Wednesday, January 4, 2012

साहेल घनबरी इरान की एक दस साल की छोटी बच्ची है जिसके पिता डा. अब्दोलरजा घनबरी अपनी सांस्कृतिक,राजनैतिक और यूनियन गतिविधियों के कारण दिसम्बर 2009 से जेल में बंद हैं और इरान की अदालत ने उन्हें खुदा की शान में गुस्ताखी करने के लिए मृत्यु दंड दिया है.इरान के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में धांधली को लेकर वहाँ विशाल प्रदर्शन हुए थे और कहा जाता है कि जिस समय ये प्रदर्शन हो रहे थे उस समय अब्दोलरजा अपनी बेटी का हाथ थामे सड़क पर उपस्थित थे.42 वर्षीय अब्दोलरजा फारसी साहित्य में पी.एच.डी. हैं,सोलह सालों से अध्यापन करते रहे हैं और उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं.जेल में अपने पिता से मिलने जाने पर साहेल को पिता ने ही मौत की सजा की बाबत जानकारी दी.साहेल की माँ का कहना है कि इस घटना के बाद से ही उसकी सेहत बिगडनी शुरू हुई और जब भी वो अपने पिता के बारे में कुछ सुनती है उसको भावनात्मक और बेहोशी के दौरे पड़ने लगते हैं. यहाँ प्रस्तुत है फरवरी 2011 में सालेह की अपने अब्बा को लिखी चिट्ठी:--
यादवेन्द्र
प्यारे अब्बा,

मुझे पूरी उम्मीद है कि आप सकुशल और सेहतमंद होंगे.कई सालों बाद आज ऐसा दिन है जब आप फादर्स डे के मौके पर मेरे पास नहीं हो. मैं जब भी आप को शिद्दत से याद करती हूँ तो या तो आपको चिट्ठी लिखती हूँ...या उस नीली घड़ी को चुपचाप निहारती हूँ जो अपने मुझे जन्मदिन पर तोहफे में दिया दिया था.उसको देख के मुझे समझ आता है कि मेरा वक्त आपकी ना मौजूदगी में कितनी जल्दी जल्दी बीत जाता है.हर रोज मैं थोड़ा थोड़ा बढ़ जाती हूँ...अब मैं पहले से लम्बी भी हो गयी हूँ. आज फादर्स डे है...आपके बगैर ही हमने इसको मनाया और आपके लिए तोहफे ख़रीदे...हमारे बीच से गए हुए आपको छह महीने से ज्यादा बीत गए.आप नहीं हो तो मैंने अपनी मेज पर आपकी एक फोटो लगा रखी है...उससे मैं अक्सर बातें करती हूँ...और अदम्य साहस दिखाने के लिए शाबाशी देती हूँ.मुझे पूरा यकीन है कि प्यारे फ़रिश्ते फादर्स डे की मेरी दुआएं आपतक जरुर पहुंचा देंगे. प्यारे अब्बा, आज जिस वक्त हम त्यौहार मना रहे थे तो अम्मी के आंसुओं से सारा माहौल गमगीन हो गया.टी वी पर आज के दिन ढेर सारे प्रोग्राम आते हैं पर मैं इन्हें देखने का हौसला नहीं जुटा पाई...इनमें सभी बच्चे आपने अब्बा को फूलों का गुलदस्ता तोहफे में देते हैं और उनकी लम्बी उम्र के लिए दुआ करते हैं...इन सब को इकठ्ठा हँसता बोलता देख कर बहुत अच्छा लगता है....मुझ जैसी अभागी बच्ची की किसी को फ़िक्र नहीं होती जिसके अब्बा उस से बहुत दूर हैं.यही सब सोच के मैं आज बहुत उदास हो गयी थी और इसी लिए मैंने बिना कोई प्रोग्राम देखे टी वी बंद भी कर दिया. मेरे प्यारे अब्बा,मेरी एक ही ख्वाहिश है...मुझे और कुछ नहीं चाहिए बस आप मेरे पास वापिस लौट आओ ...और हमेशा मेरे साथ बने रहो....मैं बेसब्री से आपका इंतज़ार कर रही हूँ ...आप जल्द से जल्द मेरे पास आ जाओ...


आपकी बच्ची
साहेल



Sunday, December 25, 2011

दलित साहित्य के पुरोहित


        हिन्दी दलित साहित्य में कुछ ऎसी बहस करते रहने की परम्परा विकसित की जा रही है जिसका कोई औचित्य नहीं रह गया है .ये बहसे मराठी दलित साहित्य में खत्म हो चुकी हैं.लेकिन हिन्दी में इसे फिर नये सिरे से उठाया जा रहा है .वह भी मराठी के उन दलित रचना कारों के सन्दर्भ से, जो मराठी में अप्रासंगिक हो चुके हैं.उनकी मान्यताओं को मराठी दलित साहित्य में स्वीकार नहीं किया गया ,उन्हें हिन्दी में उठाने की जद्दोजहद जारी है.मसलन दलित शब्द को लेकर , आत्मकथा को लेकर .मराठी के ज्यादातर चर्चित आत्मकथाकार,रचना कार दलित ,शब्द को आन्दोलन से उपजा क्रांति बोधक शब्द मानते हैं. बाबुराव बागूल. दया पवार,नामदेव ढसाल ,शरणकुमार लिम्बाले, लोकनाथ यशवंत, गंगाधर पानतावणे, वामनराव निम्बालकर, अर्जुन डांगले, राजा ढाले,आदि. इसी तरह आत्मकथा के लिए आत्मकथा शब्द की ही पैरवी करने वालों में वे सभी हैं जिनकी आत्मकथाओं ने साहित्य में एक स्थान निर्मित किया है.चाहे शरण कुमार लिम्बाले (अक्करमाशी),दयापवार (बलूत),बेबी काम्बले (आमच्या जीवन), लक्ष्मण माने ( उपरा), लक्ष्मण गायकवाड (उचल्या), शांताबाई काम्बले ( माझी जन्माची चित्रकथा),प्र.ई.सोनकाम्बले ( आठवणीचे पक्षी),ये वे आत्मकथायें हैं जिन्होंने दलित आन्दोलन को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्मित की. इन आत्मकथाकारों को आत्मकथा शब्द से कोई दिक्कत नहीं है. लेखकों को कोई परेशानी नही हैं.यही स्थिति हिन्दी में भी है. लेकिन हिन्दी में अपेक्षा पत्रिका के  सम्पादक डा. तेज सिंह् को दलित शब्द और आत्मकथा दोनों शब्दों से एतराज है. उपरोक्त सम्पादक को दलित आत्मकथाओं में वर्णित प्रसंग भी काल्पनिक लगते हैं.कभी कभी तो लगता है कि ये सम्पादक महोदय दलित जीवन से परिचित हैं भी या नहीं ?क्योंकि दलित आत्मकथाओं में वर्णित दुख दर्द ,जीवन की विषमतायें,जातिगत दुराग्रह,उत्पीडन की पराकाष्टा,इन महाशय को कल्पनाजन्य लगती हैं..उनके सुर में सुर मिला कर  आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी  को भी आत्मकथाओं के मूल्यांकन में मुश्किलों का सामना करना पड रहा है.वे कहते हैं कि आत्मकथन क्योंकि आपबीती है,जिए हुए अनुभवों का पुनर्लेखन है,इसलिए उनकी प्रामाणिकता का सवाल प्राथमिक हो जाता है..क्या आत्मवृतों (आत्मकथाओं) की प्रमाणिकता जांची जा सकती है? क्या उन्हें जांचा जाना चाहिए? अगर हां तो क्या ये आत्मवृत (आत्मकथा) खुद को जांचे जाने को प्रस्तुत हैं? क्या अभी तक कोई आंतरिक मूल्यांकन प्रणाली विकसित हो पाई है? हम कैसे तय करें कि कोई अनुभव विशेष ,कोई जीवन प्रसंग कितना सच है और कितना अतिरंजित?   (अपेक्षा,जुलाई-दिसम्बर,2010,पृष्ठ-37)
      बजरंग बिहारी तिवारी    के ये सवाल कितने जायज हैं कितने नहीं ? इसे पहले तय कर लिया जाये तो ज्यादा बेहतर होगा. क्योंकि यह सिर्फ लेखक की अभिव्यक्ति पर ही आक्षेप नहीं है,बल्कि इस विधा को भी खारिज करने का षडयंत्र दिखाई दे रहा है.साथ ही यहां एक  ऎसा सवाल भी उठता है कि क्या एक आलोचक लेखक का नियंता हो सकता है? इस सवाल के सन्दर्भ में  कथाकार, सम्पादक  महीप सिंह का यह कथन प्रासंगिक लगता है.

        डा. महीप सिंह  का कहना है कि हिन्दी संसार के दो जातीय गुण हैं- जैसे ही कुछ सफलता और महत्ता प्राप्त करता है,वह एक मठ बनाने लगता है.कानपुर की भाषा में ऎसा  व्यक्ति गुरू कहलाता है.साहित्य क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है.थोडी सी आलोचना शैली ,थोडा सा वक्तृत्व कौशल ,थोडा सा विदेशी साहित्य का अध्ययन ,थोडी सी अपने पद की आभा और थोडी सी चतुराई से इस गुरूता की ओर बढा जा सकता है.कुछ समय में ऎसा व्यक्ति फतवे जारी करने के योग्य हो जाता है.एक दिन वह किसी के अद्वितीय का निकाल कर और किसी के नाम के साथ जोड देता है. ( हिन्दी कहानी : दर्पण और मरीचिका ,हिन्दुस्तानी जबान,,अंक अप्रैल-जून,2011,पृष्ठ- 15)

      बजरंग बिहारी तिवारी के सन्दर्भ में यहां बात की जा रही है, वे सिर्फ इतने भर से ही नहीं रुकते वे और भी गम्भीर आरोप लगाने लगते हैं, .आरोपों की इस दौड में वे बेलागाम घोडे की तरह दौडते नजर आते हैं.वे कहते हैं –‘विमर्श को चटकीला बनाने का दबाव,अपनी वेदना को खास बनाने की इच्छा किन रूपों में प्रतिफलित  होंग़े?


     बजरंग बिहारी तिवारी अपनी अध्ययनशीलता और उद्दरण देने की कला का दबाव बनाते हुए लुडविंग विट्गेंस्टाईन का सन्दर्भ देते हुए अपने तर्क को मजबूत करने की कोशिश करते  हैं.अपने ही पूर्व लेखन और स्थापनाओं को खारिज करने का नाटक करते हैं.. दलित साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा को यह आलोचक एक झटके में धाराशायी करने का आखिरी दांव चलता है .  दलित आत्मकथाओं की बढती लोकप्रियता और सामाजिक प्रतिबद्धता को किस दबाव के तहत नकार ने  की यह् चाल है, यह जानना जरूरी लगने लगता है.वे अपनी गुरूता , जो बडी मेहनत और भाग दौड से हासिल की  है,से आखिर फतवा जारी करने की कोशिश करते हैं एक अर्थ में आत्मकथन अनुर्वर विधा है.वह रचनाकार को खालीपन का एहसास कराती है.अनुभव वस्तुत: रचनात्मकता के कच्चे माल के रूप में होते हैं.....आत्मकथन में रचनात्मक दृष्टि के ,विजन के निर्माण की न्यूनतम गुंजाईश होती है......एक विभ्रम की सृष्टि की आशंका भी इस विधा में मौजूद है. (अपेक्षा,जुलाई-दिसम्बर,2010,पृष्ठ-37)
         यहां बजरंग बिहारी तिवारी तथ्यों का सामान्यीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं.दलित आत्मकथाओं ने समस्त भारतीय भाषाओं में अपनी रचनात्मकता से यह सिद्ध कर दिया है कि आत्मकथा अनुर्वर विधा नहीं है.न ही वह रचनाकार को खालीपन का एहसास ही कराती है .और इस बात को भी ये आत्मकथाएं सिरे से नकारती हैं कि इस विधा में रचनात्मक दृष्टि के विजन की न्यूनतम गुंजाईश है.
      आत्मकथाओं के सन्दर्भ में दया पवार कहते हैं,- वर्तमान समय में मराठी की आस्वाद की प्रक्रिया एक जैसी नहीं है .सांस्कृतिक भिन्नता के कारण आस्वाद प्रक्रिया भी भिन्न भिन्न हो रही है.यह दलित आत्मकथाओं का समय है; जिनकी काफी चर्चा रही है.परंतु इन आत्मकथाओं के मूल में जो सामाजिक विचार है ,उसे सदैव नजर अन्दाज किया जाता है. केवल व्यक्ति और व्यक्तिगत अनुभव इसी बिन्दु के चारों ओर इसकी चर्चा होती है.आगे वे कहते हैं,-दलितों का सफेदपोश पाठक अपने भूतकाल से बेचैन हो गया है.उसे खुद से शर्म महसूस होने लगी है.कचरे के ढेर में से कचरा ही निकलेगा? इस प्रकार के प्रश्न भी उन्होंने उपस्थित किये.वास्तविकता तो यह है कि यह केवल भूतकाल नहीं है.बल्कि आज भी दलितों का एक बडा समुदाय इसी प्रकार का जीवन जी रहा है.दलितों के सफेद पोश वर्ग को इसी की शर्म क्यों आ रही है?वास्तव में संस्कृति के सन्दर्भ में बडी-बडी बातें करने वाली व्यवस्था को इसकी शर्म आनी चाहिए........कुछ लोगों को ये आत्मकथाएं झूठी लगती हैं.सात समुन्दर पार किसी अजनबी देश की आत्मकथाएं,जिस जीवन को उन्होंने कभी देखा नहीं है,उनकी आत्मकथाएं इन्हें सच्ची लगती हैं.परंतु गांव की सीमाओं के बाहर का विश्व कभी दिखाई नहीं देता.इस दृष्टि भ्रम को क्या कहें.(दलितों के आन्दोअलन जब तीव्र होने लगते हैं,तब जन्म लेता है दलित साहित्य ,अस्मितादर्श लेखक-पाठक सम्मेलन सोलापुर,1983)
       अक्सर देखने में आता है कि हिंन्दी आलोचकों की यह कोशिश रहती है कि दलित साहित्य के सामाजिक सरोकारों से इतर मुद्दों  को ज्यादा रेखांकित किया जाये ताकि भटकाव की स्थिति उत्पन्न हो .यह भटकाव कभी अपरिपक्वता के रूप में आरोपित होता है ,तो कभी भाषा की अनगढता के रूप में,तो कभी वैचारिक विचलन के रूप में  आरोपित किया जाता है. कभी विधागत , तो कभी शैलीगत होता है.
       किसी भी आन्दोलन की विकास यात्रा में अनेक पडाव आते हैं.दलित साहित्य के ऎसे आलोचक दलित मुद्दों से हटकर वैश्विकता को ही दलित का सबसे बडा मुद्दा घोषित करने में लग जायें तो इसे क्या कहा जाये? क्या यह असली मुद्दों से बहकाने की साजिश नहीं होगी.क्योंकि ऎसे आलोचक इससे पूर्व भी यह काम बखूबी करने की कोशिश में लगे रहे हैं.लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली.कभी दलित साहित्य में रोमानी रचनाओं की कमी का रोना रोते हैं,तो कभी प्रेम का,तो कभी दलित साहित्य को स्त्री विरोधी कहने में भी पीछे नहीं रहे हैं.उनकी ये घोषणायें नये लेखकों को भरमाने की कोशिश ही कही जायेंगी.क्योंकि हजारों साल का उत्पीडन नये-नये मुखौटे पहन कर साहित्य को भरमाने का काम पहले भी करता रहा है.ये लुभावने और वाक चातुर्य से भरे हुए जरूर लगते हैं,लेकिन इनके दूरगामी परिणाम क्या होंगे इसे जानना जरूरी है.आन्दोलन की इस यात्रा में भी ये पडाव आये हैं.इस लिए यदि नयी पीढी अपनी अस्मिता और संघर्षशील चेतना के साथ दलित  चेतना का विस्तार करती है तो दलित साहित्य की एक नई और विशिष्ट निर्मिति होगी.
      यहां यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि   दलित साहित्य में आत्मकथाओं ने जिस वातावरण का निर्माण किया है.वह् अदभुत है.जिसे चाहे विद्वान आलोचक जो कहें, लेकिन दलित जीवन की विद्रुपताओं को जिस साहस और लेखकीय प्रतिबद्धता के साथ दलित आत्मकथाओं में  प्रस्तुत किया है,वह भारतीय साहित्य में अनोखा प्रयोग है.जिसे प्रारम्भ से ही आलोचक अनदेखा करने की कोशिश करते रहे हैं.क्योंकि आत्मकथाओं ने भारतीय समाज व्यवस्था और संस्कृति की महानता के सारे  दावे खोखले सिद्ध  कर दिये हैं.साथ ही साहित्य में स्थापित पुरोहितवाद,आचार्यवाद् और वर्णवाद की भी जडें खोखली की हैं.साहित्यिक ही नहीं भारतीय संस्कृति की महानता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाये हैं और जिस गुरू की महानता से हिन्दी साहित्य भरा पडा है उसे कटघरे में खडा करने का साहस सिर्फ दलित लेखकों ने किया है जिसे बजरंग बिहारी तिवारी जैसे आलोचक सिरे से नकार कर अपनी विद्वता का परचम लहराकर आचार्यत्व की ओर बढने की कोशिश कर रहे हैं. आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर भी आक्षेप करके पाठकों को दिग्भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं.क्या उनकी साहित्यिक प्रतिबद्धता बदल गयी हैंया गुरूता भाव में लेखक का नियंता बनने की कोशिश की जा रही है?यह शंका जेहन में उभरती है.

