Showing posts with label संस्मरण. Show all posts
Showing posts with label संस्मरण. Show all posts

Thursday, July 12, 2018

जेल के अन्दर एक जेल होती है जिसे तन्हाई कहते हैं


सिर्फ आँसुओं की बोली बोलने वाली, चकड़ैतों की साजिश की शिकार तमिलनाडु की मूल निवासी किरदेई कबाड़ बिनने के काम से अपना जीवन यापन करती थी। चौंकिए नहीं कि सरकारी कागजों में किरदेई के नाम से जानी गई इस स्‍त्री का वास्‍तविक नाम कुछ और रहा। भिन्‍न भाषी प्रदेश में तमिड़ जुबान बोलने वाली किरदेई कैसे बेजुबान सी हो गई यह उसकी दास्‍तान का दूसरा पीडि़त पक्ष है। इस महिला की कहानी रोंगटे खड़ी करने वाली है।

दिल दिमाग को झकझोरने वाली यह कहानी महिला समाख्‍या की बेहद सक्रिय साथी कुसुम रावत की जिंदगी का भी सुंदर पाठ और कड़वा सबक है। कुसम रावत का मानना है कि किरदेई की पीड़ा ने उन्‍हें मजबूत बनाया है। कानूनी षडयंत्रों को समझने का मौका दिया है। कुसम रावत कहती हैं, ‘’साथ ही कानूनी मकड़ जाल को तोड़ने की थकने-थकाने वाली कोशिश ने मेरा ‘सत्य’ पर भरोसा मजबूत किया। किरदेई की आँसुओं की धार ने मेरी अंतर्यात्रा को नया ठौर दिया। किरदेई ने ही मुझे परमात्मा का बोध कराने वाली ‘नई सड़क’ का पता बताया। किरदेई ने समझाया- कुसुम सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय में क्या अंतर है? और कैसे धैर्य धारण कर निर्भय मन से की गई विवेकी सामूहिक कोशिशों से सत्यमेव जयते जमीन पर उतरता है? नहीं तो मेरी क्या ताकत थी- नारकोटिक्स एक्ट में फंसी मुजरिम को छुड़ाने की- जो अपना गुनाह कबूल चुकी हो।‘’ कुसुम रावत की जुबानी ही पढ़ते हैं किरदेई कथा।

