिसक माध्यम से,, हिंद पॉकेट बुक्स के निदेशक प्रकाश पंडित, अपने छोटे-छोटे व्यंग्य लिख कर जानीमानी हस्तियों पर छींटाकशी किया करते थे। एक बार वह गलती से वे मफ्तून साहब की मेहमान वाज़ी को केन्द्र बना कर बेअदबी कर बैठे। किसी ने सारिका का वह अंक मफ्तून साहब को जा दिखाया। प्रकाश पंडित को मफ्तून साहब अपना अज़ीज मानते थे। सुन कर वह इतना ही बोले, "यह बेचारा अगर काबिल होता, तो किसी की दुकान पर बैठ कर किताबें बेचता नज़र आता।''
मफ्तून साहब उच्च कोटि के सम्पादक और लेखक होने के बावजूद बहुत ही विनम्र थे। वे पहली मुलाकात में जाहिर कर देते थे, कि वे अधिक पढ़े लिखे नहीं है। वे अकसर मज़ाक के मूड में कहते।।। "मैं महज़ इतना पढ़ा हूं, जितना भारत का शिक्षामंत्री मौलाना आज़ाद, यानि पांचवी पास।''
एक दिन उनके पास पंजाबी युनिवर्सिटी के प्रोफेसर मोहन सिंह आये हुए थे। मुझसे उनका परिचय कराते हुए बोले, "इन्हें पिछले दिनों कोई बड़ी उपाधि मिली है। समझ में नहीं आता, जब इनसे बड़ा बेवकूफ मैं यहां मौजूद था, तो यह उपाधि मुझे क्यों नहीं दी गई।''
मफ्तून साहब के व्यक्तित्व में बला का आकर्षण था। उनके द्धारा कही गई साधारण बातचीत में भी गहरा अर्थ निहित रहता। मैं और इन्द्र कुमार कक्कड़, अकसर रविवार के दिन उनके दर्शन करने जाया करते। उन्हें हर वक्त सैकड़ों लतीफे या किस्से याद रहते, जिनके माध्यम से, स्वयं उनके सम्पर्क आये लोगों के चरित्र पर प्रकाश पड़ता था। यह सब बयान करने की उनकी शैली इतनी उम्दा थी, कि सुनने वाला घंटों बैठा सुनता रहे और मन न भरे।
एक बार उनके पास एक आदमी, किसी का सिफारिश पत्र लेकर पहुंचा, जिसमें लिखा था, कि इस ज़रूरत मंद आदमी के लिये किसी कामकाज़ का बंदोबस्त कर दिया जाये। मफ्तून साहब ने उस आदमी के लिये रहने और खाने की व्यावस्था कर दी और कहा, "शहर में घंटाघर से थोड़ी दूर मोती बाज़ार है। वहां पर देश सेवक अखबार का दफ्तर है। आपको यह पता करना है कि वहाँ हर रोज़ लगभग कितनी डाक आती है।''
वह आदमी एक सप्ताह के बाद रिर्पोट लेकर पहुंचा और बोला, "क्या खाक डाक वहाँ पर आती है। हफ्ते भर में सिर्फ एक पोस्ट कार्ड आया, जिसमें लिखा था, कि ---
मफ्तून साहब ने टोका, "श्रीमान जी, मैंने आपको सिर्फ यह मालूम करने के लिये भेजा था, कि वहां पर हर रोज़ कितनी डाक आती है, या किसी का खत पढ़ने के लिये। दूसरों के खत पढ़ने वाले लोग यकीन के काबिल नहीं होते। इसलिऐ मुझे अफसोस है, कि मैं आपके लिए किसी काम का बंदोबस्त नहीं कर सकता।''
मेरे पड़ोसी मोहन सिंह प्रेम, मफ्तून साहब के प्रशंसक थे और उनसे मुलाकात के बहुत इच्छुक थे। मैंने उन्हें राजपुर जाकर मफ्तून साहब से मिल आने के लिये कह दिया। कुछ दिन बाद मैं मफ्तून साहब से मिला, तो वे कहने लगे, "आपने मेरे पास किस बेवकूफ को भेज दिया। वह आदमी जितनी देर मेरे पास बैठा रहा, आत्मा-परमात्मा की बातें ही करता रहा। मैंने बेजार होकर कह दिया, सरदार साहब, दिल्ली में आत्माराम एंड संस को तो मैं जानता हूँ, जो किताबें छापते हैं। मगर आपके आत्मा परमात्मा या धर्मात्मा जैसे लोगों से मेरा कोई वास्ता नहीं।''
एक दिन कोई अखबार वाला उनके पास आकर हालात का रोना रोने लगा ---"क्या बताऊँ, अखबार तो चल ही नहीं रहा। आप ही कुछ रास्ता बतायें।'' मफ्तून साहब ने कहा, "अखबार चलाने के तीन मकसद होते हैं। मुल्क और कौम की खिदमत करना और रूपया कमाना। आपका क्या मकसद हैं?''
