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Monday, August 22, 2022

आलोचना का सकारात्मक पक्ष

 

पुलिस में नौकरी, यानी धौंस-पट्टी का राज. वाह जी वाह, क्या हसीन है निजाम. पुलिस ही नहीं, गुप्तचर पुलिस, वह भी आफिसर . फिर तो कुछ बोलने की जरूरत तो शयद ही आए कि उससे पहले ही चेहरे के रूआब को देखकर, यदि मूंछे हुई तो और भी, आपराधी ही क्या, अपनी नौकरी पर तैनात कोई साधारण कर्मचारी, बेशक ओहदेदारी में किसी रेलवे स्टेशन का स्टेशन मास्टर तक हो चाहे, बुरी तरह से चेहरे पर हवाइयां उडते हुए हो जाए और यदि ओफिसर महोदय ने अपना परिचय दे ही दिया तो निश्चित घिघया जाये. यह चित्र बहुत आम है लेकिन एक सम्वेदनशील रचनाकार इस चित्र को ही बदलना चाहता है. निश्चित तौर पर श्री प्रकाश मिश्र भी ऐसे ही रचनाकर हैं. अपनी स्मृतियों के देहरादून को खंगालते हुए वे इससे भिन्न न तो हैं और न ही होना चाहेंगे, यह यकीन तो इस कारण से भी किया जा सकता है कि एक दौर में वे उन्न्यन जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का स्म्पादन करते रहे हैं.   

देहरादून की स्मृतियों पर केंन्द्रित होकर लिखे जा रहे संस्मरण के उन हिस्सों की भाषा से श्री प्रकाश मिश्र के पाठकों को ही फिर एतराज क्यों न हो, जहाँ उनका प्रिय लेखक उन्हें दिखाई न दे रहा हो. एक मॉडरेटर होने के नाते इस ब्लॉग के पाठकों की क्षुब्धता के लिए खेद व्यक्त करना मेरी नैतिक जिम्मेदारी है. फिर संस्मरण की भाषा पर एतराज तो किसी यदा कदा के पाठक का नहीं है, बल्कि जिम्मेदार नागरिक चेतना से भरे एक ऐसे संवेदंशील रचनाकर, चंद्रनाथ मिश्र, का विरोध है, जिनके सक्रिय योगदान से यह ब्लाग अपनी सामग्री समृद्ध करता रहता है. चंद्रनाथ मिश्र के एतराज मनोगत नहीं बल्कि तथ्यपूर्ण है, “एक वरिष्ठ लेखक और 'उन्नयन ' जैसी लघु पत्रिका के संपादक रहे श्री प्रकाश मिश्र जैसे व्यक्ति से इस तरह के आत्म केंद्रित और नकारात्मक सोच की आशा नहीं की जा सकती. पूरे आलेख में प्रारंभ से अंत तक उन के सानिध्य में आने वाले व्यक्तियों के जीवन और व्यक्तिगत रूप रंग पर आक्षेप के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं. रेलवे के छोटे कर्मचारी से लेकर स्टेशन मास्टर तक , पीतांबर दत्त बड़थ्वाल जैसे शिक्षाविद और वरिष्ठ साहित्यकार, उनकी संताने,उनके गांव के सारे लोग प्रकाश मिश्र की इस आवानछनीय टीका टिप्पणी के दायरे मे शामिल हैँ. देहरादून के तात्कालिक साहित्यिक परिप्रेक्ष्य पर उनकी कोई उल्लेखनीय टिप्पणी तो कहीं भी नजर नहीं आती. यहां के वरिष्ठ साहित्यकारों के साहित्य कर्म पर लिखने के बजाय, वे उनके व्यक्तिगत, शारीरिक, जातिगत और स्थान विशेष में रहने वालों को सामूहिक रूप से कुरूप और अनाकर्षक घोषित करने का प्रयत्न करते हुए दिखाई देते हैं.”

 

यह सही है कि एक पात्र की पहचान कराने के लिए एक गद्य लेखक अक्सर पात्र के रूप रंग, उसकी चाल, हंसने-बोलने के अंदाज, वस्त्र विन्यास और बहुत सी ऐसी रूपाकृतियों का जिक्र करना जरुरी समझते है और यह भी स्पष्ट है कि उस हुलिये के जरिये ही वे प्रस्तुत हो रहे पात्र के प्रति लेखकीय मंशा को भी चुपके से पाठक के भीतर डाल देते है. वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत जी के द्वारा अक्सर कही गई बात को दोहरा लेने का मन हो रहा, जब वे कहते है, "जब कोई लेखक अपने किसी पात्र के बारे में लिखता है कि 'वह चाय सुडक रहा था' तो उसे अपने पात्र के परिचय के बारे में अलग से कुछ बताने की जरुरत नहीं रह जाती कि वह अमुक पात्र कौन है, किस वर्ग और पृष्ठभूमि का पात्र है." कथाकार सुभाष पंत की यह सीख हमें भाषा की ताकत से परिचित कराती है और साथ ही उसे यथायोग्य बरतने के लिए सचेत भी करती है. श्री प्रकाश मिश्र एक जिम्मेदार लेखक है. स्वयं देख सकते हैं, भाषा को बरतने वह  चूक उनसे क्यों हो गई कि जिन व्यक्तियों को प्रेम से याद करना चाह रर्है थे, उनके हुलिये के वर्णन पर ही पर चन्द्र्नाथ मिश्र और देहरादून के अन्य जिम्मेदार नागरिक एवं रचनाकारों को असहमति के स्वर में सार्वजनिक होना पडा है.

उम्मीद है श्री प्रकाश मिश्र जी चंद्रनाथ मिश्र के एतराजों को सकारत्मक रूप से ग्रहण करेंगे और पुस्तक के रूप संकलित किये जाने से पहले वे दोस्ताना एतराज एक बार लेखक को दुबारा से अपनी भाषा के भीतर से गुजरने की राह बनेगें.      


विजय गौड़ 

   

Monday, January 31, 2022

नई संभावना लिए अंत की कहानियां

 विजय गौड़

कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों को पढ़ते हुए मुझे देहरादून में आयोजित हुए संगमन कार्यक्रम की याद अनायास ही आ गई। कार्यक्रम के दौरान उठे बहुत से प्रसंगों की याद। संगमन का वह कार्याक्रम इस सदी के शुरूआती दिनों में हुआ था। ध्‍यान रहे कि उसी दौरान ‘पहल’ का मार्क्‍सवादी आलोचना विशेषांक भी प्रकाशित हुआ था। दलित राजनीति के तीव्र उभार ने भी उस दौरान जनवादी राजनैतिक धारा के भीतर भी उथल-पुथल मचायी हुई थी। भारतीय राजनीति में अस्थिर सरकारों के उस दौर में धार्मिक आधार पर समाज को बांटने वाली राजनीति भी अपने नम्‍बर बढ़ाने में सफल होती जा रही थी। दूसरी ओर हिंदी में दलित विमर्श एंव स्‍त्री विमर्श का वह किशोर होता दौर था। कार्यक्रम के दौरान कविता पोस्‍टर की प्रदर्शनी भी लगी थी। एक पोस्‍टर में कवि धूमिल की कविता का वह मुहावरा- 80 के दशक में जिसे खूब सराहना मिली थी, लिखा हुआ था- ‘’जिसकी पूंछ उठाकर देखी, वही मादा निकला’’। धूमिल की कविता पंक्तियों की तीखी आलोचना वहां कई साथियों ने एक स्‍वर में की थी। आयोजकों को इस बात के लिए घेरा था और सवाल उठाए थे कि स्‍त्री विरोधी ऐसी कविता को पोस्‍टर पर देने का क्‍या अैचित्‍य ? वे धूमिल के दौर की उस आधुनिकता को प्रश्‍नांकित कर रहे थे जिसका वास्‍ता उस गंवईपन से था जो भाषा के स्‍तर पर भी व्‍याप्‍त रहती ही है। इसी तरह का एक अन्‍य वाकया 'वर्तमान साहित्‍य' एवं 'समकालीन जनमत' में चली बहस का जिसमें प्रेमचंद की कहानी 'कफन' को लेकर दलित रचनाकारों ने बहस छेड़ी कि कहानी दलित विरोधी है। क्‍योंकि कहानी के पात्र घीसू और माधव को दलित वर्ग का दर्शाया गया है। यह बहस विवाद के रूप तक भी पहुंची। इन दोनों संदर्भों के आधार पर ही यह कह सकने का साहस बटोरा जा पा रहा है कि जब हिंदी में दलित साहित्‍य की आवाज सुनाई देने लगती है, सामाजिक मुक्ति के स्‍वर में स्‍त्री विमर्श शामिल होना शुरू होता है, उसी वक्‍त धूमिल की कविता पंक्ति प्रशनांकित होती है। दरअसल अमानवीयता की हद तक पहुंचा देने वाले कारणों ने ही मुक्ति की राह को दलित एवं स्‍त्री चेतना संपन्‍न होने की सीख दी है। धूमिल हो चाहे प्रेमचंद, उन्‍होंने दलित शोषित के पक्ष को अपना पक्ष माना है लेकिन जो चूक फिर भी चिह्नित हुई हैं, उन्‍हें अनसुना नहीं किया जा सकता।

अपने पक्ष को रखने में यह कहना उचित लग रहा है कि सामाजिक यथार्थ को चित्रित करने में रचनाओं की भूमिका क्‍या हो ? दरअसल इस प्रश्‍न का जवाब तलाशना इसलिए जरूरी लग रहा है, क्‍योंकि उपरोक्‍त दोनों घटनाएं  सदाचार/व्‍यवहार(ethic) एवं नैतिकता (morality) के बीच स्‍पष्‍ट विभेद की मांग करते हुए हैं। समझने के लिए इस पहलू को देखना जरूरी है कि निरीह, दारूण और सताए हुए लोगों के किस रूप को और किस तरह से रचना में जगह मिली है। दुनिया भर के लोगों के जीवन को दारूण स्थितियों में पहुंचा देने वाले कारकों को किस तरह से चिह्नित किया गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जीवन संघर्ष में उलझे लोगों को ही, उनके द्वारा ही अमानवीयता का वरण कर लेने वाली मजबूरी को, जो बेशक सहज जैसा व्‍यवहार भी हो गई हो, निशाने पर लिया जा रहा है ? प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ पर एतराज उठाती दलित आवाज को इस रूप में ही सुना जाना चाहिए। कहानी में घीसू-माधव के चित्रण में जाति विशेष का जिक्र हो जाना एक चूक मानी जानी चाहिए। इस बिना पर कि लगातार के गलीच जीवन में रहने वाला कोई भी व्‍यक्ति संवेदन शून्‍यता का वैसा शिकार हो सकता है, जिसने घीसू-माधव को एक ऐसे व्‍यवहार में लपेटा जो निश्चित ही क्रूर  है। यह भी ध्‍यान रखने की जरूरत है कि प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ का यह पाठ भी वही दलित चेतना उठा पा रही थी, जिसे अपनी बात कहने का कुछ मौका उस वक्‍त तक मिलने लगा था। मोहन थपलियाल की कहानियों पर बात करने से पूर्व इन दोनों प्रसंगों और उनसे उठते सवाल को रखने का औचित्‍य सिर्फ इतना ही है कि मोहन थपलियाल की कुछ कहानियों में आधुनिकता का गंवईपन यदि झलक जाता है तो वह भी प्रश्‍नांकित होना जरूरी है। साथ ही हिंदी आलोचना के उस पहलू को भी तलाशा जा सके कि जिसके चलते किस तरह की कहानियों को गंवई आधुनिक आलोचना ने महत्‍वपूर्ण माना और उनका ही जिक्र किया। क्‍यों ऐसी कहानियां, जो उनसे इतर बात तरह से यथार्थ को रखने में सक्षम रही, आलोचना के दायरे बाहर रह गईं। यह कहना कतई असंगत नहीं कि सिर्फ मोहन थपलियाल ही नहीं अन्‍य रचनाकारों की भी बहुत-सी वैसी और महत्‍वपूर्ण रचनाएं आलोचना के दायरे से बाहर रहीं हैं।   

हिंदी कहानी आलोचना के यदा-कदा जिक्र में मोहन थपलियाल की जिन कहानियों को प्रमुखता से याद किया गया है, उनमें - ‘छज्‍जूराम दिनमणि’, ‘पमपम बैंड मास्‍टर की बारात’, 'शवासन' एवं 'सालोमान ग्रुंडे' आदि हैं। परिस्थितियों की विकटता और ऊब से मुक्ति की इच्‍छाओं में रची गई कहानी ‘’पमपम बैण्‍ड मास्‍टर की बारात’’ में जो भूगोल पुन:सृजित होता हुआ है, साफ हो जाता है कि रचनाकार उसकी स्‍मृतियों में राहत महसूस कर रहा है। लेकिन दूसरे ही क्षण वह उबाऊ और थकाऊ परिस्थितियां हैं जो अनायास ही लौट लौट आती हैं, ‘’बहरहाल क्‍योंकि पमपम बैंड मास्‍टर अपनी बारात में शामिल नहीं है, लौटते हुए तमाली की इस बारात में डमाऊ की डंग-डंग के साथ तमाली के पांवों में बंधे खांदी के झिंवरों की छपाक शामिल हो गई है। बाकी सब कुछ वैसा ही सन्‍नाटा-भरा और एकरस है, ठक-ठक बजती लाठी, छतरी और चढ़ाई पर गले से निकल रही खुम-खुम खांसी की आवाज के साथ- नौ आदमियों की छोटी-सी कतार।‘’ पहाड़ी प्रदेशों को ‘देवभूमि’ में बदलने वालों ने पहाड़ी जनमानस के संघर्ष को अनदेखा किया है और करने की ठानी हुई है। संस्‍कृति का झूठ और संसाधनों की लूट मचाने वाले लगातार ऐसे षड़यंत्र जारी रखे हैं कि आम जन के लिए यह अनुमान लगाना मुश्किल ही हो जाता है कि पुरातनपंथी मान्‍यताओं का महिमा मण्‍डन करने वालों को अपना दोस्‍त माने या दुश्‍मन। क्‍योंकि एक ओर उनकी सीख है, दूसरी ओर उनका अपना जीवन व्‍यवहार है। कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों का विश्‍लेषण इस दृष्टि से भी जरूरी है कि उसमें उत्‍तराखण्‍ड का भूगोल और समाज स्‍वत: प्रविष्‍ट होता हुआ है। जीवन में रचे बसे सीमित भूगोल के बावजूद कथाकार मोहन थपलियाल का अनुभव विशाल भूगौलिक क्षेत्र के उस समाज से है जहां आपाधापी, मारकाट, शोषण, प्रताड़ना की स्थितियां कुछ भिन्‍न है और उस भिन्‍नता ने ही पहाड़ी जन मानस की सी सरलता, ईमानदारी भरे व्‍यवहार वाले मनुष्‍य से भिन्‍न थोड़े चालाक आदमी को गढ़ा है। शुरू की कहानियों में जो कच्‍चापन-सा दिखता है, उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि रचनात्‍मक सौन्‍दर्य की बजाय जीवन अनुभवों का संसार कथाकार के भीतर ज्‍यादा सघन बैचेनी पैदा करता हुआ रहा हो और जिसको खुद से परखने एवं व्‍याख्‍यायित करने के लिए प्रभावी राजनैतिक औजार उतने पैने नहीं हो पाए हों। लेकिन संबंधों की कसावट की समूचित पड़ताल में एक रचनाकार अपनी यात्रा शुरू कर चुका हो। यदि कोई ठीक-ठाक राह बनी हुई होती तो आधुनिकता के लक्ष्‍य को पहचान लेना आसान होता। लेकिन वैसा न होने की स्थिति में भटकाव की पगडंडियों पर पांवों का पड़ जाना लाजिमी है। फिर भी उन पगडंडियों के महत्‍व को कम करके नहीं आंका जा सकता जिन पर बढ़ते हुए ही एक रचनाकार दिशा ज्ञान को हांसिल करता गया। मोहन थपलियाल की बाद के दौर की कहानियां आधुनिकता के लक्ष्‍यों तक पहुंचने में मदद करने से तो चूक जाती हैं लेकिन हिंदी कहानियों की भटकी हुई राह- ‘भ्रष्‍ट आधुनिकता’ से छिटक कर अपना रास्‍ता खोज लेने की प्रेरणा तो देती रहती हैं।