एक थी बेगुनाह किरदेई


कुसम रावत

मैं किरदेई को भूल गई थी। अचानक 17 साल बाद अपने100 साल के बूढ़े गुरुजी के शब्द मेरे जुहन में आकार लेते हैं, जेल के अन्दर एक जेल होती है जिसे तन्हाई कहते हैं...’एक दिन युगवाणी के सम्पादक संजय कोठियाल से बात करते हुए नई टिहरी जेल में कैद किरदेई मेरे खामोश अन्तर्मन में एक यक्ष प्रश्न के साथ फिर से आ खड़ी हुई,जेल से छूटने पर कोर्ट कंपाउंड में सूनी आँखों से आसमान को ताकती अपने इन आखिरी आखरों के साथ- मैं काम की तलाश में तमिलनाडू से दिल्ली आई थी। पर वक्त ने मुझे टिहरी जेल पहुंचा दिया। मैं जेल में इसलिए रोती थी कि मैं बेगुनाह हूँ। आज मैं खुशी में रो रही हूँ। मुझे यकीन नहीं कि हो रहा है कि मैं जेल की तन्हाईयों से आजाद हो खुले आसमान के नीचे सांस ले रही हूँ। क्या मैं वास्तव में छूट गई हूँ? कहीं फिर से कोई मुझे कहीं और ना फंसा दे?मैं अब दिल्ली ना जा सीधे अपनी माँ के पास जाऊंगी। लोग परदेश में औरतों के साथ किसी न किसी तरह ऐसे ठगी करते हैं कि औरत निर्दोष होते हुए भी ऐसे फंस जाती है कि उसे खुद को बेगुनाह साबित करना मुश्किल हो जाता है?यह ईश्वर की कृपा और कुछ औरतों का सहयोग था कि मैं निर्दोष करार दी गई...। यह महज संयोग है या कुछ और?पर कुछ तो जरूर है किरदेई कथा में।
सन् 2001 की बात है। मैं महिला समाख्या टिहरी में थी। राधा रतूड़ी कुछ दिन पहले ही कलक्टर बन टिहरी आई थीं। एक दिन वे सपाट शब्दों में बोलीं- कुसुम भारत सरकार ने 2001 को महिला सशक्तिकरण वर्ष घोषित कर साल भर जिला प्रशासन से ठोस जमीनी काम की अपेक्षा की है। हम तुम्हें नोडल आफिसर बना रहे हैं। तुम हमारी ओर से कमान थामो। हमें तुम पर पूरा भरोसा है। तुम्हारा अनुभव काम आयेगा।
मैं चुप रही। मेरी दिक्कत थी- मेरी निदेशक बड़े उलाहने देतीं- तुम हमेशा फालतू कामों में उलझी रहती हो। हम एक दिन तुम्हारी गर्दन उड़ा देंगे।
निदेशक मेरी अच्छी मित्र थीं। कलेक्‍टर जो जिम्‍मेदारी मुझे दे रही थीं, वह एक दिन की बात नहीं थी। मामला पूरे साल का था। कलक्टर अड़ी रहीं। कलक्टर का व्यकितत्व और स्वभाव कुछ ऐसा था कि मैं सोचने लगी क्या करूं? खैर मैंने दो दिन का वक्त मांगा। काम काफी मुश्किल था। हजारों साथिनों की बेहद अच्छी, प्रतिबद्ध, ईमानदार टीम मेरे साथ थी। एक आवाज पर मरने-मिटने वाली ऐसी जुझारू टीम किस्मत से बनती है। सबने आश्‍वस्‍त किया, दीदी फिकर नाट! निदेशक को आप मना ही लोगे। ये काम हमारे टिहरी जिले की औरतों के लिए उपयोगी होगा। फिर एक महिला कलक्टर के शब्दों की गरिमा का सवाल भी है। मैंने कलक्टर को हाँ कर दी। साल भर की ठोस कार्ययोजना बनाकर मैं और मेरी सहकर्मी गुरमीत कौर कलक्टर को मिले। कुछ ऐसा खाका तैयार किया कि वह हमारे रूटीन काम के साथ फिट हो। हमारा कार्यक्षेत्र सिर्फ 4 ब्लाक थे। बाकी जगह जिला प्रशासन थामेगा। वहाँ हम रणनीतिकार,रिसोर्स पर्सन और दस्तावेजीकरण की भूमिका में होंगे। हाँ मैं समन्वय पूरे जिले में करूंगी।
समाज के हर वर्ग के साथ महिला मुद्दों पर बात करना तय हुआ। हमें साल भर में सब तक पहुँचना था। कुछ महिला मुद्दों का चयन कर हमने रातों-रात रोचक प्रचार-प्रसार सामग्री बनाई। कलक्टर हमारे साथ दिन-रात मेहनत करतीं। मेरे कार्यालय आकर हमारा हौसला बढ़ातीं। 1 मार्च2001 को महिला सशक्तिकरण वर्ष की शुरूआत पूरे जिले में एक साथ हुई। मुझे याद है सैंट्रल स्कूल नई टिहरी का प्रांगण- जब शुरूआती कार्यक्रम के बाद स्कूल प्रांगण से कलक्ट्रेट तक पहली रैली निकली। शायद देश में यह अपनी तरह का यादगार मौका होगा- जिसमें जिले की कलक्टर खुद , राधा रतूड़ी, ने बैनर पकड़ महिला सशक्तिकरण रैली की अगुवाई की। जिले भर के सरकारी अधिकारी, स्वयं सेवी संस्थाएँ और समाज के हर वर्ग के हजारों लोग कार्यक्रम का हिस्सा रहे।
इसी क्रम में 7 मार्च को जेल कैदियों के साथ महिला मुद्दों पर कैदियों की सोच... पर एक गोष्ठी थी। मुझे लखनऊ जाना था पर एक दिन पहले स्कूली कार्यक्रम में पाँव में मोच आ गई। मेरा पाँव बहुत सूज गया। सो लखनऊ ना जा मैं नई टिहरी जेल पहुँची। एस.डी.एम. विष्णुपाल धानिक साथ थे। अचानक मेरी नजर कैदियों की भीड़ में किनारे बैठी महिला कैदी पर पड़ी। वह एक किनारे खड़ी थी। हर बात से बेपरवाह वह औरत बरबस ही मेरे आर्कषण का केंद्र हो गई। कुछ ऐसा था उसकी आंखों में, वह मेरे दिल में उतर गई। मैं एकटक उसे देखती रही। उसकी सूरत मुझे आज भी याद है- एकदम झक सफेद बाल, घुटनों तक चढ़ी छींटदार हल्की हरी धोती, पुरानी पतली चिंथड़ेनुमा काली शाल लपेटी, डरी-सहमी, गठीले बदन की 65-70 साल की एकदम स्याह काली शक्ल की दक्षिण भारतीय औरत। उसका झुर्रीदार चेहरा अपमान के दंश से क्लांत था। चेहरे पर गुस्सा साफ छलक रहा था। चिंदी सी छोटी आँखें हमें घूर कर चीरने की कोशिश में थीं। आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। धानिक जी मजिस्ट्रेटी अंदाज में बोले- मैडम ये तमिलनाडू की स्मगलर है। नारकोटिक्स एक्ट में 5-6महीनों से बंद है। इसे सजा होने ही वाली है। मैंने पास जाकर किरदेई को गौर से देखा। उसकी आँखें व चेहरा बता रहा था- वह बहुत कुछ बोलना चाह रही है पर उसके होंठ सिले हैं। वह चेहरा मैं कभी नहीं भूल सकती। वह हिंदी-अंग्रेजी कुछ नहीं जानती थी। कानूनी कागजों में उसे गूंगी बहरी बनाकर जुर्म कबूल करवाया जा चुका था। धानिक जी ने बताया- प्रशासन और वन विभाग के लोगों की बहादुरी से एक भांग के स्मगलगर गैंग को पकड़ा गया है। यह औरत किरदेई गैंग लीडर है, सो इसकी जमानत नहीं हुई। बाकी 4 जमानत पर छूट गये हैं। धानिक जी बड़े खुश थे- गोया कितनी बड़ी बात बोल रहे हों। कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने कहा- मुझे नहीं लगता यह स्मगलर है । कहीं जरूर कुछ बड़ी गड़बड़ है  आप इसकी शक्ल देखो, क्या ये स्मगलर लगती है? इस वक्‍त मेरे पास किरदेई का कोई साफ फोटो नहीं पर किसी पत्रिका में छपी बड़ी मुश्किल से मिली एक तस्वीर है। आप उसके चेहरे को देखकर खुद तय करें क्या किरदेई स्मगलर हो सकती है
गोष्ठी के बाद किरदेई जेल में बने छुटके से शिव मंदिर के पास खड़ी हो गई। उसके साथ बंदी रक्षक प्रेमा देवी थी। मैं कभी नहीं भूलती हूँ कि किरदेई कैसे एक टांग पर खड़ी आसमान की ओर शून्य में ताक रही थी। उसके हाथ जुड़े थे, उस अदृश्य ताकत के लिए- जिसे लोग भगवान कहते हैं। किरदेई की आँखें बंद थीं। आँखों से बह रही आँसुओं की धार रुक नहीं रही थी। वह ऊँ नमः शिवाय.... बुदबुदा रही थी। मैं अंदर से हिल गई। मैंने प्रेमा को पूछा- जो अनजान मुल्क में जेल की ऊँची दीवारों के बीच आँसुओं के अलावा बेजुबान किरदेई की एकमात्र साथी थी। दयालु प्रेमा ने ही अजनबी माहौल में हौसला और अपनापन देकर चारदीवारी में कैद किरदेई को बार-बार टूटने से बचाया- सिर्फ दिल की संवेदनाओं और आँखों की मौन भाषा से।
किरदेई ने मुझे घृणा और अविश्वास से घूरा- जैसे मैं भी कोई नया षडयंत्र करने आई हूँ। वह झटके से परे हट फिर से महादेव की साधना में लीन हो गई। उसकी उपेक्षा भरी नजर ने मेरे विश्वास को और मजबूत किया कि गोया कुछ तो जरूर गलत है। जेलर श्री दिवेदी और प्रेमा ने मिली जानकारी से मुझे मालूम हुआ कि किरदेई यहाँ महीनों से कैद है। वो ना कुछ बोल पाती है, ना हम कुछ समझ पाते हैं। वो कई-कई दिनों तक खाना नहीं खाती। कभी चप्पल नहीं पहनेगी। कभी सर्द ठंड में गरम कपड़े नहीं पहनेगी। जेल में सब किरदेई से सहानुभूति रख रहे थे। लेकिन उनके पास किरदेई के बाबत कोई ज्‍यादा जानकारी नहीं थी। कह रहे थे, हमारी दिक्कत है कि हम इससे बोल नहीं सकते। इसे समझा नहीं पाते कि हमें तुमसे सहानुभूति है। वो दिन रात इसी शिव मंदिर पर एक टांग पर खड़े हो रोती रहती है। बस एक ही शब्द हमने समझा- ऊँ नमः शिवाय। यह यूं ही बस ऊँ नमः शिवाय बुदबुदाते सूनी आँखों से आसमान में ताकती रहती है।
प्रेमा मेरे नाम और काम से परिचित थीं, उसी दौरान प्रेमा ने कहा- क्या आप वही कुसुम रावत हो जिसने महिला कैदी बलमदेई और कमला को छुड़ाया था? मैंने कहा हाँ। प्रेमा शिवालय पर गहरी श्रध्दा में माथा टेक संतुष्टि से बोली। हे प्रभु अब तो किरदेई जरूर छूट जाऐगी। प्रभु आपने ही कान्वेंट की नन लोगों की प्रार्थना पर कुसुम को जेल भेजा। मैं कुछ नहीं समझी। उसके बाद जो कुछ प्रेमा ने कहा वो बड़ा हैरान करने वाला सत्य है- नई टिहरी कान्वेंट की सिस्टर्स हर रविवार को कैदियों के साथ प्रार्थना करने जेल आती हैं। वो प्रार्थना के बाद बुदबुदाती हैं- हे यीशू कुसुम रावत को जेल भेज दो। हमें पहले कुछ समझ नहीं आया। बाद में पता चला कि सिस्टर लोग आपको जानते हैं। वे लोग ये भी जानते हैं कि आपने बलमा और कमला की मदद की। सो हर रविवार दिल पर क्रॉस बना इस बेचारी को ढांढस देते हैं कि- तू जरूर छूटेगी। यह सिलसिला कई महीनों से चल रहा है। मैं और धानिक जी हैरान रह गये। तो क्या सच में किसी दैविक प्रेरणा से कलक्टर राधा रतूड़ी ने मुझे यह काम सौंपा? और मैं लखनऊ के बजाए आज जेल में हूँ? खैर प्रेमा की बात को परमप्रभु का आदेश समझ मैंने तय किया- किरदेई की मदद करनी है पर कैसे? क्योंकि इसे सजा होने ही वाली थी- वो भी एन.डी.पी.एस.एक्ट में। कलक्टर बाहर थीं, नहीं तो उस दिन जरूर पंगा होता।
मैं सीधे कान्वेंट स्कूल गई। सिस्टर बोलीं- कुसुम किरदेई के आँसुओं और प्रार्थना में गजब की ताकत है। एक दिन हम अचानक जेल गए थे। किरदेई को देखकर हम रो पड़े। उसी दौरान तय किया कि हम हर इतवार को जेल में प्रार्थना करेंगे। यीशू ने ही तुम्हारे दिल में यह प्रेरणा भेजी है। हृदय पर क्रास बना सिस्टर बोलीं- अब ये जरूर छूट जाऐगी। गोया जैसे मुझे कोई वरदान मिला हो औरतों को जेल से छुड़ाने का। मैं दुखी मन से घर गई। किरदेई की पीड़ा महसूस कर मैं कई रात सो ना सकी। सब मुझ पर बहुत हँसते। कोई मुझे पागल ठहराता। मैंने सरकारी वकील से बात की। वह तो आग बबूला हो गये। अरे आप इसे कैसे छुड़ा सकते हो? यह तो स्मगलर है। बाकी मुजरिमों के वकील ने भी बड़ा हतोत्साहित किया। मैंने मामले की हकीकत जाननी चाही। अब मैं किसी तमिलभाषी की तलाश में थी, जो मुझे बता सके कि बात क्या है? अगले दो दिन में हजारों फोन करने के बाद सैंट्रल स्कूल नई टिहरी में तैनात प्रवक्ता हरेन्द्र सिंह ने बताया कि वहीं तैनात टीचर सुनीता वी.कुमार कभी मद्रास में रही हैं। वो तमिल जानती हैं। ईश्वर ने पहली सफलता दी इस राहत भरी खबर के साथ।
होली का दिन था। मैं कभी किसी की बाईक में नहीं बैठी,पर उस दिन ये भी किया। हरेन्द्र ने दो बाईकमैन तैयार किये जो होली खेलने के बजाय मुझे और सुनीता को जेल ले गये। किरदेई का सुनीता से मिलना वरदान साबित हुआ। तमिलभाषी सुनीता को पाकर बेजुबान किरदेई को मानो जुबान मिल गई। पहले तो वह बहुत चिढ़ी पर बाद में उसकी शक भरी निगाहों में मेरे लिए थोड़ा सा भरोसा भी पैदा हुआ, मैं उसकी आंखों में उस भरोसे को पढ़ सकती थी। वह घंटों रोती रही।
सुनीता बड़े धैर्य से किरदेई का हाथ पकड़कर चुपचाप उसे सुनती रही। वह उसे चुप कराती, पानी पिलाती। उसका हाथ सहला ढांढस बंधाती कि फिक्र ना करो। कुसुम को देख डरो मत। ये मेरी दोस्त है। ये तुम्हारी मदद करना चाहती है। तुम सब सच-सच बताओ। किरदेई की महीनों की घुटन उन चार घंटों में सुनीता से बात कर खत्म हुई। सुनीता ने उसे अपने हाथों से खाना खिलाया। किरदेई का सच जानकर मैं ही नहीं पूरा जेल स्टाफ हैरान था। पर लाख टके का सवाल अब भी था कि किरदेई को निर्दोष साबित करें तो कैसे? सुनीता के मुताबिक किरदेई की जुबानी कुछ यूं थी-  
‘’मेरा नाम करपाई है। मैं तमिलनाडू के डंडीकल जिले के चिन्नालपेटी गाँव की हूँ। मेरी उम्र लगभग 65 साल है। मुझे नहीं मालूम किसने मुझे कोर्ट के कागजों में कब और क्यों कैदी किरदेई बना दिया? मेरा एक भरा पूरा परिवार है। घर में मेरी माँ और छोटी बहन है। मेरी शादी 15 साल की उम्र में तय हुई। पर पिता की अचानक मौत ने मुझ पर परिवार की जिम्मेदारी डाल दी। मैंने शादी ना करने का फैसला लिया। मैं माँ और बहन की जिम्मेदारी उठाने लगी। मैं कभी स्कूल नहीं गई। हमारी जिंदगी ठीक ठाक चल रही थी। अचानक मेरी किस्मत ने पलटा खाया। हुआ यूं कि- एक दिन खाना खाते वक्त मेरा छोटी बहन से किसी बात पर झगड़ा हो गया। माँ ने भी बहन का साथ दिया। मैं गलत नहीं थी। मुझे उस झगड़े से ज्यादा माँ-बहन के व्यवहार ने आहत किया। मैंने खाना छोड़ा और तय किया कि अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी। मैं काम की तलाश में परदेश जाऊंगी। यहाँ पर काम का दाम कम मिलता है। जो रोज की चिख-चिख का कारण है। माँ-बहन के व्यवहार ने मुझे अंदर से तोड़ दिया था। मैं सोचती रही- इनके कारण मैंने अपनी शादी तोड़ी, आजीवन अकेली रही। जो कमाया इनकी जिम्मेदारी उठाई और आज ये ऐसा व्यवहार कर रहे हैं? आखिर मेरा भी तो आत्म सम्मान है। पर मुझे नहीं मालूम था औरतों का आत्म सम्मान तो हमेशा गिरवी रहता है- कभी पिता, भाई,पति की चैखट पर तो कभी समाज के दरिन्दों के पास?’बड़ी उधेड़बुन के बीच मैंने इस उम्र में घर की चौखट छोड़ दिल्ली जाना तय किया। मैंने पड़ोस के गाँव के सेल्वम से बात की। उसका परिवार हमारा पुराना परिचित था। सेल्वम परिवार के साथ दिल्ली रहता था। सेल्वम ने मुझे भरोसा दिया। आँसुओं की धार के बीच किरदेई बोली- बस मैं ऐसे काम की तलाश में 6 साल पहले दिल्ली आ गई। पर दिल्ली आ मेरे सपनों को ग्रहण लग गया। परदेश में अकेली औरत कितनी लाचार होती है? ये मैंने तब समझा जब मैं तमिलनाडू से नई टिहरी जेल की सलाखों के पीछे पहुँची। पर क्यों?
‘’मैं सेल्वम के परिवार के साथ दिल्ली में पपनकला बस्ती में रहती थी। कुछ घरों में झाडू पोछा करने के बाद बचने वाले समय में मैं कबाड़ा बीनती। कबाडे़ से रोज 50-60रूपये कमा लेती। झाडू-पोछा की आमदनी अलग थी। मैं सारा पैसा सेल्वम के पास जमा करती। मेरा रोज का खर्च10-15 रूपये से ज्यादा ना था। मैंने सोचा घर जाते वक्त सारा पैसा एक साथ लूंगी। माँ और बहन इतना पैसा देख खुश हो जायेंगे। मुझे दिल्ली में 6 साल हो गये। सेल्वम जुआरी था। उसे नशे की लत थी। वह घर में मारपीट करता। मैं परिवार की जरूरतों पर पैसा खर्च करती। बच्चों की देखरेख करती। मेरा 15-20 हजार से ज्यादा पैसा सेल्वम के पास जमा था। मैं जब पैसे मांगती, वह टालता। हमारी कई बार लड़ाई होती। बाद में मैंने पैसे देने बंद कर दिये। मैं सेल्वम के सिवा किसी को नहीं जानती थी। सो चुप रहना मेरी मजबूरी थी। एक दिन वह बोला मेरे साथ टिहरी चलो। वहाँ डाम बन रहा है। वहाँ बहुत कबाड़ा मिलता है। खूब पैसा कमायेंगे। वहीं तुम्हारा पैसा भी लौटा दूंगा।
‘’सेल्वम हम चार पाँच लोगों को टिहरी लाया- किसी चिरबटिया नाम की जगह पर। चिरबटिया से घनसाली तक मेरा सेल्वम से पैसों को लेकर खूब झगड़ा हुआ। मैं उसकी हरकतों से समझ गई थी कि यह किसी और वजह से यहाँ आया है। सेल्वम चिरबटिया के स्थानीय लोगों के साथ मिल कर भांग की पत्तियों की स्मगलिंग करता था।‘’  
सेल्‍वम किरदेई को वाहक की तरह प्रयोग करना चाहता था। 11 नवंबर 2000 को किरदेई के दुर्भाग्य की कहानी शुरू हुई। घनसाली में वन विभाग और राजस्व कर्मियों ने जंगलात की चैक पोस्ट पर बस संख्या- यू.पी. 08-2377की तलाशी ली, बस की छत से बिस्तरबंद, बोरियाँ, बैग,वी.आई.पी. की अटैचियाँ बरामद कीं। सामान के साथ किरदेई और 4 लोग भांगपत्ती रखने के जुर्म में एन.डी.पी.एस. एक्ट में गिरफ्तार कर नई टिहरी जेल पहुँचा दिये गये। आश्चर्यजनक तौर पर सेल्वम गिरफ्तार लोगों में नहीं था। ना ही यह सामान किरदेई से बरामद किया गया था।
हैरानी की बात थी कि किरदेई के साथ गिरफ्तार 4 लोगों की जमानत हुई। जेन से छूटकर वे अपने देश चले गये। रह गई अकेली बूढ़ी किरदेई- अनजान देश में अजनबी लोगों के साथ जेल की चारदीवारी के बीच।
‘’मैं भाषा से लाचार थी। मैंने इशारों और आँसुओं से बोलने की कोशिश की कि यह मेरा सामान नहीं है। मुझे फंसाया जा रहा है। पर किसी ने मेरी ना सुनी। सिर्फ मेरे आँसू मेरे साथी थे। मेरा भगवान- जेल की ऊँची दीवारें और बंदी रक्षक प्रेमा देवी। मुझे नहीं मालूम था कि मेरा जुर्म क्या है?क्यों नहीं कोई मेरी बात सुनता है? मैंने आज तक किसी का दिल नहीं दुखाया। कभी किसी के साथ बुरा नहीं किया। कभी चोरी नहीं की, कभी झूठ नहीं बोला। मैंने जिंदगी भर जड़ी बूटियां देकर हजारों बच्चों और औरतों की जान बचाई। मैंने कभी इस काम का पैसा नहीं लिया। तुम ही बोलो सुनीता क्या मैं कभी ऐसा काम कर सकती हूँ? ‘’
बोलते-बोलते वह जोर-जोर से चीखने लगी। मैं और दयालु सुनीता कई बार जेल आए। कभी-कभी वह मुझ पर बुरी तरह बिगड़ पड़ती कि आखिर मैं क्यों उसे तंग कर रही हूँ?पूरी जानकारी लेकर मैंने अपनी रणनीति बनाई। मुझे पागल कह हंसने-डराने वालों की कमी ना थी। हरेन्द्र और सुनीता हर वक्‍त मेरी मदद के लिए तैयार मिलते। यह बड़ा सहारा था।
सरकारी वकील और सेल्वम एण्ड कम्पनी के पैरोकार बेहद नाराज थे। वे किसी तरह से किरदेई को मुजरिम करार कर असली मुजरिमों को बचाने के जोड़ तोड़ में लगे थे। मैंने हिम्मत नहीं हारी। मेरे साथ महिला समाख्या टीम चट्टान की तरह खड़ी थी। किरदेई का चेहरा मुझे रात को सोने नहीं देता। भगवान बड़ा दयालु है। उसी दिन शाम मुझे अचानक किसी मित्र ने फोन पर कहा कि मैं किरदेई केस में तुम्‍हारी मदद कर सकता हूँ। अगली दो छुट्टियों में मैं तुझे उसकी फाईल ला दूंगा। तू पढ़ और देख क्या हो सकता है? इसे फंसाया गया है। किरदेई से कोर्ट में भी लोग सहानुभूति रखते थे। पर कोई कानूनी दावपेंचों और षडयंत्रों के बीच उलझना नहीं चाहता था। मेरा यह मित्र सालों से मुझसे बहुत नाराज था कि मैंने बलमदेई को जेल से क्यों छुड़वाया? मेरे को तो यकीन ना हुआ। मैंने सोचा आज भाई जी ने जरूर कुछ ज्यादा ही चढ़ा ली होगी? तब तक टिहरी में खबर आग की तरह फैल गई थी कि कुसुम किरदेई का केस लड़ रही है। मेरा सर ईश्वर के चमत्कार के आगे शिद्दत से झुक गया, जब भाई जी ने अपनी नौकरी की परवाह ना कर मेरे हाथ में चुपचाप फाईल रख दी। मैंने रात भर फाईल पढ़ी। कुछ बेहद जरूरी बातें समझ आईं कि- हाँ यह केस पलटा जा सकता है। इसमें बहुत कमियाँ हैं।
फाइल से नोट्स बनाकर अपनी एडवोकेट दोस्त मृदुला जैन से मिली। दीदी ने बलमदेई सहित मेरे कई और केस फ्री में लड़े थे। वह हमेशा हमारी मदद करतीं। पहले तो दीदी ने हमेशा की तरह डांटा। पहले तो नारकोटिक्स एक्ट का डर दिखाया। पर मैं टस से मस ना हुई। कारण- किरदेई ना तो इस मुल्क की थी, ना उसे कोई यहाँ जानता- पहचानता ही था। किसी को उसकी परवाह नहीं थी। उसके घर वालों तक को पता नहीं था कि वह जेल में है। और तो और उसका तो नाम भी जेल दस्तावेजों में गलत लिखा था। मैंने मृदुला दी को धमकी दी- दीदी मुझे केस तो लड़ना ही है। आप चाहे मदद करो या नहीं। पर उसकी नौबत नहीं आई। दीदी को छोड़ हम कहाँ जाते? वो बड़ी दयालु हैं। रात को उनका फोन आ गया कि कुसुम मैं केस लड़ूंगी। तू वकालतनामा साईन करा ले। यह दूसरी जीत थी।
अब नई महाभारत थी- किरदेई से कागज पर अगूंठा लगवाना। उसे यह भरोसा देना कि हम सच में उसके दोस्त हैं। इन हालातों में किरदेई को कानूनी मदद से ज्यादा जरूरत थी- मानवीय संवेदनाओं, भावनात्मक सहारे,अपनेपन, एक अजनबी माहौल में भरोसे की, जो हम उसे अलग-अलग तरीके से देने की कोशिश कर रहे थे। मैं,सुनीता और गुरमीत बार-बार जेल जाते। हमारी कोशिशों में साझीदार थी- बंदी रक्षक प्रेमा देवी। प्रेमा ने किरदेई को मौन भाषा में समझाया कि कुसुम तेरी मदद करना चाहती है। तू अंगूठा लगा दे। वह बुरी तरह चिढ़ती, बैरक में चली जाती।
वह रात मैं कभी नहीं भूलती। बाहर बहुत ठंड थी। हड्डियाँ काँप रही थीं। मेरा ड्राईवर प्रमोद पंत बड़ा नेक लड़का था। हर वक्त काम को हाजिर। शहर में रोशनी गायब थी। खूब आंधी तूफान उस दिन चला था। उसी दौरान जब कलक्टर राधा रतूड़ी लखनऊ से लौटीं थीं। वह लगभग आठ बजे पहुँची। मैंने भी पूरी बेशर्मी से रात में ही उनसे मिलने की ठानी। सोचा, थोड़ा-बहुत डांटेगी, या ज्यादा से ज्यादा मना कर देंगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। कलक्टर सर्दी से कांप रही थीं। मैंने कई मोमबत्तियों की रोशनी में उनको कोर्ट की फाईल दिखा कहा- राधा दी यह अन्याय है। मैंने फ्री पैरवी हेतु वकील भी तैयार कर ली है। अपनी अल्प बुदधि से मैंने कलक्टर को समझाया कि केस में क्या-क्या कमियाँ हैं। केस का दिलचस्प पहलू था कि बरामदगी तो बस से भांग की पत्तियों की हुई पर फोरेंसिक रिपोर्ट में बरामद सामग्री को गांजा बताया गया था। ऐसा क्यों? इनके अलावा 10-12 ऐसे चैंकाने वाले तकनीकि बिन्दु थे, जिन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि किरदेई बेगुनाह है।
कुछ सवाल मैंने क्‍लेक्‍टर के सामने रखे-
खचाखच भरी बस में भांग की बरामदगी हुई पर बस सीज क्यों नहीं हुई?खचाखच भरी बस में बरामदगी के बावजूद क्यों नहीं किसी यात्री को सरकारी गवाह बनाया गया?अपराधियों को 24 घंटे के भीतर कोर्ट में क्यों नहीं पेश किया गया? 