वह आदमी बोला, ""जी मैं तो चार पैसे कमा लेना चाहता हूँ, ताकि दाल रोटी चलती रहे'', मफ्तून साहब बिगड़ कर बोले, "आप अखबार चलाने के बजाय, तीन चार कमसिन और खूबसूरत लड़कियों का बंदोबस्त करके उनसे धंधा कराइये। कुछ ही दिन में आपके पास पैसा ही पैसा होगा। आप अखबार चलाने के लायक नहीं।''
एक दिन मैंने कहा, "देश में भ्रष्टाचार तो बढ़ता ही चला जा रहा है। आखिर होगा क्या?'' वे सोचने लगे। फिर बोले, "बहुत जल्द वह जमाना आने वाला है कि यही लोग, जो लीडरों के गले में फूलों के हार पहनाते नहीं थकते, इन्हीं लीडरों के लिये बंदूकें लिये, उनका पीछा करते नज़र आयेंगे।''
बातों का सिलसिला चल रहा था। इन्द्र कुमार ने कहा, "सुना है कृश्न चन्दर को आपने ही छापा था सबसे पहले।'' कृश्नचन्दर के बारे में बताने लगे---"वह तब नौंवी क्लास में पढ़ता था। उसने अपने किसी टीचर का नक्शा खींचते हुए तन्ज या व्यंग्य लिखा और मेरे पास भेज दिया। मुझे पसंद आया और रियासत में छाप दिया। उसको पढ़कर कृश्नचन्दर के टीचर और पिता ने भी, उसकी पिटाई कर डाली थी। काफ़ी दिन बाद उसकी एक कहानी मेरे पास आई। मैंने कहानी पढ़ी और तार दिया---'रीच बाई एयर"।
--- वह अगले ही दिन आ पहुँचा। मैंने कहा, "पहले फ्रेश होकर कुछ खा पी ले, फिर बात करेंगे।''
"यह कहानी तुमने लिखी?''
"जी''।
"इसे यहाँ तक पढ़ो।''
कृश्नचन्दर ने कहा, "यह तो वाकई मैं गलत लिख गया।''
"तो ऐसा करो, इसे अपने हाथ से ही ठीक कर दो। मफ्तून साहब के एकांउटेट ने उन्हें हवाई जहाज़ के आने जाने का किराया और डी. ए. वगैरा देकर विदा किया।''
इन्द्र कुमार ने कहा, "सआदत हसन मंटो के बारे में कुछ बताइये?'' बोले- "मंटो मेरा अच्छा दोस्त था। वह जिन दिनों दिल्ली में होता था शाम के वक्त मेरे दफ्तर में आता और देर तक बैठा रहता। मैं काम में लगा रहता और बीच बीच में उससे बात भी कर लेता। वह उठने लगता तो मैं पूछता,-'पियेगा?" वह जाते जाते रूक जाता और कहता, 'पीलूंगा।" मैं फिर काम में लग जाता। वह फिर उठने लगता, तो मैं फिर पूछ लेता, पियेगा? दो तीन बार ऐसा होने पर वह झुझला कर कहता, पिलायेगा भी कि ऐसे ही बनाता रहेगा?--- एक बार वह लगातार मेरी तरफ़ देखता जा रहा था। मैंने मुस्कुरा कर पूछा, "मंटो, क्या देख रहे हो।'' वह बोला--- "सरदार तुमने अपने माथे पर जो यह बेंडेज बाँध रखी है इससे तुम्हारी पर्सनैलिटी में चार चांद लग जाते हैं।'' मंटो में एक खास बात थी, कि वह एक नम्बर का गप्पी था। वह अपनी कहानी में जान पहचान वालों या किसी फ़िल्मी हस्ती का असली नाम डाल देता और बाकी पूरी कहानी उसके अपने दिमाग की पैदावार होती थी। उसमें ज़रा भी सच्चाई नहीं होती थी। मगर वह लिखता उम्दा था।''
मफ्तून साहब इन्द्र कुमार को सलाह दिया करते--- "मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी गलती थी, शादी करना। वरना मैं बहुत तरक्की करता। कक्कड़, आप हरगिज़ शादी नहीं करना। आप में काबिलियत है, बहुत तरक्की कर सकते हैं ---''