परिभाषाओं के दायरे में फिट न हो पाना आधुनिकता की पहली शर्त है। समय के प्रवाह की तरह गतिमान तार्किक प्रणाली का निर्बाध प्रवाह- यहां तर्क का अभिप्राय ज्ञात ज्ञान-विज्ञान के साक्ष्‍य हैं। यानी आज जो तर्क-सत्‍य है जरूरी नहीं कि कल भी वह सत्‍य ही बना रहे। प्रकृति के नये स्रोतों और अव्‍याख्‍यायित घटनाओं के कारणों को जान चुका मनुष्‍य नये साक्ष्‍यों के साथ जैसे ही सामने हो तो अप्रसांगिक हो जा रहे पुरातन को छोड़कर नये एवं प्रासंगिक सत्‍य को स्‍वीकारना ही आधुनिकता है। यूं गंवई आधुनिकता को इसके उलट तो नहीं कहा जा सकता। बल्कि कई बार तो वह भी इतनी समानांतर दिखती है कि बहुत दूर जा कर पुरातन से मिलने वाले उसके कौनों को किसी एक जगह की स्थिरता पर पहचानना ही मुश्किल होता है। मोहन थपलियाल की कहानियों की यह समानंतरता ही चौंकाती है। उनकी कहानियां पूरी तरह से गंवई आधुनिकता का वरण तो नहीं करती हैं लेकिन अपने अंदाज में उससे मुक्‍त भी नहीं दिखती हैं। यद्यपि यह बात भी उतनी ही सही है कि गंवई आधुनिकता की मुख्‍य प्रवृत्ति, संवेदना के जागरण, से मुक्‍त होने की राह की ओर बढ़ती हैं। यानी, गंवई आधुनिकता और निश्छ्ल आधुनिकता के संक्रमण की राह बनाती हैं। इतना ही नहीं चालाकी से जगह बनाती जा रही भ्रष्‍ट आधुनिकता से दूरी भी बनाती चलती है। 'शवासन' की चर्चा यहां समीचीन होगी। यह एक ऐसी कहानी है जिसमें कोई घटनाक्रम केन्‍द्रीय नहीं है। केन्‍द्र में समय है और उस समय में घटती अनेक घटनाएं हैं। कथापात्र ऋषिकेश के एक घाट पर चल रहे घटनाक्रम के मार्फत स्थितियों को बयां करता जाता है। इस पाये की एक अन्‍य खूबसूरत कहानी है- 'सिद्धहस्‍त'। कथाकार का उददेश्‍य साफ है- उभार लेता वह बाजार जिसने खेती किसानी को चौपट करना शुरू किया है और उसके साथ कदमताल मिलाता एक ऐसा मध्‍यवर्ग जिसने गैर जरूरी चीजों ग्राहक होकर गैर जिम्‍मेदार बाजार को स्‍थापित होने में मदद की है। भैंस पाल कर जैसे तैसे अपना जीवन यापन करने वाला मेहनतकश और विदेशी प्रजाती के कुत्‍ते का व्‍यवसाय करके आराम की जिन्‍दगी जीने वाले व्‍यक्ति के मार्फत कहानी बुनने की यह अनूठी कोशिश ही कहानी को महत्‍वपूर्ण बना दे रही है।

गंवईपन से मुक्‍त हुए बगैर आधुनिकता का वरण करने वाली प्रवृत्ति को पहचानना हो तो ‘’लौटते हुए’’ और ‘’छज्‍जूराम दीनमणि’’ जैसी कहानियों के पाठों से फिर फिर भी गुजरा जा सकता है। फतेसिंह के पोस्‍टर भरे यथार्थ पर काल्‍पनिक रूप से उभर आने वाला आजादी के संघर्ष के नायक सुभाष चंद बोस का चे‍हरा और नारा जयहिंद, कथाकार के भीतर बैठी कोरी भावुकता के प्रति अतिशय मोह का कारण बनता है। अतिशय भावुकता से मुक्ति की राह बनाता यथार्थ यहां अनुपस्थित है और फतेसिंह के पोस्‍टर पर उभरती इबारत के साथ ही काल्‍पनिक यथार्थ जन्‍म लेता हुआ है। कल्‍पना के विन्‍यास में वहां एक अपने तरह की लाचारी भी उभार लेती है, ‘’इससे ज्‍यादा मैं कर ही क्‍या सकता हूं।‘’ निरीहता का बयान करती यह कहानी गंवई आधुनिक कहानी है।

उपरोक्‍त जिक्र की गई आलोचना की प्रिय कहानियों के आधार पर ही बात की जाए तो कहा जा सकता है कि कथाकार मोहन थपलियाल की इन कहानियों के कथानक भी हिंदी की गंवई आधुनिक कहानियों की संगत सरीखे हैं। यहां यह मानने में कोई संकोच नहीं कि समय समय पर शुरू हुए विमर्शों का पाठ होती बहुत से दूसरे रचनाकारों की कहानियां भी इस दायरे में ही रही हैं। लेकिन मोहन थपलियाल के सम्‍पूर्ण रचनात्‍मक लेखन से गुजरें तो पाएंगे कि वे मूल रूप से उस मिजाज के रचनाकार नहीं हैं जिनके कारण आज वे जाने जाते हैं। उपरोक्‍त कहानियों  के प्रकाशन वर्ष स्‍पष्‍ट है कि ये कहानियां उनके अंतिम दौर की कहानियां है। ऐसी कहानियों में संवेदना के जागरण करता कहानियों का अंत रचनाकार के गंवई आधुनिक मिजाज की तरफदारी करता है। एक ही रचनाकार की लेखानी से उतरी इन दो भिन्‍न तरह की कहानियों के संदर्भ से यह सवाल उठना लाजिमी है कि एक संतुलित कहानी को कैसा होना चाहिए ? यहां संतुलित कहानी से आशय है, ऐसी कहानी जो जमाने की रंगत को तार्किकता के आधार पर पकड़े- ऐसा हो सकता है कि अभी तक अज्ञात रह गए प्रकृति के रहस्‍यों की स्थितियां आने पर कथाकार बेशक किसी अकल्‍पनीय घटना का सृजन करने लगे, फैंटेसी का वरण कर ले, लेकिन तब भी तर्क की स्‍वाभाविकता पर कायम रहे। इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए पहले कथाकार मोहन थलियाल की उन शुरूआती कहानियों से गुजर लेना जरूरी लग रहा है जो आलोचना और उसके कारण ही लोकप्रियता के दायरे बाहर छूट-सी गई हैं।

उन छूटी हुई कहानियां का एक प्रबल पक्ष है कि तर्क की स्‍वभाविकता यहां अनवरत बनी रहती है। कविता के से अंदाज में बहुआयामी भाषा के सहारे बढ़ती मोहन थपलियाल की ऐसी कहानियों के घटनाक्रमों से यह अनुमान लगाना मुश्किल रहता है कि वे किस मोड़ से किधर मुड़ जाएंगी। यूं तो उनकी ज्‍यादतर कहानियों के अंत एक तरह से मुक्‍कमिल जैसे नहीं ही है। वे जहां समाप्‍त हो रही होती हैं, उन्‍हें वहीं पर समाप्‍त मान लिया जाना मुश्किल बना रहता है। उनकी खूबी है कि वे वहीं से एक नयी कथा के उदय होने की संभावना लिए अंत की कहानियां हैं। उनके पाठ यह अनुमान लगा सकने के अवसर देते है कि क्षण विशेष में रचनाकार के भीतर कौंधि कोई स्थिति ही रचना के उदभव का कारण रही होगी और उस स्थिति को कहने के लिए कथाकार को कथा गढ़नी पड़ी है। इस तरह से देखें तो उनकी कहानियां एक रचनाकार के विस्‍तृत अनुभवों के दायरे की भी गवाह बनती हैं। यूं तो यह तत्‍व उनकी लोकप्रिय कहानियों में भी दिखता है लेकिन वैसा प्रभावी नहीं बना रहता है। आलोचना के लोकप्रिय दायरे में समाई ‘सालोमन ग्रुंडे’ को उस संतुलित कहानी के रूप में देखा जा सकता है, जिसकी अपेक्षा इस आलोचना की चिंताओं का स्‍वर मानी जा सकती है। मात्र पांच दिनों के अल्‍प जीवनकाल को प्राप्‍त एक नवजात शिशु ‘सालोमन ग्रुंडे’ का कथा नायक हो जाना इस बात की पुष्टि करता है। यह कहानी सालोमन के इस परिचय के साथ शुरू होती है, ‘’बच्‍चों को पढ़ाई जाने वाली एक अंग्रेजी पाठ्य-पुस्‍तक के अनुसार सालोमन ग्रुंडे का जन्‍म सोमवार को हुआ था और नामकरण मंगलवार को। सालोमन ग्रुंडे की हालत बुधवार को नाशाद थी और गुरूवार को वह बीमार पड़ गया। शुक्रवार को उसकी हालत एकदम पस्‍त हुई और शनिवार को वह मर गया। इतवार को सालोमन ग्रुंडे को दफना दिया गया और उसकी कहानी बस यहीं पर खत्‍म हो गयी।‘’ यह उस सालोमन ग्रुंडे की कहानी है जो मुक्ति की चाह में पीढि़यों पहले ईसाइ हो गए जाति से डोम लेकिन ईसाइ धर्म धारण कर चुके अपने पिता एडवर्ड का पुत्र है। कहानी में भाषायी सवाल और अस्मिता के प्रश्‍न हैं लेकिन वे पूरे कथानक में उस तरह से कहीं दिखाई नहीं देते जिसे कहानी अंत में प्रकट करती है, ‘’इस आजादी ने, जिसने बहुत सारे रंगीन ख्‍वाबों की दिलासा एडवर्ड को दिलाई थी, उसे दी थी- सिर्फ एक बच्‍चे की उदास नीले रंग की मौत । यह दुख बहुत बड़ा था, लेकिन इससे भी ज्‍यादा दुख एडवर्ड को तब हुआ जब उसने कान में किसी ने एक दिन यह बताया कि तुम्‍हारे बच्‍चे की मौत पर मोटी तोंद वालों ने अपने बच्‍चों को अंग्रेजी के दिन रटाने के लिए सुंदर राइम बना डाली है, जिसे बचचे मक्‍खन-चुपड़ी रोटियां चुबलाते हुए तोते की तरह रटते रहते हैं।‘’

मोहन थपलियाल ने बहुत-सी ऐसी कहानियां भी लिखी हैं जिनमें न सिर्फ वह फ्रेम टूटता है अपितु, वे संवेदना के जागरण की मुख्‍य प्रवृत्ति का निषेध करते हुए अंत की कहानियां हो जाती हैं। लेकिन कहानी का फ्रेम तोड़ती ये कहानियां मोहन थपलियाल के शुरूआती लेखन की है, जैसे ‘जकड़न’, ‘छद्म’, ‘खाका’ आदि। बाद के दौर में लिखी गई कहानियों से इनके पाठ थोड़ा भिन्‍न हैं। भारतीय मध्‍यवर्ग के भीतर जमी खूबियों और खामियों की बर्फ किस तरह से ठोस है उसे समझने के लिए मोहन थपलियाल की शुरूआती कहानियां ज्‍यादा कारगर हैं। धार्मिक बाने में कसी मानसिकता के बीच उछाल लेता क्रांतिकारिता का उभार किस तरह से रोमांटिसिज्‍म में जकड़े रहता है, ज्‍यादातर कहानियों में दिख जाता है। क्रांति के प्रति झुकाव के बावजूद सामंती अहंकार ने आज ही नहीं बल्कि अपने उदभव के दौर में विकसित होते भारतीय मध्‍यवर्ग को किस तरह से बांधें रखा, ‘’मांस खाने की इच्‍छा’’ से लेकर ‘’घेरे’’ तक में ऐसी ही सामाजिक स्थितियों के प्रति लेखकीय टिप्‍पणियां जगह पाती हैं। लेखक का आलोचनात्‍मक तेवर इन कहानियों का प्रस्‍थान बिन्‍दु बना रहता है। स्‍त्री स्‍वतंत्रता का हल्‍ला पीटती वर्तमान मध्‍यवर्गीय मानसिकता का वह सच जिसमें बलात्‍कार, हत्‍या और दुत्‍कारों की आवाजें बहुत तेज सुनाई दे रही हैं, ‘’मांस की इच्‍छा’’ की कथावस्‍तु बनी रहती है। एक तरफ आधुनिकताबोध की हिमायत और दूसरी तरफ वैश्‍यालय में वापिस लौटकर जिस्‍म को ही सब कुछ मानने वाली मानसिकता का खुलासा करती कहानी ‘’मांस की इच्‍छा’’ इस कारण से एक महत्‍वपूर्ण कहानी है।

यथार्थ के नाम पर अतियथार्थ जुगुप्‍सा जनित होता है। उसका वरण करती गंवई आधुनिकता के लिए यह जरूरी हुआ कि इस तरह से पैदा हो रही जुगुप्‍सा से निपटा जाए। संवेदना के जागरण के जरिये उस जुगुप्‍सा को मिटाने की नीति ने सुखद अंत, या दमित, शोषित मनुष्‍य की जीत के संकेतों के प्रगतिशील दिखने की युक्ति के साथ शोषण के तरीकों का समूचित विश्‍लेषण प्रभावित हुआ और चलताऊ नजरिये का जगह मिली। किसी तार्किक संगति को तलाशने की बजाय गैरबराबरी को व्‍याख्‍यायित करने में मनोगतवादी रूझान को प्रश्रय मिला। फलस्‍वरूप जमाने में गैर बराबरी और अन्‍य तरह से भी समाज को बांटे रखने के षड़यंत्र और उन षड़यंत्रों को अंजाम देने वालों के खिलाफ किसी सामूहिक कार्रवाई की चेतना का ढ़ांचा विकसित होना असंभव हुआ। साहित्‍य की जनपक्ष भूमिका, जो निर्बल, असहाय, हार और प्रताड़ना को झेल रहे मानव समूहों के भीतर आत्‍मविश्‍वास पैदा करने वाली होनी चाहिए थी, सक्षम साबित नहीं हो पाई। जैसे तैसे खुद को बचा लेने की जुगत लगाने को मजबूर रचनाकार का जीवन भी समाज को प्रेरित करने में विफल हुआ। फलस्‍वरूप ऐसे मध्‍यवर्गीय वातावरण का निर्माण हुआ जिसकी नैतिकता और आदर्श बुरे के प्रति खामोश रहने और भले भले दिखने को ही नागरिक गुण मानने वाले हुए। यदि आग्रह-दुराग्रह मुक्‍त होकर अपने प्रिय रचनाकारों की रचनाओं के पाठ किये जाएं और तटस्‍थ विश्‍लेषण भी तो निश्चित ही ऐसी रचना को तलाश जा सकता है जो एक रचनाकार के उत्‍स एवं उसके विस्‍तार को जान समझने में सहायक हो सकती है।