आपत्तिजनक सामग्री के बारे में प्रभारी नायब तहसीलदार ने उपजिलाधिकारी घनसाली को क्यों नहीं सूचित किया?और तीन दिन तक क्यों बरामद सामान अपनी कस्टडी में रखा ?क्यों केस में अपराधियों व सामान की बरामदगी राजस्व के बजाए वन विभाग के कर्मचारियों ने की?
मैंने कलक्टर से कहा- बस एक बार आप किरदेई की शक्ल देख लें। फिर आप तय करना कि क्या ऐसी दीन-हीन औरत से वी.आई.पी. सूटकेसों की बरामदगी सम्भव है? यदि आप मेरी बात से सहमत नहीं हो पाएंगी तो मैं चुप हो जाऊंगी। एक सुलझे-संजीदे कलक्टर की तरह वे बोलीं- कुसुम परेशान ना हो। लगता है तुम कई रात से सोई नहीं हो। चलो गरमा गरम काफी पिओ, खाना खाओ। कल हम दोनों जेल चलेंगे।
अगले दिन हम जेल गये। किरदेई की शक्ल देखकर दयालु कलक्टर चुप हो बैरक में ही बैठ गईं। जेलर से उसकी हिस्ट्री जानी, फाईल पढ़ी। बंदीरक्षक प्रेमा से उसके आचरण के बारे में पूछा। डरी सहमी किरदेई को गौर से देखा। फिर मेरी ओर देखा। सिर्फ आँखों की भाषा में मेरे हर कथन की पुष्टि की। हम चुपचाप एक दूसरे को देखते रहे। काले चश्मे के पीछे से लुढ़कते कलक्टर राधा रतूड़ी के आँसू मैंने देखे। वह उतनी ही चतुराई से उनको छिपाने की कोशिश में थी। जेल से लौटने से पहले दयालु कलक्टर किरदेई की मोतियाबिंद से पीड़ित आँखों और पाईरिया से सड़ते दांतों के इलाज का आदेश दे चुकी थीं। हम दोनों चुपचाप लौटे। रास्ते में नम आँखों से खामोशी से बोली- कुसुम तुम कुछ करो इसको बाहर निकालने को। यह बहुत ही गलत हुआ है। हम तुम्हारे साथ हैं। तुमको मुझसे जो मदद चाहिए मैं तैयार हूँ। यह बड़ा भरोसा था कलक्टर का मुझ पर। राधा रतूड़ी किरदेई से मिलीं यह बात आग की तरह फैली। अब किरदेई का केस नया मोड़ ले चुका था।  
अगले दिन मैं, मृदुला जैन और सुनीता जेल गए। किरदेई को सुनीता ने बताया कि राधा रतूड़ी कौन हैं? और समझाया कि वे तुमसे सहानुभूति रखती हैं। उस वक्‍त पहली बार किरदेई की पथराई आँखों में हमने उम्मीद की किरण देखी। उसने चुपचाप वकालतनामा साईन किया। मेरी ओर बड़े प्रेम से देखती रही। मानो कहने की कोशिश में हो- हाँ मेरा ईश्वर और मानवता पर भरोसा पूरी तरह टूटा नहीं है। हम बार-बार जेल जाते। दिल की भाषा में बात करते। अब भी उसकी आँखों में आँसू होते पर ये आँसू खुशी के होते। धीरे-धीरे किरदेई सामान्य होती गई। मुझे देख मुस्कराहट के साथ सलामी देना सीख गई थी। कभी मेरा हाथ पकड़ जोर से भरोसे के आँसू रोती। वह खुश रहने लगी थी। अब वो नियमित खाना खाती। जेल में बंदी रक्षक प्रेमा देवी और कांस्टेबिल सविता ठाकुरी, मीना देवी,ऊषा चैहान, कमला शर्मा ने हमारी बड़ी मदद की। हमारी तेज तर्रार वकील साहिबा ने केस की तेजी से पैरवी हेतु हर कोशिश की। केस की कमजोर कड़ियों को पकड़ अब वो हारी बाजी को पलटने की पूरी तैयारी में लगी थीं।
हमारी कोशिशों को पलीता लगाने वालों की भी कमी नहीं थी। हम जितनी कोशिश उसे बरी करवाने की करते, दूसरा पक्ष उतनी ही ताकत से उसे अपराधी घोषित कराने में लगा था। सरकारी वकील और कई नामी गिरामी लोग बड़े डरे हुए थे क्योंकि- दो महीने में ही मृदुला जैन की दमदार पैरवी ने केस का रुख बदल दिया था। कोर्ट में सबकी सहानुभूति इस लाचार औरत से थी। एक दिन मैंने सुना कि देहरादून से कोई एक्सपर्ट आ रहा है जो कोर्ट में इस बात की पुष्टि करेगा कि यह गूंगी बहरी है। इस केस का एक कमजोर पक्ष था कि किरदेई को गूंगा-बहरा बताकर इशारों में ही उसका अपराध स्वीकार करना बताया गया था। खैर हमने जो नहीं करना था वह भी किया। वह एक्सपर्ट अपनी ही रिपोर्ट की पुष्टि हेतु कभी कोर्ट में नहीं आया। क्योंकि उसे पता चल चुका था कि वह गूंगी-बहरी नहीं है। पर इसके बावजूद जेल के अंदर भी षडयंत्रकारी सक्रिय थे। उनसे ज्यादा सक्रिय था किरदेई का भगवान शिव पर- अटल और अखण्ड विश्वास। मुझे जेल से हर खबर पता चल जाती कि कौन सा नया शिगूफा होने वाला है। हम उसका तोड़ खोजते। यह लुकाछिपी का खेल चलता रहा।
अचानक एक दिन मेरी वकील का फोन आया कि कुसुम जल्दी कोर्ट आओ। किसी ने तुम्हारे नाम से एक पर्चा जेल में किरदेई को दिया है कि- यह कुसुम ने भेजा है। इसे कोर्ट में जज साहब को देना है। यह तुम्हारे छूटने का कागज है। तुम इस पर अंगूठा लगा दो। उस वक्त केस निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया था। किरदेई वह कागज किसी को देने को तैयार ना थी। जेल से ही किसी नेक बंदे ने यह खबर मेरी वकील तक पहुँचाई। आप हैरान होंगे जानकर कि उस पर लिखा था- मैं मुजरिम हूँ। मैं अपना अपराध स्वीकार करती हूँ। भोली किरदेई इस विश्वास में कि कुसुम ने दिया है, उसे लेकर कोर्ट गई। बड़ी मुश्किल से उस दिन जज साहब के सामने ही वकील ने वह कागज खींचा। सो यह बला टली। यह बात किरदेई ने सुनीता की मदद से खुद कलक्टर और मुझे बताई। सच जानकर किरदेई फिर से बड़ी आहत और गुस्से में थी। उसने चार दिन खाना नहीं खाया। दयालु कलक्टर राधा रतूड़ी को जब यह पता चला तो वह खुद जेल गई। समझा-बुझाकर अपने हाथों से उन्होंने किरदेई को चाय पिलाई।
उतार चढ़ावों के बीच 23 नवम्बर 2001 को किरदेई के भाग्य का फैसला हुआ। किरदेई को निर्दोष करार दिया गया। विद्वान न्यायाधीश माननीय श्री आर.पी.वर्मा जी ने अपने फैसले में कहा कि जाँच अधिकारियों ने एन.डी.पी.एस.एक्ट की धारा 42  50 का अनुपालन नहीं किया है। मुझे मृदुला दीदी ने फोन कर के बुलाया, पर पता नहीं क्‍यों उसके छूटने की खुशी मैंने अकेले ही सैलीब्रेट करना तय किया। मैं वैसे तो नई टिहरी में ही थी। मेरी वकील बता रही थी कि छूटने के बावजूद भी घंटों किरदेई कोर्ट से बाहर नहीं गई। वह मेरा इंतजार करती रही- अपनी टूटी फूटी हिंदी में कुचुम-कुचुम बोल। पर मुझ पर बहुत जिम्मेदारियां थीं। बहुत दिनों से हमारा कार्यालय का जरूरी काम छूटा था। सो आफिस के लोगों को भेजा। मेरी कलक्टर टिहरी डुबाने वाली थीं। सो मुझे अपने घर की लिपाई-पुताई और अपनी गुरू के माई बाड़ा के निर्माण काम के साथ चम्बा अस्पताल में भर्ती बीमार माँ को देखना था। किरदेई केस में मेरा कीमा बन गया था। मैंने बहुत नाराजगी झेली पर मैं संतुष्ट थी। मैंने गुरमीत से कहा छोड़ो किरदेई से मिलने से ज्यादा जरूरी है, उसे घर तक भेजने का इंतजाम कराना। सो पुलिस अधीक्षक अमित सिन्हा व जेलर से मिलकर उसे सरकारी अभिरक्षा में गाँव भिजवाने के प्रबंध में काफी वक्त निकल गया। वह छूट गई थी। यही हमारे लिए काफी था। हाँ मैं किरदेई को गाँव पहुँचाने वाली पुलिस टीम के सम्पर्क में रही।
बाद में किरदेई कथा-व्यथा को अखबारों और भारत सरकार के समाज कल्याण विभाग की पत्रिका संदेश ने महिला सशक्तिकरण वर्ष की लीड स्टोरी के तौर पर छापा। कलक्टर राधा रतूड़ी और महिला समाख्या के लिए यह बड़ा सबक और सौगात थी। यह जीत महिला ब्रिगेड के समन्वित प्रयासों का प्रतिफल था। हमने किरदेई की कथा-व्यथा का विश्लेषण अपने न्यूज लैटर ‘’रंतरैबार’’ में किया। किरदेई पर एक शानदार फ्रलैश कार्ड सीरिज मेरी सहकर्मी अमीता रावत ने तैयार की, जिसको महिला हिंसा पर संवाद हेतु गाँव-गाँव में प्रयोग किया गया।
किरदेई ने ठीक ही कहा था कि- औरतों के साथ लोग परदेश में ठगी करते हैं। कलक्टर राधा रतूड़ी का तबादला हो गया था। कलक्टर राधा रतूड़ी ने हमको ट्रीट देने का वादा किया था। पर मुझे आज तक वक्त ही नहीं मिला ट्रीट लेने का। सो वो आज भी हमारी कर्जदार हैं...। मैं सोचती हूँ ऐसा अन्याय फिर कभी किसी के साथ ना हो। गुमनाम किरदेई का छूटना मेरे जीवन का सबसे संतुष्टि वाला पल है। जहाँ हममें में से कोई भी एक दूसरे को नहीं जानता था। किसी को किसी से कोई अपेक्षा नहीं थी। किसी को किसी से दुबारा नहीं मिलना था। सब कुछ नियति के तयशुदा कालचक्र की तरह खामोशी से चल रहा था। यही तो जीवन के सबसे सुंदर पल हैं ना! जहाँ हर कोई निस्वार्थ भाव से अपने हिस्से की आहुति महादेव के इस- किरदेई यज्ञ में खामोशी से डाल उतनी ही तेजी से खामोश हो गया था। बस यूं ही किरदेई मेरे मन में कवीन्द्र रवीन्द्र की गीतांजली के सार- निर्भय मन, सर ऊंचा और श्रीकृष्ण के उपदेश-जब-जब धर्म की हानि होगी मैं आऊंगा बार-बार आऊंगा.... के व्यवहारिक बोध पर टिका कर अपने देश चली गई। मैं कभी नहीं भूलती हूँ किरदेई केस जीतने पर राधा दी की प्रतिक्रिया- कुसुम हमारा जी करता है हम यूं ही तुम्हारी लाजवाब टीम का मेम्बर बन एक साथ औरतों और कमजोर लोगों के लिए जमीनी काम करें। पर वो दिन फिर कभी नहीं आया।
सो कई कारणों से मैं किरदेई की अहसानमंद हूँ। उसको शुक्रिया बोलने को मेरे पास ना कोई शब्द हैं और ना कोई भाव ही...। परदेशी किरदेई मेरे मन के कोने में कहीं चुपचाप एक बुझी चिंगारी की तरह जीवन का कोई नया सबक सिखाने को बारूद की तरह बैठी है, महिला सशत्तिकरण पर अनुत्तरित इन सवालों के साथ- कि आखिर कब तक असली दोषी के बजाय निर्दोष लोग कानूनी प्रक्रियों का शिकार होंगे? किरदेई को तो दैवीय अनुकम्पा ने बेगुनाह साबित किया पर यहाँ सवाल किरदेई का नहीं, बल्कि एक साफ सुथरी चौकस व्यवस्था के ईमानदार क्रियान्वयन का है? जहाँ कोई और बेगुनाह किरदेई किसी जुल्म का शिकार ना हो? और किरदेई जैसों की जेल प्रताड़ना का हिसाब कौन देगा?
इस अनोखे किरदेई यज्ञ में आहुति डालने वाले हर हाथ की मैं तहेदिल से शुक्रगुजार और कर्जदार हूँ।

Saturday, March 12, 2016

उसका नाम कन्हैया है

संस्समरण

सुनील कैंथोला

बकरोला जी श्याम को कुत्ता घुमाते हैं, कोई सात बरस पहले एक मलाईदार विभाग से सेवानिवृत हुए हैं, यहीं वसंत विहार एन्क्लेव में बंगला है, ऐशो आराम की कमी नहीं. बकरोला जी का कुत्ता उनसे जायदा हट्टा-कट्टा है. एक तो उम्र में कम है और दूसरा कुत्ता शराब नहीं पीता. जब वे घूमते हुए कुत्ते के मलत्याग हेतु कोई उपयुक्त स्थान ढूँढने की फिराक में होते हैं तो लगता ऐसा है कि मानो उनका कुत्ता उन्हें घुमा रहा हो.