वे चौरासी के आसपास पहुँच चुके थे। शरीर काफ़ी कमज़ोर हो चला था। लेकिन अब भी किसी का सहारा लेना स्वीकार न था। उसी तरह घिसट-घिसट कर टॉयलेट या किचिन तक जाते। मैंने एक दिन साहस बटोर कर कह ही डाला, "ऐसी हालत में आप का परिवार साथ होता, तो बेहतर होता।''
वे मेरी और देखते रहे, फिर बोले, "मेरी बीवी बददिमाग है। उससे हमारी बातचीत बंद है। तीन लड़के हैं। बड़ा लड़का कारोबारी है। खूब पैसे कमाता है। मगर बहुत अकड़बाज है। मैं भी उसका बाप हूं। दूसरा थोड़ा ठीक-ठाक हैं। किसी तरह अपना और बाल बच्चों का गुज़ारा कर लेता है। तीसरा दिमाग से कमज़ोर हैं। मैं कभी कभी उसका माली इमदाद कर दिया करता हँू। मगर उनमें से किसी को भी यहां आने की इज़ाजत नहीं --- दे आर नॉट एलाउडटू एंटर दिस हाऊस।''
वे फिर कहने लगे, "मैंने अपनी जिंदगी में लाखों कमाये। अपने ऊपर खर्च किया। दोस्तों की मदद की। मगर सबसे ज्यादा मेरा रूपया, अखबार पर चलने वाले मुकदमों पर खर्च आ गया, जिस की वजह से दिल्ली में मुझे 'रियासत" का दफ्तर बन्द कर देना पड़ा। हाँ, शादी न करता तो बात कुछ और होती।''
उन्हें महसूस होने लगा था, अब लम्बे सफ़र की तैयारी है। राजपुर बस-स्टैंड के पास शांति की दुकान थी। मफ्तून साहब ने उसे अपने अंतिम संस्कार के लिये कुछ रकम सौंप रखी थी। वे रात को भी दरवाज़ा खुला रख कर सोते। जाने कब बुलावा आ जाये और बेचारे शांति को दरवाज़ा तुड़वाना पड़े। एक बार मैंने कहा, "अगर चोरी हो जाये तो?''
वे हँस कर बोले, "यहां के चोर थर्ड क्लास किस्म के हैं। वे दाल चावल या नमक मिर्च ही चुरा सकते हैं। हाँ, कोई पंजाबी चोर आ गया, तो वह भारी चीज़ उठाने की सोचेगा।''
उनकी बीमारी के बारे में जानकर पंडित खुशदिल भी पता लेने पहुँचे। हालचाल पूछा और अपने किये पर पश्चाताप करते हुए, मुआफ़ी की गुज़ारिश की। मुआफ़ी शब्द मफ्तून साहब की डिक्शनरी में नहीं था। मगर अंतिम समय मानकर उन्होंने केवल एक शब्द कहा, "अच्छा,''
बाद में मफ्तून साहब ने मुझे बताया, "खुशदिल आया था और मुआफ़ी मांग रहा था। मैंने अच्छा कह दिया। मैं एक बात सोच रहा हूँ, कि खुशदिल या तो महापुरूष है, या उल्लू का पट्ठा।''
कुछ अर्सा पहले उन्होंने अपनी नई किताब का मसौदा और प्रकाशन का व्यय, दिल्ली में अपने मित्र और शायर गोपाल मितल के पास भेजा था। पता नहीं चल सका, वह पुस्तक छपी या नहीं।
बहुत बीमार हो जाने पर महंत इंद्रेश चरण जी ने उन्हें कारोनेशन अस्पताल में दाखिल करा दिया। वहां वे प्राइवेट वार्ड में थे। उन दिनों 'फ्रटियरमेल" के सम्पादक दता साहब ने उनकी बहुत सेवा की और मुआमला नाज़ुक जानकर उन्होंने मफ्तून साहब के बेटे को सूचित कर दिया।
लड़के दिल्ली से आये और उन्हें बेहोशी की हालत में, कार में डाल कर ले गये।
दिल्ली में होश आने पर उन्होंने पूछा, "मैं कहां हूँ?''