दो भिन्‍न तरह के मिजाज में रची मोहन थपलियाल की कहानियों को ठीक से परिभाषित करने के लिए ‘’त्रिकोण’’ उनके कथाकार मन को जानने के लिए सबसे उपयुक्‍त कहानी हो सकती है। यह इत्तिफाक है कि इस कहानी का रचनाकाल 1982 का वह वर्ष है जब 1970-71 के आस-पास अपने लेखन की शुरूआत करने वाला कहानीकार अपने रचनात्‍मक जीवन के लगभग मध्‍य में है। यह कहानी भारतीय समाज व्‍यवस्‍था  और आर्थिक ढ़ांचे के विस्‍तार के बाबत लेखकीय समझदारी का सबसे स्‍पष्‍ट प्रमाण बनती है। रचनाकार की राजनैतिक दिशा और सरोकार का पता भी यहां सहजता से मिल जाता है। ‘’त्रिकोण’’ कहानी के जज पिता का न चाहते हुए भी मॉडलिंग की ओर बढ़ रही पुत्री की सफलता को देखना किस तरह से एक मूल्‍य की तरह है, कहानी में वह साफ दिखता है। इतना ही नहीं सत्‍ता को ही सर्वशक्तिमान मान लेने की स्थितियां किस तरह से कामगार तबकों को भी जैसे तैसे उन स्थितियों को लपक लेने के लिए प्रेरित करती हैं, यह भी कहानी स्‍पष्‍ट करती जाती है। खुले बदन के साथ गैर जरूरीर उत्‍पादों पर उंगली फिराती लड़कियां माल बेचने को ही जब स्‍वतंत्रता का पर्याय मान रही हो तो पैसे वाले घरानों के लिए अनुकूल स्थिति बनती है। वे उन्‍हें खूब पैसे देते हैं ताकि लड़कियां अपने जिस्‍म के गोपनीय से गोपनीय अंगों पर आंख मिचौली को आमंत्रित करते हुए तमाम गैर जरूरी उत्‍पादों को बेचने में ही अपनी मुक्ति तलाशती रहें। संदर्भित कहानी का एक अन्‍य पात्र विक्रमदास जो शहर की एक वीरानी सड़क के किनारे एक नीम के पेड़ के नीचे साइकिलों की मरम्‍मत करते हुए जीवन संघर्ष में जुटा है। साइकिल के पंक्‍चर लगाने से मिलने वाले मेहनातने के बावजूद रुतबेदारर लोगों गाडि़यों के टायरों में हवा भरने से मिलने वाली बख्‍शीश उसको लुभाती है। उन बड़े लोगों की कृपा का पात्र हो जाने पर ही वह अपने मामूली जीवन से छलांग लगाकर ऐसा ‘महान’ बन जाता है कि देखते ही देखते सांसद और मंत्री बनकर राज करने की स्थिति में नजर आता है और ता उम्र उन ‘कृपालू’  पूंजीपतियों के हितों को साधने वाले कायदे कानूनों को पास करनवाने में अहम भूमिका निभाना शुरू कर देता है।

गंवई आधुनिकता की जकड़न सामाजिक मुक्ति के रास्‍ते तलाशने में हमेशा बाधा बनती रही है। उन जकड़नों के उत्‍स को ठीक से पहचाने बिना रचना में उनकी उपस्थिति के जरिये उसे तोड़ने की कोशिशें गंवई आधुनिक हिंदी कहानी में हमेशा होती रही हैं। आलोचना में प्रगतिशीलता के मानक ऐसी आधी अधूरी कोशिशों तक ही बहुधा केंद्रित रहे हैं। मोहन थपलियाल की कहानियों में चूंकि यह कोशिश उन तय मानदण्‍डों से थोड़ा ज्‍यादा हैं और आधुनिकता की ओर संक्रमण करती हुई हैं, इसीलिए नाम गिनाऊं आलोचना से उनका बाहर रह जाना स्‍वभाविक-सी बात है। ‘’मांस खाने की इच्‍छा’’, अस्‍सी के दशक में लिखी गई उनकी यह कहानी मध्‍यवर्गीय खीझ, बोझिल और सुस्‍त-सुस्‍त से जीवन की तरावट को स्‍त्री देह में ढूंढ़ने की कोशिश करती मर्द मानसिकता से साक्षात्‍कार करने का अवसर देती है। अपनी नाकमयाबी के चेहरे को स्‍त्री देह में धंसा कर सकुन ढूंढ़ता पुरूष जंगली जानवर की तरह संभोगरत होना चाहता है। इस कहानी की खूबी है कि दयनीय और असहाय स्‍त्री जीवन को स्‍थापित करने की बजाय ललकार और गुर्राहट यहां सुनने को मिलती है। अपने दौर में ऐसी स्थितियों पर लिखी जा रही कहानियों से अलग यह कहानी इस बात की गवाह है कि जो मूल्‍य, नैतिकता और आदर्श गढ़े जा रहे, कहानी का रचनाकार उनसे असहमत है। रचनाकार की असहमति उस भौंडेपन से भी साफ है जिसमें उसी दौर में सिगरेट पीती लड़की को आधुनिक मान लिये जाने का मुगालता पाल लिया जा रहा है। इसके लिए जेएनयू की पृष्‍ठभूमि में लिखी गई कहानी ‘घेरे’ को देखा जा सकता है।  यहां जेएनयू की आलोचना को उस स्‍वर से भिन्‍न माना जाये जो शिक्षा, स्‍वास्‍थय और राजेगार से आंख मींच लेने वालों के प्रति भक्‍तवत्‍सल होकर जेएनयू जैसे महाविद्यालय को उजाड़ देना चाहते है। मोहन थपलियाल जेएनयू के छात्र रहे और उनके करीबी जानते हैं कि जेएनयू का यह छात्र किस कदर अपने विद्यालय से प्रेम करता है। जेएनयू संस्‍कृति में जन्‍म लेता स्‍त्री विमर्श इसीलिए मोहन थपलियाल की कहानी में आलोचनात्‍मक तरह से जगह पाता है। दिलचस्‍प है कि क्रांति के सवाल पर दो लाइनों के संघर्ष पर बात करने वाली कथा नायिका और सिगरेट के धुएं को आधुनिकता के प्रतीक के रूप में देखने वाली असहजता कहानी में अनायास नहीं है। अन्‍तत: देश की नौकरशाही के रंग में रंग जाने वाली यह आधुनिकता जेएनयू की विरासत रही है।

 

मोहन थपलियाल हिंदी के ऐसे रचनाकार हैं जिन्‍होंने वैसे बहुत ज्‍यादा कहानियां नहीं लिखी। हाल ही में ‘समय साक्ष्‍य’ देहरादून से प्रकाशित उनकी सम्‍पूर्ण कहानियों की किताब में कुल 20 कहानियां हैं। उपरोक्‍त वर्णित जिन कहानियों से हिंदी समाज कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों से परिचति होता रहा है, कमोबेश हिंदी कहानियों की उस प्रचलित धारा के साथ नजर आती हैं जिनका उददेश्‍य आधुनिक होने की चाह से तो भरा रहता है लेकिन आधुनिकता का अर्थ जहां नूतन पर ही अटक जाता है। आलोचना की अभी तक की स्थिति की यह सीमा रही है कि उसने उन कहानियों को ही छुआ है जिनमें नूतन से नूतन कथानक भी तय फ्रेम का निर्वाह करता रहा है और करता रहता है। आलोचना का यह पक्ष कहानी के फ्रेम को यथावत बना रहने देने की दृढ़ता का इस हद तक समर्थन करता है कि चाहे जटिल सामाजिक यथार्थ को व्‍यक्‍त करने के लिए कथाकार को असंगत कथानक और अतार्किक विस्‍तार तक जाना पड़ जाए। यानी एक फार्मूलाबद्ध कहानी। तर्क के अभाव में भी लेखकीय मंशाएं ऐसी कहानियों की ताकत तो होती है लेकिन यही इनकी कमजोरी भी है। ऐसी कहानियां, जिनकी प्रकृति थोड़ा भिन्‍न किस्‍म की है, उनके बारे में आलेचना की खामोशी के कारणों को तलाशा जाए तो दिखाई देगा कि हिंदी में गंवई आधुनिकता के बने रहने देने में आलोचना की भूमिका महत्‍वपूर्ण रही है। क्‍योंकि उसने उन्‍हीं कहानियों पर बात करने में सहजता महसूस की है जिनमें कथानकों के घटनाक्रम या तो एक रैखीय रहे या जिनमें स्‍पष्‍ट रूप से दिखाई देते किसी एक रैखीय घटनाक्रम को ही प्रमुख मान लिया गया। वे कहानियां जो अपने पाठ में बहुस्‍तरीय हुई, उन्‍हें कथारस की अनुपस्थिति का हवाला देते हुए मुक्‍कमिल कहानी मानने से ही परहेज किया गया। किसी रचना और रचनाकार का इकहरा पाठ करती ऐसी आलोचना में ही निहित गंवई आधुनिकता ने हिंदी कहानी को काफी हद तक प्रभावित किया है। ध्‍यान रहे इस आलेख के लेखक की निगाह में, गंवई आधुनिक कहानियों की सबसे प्रबल प्रवृत्ति संवेदना का जागरण है- वे कहानियां जिनके कथानक विभिन्‍न पड़ावों से गुजरते हुए, सामाजिक अंतरद्वंद्व के सहारे आगे तो बढ़ते हैं, लेकिन संवेदना के जागरण पर  विश्राम पा जाते हैं।

मेरा मानना है कि कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों पर बात करना आसान है भी नहीं। क्‍योंकि समकालीन यथार्थ वहां बेहद गझिन है, इस कदर गझिन कि जिसको समूचित रूप से पकड़ना मुश्किल है- किसी एक घटना को केन्‍द्र बनाकर लिखी गई कहानी में तो संभव ही नहीं। फिर यथार्थ की जटिलता को रेशे दर रेशे पकड़ने के लिए उस वक्‍त तक इधर के दौर में लिखी गई लम्‍बी कहानियों का विन्‍यास भी प्रचलन में नहीं हो जब। मोहन थलियाल की कहानियों के पाठ इस बात को पुख्‍ता करते हैं कि वस्‍तुगत यथार्थ एक रैखीय नहीं होता। जटिल स्थितियों में उलझे उसके तारों को बहुत मेहनत से और सधे हुए हाथों से खोलने की जरूरत है। वरना सफलता की सीढि़यों पर विराजमान हो चुके व्‍यक्ति के काले कारनामों को पहचानना मुश्किल हो जाए। सिर्फ जय जय कार में खुद भी हाथ उठायी भीड़ का हिस्‍सा हो जाने वाले कितने ही असंतुष्‍ट आपको अपने आस पास नजर आ सकते हैं। उनकी कहानी 'चालाक लोमडि़यों के बिना' का यह पाठ ही सर्वथा उपयुक्‍त पाठ है।

मोहन थपलियाल का कौशल चमत्‍कृत करता है कि वे प्रचलित प्रारूप के भीतर ही उसे पकड़ने का प्रयास करते हैं। उनकी एक अन्‍य कहानी ‘छद्म’, सामाजिक राजनैतिक वातावरण और उसके साथ उभार ले रहे सांस्‍कृतिक वातावरण का जिस तरह से बयां करती है उसमें न सिर्फ पीढि़यों के अन्‍तरविरोध पर पाठक का ध्‍यान खुद ब खुद जाता है अपितु निरर्थक और फालतू किस्‍म की चीजों के बारे में दिलचस्‍पी पैदा करते इश्‍तहारी वातावरण की चालाकियां उघड़ने लगती हैं। दिखावटी चीजों से बुने जाने वाली नेहरूवियन सांस्‍कृतिकता का छद्म पूरी कहानी में बहुत बारीक विवरणों के साथ उभरता रहता है। बेरोजगारी की भीड़ को झूठी दिलासा देते एवं निरर्थक साक्षात्‍कार की पोल पट्टी खोलती यह एक राजनैतिक कहानी है। दिलचस्‍प है कि सीधे तौर पर राजनैतिक स्थितियों का जिक्र कहानी में कहीं नहीं किया गया है। हिंदी की यदि ऐसी कहानियों को चुना जाए जो अभी तक आलोचना के सामने चुनौति खड़ी करती है तो ‘छद्म’ उनमें बेहद महत्‍वपूर्ण कहानी की तरह ही दिखाई देगी। इस आलेख की सीमा है कि यहां मोहन थलियाल की कहानियों की प्रवृत्तियों पर बात करन के लिए उनकी अन्‍य कहानियों को भी आधार बनाया जा रहा है। इसलिए ‘छद्म’ के पाठ के संबंध में सिर्फ यह इशारा भर छोड़ दिया जा रहा है कि बिना वाचाल हुए राजनैतिक पक्ष को संभाले रहने वाली कहानियां हिंदी आलोचना की निगाह से बाहर बनी रही हैं। एक अन्‍य कहानी है, ‘’जकड़न’’, लम्‍बी कविता के से अंदाज में लिखी गई यह ऐसी कहानी है जिसमें यूं तो कोई घटना साक्षात नहीं है लेकिन पाएंगे कि घटना वहां ऐसा फल है जो गुच्‍छों में लगा होता है। चाहकर भी चाहत का सिर्फ एक ही दाना जिससे अलग करना मुश्किल होता है। अनचाहा भी टूट कर गिरने को उतावला रहता है। गहन काव्‍य संवेदना से रची गई यह अदभुत कहानी है। आपाधापी और हुल्‍लड़ मचाकर दौड़ते समय में भी यह कहानी गहुत धैर्य से किए जाने वाले पाठ की आस जगाती है। 1979 में लिखी गई कहानी ‘’खाका’’ इस बात का अदभुत साक्ष्‍य है।

1857 के सिपाही विद्रोह को भारत के प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम के रूप में माना जाए या नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है। इतिहास की भिन्‍न–भिन्‍न व्‍याख्‍याओं की संगति रचनात्‍मक साहित्‍य में भी अवधारणा विशेष पर यकीन करते रचनाकारों की दृष्टि से भिन्‍न नहीं रही है। लेकिन मोहन थपलियाल की कहानी ‘’युद्ध और प्रेम’’ में  वह सिपाही विद्रोह कुछ भिन्‍न तरह से प्रकट होता है और राजनैतिक रूप से ज्‍यादा जरूरी पक्ष की पुष्टि करता है। यह तथ्‍य उल्‍लेखनीय है कि कहानी में 1857 के सिपाही विद्रोह का वाकया 5 अगस्‍त 1993 को याद किया जा रहा है। स्‍पष्‍ट सुना जा सकता है कि कहानी में उस घटना को अंग्रेजो के खिलाफ हिंदू-मस्लिम बागियों की पहली भीषण घटना की तरह याद किया जा रहा है। याद करने वाले दो करीबी मित्र हैं- सौमित्र और शाहीन। अपने करीबी मित्र के साथ शा‍हीन उस खण्‍डहर में गई है जहां कभी युद्ध हुआ था। 1857 का खूनी गदर। 1992 के विध्‍वंस का घटनाक्रम गुजर चुका है और भाईचारे से गुंथा सामाजिक ताना-बाना एक हद तक जख्‍मी किया जा चुका है। शाहीन के छोटे भाई अकबर की टांग में लचक आ गई है। जाने कोई छर्रा उसकी टांग को बेध गया है। मां-बाप के पास घायल बेटे की टांग का इलाज कराने के लिए पैसे नहीं हैं।

सौमित्र बताता है, उसी खण्‍डहर में, जो कभी रेजीडेंसी हुआ करता था, 86 दिनों तक बागियों का कब्‍जा रहा। वे तोप के गोलों की बौछार करते रहे। इमारतों के भीतर रूदन गूंजता था और बाहर आकाश में तोप के गोलों का अट्टाहास। बागी पूरी तरह से हावी थे। 86 दिनों तक रेजीडेंसी के सुरक्षा कवच का एक-एक तार उन्‍होंने ढीला कर दिया था। रेजीडेंसी में मौत ही मौत थी। गिरते-पड़ते, कटते शरीर थे और था खून ही खून। रेजीडेंसी में रहने वाले दो हजार नौ सौ चौरानबे लोगों की नींद बागियों ने हराम कर दी। उनकी संख्‍या घटकर सिर्फ नौ सौ नवासी रह गई थी। बाद में अंग्रेजो का एक कमांडर रेजीडेंसी को मुक्‍त करवा पाने में सफल हुआ था। लेकिन जीतने के बाद भी रेजीडेंसी के निवासी पस्‍त थे। उनमें जान फूंकने के लिए लार्ड टेनीसन ने कविता लिखी थी। खण्‍डहर के, एक कमरे में ही पहली जुलाई 1857 को 19 साल की युवा सूसाना पामेर तोप का गोला फटने से मर गई थी। सूसाना लार्ड टेनीसन की बेटी थी। एक तरफ घायल भाई की चिंता और दूसरी ओर सूसाना के मौत की दर्दनाक सूचना शाहीन को जिस तरह से नितांत अपने भीतर ले जाती है, वहां जीत और हार, शत्रु और मित्र जैसे सभी सवाल बेमानी हो जा रहे हैं। सिर्फ युद्ध और उसकी छाया में फैलती जा रही उदासी पाठक को बेचैन करती है। आश्‍वस्ति की स्थिति फिर भी बनी रहती है, क्‍योंकि उस खामोश उदासी का प्रतिकार दोनों मित्र कुछ इस तरह से करते हैं कि मनुष्‍य और मनुष्‍य के बीच विभेद करने वाली लक्षित होने लगती है। खण्‍डहर के बाहर की दीवार पर जहां टेनीसन की कविता टंगी थी, उसी के ठीक नीचे कुछ फासले पर दोनों करीबी मित्र मेंसिल से अपने दस्‍तखत बनाकर ‘प्‍लस’ के निशान से उसे जोड़ देते हैं और दर्ज करते है 5 अगस्‍त 1993 जो 6 दिसंबर 1992 के बाद की तिथी को चुनौति देती हुई है।   