       
              यहां मेरा बजरंग जी से सीधा सवाल है, दलित साहित्य स्त्री विरोधी नहीं है.यदि कोई लेखक इस तरह के विचार रखता है तो आप उसे किस बिना पर दलित साहित्य कह रहे हैं ? सिर्फ इस लिए कि वह जन्मना दलित है.मेरे विचार से दलित साहित्य की अंत:चेतना को पुन: देख लें. डा. अम्बेडकर की वैचारिकता में कहीं भी स्त्री विरोध नहीं है. और दलित साहित्य अम्बेडकर विचार से ऊर्जा ग्रहण करता है. जिसे सभी दलित  रचनाकारों ने, चाहे वे मराठी के हों या गुजराती ,कन्नड,तेलुगु या अन्य किसी भाषा के .यदि कोई जन्मना दलित स्त्री विरोधी है और जाति व्यवस्था में भी विश्वास रखता है,तो आप उसे एक दलित लेखक किस आधार पर कह रहे हैं? यह दलित साहित्य की समस्या नहीं है,यहा तो उस मानसिकता की समस्या है जो आप  जैसे आचार्य   विकसित  कर रहे .       
     समाज में स्थापित भेदभाव की जडें गहरी करने में साहित्य का बहुत बडा योगदान रहा है.जिसे अनदेखा करते रहने की हिन्दी आलोचकों की विवशता है.और उसे महिमा मण्डित करते जाने को अभिशप्त हैं.ऎसी स्थितियों में दलित आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाने की एक सोची समझी चाल है.बल्कि यह साहित्यिक आलोचना में स्थापित पुरोहितवाद है जो साहित्य में कुंडली मारकर बैठा है.हिन्दी साहित्य को यदि लोकतांत्रिक छवि निर्मित करनी है तो इस पुरोहितवाद और गुरूडम से बाहर निकलना ही होगा. यदि वह ऎसा नहीं करता है तो उस पर यह आरोप तो लगते ही रहेंगे कि हिन्दी साहित्य आज भी ब्राह्मणवादी मानसिकता से भरा हुआ है.अपने सामंती स्वरूप को स्थापित करते रहने का मोह पाले हुए है.
  
● ओम प्रकाश वाल्मीकि
 09412319034  

 