"आप अपने परिवार में हैं।''
तभी उन्होंने शरीर त्याग दिया।
मदन शर्मा फ़ोन :-0135-2788210

Tuesday, April 1, 2008

देहरादून में रहते थे कवि कुल्हड़



* मदन शर्मा
देहरादून जैन धर्मशाला में, समाज सेवी वीरेन्द्र कुमार जैन की सपुत्री के शुभ विवाह का आयोजन था। काफी चहल पहल का माहौल था। बड़ा हाल अतिथियों से खचाखच भरा था। एक कोने में, आठ-दस प्रशन्स्को से घिरे कवि कुल्हड़, अपनी चिरपरिचित विनोदपूर्ण शैली में बातचीत करने में व्यस्त थे। प्रशन्स्को में से एक ने कह दिया, ""कुल्हड़ जी, कुछ हो जाये।'' ""क्या हो जाये?'' कुल्हड़ जी ने चकित होकर पूछा। ""कोई छोटी-मोटी कविता ही हो जाये।''
कुल्हड़ जी का मूड बदल गया। थोड़ा गम्भीर होकर बोले, ""देखो मित्र, यह छोटी मोटी, लोकल कवि, यहां वहां सुना दिया करते है। हम अखिल भारतीय स्तर के कवि हैं और कविता, कवि सम्मेलन के मंंंंच पर ही सुनाया करते हैं। वो उधर डी। ए। वी। कालेज देहरादून के प्रोफेसर खड़े हैं। वे आप को छोटी मोटी सुना देन्गे। मगर जहां तक हमारी बात है, हम उन में से नहींे, जो मोची से जूता ठीक कराते समय भी, कविता सुनाने लगें।''इसी मेहफिल में, एक सरदार जी, कुल्हड़ जी को बार बार हाथ जोड़े जा रहे थे। कुल्हड़ जी ने उनकी और निहारा और कहा, ""मैंने आपको पहचाना नहीं।'' सरदार जी ने पुन: हाथ जोड़े और कहा, ""मैं तो जी बस आप के जूते साफ करने वाला, एक तुच्छ प्राणी हूं।'' कुल्हड़ जी ने उसकी ओर घूर कर देखा। फिर सस्नेह कहा, ""देखो, यदि जूते साफ करने वाले हो, तो बाहर जाकर बैठ जाओ। यहां सम्मानित अतिथि भोजन करने वाले हैं।'' हास्यरस के वरिष्थ कवि श्री सोमेश्वर दत्त शन्खघर 'कुल्हड़" से मेरी पहली भेंट, आर्य समाज मन्दिर में आयोजित, हिंदी साहित्य समिति की एक बैठक के दौरान हुई। वहीं मौजूद कवि हर्ष पर्वतीय ने उनसे मेरा परिचय कराया। कुल्हड़ जी बड़ी आत्मीयता से मिले और जब हर्ष जी ने उन्हें बताया, कि इन्ही दिनों मेरा उपन्यास प्रकाशित हुआ है, तो वे प्रसन्न होकर बोले, ""किसी दिन मिलिये और अपना उपन्यास भी दिखाइयंए।''

मैंने पूछा, ""आप से कहां भेंट हो सकेगी?'' कुल्हड़ जी ने उत्तर दिया, ""देखो मित्र, मैं अपने निवास पर तो किसी को आमंत्रित नहीं किया करता। एक लोकल कवि मेरे पास आया करता था। वह एक दिन मौका पाकर, मेज़ पर रखे नोट और रेज़गारी लेकर चलता बना।।। आप ऐसा करें, ईस्ट केनाल रोड़ पर हमारा पुरातत्व विभाग कार्यालय है। आजकल वही हमारा ड्राइंगरूम है। आप किसी दिन वहीं आ जायें।''
कुल्हड़ जी से तीन-चार बार मेरी वही भेंट हुई। उसके बाद उन्होंने विधिवत 'पर्मिशन" जारी करते हुए कहा, ""आप शरीफ आदमी जान पड़ते हैं। रेसकोर्स चौराहे के पास, विकास होटल में मेरा निवास है। आप वहीं आ जाया करें।''