बकरोला जी की एक खासियत है कि बात कहीं से भी शुरू हो उसका अंत I.A.S. व्यवस्था को फटकारने और यदि दो-चार पेग अन्दर हों तो माँ-बहन की गालियों पर समाप्त होती है. ये बकरोला जी की I.A.S. से व्यक्तिगत खुन्नस है. इसकी तह में जायेंगे तो आक्रोश शायद इस बात का है कि वे I.A.S. बनने से वंचित कैसे रह गए.
बकरोला जी अच्छे आदमी हैं. इलाके में सत्संग के आयोजन में हमेशा आगे रहते हैं. क्रिकेट में जब भारत पाकिस्तान से जीतता है तो अपनी जेब से आतिशबाजी का आयोजन करवाते हैं. पंद्रह अगस्त हो या छब्बीस जनवरी, बकरोला जी सोसाइटी के पार्क में होने वाले झंडारोहण कार्यक्रम का अहम् हिस्सा होते हैं. वे कड़क स्वाभाव के हैं. झंडारोहण के पश्चात् मिष्ठान वितरण के दौरान बगल की मलिन बस्ती का कोई बच्चा यदि दोबारा लड्डू मांग ले तो उसके कान गर्म करने में देर नहीं लगाते. बकरोला जी सेवानिवृत होने के बाद भी आजादी की रक्षा में संलग्न हैं. देश की आज़ादी को लेकर बकरोला जी बहुत भावुक हैं. यही वो आज़ादी है जिसने उनको वसंत विहार एन्क्लेव के इस बंगले में विराजमान किया अन्यथा सूखी तन्खवाह में भला ऐसा कहाँ संभव था. जब तक उनकी कलम में ताकत रही बकरोला जी ने उसे पूरी निष्ठा से आज़ादी की रक्षार्थ समर्पित किया. ये बात अब सार्वजनिक हो ही जानी चाहिए कि जब से उन्होंने उस नासपीटे कन्हैया को आज़ादी के नारे लगाते देखा उसी क्षण से बकरोला जी के भीतर एक हाहाकारी किस्म की उथल पुथल शुरू हो गयी है. अब कोई माने या न माने इसका श्रेय उस कमबख्त कन्हैया को ही जायेगा जिसने उन्हें अपनी आज़ादी से प्राप्त होने वाले फलों के प्रति जागृत किया और उस पर पड़ने दुष्प्रभावों के प्रति उन्हें सतर्क किया . बकरोला जी को अपनी आजादी की चिंता है. अब वे सीरियल कम और इंडिया टीवी जायदा देखने लगे हैं.

बकरोला जी उस सामाजिक परिवेश से आते हैं जिसमे महिलाएं अपने बड़े बुजुर्गों का नाम अपनी जुबान पर लाना पाप समझती हैं. मसलन यदि किसी महिला के ससुर का नाम इतवारी लाल हुआ तो वह इतवारी लाल जैसे पवित्र शब्द को अपनी जुबान पर लाना तो दूर इतवार के दिन को इतवार न बोल कर कुछ और बोलना शुरू कर देगी जैसे कि तातबार! इसी प्रथा का कुछ हैंगओवर बकरोला जी पर भी है. बकरोला जी आजकल बहुत हिंसक हो रहे हैं. पर अपने तरकश में भरी चुनिदा गालियों से लैस होने के उपरांत भी वे कन्हैया को गाली देने में इसलिये असमर्थ हैं क्योंकि उसका नाम कन्हैया जो है!



Friday, February 19, 2016

खाकी निक्कर

सुनील कैंथोला
 
खुर्शीद, मास्टर का दूसरे नंबर का बेटा है. बड़ा वहीद और छोटा मुस्तकीम. मुस्तकीम से पहले एक लड़की है, जिसका नाम मुझे याद नहीं. ये सारे बच्चे चोराहे के उसी खोके में पैदा हुए जिसके एक हिस्से में मास्टर अपनी नाई की दुकान चलाता था. मास्टर अब नहीं है, उसकी मौत उस ज़माने में हुई जब दारू के नाम पर टिंचरी दवाई की दुकानों में खुलेआम बिका करी थी. मास्टर के अनेक किस्से हैं जैसे कि वो आँखों की कोई दवा मुफ्त बांटा करता था. या कि उसका खोका बेरोजगारों को छुपकर बीडी पीने की निशुल्क आड़ प्रदान किया करता था. पर छोड़ो, ये किस्सा मास्टर के बारे में नहीं बल्कि खुर्शीद और उसकी खाकी निक्कर के बारे में है.

मास्टर जैसा भी रहा हो, पर उसने अपने बच्चों को स्कूल जाने और पढने से रोका नहीं. ये अलग बात है कि वो जायदा पढ़े नहीं, पर थोडा बहुत विद्यार्थी जीवन सभी बच्चों के  हिस्से आया.  स्कूली दिनों में हिन्दू-सिख बच्चों की संगत में रहते हुए खुर्शीद को अपना नाम अटपटा लगने लगा. फिर किशोरावस्था में कदम रखते हुए जब उसने कैंची और उस्तरा संभाला  तब उसने खुर्शीद के खुरदुरेपन को दूर करने की ठान ली. उन्ही दिनों वो मेरे संपर्क में आया था. तब मास्टर सेमी रिटायरमेंट मोड में था और दुकान अब वहीद और खुर्शीद चलाने लगे थे. छोटा  मुस्तकीम अभी भी स्कूल जा रहा था और उनकी बहिन छोटी उम्र में ब्याही जा चुकी थी. जब से खुर्शीद दुकान में बैठने लगा तब से वहां उसके हम उम्र हमेशा ही भिनभिनाते रहते थे.  जाहिर है कि उसके दोस्त शत -प्रतिशत हिन्दू और सिख परिवारों से थे. दिलचस्प बात ये है कि उसका कोई भी दोस्त उसे खुर्शीद के नाम से नहीं बुलाता था. सब उसे अज्जु कहते थे. पूछने पर उसने बताया कि अज्जु नाम उसी ने रखा है क्योंकि खुर्शीद बड़ा अटपटा और खुरदरा सा है. अज्जु हंसमुख और हाजिर जवाब था. दुकान पर अब वेटिंग लिस्ट भी लगने लगी थी. लोग नंबर लगा कर बगल की चाय की दुकानों में बैठ जाते और उनकी बारी  आने पर अज्जु उन्हें बुला लेता. कभी कोई शेव के लिए जल्दी मचाता तो अज्जु बोल देता ‘अभी तो टाइम लगेगा भाई जी, जल्दी है तो बनी बनाई ले लो’.

धीरे धीरे अज्जु और उसकी मित्र मण्डली की गतिविधियाँ  मुहल्ले की गलियों से बाहर बड़े मैदानों तक होने लगी. वे क्रिकेट और फ़ुटबाल खेलने मातावाला बाग़ जाने लगे. अपने दोस्तों की ही तरह अज्जु सब कुछ करना चाहता था. दुकान पर अब ब्रूसली का पोस्टर लग चूका था. अज्जु को कराटे भी सीखनी थी और बॉडी बिल्डिंग में भी हाथ अजमाना था. चूंकि दूकान देर रात तक चलती थी इसलिये अज्जु अब सुबह मातावाला बाग जाने लगा. निरंतर पसरते देहरादून में अब मातावाला बाग ही ऐसी जगह बची थी जहाँ अलग अलग मुहल्लों की कई टीमे एक साथ क्रिकेट खेल सकती थी. लोग जोगिंग कर सकते थे, शादियों के सीजन से पहले ब्रास बैंड वाले प्रैक्टिस कर सकते थे. अखाडा चलता था, शाखा लगती थी. मातावाला बाग का यह  मजमा पौ फटने से पहले ही शुरू हो जाता था. अज्जु और उसकी टोली को यह सब भाने लगा और मातावाला बाग उनके रूटीन का हिस्सा बनने लगा.
मातावाला बाग में पिछले कोई दो एक बरस से शाखा लगने लगी थी जिसमें अधिकांशतः जनसंघ के ज़माने के बुजुर्ग और युवावस्था खर्च कर चुके वरिष्ठ कार्यकर्ता ही शिरकत करते थे. रंगरूटों का अच्छा अभाव था. उस समय तक हालाँकि इंटों की एक किश्त अयोध्या भेजी जा चुकी थी पर रामभक्तों की जमात से संघी उत्पादन की प्रक्रिया कमोबेश धीमी ही थी. अज्जु और उसके साथियों की टोली के लिये शाखा की प्रक्रिया कोतुहल का विषय होती और वे दूर से खड़े होकर उनके कर्मकांड को देखते. इसी फेर में शाखा संचालक की नज़र इस टोली पर पड़ गयी और मेल-मिलाप बढ़ने लगा. अज्जु, अब अज्जु जी बनने की दिशा में बढ़ने लगे. इसी दौर में अज्जु ने अपनी टेंशन मुझ से साझा की.  हुआ यूँ कि अपनी पूरी मण्डली के साथ अज्जु मियां ने भी शाखा में भाग लेना शुरू कर दिया. सुबह की नींद सब से प्यारी होती है. जिसने अल सुबह बिस्तर का मोह छोड़ दिया उसने समझो पहली लड़ाई तो जीत ही ली. पर हर कोई कहाँ उठ पता है. इसलिये शाखा के सयाने नये रंगरूटों के घर घर जा कर उन्हें उठाते है ‘पांडे जी उठ जाईये, शाखा का समय हो चूका है’. अज्जु को शाखा का ऐसा नशा लगा कि उसकी नींद ही गायब हो गयी. अपनी टोली के अन्य साथियों को उठाने की साथ साथ वह शाखा संचालक के दरवाज़े पर भी पहुँच जाता. पहले एक-दो दिन तो झंडा-डंडा भी उसी ने ढोया. पर  इसी बीच बात खुल गयी कि अज्जु उस बिरादरी का नहीं है जिसके लिये ये आयोजन होता है. अज्जु को किनारे कर के उसकी टोली से बात की गयी की भईया इसे मत लाओ. पर टोली कहाँ मानती और किसी की भी समझ में ये नहीं आया की अज्जु को लाने से मना क्यों किया जा रहा है. एक तरफ नए रंगरूटों को खोने का डर तो दूसरी तरफ अज्जु को भीतर लाने की समस्या,  कुछ दिन इसी तरह बीत गए और अज्जु शाखा में हिस्सा लेता रहा.

फिर शाखा संचालक की तरफ से निर्णय सुनाया गया कि जो भी शाखा में नियमित होना चाहता है उसे शाखा की ड्रेस पहन  कर आना पड़ेगा. विशेष रूप से खाकी निक्कर तो सिलवानी ही पड़ेगी. अज्जु की टोली के सभी सदस्यों ने सहमती दे दी और उनके परिवार ने भी हाँ बोल दिया. इस बीच अज्जु ने होमवर्क किया तो पता चला की कम से कम सत्तर रूपये का खर्चा है. कुछ पैसे उसने जोड़ लिये थे और बाकि का जुगाड़ कर रहा था. इसी सिलसिले में अज्जु ने मुझ से ये बात साझा की थी. चूंकि मैं शेव और कटिंग अज्जु से ही करवाता था तो वह मुझे टटोलना चाह रहा था कि क्या में कुछ पैसे एडवांस में दे पाऊंगा जो की बाद में एडजस्ट हो जायेंगे. क्या गज़ब का उत्साह था अज्जु में, इतने दिनों में उसे  नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ पूरी कंठस्थ हो गयी थी. टोली अब भी साथ जाती थी पर अज्जु  शाखा में भाग न लेकर आस-पास उछल –कूद करता और सभी साथ-साथ वापस आ जाते. मैंने उसे कितने पैसे दिए ये याद नहीं, पर दिए जरूर थे. अज्जु का मिशन  ‘खाकी निक्कर’ कायम था. निक्कर सिलवाने को दी जा चुकी थी. जब कोतुहलवश पुछा तो उस ने मुझे यही बताया था.

अब हुआ यूं कि निक्कर की डिलीवरी होने से पहले बाबरी मस्जिद दहा दी गयी और आर. एस.एस. पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. इस घटना के दो-चार दिन बाद मैं शेव करवाने अज्जु की दुकान पर गया तो पाया की वह बहुत उत्तेजित है. कारण पूछने पर उस ने बताया कि उसकी निक्कर कल मिल गयी थी. इसलिए वो आज सुबह उसे पहन कर महेंद्र जी के घर गया था जगाने के लिये. उसने आवाज लगाई तो महेंद्र जी ने डांट कर भगा दिया की कोई शाखा वाखा नहीं लगेगी. जाओ यहाँ से, हल्ला मत करो. फिर मैं मातावाला बाग चला गया. वहां शाखा के सभी लोग आये थे पर मेरे सिवाय निक्कर किसी ने भी नहीं पहनी थी. वहां उन लोगों ने मुझे फिर पकड़ लिया ओर धमकाया कि ये निक्कर मत पहन वर्ना पुलिस पकड़ लेगी. अज्जु का मेरे से एक ही सवाल था कि 'भाई जी इतने मुश्किल से पैसे जमा कर के निक्कर सिलवाई है, मेरी निक्कर है, बताओ मैं इसे क्यों नहीं पहन सकता'.

बरस, 1992 से 2016 के बीच कितना समय बीत गया है पर अज्जु का सवाल मेरे जेहन में कभी कभार उठता ही   रहता है.  वहीद और छोटा मुस्तकीम अभी भी भंडारी बाग के चोराहे पर उसी खोके से अपनी दुकान चला रहे हैं जहाँ वे पैदा हुए थे. अज्जु उनसे अलग हो चूका है.  उसे आखरी बार अनुराग नर्सरी के तिराहे पर एक तिरपाल  के नीचे हजामत बनाते देखा था. वो मुझे खुर्शीद लगा, उसमें अज्जु जैसा कुछ भी नहीं था.