मोहन थ‍पलियाल के लेखन की शुरूआती कहानियों में जो आंच है, देखेंगे कि कविता और कहानी का भेद वहां मिटता हुआ है। लेखकीय संवेदनाएं भाषा और शिल्‍प को वहां मारक बनाये हैं। विधाओं के विभेद को दरकिनार करती ये कहानियां एक कहानीकार के भीतर मौजूद रचनात्‍मक स्रोत तक पहुंचने को मजबूर करती हैं। इन कहानियों के पाठ इस बात को भी यहां संदिग्‍ध बना दिया जा रहा है कि रचनाकार की कलात्‍मक भूख ही उसे कुछ रचने को मजबूर करती होगी। उदासी भी कोहराम मचाने वाली होती है। सामाजिक, आर्थिक विभाजन का वाचाल संगीत विसंगति की ऐसी ही दीवार खड़ी करता है। मोहन थपलियाल की कहानियां उस दीवार पर की गई लिपाई-पुताई के बीच खप गए चूने की तरह हैं। यात्रा विवरण का सा आनंद देता उनका विन्‍यास जिस जगह विश्राम पाता है, वहां तक पहुंचा पाठक, जो उछलते-कूदते हुए कथा विस्‍तार के साथ आगे बढ़ता जा रहा था, खुद को गहरी उदासी में डूबा हुआ पाने लगता है। ‘मछकुंड’ को देखने की उत्‍सुकता से भरा- पिरमू ऊर्फ पम पम बैंड मास्‍टर की दुल्‍हन तमाली के छोटे भाई की तरह। तमाली जिस तरह अपने छोटे भाई को मछकुंड के बारे में सही-सही और ठीक-ठीक कुछ भी नहीं बताना चाहती, कथाकार भी कुछ-कुछ उसी तरह पेश आता है। उसका कारण भी स्‍पष्‍ट है कि मछकुंड की गहराई में जाने कितने दुख छुपे पड़े हैं। किसी सुखद अंत के झूठ को रखने की बजाय दुख और उदासी के वातवरण को अभिव्‍यकत करने की यह निराली तकनीक कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों को विशिष्‍ट बनाती है। पाठक को खुद से अनुभव करने का मौका देती है कि मछकुंड के रहस्‍य को जान सके। मछकुंड के उस गहरे नीलेपन वाली गहराई में जब-तब जान गंवा चुकी किसी स्‍त्री के शव को बाहर निकाल लेने वाली व्‍यवस्‍था के उस कुचक्र को समझ सकें जो मुसीबतों की मार झेलते आत्‍मीयों को ही प्रताडि़त करना चाहती है।

Monday, April 20, 2020

रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' एवं भुवनेश्‍वर

झूठे अहंकार से मुक्ति का व्‍यवहार भी आधुनिकता का एक पर्याय है। अपने काम को विशिष्‍ट मानने के गुमान से भी वह झूठा अहंकार चुपके से व्‍यवहार का हिस्‍सा हो सकता है।
रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' एवं भुवनेश्‍वर की कहानियों में ऐसे झूठे गुमान निशाने पर दिखाई देते हैं। यहां तक कि लेखक होने का भी कोई गुमान न पालती उनकी रचनाएं अक्‍सर किसी महत्‍वपूर्ण बात को कहने के बोझ को भी वहन नहीं करती। बहुत ही साधारण तरह से घटना का बयान हो जाती हैं बस। बल्कि, यह कहना ज्‍यादा ठीक होगा कि समाज के भीतर घट रहे घटनाक्रमों के साथ सफर करती चलती हैं। पहाड़ी जी की कहानी सफर और भुवनेश्‍वर की कहानी 'लड़ाई' लगभग एक ही धरातल पर और एक ही मानसिक स्‍तर पर पहुंचे रचनाकारों के मानस का पता देती हैं। इन दोनों ही कहानियों को पढ़ना अनंत यात्रा पर बढ़ना है। वे जिस जगह पर समाप्‍त होती हैं, वहां भी रुकने नहीं देती। ऐसे में कहानियों के अंत से भी असंतुष्‍ट हो जाने की स्थिति पैदा होत तो आश्‍चर्य नहीं। क्‍योंकि कहानी की शास्‍त्रीय व्‍याख्‍या करने वाली आलोचना के लिए तो कथा और घटनाक्रम भी मानक हैं। आलोचना का ऐसा शास्‍त्र कैसे मान ले कि अधूरा आख्‍यान भी कहानी कहलाने योग्‍य है। लेकिन इंक्‍लाबी सफर तो कई अक्‍सर अधूरी यात्रा के ही घटनाक्रमों में नजर आते है। राजनैतिक नजरिये से उन्‍हें पड़ाव मान लिया जाना  चाहिए। फिर यही भी तो सच है कि वस्‍तुजगत भी तो कई बार पड़ाव डाले होता है।  


विजय गौड़

Tuesday, October 29, 2019

व्हाईट ब्लैंक पेपर


कहानी

कथा संग्रह ‘’पोंचू’’ प्रकाशित हो गया है। संग्रह में कुल 12 कहानियां है। यह कहानी 2013/14 में पूरी हुई थी और उसके बाद 2015 में वर्तमान साहित्यक के एक अंक में प्रकाशित हुई। संग्रह में यह भी शामिल है।



उस वक्त उसने मुझे पूरी तरह से जकड़ ही लिया था।
मैं उस कागज के पीछे दौडने ही वाला था जो भागे जा रहे अखबार वाले की साइकिल के पीछे, कैरियर में बंधे अखबारों के बीच से निकलकर, उड़ रहा था। बेशक किसी उत्पाद या, दी जाने वाली सर्विस का विज्ञापन उसमें रहा होगा, लेकिन विज्ञापन की बजाय मुझे उसके पृष्ठ भाग का कोरापन भा रहा था।
उस शख्‍स को भी एक वैसे ही कोरे कागज की जरूरत थी। बल्कि, वह तो बिना रंगीनी वाला व्हाई ब्लैंक पेपर ही खोज रहा था। कागज में छपे विज्ञापन से उसे भी कुछ लेना-देना नहीं था।
अखबार के बीच रखकर लोगों के घरों तक पहुँचाये जाने वाले कागजों में अकसर कोई न काई विज्ञापन ही रहता है। उत्पाद को घर के भीतर पहुँचाने और नागरिकों को ललचाने के, ऐसे कितने ही ढंग बाजार ने ढूँढ निकाले हैं कि लोग-बाग एक दिन खुद ही उसके आदी हुए जाते हैं। वैसे ही ग्लेजी कागजों के रंगीनपन या उनके कोरे पृष्ठ, मैं अपने दोस्त के लिए इकट्ठा करता रहता हूँ। दोस्ताने का प्रतिदान कहें, चाहे कुछ और, पर यह सच है कि ऐसा करते हुए मेरे लिए वह दिन हमेशा खुशियों वाला होता है जब मेरे दिये किसी कागज का कोरापन, या दूसरी ओर छपी तस्वीरों का रँग, मेरे दोस्त को अपने काम का लगता है और वह तह लगाकर उसे भविष्य के उपयोग के लिए संभाल लेता है। बाजार की मुखालफत के लिए हर वक्त धड़कता मेरा मित्र अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अकसर ऐसे कागजों के रंगीनपन को ही अपना हथियार बना लेता है। मेरे नये भवन को अपनी पेंटिग्स और कोलाजों से कलात्मक सौंदर्य देने में, दोस्तानेपन के ऐसे ताहफों से, उसने हमें भी नवाजा था। मेरे घर आने वाले मेहमान भौंचक रह जाते हैं जब पेंटिग और कोलाज में बहुत नीचे दर्ज उसके हस्ताक्षरों को पाते हैं। वे हस्ताक्षर उन्हें आश्चर्य में डुबो देते और उनके सामने मेरा कद कुछ ज्यादा ही ऊंचा हो जाता है। मेरे घर में टंगी एक नामी पेंटर की पेंटिंग उनके भीतर ईर्ष्या के बीज बोने लगती है। खबरों के मार्फत उन्होंने जाना हुआ होता है कि उन हस्ताक्षरों वाली पेंटिग्स और कोलाजों की कीमत कितनी है। किसी निम्न मध्यवर्गीय आदमी की जीवनभर की सम्पूर्ण कमाई से भी कहीं ज्यादा। मेरे जैसे मामूली आदमी के घर की दीवारों पर ऐसे काम को टंगा देख वे अपने भीतर की ईर्ष्या को छुपाते हुए वे ऐसे पेश आते हैं मानो मैं कोई अति विशिष्ट व्यक्ति हूँ। मेरी पत्नी तो फूल कर कुप्पा हो रही होती है उस वक्त, जब उसकी कोई सहेली या सहेली का पति हैरान होकर कहते,
‘‘आजकल आर्ट गैलरियों की सैर हो रही है शायद।’’
पूछे गये सवाल का जवाब सीधे तरह से देने की बजाय वे बातों को ऐसे घुमाती हैं कि पूछने वाले को यही नहीं मालूम रह पाता कि उसने पूछा क्या था। पेंटिग्स की व्याख्यायें तक करने लगती हैं। दोस्त ने जिस तरह से उनकी व्याख्यायें कभी यदा-कदा की बातचीत में की होंगी, उन्हीं बातों का तर्जुमा करते हुए पत्‍नी उन्हें ऐसे सुनाती है कि यह भी झलकता रहे कि वाकई हम ऐसे महत्वपूर्ण लोग हैं जिनके घर ऐसी एक नहीं कई पेंटिंग्स हैं। और, उन्हें यहीं हमारे सामने रंगा गया है। एक मशहूर पेंटर के द्वारा। कोई रंगीन विज्ञापनी चित्र कैसे कागज की कतरन हुआ और कैसे कतरनों से निर्मित होता हुआ वह कोलाज अर्थवान हो जाता है, हम इसके गवाह हैं। बाज दफे किन्हीं खास अर्थों के रंगों के ब्रश भी कोलाज पर जहाँ-तहाँ अपना प्रभाव कैसे छोड़ते हैं, यह भी हमसे छुपा नहीं है। जिज्ञासु और भी अचम्भित होते हैं, जब पत्‍नी बताती हैं कि इसमें तो माध्यम ही पुराने रंगीन कागजों की कतरने एवं वाटर कलर हैं।
जमाने की नजर में रद्दी हो गये तमाम ग्लेजी कागजों का रंगीनपन अनेकों कतरनों के बाद कैसे किसी आकर्षक कोलाज में ढलता है, यह तो हम दोनों ही जानने लगे थे। कागज की कतरनों को चिपका कर कोलाज बनाने को कई बार पत्नी मुझे भी उकसा चुकी थी। उस वक्त उसके जेहन में कला से ज्यादा पेंटिग की कीमत मचल रही होती। कहती भी,
‘‘कुछ भी नही तो दस बीस हजार में तो आपका काम भी निकल ही जायेगा .. बनाइये तो सही।’’
लेकिन मैं भी कुछ वैसा ही कारनामा कर सकूं, यह संभव नहीं था। यह बात मैं पत्नी को समझा नहीं सकता था, क्योंकि उसके दिमाग में तो लाखों रूपये कुलबुलाहट ले रहे होते हैं।
मैं क्या, मेरी तरह का सामान्य, कोई दूसरा व्यक्ति भी वैसा नहीं कर सकता। वे कोलाज एक प्रतिभावान कालाकार की कल्पनाओं से आकार लेती तस्वीरें होती हैं।
दोस्तानेपन के उस दान का प्रतिदान चुकाने के लिए ही मैं ऐसे कागजों को, जहाँ दिख जाये, जुटा कर, मित्र के हवाले कर देने की हर चंद कोशिश करने लगा हूँ। संग-साथ के कारण अब वैसे भी कुछ-कुछ  तो मैं भी समझने लगा हूँ कि कौन सा कागज काम का हो सकता है। सड़क के पार उड़ रहे कागज का पृष्ठ जो एकदम कोरा था, मुझे उम्मीद थी कि उसकी सतह पर एक शानदार पेंटिग आकार ले सकती है। मैं यही सोच कर उसे उठा लेना चाहता था। वैसे उसके दूसरी दूसरी ओर भी जो तस्वीर थी, कई सारे आकर्षक रँग उसमें मौजूद थे।  तब भी वह उड़ता हुआ कागज तो अपने कोरेपन की वजह से ही मेरी आँखों में अटक गया था। तेज गति से आ-जा रही गाड़ियों की पट-पटाट से वातावरण को आंदोलित कर देने वाली हवाएं कागज को उड़ाए चली जा रही थीं। सड़क पार करना मुश्किल हो रहा था। मुझे दो मिनट से भी ज्यादा हो गये थे उस कागज को वैसे ही ताकते हुए। वहाँ कोई जेबरा क्रासिंग नहीं था। मेरी ही तरह वहाँ से सड़क पार करने वाले कुछ और भी लोग थे। वे सारे के सारे और उनके साथ मैं भी, कुछ दूर चलकर जेबरा क्रासिंग से सड़क पार करने की बजाय मौके की ताक में रहने वाले ऐसे लोग थे जो हमेशा ही इस फिराक में रहते हैं कि ट्रैफिक कुछ गुँजाइश दे तो झट कहीं से भी पार हो जाएं। वह शख्‍स भी शायद इसी ताक में था लेकिन सड़क पार करने का उतावलापन उसकी आँखों में उतना नहीं था जितना वह मुझे ताक रहा था। कुछ कहना चाहता है, यह सोचकर ही जब मैंने उससे मुखातिब होना चाहा तो उसी क्षण उसने निगाहें दूसरी ओर फेर ली थी। मैं खुद ही झेंप सा गया और अब जितनी जल्दी हो, सड़क पार कर लेना चाहता था। उसका फिर से ताकते रहना मुझे असामान्य किये दे रहा था।
हवा कागज को मेरी पहुँच से काफी दूर कर चुकी थी। कागज को उसने सड़क के दूसरे छोर पर पहुँचा दिया था और अभी भी उड़ाये जा रही थी। अपनी ही जगह पर स्थिर, मैं कागज पर आँखें गड़ाये था और वह शख्स मुझ पर। कागज वैसे ही उड़ता जा रहा था, जैसे मेरा पेंटर मित्र उड़ता रहता था हर उस वक्त जब कोई पेंटिग पिछले सभी दामों से ज्यादा कीमत पर बिक कर नये मानदण्ड खड़े कर देती थी। या, फिर, जैसे मेरे प्रिय लेखक उड़ रहे थे पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान। जबकि स्वागत के फूल गले की माला बनकर कंधों को झुका देना चाहते थे। पुरस्कार समारोह की धूम तो किसी को भी उड़ा देती है। मेरी स्मृति में वे पल एकदम साक्षात थे। लेकिन उन पलों की स्मृतियों के गहरे असर के बावजूद न तो मैं घर जाने के रास्ते को भूला था और न ही पिछली स्मृतियाँ धुंधलायीं थीं। लेखक को भी अपने मित्रों की बिरादरी से बाहर करने का कोई मतलब नहीं। बेशक खिलाफ हो जाने वाले बहुत से साथियों के हस्ताक्षरों के बीच विरोध पत्र पर मैंने भी हस्ताक्षर किये हैं। मित्र के प्रति दोस्तानेपन को निभाने वाली स्मृतियाँ और बिना जेबराक्रास से रास्ता पार करते हुए घर जाने की हड़बड़ी में भी सब कुछ ज्यों का त्यों मौजूद था।
तालियों की वह जबरदस्त गड़गड़ाहट थी। हाथों में जब सम्मान-पत्र सौंपा गया था। सम्मानित किये जाने से पूर्व तेज तर्रार युवा ने उसका पाठ किया था। युवापन के जोश की उस साफ आवाज में अपने बारे में दर्ज किये गये शब्दों को सुनते हुए कंधे पर झूल रहा शॉल बार-बार आगे को लटक आता था।
दर्शकों की आँखें शॉल का गिरना  देख न पाईं !!
छुपाए रखने की कोशिश इतनी चुपचाप थी कि शायद ही किसी निगाह की पकड़ में आयी हो। सम्मानित हो रहे लेखक का अपना भीतर तो फिर भी दिख गये की आशंका से भरा था और उभर आई असहजता को आँखों में छुपने नहीं दे रहा था।
बार-बार शॉल को कंधें के ऊपर की ओर फेंकते और कम्बख्त शॉल फिर ढुलक जाता।
दर्शक कहीं सोचने न लगे कि सम्मान लेखक को सहज नहीं रहने दे रहा है !!
एक असहज किस्म की मनःस्थिति में ध्यान रह-रह कर हर क्षण अपने को ही देखने को मजबूर कर रही थी। अपने ही हाव- भाव का अजीबपन खटकने वाला था। बैठने, देखने में सहजता के भाव बने रहें, सचेत कोशिशों के बावजूद खुद को ही लग जाता कि एक असहजता है जो भीतर से बाहर तक फूट रही है। आँखों में वैसे ही भाव लगातार तैर रहे थे।
उत्तेजना का न जाने वह कौन सा क्षण होता कि शॉल नीचे और फिर-फिर नीचे ढुलक जाता।
क्या तो आलोचना और क्या तो सम्मान, लेखक को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए - ऐसे ही किसी अन्य सम्मान समारोह में दोहराया गया वाक्य याद आता रहा।
भीतर की असहजता को मुस्कराते चेहरे से ही ढका जा सकता है।
हर वक्त खिली- खिली मुस्कराहट ऐसे ही मौकों की देन थी जो व्यक्तित्व को भी गढ़ती चली गई थी। यदा-कदा की असहमतियाँ भी जिसके भीतर ढकी रहतीं।
चेहरे पर हमेशा बनी रहने वाली मुस्कराहट के जरिये होंठों की फांक तक को छुपाये रखा जा सकता है और देखने वाले के लिए खिले-खिले चेहरे के साथ पेश आया जा सकता है। आँखों में आत्मीय सहजता को उभार कर ही द्विचितेपन की भीतरी असहजता से उबरने में भी मद्द मिलती है।
लेकिन वक्त ऐसी बातों को सोचने का न था।