कुल्हड़ जी ने मेरा साधारण-सा उपन्यास 'शीत लहर" गम्भीरता से पढ़ा और उस पर पेंसिल से, सभी अशुद्धियों और त्रुटियों पर निशान लगा दिये। भेंट होने पर, उन्होंने विस्तार से बातचीत की और भविषय के लिये कुछ हिदायतें भी दीं। लेखन के बारे में उन्होंने समझाया, ""परिश्रम करो। अच्छा साहित्य पढ़ो और पूरे आत्म विशवास के साथ लिखो। प्रशनसा करने वाले को, शक की निगाह से देखो और अधिक प्रशनसा करने वाले को, तो अपना शत्रु ही जानो। एक बार जम जाने के बाद, जो भी सांप - अजगर मार्ग में नज़र आये, उसे तलवार से काटकर, आगे बढ़ जाओ।''

कुल्हड़ जी के एक घनिषट मित्र हरिसिंह 'हरीश" भी काफ़ी अक्खड़ और मुहंफट किस्म के साहित्यकार थे। वह किसी सरकारी दफतर में अधिकारी थे। एक बार मिले, तो छूटते ही बोले, ""आप को उपन्यास छपवाने की किस अक्लमन्द ने राय दी थी?'' मैं सहम कर रह गया। वे फिर बोले, मैं पढ़ चुका हूं आप का वह उपन्यास। उस में भाव पक्ष तो है, मगर बुद्धि पक्ष का पूर्णत: अभाव है।'' मैं तब भी चुप रहा, तो समीप बैठे कुल्हड़ जी हँसकर बोले, ""हरीश, एक बार सुन लो। इनका उपन्यास जैसा भी है, मगर तुम्हारे उपन्यास से काफ़ी अच्छा है।''
हरि सिंह हरीश ने अपने उपन्यास की प्रति मुझे देते हुए कहा, ""पढ़ कर बताइये, कैसा है।''

कुल्हड़ जी हँसकर बोले, ""कैसा है, यह मैं अभी बता देता हूं। मदन जी, यह हरिसिंह हरीश नाम का व्यक्ति जितना घटिया है, उससे कहीं घटिया, इसका यह उपन्यास है। इस पुस्तक के पांच पृषठ पढ़ जाना भी, हर किसी के वश की बात नही। आप यदि किसी तरह पूरा उपन्यास पढ़ जायें, तो पिक्चर मेरी ओर से।''
उस समय मेैंने कुल्हड़ जी की बात को उपहास में ले लिया था। किंतु जब वह उपन्यास पढ़ा, तो महसूस किया, कि हास्य के दौरान भी वे अकसर गम्भीर ही हुआ करते थे।
उन्हीं हरीश जी का एक और किस्सा याद आ गया। वे एक दिन, कुल्हड जी के निवास पर, मोटर साइकिल पर घ्ाड़घ्ाड़ाते पहुचें और ज़ोर ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाने लगे। कुल्हड़ जी हड़बड़ा कर उठे और दरवाज़ा खोला। हरिसिंह हरीश पर निगाह पड़ते ही, उन्होंने तीन चार भारी भरकम गालियों के साथ स्वागत किया। हरीश जी नाराज़ होकर बोले, ""यार, कभी तो खय़ाल कर लिया करो। मेरी पत्नी साथ है और तुम इस तरह गालियां बके जा रहे हो।''
कुल्हड़ जी ने हाथ जोड़, श्रीमती हरीश को नमस्कार किया और बड़ी विनम्रता से कहा, ""क्षमा कीजिये भाभी जी, दरअसल मैंने आपको देखा नहीं था।'' फिर खिलखिला कर कहने लगे, ""वैसे एक बात तो अच्छी ही हुई। भाभी जी को यह पता चल गया, कि हरिसिंह हरीश की, मित्रों के बीच क्या कद्र है।''
एक दिन, कुल्हड़ जी के दफ़तर के एक सहयोगी ने कहा, ""मैंने आपका इतना नाम सुना है। मगर मैंने आज तक आप की एक भी कविता नहीं सुनी।''
कुल्हड़ जी ने उत्तर दिया, ""आप सौभाग्यशाली हैं। मेरी कविता वो लोग सुनते हैं, जिनकी किस्मत फूट गई होती है।'' फिर वह मेरी ओर मुड़े और पूछा, ""मदन जी, आपने कभी कविता नहीे लिखी।''