Sunday, June 10, 2012

बागी टिहरी गाये जा

ब्रिटिश शासन से कभी भी प्रत्यक्ष तौर पर शासित न होने वाला टिहरी, उस उत्तराखण्ड राज्य का एक जनपद है जो प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के अधीन रहे (ब्रिटिश गढ़वाल और कुमाऊ कमिश्नरी) इतिहास का सच है। 1947 की आजादी के वक्त हैदराबाद और कश्मीर की तरह टिहरी भी गणतांत्रिक भारत का हिस्सा न था, यह इतिहास है। जबकि टिहरी की जनता गणतांत्रिक भारत का हिस्सा होने को बेचैन थी। टिहरी राजशाही के खिलाफ प्रजा मण्डल का आंदोलन इस बात का गवाह है। यह अलग बात है कि गणतांत्रिक भारत से अपने को स्वतंत्र मानने की जिद पर अड़ी रही राजशाही को आज अंधराष्ट्रवादी किस्म की राजनीति राष्ट्रवाद का तमगा देती हो और प्रजामण्डल जैसे राष्ट्रवादी आंदोलन में शिरकत करती जनता को बागी। 'बागी टिहरी गाये जा", कथाकार विद्यासागर नौटियाल का ललित निबंध है। प्रजा मण्डल के आंदोलन में ही शिरकत करते हुए युवा हुए विद्याासागर नौटियाल को हिन्दी का साहित्य जगत एक ऐसे कथाकार के रूप्ा में जानता है जिनका सम्पूर्ण रचनाकर्म अपने जनपद टिहरी की कथा को कहता रहता है। टिहरी का इतिहास, टिहरी का भूगोल और टिहरी के लोगों की मानसिक बुनावट के कितने ही चित्र उनकी रचनाओं में साक्षात हैं। वे 'टिहरी की कहानियां" कहते हैं। उनकी रचनाओं में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के पहाड़ों की पृष्ठ भूमि को देखना उस सच्चाई तक न पहुंचना है, जिसको लगातार-लगातार लिखने के लिए कथाकार विद्याासागर नौटियाल बेचैन रहे। उनका, शायद अन्तिम उपन्यास 'मेरा जामक" जिसे किताबघ्ार को भेजते हुए उन्होंने 6 अप्रैल 2011 को मुझे मेल किया था, मेरे कथन का साक्ष्य है। 29 सितम्बर 1933 को गांव मालीदेवल, टिहरी में पैदा हुए कथाकर विद्यासागर नौटियाल न सिर्फ हमें, बल्कि उस टिहरी को भी विदा कह चुके हैं, जो टिहरी गत वर्षों में झील में समा गयी। 12 फरवरी 2012 की सुबह उन्होंने अपनी अंतिम सांस बैंग्लोर के एक अस्पताल में छोड़ी।
विद्यासागर नौटियाल से मेरा सम्पर्क 1993 के आस पास हुआ था। उस वक्त वे 60 वर्ष की उम्र पार कर रहे थे।  60 वर्ष की उम्र प्राप्त कर चुके कथाकार विद्याासागर नौटियाल देहरादून में रहते हैं, यह जानना मेरे लिए एक अनुभव था। 'फट जा पंचधार" हंस में छप चुकी थी और मैं उस कहानी के गहरे प्रभाव में था। पहाड़ की मुख्यधार के जनजीवन से बाहर के समाज की कथापात्र, एक कोल्टा स्त्री की कथा में आक्रोश और विद्रोह की तीव्रता भरा आख्याान मैंने पहले किसी अन्य कहानी में न पढ़ा था। युगवाणी उस वक्त तक साप्ताहिक पत्र था। प्रजामण्डल के आंदोलन के दौर में जारी आंदोलन की खबरों को जनता तक पहुंचाने के वास्ते आचार्य गोपेश्वर कोठियाल ने युगावाणी की शुरूआत की थी। साठ वर्ष की उम्र पर पहुंच चुके कथाकार विद्याासागर नौटियाल के षष्ठी पूर्ति कार्यक्रम का आयोजन युगवाणी ने किया। शायद देहरादून की साहित्यिक बिरादरी के बीच नौटियाल जी की वह पहली ही-वैसी जीवन्त उपस्थिति थी। उससे पहले मेरी स्मृति में मैंने उन्हें किसी साहित्यिक कार्यक्रम में देखा न था। हां, कम्यूनिस्ट पार्टी से उत्तर प्रदेश विधान सभा में विधायक रहे विद्यासागर नौटियाल का नाम मैंने जरूर सुना हुआ था। लेकिन वह भी साहित्यिक मित्र मण्डली के बीच नहीं बल्कि टे्रड यूनियन के साथियों के मुंह से। साहित्य की दुनिया के साथियों का राजनीति से दूरी उसका कारण रहा हो शायद। क्योंकि बहुत से अन्य मित्र तब भी जानते थे कि 'फट जा पंचधार" का लेखक और देवप्रयाग सीट से विधायक रहा व्यक्ति एक ही हैं - यह मुझे बाद में यदा कदा की बातचीतों से मालूम हुआ। लेकिन मेरे लिए यह जानना उस वक्त हुआ जब उनकी षष्ठी पूर्ति पर कार्यक्रम आयेजित हुआ। उस कार्यक्रम के दौरान अपने प्रिय नेता के सम्मान समारोह में पहाड़ से पहुंचे सामान्य ग्रामीणों की उपस्थिति मेरे लिए जो सूचना लेकर आयी थी, कथाकार विद्यासागर नौटियाल के प्रति एक खास तरह की निकटता में ले गयी। यद्यपि उस वक्त नौटियाल जी विधायक नहीं थे। शायद कम्यूनिस्ट पार्टी में भी न थे उस वक्त। बांध के सवाल पर पार्टी से भिन्न बनी राय के कारण उन्हें निष्कासित होना पड़ा था। गहरी मानसिक उथल-पुथल के दौर में थे। ऐसा उन्होंने अपने किसी साक्षात्कार में भी स्वीकारा है और यह भी व्यक्त किया है कि 'फट जा पंचधार" उसी मानसिक उथल-पुथल की स्थितियों में लिखी रचना है जिसमें वे खुद को कथापात्र रक्खी की स्थितियों में महसूस कर रहे थे। उत्सुकता स्वभाविक थी कि आखिर साहित्य के कार्यक्रम में एक अच्छी खासी संख्या में उपस्थित ग्रामीणों की उपस्थिति का माजरा क्या है ? एक विधायक एवं एक कथाकार विद्यासागर को जानने का अवसर मुझे उपलब्ध हो रहा था। वहां उपस्थित ग्रामीणों की तादाद बता रही थी कि बहुत करीब से जुड़े रह कर राजनीति करने वाले व्यक्ति के प्रति उसके प्रशंसको और शुभ चिंतकों की भूमिका क्या होती है। शायद उन ग्रामीणों के लिए भी वह अवसर ही रहा होगा जब वे अपने प्रिय नेता को एक दूसरी भूमिका में देख रहे हों। कार्यक्रम में हिस्सेदारी करती उनकी चपलता ऐसा ही कुछ कह रही थी। उनमें से कुछ लोगों ने मंच से भी अपने प्रिय नेता के लिए शुभ कामनायें दी थी। ऐसा ही एक अन्य अवसर पहल के सम्मान समारोह के दौरान था। सिर्फ ये दो ही अनुभव थे जब मैं प्रत्यक्ष रूप्ा से जान सका था कि कथाकार विद्यासागर नौटियाल ही वह व्यक्ति है जो किसी समय उत्तर प्रदेश विधान सभा में कम्यूनिस्ट पार्टी के नुमाइंदे के तौर पर विधायक रह चुके हैं। अन्यथा कभी कोई ऐसी स्थिति जिसमें वे कथाकार की बजाय सिर्फ एक राजनैतिक कार्यकर्ता रहे हों, देखने का अवसर मुझे नहीं मिला जो कि इसलिए भी प्रभावित करने वाला था कि समाज के भीतर चीजें इतनी स्पष्ट दिख नहीं रही होती। एक नौकरशाह अपनी असली भूमिका की निकम्मई को कैसे साहित्यकार होकर ढकना चाहता है या साहित्यकारों के बीच वह कैसे अपनी नौकरशाही के कारण हासिल मैरिट को भूनाता है, यह छुपा हुआ नहीं है। या अन्य क्षेत्रों के बीच भी इसे देखा जा सकता है जब अचनाक से एक दिन मालूम होता कि देश का जो प्रधानमंत्री है, वह कवि है और उसके प्रधानमंत्री बनते ही उसकी कविताअें की पुस्तकों के ढेर के ढेर छपने लगते हैं। दिग्गज आलोचकों की एक पूरी फौज उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की मांग करने लगती है। कोई मुख्यमंत्री अपने राजनैतिक कार्यों के लिए नहीं बल्कि अचनाक एक साहित्यकार के रूप्ा में देश विदेश के भीतर सम्मानित होने लग जाता है। बहुत सी अन्य स्थितियों को देखें तो सत्ता पद की गरीमा के दम पर किसी भी क्षेत्र में हिस्सेदारी का मतलब उस क्षेत्र का भी अव्वल कहलाये जाने का चलन जमाने में दिखायी देता है। विद्यासागर नौटियाल जी के संबंध में पायेंगे कि साहित्यकार की भूमिका में वे अपनी रचनाओं के दम पर होते हैं और राजनीति के क्षेत्र में अपने समझदारी और कार्रवाइयों के साथ। दो अलग क्षेत्रों के बीच दखल रखते हुए भी वे किसी एक क्षेत्र में अपनी स्थिति के दम पर दूसरे में प्रवेश नहीं करते। बल्कि कहें कि एक तीसरा क्षेत्र वकालत, जो उनके रोजी रोजगार का हिस्सा था, उसमें उनकी दक्षता को जानने के लिए उनके बस्ते पर ही जा कर जाना सकता था।       
         देश दुनिया के भूगोल से परिचित नौटियाल जी की रचनाओं में जिस भूगोल को हम पाते है, वह दुर्गम हिमालय क्षेत्र है। उसका भी एक छोटा सा हिस्सा- टिहरी-उत्तरकाशी क्षेत्र का हिमालय। वरना नेपाल से कच्च्मीर तक विस्तृत हिमालय का भूगोल भी तो एक जैसा नहीं। प्रत्यक्ष औपनिवेशिक स्थितियों के इतिहास की अनुपस्थिति में सामंती सत्ता के अत्याचारों का क्षेत्र। ऐसे अत्याचार, जिनकी अवश्यम्भाविता का विचार मानसिक जड़ता के साथ मौजूद रहता है। जहां शासन-प्रशासन का हर कदम पाप-पुण्य के भय का निर्माण करते हुए सामाजिक जड़ता को स्थापित करना चाहता रहा है। लेकिन लाख षड़यंत्रों के बावजूद भी सामाजिक गतिकी के नियम को फलांगना जिसके लिए संभव न हुआ और उठ खड़े हुए विद्रोहों से निपटने का रास्ता जहां खुलमखुल्ला निहत्थों पर हथियारबंद आक्रमण रहा। रंवाई का तिलाड़ी कांड निहत्थे ग्रामीणों की हत्या का इतिहास है जिसका जिक्र करने की जुर्रत भी करना विद्रोही हो जाना था। सामंती शासन के भीतर घ्ाटित ऐसे ढंढक/विद्रोह, दबी कुचली जनता की सामूहिक कोशिशें रही हैं। दस्तावेजी करण से उनका बचाया जाना सत्ता कोे कायम रखने के लिए जरूरी था। ऐसे ही इतिहास को अनेकों कथाओं में पिरोकर कथाकार विद्यासागर नौटियाल दर्ज करते चले गये हैं। इतिहास की घ्ाटनाओं का गल्प होते हुए भी अपने समय से जीवन्त संवाद बनाना उनकी रचनाओं का विशेष गुण है। इतिहास की सतत पड़ताल करती उनकी रचनाओं के पाठ हिन्दी साहित्य की दुनिया के दायरे को अपने तरह से विस्तार देते है। उनके अन्तिम उपन्यास 'मेरा जामक" में भी उस अलिखित इतिहास को जानने के स्पष्ट संकेत हैं।    
1992 में उत्तरकाशी में भूकम्प आया था, उपन्यास का कथ्य भूकम्प की त्रासद कथा है। जिसका स्मरण ही बेचैन कर देने वाला है। किसको याद करें, किसके लिए रोएं, किसको दें कंधा, किसके कंधें पर धरें सिर, अनंत हाहाकार के बीच किसको कहें पराया ? उत्तरकाशी भूकंप के बहाने लिखी गयी जामक की कथा का सच देश के हर हिस्से में घ्ाटी त्रासदी का सच है। क्या लातूर, क्या गुजरात। प्राकृतिक आपदाओं में ही नहीं, विकास के नाम पर जारी किसी भी योजना का सच उत्तरकाशी भूकंप राहत योजना से अलग नहीं है। व्यवस्था का ताना बाना कितना उलझा हुआ है कि अपनी ही बोली-बानी और क्षेत्र विशेष के व्यक्ति के हाथों भी छले जाने का उपक्रम होते हुए भी आम जनमानस इस यकीन के साथ हो जाता है कि जो कुछ अगला घटित हो रहा है शायद वह उसके हक में ही हो। पूरे उत्तराखण्ड के भीतर शिशु मन्दिरों की खुलती शाखाएं इसका जीवन्त उदाहरण है। उपन्यास में उन चालाकियों को पकड़ा जा सकता है जिनके रास्ते ऐसा झूठ रचा गया है और लगातार रचा जा रहा है। पहाड़ों के सीने को चीर देने वाली थर-थराहट और गाड।-गधेरों को किसी भी तरफ मोड़ देने वाली विध्वंश की गाथा वाला उत्तरकाशी का यथार्थ कुछ ही समय पहले का इतिहास है। हमारे देखे देखे का। टिहरी को डूबो लोगों को उनके घर-बार ही नहीं उनके पारम्परिक रोजी-रोजगार से बेदखल करने की चालाकियां भी हमारी देखी देखी हैं। उपन्यास की खूबी है कि पूरे पहाड़ को भण्ड-मज्या बनने को मजबूर करते इतिहास के एक काले दौर तक पड़ताल करने की युक्ति वह देता है। प्राकृतिक विध्वंश और कृतिम विध्वंश के कारण, जो वाचाल भाषा में राहत भरे शब्दों के रूप्ा में सुना जाता है, त्रस्त और अपने जीवन यापन की स्थितियों से जूझने के अवसर भी खो जाते जामक वासियों को भण्ड-मज्या बनाने के लिए अवसरों के रूप में दिखायी देने वाले स्वामियों और उनके चेले चपाटों की कमी नहीं है। ब्रिटिश शासन काल में ही जंगलो पर किये गये कब्जों के बाद पारम्परिक उद्योग (खेती बाड़ी और जानवर पालन) से वंचित कर दिये गये पहाड। वासियों के पहाड़ से पलायन और भण्ड-मज्या बनने को मजबूर हो जाने की कथा एक साक्ष्य है। बूट, पेटी और टोपी, जुराब के लिए पूरी जवानी को खंदकों में बीता देने का इतिहास सिर्फ देश प्रेम नहीं बल्कि उन स्थितियों से निपटने के लिए शुरू हुई फौरी कार्रवाइयां रही हैं। ऐसी ही जरूरी कथाओं को दर्ज करता नौटियाल जी का लिखित उनकी प्रिय जनता की धरोहर है।  