रबर के उजले दस्ताने पहने डाक्टर ने जब कहा था, एक व्हाईट ब्लैंक पेपर लाओ तो वह अकबका गया था। अकबकाहट ऐसी कि तुरन्त कुछ समझ ही नहीं आया। साथी की तबियत विचलित किये थी। रक्त का बहना रुक चुका था। घाव पर स्टिचिंग हो रही थी और वह अर्द्धमूर्च्छित अवस्था में था। डॉक्टर के कहे शब्द फिर भी कहीं भीतर जाकर अटक गये थे। पीछे की जेब से पर्स निकाल कर कागज खोजना चाहा लेकिन ऐसा कोई कागज नहीं मिला कि उसे डॉक्टर के आगे बढा दिया जाये कि लिख दो इस पर। मन ही मन डॉक्टर के ऊपर गुस्सा आने लगा। उपचार का मतलब इंजेक्शन, पट्टी और गले में आला-टाला टांगना ही है क्या ?’ घायल साथी का उपचार मानो व्हाईट ब्लैंक पेपर पर ही लिख दिया जाएगा तुरत-फुरत। तुरत-फुरत की उस हड़बड़ाहट में कुछ आगे को गिरना हुआ था। संभलने की कोशिश में दूसरा कदम कुछ लड़खड़ाया था। उस क्षणांश में ही एक साथ कई सारी ऐसी जगहों की तस्वीरें उभर आईं, जहाँ एक कोरा कागज फौरन मिल सकता था। लेकिन उन स्थानों तक जाना मानो समय जाया करना ही था। घायल पड़े मित्र को अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था। कोई निश्चित फैसला लेना संभव न हुआ। इस बात में कोई विचलन नहीं था कि मात्र एक व्हाईट पेपर तो कहीं भी मिल जाएगा और यही सोचकर मरीजों के लिए लिख दी गई हिदायतों के हिसाब से दवा खिलाने वाली नर्स से संकोच और झेंपती हुई आवाज में कहा था,
‘‘सिस्टर...एक व्हाईट पेपर ...।’’
काजल लगी आँखों के भीतर से झांकते सफेद हिस्से पर सिस्टर के भीतर की बहुत सारी झल्लहाट दिखाई देने लगी थी। जिसके मायने साफ थे कि दिखाई नहीं दे रहा मरीजों से उलझी हूँ। यूं दूधियापन के रबर-दस्ताने और नील लगे उजले कपड़ों की सफेदी में वह पूरी की पूरी एक व्हाईट ब्लैंक पेपर नजर आ रही थी।
एक मात्र व्हाईट पेपर की फड़फड़ाहट के लिए क्यों सुनूं किसी की बात, यही सोचकर एमरजेंसी वार्ड के उस छोटे से कमरे में, एक किनारे टेबल पर झुककर किसी रोगी के आवश्यक विवरण को दर्ज कर रहे क्लर्क की गर्दन के उठने का इंतजार करना भी जरूरी नहीं समझा और आगे खड़ी भीड़ के पीछे से ही गर्दन उचकाते हुए ऊंची आवाज में कह दिया,

‘‘एक व्हाईट ब्लैंक पेपर होगा...?’’
‘‘हुं...हूँ...’’

झुकी हुई गर्दन के साथ ही एक हमिंग सी उठी थी, लेकिन बिल्कुल नजदीक खड़ी भीड़ भी नहीं जान सकती थी कि कहाँ से आ रही है आवाज!!
बहुत संभव है कि क्लर्क के होंठ फड़फड़ाए हों, या फिर बँद-दराजों के भीतर छुपे बैठे न जाने कितने ही ब्लैंक पेपरों का सामूहिक गान रहा होगा। दराज में रखे, स्टेप्लर, पिन, पोकर और व्यक्तिगत जैसे कुछ जरूरी कागज भी न जाने कितनी जोर से उस हमिंग में शामिल हुए थे। कागज, जिस पर मरीज का विवरण दर्ज किया जा रहा था, पेन की रगड़ से चर्रा गया और एक खामोशी बिखेरने लगा। क्लर्क की मेज के सामने खड़े रहना अब कतई जरूरी नहीं रह गया था। मन थोड़ा खराब-सा हुआ, पर कुछ कहने की ताकत जुटायी नहीं जा सकी। हर दिन की ऐसी कितनी ही स्थितियाँ तो यूं भी दुनिया भर के लोगों की ताकत को निचोड़ देती है। कभी किसी काल्पनिक मदद की जरूरत में संबंध खराब न कर लेने का वातावरण ऐसे ही नहीं चारों ओर व्याप्त हुआ है। भले-भले बने रहने की ऐसी आदत में न जाने कितनी जलालत खुद ही झेलते रहने की मानसिकता ने हर किसी को जकड़ा है। क्लर्क जिन कागजों में विवरण दर्ज कर रहा था, उनका मटमैलापन और भी ज्यादा मटमैला लगा। एक सादा कागज, हो सकता है वह भी अपनी सफेदी खोया हुआ ही हो, उसके भर के लिए भी ऐसी तौहीन!! भीतरी मन ने अभी हिम्मत पूरी तरह से नहीं हारी थी। लेकिन ऐसा कमजोर उतावलापन अभी नहीं उभर सकता था कि अस्पताल परिसर से ही बाहर निकलना पड़ जाये मात्र एक कागज के लिए और सड़क को इस आवाजाही वाली जगह से पार करने को मजबूर कर दे। मुझ जैसे नाउम्मीद से भी उम्मीद की गुहार लगाना तक हो जाये।