मैंने बताया, कि कभी नहीं लिखी।

""क्यों नहीं लिखी? कोशिश तो की ही होगी?'' मैंने कहा, ""कोशिश भी नहीं की।।। मेरे अंदर यह प्रतिभा ही नहीें है।''
कुल्हड़ जी हँसकर कहने लगे, ""आप क्या समझते हैं, इतने लोग, जो कविता लिख रहे हैं, सभी प्रतिभा संपन्न हैं? हमारे इसी देहरादून में, पांच सौ कवि तो होंगे ही। किसी को भी भाषा का ज्ञान नहीं। छंद अलंकार को तो गोली मारो, यही पता नहीं चलता, ये क्या कहना चाहते हैं। रोते हैं या हंसते, यह भी आभास नहीं होता। उर्दू शब्दों का ऐसे प्रयोग करते हैं, जैसे सब के सब मुन्शीफ़ाजिल हों। इनमें ऐसे भी है, जो हिंदी गोषठी में गज़ल पढ़ कर सुनाते हैं और उर्दू की नशिस्त में हिंदी के बिरह गीत प्रस्तुत करते हैं!''

वे थोड़ा रूककर फिर कहने लगे ""कविता के मामले में, एक बड़ी सुविधा यह है कि आप किसी प्रकार चार कविताएं लिख डालिये और सिर्फ़ उन्ही चार कविताओं को, देश के कोने-कोने में आयोजित कवि सम्मेलनों के मंच पर, सस्वर या बेसुरे, लगातार आठ वर्ष तक पढ़ते चले जाइये। मैं इसी शहर के एक ऐसे महाकवि को जानता हू, जिसने गत् चालीस वर्ष में, केवल एक कविता लिखी है और उसी बीस शब्दीय महाकाव्य की रचना कर, उसने अमरत्व प्राप्त कर लिया है। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को तो अमर होने के लिये, तीन अदद कहानियां लिखनी पड़ी थी। किंतु हमारे इस महाकवि ने केवल बीस शब्दों की रचना से ही, हिंदी साहित्य जगत में तहलका मचा दिया। एक आप हैं, जो दो ढ़ाई वर्ष बर्बाद करने के बाद, एक उपन्यास पूरा कर पाते है। फिर किताब के छपने का झंझट और पाठक उस उपन्यास को तीन चार घ्अनटे में निबटा कर, एक और पटक देता है और इतने उपन्यास लिखने के बाद भी, आप अमर नही हो पाये। मेरी मानिये, तो आप भी हमारे महाकवि जैसी दो चार उल्टी सीधी कविताएं लिख मारिये।''
मगर मैंने तब भी कविता लिखने की कोशिश नहीं की। और कुल्हड़ जी ने इस बात पर संतोष ही व्यक्त किया। उन्होंने कितने ही लोगों के पास प्रशनसा करते कहा, ""मदन शर्मा समझदार है, उसने कविता लिखने की एक बार भी हिमाकत नही की।''
किसी गोषठी में, एक कवि काफी देर से, किसी अन्य कवि की आलोचना किये जा रहे थे। गोषठी में कवि वीर कुमार 'अधीर" भी मौजूद थे। कुल्हड़ जी बोले, ""अधीर तुम्हें याद है, किसी काव्य संग्रह में इन्हीं श्री मान जी ने अपनी एक कविता में लिखा है।।।।। मैं यदि सुबह उठकर पेशाब करने न जाऊं, तो मेरा कोई क्या कर लेगा। इनसे पूछो, वहां इनकी कविता का क्या स्तर रहा था।''
लेखक नवीन नौटियाल के 'इंडियन आर्ट स्टूडियो" में 'संवेदना" की मासिक गोषठी चल रही थी। वहां 'जंजीर" साप्ताहिक के संपादक स्वचन्द्र प्रकाश मेरे बराबर बैठे थे। वे वहां मुझ से मिलने ही आये थे। गोषठी सम्पन्न हो जाने पर, सभी बाहर निकले, तो कुल्हड़ जी पर नज़र पड़ी। चन्द्र प्रकाश उनसे कहने लगे, ""आप अंदर क्यों नहीं आ गये?''