 -विजय गौड़

Thursday, May 24, 2012

ब्या-काज के वे दिन

हिन्दी का रचनात्मक साहित्य ज्यादातर आपसी संबंधों या एक हद तक राजनैतिक आर्थिक ताने बाने के इर्द गिर्द ही सामाजिक सवालों का लेखा जोखा संजाये है। विज्ञान, खेल-कूद, शाखा दर शाखा बढ़ती ज्ञान विज्ञान की स्थिति के साथ-साथ बदलती हुई तकनीकी स्थितियां, जैसे इतर विषय हिन्दी लेखन के दायरे से बहुधा बाहर ही दिखायी देते हैं। विषयगत शुद्ध लेखन की अनुपस्थिति तो पूरी तरह देखी जा सकती है। शुद्ध साहित्य के अलावा किसी भी अन्य विषय की मौलिक पुस्तक ही नहीं, छोटे-मोटे आलेख भी मुश्किल से दिखायी देते हैं। मामले के विश्लेषण पर औपनिवेशिक मानसिकता से जकड़े समाज को दर किनार नहीं किया जा सकता लेकिन साथ ही साथ लम्बे समय से अपने प्रभाव का विस्तार करती बाजारू संस्कृति के आरोपित प्रभाव को भी चिहि्नत किया ही जा सकता है। देश का मध्यवर्ग इस आरोपित प्रभाव की जद में पूरी तरह से है। बल्कि इसे यूं कहा जाये जीवन मूल्यों के आदर्श और गढ़ी जा रही नैतिकतायें भी इसी केे दायरे में तय कर रहा है। समझा जा सकता है कि इसी कारण उच्च शिक्षा का माध्यम सिर्फ अंग्रेजी ही दिखायी देता है। देवेंद्र मेवाड़ी हिन्दी के ऐसे लेखक हैं जिन्होंने विज्ञान विषय को गल्प में शामिल करते हुए अपनी सक्रिय भागीदारी की है। बल्कि कहें सकते हैं कि हिन्दी में विज्ञान लेखन पर सक्रिय चंद रचनाकारों में वे शुमार है। अभी प्रस्तुत है उनका एक बेहद आत्मीय संस्मरण।
-वि.गौ.

  देवेंद्र मेवाड़ी
dsmewari@rediffmail.com,
dmewari@yahoo.com
 
किन---कि---क्यान् क्यान् क्यान्
घि---घ्यान्---घ्यान् घ्यान्
कि---क्यान् क्यान् क्यान्---
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान्

दूर किसी धार या मोड़ से आती हुई बाजे-गाजे की यह आवाज सुनते ही हम खाना छोड़ कर भागते हुए बाहर बट्या (सड़क)में आ जाते थे और सिर घुमा कर आवाज की दिशा में देखने लगते थे। हमारी आंख बर्यात देखने को बेचैन हो जाती थीं। कान बाजा की आवाज पर लगे रहते थे। 
तभी दूर से तूरी की आवाज आती---धूह्णह्ण तु  तु  तु तूह्णह्णह्ण हमारी उत्सुकता और बढ़ जाती। पंजा पर उचक-उचक कर उस तरफ देखते। बीच-बीच में हवा में शंख की लंबी आवाज गूंजती---पूह्णह्णह्णह्!
फिर अचानक धार के मोड़ से बारात निकल आती। ढोल-नंगारा की आवाज तेज हो जाती>---
किन---किन्---किन्---कि---किन्---किन्---किन्
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान!
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान!
ढोल-नगाड़े जैसे अपनी आवाज में बोल कर बताते थे-लो, हम ले आए हैं बरात। 
धीरे-धीरे बर्यात और नजदीक आ जाती। रंगीन छाता ओढ़े ब्यौला दिखाई देने लगता।
हमारी बाखली से भी कई बर्यात गईं। कई बर्यात बाखली में आईं। ददाओं की बर्यात जाती थी और वे ब्योली (दुल्हन) लेकर आते थे। जो बर्यात हमारे यहां आती थीं, वे किसी दीदी-बैनी को ब्योली बना कर ले जाते थे। दीदिया और बैनिया के जाने पर हम बहुत बुरा लगता था। लेकिन, ददाओं की बर्यात में सब खुश रहते थे।
बर्यात का दिन तय हो जाने पर ज्वेशिज्यू एक दिन पहले आकर हम बच्चों से गाय का गोबर, दूब और धूप देने के लिए "पाती" मंगाते। वैसे तो उसे "कुर्ज" कहते थे, लेकिन ब्या-काज और पूजा-पाठ में धूप देने के लिए पाती कहते थे। उसकी पत्तिया को घी में लटपटा कर जलते कोयलों पर रख देते। धूप का सुगंधित धुवां चारा ओर फैल जाता। कलश थापन करके, दिया जलाते, गणेश पूजा करते और वर के दांए हाथ की कलाई पर हल्दी रंग के पीले कपड़े में पिठियां, अक्षत और भेट (सिक्के) रख कर कंगन बांध देते।
घर में इष्ट-बिरादर आने लगते। दो-तीन लोग "पातों" (पत्तियों) के लिए भेज दिए जाते। वे सुबह ही गांव के पहाड़ के पार उतर कर जंगल से खूब मालू के पत्ते तोड़ते और पत्ता के गट्ठर लेकर शाम तक लौट आते। शाम को लोग बैठे-बिठाए बात करते-करते सिनके के टुकड़ा से जोड़-जोड़ कर पत्ता की दूनियां (दोने) और पत्तल बना देते। तिमिल के पत्ते मिल गए तो उनकी भी दूनियां बना लेते। दूनिया और पत्तला का ढेर जमा हो जाता। कमरे म हुक्का-चिलम और सुलपाई यानी हथेली में समा जाने वाली चिलम घूमती रहती। न्योतारे कश खींच कर, धुवां छोड़ते हुए उन्हें आगे बढ़ाते रहते। बीच-बीच में थाली में खूब मीठी गरमागरम चहा के गिलास घुमाए जाते। खाना तैयार हो जाने पर खाने का बुलावा आ जाता, "हं हौ, खान् हन उठा आब्।"
औरत, लड़कियां भीतर के कमरा में "त्यार सप्त दिदी" (तेरी कसम दीदी या "मैं खाली बैंनी" (मेरी प्यारी बहिन) कहते हुए अपने-अपने सुख-दुख लगी रहती। घर भीतर चूल्हे का गाढ़ा धुवां भरा रहता।
सुबह से ही झर-फर शुरू हो जाती। रश्यार (रसोइए) मकान की अगल-बगल में कहीं पर छप्पर के नीचे बड़े-बड़े पत्थर रख कर रसोई बना लेते। एक कमरे म सामल-पानी का भंडार बना दिया जाता। रश्यारा को वहीं से आटा, चावल, दाल, सब्जियां, घी, तेल, दूध, दही, चीनी, गुड़, मसाले छुहारे और किशमि्श वगैरह दिए जाते। बहू, बेटियां तांबे के फ्वांला (कलश), तौली और टीन के कंटरों में पानी भर देती। खा-पी कर बर्यात के जाने की तैयारी शुरू की जाती।
उधर ईजा, चाचियां, भाभियां और बहिन हल्दी-तेल का उबटन लगा कर ब्यौल (वर) को नहलाती। नहा-धोकर वह नए कपड़े पहनता। सफेद कुर्त्ता, पैजामा, टोपी। ऊपर से ब्यौले का झगुला पहनाया जाता। दोना कंधा और छाती पर से पीछे तक कस कर पट्टा बांधा जाता। कमर में कमरबंद और उसम खुकरी या तलवार। सिल पर चावल पीस कर सफेद और पिठियां घोल कर लाल घोल बनाया जाता था। फिर मुंह पर लिखाई की जाती। कपाल से गाला तक सफेद और लाल बिंदियां बनाई जाती थद्ध। माथे पर मुकुट बांधा जाता था। ब्यौल को रंगीन छाता ओढ़ाया जाता। इस सयानी फगारियां शकुन आंखर गा्तीं और हेलारियां उनके सुर में सुर मिला कर हेल देती रहती---
बट्यावाह्णह्णह्ण बट्यावाह्णह्णह्ण रामीचंदरह्णह्णह्ण
शकुना द्यालो, रामीचंदरह्णह्णह्ण
पैंलि शकुनो ध्यों-गूड़े को
फिरी दै-दूदै को---
पंचैनामा देबौ दैना ह्वै जायाह्णह्णह्ण
गोरखनाथ देबौ सुफल ह्वै जायाह्णह्णह्ण
तुमारा ऐ बेर ह्णह्ण हमरो काज
सुफल है जालो ह्णह्णह्ण
बट्यावाह्णह्णह्ण बट्यावाह्णह्णह्ण रामीचंदरह्णह्णह्ण
मां-बहिन आरती उतारती और अक्षत परखती। ईजा कहती, "द ज च्यला, भली-भलि सूनि (सुंदर) ब्यौलि लाए। भलि कै गए। द हिट ईजा---'' शकुन के लिए लोटे-गिलासा ्में पानी भर कर कलेश रखे जाते। कन्याएं पानी भरे कल्श लेकर खड़ी हो जा्ती। 
और, फिर बाजे गाजे के साथ बर्यात चल पड़ती।।।
क्यान्---कि---क्यान्---क्यान्---क्यान्,
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान्।
जाने से पहले तूरी अपनी तेज आवाज में दो-चार बार 'धूह्णह्णतू---तू---तू---तूह्णह्णह्ण---धुह्णह्णतूह्णह्णह्ण की धाद लगती और शंख लंबी 'पूह्णह्णह्णह!" कह कर चलने के लिए कहता। तब तक मशकबीन भी "आं---आंह्णह्णह्ण" करके चलने की तैयारी करती। 
हम बच्चों को मशकबीन बड़ी मजेदार लगती थी। बर्यात चलने से पहले मशकबीन बजाने वाला उसकी पिपिरियां साफ करता। धागे से बंधी पतली पत्ती जैसी पिपिरी को जीभ पर गीला करके उसम फूंक मारता था। फिर बाएं हाथ के नीचे मशकबीन का थैला दबा कर उसकी काले डंडे जैसी नलियां कंधे और बांह के सहारे पीछे की ओर टिका लेता। हम अंदाज लगा कर एक-दूसरे के कान में कहते थे, "पता है-मशकबीन का थैला बकरी की खाल से बनता है बल?'' हम तो वह बगल में दबाई हुई बकरी जैसा ही लगता था। मशकबीन वाला पतली नली मुंह में दबा कर, गाल फुला-फुला कर हवा भरता। खूब हवा भरने पर थैला तन कर मोटा हो जाता और डंडे जैसी नलियां भी आंह्णह्णह्ण आंह्णह्णह्ण करने लगती। तब वह बीन को हाथा म बंयी की तरह पकड़ता। उसके आगे बड़ा गोल सामा जैसा लगा रहता था। गाला से हवा फूंकता, बाएं बाजू से मयकबीन के थैले को दबाता और बीन को बंशी की तरह बजाने लगता---
आं ह्णह्णह्णआंह्णह्णह्ण आं ह्णह्णह्ण
पि पी पी पी ह्णह्णह्ण
पी ह्णह्णह्णपी ह्णह्णह्ण
बर्यात में आदमी आगे-पीछे निशान (झंडा) भी लेकर चलते थे। ऊंचे डंडे पर कपड़े का लंबा तिकोना निशान बंधा रहता था। आगे-आगे हवा में फहराता लाल और बर्यात के पीछे सफेद निशान। "क्यान् कि क्यान्---क्यान्---क्यान्, घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान्" की आवाज पर छ्वलैतिए अपनी ढाल-तलवार हवा में लहरा कर फिरकी की तरह घूमते हुए चलते रहते। मकानों के आसपास आकर बर्यात रुकती। वहां बाजे की लय-ताल बदल जाती:
ट्यांक्ड़---टिक्ड़---ड्यांग्ड़---ड्यांग्ड
ट्यांक्ड़---टिक्ड़---ड्यांग्ड़---ड्यांग्ड
डिंग्डि---डिंग्ड़ि---टिक्ड़---टिक्ड़
टिक्ड़---टिक्ड़---डिंग्डि---डिंग्ड़ि---