किसी भी घटना-दुर्घटना के वास्तविक कारणों को न जाने पाने की स्थिति में सारा दोष समय पर मढ़ देने की रीत में यह कहना आसान था, ‘‘वक्त बुरा आ गया है।’’ कुछ ऐसा ही कहा था शायद उसने। ठीक से न सुन पाने की स्थिति में भी मैंने अनुमान लगा लिया था वह क्या कह रहा है और अपने आस-पास को मैं ज्यादा ही गौर से देखने लगा था। 
सम्मान की महत्वपूर्ण बेला में लेखक ने भी समय को धन्यवाद दिया था। घड़ी की सुइयाँ जहाँ टिकी थी वहाँ बहुत उजले हाथों में वह सम्मान पत्र था जिसे ग्रहण करते हुए कमर दोहरी हो गई थी। पहले भी ऐसे ही मौकों के कारण दिख जाने वाला कमर का दोहरापन रात-बे-रात लिखने-पढ़ने के लिए जागते रहने और दिन भर जीवन को चलाये रहने वाली गतिविधियों में खटने के कारण हैं, ऐसा मानना मुगालते में रहना था। रक्त- सने उन हाथों से सम्मान ग्रहण करते हुए एक क्षण को उभरी असहमति को हमेशा बनी रहने वाली मुस्कराहट ने ढक दिया था और निगाह उठाकर सामने देखने की स्थिति के रहने पर उनको झुकाये रखने की कवायद में कमर तक को झुकाना पड़ गया था।
यूं, सम्मान थमाने वाले उन हाथों में उस वक्त कोई दाग न था जिसकी वजह से कोई सताने वाला अपराधबोध पैदा हो। उजलेपन का एक दूधिया अहसास था जो रबर के दस्ताने पहने डाक्टर, नर्स, वार्ड ब्वाय और मरहम-पट्टी के रोजानापन में अस्पताल के किसी कर्मचारी के हाथों में होता है।
घायल की मरहम-पटटी करने के बाद डाक्टर, नर्स, वार्ड ब्वाय के धुले-पुंछे हाथों की तुलना किसी मानवीय व्यापार से ही की जा सकती है, घृणा के रक्त से सने प्रपंच से नहीं। भाव- विह्वल होकर सम्मान का जखीरा लेखक को पकड़ाये जाने वाले उन हाथों के उजलेपन से करना तो बेमानी ही है।
वे किसी भी उजलेपन से ज्यादा ही उजले थे... बल्कि उनके उजलेपन की तुलना किसी सचमुच की उजली चीज से भी नहीं की जा सकती थी। तुलना की ऐसी संगत में तो भाषा का बाजारूपन व्याप्त होता है- ‘‘तेरी कमीज मेरी कमीज से उजली कैसी ?’’
एक निर्विवादित सत्य उनके उजलेपन पर फिर भी सवालिया निशाना लगाते हुए था कि प्रकाश जिस रँग से सबसे कम प्रकीर्णित होता है वह उजला नहीं लाल होता है। हत्या दर हत्या से लसलसाये हाथों की लालिमा से प्रकीर्णित होता प्रकाश बहुत दूर बैठे दर्शक की निगाहों में सिग्नल लाइट की तरह अटक ही न गया हो कहीं!! सावधानी बरतने की हद तक, खौफ पैदा करने वाली, रक्त दर रक्त गंदली चिपचिपाहट के प्रकीर्णन की संभावनाओं को नेस्तेनाबूद करने की गतिविधि का नाम ही तो राष्ट्रीय गौरव है। वरना तो एक ही जैसा है रँग। वही सुर्ख लाल। गर्द-गुबार में सन कर जिसकी ललाई को ऐंठन लगाई जा सकती है। धुले- पुंछे होने पर भी जिसकी लालिमा मिटती नहीं। हाँ, भक्त लोग उसे चेहरे और शरीर पर बिखरे हुए तेज की तरह देखने लगते हैं।
चेहरे पर बिखरे उस तेज का समागम, त्रिशूल, बल्लम और भाले लिए, चेलों को उकसाने वाली मुद्राओं से भरे वक्तव्यों वाला तो नहीं ही कहा जा सकता था। उस वक्त तो वह रचनात्मक जगत के चमचमाते सितारे को सम्मानित करते हुए ओज पूर्ण वाणी में कृतित्व की चर्चा भरा ‘ ॐ (ओहम)- ॐ ’ था। बोलने के लिए खड़े ही हुए थे, हाथों को ऐसे उठाया था मानो अभिवादन में उठे हों जैसे, लेकिन उनका फैलाव आर्शीवाद देता हुआ हो गया था। प्रत्युतर में भक्त जनों की जय-जयकार थी। जय-जयकार भरा अभिनन्दन लेखक के चेहरे पर भी बिखर रहे तेज को बहुत निरापद कैसे रहने देता भला। वक्तव्य में कोई हुंकार जरूर ऐसी थी जो बम-बम की आवाजों का सा कोलाहल मचा रही थी।
ऐन उसी वक्त, आने-जाने वाली गाड़ियों का तांता, जब क्षण भर को कुछ थमा था और सड़क पार कर सकना संभव हुआ, पीछे से उसने बाँह पकड़ कर आगे बढ़ने से रोक ही दिया। जमाने के अनजानेपन में भी मुझे कुछ जान पहचान का पाकर मदद की उम्मीद के साथ था वह शायद। यह कहना कतई संगत नहीं कि सिर्फ एक रचनाकार की अभिव्यक्ति में सुनायी देती पंक्तियाँ ही जमाने का सच थी, ‘‘हमको गहरी उम्मीद से देखो बच्चों, हम रद्दी कागजों की तरह उड़ रहे हैं’’, मेरे जैसा साधारणपन भी जब उसकी उम्मीद आसरा हुआ जा रहा हो तो यह अनुमान लगाना तो मुश्किल नहीं कि मदद की कितनी गुहारें सक्षम समझी जाने वाली न जाने कितनी शख्सियतों से की जा चुकी होंगी। ऐसी अवस्था में यकीन के खम्भे को मजबूती से गढ़े रहने का सहारा बेशक मेरे व्यक्तित्व का दलदलापन भी पूरी तरह से नहीं दे रहा होगा, फिर भी उम्मीद की गहराइयों में उतरे पांव मेरा रास्ता रोके थे। हालांकि, उसे रास्ता रोकने के अर्थों में नहीं लिया जाना चाहिए। वह तो कदापि उसका उद्देश्य नहीं रहा होगा। पर ऐसा मानते हुए एक सवाल का जवाब तो मिल ही जाता है कि जरूरी नहीं घटना का परिणाम उद्देश्यों के अनुरूप ही आये। घटना दर घटना और परिणाम दर परिणाम की संगति में ही बनने वाली धारणा वैज्ञानिक कही जा सकती है। कल्पना से विचार तक की यात्रा में घटना और परिणाम महत्वपूर्ण पड़ाव हैं।  
उम्मीदों की व्यापप्ति का आलम घनघोर आदर्शों में डूबे उस युवा कार्यकर्ता की कथा में ज्यादा गहरा रहा है जिसे मैंने गहरे तक टूटे हुए, उस दिन करीब से देखा था जब वह नाउम्मीदों में घिरा हुआ था। सफेद कागज पर लिखे उन पत्रों की भाषा को बांचने की जरूरत उस वक्त शायद उचित न थी जिनमें उसके प्रिय रचनाकारों की लिखावटें आज भी वैसी ही आश्वस्ति के साथ दर्ज है जैसी आश्वस्ति उनको पहली बार पढ़े जाने के वक्त महसूस की गयी थी लेकिन जिनके प्रभाव सिर्फ लिखावटों की स्याही के अलावा किसी भी दूसरे तत्व के रूप में ईमानदार नहीं रहे। लगातार मटमैला होता गया उन कागजों का रँग तक भी अपने को पूर्ववत नहीं रख पाया।
वह एक ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता था और लगातार फंदा कसती नीतियों के विरोध में उन भाषणों की तरह दहकता हुआ, जो प्रतिरोध के रूप में दिन ब दिन सुनी जाने लगी थी।
अपनी शिक्षा के अधूरे परिणामों से व्यथित एक शिक्षाविद की वह ऐसी जिद्द थी जो हर कीमत पर अपने को सही साबित करना चाहती थी। अपनी पेशेवराना भूमिका बदल लेने के साथ उसने पहले-पहल उन नीतियों को लागू करने का मसविदा तैयार किया था। जाने क्यों उसे आर्थिक नीतियों का नया मसविदा कहा जा रहा था जबकि वह इतिहास के गहरे गर्त में वे देश के आर्थिक निर्माण के साथ ही रोपे हुए बीजों से अलग रूप में नहीं थी। बहुत सुप्तावस्था में उसके उस भयानकपन का अँदाज नहीं लगाया जा सकता था। जैसे बीते दिनों में भी नहीं दिखा था कि जब जेब में फूल टांक कर उन्हें लागू किया गया था। दुनिया को तेजी से इक्कसवीं सदी में ले जाने वाले कोमल ख्यालों ने उन्हें जब पूरी तरह से लागू किया तो गति को अतिरिक्त रफ्तार के साथ बढ़ा भी दिया। लोगों का जीना ही दूभर होने लगा था। छूटती नौकरियों के साथ आत्महत्याओं का भयानक मंजर चहुं ओर था। कठिन स्थितियों का मुकाबला कैसे किया जाये, यह स्पष्ट नहीं दिख रहा था। आम जन मानस को लगातार रूदन के लिए मजबूर करते परिणाम उनके गलों तक को सुखा देने वाली उस आक्रामकता के हवाले थे जो हत्यारी स्थितियों से उपजी सहानुभूति की लहर पर चढ़कर चली आयी थी और फिर से एक वैसी ही सहानुभूति के हवाले आगे बढ़ती हुई थी।
ऐसे कठिन समय में यूनियन का कोई समारोह हो, बेशक पचास साला जश्न सही, लेकिन समारोह के समापन पर रंगारग कार्यक्रमों के नाम पर ऑरकेस्ट्रा नहीं बजवाया जा सकता था। यद्यपि यह स्पष्ट है कि एवज में थोड़ा सांस्कृतिक होने के नाम पर फूहड़ हास्य से भरी कविताओं के पाठ के अलावा कोई दूसरा विकल्प तक किसी के पास नहीं था और ऐसे ही किसी आयोजन के लिए एक-एक सदस्य से जुटाई गयी चंदे की रकम को डुबो दिया जा सकता था। युवा कार्यकर्ता के अनुभव बहुत सीमित थे लेकिन जोश और होश का सँयोग उसे ऐसे किसी भी कार्यक्रम का हिस्सा नहीं होने देना चाहता था। वह चाहता था कि भांड-भड़ैती की बजाय जनपक्षधर रचनाओं के जरिए ही कार्यक्रम सम्पन्न हो। प्रस्ताव जब उसने सदन में रखा तो यूनियन के सभी वरिष्ठों को भाया और मान लिया गया था। अपने युवा कार्यकर्ता के उत्साह और चीजों को सही दिशा में रखने की चिंताओं से वे सभी वाबस्ता थे पर ऐसे प्रिय रचनाकारों से वाकिफ न थे जो भाषा की गढ़न के साथ आम जन के पक्ष में ही रचनारत रहते हों। जानते होते तो वे भी उन्हें दिल से प्यार करते। यूं सोवियत संघ से छपने वाली और कम दामों पर खरीदी जा सकने वाली किताबें उन्हें साहित्य की भूमिका से परिचित किये थी। लेकिन अपने जन समाज के वैसे नायकों से उनका वास्ता नहीं था। यह विचारणीय विषय हो सकता है कि ऐसा क्यों था ? क्या इसमें वे एकतरफा दोषी थे ? किसी भी नये सवाल से उलझने की बजाय ऐसे संवेदनशील लोगों से कैसे और कहाँ संपर्क हो सकता है, काम उस अकेले को सौंप दिया गया था।
एक कोरे कागज पर लिख लिया गया नमूना पत्र ही नकल किया जाना शेष रह गया था। पत्र के जरिये ही वे अपने प्रिय रचनाकारों से सम्पर्क कर सकते थे। सामूहिक रूप से लिखे गये उस नमूना पत्र की भाषा आकर्षक और आत्मीय थी। भविष्य के महत्वपूर्ण गद्यकार एवं उस समय भी पूरी सघनता से दखलदांजी करने वाले लेखक का ड्राफ्ट था वह लेकिन उसे एक रूप देने में दूसरे लोगों की भूमिका को भी नजरअँदाज नहीं किया जा सकता था।
बेशक एकल गतिविधि है लेखन, लेकिन सामूहिक चर्चा से ही भिन्न-भिन्न पहलू उजागर होते हैं। भिन्न-भिन्न पहलू को उजागर कर सकने वाले लेखन के ही रूप दुनियावी मसलों से निपटने में महत्वपूर्ण दस्तावेज हो जाते हैं। बहुत घर-घुस्सू होकर लिखना और लेखन को एकल कार्यवाही मानने का दूसरा नाम कलावाद भी हो सकता है। बेशक कलावाद को परिभाषित करने के लिए कितने ही अन्य मानदण्ड भी हैं।
कला और जन के बीच बंटे साहित्य की जनपक्षधर धारा को संबोधित, वह मजूदरों की पुकार थी। खत का मजमून पुकारने वालों की तस्वीर था। सरोकारों में जन का पक्ष चुनता हुआ। जवाब में तपाक-तपाक पहुँचे थे वे पत्र जिनमें कार्यक्रम से सहमति और उपस्थित हो सकने के आश्वासन थे। डाक में पहुँचते पत्रों को वह बार- बार पलटता और खूब उत्साहित था। गहरी उम्मीदों से। यूनियन के हर साथी को हर क्षण की सूचना देते हुए उसके भीतर का उत्साह उछाले मारता हुआ। महीन से महीन चीजों को आकाश की ऊंचाइयों तक उड़ा देने वाली कल्पनाओं से भरी रचनाओं के ताव से भरे वे सारे के सारे पत्र इस बात की उम्मीद जगाते थे कि सिर्फ कोरी कल्पना की उपज नहीं बल्कि अनुभव के ताप से पैदा होने वाले ज्वार का जलजला ही होता है रचना में जो सीधी कार्रवाई को ही बदलाव का सबसे जरूरी अस्त्र मानती है। अपने प्रिय रचनाकारों के प्रति वह इतने गहरे सम्मान से भरा था कि उनकी रचनाओं में दर्ज पंक्तियाँ के उजाले में ही जमाने को अंधकार में डुबोने वाली ताकतों को पहचान पा रहा था।
अपनी उपस्थिति की सहमति देते हुए वे इस कदर विनम्र थे कि ऐसे कार्यक्रम में खुद के होने को एक अवसर की तरह देख रहे थे। बकायदा उनके पत्रों की भाषा और टेलीफोन वार्ताओं में सुनायी देते लफ्जों का कोई दूसरा अर्थ कैसे लगाया जाये। अपनी ही दिक्कतों की वजह से उपस्थित न हो सकने वाले तो पहुँच न पाने की असमर्थता पहले ही जाहिर कर चुके थे। स्वीकृति की संख्याओं का अनुपात जतायी गयी असमर्थताओं का मलाल मिटा देने को काफी था। खिचड़ी खाकर कहीं भी सो जाने वाली आवाज की कोमलता इतनी उम्मीदों भरी थी कि वातानुकूलित द्वितिय शयन यान के टिकट पर ही यात्रा करने वाले उस एक मात्र पत्र का भी मलाल नहीं रह गया था, जिसके जवाब में कहना पड़ा था, ‘किराये के एवज में देने के लिए शयनयान श्रेणी ही हमारी सीमा है।कार्यक्रम वाले दिन भी यदि कहीं कोई आकस्मिकता में फंस ही गया तो भी दूसरे आने वालों की स्थितियाँ कार्यक्रम को गति देने के लिए पर्याप्त थी।
सहमतियों के पत्रों का कागज तो आज भी उस नर्स की ड्रेस-सा सफेद है जो डाक्टर के एकदम करीब ही बनी हुई थी उस वक्त भी, जब डाक्टर ने कहा था, ‘एक सफेद कागज लाओ तो।
समय पर कार्यक्रम शुरू हो, यह चिन्ता उस अकेले युवा की ही नहीं थी बल्कि यूनियन के वरिष्ठ साथियों के स्वर भी उसी अकुलाहट में थे। पहुँचने वाले रचनाकारों की कोई खबर न मिली थी। एकदम अंतिम क्षणों में तय हुआ फोन खड़खड़ा लिए जायें। कितने ही सफेद कागज एक साथ फड़फड़ा उठे थे जिन्हें फिर-फिर पढ़ने पर भी कहीं से भी यह नहीं लगता था कि प्रिय कवि अनुपस्थित हो जाएंगे। हर ओर से अनुपस्थितियों पर क्षमा प्रार्थी होने का औपचारिकता थी। 
            अनुपस्थिति का वह कैसा रँग था, सहमति के पत्रों के कागज पर जो अनुपस्थित हो जाते हुए भी रक्त के से धब्बों के रूप में न चमकता हो! बेशक होता तो वह भी हूबहू उन उजली हथेलियों सा ही है जो सम्मान का टोकरा लिये ऐेसे फिरती हैं कि अति महत्वाकाँक्षाओं के रोगी के सिर को ही ढक देती हैं। अपने ही सवालों को ताक पर रख कर कमर तक को दोहरा करे देने वाली हो जाती हैं। बल्कि उस वक्त उनसे आशीर्वादलेते हुए तो कोई ऐसा ख्याल भी नहीं सताता कि मुखालफत के हस्ताक्षर अभियान में खुद की लकीर को लम्बी करते जाने वाली जनपक्षधरता किस कदर सक्रिय हो सकती है और खुद को किसी दूसरे खेमे में फेंक देने का आधार हो सकती है। 
धुले-धुले, उजले हाथों का स्पर्श़ कैसे-कैसे अहसासों से भर रहा था, सम्मान-पत्र पकड़ाते हुए जब वे पीठ पर और कंधों पर थपकियाँ दे रहे थे। सम्मान की सबसे पहली कार्रवाई में ओढ़ाया गया शॉल, कंधों से पूरी तरह से नीचे ढुलक गया। देह को उघाड़ता हुआ। यौवन की उमंगों से भरी हाना स्मिथ की तांबई देह उघड़ आयी हो मानो। वह युवा नायिका का बदन था। मानवता की हिंसक कार्रवाई की दोषी द रीडरफिल्म की नायिका हाना स्मिथ। एक जघन्य अपराध को चुनौती देती जिसके प्रेम की माँसलता में न्यायालय की दीवारें तक खामोश हो गयी थी।
आई वॉस जस्ट अ गार्ड, डूईंग माय डयूटी। वट वुड यू हैव डन इन माय पोजिशन ?’
वह संवाद जो अपने ऊपर लगे अपराधों को कबूल लेने के बाद भी न्यायाधीश को ही नहीं बल्कि गेस्टापों से बच निकली उन स्त्रियों को भी स्तब्ध कर गया था जो मुकदमे की गवाह थीं और बदले की आग से सुलग रही थीं। कैमरा उनके भीतर घुमड़ रहे अनेकों भावों को फोकस करता हुआ उनके चेहरों पर केंद्रित था। उसी क्षण वह युवा नायक तिलमियलाया था जो कहीं से भी अपनी प्रेमिका को अपराधी मानने को तैयार नहीं था। मात्र देह के नशे भर के सुरूर में नहीं था वह। हालांकि, अपनी किशोर वय को जवां मर्द में तब्दील करते उन कोमल अहसासों और उत्तेजक सांसों के असर को भूल नहीं सकता था। देह के राग में सुनायी देती वह पुर-सुकून खामोशी जो गिरी हुई पलकों के साथ दुनियावी ही नहीं बल्कि किसी आकस्मिक खतरे की भी आशंका का अंदाजा नहीं लगा सकती थी। यद्यपि बाज दफे चैंकने के साथ देर तक घूरती रहने वाली अजनबियत भी उनकी एक अदा थी। प्रेम का राग रँग उम्र के बंधनों के पार था लेकिन दुनियावी मसलों को जानने के लिए वह हर वक्त अपनी प्रेमिका के ही आगोश में नहीं रह सकता था। हाना स्मिथ भी कहाँ परे थी वैसी गतिविधियों के जंजाल से जो जीवन को चलाने के लिए रोजी-रोजगार का बहाना होती है। बस की कंडक्टरी में टिकट काटते-काटते वह भी थक ही जाती थी। लेकिन किसी अनिश्चित समय में अपने ठिकाने वापिस पहुँचने वाली बस में एक रोज बैठ जायेगी, इसकी कल्पना वह कैसे कर लेता भला। मानवता को त्रस्त करती भयावह स्थितियों से बच निकले ज्यूस की संतान होने के बाद भी वह नहीं जान सकता था कि वैसे ही अपराधों से निर्मित मानसिकता में ही देह की हिंसक माँसलता किस रँग में रंगी होती है। उसके भीतर तो हर वक्त भीतर बजता रहता प्रेम का राग हाना- हाना दोहराता था। नहीं जानता था कि यूं मुलाकत होगी उस एकाएक गायब हो गये चांद से जिसके बदन की रोशनी में ममत्व का गहरा सुकून और एक साथी की खुशबू तक के कोमल अहसास लम्बे फासले के बाद भी पीछा करने वाले साबित हुए।
अपराध और और कानूनी जगत के मसलों को निपटाने के लिए उस ऐतिहासिक मुकदमे के आधार पर अपने मास्टर और साथियों से उलझना था उसे। मुकदमा दिलचस्प था और जमाने की नफरत में बदले की आग से धड़कते साथियों को अपराधी के प्रति पहले से ही एक राय में जकड़े था।     
धुले-धुले उजले हाथों पर बेशक भाले, बरछे और त्रिशूल की नोंक पर खींच दी गई अंतड़ियों से निकलने वाले गाढ़े रक्त के निशान दिखाई नहीं दे रहे थे लेकिन हकीकत थी कि वे इतने गहरे थे कि एक सचेत नागरिक के लिए उन्हें देखना कतई मुश्किल नहीं था। संवेदनशील लेखक के लिए तो और भी मुश्किल नहीं। उनकी ललायी के तेजोमय रूप पर ही न्यौछवर थी भक्तों के मन में उमड़ती श्रद्धा। सम्मान पत्र की अपारदर्शी सतह भी उन्हीं के असर से प्रदीप्त हो कर पारदर्शी हो रही थी। लेकिन पीछा ही नहीं छोड़ रहा था उनका वीभत्स रूप।
कैसे न दिख रहा होगा दूसरों को भी यह सब ?’
मन के भीतर ही भीतर उठी थी आवाज और परेशानी के भाव चेहरे पर एकबारगी फिर से उभर आये थे।  ऐन उसी वक्त अदाकारा हाना स्मिथ की स्मृतियाँ तार्किक सहारा देती रही।
अपने ऊपर लगे आरोपों को बेशक अनंत तक इंकार करने वाली दृढ़ता से परे थी हाना लेकिन किसी भी तरह की गिड़गिड़ाहट उससे कोसों दूर थी। उसका यही प्रबल पक्ष लेखकीय चेतना का आधार था। क्या मुझे अपराधी मानने वाले वस्तुगत स्थितियों को नही देखना चाहते ? उस स्थिति के बीच क्या उन्हें खुद का किसी दूसरे अपराध में निर्लिप्त होना दिखायी न देने लगेगा, बेशक ओरोपित भी न हुए हों चाहे ?
अपराध के साबित हो जाने का भय हाना स्मिथ को सता नहीं रहा था। बल्कि उसके व्यक्तित्व की दृढ़ता का प्रभाव इतना गहरा था कि भीतर ही भीतर ढेरों सवालों से उलझ रहा दर्शक भी दीवारों तक को खामोश कर देने वाले सवालों के जद में आ जाये और न्यायधीश एवं अदालत में मौजूद लोगों का अभिनय कर रहे पात्रों की तरह वह स्वतः ही निरूत्तर हो जाये। इसे सिर्फ फिल्मकार के भीतर के उदगार ही नहीं माना जा सकता कि दृश्य में नाटकीय मोड़ देने के लिए उसे एक ऐसे पात्र को भी वहाँ रखना था जो उस वक्त भी तफसीलों के आधार पर चालू बहस मुबाहिसों को झूठा बता सकता था। प्रकृति में मौजूद द्वंदात्मकता इसी का नाम है। पानी की तरलता में ही ठोस बर्फ हो जाने की स्थितियाँ छुपी होती हैं। संभावनाओं के पौधे पृथ्वी के ध्वंस के बाद ही जन्म लेते हैं। अपने समूचे अनुभव सत्य के हवाले से वह बीच मुकदमे के चिल्ला सकता था कि अपराध के कबूले जाने का कारण आरोपित का नाजी कैम्प का गार्ड होना कतई नहीं है।
किसी भी तरह का कोई लिखित आदेश वाला पूर्जा जो अपराध के साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया, उसके किसी नाजी कैम्प का गार्ड होने का सबूत हो नहीं सकता मि लार्ड।लगाये जा रहे आरोपों को इस आधार पर ही खारिज किया जा सकता हैं कि पेशे के रूप में ट्राम कन्डेक्टरी करने वाली आरोपिता तो पूरी तरह से अशिक्षित है, किसी भी तरह का कोई लिखित आदेश देना उसके लिए संभव ही नहीं। यकीन न हो तो आप उसे उसकी सबसे पसंदीदा कहानी द लेडी विद डॉगपढ़ने को दे दीजिये चाहे। 
नाजी बर्बरता के युद्ध अपराधी अमेरिकी ऑटो चालक जॉन देमजानजुक की कहानी से फिल्म का कोई संबंध नहीं था। लेकिन उस बर्बरता के गहरे घावों से बिलखते आज तक समय में भी उसे कानून आधार पर उम्र के आखिरी पायदान में होने का लाभ दिया नहीं दिया जा सकता था। सत्ताईस हजार नौ सौ ज्यूस को सोरबीबोर बोर एवं मजडेक नाजी कैम्पों में मौत के घाट उतार देने के जघन्य अपराध में लिप्त उस आरोपी को अदालतें माफ नहीं कर सकती थी। बेशक मृत्यु ही उसे निरपराधी होने का अवसर वरण कर देने वाली हो जाये। अदालतें उसकी पहचान को परत दर परत उतार देना चाहतीं थी। प्रस्तुत होते साक्ष्य बता रहे थे कि नाजी सेना के हाथों गिरफ्तार हो चुके इवान देमजानजुक ने ही भीख में मिले प्राणों के लिए कैम्प गार्ड होना स्वीकारा था और बाद में अपनी पहचान को छुपाने के लिए जॉन देमजानजुक होकर अमेरिकी नागरिक हो जाने में ही अपना भला माना था।  
गाड़ियों की चपेट में उड़ता जा रहा वह कागज अपने रंगीनपन में फिल्म की अदाकारा कैट विंसलेट की तस्वीर होने की संभावना जाता रहा था। हाना स्मिथ के रूप में उसका अभिनय तब भी स्मृतियों को झकझोर दे रहा था।
दैहिक उछाल के वे कितने ही दृश्य थे जिनमें सिर्फ स्पर्श की भाषा में साथ होना उस किशोर को स्कूल में पढ़े गये अध्यायों को दोहराने के लिए उत्सुक किये रहता। द लेडी विद डॉग। खुली हुई किताब में दर्ज कहानी को मुग्ध भाव से सुनती हाना खुद पढ़ने की स्थितियों को टालती जाती। अदालत की खामोशी में सांसे फिर भी अटकी की अटकी रह गई थी, कुछ भी कह पाना संभव नहीं हुआ। जान रहा था कि एक सच की अभिव्यक्ति में दूसरे कितने ही सत्यों को उदघाटित करने के साक्ष्य जुटाने के लिए फिर उसी हाना स्मिथ के बयानों को गवाह होना होगा, जबिक हाना के भीतर बैठा फिल्मकार उसे अपराधी साबित हो जाने की हद तक मजबूर किये था। वह खुद ही अपने अपराध को कबूल चुकी। भीतर मौजूद बदले की यहूदी पहचान भी हिटलर के नाजी कैम्पों के सुरक्षागार्ड को अपराधी नहीं मानने दे रही थी पर।  
मानवता को गैस चेम्बरों में जिन्दा जला देने वाले निर्मम हत्याकाण्ड की दोषी वह, अपनी देह के कटाव से नहीं बल्कि अपने तर्कों से न्यायपालिका की दीवारों तक को खामोश कर रही थी।
उसे फिल्मांकन मात्र नहीं, जमाने की हकीकत का सन्नाटा कहा जाना ज्यादा ठीक होगा।
वह चलचित्र नहीं था और न ही कोई रेडियो रूपक। एक कवि का बयान था, जो फोन में दी जा चुकी स्वीकृति के बाद खुद को एक ही तरह से दोहराता- हम तो जमीन का ही आदमी हूँ... खिचड़ी-पिचड़ी कुछ भी खा लूंगा। यूं कागज का अभाव तो नहीं ही रहा होगा। लेकिन एक अव्यवस्थित जीवनशैली को जीने में खत लिखने जैसे मामूली काम को ही सब कुछ क्यों मान लिया जाये। फिर जिस समाज में जुबान के झूठ हो जाने पर मूँछ कटवा देने वाली मर्दानगी एक मुहावरे के रूप में चहुँ ओर व्याप्त हो, वहाँ कही गयी बात को लिखे से ज्यादा महत्व क्यों न दिया जाये?
गनीमत होती कि बदलती दुनिया जुबान के कोरे पन को व्यवहार की पारदर्शिता तक कायम रखती। यकीनन दुनिया का बड़ा सा बड़ा फैसला भी, पीढ़ी दर पीढ़ी समाज को संचालित करते हुए संस्कृति का हिस्सा हो गया होता। लेकिन चालाक मंसूबो वालों ने संसाधनों पर कब्जे का जो आलम रचा है उसमें कायदे कानूनों के लिखित रूप का महत्व बढ़ा है, उनके अनुपालन की चौकसी के लिए अदालती व्यवस्था में कितनी ही बार झूठ को भी सच की तरह प्रस्तुत करना साक्ष्य हुआ है। सच को सच की तरह दिखा सकने वाली व्यवस्था के कानून, मात्र लिखित दस्तावेज से नहीं बल्कि समाज निर्माण की प्रक्रिया में ही अपना होना साबित कर सकते हैं।
एक सफेद कागज के लिए इतना घमासान !! ऐसा उसने कल्पना में भी कभी नहीं सोचा था। उस वक्त वह डिस्पेंसरी की उस धक्का-मुक्की के साथ था, जहाँ दवाओं के परचे बाहर को सरकते जा रहे थे और अभ्यर्थना के बावजूद मायूस हो जाते चेहरों की गहरी छायाएं, अस्पताल के बाहर दवाओं की दुकानों पर पर्चा आगे बढ़ाने को मजबूर करती जा रही थी। भला कब तक लाइन लगाए!! और कहीं काउंटर के एकदम नजदीक पहुँच जाने पर अन्दर से बाहर की ओर झांकती आँखें गुस्से से तरेरती हुई बिलबिला पड़ें तो...!!
कदम थे कि उस ऑफिस को खोज लेना चाहते थे, जहाँ एक नहीं दर्जनों सफेद कागज यूँही मुड़े-तुड़े से बिखरे पड़े हो सकने की संभावनाओं के साथ थे- किसी क्लर्क के डस्टबिन में भी।
‘‘ऑफिस कहाँ है ?’’
अपने मरीजों की परेशानी में घिरे लोगों को किसी दूसरे के सवाल से जूझने की फुर्सत नहीं थी। मज़ार से लेकर पीपल के पेड़ तक के गोल घेरे का तीसरा चक्कर लगाया जा चुका था। ऑफिस कहीं नजर नहीं आता था। एक बड़ा सा कमरा था जो अपने सामने की चारदीवारी के टूटे होने की वजह से सड़क से ही साफ नजर आता था, साइकिल स्टैण्ड वाले ने उसी ओर इशारा करते हुए कहा था,
‘‘वो तो रहा’’, 
ऑफिस के ठीक सामने की चारदीवारी टूटी हुई थी। सड़क पर खुलते उसके दरवाजे के कारण उसे अस्पताल का हिस्सा नहीं माना जा सकता था। लेकिन हकीकत उसके उलट थी। टूटी हुई दीवार को टाप कर सामने की हलचल भरी सड़क पर सरपट दौड़ा जा सकता था। ऑफिस में बैठा क्लर्क बहुत अक्खड़ था- सीधे जवाब देने की बजाय टका सा जवाब ही उसकी जबान से फूटा,
‘‘खैरात बंट रही है क्या ... दुकानें हैं बाहर ... एक छोड़ दस लो।’’
मन तो हुआ कि सुना दे अभी कि खैरात बटती है क्या उस वक्त जब दोपहर का खाना खाते हुए बड़ी बेरहमी से बिछा लिया जाता है एक नया नकोर कागज यूं ही ? डस्टबिन में पड़े, सब्जी के दाग लगे कागजों ने ध्यान खींचा था। पर घायल साथी के पास तुरन्त पहुँच जाने की जल्दबाजीं ने मुँह को खुलने से रोक दिया। अपनी परेशानी को जाहिर कर दयनीय दिखने की इच्छा भी न थी। गुस्सा क्लर्क पर नहीं अपने पर ही था, एक कागज के लिए इतनी क्यों सुनूं ! टूटी हुई चारदीवारी के बाहर दृश्य उम्मीद जगाने वाला था।
कागज की दुकान में मार-कागजों के बण्डल उतर रहे थे। पल्लेदार बण्डलों को पीठ में रखते और सड़क से कुछ ऊपर उठी हुई उस दुकान में, सीढ़ियों वाले रास्ते से उपर चढ़कर एक ओर पटक देते। दुकान का नौकर उन्हें व्यवस्थित करने में जुटा था और व्यापारी बेफिक्र मुद्रा में फोन पर बतिया रहा था। माल को यहाँ से वहाँ पहुँचने की सूचना लेते-देते हुए वह अपने में ही व्यस्त था। एक फोन पर बात चल ही रही होती कि दूसरा फोन बज ही रहा होता। जरूरी निर्णय शायद उस अकेले को ही लेने थे, उसकी व्यवस्तता को देखकर अँदाज लगाया जा सकता था कि गहमा-गहमी में चलने वाली इस दुनयिां की गतिविधियाँ कैसे मात्र कुछ सीमित लोगों के द्वारा जारी रहती हैं। समय पर आर्डर न पहुँचा पाये ग्राहकों से ढेरों बहाने बनाते हुए वह अगले रोज माल पहुँच जाने के वायदे ही करते जा रहा था। व्यवस्त व्यापारी से तो कुछ भी कहना-पूछना संभव नहीं था और कागजों की इतनी बड़ी दुकान में एक कागज के लिए किसी ने कुछ पूछ जाने पर मिल जाने वाले कैसे भी जवाब की आशंका ने संकोची ही बना दिया था। कागजों के बण्डल को सेट कर रहे नौकर से पूछते हुए खुद को ही लग रहा था कि जैसे मिन्नतें की जा रही हैं। मिन्नतों भरी उस आवाज का ही असर था कि नौकर ने झिड़का नहीं, आराम से ही कहा,
‘‘एक कागज की तो यहाँ कोई गुँजाइश ही नहीं है भैय्या... कोई रिम फट-फटा गया होता तो भी बात थी...‘‘
मायूसी भरे चेहरे पर उभरे वे न जाने कैसे भाव थे जिनका मायने नौकर ने जब अपनी तरह से निकाले तो तसल्ली के दो बोल उसकी जुबान पर आ गये थे,
‘‘...यार एक कागज तो कहीं भी मिल जाएगा...न हो तो किसी पनवाड़ी से ही ले लो।’’
पनवाड़ी की दुकान के बगल में ही टेलीफोन-बूथ था। रात के आठ बज चुके थे और कॉल रेट आधा हो चुका था। यूं ग्यारह बजे के बाद एक चौथाई रेट पर बात की जा सकती थी। लेकिन इतनी रात को किसी शरीफ आदमी और वह भी जिसके कृपा भाव से आप पहले ही खुद को कृतज्ञ महसूस किये हों, फोन नहीं किया जा सकता था। ऐसे में सामान्य वक्त पर ही फोन किया जा चाहिए, बेशक कितना भी खर्च आये। फिर कौन सा बहुत लम्बी चौड़ी बात करनी थी। आदर के साथ सूचना देते हुए डाक पता ही तो माँगना था। ताकि कार्यक्रम की विस्तृत सूचना भेज कर सहमति की दरख्वास्त की जा सके।
यूं ज्यादातर कवियों के पते हासिल हो गये थे लेकिन... ‘‘उनका पता कहाँ से हासिल हो जिन्हें खुद का पता नहीं।’’ कार्यक्रम को योजनाबद्ध तरह से आयोजित करने में सहयोग दे रहे युवा कार्यकर्ता के मित्र कवि ने अपने अँदाज में चुटकी ली थी। चुटीलेपन के बावजूद अभिव्यक्त भावों का सार कवि के प्रति गहरे सम्मान से भरा था। यह एक ऐसे कवि के पते को खोजना था जिसकी कविताओं में दुनिया के महीन से महीन आब्जेक्ट स्वतः दर्ज हो जाते थे और पाठक के भीरत दुनिया को रंगीन बनाने का स्वप्न भरने लगते थे। गहरे आदर और सम्मान से पुकारे जाने वाले ऐसे रचनाकार का जीवन महत्वाकाँक्षाओं के दुनियावी झँझट से परे मेहनतकशों के संग साथ का हिस्सा होने की कथा था। उन गतिविधियों का हिस्सा जहाँ संघर्ष का रूप कुछ हद बदलाव की सीधी कार्रवाइयों में ही बीता हो, मानो। बहुत देर तक फोन में बतियाते ऐसे कवि को साक्षात उसके शब्दों में सुनना एक अदभुत अनुभव था। उधर, कवि भी बातों का लम्बे से लम्बा किये जा रहे थे। जारी बातचीत को बीच में काट कर प्रिय कवि की तौहीन नहीं की जा सकती थी। फिर वे बातें भी कितनी तो आत्मीय थी ! उनके नशे में यह ध्यान भी कहाँ रह सकता था कि कितने पैसे हैं जेब में। उलटनी भर बाकी थी। चेहरे पर लाचारी के भावों को पढ़ कर ही बूथ वाला मामले को समझ गया था,
‘‘कोई बात नहीं भाई साहब... मैं समझ रहा हूँ कि कोई जरूरी बात रही होगी जो इतना लम्बा फोन करते हुए आपको बिल का ध्यान भी नहीं रहा... बाकी पैसे बाद में दे दीजिये... न तो मैं रोजगार बँद कर रहा हूँ और न आप भागे जा रहे हैं।’’
दुकानदार वाकई मासूम इंसान था। नहीं जानता था कि बाजार जिस तरह से हर चीज पर अपना कब्जा किये हैं, उसमें किसी भी उत्पाद और उस उत्पाद से जुडे़ दूसरे पहलू की उम्र, मसलन वह रोजगार भी हो चाहे, कितनी है। तकनीक के सर्वोत्कृष्ट रूप को पूरी तरह से छुपाते हुए और तकनीक के बेहद सूक्ष्म बदलावों से ही उत्पाद को अपग्रेडड कह कर बेचने वाले बाजारू षडयंत्रों की हिफाजत करते विज्ञान का बेड़ा गरक हो जिसने आमजन पर जारी आक्रमणों के लिए हथियार होना स्वीकारा है। रोजगार के लगातार कायम रहने की गहरी उम्मीद से था दुकानदार। एक सज्जन से दिखते व्यक्ति को अपना पक्का ग्राहक बनाये रखना चाहता था।
आत्मीय रचनाकारों की आत्मीय बातचीत के आगे कितनी भी रकम कोई मायने नहीं रखती थी ! लेकिन आत्मीयता के वास्तविक मायने तो व्यवहार से जन्म लेते हैं। उस वक्त यही इहलाम हुआ था जब व्यवहार का धरातल मुसीबत में डाले था। आयोजित कवि सम्मेलन का घोषित समय करीब से करीब आता जा रहा था और प्रिय कवियों की कहीं कोई खबर न थी। यूनियन के पदाधिकारी चिन्तित थे। अपनी सीमाओं को पहचानते हुए जिम्मा उस अकेले युवा कार्यकर्ता को सौंपा हुआ होना उन्हें अब सताने लगा था। जानते थे कि वरिष्ठता के नाते उनकी जिम्मेदारी ज्यादा है। कार्यक्रम संबंधी सवाल जवाब करने वाले भी उन्हीं से मुखातिब थे। लेकिन कार्यक्रम कब और कैसे शुरू होगा, कोई भी सटीक जवाब न दे पाने को वे मजबूर थे। उनकी सीमा युवा कार्यकर्ता की सूचनाओं पर ही निर्भर थी और युवा कार्यकर्ता के पास कवियों के पहुँचने की कोई सूचना नहीं थी। ऐसा वे मान ही नहीं सकते थे कि युवा कार्यकर्ता कैसी भी सूचना से पूरी तरह अनभिज्ञ हो लेकिन उनके कुछ समझ नहीं आ रहा था, माजरा क्या है ! युवा कार्यकर्ता के पास बताने को कुछ नहीं था। उसकी कोशिशें तो कार्यक्रम को निर्धारित समय पर शुरू करने की थी।    
पनवाड़ी के बगल वाले टेलीफोन बूथ के बाहर ही उसकी बेचैनी का जलजला उस वक्त भी अपने घरों में ही बैठे कवियों को कैसे होता भला । हवाई यात्राओं से घर लौट कर थकान मिटा रहे कवि तो जान ही नहीं सकते थे कि सदस्यों से चंदा लेकर जुटाये गये धन से आयोजित किये जाने वाले कार्यक्रमों के प्रति किस तरह की जवाबदेही आयोजकों को जकड़े होती है। सरकारी खर्चे पर यात्रा करते हुए चँदे के दम पर आयोजिम होने वाले किसी कार्यक्रम में उपस्थिति होने की दी गयी सहमति के उनके लिए कोई मायने नहीं थे। लेकिन युवा कार्यकर्ता ऐसा मान नहीं सकता था। प्राप्त हुए पत्रों की भाषा, टेलीफोन में हुई बातें और पढ़ी गयी रचनाओं के तथ्य उसके यकीन को तोड़ नहीं सकते थे। वह अनुामन नहीं लगा सकता था कि जनपक्षधरता के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर को हासिल कर चुके कवियों के लिए एक मजदूर यूनियन के कार्यक्रम में उपस्थित होने का कोई आकर्षण शेष नहीं बचा होगा। या, उन कवियों की प्राथमिकता विशिष्टताबोध में ही अपना कवि होना देख रही थी। उसके पास ऐसी कोई सूचना भी नहीं थी कि राजशाही की व्यवस्था को एक सीमित रूप से सत्ता से उतार कर जनतंत्र को कायम करने के लिए आगे बढ़ रही पड़ोसी देश की सरकार ने जनपक्षीय चेतना को विस्तार देने के लिए वैसा ही कोई कार्यक्रम आयोजित किया है जिसमें स्थापित जनपक्षधर रचनाकार का बुलावा सरकारी खर्चं पर निर्धारित है। हवाई उड़ान और दूसरी राजकीय सुविधायें ही नहीं बल्कि खुद को और ज्यादा जनपक्षधर साबित करने का इससे दुर्लभ मौका कोई दूसरा हो नहीं सकता था। कवि कार्यक्रम में सहर्ष उपस्थित होने के साथ थे और यात्रा से घर वापिस लौट आने के बाद परिवार के सदस्यों के बीच अपनी पहली हवाई यात्रा के अनुभव और राजकीय सुविधाओं के किस्सों का लुत्फ उठाना चाहते थे। ऐसी किसी भी सूचना का अनुमान लगा सकने का अधार युवा कार्यकर्ता के पास नहीं था। उसकी स्मृतियों में तो खिचड़ी खाकर कहीं भी रात गुजार लेने जैसी बातों का यकीन था।
कोई गाड़ी दूर से आते हुए दिखायी देती तो निगाह उसी ओर उठ जाती। समय बीतता जा रहा था और युवा कार्यकर्ता की बेचैनी बढ़ती जा रही। सारे के सारे कवि रास्ते में कहाँ अटक गये, उसकी समझ से बाहर था। सूचना के मुताबिक वे राजधानी में एक जगह पर मिलने वाले थे और वहाँ से जरूरत के हिसाब गाड़ी बुक कर सीधे चले आने वाले थे।
सूचनाओं को सत्य मानते हुए, युवा कार्यकर्ता और आयोजन में सहयोग दे रहे स्थानीय रचनाकार अनुमान कर सकते थे कि हो न हो प्रिय कवि इस वक्त रास्ते में लगे हुए किसी जाम में फंसे होगें और समय पर पहुँचने की छटपटाहाट उन्हें भी जरूर बेचैन किये होगी।
कितनी भी विपरीत परिस्थितियों में दोपहर में राजधानी से चली गाड़ी को अब तक पहुँच ही जाना चाहिए था, मुझे तो कुछ और ही लफड़ा लगता है।
हो न हो, शहर में पहुँच ही चुके हों और भटक रहे हों इधर से उधर। हमें मालूम करना चाहिए किसी तरह।
लेकिन हो कहाँ सकते हैं,...
ऐसा कर तू दिल्ली फोन कर, घर पर तो कोई न कोई होगा ही। बस इतना मालूम हो जाये कि वहाँ से कितने बजे निकले तो सोचते हैं
किस गाड़ी से निकले, यदि उसका नम्बर भी मिल जाये तो....
बेशक जिम्मेदारी अकेले युवा कार्यकर्ता की थी लेकिन वह उतना अकेला नहीं था। उस छोटे से शहर के वे सब लिखने पढ़ने वाले उसके साथ थे जिन्होंने ने भी सुना था कि कवि सम्मेलन में उनके ऐसे प्रिय कवि आमंत्रित हैं जिनको सुनना ही नहीं जिनका सानिंध्य ही एक दुर्लभ अनुभव हो सकता है। हर संभव सहयोग देने के साथ वे भी उसी तरह बाट जोह रहे थे जैसे यूनियन के दूसरे साथी।
टेलीफोन बूथ खाली था। समयचक्र के साथ कॉल दरों का वह फुल रेट वक्त था। कुछ ही देर में आधे रेट हो जाने की ओर खिसकती सूइयाँ राहत देने की बजाय आतंक मचाये थी। सुइयों के हाफ रेट बिन्दु तक पहुँचने का इंतजार करना, धैर्यवान कहलाना नहीं हो सकता था। आधे रेट के इंतजार में कॉल करने वालों की धक्क मुक्की में हो न हो बूथ जब खाली मिले तब तक वह चौथाई दर में कॉल  करने तक इंताजर करवाने वाला हो जाये। फुल रेट कॉल  दर वाले उस वक्त में ही टेलीफोन घन-घना दिया गया।
राजधानी की टेलीफोन लाइन से जुड़ती और सीधे कवि महोदय के निर्धारित अध्ययनकक्ष में रखे टेलीफोन में उठती एसटीडी घनघनाहट ने बेसुध होकर सो रहे कवि की नींद में खलल डाल दिया था। प्रत्युतर में दूसरी ओर सुनायी देती खरखराती आवाज का उनींदापन कवि महोदय की ही आवाज का भ्रम देता हुआ था लेकिन उस पर यकीन नहीं किया जा सकता था। आँखों देखे और कानों सुने के बाद भी झूठ हो जाने वाली स्थितियों को पार फेंकता वह टेलीफोन वार्तालाप उस कवि से ही जारी था, राजकीय यात्रा की थकान से जिसका बदन टूटा हुआ था। आवाज में ऐसी तटस्थता थी जो बहुत वाचाल को भी बात आगे बढ़ाने का सिरा नहीं पकड़ने दे। संकोचपन की छायी चादर तो हट ही नहीं सकती। खामोश ही बना देती है। घर छोड़ कर कहीं भी न निकल सकने वाली उनकी व्यस्तता के रूखेपन में जो कुछ सूचनार्थ था वह आश्चर्य में डालने वाला था और क्षणाँश के लिए ही नहीं वर्षों-वर्षों की खामोशी में डूब जाने को मजबूर करने वाला था।
‘‘माफी चाहता हूँ भाई... पहुँच नहीं पा रहा हूँ। घरेलू व्यस्तताओं में घिर गया हूँ, साले को एयरपोर्ट छोड़ने के लिए निकल रहा हूँ... आज ही इंग्लैण्ड जाना है।’’
हवाई यात्रा से लौटे कवि को असमर्थता जाहिर करने के लिए शायद हवाई यात्रा की ही तुकबंदी ज्यादा उपयुक्त लगी हो। वरना इंग्लैण्ड जाना मतलब चावड़ी बाजार जाना नहीं था। न तब न अभी तक। वे कवि थे। सचमुच के कवि। यूँही कहलाने भर वाले कवि नहीं। साहित्य की जनपक्षधर धारा के सर्वमान्य कवि। किसी भी मनःस्थिति में लम्बे समय तक रहने वाला उनका कविपन हवाई यात्रा से बाहर नहीं था।