कुल्हड़ जी बोले, ""मैं यहां मदन जी से मिलने चला आया। मगर चन्द्र प्रकाश, आप यहां कैसे? संवेदना की गोषठी में तो सिर्फ पढ़े-लिखे लोग भाग लेते है।''
चन्द्र प्रकाश कुल्हड़ जी से काफी दिन तक नाराज़ रहे। बहुत से लोगों को" यह मुगालता रहा, कि कुल्हड़ जी सीमा से भी बढ़ कर मुहफट हैं और वे किसी का भी अपमान कर सकते हैं। मगर ऐसा नही था। वे स्पषटवादी होने के साथ साथ, सिद्धांतवादी भी थे। बनावट उन्हें बिल्कुल पसन्द नही थी। कोई उनके सामने डींगंे हाकें, यह सहन कर पाना उनके लिये सहज न था। वे बहुत ही सहज और विनम्र थे और परिस्थिति देखकर ही बात किया करते थे। मुझे उन से सदा ही आदर और स्नेह मिलता रहा।
देहरादून, कुल्हड़ जी का 'अपना शहर" था। उनकी पत्नी, दिल्ली में किसी कालेज की प्राचार्य थी और वे स्वयं देहरादून में पुरातत्व विभाग में, उच्च पद पर नियुक्त थे। अत: उन्हें इधर अकसर अकेले ही रहना पड़ता था। इसके बावजूद मैं जब भी उनसे मिलने गया, उन्होने अपने हाथ से चाय बना कर पिलाई।
लेखन के बारे में उन्होंने बहुत कुछ समझाया। अच्छी अच्छी किताबें पढ़ने के लिये दी, ताकि उन्हें पढ़कर मैं बेहतर लिखने का प्रयास करूं।
अन्य लोगों को उनसे मिलने के लिये, समय लेना अनिवार्य था। मगर मेरे लिये कोइ बंदिश नही थी। वैसे उनका नियम था, कि सुबह ग्यारह बजे से पूर्व, वे अपने कमरे का दरवाजा नही खोलते थे। उससे पूर्व वे कई घ्ंटे पूजापाठ में लगाते थे।
कुल्हड़ जी पक्के शाकाहारी थे। मिठाई के बहुत शौकीन। कहा करते, ""ब्राहमण का यह भी धर्म है, मीठा खाना और कड़वा बोलना।'' कवि सम्मलेन के लिये जाते समय, वे हमेशा साफ़ पानी से भरी बोतल, साथ लेकर चलते थे ।कवि सम्मलेन में कविता पाठ का निमंत्रण मिलने पर वे अन्य कवियों की तरह, कभी मोल भाव नहीं करते थे। मगर मान सम्मान का पूरा ध्यान रखते। एक बार, किसी संस्था की और से, एक कार्यकर्ता इन्हें कवि सम्मेलन के लिये आमंत्रित करने आया, तो गलती से पूछ बैठा, ""कवि सम्मेलन में आने का आप क्या लेंगे?'' कुल्हड़ जी ताव खाकर बोले, ""क्या तुम्हें मैं शक्ल से भीखमंगा नज़र आ रहा हूं?''