नगाड़ा के बाजे पर छ्वलैतिए जोरदार नाच दिखाते। दो रुपए, पांच रुपए का नोट डाल देने पर तो उसे उठाने के लिए ऐसा नाच नाचते कि लोग देखते ही रह जाते। एक-दूसरे के हाठों में दबे नोट को छीनने के लिए भी जोरदार करतब दिखाते। छ्वलैतिए सफेद चोला, काला पट्टा और कमरबंद, काली भोटी, सफेद पगड़ी और चूड़ीदार पहने रहते थे।
घर के सभी लोग बर्यात को दूर किसी मोड़ पर ओझल होने तक टकटकी लगा कर देखते रहते। उसके बाद भी उस ओर कान लगाए रहते। ढोल, नंगारे, तूरी और यंख की आवाज काफी देर तक सुनाई देती रहती थी।
आदमिया के बर्यात में चले जाने के कारण घर में औरत और बच्चे ही रह जाते। बस, घर के दो-एक आदमी खाना पकाने और पहरा देने के लिए रोक दिए जाते थे। वह रत्याली की रात होती थी। औरता और छोटे बच्चा की रात। उस दिन वे खूब गातीं, भ्वैनी लगातीं। हंसी-ठिठोली करतीं। कोई औरत आदमी का भेष बना कर उनकी नकल उतारती। इसी तरह आंखों में रात बिता देतीं। अगले दिन सुबह से ही वे बर्यात की बाट जोहने लगतीं।
उधर, बर्यात बाजे-गाजे के साथ ब्योली के घर पहुंचती। घर के बाहर धूलिअर्ग की पूजा पूरा करके ब्योला और बर्याती घर म जाते। चाय-पानी के बाद गांव के रश्यारे खाने में पूरी, लगड़, हलुवा, साग, खटाई, रायता परोसते। खट्टी और मीठी दोना तरह की खटाई बनाने का रिवाज था। मीठी खटाई में छुहारे और किशमि्श भी होते थे। रात को लगन के समय विवाह कर दिया जाता। ब्योला-ब्योली को जीवन भर साथ निभाने का संकल्प कराया जाता था। उन्ह बाहर लाकर ज्वेशिज्यू सप्तऋव् की पूंछ में वसिष्ठ और अरुंधती तारे देखने को कहते थे। फिर बोलते, ""कहो, हम भी ऋषि वसिष्ठ और अरुंधती की तरह सदा साथ रहगे।''
बर्यात विदा करने से पहले सुबह या दिन में बर्यातियों को फिर जम कर खाना खिलाया जाता था-वही पूरी, लगड़, दाल, चावल, खटाई, छुहारे और गुड़ की मीठी खटाई, खूब राई पड़ा हुआ चरपिरा रायता और तली हुई लाल मिर्च! खा-पी कर, ब्योली को लेकर बर्यात वापस लौटती। ब्योली के जाते समय फगारियां फिर यकुनांखर गातीं:
---"बट्यावा---बट्यावा---शकुना द्यालो"---
और, मां-बहिन शक-शक् डाड़ मारते हुए बेटी को विदा करते बखत अपना आशीर्वाद दे रही होती थीं---द ईजा ज, भली कै जाए---(शक-शक्-शक्)। मेरि पोथी---सैनिक (औरत) जनम पायाक भै। जाना ही हुआ चेली। (शक्-शक्)
मैंने तुझे नौ महीने पेट में रखा, कारवी (गोद) में पाला पोथी---आज तू मुझे छोड़ कर जा रही है---(ओ ईजा! शक्-्शक्)---मैं कैसे रहूंगी? तुझे कोई कष्ट नहीं होने दिया मैंने---
(दूसरी औरत) क्या रुलाती है उसे? सभी को जाना हुआ एक दिन। हम नहीं आईं क्या मतिं (मायका) से? मन को समझा। अपने सौरास ही तो जा रही है बेटी---चल ईजू, चल। जल्दी फिर आएगी यहां मिलने। ठीक है?
(कोई और औरत) होई, किलै न? अपनी मयाड़ी (मां), अपने बाज्यू, ददा-भाई-बहना को जो क्या भूल जाएगी?---द, हिट चेली---आपन सौरास हन हिट--- शक्-्शक्
(तभी डाड़ मार कर बहिन) म क जन (मत) भुल्ये दिदी। आपनि बनि क जन भुल्यै!
पीछे से फगारियों के शकुनांखर---
बट्यावा---बट्यावा---
शकुना सुफल है जाओ, पंचनाम देबो
सुफल है जाओ, इष्टे भगबानो 
उस समय तो देख कर कठोर से कठोर कलेजे वाला के भी आंसू निकल आते थे।
बर्यात लौट आने पर ब्योली-ब्योला की आरती उतार कर, अक्षत परख करके उन्ह घर के भीतर ले जाते थे। ब्योली नई जगह और नए घर में अनजान लोगों के बीच सिकुड़ी-सिमटी बैठी रहती। नाक की टूकी से ऊपर पूरे कपाल तक पिठियां और अक्षत लगे रहते। औरत ओढ़नी उठा-उठा कर मुंह देखतीं और कहतीं, "ईजा, कतुक सूनि छ ब्योलि। अस्यानी छ। ईजु, नक जन मानेयां। हमरि ले चेली भई तू। तेरि सासु छों मैं।''
ब्योली को घर दिखाते। पानी की सीर (स्रोत) दिखाते। हम भी अपनी नई भौजी-ब्योलिया को धारे और डिग्गी पर ले जाते थे। वे देख लेती थीं कि पानी कितनी दूर से और किस धारे, नौले या डिग्गी से लाना है। ब्योल-ब्योली के चमकीले मुकुट हम पानी के शिराण में  रख देते थे। धीरे-धीरे भौजी अपनी नई घर-कुड़ि और गड़ि-भिड़ि देख कर पहचानने लगती थी। घर के लोगों और अपने गोरु-भैसा को भी पहचान लेती थी। गाय-भसिं भी उसे पहचानने लगतीं।

ब्याह के बाद भौजिया का घर में आना जितना अच्छा लगता था, उतना ही बुरा लगता था दीदिया और बहिना का जाना। बहुत नियाय लगता था। दीदी आती तो हम सब बहुत खुश हो जाते थे। लेकिन, जिस दिन मेरी सीता दीदी जाने वाली होती थी, उससे पहली रात को ईजा और दीदी तो सोती ही नहीं थीं। रात भर सुख-दुख लगी रहतीं। बीच-बीच में शक्-्शक् करके रो पड़्ते। मुंह अंधेरे ही ईजा, पूरी, हलुवा, कोश्योल (मीठा भुना चावल) और बड़े बना कर छापरी (टोकरी) में संभाल कर रख देती। धोती या ओढ़नी लपेट कर उसे चारा ओर से कस देती। रास्ते में खाने के लिए अलग से बांध देती। हमारा गला गगलसा उठता। दीदी के आंसू बहते रहते।
"द हिट ईजा, तू चेलि भई। सौरास जान्वे भै। मैं खाली इजू, हिट---'' दीदी की आंखा के भुमके (सोते) फूट पड़ते। चड़ी डाड़ मार देती। बाज्यू, ददा, को ढोक देकर पैंलाग कहती। मेरे गालों पर, माथे पर भुकी (चुंबन) ले-लेकर छाती से चिपटाती। और, फिर हम दीदी को दूर धार तक छोड़ने चल पड़ते। कभी भिना (जीजा) आए होते तो उनके साथ जाती या फिर किसी और चेलि-बेटी की संगीत (साथ) होती। दूर तक साथ जाकर ईजा छापरी उसे सौंपती। वह गले से लिपट-लिपट कर रोती। हमारे मुंह से भी बोल नहीं फूटते थे। कुछ कहने की कोशिश ्में गगलसाए हुए गले से रुलाई फूट पड़ती।
आखिर, जाना ही पड़ता था। दीदी सौरास को चल पड़ती। पांच-दस कदम चलती। फिर पलट कर हमारी ओर देखती। हर मोड़ से मुड़ कर देखती। फिर किसी धार से ओझल हो जाती। ईजा अब रो रही होती थी, ""चेलिकि जुहुनि में पैद भैछ, ईजा, जान्वे भै।'' फिर भारी कदमा से मुझे लेकर घर लौट आती। उदास होकर कहती थी, ""चेलि-बेटि चाड़ां जसि ह्व छ च्यला। आज हमारि कुड़ि में भैरी, भ्वल उड़ि बेरि दुसरि कुड़ि में न्हें जानीं।'' यानी, बेटियां तो चिड़िया की तरह होती हैं  बेटा। आज हमारे मकान में बैठी हैं, कल उड़ कर दूसरे के मकान में चली जाती हैं।  
"तू ले चड़ींकि परि उड़ि बेर ऐछी ईजा?''
"होई। यां आछा, ये कुड़ि में। फिरि तू भछै, तेरि दिदि-दाद् भईं।''
चेलि-बेटियां दूर-दूर के गांवा में ब्याही जाती थीं। वे त्यों-त्यारों या सुख-दुख में ही मायके आ पाती थीं। मेरी दीदी घने जंगलों, पहाड़ों के पार, हमारे गांव से करीब तीस-बत्तीस किलोमीटर दूर डांड़ा गांव में ब्याही गई थी। इसलिए दो-चार साल बाद ही आ पाती थी। हमारे और उसके गांव के पहाड़ा के बीच जंगला म श्यूं-बाघ् भी रहते थे। मैंत आने का इतना उत्साह होता था कि जंगल, जानवर, गाड़-गधेरे कुछ नहीं दिखाई देते थे। एक बार दीदी अपनी बेटी भगवती को लेकर उसी रास्ते से बिना संगीत के अकेली चली आई। रास्ते की उसकी बात सुन कर हम कांप गए---
दीदी ने बताया, "यहां घर के बारे में सोचते-सोचते लमालम चली आ रही थी। आगे से यही भगवती चल रही थी। दोना ओर कुरी की घनी झाड़ियां। उनके भीतर तो कुछ भी हो सकता था। ईजा, जमीन ्में जो देखूं तो श्यूं क तात् गोबर! भाप उठ रही थी। उसी समय निकला होगा। मैंने सोचा, आज हम मां-बेटी को खा जाता है। लेकिन, क्या करती? चलती रही---कुंडल गांव के आसपास पहुंची तो घनी झाड़िया के बीच खम्म से एक जोगी मिल गया। गेरुवा चोला, हाथ में कमंडल और लाठी। बोला-बेटी अकेले जा रहे हो। साथ में कोई नहीं है? मैंने हाथ जोड़ कर सिर हिलाया। कहा, मैत जा रही हूं बाबा। उन्हाने आर्शीवाद दिया। कहा-बेटी तू बड़ी हिम्मती है। ईश्वर तेरी मदद करेगा। तुझे कुछ नहीं होगा। डरना मत---आर्शीवाद देकर जोगी बाबा चले गए। हम मां-बेटी र की ओर चलते ही रहे।''
चेलि-बेटियां इसी तरह लंबे-लंबे रास्ते पार करके दूर अपने मैत या सौरास जाती ्थईं। दीदी कहती थी, उसे सदा अपना घर, ईजा-बाज्यू, ददा-भाई, मकान, पेड़-पौधे, गोरु-भैंसें सब याद आते रहते ह। घुघुती और कफुवा बोलते हैं तो मन घर पहुंच जाता है। कौवा बोलता है तो लगता है, मेरे मैत से कोई आने वाला है।
ब्याह से बहुत पहले या फिर ब्याह के एक दिन पहले जनेऊ या बर्तबंध (यज्ञोपवीत) किया जाता था। जिन लड़कों का बर्त हो जाता था, वे जनेऊ पहनते थे। सुबह-शाम कसौंड़ीं (लोटा) या गिलास में पानी लेकर आचमन करते। मंतर बुदबुदा कर संध्या-पूजा करते थे। वे तो शौच के लिए जाते समय कान में जनेऊ भी लपेट लेते थे। वे ब्या-काज के मौका पर, धोती पहनते और बड़ा के साथ पंगत म बैठ कर दाल-भात खा सकते थे। घर में भी वे सयाने लोगा के साथ रसोई में धोती पहन कर दाल-भात खाते। हम लगता था, अचानक वे हमसे सयाने हो गए हैं। हम पंगत में नहीं बैठने दिया जाता था। अलग बैठ कर खाना पड़ता था। उन दिना तो हम से उम्र में बहुत छोटे बच्चा का भी बर्त कर दिया जाता था।
एक बार जैंतुवा के साथ गजुवा के बर्त म गांव से 19-20 किलोेमीटर दूर गौन्यारो गया था। वहां खाना तैयार होने पर म "उठा, खान् तैयार छ" की आवाज आई। घर के सामने खेत में गए तो देखा धोती-जनेऊ पहने छोटे-छोटे बच्चा की लंबी लाइन लगी है। हम शरमाते-सकुचाते खड़े हो गए। हम देख कर कुछ लोग हंसने लगे, "है, तन क्व छ? कौन है ये? अभी तक बर्त नहीं हुआ है?'' औरत और लड़कियां भी मुंह दबा कर हंसने लगीं। हम चुपचाप फिर भीतर कमरे में चले गए। हम थाली में दाल-चावल डाल कर वहीं दे दिया गया।
जिस बच्चे का बर्त होता था, उसे देखने में बहुत आनंद आता था। उसके बालों में सिर पर चार तरफ जुटिका बांधी जाती थी। फगारियां मंगल गीत गातीं और धीरे-धीरे उस्तरे से बाल उतारे जाते। बीच में मोटी-सी चुली (चुटिया) छोड़ दी जाती। बर्त्यिया बच्चे के आंग में हल्दी-तेल का उबटन लगा कर मां-बहिन नहलाती थीं। फिर उसे धोती पहनाई जाती। कंधे पर जनेऊ पहनाया जाता। हाथ की अंगुलिया पर लपेट कर आचमन करने, संध्या पूजा करने और जल चढ़ाने की विधि बताई जाती। उसके कंधे पर धोती का फेट बनाया जाता। हाथ में लाठी दे दी जाती। ज्वैशिज्यू कहते, "बटुक, अब तुम काशी पढ़ने जा रहे हो। माताओं से भिक्षा मांग लाओ।'' सामने माताएं चावल लेकर खड़ी रहतीं। ज्वैशिज्यू बटुक से कहते, ""मेरे साथ कहो-भो गुरो, इदम भिक्षाम, मया लब्ध---माई भिक्षा दे। मैं हनले दे, म्यार गुरु हन ले दे---'' मेरे लिए भी दो, मेरे गुरु के लिए भी दो! मां-बहिन धोती के फेट में भिक्षा डाल कर आशीष दे्तीं, "खूब पढ़ि बेर आए।'' 
फिर वह काशी पढ़ने के लिए निकल जाता। हम उसके पीछे-पीछे दौड़ते। दरवाजे से बाहर जरा-सा चर लगा कर वह फिर भीतर लौट आता। सब लोग खुश हो जाते। मां कहती, ""ऐ गौ म्यर पोथि, का्शि पढ़ि बेर ऐगो।'' फिर बाकी काम संपन्न होता। उतरे हुए बाल दाड़िम के बोट की जड़ में डाल दिए जाते। बच्चा कई दिन तक जनेऊ हाथ पर लपेटने और संध्या-पूजा करने का अभ्यास करता रहता। फिर धीरे-धीरे घर भीतर या खेतों के काम में उलझे रहने के कारण कभी ध्यान रहता, कभी नहीं भी रहता था। हां, गांव के बड़े बुजुर्गों को हम जब भी रात्ते-ब्यान (सुबह) कान में जनेऊ लपेटे देखते तो जरूर समझ जाते, वे झाड़-पिशाब जा रहे हैं। उसके बाद वे हल-बैल या आंसी-कुटला लेकर खेति-पाति के काम के लिए निकल जाते। खेति-पाति भी कोई आज की जैसी जो क्या हुई?
सुन रहे हैं?
"अँ'' 
     