रास्ते में फँस जाने के कारण नहीं, घर से ही न निकल पाने के लिए क्षमाप्रार्थी थे वे। खिचड़ी खाकर कहीं भी कमर सीधे कर लेने वाले शरीर हवाई जहाज की गुदगुदी गद्दी का मुलायमपन बरदाशत नहीं कर पाये थे शायद और कमर बुरी तरह से दुख रही थी। बिस्तर से उठना मुश्किल था,
वरना कोई वजह नहीं थी कि अपने मजदूर भाई बुलाये और हम न पहुँचे। मार ठेल के निकल भी लेते तो मँच पे तो चढ़ नहीं पाते। का करें बहुते शर्मिंदा हैं हम तो।
पारिवारिक दायरे के कवि, रोग की महामारी की जद में थे। पत्नी और बच्चे की तीमारदारी के लिए महामारी ने केवल उन्हीं के स्वास्थ्य को बख्शा था। इसीलिए मन के भीतर कचोट थी कि यार निकल ही क्यों न लें।
ज्वर से करहाते बच्चे को छोड़ कर निकलना संभव नहीं है कामरेड, आप अन्यथा न लें। मेरी ओर से यूनियन के सभी लोगों से क्षमा माँग ले।
कागज के बण्डलों को दुरस्त करने में जुटे दुकान के कामगार के अलावा किसी ने भी नहीं कहा, क्षमाप्रार्थी हूँ दोस्त, एक भी ब्लैंक पेपर नहीं इस वक्त तो।
तकलीफ से जूझ रहे दोस्त का मामला न होता तो इतना जूझने का सवाल नहीं था। डॉक्टर पर भी गुस्सा आ रहा था, क्या खुद एक कागज जुटा कर उस पर दवा का नाम लिख कर नहीं दे सकता था। डॉक्टर न हुआ, कानून का पुतला हुआ। निर्धारित काम से न इधर न उधर। क्या इतने क्लेरिकल लोगों को चिकित्सा जैसे क्षेत्र में स्वीकृति मिलनी चाहिए?  
मानवता के रक्त सने हाथों का उजलापन तो कोई उजलापन नहीं। उन हाथों से मिलने वाला पुरस्कार मानवीयता के प्रति बेमानी है।
पुरजोर हो विरोध।