Wednesday, December 21, 2011

प्रतिनायक का चेहरा क्यों लगता है नायक सा


नायक का चेहरा ज्यादा स्पष्ट करने की कोशिशों में प्रतिनायकों के चेहरे इधर कुछ ज्यादा अस्पष्ट हुए हैं या उनको स्पष्ट चिहि्नत करने के लिए जो रोशनी चाहिए थी वह धुंधलाती गयी है। भ्रष्टाचार की राष्ट्रव्यापी मुहिम के दौरान की स्थितियां इस बात की प्रत्यक्ष गवाह रही हैं। भूमाफिया, दलाल, भ्रष्टता के सिरमौर-कितने ही राजनीजिज्ञ और शासक-प्रशासक, लिंग, जाति और क्षेत्रीय भेदों को स्थापित करने में जुटे ताकतवर एवं समाजविरोधी लोगों की एक जुटता में प्रतिनायकों की कितनी ही छवियां धुंधलायी हैं। मीडिया, कारपोरेट जगत और एन।जी।ओ की भ्रष्टता तो भ्रष्टतंत्र की स्थापना के लिए अपने ही नक्शे की जिद के साथ नायकत्व के रूप्ा में मौजूद रही है। स्पॉन्टेनिटी के किसी ऐसे आंदोलन के दौरान जिसमें जनता का एक बड़ा हिस्सा आंदोलनरत हो जाता है, अन्यत्र भी ऐसी स्थितियों को बार-बार देखा जा सकता है। स्थितयों की ऐसी जटिलता जिसमें सही और गलत को स्पष्ट तरह से चिहि्नत न कर पाना संभव हो रहा हो उसको समझने के लिए रचनात्मक दुनिया का सहारा लिया जाये तो बहुत कुछ ऐसा है जो साफ साफ दिखने लगता है। 
दैवीय शक्तियों से सुसज्जित हिन्दी फिल्मों के नायकों की बहुत शुरू से लगातार बनी रही उपस्थिति में पुनरावृत्ति की कितनी ही मिसालें हैं जिन्हें फिल्म दर फिल्म गिनाने की शायद जरूरत न पड़े। सवाल है कि क्या इसे कहानी का फिल्मांकन मात्र माना जाये या कथा के मूल में ही इसकी उपस्थिति के चिह्न मौजूद हैं, ऐसा ढूंढा जाये ? हिन्दी कथा साहित्य की दुनिया से गुजरते हुए समकालीन कहानियों के हवाले से बात की जाये तो प्रतिनायकों या खलनायकों को ही नायकत्व देने की प्रवृत्ति कुछ आम हुई है। यानी मूल कथा के एक सूक्ष्म से बिन्दु को ही कैमरा अपनी तकनीकी विशेषताओं से विस्तार देते हुये है। सनसनीखेज खबरों के उत्स भी कथा साहित्य की दुनिया से ही जन्म लेते हुये हैं। फिल्मों में या डिजिटल खबरों की दुनिया में नायक के पीछे लगातार दौड़ता एक कैमरा है जो खांसने, छींकने और हाजत फरागत के दृश्यों में ही नायक की तस्वीर को बार बार पकड़ ही नहीं रहा है अपितु चेहरे पर उठते भावों को रेशा दर रेशा कई गुना करते हुए संवेदनशीलता का ऐसा पाठ रच रहा है जिसमें लगातार असंवेदनशील हो जाने की कथा जन्म लेती हुई है। 
फिल्मों और हिन्दी की कुछ कहानियों के हवाले से ऊपर उठे प्रश्नों के जवाब खोजना चाहें तो इधर आयी ''थैंक्स मां" इरफ़ान कमाल की पहली फिल्म है। यूं मात्र 7 मिनट के शुरूआती दृश्य में ही फिल्म मुंम्बइया समाज के उस अंदरुनी हिस्से का बयान होकर आती है जिसमें झोपड़ पट्टी के बच्चों का जीवन दिखायी दे जाता है। जीवन के संघ्ार्ष से निर्मित आपसी छीना झपटी और मारकाट से भरा उनका संसार बेहद निराला है। अपनी मां, यानी अपने अतीत को तलाशता म्यूनैसपैलिटी (एक पात्र) का एक नवजात शिशु को लेकर इधर उधर भटकना त्रासद कथा है। लेकिन समग्र प्रभाव में फिल्म उस तरह से असरदार नहीं हो पाती कि दर्शक की चिन्ताओं का हिस्सा हो जाये। यहां जफर पनाही की इरानी फिल्म 'द मिरर" का याद आ जाना कतई अस्वाभाविक नहीं।
''यह मेरा बस स्टाप नहीं।""
गलत जगह पर पहुंची हुई 'द मिरर" की नायिका मीना कठिन परिस्थिति के बीच भी आत्म विश्वास के सजग बिन्दु से भरी है। लेकिन थैंक्स मां की कथा में कथ्य की भिन्नता भारतीय समाज की भिन्नता के साथ है। गुम हो गये अपने बच्चे की स्मृतियों में विक्षिप्त हो गई मां की कातरता बेहद विचलित करने वाली है,
''यह मेरा बच्चा नहीं है। मेरा बच्चा चार महीने का है।""
बच्चे को तलाशती थैंक्स मां की स्त्री और अपने घर को तलाशती 'द मिरर" की मीना की मानसिक बुनावट में ही कोई भिन्नता है या इसके इतर भी कोई कारण है ? जबकि स्थितियों की त्रासदी दोनों जगह कमोबेश एक है। इस अंतर का कारण क्या दो भिन्न समाजों की वजह है या दृश्य को संयोजित करती कैमरे के पीछे की आंख ?  
 'द मिरर" की कथा नायिका-बच्ची को अपना घर मिल जाता है पर थैंक्स मां के कृष को उसकी मां नहीं मिल पाती और न ही कृष को उठाये उठाये घूमने वाले म्यूनैसपैलिटी को उसकी मां मिल पाती है। कृष की मां को ढूंढने में यदि म्यूनैसपैलिटी कामयाब हो जाता तो उसे अपनी मां के भी मिल जाने जैसी खुशी होती। यह काव्यात्मकता थैंक्स मां को एक महत्वपूर्ण फिल्म बना देती है। लेकिन फिल्म का यह अंत नहीं। वह तो गैर सरकारी संस्थाओं का एजेण्डा है- भ्रूण हत्या जैसा ही कुछ। 
यूं "थैंक्स मां" को देखने का आनन्द बच्चों के आपसी रिश्तों के दृश्य में है। मसलन फिल्म का एक पात्र जिसका नाम सोडा है उस वक्त बेहद चालाकी भरा नजर आता है जब सबसे पैसे मांगता है और उन्हें दस गुना कर देने का लालच देता है। उन बच्चों के समूह में एक बच्ची भी है जो अपने साथियों के बीच बिना इस मानसिकता के कि दूसरों से लैंगिक रूप में भिन्न है, बहुत स्वाभाविक बनी रहती है। बच्चों की इस उपस्थिति को आकार देने में निर्देशक की भूमिका इसलिए गौण मानी जा सकती है कि जैसे ही कैमरे में रची गई कहानी के दृश्य और बहुत सजग किस्म के कलाकार नजर आते हैं तो मानवीय संबंधों की वह ऊष्मा जो तलछट का जीवन जीते बच्चों को कैमरे में कैद कर लेने पर दिखायी दी थी, गायब हो जाती है। जरूरत से ज्यादा लाऊड होते रघुवीर यादव एक स्वाभाविक कलाकार की स्थिति में भी नजर नहीं आते। जबकि गैर परम्परागत कलाकार बच्चे ज्यादा स्वाभाविक अभिनय करते हुए हैं। कलाकारों के अभिनय पर बहुत बात करने की जरूरत उस विचार बिन्दु को रखने के लिए ही है जिसमें समकालीन रचनाजगत के हवाले को तथ्यात्मक तरह से रखा जा सकता है। तथ्य बताते हैं कि न सिर्फ लेखन में बल्कि कला के अन्य क्षेत्रों में भी सक्रिय तमाम रचनाजगत ने प्रगतिशीलता के जो मानक गढ़े हुए हैं यूं तो उनके इर्द-गिर्द ही रचनात्मक दोलन की गति दिखायी देती है। पर गढ़ी गई प्रगतिशीलता के दायरे में दोलन की तरंग दैर्ध्य बढ़ जाने का वैसा अहसास संभव नहीं हो पाता जैसा प्रतिबद्धता के साथ संभव हो सकता है। प्रतिबद्धता के मायने जफर पनाही के मार्फत कहें तो "द मिरर" की नायिका मीना जिस गली को ढूंढ रही उसका नाम "विक्टरी एवेन्यू" अनायास नहीं। मीना उस चौक की पहचान बताने में बेशक असमर्थ है जहां से एक रास्ता विक्टरी एवेन्यू को जाता है लेकिन अनभिज्ञ नहीं। उस जगह पर पहुंचकर वह गाड़ी रुकवाती है, किराया चुकाती है और ड्राइवर को खुदा हाफिज कहते हुए दौड़ पड़ती है भीड़ भरे रास्ते को पार करती हुई। जफर पनाही का कैमरा बहुत लांग शॉट लेता हुआ होता है। पूरे तीन सौ साठ डिग्री में घूमता हुआ। कोई भी स्थिति उस लांग शॉट के भीतर किरदार नजर आती है और किरदार की उपस्थिति बेहद स्वाभाविक या, किरदार का किरदार होना नहीं बल्कि यथार्थ के बीच किसी का भी होना हो जाता है। दर्शक के लिए सहूलियत बनता हुआ कि वह खुद को भी उस स्थिति में देख सके। एक ऐसे ही अन्य दृश्य में मीना बस में है। पार्श्व में उभरती आवाजें हैं। कैमरा जब मीना को फोकस किये है आवाजें तब भी हैं और बेहद स्पष्ट। उन आवाजों का लब्बो लुआब है कि मीना मां के सहारे के असहसास के साथ है। आत्मीय सहारे की तलाश करती बूढ़ी स्त्री है और उम्र के कारण अकेले हो जाने का भय उसके भीतर व्याप्त है। दूसरी स्त्रियों की बातचीत में पति से संबंधों के विवरण हैं। समाज के भीतरी ढांचे को व्यक्त करने के लिए जफर पनाही किसी अलहदा चित्र का सहारा लेने के बजाय मूल कथा के विस्तार में ही बहुत चुपके से दाखिल होते हैं बावजूद इसके कि कैमरा अब भी ज्यादातर विक्टरी एवेन्यू को तलाश करती मीना पर ही फोकस रहता है।
इधर सचेत तरह से बनायी गयी इरानी फिल्मों की उल्लेखनीय विशेषता है कि मानवीय तकलीफों का ताना बाना उनमें बहुत साफ तरह से उभरा है। जीवन को दुर्लभ बनाते तंत्र को दर्शक उनमें बहुत अच्छे से पहचान सकता है। तकलीफों में जीते लोगों के भीतर हमेशा मौजूद रहने वाली आत्मियतायें उसे हिम्मत बंधाती हैं। रास्ता भटक गयी बच्ची को सही सलामत घर पहुंचा सकना उनकी सामूहिक चिन्ता का कारण है। खुद की परेशानियों के बावजूद मुसीबत जदा किरदार की परेशानियां उनकी प्राथमिताओं का हिस्सा हो जाती हैं। परेशानियों से घिरे होने के बावजूद खीझ, झल्लाहट या गुस्से के भाव उनके चेहरों पर कभी अपना अक्श नहीं बिखेरते। जफर की ही एक अन्य फिल्म "व्हाइट बेलून" में भी इसे देखा जा सकता है। मजीदी की "चिल्ड्रनस ऑफ हेवन", "पेराडाइज", हाना मखमलबाफ की "बुद्धा कोलेप्सड आउट ऑफ सेम" या अन्य बहुत सी फिल्में हैं जो इरानी अफगानी सिनेमा का एक बहुत आत्मीय और बेबाक संसार रच रही हैं। इनके बरक्स इधर हिन्दी सिनेमा की 'थैंक्स मां, "सल्मडॉग मिलेनियर", "थ्री इडियेट", नंदिता दास की "फिराक" या लोक प्रिय धारा की "ए वेडनस डे", "गुलाल" और दूसरी बहुत सी फिल्मों में देखते हैं कि यथार्थ की उपस्थिति आक्रामकता के पुन:सर्जन में बहुत प्रत्यक्ष होना चाहती है। यथार्थ के प्रत्यक्षीकरण में इन फिल्मों से जो कि ध्वनित हुआ है उसमें झूठे और अमानवीय तंत्र के प्रतिरोध की चेतना की बजाय पाठक हताशा और निराशा में घिर जाने को विवश है। हत्या, मारकाट और साजिशों का प्रत्यक्षीकरण इतना एकांगी है कि जीना ही मुश्किल लगने लगता है। समाजिक विद्रुपताओं के दुश्चक्र की बारम्बारता भयानक से भयानक दृश्य रचती है। एक क्षण को उनके प्रभाव इतने गहरे होते हैं कि वे दर्शक के भीतर बहुत स्थाई और संवेदना को ही पूरी तरह से कुंद कर देते हैं। जो कुछ परदे पर घट रहा होता है उसका घटना एक स्वाभाविक सी घटना हो जाता है। परिस्थितियां बेहद विकट होती हैं लेकिन विकटता के सर्जकों की कोई तस्वीर नहीं बन रही होती है और न ही उनसे बच निकलने की कोई आत्मीय गतिविधि नजर आती है। बेहद क्रूर तरह से बच्चों के अंग भंग के दृश्य और तमाम अमानवीय कार्यों को करवाने को मजबूर कर देने वाली निर्ममताओं के कितने ही दृश्य हैं जिन्हें ऊपर दर्ज फिल्मों में और इधर की अन्य फिल्मों में देखा जा सकता है। यहां अमानवीयता के दृश्य का एक चित्र हाना मखमलबाफ की फिल्म 'बुद्धा कोलेप्सड आउट ऑफ सेम" से याद किया जा सकता है। हाना की यह फिल्म तालीबानी आक्रमकता के बाद जीवन जीते अफगानी बच्चों के खेल के रूप में हैं। तालीबानी तालीबानी खेलते बच्चों के बीच बामियान की मूर्तियों को तोड़ने से लेकर स्त्रियों को दासत्व की स्थितियों तक पहुंचाती कथा के बीच 'मुक्तिदाता" अमेरिकी बम वर्षकों के दृश्य हैं। तालीबानी बने बच्चे अमेरिकी बम बारियों से बचते हुए अपने आक्रामक खेल को जारी रखना चाहते हैं। अमेरिकी सिपाहियों को अंधे कुओं में डूबो कर मार देने की साजिश रचते हैं। एक गढढा खोद कर बहुत गहरे तक उसमें पानी भर भूरभूरी मिटटी को ऊपर से डाल उसे दल दल बना देते हैं। कैद की हुई स्त्रियों का छुड़ाने आते अमेरिकी सिपाही को वे उस दल दल में धंस जाने को मजबूर कर देते हैं। दलदल से सना बच्चा, यह दृश्य बिल्कुल उस दृश्य की तरह जैसा स्लमडॉग मिलेनियर में संडास के गढढे में गिर गया बच्चा है और जिसे देखना बेहद उबाकई से  भर जाना है, बहुत ही मानवीय ओर बुद्ध नजर आने लगता है। दृश्य एक दम स्पष्ट हो जाता है कि मुक्ति के नाम पर विध्वंश का खेल रचती अमेरिकी चालाकियों से हाना न तो खुद इत्तफाक रख रही हैं और न अपने दर्शकों के बीच किसी भी तरह की गलतफहमी को पनपने देती है। यह सवाल हो सकता है कि मुक्ति का रास्ता तो बुद्ध की करूणा में भी पूरा पूरा नहीं दिखता लेकिन इससे यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि जो भी संभावित सकारात्मकता है उसको तो चुना ही जाना चाहिए। और उस रास्ते पर ही फिल्म बेहद प्रभावशाली ढंग से उस तालीबानी आक्रमकता का विरोध दर्ज करती है जो स्त्रियों को गुलामी की स्थिति तक पहुंचा देना चाहती है। हिंसा के खेल को बुद्ध की सहजता से पार पाने की युक्ति बेशक अतार्किक और अव्यवहारिक हो पर युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ जिस खूबसूरती से दृश्य रचती है उसमें खेल चरमोत्कर्स तार्किक परिणति तक पहुँचता है। खास तौर पर ऐसे में जब चारों ओर एक घनीभूत तटस्थता छायी है। चौराहे का सिपाही नियम के कायदे में बंधा बंधकों को छुड़ाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहा है। बल्कि असमर्थता जाहिर करते वक्त भी उसके चेहरे पर जब कोई प्ाश्चाताप या ग्लानी जैसा भाव भी मौजूद नहीं हैं। बस एक काम-काजी किस्म का व्यवहार ही उसको संचालित किये है। मेहनतकश आवाम भी जब युद्धोन्मांद में फँसी लड़की की कातर पुकार पर तव्वजो देने की बजाय बहुत ही तटस्थता से बच्चों को दूसरी जगह जाकर खेलने को कह रहा हो। दूसरी जगह- यानी जहाँ जारी खेल बेशक खूनी आतंक की हदों को पार कर जाए पर उनके काम में प्रत्यक्ष रुकावट डालने वाला न हो। मध्य एशिया में जारी हमले के दौरान अमेरीकी प्रतिरोध की दुनिया का कदम इससे भिन्न नहीं रहा है। और उसके चलते ही कब्जे की लगातार आगे बढ़ती कार्रवाई जारी है, यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं।
हिन्दी फिल्मों का यह जो ताना बाना दिखायी देता है उसे विश्वपूंजी द्वारा स्थापित की जा रही 'नैतिकता और आदर्श" के साथ देखा जा सकता है। मुनाफे की संस्कृति को जन्म देती और संसाधनों पर लगातार कब्जा करने की मंशा से भरी विश्वपूंजी की कार्रवाइयां अपने छल छद्म को छुपाये रखने के जो रास्ते अख्तयार करती है, वे बहुत साफ दिख रहे हैं। सिविल सोसाइटीनुमा अवधारणा में उसका चेहरा लोक की छवियों के जरिये न सिर्फ अपने कलावादी रूझानों को स्थापित करना चाहता है बल्कि तथाकथित उजले जीवन के बाजार के लिए लोक की विविधता को विज्ञापनी दुनिया का हिस्सा बनाता चल रहा है। दूर पहाड़ी पर एक कांछा (स्थानीय पहाड़ी बच्चा) से वह मारूती का सर्विस सेन्टर पूछता है। आदिवासी जनजीवन का पहनावा उसके उत्पाद को कन्ट्रास्ट देता है। बेहद संकरी गलियों के दृश्य बेजरूरत चीजों के प्रति आवाम की ललक पैदा करने का जरिया हैं। यथार्थ के प्रत्यक्षीकरण को प्रस्तुत करते दृश्यों में एक आक्रामक हिंसकता की ही झलक उसका मूल स्वर है। बहुत कोमल और आत्मीय किस्म के माहौल के प्रति उसके सरोकार मुनाफाखौर विज्ञापनी चालाकी वाले है। एक धोखा है। जिसमें विविधता से भरे स्थानिक दृश्यों की उपयोगिता उसके लिए मात्र अपने उत्पाद को उपभोक्ता के हाथों तक पहुंचाने के अवसर के रूप में है।
बहुत सचेत होकर देखें तो इधर आयी समकालीन हिन्दी कहानियों का संसार भी बहुत अलहदा नहीं बना है। समाजिक प्रतिबद्धता के प्रति आवश्यकता से अधिक क्लेम करता रचनाकार रचनात्मक विवरणों में विश्वसनीयता की हदों के पार भी छलांग जाता है। उदय प्रकाश की कहानी "मोहनदास" में बहुत साफ तरह से इसको परखा जा सकता है। विद्रुपताओं में ही बदलाव के चिह्न रचने की प्रवृत्ति बहुत आम हुई है। सामाजिक प्रवृत्ति के तौर पर गैर जरूरी नितांत व्यक्तिगत किस्म के अनुभवों से भरे विवरणों की भरमार में शिल्प के अनूठेपन का संसार प्रचारात्मक अलोचना में बहुत स्वीकार्य हुआ है। कथ्य की विभिन्नता के नाम पर इन्दरनेटिय सूचनाओं (योगेन्द्र आहुजा की कहानी खाना, पांच मिनट )या कारपोरेटिय जगत के बहाने उचछृखल संबंधों (गीत चतुर्वेदी की कहानी पिंक स्लिप डेडी) को लहराते पेटीकोटों वाली भाषा (कहानियों की एक लम्बी श्रृंखला है) में देखा जा सकता है। कलावादी कहलाये जाने के आरोपों से बचाव के रास्ते सामाजिक राजनैतिक प्रतिबद्धता के प्रदर्शन में इस कदर बढ़े है कि कविता तीन तीन कालमों में लिखी जाने का चलन रचनात्मक श्रेष्ठता के दावे करता हुआ प्रस्तुत होता है। बहुत सी रचनाओं में भाषा के स्तर पर नक्सलवाद, माओवाद, आदिवासी जैसे कितने ही शब्द बेवजह ठूंसने का चलन बना है। कवि देवी प्रसाद मिश्र की कविताऐं जिनका फलक पहल से लेकर इधर जलसा के पहले अंक तक दिखता है, ऐसी प्रवृत्ति का प्रतयक्ष गवाह है। कलात्मक युक्तियों का लगातार अन्वेषण जारी है। एक ही समय में शतकीय आंकड़ों (51 कहानियां ) का नायब अंदाज देवी प्रसाद मिश्र के यहां जलसा के नये अंक में भी देखा जा सकता है। लेकिन वैचारिक धरातल पर अस्पष्टता के बावजूद क्रान्तिकारी दिखने की चाह में वे कला और कला, कला और कला के अन्वेषक होते चले जाते हैं। ''छठी मंजिल" इस बात को तथ्यात्मक रूप से ज्यादा स्पष्ट करती है। वे जिस छठी मंजिल की चकाचौंध में आत्ममुग्ध होते हुए दिख रहे हैं, वहां खिलता हुआ सा बाजार है, चुंधियाती रोशनियां है। और बहुत कुछ ऐसा ही। हर एक के जीवन को उसी बाजार के बीच खुशहाल देखने का झूठ फैलाना उसी विश्वपूंजी का खेल है जिसका प्रतिरोध शायद कहानीकार भी करना चाहता होगा, लेकिन वहां पहुंचना और उसके बीच हो जाना रचनाकार को ललचा रहा है। मनोज रूपड़ा की कहानी रद्दोबदल, अरूण कुमार असफल की कहानी "कुकुर का भुस्स" अन्य ऐसी ही कहानियां जिनमें बहुत कुछ अलग कह जाने का कलावादी रूझान और आवश्यकता से अधिक आत्मसजग विशिष्टताबोध बोध वाली प्रवृत्ति उजागर होती है।
पैकिंग और बाईंडिंग के नये नये से रूप वाला फूला-फूला अंदाज इस दौर के बाजार का ऐसा चरित्र है जिसमें ग्राहक के लिए उत्पाद की गणवत्ता को जांचना भी संभव नहीं  रह गया है। तैयार माल किस मैटेरियल का बना है, इसे छुपाने के लिए भी मैटेरियल पर कोटिंग की नयी से नयी तकनीक के इस्तेमाल से ऐसा संभव हो रहा है। स्क्रेप मैटेरियल से तैयार उत्पाद में दर्ज पैबंदों को भी चमचमाती पैकिंग में आकर्षक बनाकर पेश किया जा रहा है। योगेन्द्र आहुजा की पांच मिनट एक ऐसी कहानी है जिसकी रचना के लिए उस स्पेशिफाईड मैटेरियल को ढूंढा गया है जिससे सिलिकॉन चिप बनाया जाता है। एक ऐसा मैटेरियल जो अपने से निर्मित उत्पाद के जोड़ कहीं दिखने भी नहीं देता। फिर भी यदि कहीं दिखने लगते भी हैं, तो खुलते चाकू की खटाक होती आवाज के कारण सहम जाने वाला समय दुनिया की घड़ियों की सुईंयों को स्थिर करके उन्हें छुपा  देता है। घड़ी की टिक-टिक से बेदर्द और दहद्गत फैलाने वाले समय की यथास्थिति का एहसास पाठक हर क्षण करता रहता है। मक्खी मूछों वाली आक्रामक फौजी कार्यवाही का विरोध करते हुए वैश्विक एकता की मिसाल और राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक सीकिंया बूढ़े का जिक्र करते हुए इतिहास की अनुगूंजों के साथ गुलामी के खिलाफ संघ्ार्ष को निर्णायक मोड़ तक पहुंचाने की अभिष्ट कामना कहानी के मूल में दिखायी देती है। गोपाल इस कहानी का ऐसा पात्र है जो मजदूर, चौकीदार, रिक्शे चलाने वाले, सब्जीफरोश, कबाड़िये और इसी तरह का छोटा-मोटा काम करते हुए जीवन के संघर्ष में जुटे तबके का प्रतिनिधित्व करता है।  
इस दृष्टिकोण से यदि कहानी को देखें तो न सिर्फ हाशिये पर रह रहे लोगों के प्रति लेखकीय पक्षधरता स्पष्ट होती है बल्कि पुरजोर तरह से इस बात को स्थापित करने की कोशिश साफ दिखती है कि कि आधुनिक तकनीक की विकासमान दुनिया को सम्भव बनाने में ऐसे ही लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण है। एक सामन्य, लेकिन हुनरमंद घड़ीसाज के लम्पट और उच्चके बेटे का होनहार बेटा जब अंतरिक्ष की घड़ियों को दुरस्त कर लेने की दक्षता हांसिल कर पा रहा है तो इससे एक हद तक जनतांत्रिक होती जा रही दुनिया का पक्ष भी प्रस्तुत होता है। लेकिन उस ठोस वस्तुगत यथार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकती जिसमें ज्ञान-विज्ञान पर कब्जा करती बाजारू दुनिया का होना दिखायी देता है। जरूरी है कि वस्तुगत यथार्थ की सही समझदारी के साथ रचना का सत्य उस  चिन्तन पर केन्द्रित हो जिससे सचमुच की राष्ट्रीय चेतना और अन्तरराष्ट्रीय बिरादराना के तत्वों को पकड़ने में पाठक सहूलियत महसूस कर सके। व्यक्तिगत रुप से उपलब्धियों को हांसिल करने वाले किसी एक महान  व्यक्ति की सक्रियता के इंतजार में बदलावों के संघर्ष को स्थगित नहीं किया जा सकता है, योगेन्द्र शायद इससे अनभिज्ञ न हो और न ही कोई भी संघर्ष ऐसे एक व्यक्ति की उपस्थिति मात्र से अन्तिम निर्णय तक पहुंच सकता है, यह समझ बनना भी जरूरी ही है। 
पूंजीवादी लोकतंत्र के आभूषणों (राजनैतिक पार्टियां) की लोकप्रिय धाराओं की नीतियां कुछ दिखावटी विरोध के बावजूद अमेरिका को रोल मॉडल की तरह प्रस्तुत करते हुए उसके ही ईशारों पर जारी है। जिसके चलते पूरा परिदृद्गय इस कदर धुंधला हुआ है कि विरोध और समर्थन की,, उनकी अवसरवादी कार्यवाहियां, किसी भी जन पक्षधर मुद्दे को दरकिनार करने के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो रही है। उसी पूंजीवादी अमेरिका के आर्थिक हितों के हिसाब से चालू आर्थिक और विदेश नीति ने ही एक खास भूभाग में निवास कर रहे अप्रवासियों के लिए दोहरी नागरिकता का दरवाजा खोला है। आंतक के देवता, विश्व पूंजी के स्रोत, हथियारों के सौदागर, अमेरिका की प्रशस्ति में सदी के सबसे बड़े विस्थापन को जन्म दिया जा रहा है। तीसरी दुनिया के आला दिमाग  यूंही नहीं विश्व पूंजी की चाकरी करने को उतावले हैं! ऐसी ही नीतियों के पैरोकार शासक जिस तरह से सीधे तौर पर डालर पूंजी की जरुरत पर बल देते हुए अंध राष्ट्रवाद की लहर पैदा कर रहे हैं उसके चलते ही आम मध्यवर्गीय युवा के भीतर उसकी स्वीकार्यता को भी बल मिल रहा है। गरीब और पिछड़े देश वासियों के सामने एक भ्रम खड़ा करने की यह निश्चित ही चालक कोशिश है कि रोजी रोटी के जुगाड़ में सात समुन्द्र पार की यात्रा पर निकले ऐसे नागरिक जब माल असबाब जमाकर वापिस लौटेगें तो देश एवं समाज की बेहतरी के लिए कार्य करेगें। यहां इस सवाल से आंख मूंद ली गयी है कि कितना तो बचा होगा उनके भीतर देद्गा और कितनी देद्गा सेवा। योगेन्द्र आहुजा की कहानी पांच मिनट भी ऐसे ही ब्रेन ड्रेन की कहानी है और इम कहानी में भी इसी मुगालते की स्थापना है।  अपनी कहानी के अंत में योगेन्द्र भी ऐसे ही युवका से उम्मीदों का ख्याल पालते हैं।
यूं युवा रचनात्मक गतिविधियों के समुचित मूल्यांकन के लिए हिन्दी कला साहित्य और फिल्म की दुनिया के यहां दर्ज तथ्य मेरी सीमा ही है। वरना बहुत सी दूसरी रचनाऐं हैं जिनके पाठ मुझे प्रभावित करते रहे हैं। या ज्यादा साफ करते हुए कहूं तो जिनसे बहुत असहमति नहीं उपजी है। महेशा दातानी की फिल्म "मार्निंग रागा", बेला नेगी की फिल्म "दांये या बांये" अमोल गुप्ते की "स्टनली का डब्बा" और हिन्दी कहानियों में कैलाश बनबासी की "बाजार में रामधन", अरूण कुमार असफल की "पांच का सिक्का", योगेन्द्र आहुजा की "मर्सिया", नवीन कुमार नैथानी की "पारस" आदि बहुत सी रचनाऐं हैं जिनको देखना-पढ़ना एक अनुभव से गुजरना हुआ है।
गम्भीर दुर्घटनाओं के परिणाम कई बार किसी व्यक्ति विशेष को जीवन पर्यन्त अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं और मानसिक अवसाद का गहरा कारण बन जाते हैं। बहुत नितांत तौर पर एक अकेले व्यक्ति की समस्या को सामाजिक दायरे के प्रश्न में देखने से ही रचना की प्रासंगिकता बनती है। महेश दातानी की फिल्म मार्निंग रागा ऐसे ही विषय के इर्द गिर्द एक ताना बाना रखती है और एक गम्भीर दुर्घटना में अपने प्रियों को खो देने के कारण अवसाद की गहरी छाया में डूबे पात्रों की मुक्ति का मार्ग संगीत की स्वर लहरियों में तलाश करती है। चूंकि बदलाव के किसी बहुत बड़े दावे की अनुगूंज फिल्म के पाठ में ही मौजूद नहीं इसलिए उन अर्थों को ढूंढने का कोई तुक नहीं जिनके आधार अन्य रचनाओं पर बात हो रही है। इस लिहाज से देखें तो बहुत ही साफ सुथरे कथ्य के साथ संवेदना के उन बिन्दु को जाग्रत करने में अहम रोल अदा करती है जिससे मानवीय तकलीफों के ज्यादा करीब पहुंचा जा सकता है। न ही किसी तरह की अलौकिकता ओर न ही इधर के दौर में बहुत उछृखंल प्रेम का प्रदर्शन बल्कि मानवीय अनुभूतियों की रागात्मकता का बहुत ही स्वाभाविक आख्यान पूरी फिल्म में जीवन्तता के साथ है। मार्निंग राग की बात करते हुए कथाकार योगेन्द्र आहुजा की कहानी मर्सिया का याद आ जाना स्वभाविक है। योगेन्द्र की कहानी का कथ्य यूं मार्निंग राग से जुदा है और उसके आशय भी, पर यह स्पष्ट है कि शास्त्रीय संगीत की रवायत के बरक्स पीपे, परात और तसलों के संगीत वाला बिम्ब ज्यादा प्रभावी और महत्वपूर्ण बिन्दु है जबकि महेश दातानी के यहां शास्त्रीय संगी का यह फ्यूजन बहुत सीमित होकर आता है। दांये या बांए बेला नेगी की पहली फिल्म है। हिन्दी फिल्म होते हुए भी उसमें एक खास किस्म की आंचलिकता बिखरी हुई है। उसे आंचलिक फिल्म कहना ही ज्यादा ठीक लग रहा है। महेश दातानी की फिल्म भी यूं भारीतय अंग्रेजी और कन्नड़ भाषा के साथ एक आंचलिकता को ही पकड़ रही है। बल्कि कहा जा सकता है कि दोनों ही फिल्मों में आंचलिकता का यह बिन्दु ठीक उसी तरह का है जैसे हिन्दी या किसी भी दूसरे साहित्य की रचनायें, जिनमें पात्रों की भाषा भौगोलिक पृष्ठभूमि की प्रमाणिकता वाली होती है। लेकिन बेला की फिल्म की विशेषता सिर्फ भाषायी ही नहीं अपितु विशिष्ट भूगोल के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से जूझते रचनाकार की प्रतिबद्धता का भी प्रश्न बनती है। यूं बेला नेगी की फिल्म बहुत खिलंदड़ भाषा में उत्तराखण्ड के भूगोल को पकड़ती है लेकिन उत्तराखण्ड के बौद्धिक जगत की उस सीमा को भी चिहि्नत कर दे रही जिसमें एन जी ओ किस्म की मानसिकता का विस्तार होता है और बेला भी उससे बच न पायी है। समय के हिसाब से सबसे निकट की रचना इसी वर्ष मई माह में आयी अमोल गुप्ते की पहली ही फिल्म स्टनली का डिब्बा है जो आत्मीयता और सामाजिक वंचनाओं के उन बिन्दुओं को आधार बना रही है जिनकी अनुपस्थिति में एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण की पूरी प्रक्रिया कैसे बाधित हो जाती है, इसको समझा जा सकता है। कथा पात्र बच्चे, स्टनली का प्रतिरूप स्कूल मास्टर वर्मा बार-बार बहुत खाऊ दिखता है। न सिर्फ साथी मास्टरों के खाने के डिब्बे उसे ललचाते हैं बल्कि बहुत छोटे छोटे स्कूली बच्चों के टिफिन पर भी उसकी ललचायी निगाहें हैं। उसके व्यक्तित्व के इस कमजोर पक्ष का खुलासा करने से बच जाने में निर्देशक ने बेहद सूझ बूझ का परिचय दिया है जिससे कहानी एक काव्यात्मक अंत की ओर आगे बढ़ जाती है। और आत्मीयता और व्यक्तित्व के विकास के अवसरों की अनुपस्थिति में जीवन जीते स्टनली के जीवन के बहुत अंधेरे कोनो में ले जाते हुए मास्टर वर्मा के बचपन से साक्षात्कार करा देती है।      