Thursday, January 26, 2012

तोहफ़े


मदन शर्मा
संजीव और मैं, एक ही सरकारी संस्थान में नौकरी करते थे। हमारे बीच मित्रता का भाव था। जब भी समय या अवसर मिलता, हम इधर-उधर की दिलचस्प बातें करके, अपना और पास बैठे लोगों का दिल बहलाया करते। संजीव, कुछ अर्सा पहले, सरकारी नौकरी छोड़, किस्मत आज़मार्इ के लिये किसी प्राइवेट फ़र्म में जा लगा था। सुना है, वह आजकल दिल्ली में रह कर कारों के कारोबार में, खूब रूपये कमा रहा है।
    यहां से जाने से पूर्व, संजीव मुझे दो ऐसी चीज़ें सौंप गया, जिसके कारण, मैं शायद ही उसे कभी भूल पाऊं!
    मेरे घर में टी वी तो था, मगर रेडियो या ट्रांसिस्टर नहीं था। आकाशवाणी से प्रसारित अपनी कहानियां या व्यंग्य सुनने के लिये, मुझे इसकी ज़रूरत थी। संजीव ने बताया, कि उसके पास एक बढि़या रेडियो सेट पड़ा है। कहानियां सुनने के लिये वह काफ़ी होगा। नया लेने की क्या ज़रूरत है।
    रेडियो सौंपते हुए संजीव ने बताया, कि इसमें मामूली-सा नुक्स है। पांच-सात रूपये में यह अच्छा काम करने लगेगा।
    चालीस रूपये ख़र्च करके रेडियो ठीक चलने लगा। अपनी एक-आध रचना भी उस पर सुन ली। घर में रेडियो और मेरी कहानी की प्रशंसा हुर्इ। किंतु सप्ताह भर बाद ही उस रेडियो की मरम्मत का ऐसा सिलसिला चला, कि महसूस होने लगा, कि यह मरम्मत यदि यों ही चलती रही, तो इस बढि़या रेडियो के साथ-साथ, मेरा टी वी और फि्रज भी बिक जायेगा।
    संजीव ने वायदा किया, कि वह मुझे कहीं से नया टं्रासिस्टर सस्ते में दिला देगा। मगर उसका मौक़ा ही न आया।
    संस्थान में कुछ वर्करों का प्रमोशन हो जाने पर, उन्हें अलग अलग अनुभागों या दफ़तरों में नियुक्त किया जाना था। संजीव ने चुपके से मुझे सुझाया,  "आप गुरमीत को अपने स्टाफ में ले लो, बहुत बढि़या आदमी है।"
"मैंने तो सुना है, वह शराब पीता है।"
"तो क्या हुआ? मैं शराब नहीं पीता? यक़ीन मानो, उस जैसा आदमी आपको खोजने पर भी नहीं मिलेगा।"
    मैंने ऊपर कहसुन कर, गुरमीत को अपने स्टाफ में ले लिया। लम्बा-चौड़ा मगर ढीला-ढाला और फैला हुआ सा शरीर, उसी तरह की ढीली पगड़ी और दाढ़ी। लिबास तुड़ा-मुड़ा। आंखों में और चेहरे पर सुर्खी, जैसी शराबियों के चेहरों पर तमतमाहट-सी होती है।
"आप यहां मेहनत से काम कर सकेंगे?" मैंने पूछा।
"बिल्कुल जी। आप जैसा भी कहेंगे, वैसा ही करेंगे जी।"
    चार-पांच दिन में ही पता चल गया, गरमीत नाम की यह चीज़, उस रेडियो से कुछ अलग नहीं। यह आदमी तो यहां का साधारण कार्य भी सीखने के योग्य नहीं। बड़ी ग़लती हो गर्इ! मगर अब क्या हो! मैंने तो स्वयं ही सिफ़ारिश करके यह बला, अपने सिर पर ले ली है!
    उससे कोर्इ भी काम नहीं हो पा रहा था। न उसकी समझ में कुछ आ रहा था। परेशान होकर मैंने उसे रिकार्ड स्पलायर का काम करने को कह दिया।
    सुपरवाइज़र के पद पर होकर, रिकार्डस्पलायर का काम सौंपे जाने पर उसने कोर्इ आपति न की। वह बड़े उत्साह में भरकर यह काम करने लगा। बलिक जब अर्दली छुटटी पर होता, तो चाय तैयार करके, पूरे स्टाफ़ को सर्व कर देता।
    वह थोड़ा लंगडा कर चलता था। पता चला, कभी फुटबाल खेलते हुए उसका एक्सीडेंट हो गया था। यह भी पता चला, वह अच्छे घर से है।  बड़ी बहन डाक्टर है। बच्चे पढ़ने लिखने में तेज़ हैं और इसकी पत्नी किसी अच्छे स्कूल में अंग्रेजी़ पढ़ाती है।
    दफ़तर में उससे किसी को कोर्इ शिकायत न थी। वह बड़ी विनम्रता से बात करता। कभी किसी की निंदा वह नहीं करता था।
    उसे कभी किसी बात पर क्रोध न आता था। कोर्इ बीमार होता, तो वह पता लेने उसके घर या अस्पताल पहुंचता। कोर्इ मौत हो जाने पर, वह अंतिम कि्रया में शामिल होने के लिये सबसे पहले मौजूद रहता। वह कितने ही ज़रूरतमंद रोगियों को अपना खून दे चुका था और खूबी यह, कि वह ये सब काम हंसते हुए और सहज भाव से करता था। मैं उसे 'संत जी कहने लगा।
    शराब तो वह पीता ही था। अब कुछ और अधिक पीने लगा। वह स्वयं पीता और यार-दोस्तों को भी पिलाता और शराब के साथ मछली के पकौड़े भी ज़रूर होते। यही साथ पीने वाले यार भार्इ ही उसे उस खर्च के लिये रूपये सूद पर उधार देते और बड़ी सख्ती से वसूल भी करते।
    कई लोग उसे दफ़तर में ही मिलने आने लगे। उसे बाहर ले जाकर मालूम नहीं, कैसे धमकाते रहते। वह वापिस लौटता, तो उसका चेहरा बुझा-बुझा-सा होता।
    पता चला, गुरमीत के सिर पर भारी कर्ज चढ़ चुका है। वे लोग दफ़तर में आकर ही उसे धमकाने लगे। मैंने उन लोगों का दफ़तर में आना बंद करा दिया, तो कर्ज वसूल करने वाले, उसे बाहर सड़क पर घेरने लगे। जेब में जो कुछ होता, वे छीन लेते। जेब खाली होती, तो उसके दो-चार हाथ जड़ देते।
    शराब पीने के लिये गरमीत जो रूपये उधार लेता, वह दस के बारह रूपये वाला होता था। वह तीन सौ उधार लेता, जो कुछ ही दि्नों में दो हज़ार हो जाता। बढ़-बढ़ कर क़र्ज़ की यह राशि साठ हज़ार तक पहुंच गर्इ थी। पूरा वेतन, ओवर टाइम और एरियर के पैसों में से, उसके पास कुछ भी हाथ में न रहता। घर खाली हाथ पहुंचता, तो वहां भी अच्छी आवभगत होती। खाने को कुछ न दिया जाता। दिन में भी भूखा रहता। छुटटी के बाद फिर कोर्इ मिल जाता, जो उधार रूपये देता और उसके साथ ठेके पर चल कर शराब पीता और मछली के पकौड़ों का मज़ा लेता।
    गुरमीत कई दिन से दफ़तर नहीं आ रहा था। पता चला, वह घर से भी ग़ायब है। बीस दिन बाद, दफतर वाले, उसे सड़क पर घूमते हुए को पकड़ कर ले आये।
    उसके कपड़े फटे और बेहद गंदे थे। नहाना तो क्या, उसने शायद कर्इ दिन से मुंह भी नहीं धोया था। आंखों में कीच भरी थी। दाढ़ी उलझी हुई। मुंह से गंदा-सा पानी बाहर को आ रहा था। उसके शरीर से बदबू आ रही थी। हाथ में छुटटी का आवेदन लिये, वह मेरे सामने सहमा-सा खड़ा था।
    "बैठिये संत जी।" मैंने कहा।
    वह बैठ गया।
    "छुटटी की अर्जी बाद में देखेंगे। पहले यह बताइये, बीस दिन तक कहां ऐश उड़ाते रहे?"
    वह रोने लग पड़ा। थोड़ा शांत हुआ, तो बोला, "कौन सी ऐश साहब, बीस दिन से धक्के खाता फिर रहा हूं। किसी की सब्ज़ी की दुकान पर, आलुओं के ढेर पर सोता रहा हूं। कमर बुरी तरह दर्द कर रही है।"
    "मगर घर से भागे क्यों?"
    "भागा कहां, धक्के मार कर निकाला गया। वरना अपना घर छोड़कर जाने को किसका मन होता है!"
   "जब घर पर कुछ दोगे नहीं, तो धक्के ही मिलेंगे। वह बेचारी प्राइवेट स्कूल की नौकरी करके घर चला रही है और तुम्हें शराब पीने से फर्सत नहीं। शरम आनी चाहिये!"
    वह फिर रोने लग पड़ा। चुप हुआ, तो कहने लगा, "यह बात नहीं सर! कभी किसी ने यह नहीं सोचा, गुरमीत शराब क्यों पीता है।"
    "क्यों पीता है?" मैंने जानना चाहा।
    "मैं आप को अब क्या बताऊं!... मेरा जब से एक्सीडेंट हुआ है, मैं तब से... वह दरअसल अपने स्कूल के एक टीचर के साथ ... बच्चे स्कूल जाते हैं और वह घर में जमा रहता है...।"
    "तुमने मना नहीं किया?"
    "वह तो उसे ही भला मानती है। दोनों ने मिलकर ही तो मुझे घर से बाहर निकाला था।"
    मगर मिसेज गुरमीत ने किसी को बताया कि उसका पति एक नम्बर का झूठा है। वह अपनी मर्जी़ से घर छोड़ कर गया है। यह घर तो उसी का है। जब चाहे, लौट कर आ सकता है।
    कुछ दिन के बाद मिसेस गुरमीत ने महाप्रबंधक के पास अपील कर दी, कि उसका पति घर में बाल बच्चों की परवरिश के लिये, एक पैसा भी नहीं देता, लिहाज़ा घर में गुज़र के लिये, वेतन की राशि, बेदी के बजाय, स्वयं उसे देने की व्यवस्था कर दी जाये।
    महाप्रबंधक ने मुझे अपने दफ़तर में बुलाकर कहा, "आपके स्टाफ़ का कोर्इ गै़र जि़म्मेदार आदमी है, जिस की बीवी ने अपील की है। आप इस केस को जल्दी निबटाइये।"
    मैंने श्रमकल्याण अधिकारी और कैशप्रभारी से मिलकर, व्यवस्था करा दी, जिससे गुरमीत का वेतन हर मास, उसकी पत्नी को फैक्टरी गेट पर दिया जा सके।
    गुरमीत रोनी सूरत लिये मेरे पास आकर बोला, "सर, यह आपने क्या कर डाला! अब मेरा क्या होगा?"
    मैंने उसे सांत्वना दी, "मेरी बात हो चुकी है। तुम्हें घर से दोनों वक़्त का खाना और नाश्ता मिलेगा। धुले कपड़े और बस का किराया भी मिलेगा। और क्या चाहिये?"
"साहब मेरे पीने का क्या होगा?"
    मन हुआ, जूता निकाल कर, इसके सिर पर दे मारूं! मगर उस मरदद की शक्ल ही कुछ ऐसी थी, कि पहले देखते ही मुंह पर दो थप्पड़ मारने की इच्छा होती थी। मगर उसके चेहरे पर पसरी बेबसी देख, फिर उसके लिये कुछ करने का कर्तव्य बोध होने लगता था।
    मैंने बार बार कोशिश की, कि गुरमीत नाम की इस बीमारी को अपने दफ़तर से भगा दूं। मगर कोर्इ सुनने को तैयार ही न था। उपमहाप्रबंधक हंसकर कहते, "यह हीरा तो आपने अपनी मर्जी से ही चुनकर लिया है। इसे अपने पास ही रखिये। कोई और इसे लेने को तैयार भी नहीं । वैसे मुझे आपसे पूरी हमदर्दी है!"
    मिसेस गुरमीत हर महीने मेनगेट पर आकर, गुरमीत का वेतन ले जाती। मेरी सिफ़ारिश पर गुरमीत को तफ़रीह के लिये भी थोड़ा-बहुत मिल जाता। सभी कुछ सामान्य हो चला। किंतु गुरमीत से जो क़र्ज वसूल करने वाले थे, वे तो परेशान हो चले थे। एक दो बिफरे हुए से आकर मुझे भी कह गये थे... शर्मा साहब, आपने हमें मुशिकल में डाल दिया है...।
    गुरमीत के वेतन का एक भाग, हम उसके बैंक के खाते में डालते जा रहे थे। पास बुक हम लोगों ने अपने पास सम्भाल ली थी और बैंक वालों से कह रखा था, कि गुरमीत को बिना पास बुक, रूपया न निकालने दें। दरअसल हम दफ़तर वाले यह चाहते थे, कि यह रूपया इकटठा करके गुरमीत की बेटी के विवाह पर दे देंगे।
    किंतु एक दिन सभी यह जान कर चकित रह गये, कि गुरमीत के एकाउंट में कुछ भी नहीं है। पता भी न चला, वह कब से, बैंक के किसी कर्मचारी को पटा या पिला कर अपना कार्य सम्पन्न करने लग पड़ा था।
    गुरमीत की फिर पिटार्इ हो गई। इस बार अच्छी खासी धुनाई हुई थी। पूरा मुंह सूजा पड़ा था। ठीक से चला भी नहीं जा रहा था। कपड़े फटे पडे़ थे। बराबर रोये चला जा रहा था। दफ़तर वालों ने आपस में मिलकर रूपये इकटठे किये और संडे मार्किट से उसके लिये कपड़े ख़रीद कर लाये। मैंने स्वयं अपने घर में वे कपड़े धो, सुखा और प्रेस करके उसे पहनने को दिये।
    मैं बार बार संजीव की जान को रो रहा था।
मिसेस गुरमीत को नियमित रूपये मिल रहे थे। गुरमीत का अपना काम चल ही रहा था। किंतु क़र्ज़ वसूल करने वाले तो बराबर तिलमिला रहे थे। वे क्या करें, मार पिटार्इ से उनके हाथ में कुछ भी नहीं पड़ रहा था। उन्हीं में से एक ने जाकर मिसेस गुरमीत को कह डाला, "गुरमीत  के दफ़तर वाले, आपके स्कूल के किसी टीचर के साथ, आपके सम्बन्धों की चर्चा करते रहते हैं। वहां का इंचार्ज मदन शर्मा नाम का आदमी, इस बारे में कोर्इ कहानी लिख कर अख़बार में देने वाला है।"
    मिसेस गुरमीत ने तुरंत लिख कर, महाप्रबंधक के पास शिकायत भेज दी, कि दरअसल गुरमीत के दफ़तर वाले ही उसे तबाह और बर्बाद कर रहे थे। इसलिये उसकी किसी अन्य अनुभाग में बदली कर दी जाये।
    गुरमीत  भागता हुआ मेरे पास आया और बोला, "सर, मेरा यहां से ट्रांसफर हो रहा है। मैं साफ़ कहे देता हूं, मैं यहां से कहीं नहीं जाउंगा। आप किसी तरह मुझे यहीं रूकवा लें।"
मैंने कहा, "मैं भला कैसे रूकवा सकता हूं! जी. एम. का आर्डर है। तुम्हें यहां से जाना होगा।"
"नहीं सर, मैं यहीं रहूंगा। ऐसे लोग मुझे कहां मिल सकेंगे, जो मेरा इतना ध्यान रखें। आप जैसे इंचार्ज को मैं कभी छोड़कर नहीं जा सकता, भले ही मुझे अपने बाल बच्चों को छोड़ना पड़ जाये।"
"मगर अब तो बहुत देर हो चुकी है।"
"कोई देर नहीं हुई जी, मैं अभी जनरल मैनेजर के पास जा रहा हूं। मैं उन्हं बता देता हूं। मैं उन्हें बता देता हूं, किस किसने हमारे खि़लाफ़ साजि़श की है।"
संजीव ने एक बात तो ठीक ही कही थी... गुरमीत जैसा आदमी खोजने पर भी नहीं मिलेगा!