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Sunday, September 13, 2009

यह मेरे आग्रह हैं

मैं व्यक्तिगत   तौर पर विष्णु खरे जी से उतना ही अपरिचित हूं जितना किसी भारत भूषण अग्रवाल सम्मान से सम्मानित कवि से। लेकिन इतने से ही मैं जो कुछ कहूं उसे बिना किसी आग्रहों के लिखा नहीं माना जा सकता है। हां मैं आग्रहों से ग्रसित होकर लिख रहा हूं। उस आग्रह से जिसमें मैं जनतंत्र के लिए सबसे ज्यादा हल्लामचाऊ कौम- साहित्यकारों को ज्यादा गैरजनंतांत्रिक मानने को मजबूर हुआ हूं। आलोचकों से लेकर सम्पादकों तक ही नहीं, संगठनों के भीतर भी गिरोहगर्द होता जाता समय मेरा आग्रह है। मेरे आग्रह हैं कि जब भी किसी रचनाकार का कहीं जिक्र हो रहा है तो वहां जो कुछ भी कहा और लिखा जा रहा है वह पूरी तौर पर न भी हो तो भी कहीं कुछ व्यक्तिगत जैसा तो है ही। इस रूप में भी व्यक्तिगत कि उर्द्धत करने वाला अमुक का जिक्र इसलिए भी कर रहा है कि वह उसी को जानता है। जाने और अन्जाने तरह से कहीं न कहीं उसके कुछ व्यक्तिगत संबंध भी हो सकते हैं। पुरस्कार प्राप्त किसी भी रचनाकार को, या उनकी रचनाओं को कम आंकते हुए नहीं, बस पुरस्कृत होते हुए, इसी रूप में देखना मेरे आग्रह होते गए हैं। आलोचना में दर्ज नामों को भी इसी रूप में देखने को मजबूर होता हूं।  बल्कि कहूं कि आलोचना तो आज शार्ट लिस्टिंग करने की एक युक्ति हो गई है। पाठकों को वही पढ़ने को मजबूर करना, जो किन्हीं गिरोहगर्द स्थितियों के चलते हो रहा है। समकालीन कहानियों पर लिखी जा रही आलोचनात्मक टिप्पणियां तो आज कोई भी उठा कर देख सकता है। जिनमें किसी भी रचनाकार का जिक्र इतनी बेशर्मी की हद तक होने लगा है कि यह उनकी दूसरी कहानी है, यह तीसरी, यह चौथी और बस अगली पांचवी, छठी कहानी आते ही उनकी पूरी किताब, जो अधूरी पड़ी है, पूरी होने वाली है। बाजारू प्रवृत्तियों से ओत-प्रोत वह चलताऊ भाषा जिसमें क्रिकेट की कमेंटरी जैसी उत्तेजना है।
इस पूरे विषय पर कभी विस्तार से लिखने का मन है पर अभी इतना ही कि विष्णु जी की यह टिप्पणी भी मुझे फिर से वही-वही और उन्हीं-उन्हीं को पढ़वाने को मजबूर कर रही है जिसको समय बे समय शार्टलिस्ट किया गया। क्या विष्णु जी मुझे किसी राजेश सकलानी, किसी हरजीत सिंह या ऐसे ही किसी अन्य रचनाकार को पढ़वाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं ( ? ), जिनके नाम भी मैं इसलिए नहीं जान सकता कि वे मेरे शहर में रहते नहीं हैं  और न ही जिन पर कोई टिप्पणी मैंने कभी कहीं पढ़ी और न ही जिनकी रचनाओं से बहुत ज्यादा परिचित होने की स्थितियां इस गिरोहगर्द दौर ने दी। जबकि ये आग्रह, उस तय मानदण्ड में हैं, जिसमें किसी भी रचना को कसौटी पर कसा जा सकता है।