नोट: यह आलेख परिकथा के नये अंक में प्रकाशित है

Monday, December 19, 2011

इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में



यह कविता हमारे प्रिय मित्र और महत्वपूर्ण कथाकार योगेन्द्र आहूजा के मार्फत मेल से प्राप्त हुई। स्वाभाविक है कविता उन्हें पसंद होगी ही।  कविता को इस ब्लाग पर देते हुए रचनाकार श्योराज सिंह बेचैन का बहुत बहुत आभार। उनकी अनुमति के बिना ही कविता को ब्लाग पर दिया जा रहा है, उम्मीद है वे अन्यथा न लेंगे और इस बात को समझ पाएंगे कि सम्पर्क सूत्र न होने के कारण ही उन तक पहुंचना संभव नहीं हो रहा है।
वि.गौ.
 

अच्छी कविता

 श्योराज सिंह बेचैन




अच्छी कविता
अच्छा आदमी लिखता है
अच्छा आदमी कथित ऊंची जात में पैदा होता है
ऊंची जात का आदमी
ऊंचा सोचता है
हिमालय की एवरेस्ट चोटी की बर्फ के बारे में
या नासा की
चाँद पर हुई नयी खोजों के बारे में
अच्छी कविता
कोई समाधान नहीं देती
निचली दुनियादार जिन्दगी का
अच्छी कविता
पुरस्कृत होने के लिए पैदा होती है
कोई असहमति-बिंदु
नहीं रखती
निर्णायकों, आलोचकों और संपादकों के बीच
अच्छी कविता
कथा के क़र्ज़ को महसूस नहीं करती
अच्छी कविता
देश-धर्म, जाति
लिंग के भेदाभेदों के पचड़े में नहीं पड़ती
अवाम से बावस्ता नहीं और
निजाम से छेड़छाड़ नहीं करती
अच्छी कविता
बुरों को बुरा नहीं कहने देती
अच्छी कविता
अच्छा इंसान बनाने का जिम्मा नहीं लेती
अच्छे शब्दों से
अच्छे ख्यालों से
सजती है अच्छी कविता
अच्छी कविता
अनुभव और आत्मीय सबकी दरकार नहीं रखती
कवि के सचेतन
संकलन की परिणति होती है अच्छी कविता
अच्छी कविता
अच्छे सपने भी नहीं देती
अच्छे समय में साथ ज़रूर नहीं छोडती
अच्छी कविता की
अच्छाई पूर्वपरिभाषित होती है
अच्छी कविता
अच्छे दिनों में अच्छे जनों में
हमेशा मुस्तैदी और
मजबूती से उपस्थित रहती है
पर बुरे वक़्त में
किसी के काम नहीं आती
अच्छी कविता
उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में परसपुर के आटा ग्राम में २२ अक्टूबर, १९४७ को जन्मे अवामी शायर अदम गोंडवी ( मूल नाम- रामनाथ सिंह) ने आज दिनांक १८ नवम्बर ,२०११ , सुबह ५ बजे पी. जी. आई, लखनऊ में अंतिम साँसे लीं. पिछले कुछ समय से वे लीवर की बीमारी से जूझ रहे थे. अदम गोंडवी ने अपनी ग़ज़लों को जन-प्रतिरोध का माध्यम बनाया. उन्होंने इस मिथक को अपने कवि-कर्म से ध्वस्त किया कि यदि समाज में बड़े जन-आन्दोलन नही हो रहे तो कविता में प्रतिरोध की ऊर्जा नहीं आ सकती. सच तो यह है कि उनकी ग़ज़लों ने बेहद अँधेरे समय में तब भी बदलाव और प्रतिरोध की ललकार को अभिव्यक्त किया जब संगठित प्रतिरोध की पहलकदमी समाज में बहुत क्षीण रही. जब-जब राजनीति की मुख्यधारा ने जनता से दगा किया, अदम ने अपने साहित्य को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल साबित किया.