कितने ही सवाल युवा कार्यकर्ता को व्यथित किये थे। सार्वजनिक जिम्मेदारी का बोध न होता तो औंधे होकर लेटने के अलावा कोई दूसरा विकल्प न सूझता। उधर मंच तैयार था। श्रोता आतुर थे।
एक व्हाईट ब्लैंक पेपर के मिलने की सभी संभावनाओं से टकराने के बाद भी निराश होकर नहीं लौटा जा सकता था। तकलीफ से पीड़ित साथी को स्वस्थ करने के लिए दवा का लिया जाना जरूरी था।
न सही एक मुकम्मल कागज, साफ-सुथरा सा कोई टुकड़ा ही मिल जाये।
उम्मीदों के रास्ते ही एक कागज की दरकार में वह ऐसी सड़क तक पहुँच गया था जहाँ भागम भाग कुछ ज्यादा थी। एक बड़े गोल चैराहे से आते ट्रैफिक की बाँह कहना ज्यादा सही। गाड़ियों की एक तरफा रफ्तार थमने का नाम न लेती थी। कोई क्षणिक अंतराल भर होता जब किसी एक दिशा से निकलती गाड़ियों के काफिले को रोककर दूसरी दिशा से आने वाली गाड़ियों की रवानगी की हरी बत्ती को ऑन कर चुका ट्रैफिक कन्ट्रोल सिस्टम चालू था। अनगिनत दिशाओं वाले गोल चौराहे की उस बाँह के एक ओर से दूसरी ओर पार करने का मौका ढूढना आसान नहीं था। उड़ते हुए कागज तक पहुँचने में लगातार की रुकावट थी।
सड़क के उस पार उड़-उड़ जा रहे उस कागज पर टिकी मेरी निगाहों से वह इस कदर परेशान था कि अपने से पहले मुझे उस कागज तक पहुँचने नहीं देना चाहता था। मेरा हाथ पकड़ कर उसने ठीक उस वक्त व्यवधान डाला था जब मैंने कदम बढ़ाया ही था। मुझे उसका इस तरह अवरोध पैदा करना अच्छा नहीं लगा। बल्कि मैं गुस्से में भड़क सकता था लेकिन सड़क पार कर लेने का अवसर मैं भी गँवाना नहीं चाहता था। जैसे-तैसे मैंने पहली लेन को पार कर लिया था और सड़क के बीच ऐसी सुरक्षित जगह पर रूक गया था जहाँ आती हुई गाड़ियों से बचने के लिए मैं कुछ सिकुड़ कर खड़ा तो हो सकता था लेकिन वहॉं से पीछे लौट कर अपनी पूर्व स्थिति में जाना भी अब मेरे लिए संभव नहीं था। आगे निकलने के लिए मुझे एक लेन पार करने भर का अवकाश निकालना था। वह भी मेरी तरह, बस एक लेन भर के फासले पर बीच सड़क में दुबका था। कागज की बजाय उसकी निगाहें अब भी मुझ पर ही टिकी थी।   
कोई ऐसा ही वक्फा था, ट्रैफिक कुछ थमा हो माने। पार की जाने वाली लेन पर कोई गाड़ी नहीं थी। लपक कर हम दोनों ने ही सड़क पार कर ली थी और एक साथ ही उस कागज तक पहुँच गये थे। तेज रफ्तार से दौड़ती गाड़ियों के बीच डोलता वह कागज काफी हद तक फट चुका था। चीथड़ों पर रास्ते की धूल और काले से द्रव्य की चिपचिपाहट थी। तस्वीर बनाने के लिए न तो उसका कोरापन शेष बचा था न ही रंगीनी सतह की चिकनाहट। झपट कर हाथ आये टुकड़े को भी, मैंने उसी की ओर उछाल दिया।
उसके हाथ में जो टुकड़ा था, उपचार के लिए लिखी जाने वाली दवा भर की जगह का कोरापन उसमें भी शेष न बचा था लेकिन वह अब भी उम्मीद से था और मेरे द्वारा उछाल दिये गये टुकड़े को हवा में ही पकड़ लेना चाहता था।