मित्रों के लिये, वे कई बार, बिना धनराशि लिये भी, कविता-पाठ के लिये गये। वहां भी उन्होंने वैसे ही जमकर कविताएं पढ़ी, जैसे अन्य कवि सम्मलेनों में पढ़ते थे और कवि सम्मलेन हमें पूरी तरह छा जाते थे।
उन्होंने बहुत अधिक कविताएं नहीं लिखी। किंतु उनकी अदायगी इतनी उम्दा थी, कि बार-बार सुनने के बावजूद, वे कविताएं नई और ताज़ा मालूम पड़ती थी। उन्हंे स्वयं अपने लेखन के बारे में कभी गलतफहमी नही हुई। वे स्वयं ही कहा करते, ""देखो हमारी कविता दो कौडी की भी नहीं: मगर हनुमान बाबा की कृपा से, हमारा आत्मविशवास सदैव कार्य करता है। आज तक हम कभी हूट नही हुए। वरना बड़े-बड़े धुरन्दर मंच पर जाकर, अपनी हीन भावना के कारण, हूट हो जाते हैं।''
एक बार कुल्हड़ जी, मेरे साथ सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" से मिलने राजपुर गये। वहां हम दो ढ़ाई घ्ंटे रहे। मफ्तून साहब अपने दिल्ली और 'रियासत" अखबार वाले संस्मरण सुनाते रहे और हम चुपचाप सुनते रहे। कुल्हड़ जी इस दौरान, कुछ भी नही बोले। लौटते समय मैंने उनकी इस चुप्पी का कारण जानना चाहा। वे बोले, ""मफ्तून साहब विद्धवान व्यक्ति है। उनके पास अनुभवों का भंडार है। उनकी भाषा शैली उच्च स्तर की है। उनको सुना जाना जरूरी है। वरना हमारा क्या है, हम तो बकते ही रहत हैं! ''
उर्दू शायर ज़िया नेहटौरी, उनके पक्के दोस्त थे। दोनों आपस में जी भर कर बहस करते और एक दूजे को बेहद चाहते थे। दूसरों से भी कहते, ""यह मुल्ला है और मैं ब्राहमण। हम दोनों, हिंदु-मुसलिम एकता का प्रतीक है। यह अलग बात है, कि हमें इस एकता के लिये, कोई राषट्रीय पुरस्कार नही मिला।''
एक दिन बारिश हो रही थी। वैसे भी बरसात का मौसम था। लगभग डेढ़ घ्ंटे से कुल्हड़ जी से, उनके निवास पर बातचीत चल रही थी। मैं घ्ाड़ी देख उठ खड़ा हुआ। कोने में रखी अपनी छतरी उठाई और चलने लगा। कुल्हड़ जी बोले, ""चल रहे हैं, अच्छी बात। छतरी है न आप के पास! ठीक है, समझदार आदमी वही है, जो बरसात के मौसम में, बिना बारिश के भी, छतरी साथ लेकर चले।

ब्लाग पर आप

(हमारी कोशिश है कि इस ब्लाग को एक पत्रिका की तरह चलाते हुए अप्रकाशित रचनाओं को यहॉं प्रकाशित करें। वैसे पहले कहीं प्रकाशित हो चुकी रचना के पुन: प्रकाशन से हमारा परहेज़ नहीं। हॉं, उस स्थिति में होगा यही कि अपनी पहुच की सीमा के भीतर ही हम रचनाओं को ढूंढ कर पाठकों तक पहुॅचा पायेगें। लेकिन यदि कोई अप्रकाशित रचना हमें प्राप्त होती है तो उसका स्वागत किया जायेगा।
वरिष्ठ कथाकार मदन शर्मा ने देहरादून के हास्य कवि कुल्हड़ पर अपना संस्मरण हम तक पहुॅचाया। उनके इस सहयोग के लिए आभार व्यक्त करते हुए हमें खुशी हो रही है कि हमारे साथी रचनाकारों का सहयोग हमें मिल रहा है।
लेखक मित्रों से विनम्र आग्रह है कि रचना सीधे पोस्ट से भी हमारे पास भेज सकते हैं या ई मेल के ज़रिये भी। हां, एक निवेदन अवश्य कि रचना यदि ज्यादा लम्बी न हो तो उसे प्रकाशित करने में सुविधा रहेगी। )
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