अदम गोंडवी आजीविका के लिए मुख्यतः खेती-किसानी करते थे. उनकी शायरी को इंकलाबी तेवर निश्चय  ही वाम आन्दोलनों के साथ उनकी पक्षधरता से  प्राप्त हुआ था.  अदम ने समय   और समाज की भीषण    सच्चाइयों  से , उनकी स्थानीयता के पार्थिव अहसास के  साक्षात्कार  लायक  बनाया ग़ज़ल को. उनसे पहले 'चमारों की गली' में ग़ज़ल को कोइ न ले जा सका था.

' 
मैं चमारों की गली में ले  चलूँगा आपको' जैसी लम्बी कविता न केवल उस 'सरजूपार की मोनालिसा' के साथ बलात्कार, बल्कि प्रतिरोध के संभावना को सूंघकर ठाकुरों द्वारा पुलिस के साथ मिलकर दलित बस्ती पर हमले की भयानकता की कथा कहती है. ग़ज़ल की भूमि को सीधे-सीधे राजनीतिक आलोचना और प्रतिरोध के काबिल बनाना उनकी ख़ास दक्षता थी-

जुल्फ
- अंगडाई - तबस्सुम - चाँद - आईना -गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी
इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब
इस सदी की तिश्नगी का ज़ख्म होंठों पर लिए
बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब


भुखमरी, गरीबी, सामंती और पुलिसिया दमन के साथ-साथ उत्तर भारत में राजनीति के माफियाकरण पर  हाल के दौर में  सबसे मारक कवितायेँ उन्होंने लिखीं. उनकी अनेक पंक्तियाँ आम पढ़े-लिखे लोगों की ज़बान पर हैं-

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

उन्होंने साम्प्रदायिकता के उभार के अंधे और पागलपन भरे दौर में ग़ज़ल के ढाँचे में सवाल उठाने
, बहस करने और समाज की इस प्रश्न पर समझ और विवेक को विकसित करने की कोशिश की-

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये

इन सीधी अनुभवसिद्ध, ऐतिहासिक तर्क-प्रणाली में गुंथी पंक्तियों में आम जन को साम्प्रदायिकता से आगाह करने की ताकत बहुत से मोटे-मोटे उन ग्रंथों से ज़्यादा है जो सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने रचे. अदम ने सेकुलरवाद किसी विश्विद्यालय में नहीं सीखा था, बल्कि ज़िंदगी की पाठशाला और गंगा-जमुनी तहजीब के सहज संस्कारों से पाया था.
आज जब अदम नहीं हैं तो बरबस याद आता है कि कैसे उनके कविता संग्रह बहुत बाद तक भी प्रतापगढ़ जैसे छोटे शहरों से ही
छपते रहे, कैसे उन्होंने अपनी मकबूलियत को कभी भुनाया नहीं और कैसे जीवन के आखिरी दिनों में भी उनके परिवार के पास इलाज लायक पैसे नहीं थे. उनका जाना उत्तर भारत की जनता की क्षति है, उन तमाम कार्यकर्ताओं की क्षति है जो उनकी गजलों को गाकर अपने कार्यक्रम शुरू करते थे और  एक अलग ही आवेग और भरोसा पाते थे, ज़ुल्म से टकराने का हौसला पाते थे, बदलाव के यकीन पुख्ता होता था. इस भीषण भूमंदलीकृत समय में जब वित्तीय पूंजी के नंगे नाच का नेतृत्व सत्ताधारी दलों के माफिया और गुंडे कर रहे हों, जब कारपोरेट लूट में सरकार का साझा हो, तब ऐसे में आम लोगों की ज़िंदगी की तकलीफों से उठने वाली प्रतिरोध की भरोसे की आवाज़ का खामोश होना बेहद दुखद है, अदम गोंडवी को जन संस्कृति मंच अपना सलाम पेश करता है.


जन संस्कृति मंच की ओर से महासचिव प्रणय कृष्ण द्वारा जारी

Friday, December 16, 2011

घेड़ गिंडुक की तेरहवीं


डा. शोभाराम शर्मा

ठाकुर बुथाड़ सिंह को बाप-दादों से वसीयत में जो कुछ मिला, उसमें से तीन चीजों का उल्लेख करना आवश्यक है। पहली चीज थी इलाके की थोकदारी¹, दूसरी लाइलाज बीमारी और तीसरी कोठे² के एक अंधेरे कमरे में पड़ा घेड़ गिंडुक³। सत्ता चाहे जो भी और जैसी भी हो, उसके प्राण तो लाठी में ही बसते हैं। यहां भी उधर की सत्ता ने अपना आतंक जमाने के लिए जो हथियार चुना वह घेड़ गिंडुक के रूप में सामने आया। हक-दस्तूरी⁴ की जां-बेजां वसूली के लिए वह कारगर हथियार साबित हुआ। उसके बूते उपजी दौलत, और दौलत से उपजी विलासिता। दौलत ने विलासिता को ऐसी हवा दी कि उसके असर से बच पाना आसान नहीं था। पहले शिकार बने ठाकुर बुथाड़ सिंह के अपने ही दादा। जिनकी रसिकता की चर्चा लोग आज भी चटखारे ले-लेकर करते हैं। एक से जी नहीं भरा तो चार-चार शादियां कर डालीं। एक को तो विवाह मंडप से ही उड़ा लाए। इलाके को जैसे सांप सूंघ गया। विरोध् में एक उंगली तक नहीं उठी। घेड़ गिंडुक के आगोश में मौत को गले लगाने की हिम्मत जुटाना भी तो खेल नहीं था। पिफर क्या था, वासना का ज्वार सारी सीमाएं लांघ गया। मां-बाप ने जिस बेचारी से पल्ला बांध वह तो पति की बेरुखी का अभिशाप जीवन भर भोगती रही। गनीमत हुई कि थोकदारी का वारिस उन्हीं की कोख से पैदा हुआ और इलाके के लोग 'जैजिया⁵ का संबोधन उन्हीं के सम्मान में करते थे। संतोष था तो बस इतना ही।
उधर महफिलें जमतीं, नृत्यांगनाओं के नखरे उठाए जाते, ऊपर से इलाके की सुंदरियों की टोह भी लेनी पड़ती। रखैलों का ध्यान भी गाहे-बगाहे रखना ही पड़ता। सुरा-सुंदरी के मोहपाश में ऐसे फंसे कि असमय ही बुढ़ापे के लक्षण प्रकट होने लगे। हल्का-सा ताप और ऊपर से खांसी की मार। लगता था कि एक हरे-भरे पेड़ को बेरहम काठ कीड़ा भीतर से खोखला करने में लगा हो। रोग बढ़ता गया और एक दिन खून उगलते-उगलते वे दुनियां ही छोड़ गए।
बेटे ने शादियां तो दो ही कीं लेकिन सुरा-सुंदरी के आकर्षण से बच पाना उसके बस में भी नहीं था। बाप की सौगात जल्दी ही ऐसा रंग लाई कि अधबीच जवानी में ही रोग ने धर दबोचा। आज तीसरी पीढ़ी के ठाकुर बुथाड़ सिंह उसी की चपेट में हैं। थोकदारी के साथ बीमारी भी खानदानी हो गई। खानदान पर लगे इस घुन से पीछा छुड़ाने के लिए क्या कुछ नहीं किया गया। देवी-देवता, पूजा-पाठ, जप-तप, तीरथ-व्रत, झाड़-फूंक और दवा-दारू सबकुछ तो किया लेकिन ढाक के वही तीन पात। अभी तक तो छुटकारा मिला नहीं। ठाकुर बुथाड़ सिंह को तो बस यही चिंता खाए जा रही थी कि उनका अपना तो जो कुछ हो लेकिन अगली पीढ़ी इस बला के चंगुल में न फंसे। ऊपर से एक मुसीबत और। गोरखों तक तो ऊपरवालों से तालमेल बिठाने में कोई अड़चन नहीं आई लेकिन इधर जब से सात समंदर पार के पिफरंगी मालिक बने थोकदारी पर भी संकट के बादल मंडराते नजर आने लगे। बड़े-बड़े नवाब और राजे-महाराजे तक जिस कंपनी बहादुर के आगे नहीं टिक पाए, उसका थोकदार जैसे बौने सामंत भला क्या बिगाड़ लेते? अपनी इस बेबसी पर ठाकुर बुथाड़ सिंह भीतर-ही-भीतर कसमसा रहे थे कि बाहर से किसी की पदचाप सुनाई दी। दरवाजा ठेलकर अपने ही कुलपुरोहित प्रकट तो हुए पर झिझकते हुए कुछ दूरी बनाकर बतियाने लगे। बोले- ''ठाकुर साहब! राजवैध की दवाइयों से कुछ लाभ हुआ कि नहीं?
''किसका लाभ और कहां का लाभ पंडित जी। लगता है अब ऊपर जाने के दिन नजदीक आ गए हैं। मायूस होकर ठाकुर बुथाड़ सिंह ने जवाब दिया।
''इतने निराश न हों ठाकुर साहब। हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने से तो कुछ होगा नहीं। राजवैध यह भी तो सुझा गए थे कि मांसाहारी का मांस लाभ पहुंचा सकता है।
''तो आप चाहते हैं कि मैं गीदड़, कौवे और उल्लू आदि का मांस लेकर अपना अगला जनम भी अकारथ कर डालूं। नहीं पंडित जी मन नहीं मानता। आखिर अपने संस्कार भी तो कुछ हैं।
''आपका कहना भी सही है मन ही न माने तो उपाय भी व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा। आपकी जन्मकुंडली देखकर मैंने जो वर्षफल निकाला है उसके अनुसार शनि की साढ़े साती का अब एक ही साल शेष रह गया है। इस बीच अगर शनि-कोप-विमोचन-जाप किसी शिव मंदिर में शुरू कर दें तो रोग का प्रकोप अवश्य धीमा पड़ेगा और साल भर बाद अगर भगवान आशुतोष की कृपा हुई तो आप इस जानलेवा बीमारी के चंगुल से भी छुटकारा पा लेंगे।
''आप कहते हैं तो यही सही। लेकिन एक बात समझ में नहीं आती। यह साढ़े साती मेरे ही पीछे पड़ी है या मेरा पूरा खानदान ही इसकी चपेट में है। मैं तो तीसरी पीढ़ी में हूं। इसी रोग के मारे मेरे पुरखे भी असमय काल-कवलित हो गए। उन्होंने भी तो सारे उपाय किए थे। लेकिन हुआ क्या? जो कीड़ा खानदान की जड़ में लग गया वह तो छूटने का नाम ही नहीं लेता।
''देखिए ठाकुर साहब, शनि महाराज का कुछ स्वभाव ही ऐसा है कि किसी पर प्रसन्न हुए नहीं कि राज-योग बैठ गया और कहीं कुपित हो बैठे तो सालों-साल साढे़ साती के कोल्हू में पेर दिया। अति तो हर चीज की बुरी होती है। भगवान शनिदेव की कृपा से राजयोग बैठता तो है लेकिन विलास की अति उन्हें भी पसंद नहीं। राजयोग को राजयक्ष्मा में बदलते उन्हें देर नहीं लगती। कहते हैं कि अति विलासिता के कारण भगवान राम का वंश तक इसी रोग से समाप्त हो गया था। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हम भाग्य भरोसे बैठे रहें। मैं जिस जाप की सलाह दे रहा हूं, शायद वही काम कर जाए, कौन जाने?
''लेकिन मेरी सिथति क्या जाप करने की है?
''आपको नहीं, जाप तो मुझे करना है आपके लिए। आप तो बस संकल्प भर कर दें।
''तो ठीक है, जिस चीज की भी जरूरत हो आप निस्संकोच यहां से लेते रहें। हां … । ठाकुर बुथाड़ सिंह ने कुछ कहने के लिए गला सापफ करना चाहा तो खांसी उभर आई। कहीं थूक के छींटे उन तक न पहुंचे इस डर से पुरोहित ने मुंह फेर लिया। खांसी का वेग थमा तो बुथाड़ सिंह गहरी सांस छोड़कर बोले- ''पंडित जी, एक आप ही थे जो सामने आकर बतिया लेते थे। अब तो आप भी मुंह फेरने लगे हैं। खैर! आपको ही क्या दोष दूं जब अपने ही सामने आने से कतराते हैं। और-तो-और घरवाली तक छूने से परहेज करने लगी है। बस भोजन-पानी और दवा-दारू देकर कमरे से बाहर निकलने की जल्दी में रहती है। जबसे यह रोग लगा बेटे और बहू की एक झलक तक देखने को तरस जाता हूं। नाते-रिश्तेदार और इलाके के लोग बाहर-बाहर से हमदर्दी जताकर खिसक लेते हैं। एक तो बीमारी ऊपर से अकेलेपन का एहसास, इन दोनों ने तो मुझे भीतर से तोड़  दिया है। सोचता हूं इस दुनिया से जितनी जल्दी उठ जाउफं, उतना ही अच्छा।
''ठाकुर साहब! धीरज रखें एक ही साल की बात तो है। साढे साती निपटी नहीं कि आपको चंगा होने में देर नहीं लगेगी। हां, अगर चिंता ही करनी है तो थोकदारी को लेकर करें। पंडित जी ठाकुर की ओर मुखातिब होकर कह बैठे।
''क्यों? क्या कोई नई बात सामने आई है? बेगार और बरदाइश लेने का अधिकार हमसे तो छीन लिया लेकिन अपने अफसरों के लिए उसे कानून सम्मत मानने में कोई हिचक नहीं। गनीमत है अभी हक-दस्तूरी की ओर इस सरकार की नजर नहीं गई।
''बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी, ठाकुर साहब। थोकदारी के पर कुतरने का तो पुख्ता इंतजाम हो चुका। सारे मामले तो अब पटवारी और तहसीलदार जैसे सरकारी मुलाजिमों को देखने हैं। ऊपर से जमीन के बंदोबस्त की जो कवायद चल रही है उससे तो थोकदारी के हाशिए पर चले जाने का पूरा खतरा है। हिस्सेदार-तो-हिस्सेदार खैकरों और यहां तक सिरतावों को भी अब जमीन छिन जाने का भय नहीं रहेगा। रहे पायकाश्त तो उनकी संख्या ही कितनी है। डर के बिना तो लोग हक-दस्तूरी भी देने से रहे। लगान भी अब आगे से नकद जमा करने की बात सुनने में आई है। यह सुनकर ठाकुर साहब का चेहरा तो पीला पड़ा ही मुंह भी खुला-का-खुला रह गया। किसी तरह खांसी रोक कर बोले-''खटका तो मुझे भी था पंडित जी। आपने और भी आंखें खोल दीं। इन फिरंगियों के नियम-कानून कुछ समझ में नहीं आते। लगता है हम लोगों के दिन लद गए हैं। अंधेरा-ही-अंधेरा नजर आता है। दुख तो इस बात का है कि यह सब मेरी ही पीढ़ी के साथ होना था। बेटा ऐसा कि भविष्य की कोई चिंता नहीं। हर बात को मजाक में लेता है। सुनता हूं कि अब मनमानी पर भी उतर आया है। सात-सात खून माफ होने की बात उछालकर लोगों को धमकाने से भी बाज नहीं आता। ना-समझी तो मैंने भी की थी और उसका परिणाम भी भोग रहा हूं। पिफर भी जहां तक खानदान के हित का सवाल है, मैंने कभी अनदेखी नहीं की। लेकिन थोबू है कि इस ओर से बिल्कुल बेखबर। पिफरंगी सरकार के तौर-तरीकों से तालमेल नहीं बैठा तो अगली पीढि़यां भीखमंगों की जमात में शामिल होने से नहीं बचेंगी। सोचता हूं तो कलेजा मुंह को आता है।
तन और मन की दुहरी चिंता में घुलते थोकदार जी को सान्त्वना देने की गरज से पंडित जी बोले-''हरि इच्छा मानकर चिंता करना छोडि़ए ठाकुर साहब। उम्र की बढ़ती के साथ बेटा भी सब सीख जाएगा। जमाने के थपेडे़ उसे सही राह पर ले आएंगे। आप सोच-सोचकर क्यों जी हलकान करते हैं। मन को शांत रखिए और सबकुछ उफपर वाले पर छोड़ दीजिए वरना हालत और गंभीर हो सकती है।
''हां! और चारा भी क्या है पंडित जी, र्इश्वर की जो इच्छा।
''अच्छा तो मैं चलूं। कल से ही जाप शुरू कर देता हूं। यह कहकर पंडित जी कमरे से बाहर हो गए। भीतर बुथाड़ सिंह पिफर से खांसने लगे थे। खांसी के साथ-साथ कराहने का स्वर थोकदन⁶ के कानों में पड़ा तो वह नीचे चली आर्इ। कमरे में प्रवेश करते ही पूछ बैठी-''आपने दवा ली कि नहीं? थोकदार जी थूकदान में कपफ के साथ पहली बार खून के कतरे देखकर परेशान थे। उदास नजरों से थोकदन के चेहरे पर देखते हुए बुझे-बुझे स्वर में बोले-''जी कर ही क्या करूंगा जो दवा लूं।
''शुभ-शुभ बोलो जी! आप ही हिम्मत हार बैठे तो हमारा क्या होगा। थोकदन ने कहा।
''मन रखने को कुछ भी कहती रहो ठकुराइन लेकिन यहां मेरी चिंता ही किसको है। कारबारी हों या सिरताव-खैकर, नाते-रिश्तेदार हों या अपनी औलाद, सब-के-सब तो दूरी बरत रहे हैं। पास पफटकने में तो सबकी नानी मरती है। तुम तो अर्धंगिनी हो मेरी, सात पफेरे लिए हैं तुमने लेकिन जब से यह रोग लगा, पास आने में कतराती हो। बतियाने तक में कंजूसी बरतने लगी हो। ऐसे बच निकलती हो जैसे मैं आदमी न हुआ अजगर हो गया जो साबुत निगल जाउफंगा।
''हाय राम! यह सोच भी कैसे लिया आपने? कौन अभागिन होगी जो अपने सुहाग के बारे में ऐसा सोचे? कहते हैं इस रोग में दूरी बरतना ही सबके हित में है। यही सोचकर मैं अपने मन पर काबू रखने का प्रयास करती हूं। नहीं तो साथ निभाने की इच्छा किसकी नहीं होती।
घरवाली के मुंह से आत्म-नियंत्राण और संयम बरतने की बात सुनकर बुथाड़ सिंह के मुंह से बोल नहीं पफूटे। एकटक पत्नी के सुघड़ चेहरे पर देखते रहे। जवानी के दिन याद आने लगे तो बोले-''थोबू की मां! सोचता हूं देर-सवेर तो मरना ही है पिफर क्यों न जीवन का भरपूर आनंद उठाकर मरें। दूर क्यों खड़ी हो? पास आकर बैठो न। और वे पत्नी की ओर सरकने लगे। पत्नी ने बरजा-''छोड़ो भी। दादा-दादी की उम्र होने को आर्इ, उफपर से ऐसी बीमारी, कुछ तो खयाल करो।
लेकिन थोकदार जी अब कहां मानने वाले थे। झटके-से खड़े हुए और हिंसक पशु की तरह थोकदन की ओर लपके। आंखों में वासना के लाल डोरों की झलक देखकर थोकदन तेजी से बाहर निकल गर्इ। वह तो हाथ क्या चढ़ती, कमजोरी के कारण बुथाड़ सिंह की टांगे लड़खड़ार्इ और माथा दरवाजे से जा टकराया। आंखों के आगे चिनगारियां उड़ने लगीं और पिफर अंध्ेरा छा गया। लेकिन दिमाग की सुर्इ बीते दिनों के भूले-बिसरे परिदृश्यों पर जाकर अटक गर्इ। याद आया कि वे भी क्या दिन थे जब उनकी इच्छा ठुकराने का साहस किसी में नहीं था और आज अपनी ही घरवाली … । थोकदारी का आहत अहंकार जाग उठा और वे गुस्से में पास के उस अंध्ेरे कक्ष में घुस पड़े जहां बहुत दिनों से बेकार पड़ा घेड़ गिंडुक दीवार के सहारे खड़ा था।
आंखें मिचमिचाकर दीवार की ओर देखा तो घेड़ गिंडुक नजर आया। भारी-भरकम अजगरी आकार और सुरसा जैसा भयानक मुंह। यातना का वह राक्षसी औजार देखते ही ठाकुर को उफपर से नीचे तक झुरझुरी दौड़ गर्इ। कान भी बजने लगे। लगा कि जैसे घेड़ गिंडुक के भीतर कैद कोर्इ अभागा असहनीय यातना के मारे अपने भाग्य पर रो रहा हो। ठाकुर को घेड़ गिंडुक के मुंह से किसी आदमी का सिर बाहर लटकता नजर आया। बेतरतीब दाड़ी-मूछों वाला वह अजीब-सा चेहरा कभी सामने आया हो, ऐसा नहीं लगा। ठाकुर बुथाड़ सिंह यह नजारा देखकर किसी दूसरी ही दुनिया में खोते चले गए। देखते क्या हैं कि घेड़ गिंडुक से उछलकर वह दढि़यल सामने आकर मुंह चिढ़ा रहा है। उसने पहला व्यंग्य बाण छोड़ा-''अपमान पी जाना और गुस्सा थूक देना नागवंशी नागों ने कब से सीखा? कोर्इ प्रतिक्रिया होती न देखकर उसने पिफर कहा-''पुरखों के प्रताप का जाप झेल नहीं पाए क्या, जो आवाज तक नहीं निकलती। घबराहट में किसी तरह थूक निगलकर ठाकुर बुथाड़ सिंह बोले-''तुम हो कौन जो इस तरह बोल रहे हो?
''मैं … मैं तुम्हारे वंश का वह इतिहास हूं जो दगा-पफरेब, जालसाजी और लाठी के बल पर लिखा गया है। धूर्तता की जिस बुनियाद पर तुम्हारी थोकदारी टिकी है उसका पहला शिकार मैं हूं। सुनना चाहते हो? तो सुनो- बात उस समय की है जब खोहद्वार का यह इलाका मैदानी लुटेरों की शिकारगाह बना हुआ था। दरबार तक खबर पहुंची तो तुम्हारे दादा को इस आशय से भेजा गया कि वे लुटेरों को मार भगाएं। वे आठ-दस सैनिक लेकर यहां पहुंचे। पहली ही मुठभेड़ में दो सैनिक लुटेरों के हाथों मारे गए। एक बघेरे का शिकार हो गया। दूसरी मुठभेड़ में लुटेरों ने घात लगाकर दो और सैनिकों का काम तमाम कर डाला। उफपर से तुम्हारे परदादा और शेष तीन सैनिक मच्छरों के मारे जूड़ी-ताप के शिकार हो गए। निराश होकर वे किसी बस्ती की खोज में थे कि एक ओर अध्मरा सैनिक अजगर के पेट में समा गया। तुम्हारे पड़दादा और उनके दो साथी यहीं गध्ेरे⁷ के किनारे एक पत्थर की आड़ में अपनी मौत की बाट जोह रहे थे। मैंने उन्हें मरणासन्न अवस्था में देखा तो मुझसे रहा नहीं गया। मैं उन्हें अपने दो भाइयों की मदद से घर ले आया। हमारी सेवा-सुश्रुषा से वे कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गए। हां, तुम्हारे पड़दादा ध्ुन के तो सचमुच पक्के थे उन्होंने मुझे और गांव के दूसरे जवानों को भी अपनी मुहिम में शामिल कर लिया। एक मुठभेड़ में तुम्हारे पड़दादा के प्राण संकट में थे लेकिन मौके पर मेरी सूझबूझ ने पासा पलट दिया। खूंखार लुटेरा सरदार मारा गया। बाकी लुटेरे भाग खड़े हुए। इलाके को उनके आतंक से मुकित मिल गर्इ। लेकिन हमारे सरसब्ज गांव को देखकर तुम्हारे पड़दादा की आंखों में जो चमक पैदा हुर्इ उसका मतलब बाद में ही मालूम हो पाया।
हमारे पुरखों ने गांव की यह जमीन जंगल से छीनी थी। उसकी उर्वरता देखकर वे स्थायी बस्ती बसाने को प्रेरित हुए थे। गध्ेरे से गूल इस तरह निकाली गर्इ कि गांव की एक इंच भूमि भी असिंचित नहीं रह पार्इ। पूरा-का-पूरा गांव एक सेरे⁸ के रूप में उभर आया। गांव के नीचे भाबर का विशाल वन और सिर पर बांज-बुरांसों का शीतल जंगल। यह सब देखभाल कर तुम्हारे पड़दादा अपने दो साथियों के साथ राज-दरबार में अपनी कामयाबी की वाहवाही लूटने विदा हो गए। बात आर्इ-गर्इ हो गर्इ। लेकिन एक दिन वे घोड़े पर सवार हो थोकदारी का पटटा लेकर आ ध्मके। उनके साथ राज्य के दो सैनिक और एक पंडित जी भी थे। आते ही सबसे पहले मेरी पुकार हुर्इ। और जिस अकड़ के साथ मेरा चार नाली⁹ का खेत कोठे के लिए मांगा गया, सुनकर मैं तो हक्का-बक्का रह गया। कुछ कह नहीं पाया तो पंडित जी बोले-''देखो भार्इ! जमीन की तो कोर्इ कमी यहां है नहीं लेकिन वास्तुशास्त्रा के अनुसार तुम्हारा यह खेत कोठे के लिए सबसे शुभ ठहरता है। मैंने मिटटी का परीक्षण करके भी देख लिया है। देखो यह तो नागवंशी ठाकुर की भलमनसाहत है जो तुमसे जमीन का एक टुकड़ा मांगने की नम्रता बरत रहे हैं। मैं पिफर भी कुछ नहीं बोला तो नए-नए थोकदार जी ने पफरमाया- 'मैं तुम्हारा अहसान नहीं भूला हूं भार्इ। लेकिन पंडित जी का कहना है कि यही खेत कोठे के लिए सबसे उत्तम है तो क्या करें। इसके बदले तुम यहां चाहे जितनी जमीन ले लो मुझे कोर्इ आपत्ति नहीं।
इस पर मैंने कहा- 'इस खेत की उपज की भरपार्इ तो दूसरी जमीन शायद ही कर पाए। पिफर यहां आपकी कौन-सी जमीन है जो बदले में आप मुझे देने का सौजन्य बरत रहे हैं। उत्तर नहीं बन पाया तो पंडित जी यजमान की मदद को आगे आए। वे प्रश्न-पर-प्रश्न उछालते गए और खुद ही उत्तर भी देते गए। बोले-'यह ध्रती, यह दुनिया किसने बनार्इ? ईश्वर ने। तो पिफर यह दुनिया किसकी जागीर है? ईश्वर की। और ईश्वर ने इसकी देख-रेख का काम किसको सौंपा है? राजा को। और राजा ने किन लोगों में अपना दायित्व बांटा है? थोकदार-जमींदारों में। तो पिफर इलाके भर की जमीन किसकी हुई? थोकदार जी की। ध्र्मशास्त्रा तो यही कहते हैं भाई! वैसे तुम जानो। और मैं अनपढ़-गंवार भला क्या कहता। धर्मशास्त्र ने तो मेरी बोलती ही बंद कर दी थी।
दूसरे ही दिन मेरे उस खेत में कोठे के लिए नींव खुदने लगी। इलाके भर के सारे जवान मर्द-औरतों को प्रभु सेवा में जोत दिया गया। कुछ लोग चिनार्इ के पत्थर निकालने लगे। कुछ छवार्इ के पठाल¹⁰ तो कुछ लोग जंगल में इमारती लकड़ी तैयार करने में जुट गए। एक विशाल पेड़ के तने को घेड़ गिंडुक का आकार लेते भी हमने पहली बार देखा। इलाके भर के नामी ओड¹¹ भी धर लिए गए थे। थोकदार जी के कोठे की चिनार्इ साधरण बेजड़¹² से तो होनी नहीं थी सो इलाके भर से उड़द की ढेरों दाल इकटठा की गई। यहां तक कि शादी के लिए जमा उड़द भी छीन ली गर्इ। गांव की औरतों को उड़द की पीठी बनाने में जोत दिया गया। और इस तरह तुम्हारे पुश्तैनी कोठे ने आकार ग्रहण करना शुरू किया। पूरा होने पर परिवार भी आकर घेड़ गिंडुक के साथ यहां रहने लगा। लेकिन थोकदार जी परिवार के प्रति निष्ठावान होने के कायल कभी नहीं रहे। अपनी अमलदारी के चार अन्य गांवों में भी रखैलों के लिए प्रभु सेवा में घर बने। इन घरों में थोकदार जी का आना-जाना बारी-बारी लगा रहता। रखैलों में से किसी को उठा लाए थे तो कोर्इ उनके रौबदाब के मारे खुद ही गले पड़ गर्इ थी। खैर यहां तक तो गनीमत थी लेकिन जब एक बादिन¹ को कोठे में ही अपनी हवस का शिकार बना बैठे तो मुझसे नहीं रहा गया। बेचारा मंगतू बादी¹⁵ मेरे पास आया था। उसने बताया कि वह कुछ पाने की गरज से थोकदार जी की सेवा में हाजिर हुआ था लेकिन अपनी बादिन से ही हाथ धे बैठा है। थोकदार जी ने बलात उसे कोठे में बंद कर दिया है। विरोध् किया तो घेड़ गिंडुक की यातना भोगने से किसी तरह बचकर निकल आया है। मैंने उसे अपने साथ चलने को कहा लेकिन वह थोकदार जी के सामने जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। मैं अकेले ही थोकदार जी के पास जा ध्मका। पहुंचते ही पूछ बैठा-'ठाकुर साहब बादिन को आपने कहां छिपा रखा है? इस पर तुम्हारे पड़दादा ने जलती आंखों से मेरी ओर ताका और बोेले- 'खसिया की औलाद, तेरी इतनी हिम्मत! मंगतू बादी क्या तेरा रिश्तेदार लगता है? समझा, तू समझता है कि कभी एक लुटेरे के प्रहार से बचाकर तूने मुझ पर एहसान किया था, इसलिए जो चाहे मेरे मुंह पर कह सकता है। लेकिन एहसान किस बात का? राज-दरबार ने मुझे जो काम सौंपा था, प्रजा के नाते उसमें हाथ बंटाना क्या तुम्हारा पफर्ज नहीं था? आज तक मैं तुम्हारी हर गुस्तखी मापफ करता रहा लेकिन अब और नहीं। जानता है ये बेड़े-मेढ़े बड़े टेढ़े होते हैं। दबाकर न रखो तो सिर पर ता-थैया करने लगते हैं। इन कंगाल भिखमंगों की झोली में बिरमा जैसी नारी-रतन की बेकæी नहीं देखी जाती। मैं तो उसे दरबार तक पहुंचाना चाहता हूं, समझे!
इस पर मैं बोल उठा-'ठाकुर आप और यह ध्ंध! सुनना था कि उनकी आंखों में खून उतर आया। वे मुझे छज्जे से नीचे पफैंकने ही वाले थे कि 'जैजिया¹⁴ चंडी का रुप धरण कर बिरमा की बांह पकड़े नीचे उतर आर्इ। थोकदार जी सकपकाकर रह गए। देखते-ही-देखते बिरमा को लेकर ठाकुर और ठकुराइन में तू-तू मैं-मैं होने लगी। ठाकुर ने लताड़ा, बोेले-'बेहयार्इ की हद हो गर्इ। कल तक तो छज्जे से नीचे कदम नहीं रखे और आज एक पराए मर्द के सामने उघाड़े मुंह चली आर्इ। उफपर से जबान लड़ाती हो और वह भी एक कमजात बादिन जैसी नचनी के लिए। भला चाहती हो तो चुपचाप उफपर चली जाओ। मेरे काम में दखल देने की हिमाकत न करो तो अच्छा है, सरेआम कुल की इज्जत उछाल रही हो तुम।
''कुल की इज्जत! उँह, वह तो कब की नीलाम कर चुके नागवंशी ठाकुर। मैं आज तक सब सहती रही। रखैलों से तुम्हारे संबंध् तो जगजाहिर हैं ही, यहां गांव में भी कौन-सी ऐसी बहू-बेटी है जिसकी इज्जत से खिलवाड़ करने का प्रयास तुमने न किया हो। लाज-शरम के मारे कोर्इ कुछ नहीं बोले, तो तुम शेर बन गए। मैं कोर्इ रखैल नहीं ब्याहता पत्नी हूं तुम्हारी। अपने इस कोठे को मैं बार्इ का कोठा नहीं बनने दूंगी। इस बेचारी में तो मुझे अपनी बेटी नजर आती है और तुमने इसी से अपना मुंह काला किया।
इस पर थोकदार जी कुछ हतप्रभ होकर बोले- ''तुम हद पार कर रही हो ठकुराइन। नागवंशी ठाकुर ऐसा अपमान सहने के आदी नहीं। तुम सरासर इल्जाम थोप रही हो। आखिर मैं पति हूं तुम्हारा। इसने कहा और तुमने मान लिया। अरे, इनका तो यह पेशा ही है। यही तो एक हथियार है इनका जिससे ये अपना मतलब निकालने की कला बखूबी जानते हैं। मैंने तो इसकी कंगाली पर तरस खाकर राज-दरबार पहुंचाने की सोची थी। लेकिन कोर्इ किसी का भाग्य थोड़े ही बदल सकता है।
इस पर ठकुराइन बोल उठी- ''तो नागवंशी ठाकुर बहू-बेटियों का भाग्य भी बदलने लगे! सोचते होंगे दरबार को खुश करके और बड़ा इलाका हथिया लेंगे। हे भगवान! कैसे आदमी से पाला पड़ा। मैं यह सब देखने से पहले मर क्यों नहीं गर्इ। और ठकुराइन ने माथा पीट लिया। ठाकुर और ठकुराइन की इस कहा-सुनी के बीच मंगतू बादी आया और बिरमा का हाथ पकड़कर जाने लगा। ठाकुर ने हाथ आया शिकार जाते देखा तो बौखलाकर चीख उठा- ''बेड़े की औलाद ठहर। बिरमा अब तेरी घरवाली नहीं, दरबार को समर्पित इस इलाके की एक तुच्छ भेंट है। रोकने के लिए आगे बढ़ने का प्रयास किया तो ठकुराइन आड़े आ गर्इ। ठाकुर का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। बोेले-''ठकुराइन बहुत हो गया। हट जा मेरे आगे से वरना अच्छा नहीं होगा। ठकुराइन बोल उठी- ''क्या कर लोगे? बोलो! मैं भी कोर्इ ऐसी-वैसी नहीं जो घुड़की में आ जाउफँ। कत्यूरी खानदान की बेटी हूं मैं भी। मर जाउफंगी पर अपनी आँखों के आगे ऐसा अन्याय नहीं होने दूंगी।
और ठाकुर किंकत्र्तव्यविमूढ़ होकर रह गए। खिसियाकर मेरी ओर मुखातिब हुए और बोले- ''देखा तुमने, ठकुराइन पागल हो गर्इ है। कोर्इ पति का ऐसा विरोध् करता है भला। मैंने कहा-''जैजिया गलत नहीं है ठाकुर, जरा सोचकर तो देखें। इस पर ठाकुर ने त्यौरी चढ़ाकर मेरी ओर ताका और पिफर सीढि़यों से उफपर चढ़ती थोकदन को इस तरह घूरा जैसे निगल ही जाएंगे। मंगतू और बिरमा नजरों से ओझल हो चुके थे। अपने इरादों पर इस तरह पानी पिफरता देख ठाकुर तब तो हाथ मलते रह गए लेकिन उस अपमान को भूल नहीं पाए। मंगतू और बिरमा को खोज निकालने का प्रयास भी असपफल रहा। वे तो इलाका ही छोड़कर कहीं दूर जा छिपे थे। जल्दी ही ठाकुर के भीतर बैठी बदले की कुत्सा ने अपना खेल खेलना आरंभ कर दिया। पहली शिकार तो ठकुराइन ही हुर्इ। एक सुबह पता चला कि वे चल बसी हैं। मुझे उनके पफूल सिराने हरिद्वार जाने का आदेश हुआ। आदेश के पीछे ठाकुर के इरादे को भांपना मेरे बस में नहीं था। मैं हरिद्वार के लिए कुछ ही दूर निकल पाया था कि अचानक दो नकाबपोशों ने जंगल के एक मोड़ पर मुझे घेर लिया। एक ने पीछे से वार किया और ताबड़तोड़ इतने प्रहार हुए कि मैं बेहोश होकर गिर पड़ा। होश आया तो खुद को इस घेड़ गिंडुक के भीतर जकड़ा पाया। तुम्हारे पड़दादा सामने खड़े थे। भेदभरी मुस्कान के साथ बोले- ''क्यों रे, जैजिया तो गलत नहीं थी, पिफर भी दुनिया छोड़ गर्इ? हां, उफपरवाले को भी अच्छे लोगों की जरूरत होती है तो कोर्इ क्या करे। और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वे बाहर निकल गए। मैं अध्मरा इस घेड़ गिंडुक के भीतर कब तक जिंदा रहा, यह तो मुझे मालूम नहीं किंतु मेरी भटकती आत्मा ने ठाकुर की भूखी वासना का नंगा नाच बखूबी देखा है। ठकुराइन की मौत का भेद भी कोठे की दीवारों से बाहर नहीं जा सका। उनके न रहने पर बेलगाम ठाकुर आखिर राजरोग का शिकार हुआ और सौगात स्वरूप अपनी अगली पीढि़यों को भी सौंप गया। मेरी हत्या का रहस्य भी लोगों पर नहीं खुला। लोग तो यही जानते-मानते हैं कि हरिद्वार आते-जाते मैं किसी जंगली जानवर का शिकार बन गया। सुना है कि ठाकुर ने अपने कारिंदों से तब मेरी खोजबीन का नाटक भी करवाया था। इतना कहकर वह आÑति देखते-ही-देखते न जाने कहां तिरोहित हो गर्इ। उसकी जगह एक दूसरी ही आÑति उभर आर्इ। अपनी ओर इशारा करके वह आÑति बोल उठी- ''देख रहे हो ठाकुर, यह मेरा नीला पड़ा शरीर। यह तो कुछ भी नहीं, मेरी आत्मा में जो जहर घोला गया उसके असर का तो कोर्इ हिसाब ही नहीं। बात तब की है जब गोरखा-आंध्ी के आगे 'बोलंदा-बदरीश¹⁶ की सत्ता टिक नहीं पार्इ। हमारे कुछ खानदानी शेरों ने अनाचारियों के आगे घुटने ही नहीं टेके बलिक उनकी आड़ में अपनी कुतिसत इच्छाएं भी पूरी करने लगे। जाने कौन-सी अशुभ घड़ी थी जब अचानक पधन¹⁷ जी की तिबारी¹⁸ से मेरी बुलाहट हुर्इ। पधन जी के आंगन के एक ओर नारंगी के पेड़ पर थोकदार जी का घोड़ा बंध देखकर मैं न जाने कैसी-कैसी आशंकाओं में डूबने-उतराने लगा। तिबारी में पहुंचा तो वहां मौजूद लोगों के चेहरों पर मुर्दनी छार्इ देख मेरा रहा-सहा ध्ैर्य भी चूक गया। थोकदार जी मूछों पर ताव देकर मेरी ओर ताक रहे थे। उनके इशारे पर पधन जी बोले- ''चैतू भार्इ! थोकदार जी हम लोगाेंं की कितनी चिंता करते हैं आज पता चला। इतनी दूर से दौड़े चले आए कि हम लोग किसी मुसीबत में न पफंस जाएं। थोकदार जी को पता चला है कि गोरखा नायक तुम्हारी बेटी की पिफराक में हैं। अगर हम लोगों ने विरोध् किया तो पता नहीं क्या हो। हो सकता है गोरखे गांव के सभी जवान लड़के-लड़कियों को बतौर दास-दासियों के बेच देने की सोचें। इस टेढ़ी समस्या से निजात पाने की जो तरकीब थोकदार जी ने सोची है, मुझे तो उसी में गांव का भला नजर आता है। वैसे तुम जानो।
मुझे काटो तो खून नहीं। कुछ कहना ही नहीं आया। थोकदार जी ने खांसकर चुप्पी तोड़ी, बोले- ''गोरखे तो पिफलहाल कहीं दून की ओर गए हैं। सुना है वहां पिफरंगियों से खतरा पैदा हो गया है। कहीं लौट आए तो क्या होगा, यही सोचकर परेशान हूं। हमारी बहू-बेटियों की इज्जत पर कोर्इ बाहर वाला हाथ डाले, यह तो हमारे लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात होगी। सोचता हूं कि लड़की को मैं स्वयं अपने सरंक्षण में ले लूं। ऐसा होने पर गोरखे सौ बार सोचने को मजबूर होंगे। वे जानते हैं कि अगर हम जैसों ने उनका साथ नहीं दिया तो वे यहां टिक नहीं पाएंगे। सवाल एक घर की इज्जत का नहीं, पूरे गांव और इलाके की इज्जत का है। मेरी अमलदारी में ऐसा कुछ हो भला मैं यह कैसे सहन कर सकता हूं। मैं आज ही लड़की को अपने साथ ले जाने आया हूं।
थोकदार जी के मन की गहरार्इ में उतरकर झांका तो खून के आंसू पीकर रह गया। हाथों के तोते उड़ गए। दिल बैठ गया। रूंध्े गले से बस इतना भर बोल पाया- ''लेकिन अगले महीने तो उसके हाथ पीले करने हैं?
''तो क्या हुआ? मामला ठंडा पड़ने पर यह भी हो जाएगा। थोकदार जी स्वयं कन्यादान कर देंगे। चिंता किस बात की? पधन जी बोल उठे।
सभी की राय वही थी मैं क्या करता। एक उमरदार रोगी के साथ बेटी को जाते देखकर मेरी छाती दरककर रह गर्इ। उसकी मां तो रो-रोकर अपनी आंखें ही पफोड़ने पर तुल गर्इ थी। लेकिन हमारे पास चारा भी क्या था। छाती पर पत्थर न रखते तो क्या करते। समधियाने खबर पहुंचा दी कि लड़की पिफलहाल अपने ननिहाल गर्इ है। लेकिन कहीं उन्हें पता चल गया तो? इसी आशंका के मारे मैं एक दिन थोकदार जी के कोठे पर जा पहुंचा। सोचा था कि अगर लड़की को सकुशल वापिस ला सका तो इज्जत मिटटी होने से बच जाएगी। थोकदार जी बड़े प्यार से मिले। खुद ही बोले- ''गोरखों का खतरा तो टल गया। पिफरंगी उन्हें ध्ूल चटाकर आगे बढ़ रहे हैं लेकिन आपसे विनती है कि लड़की को वापस ले जाने की बात न करेंं। यहां ठकुराइन की तबीयत ठीक नहीं रहती। परिचर्या के लिए उन्हें एक जवान हाथ की जरूरत है। और आपकी बेटी इस काम को बखूबी निभा रही है। अगर वह यहीं रहे तो कैसा रहे?
''लेकिन उसकी तो शादी तय है। मैंने कहा।
''तो क्या हुआ? समझ लो कि उसके भाग्य में यही घर लिखा था। थोकदार जी बोले।
''यह क्या कह रहे हैं, ठाकुर। मेरी तो बिरादरी में नाक कट जाएगी। लोग थू-थू करेंगे। कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह पाउफंगा मैं। पिफर अपनी उमर तो देखो ठाकुर?
''अरे! अभी तो साठ पर भी नहीं पहुंचा। और मर्द तो साठे पर पाठा होता है। हमसे संबंध् जुड़ना क्या तुम्हें पसंद नहीं?
''नहीं! बिल्कुल नहीं! मैंने चीखकर कह तो दिया मगर विश्वास के पांव डगमगा रहे थे। ठाकुर ने एक व्यंग्य भरी मुस्कान मेरी ओर पफेंकी पिफर अपने कारिंदों को सुनाते हुए बोला- ''लगता है इनकी समझदारी का दायरा बहुत तंग है। कुछ ऐसा करो कि बात इनकी समझ में आ जाए। इतना कहकर थोकदार जी एक ओर हट गए। पिफर क्या था, उनके दो लठैत यमदूतों की तरह मुझे घेर बैठे। एक बोला- ''क्यों रे! बछिया के ताउफ! थोकदार जी बेटी का हाथ मांग रहे हैं और तू इनकार कर रहा है। दूसरे ने कहा- ''बौड़म है या पूरा पागल! इतने उफंचे खानदान से रिश्ता जुड़ा और तू है कि तोड़ने की बात कर रहा है।
''कहां का रिश्ता और कैसा रिश्ता? गुस्से में मैं चीखा।
''अरे! तू दुनिया को बेवकूपफ समझता है क्या? तब जवान बेटी को चुपचाप थोकदार जी के साथ क्या सोचकर भेजा था? रिश्ता तो उसी दिन तय हो गया था। बेटी क्या कुंवारी बैठी है अभी तक। वह तो कब की छोटी ठकुराइन बन चुकी। शेर की मांद में घुसकर उसके मुंह से शिकार छीन लेगा क्या? पहले ने ध्मकी भरा सवाल किया तो दूसरे ने जोड़ा- ''पिददी न पिददी का शोरबा! छोटी मालकिन को कहीं और ब्याहेगा? अकल के अंध्े! तूझे तो खुश होना चाहिए कि तेरी बेटी राज कर रही है। यह सब सुनने पर भी जब मैंने अपनी जिदद नहीं छोड़ी तो वे दोनों मुझे यहां ले आए। मार बांध्कर जबरन घेड़ गिंडुक में ठूंस दिया गया। बहुत दिनों से खाली पड़ा घेड़ गिंडुक चूहों का घर बन चुका था। नागराज को भनक लगी तो दावत उड़ाने उसके भीतर घुस आए थे। ठुंसा-ठांसी में मेरे पैरों का दबाव नागराज के गले पर पड़ा तो उसमें पफंसा चूहा बाहर निकल भागा और नागराज ने पलटकर मुझे ही काट खाया। पांव से सिर तक दर्द की ऐसी लहर उठी कि मैं घेड़ गिंडुक से न जाने कैसे बाहर छिटक पड़ा। नागराज भी पफन उठाए बाहर रेंग आए। दोनों लठैत चिल्लाए- ''सांप! सांप! मुझे नीला पड़ता देख उनके चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं। उनकी घबराहट भरी चिल्लाहट से कोठे में कुहराम मच गया। थोकदार जी खांसते, गिरते-पड़ते आए। नागराज अभी तक पफन पफैलाए घूरता नजर आया। मेरी आंखें मुंद रही थीं। उनमें मौत की छाया देखकर थोकदार जी सिथति भांप गए। मुझे घेड़ गिंडुक के पास से खींचकर सीढि़यों पर लिटा दिया गया। वे शायद मेरा हठ छुड़ाना चाहते थे, जान लेने का उनका इरादा नहीं था। और इसीलिए मेरे साथ जो कुछ घटा उसे एक दुर्घटना का रूप दे दिया गया। ठकुराइन के साथ बेटी आर्इ। बाप की दशा देखकर चीख मारकर गिर पड़ी। ठकुराइन ने उसे बड़ी मुशिकल से संभाला। कुछ और लोग भी जमा हो गए। भीड़ की बढ़ती नागराज को रास नहीं आर्इ और वह पफुपफकार छोड़ते हुए नीचे झाडि़यों में गायब हो गया। थोकदार जी ने जहर उतारने वाले तांत्रिक को तुरंत लाने का आदेश अपने लठैत को दिया तो सही लेकिन उसके रवाना होने से पहले ही मेरे प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। मेरे साथ जो कुछ बीती, वह आज तक किसी को पता नहीं है। हां, यह घेड़ गिंडुक ही उसका एकमात्रा साक्षी है।
उस आÑति के गायब होते ही एक और चेहरा सामने आ गया। बोला- ''ठाकुर, पहचाना? बचपन के दिन याद करो। तब तुम यही दस-ग्यारह साल के रहे होगे। तुम्हारे पिता को अल्मोड़ा पिफरंगी के पास जाना था। पिफरंगी सरकार का आदेश था कि सारे कमीण-थोकदार और अहलकार अपनी अमलदारी का सबूत लेकर अल्मोड़ा पहुंचे। उतनी दूर पैदल पांव नापने का तो सवाल ही नहीं था। डांडी¹⁹ बोकने के लिए आठ-दस तगड़े जवान छांटे गए और दुर्भाग्य उनमें मेरा अपना वह बेटा भी था जिसका विवाह उसी बीच होना तय था। मैंने थोकदार जी से विनती की लेकिन वे कब मानने वाले थे। बोले- 'तो क्या हुआ? तुम खसियों में तो वर की अनुपसिथति में भी विवाह संपन्न हो जाता है। दुल्हन से केले के सात पफेरे लिवा लिए और मुहर लग गर्इ। हम बाप-बेटे इसके लिए तैयार नहीं थे। बेटा कहीं दूर की रिश्तेदारी में चला गया। उसके भाग जाने की खबर थोकदार जी के कानों में पड़ी तो उनके लठैत मुझे ही पकड़ ले गए। लड़के को वापस बुलाने के लिए मुझ पर दबाव डाला गया। मैंने हाथ जोड़े, पैरों पड़ा और जोर देकर कहा कि वह बिना बताए ही कहीं चला गया है लेकिन थोकदारी हठ के आगे मेरी क्या चलती। मालिक थे, ठान ली तो ठान ली। जमीन छीन लेने और गांव से बेदखल कर देने की ध्मकी ही नहीं दी गर्इ बलिक मार-बांध्कर मुझे इस घेड़ गिंडुक के हवाले कर दिया गया। मेरी दुर्दशा का पता जब बेटे का लगा तो वह लौट आया। मैं तो घेड़ गिंडुक में पड़ा-पड़ा मौत की घडि़यां गिन रहा था। करवट बदलना तो दूर रहा, वहां तो टस-से-मस होना भी दूभर था। हाथ-पैर सीध्े तने हुए, पैरों से गरदन तक पसीने से तरबतर हाजत हुर्इ तो वहीं- विष्टा और मूत से सराबोर नरक की यातना भोग ही रहा था कि अचानक मुझे छोड़ देने का आदेश हो गया। लेकिन उतने दिनों सीध पड़े रहने का यह परिणाम निकला कि कमर से नीचे बिल्कुल बेजान होकर रह गया। टांगों ने काम करना बंद कर दिया और मैं एक अपाहिज की जिंदगी जीने पर मजबूर हो गया। जितने दिन जिंदा रहा रोते-कलपते ही बीते।
आप-बीती सुनाकर वह चेहरा भी न जाने कहां अन्तर्धन हो गया। उसके गायब होते ही एक के बाद एक कर्इ चेहरे सामने आए। उनकी शिकायतें भी लगभग एक जैसी थीं। उन्हें हक-दस्तूरी न चुका पाने या भेंट-पिठार्इ न पहुंचाने के आरोप में कुछ समय के लिए घेड़ गिंडुक का आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा था। अंत में एक ऐसा चेहरा प्रकट हुआ जिसकी अंध्ी आंखों से निकलने वाली अदृश्य चिंगारियों को थोकदार जी सहन नहीं कर पाए। उसने कहा- ''ठाकुर मुझे तो मारने के बाद भी तुम शायद ही भुला पाओ। अपनी मान-मर्यादा पर पड़ने वाली चोट क्या होती है, यह अनुभव तो तुम्हें मेरे ही कारण हुआ था। हमारी बहू-बेटियों से मनमाना खेल खेलना तो तुम लोग अपना अधिकार समझते रहे। तुम्हारे लेखे हम खैकर-सिरतान और उफपर से खसिया भला किस बूते तुम्हारी बगिया में सेंध् लगाने का दुस्साहस करते। मेरा कसूर इतना ही तो था कि मैंने तुम्हारी बहन को डूबने से बचाया था। कान के कच्चे तो तुम जनम से ही थे। किसी ने कान भरे कि मैं उस पर बुरी नजर रखता हूं और तुमने सच मान लिया। घेड़ गिंडुक के हवाले कर जिस बेरहमी से मेरी आंखों की रोशनी छीन ली गयी, उसकी मिसाल शायद ही कहीं और मिले। अपनी अंध्ेरी दुनिया में मैंने जो कुछ भोगा, मेरी आत्मा आज तक भुला नहीं पार्इ। यह देखकर भी भीतर की आग शांत होने का नाम नहीं लेती कि मेरी दुनिया में अंध्ेरा करने वाला आज अपने नसीब पर आठ-आठ आंसू रो रहा है। ठाकुर, तुमने और तुम्हारे पुरखों ने जो कुछ किया उसका परिणाम यही तो होना था। बुरे काम का परिणाम बुरा नहीं तो क्या भला होगा?
उसकी अंध्ी आंखों ने ठाकुर का मन कुछ-का-कुछ कर दिया। करतूत याद आर्इ तो सोचने-समझने की सलाहियत भी जाती रही। बाहर-भीतर जैसे अंध्ेरा छा गया और लगा कि अब तक देखे सारे चेहरे उसे घेरकर बदला लेने पर उतर आए हाें। बाहर भागना चाहा तो घेड़ गिंडुक से ऐसी ठोकर लगी कि संभल नहीं पाए। दीमक खाए कमजोर आधर वाला घेड़ गिंडुक ऐसा लुढ़का कि घेड़ गिंडुक ऊपर और ठाकुर नीचे। उफपर से सिर इतनी जोर से दीवार से जा टकराया कि दर्द के मारे बेचारे ठाकुर का हाथ-पैर मारना भी किसी काम नहीं आया।
और ठीक उसी समय बेटे ने आकर उध्र झांका तो दंग रह गया। घेड़ गिंडुक के नीचे दबा ठाकुर एक भारी-भरकम मंेंढक की तरह पिचका हुआ कबका टें बोल चुका था। बेटे ने घेड़ गिंडुक को एक ओर हटाने का प्रयास किया लेकिन अकेले उसके बस की बात भी कहां थी। अपनी ही अमलदारी के एक गांव से वह बहुत गुस्से में लौटा था। दिमाग तो वैसे ही काम नहीं कर रहा था। बाप की सेहत के लिए किसी सिरतान ने बकरे की मांग ठुकरा जो दी थी। गांव के दूसरे लोग भी जब उसी सिरतान का साथ देने लगे तो वह बंदूक लेने आया था उन Ñतघिनयों को सबक सिखाने। लेकिन यहां तो बाप की सर-परस्ती से ही हाथ धे बैठा था। चिल्लाकर मां को आवाज दी। थोकदन आकर रोने-चिल्लाने लगी तो गांव को भी खबर हो गयी। लोग आए तो सही लेकिन छूत लगने के डर से कोर्इ लाश छूने को तैयार नहीं था। यहां तक कि अपने कारिंदे भी सिर झुकाए एक ओर खड़े थे। बेटे ने आव देखा न ताव, भीतर से बंदूक उठा लाया और लोगों की ओर तानकर घोड़ा दबाने ही वाला था कि किसी ने पीछे से आकर बंदूक छीन ली। वह कोर्इ और नहीं पटटी-पटवारी थे जो पड़दादा की किसी रखैल की तीसरी पीढी में से थे और उस नाते चाचा लगते थे। पटवारी जी बोले- ''पागल हो गया क्या थोबू? गोली चलाकर पफांसी चढने का शौक चर्राया है क्या? वे दिन हवा हुए जब हमारा वचन ही कानून था, क्यों कानून अपने हाथ में लेता है? लाश का निरीक्षण करते हुए पिफर बोले- ''लगता है भार्इ साहब मरे नहीं मारे गये हंै। हत्या की गयी है इनकी। पहले सिर पर चोट मारी गर्इ और पिफर घेड़ गिंडुक इनके उफपर गिरा दिया गया। जिसने भी यह अपराध् किया है वह सामने आए अन्यथा सारे गांव को बांध् ले जाउफंगा। यह सुनना था कि सारे लोग सकते में आ गए । सबको जैसे काठ मार गया। बोलती बंद हो गयी। मरघट के उस सन्नाटे को तोड़ते हुए पटवारी ने आंसू बहाती थोकदन से पूछ लिया- ''भाभी, आपने किसी को आते-जाते या भार्इ साहब से बतियाते तो नहीं देखा?
इस पर थोकदन ने बताया कि उसने न तो किसी को आते-जाते देखा और न बतियाते सुना। हां, कुछ ही देर पहले वह खुद दवा पिलाकर जब बाहर निकल रही थी तो थोकदार जी भी उसके पीछे हो लिए थे, वह तो उफपर अपने कक्ष की ओर चली आर्इ थी। छज्जे से नीचे आंगन पर थोकदार जी को इसी कोठरी की ओर बढ़ते देखा था। सोचा शायद यों ही मन बहलाने निकले हैं। उसके बाद क्या हुआ उसे कुछ पता नहीं।
पटवारी ने अब दूसरे कोण से सोचना आरंभ कर दिया। कहीं ऐसा तो नहीं कि अंध्ेरे कमरे में घेड़ गिंडुक से बुरी तरह टकरा जाने के कारण यह कांड घटा हो। लाश के ओर नजदीक जाकर देखा तो दायें पैर के जख्मी अंगूठे ने पटवारी के हत्या वाले शक का निवारण कर दिया। बोले- ''मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद भार्इ साहब की मिटटी पलीद हो। मामला तो दुर्घटना का ही अधिक लगता है। किसी का हाथ होने की संभावना नजर नहीं आती। लेकिन आप लोग अभी तक चुपचाप खड़े तमाशा देख रहे हंै। थोकदार जी घेड़ गिंडुक के नीचे मरे पड़े हैं और किसी में कोर्इ हरकत नहीं। अपने सरपरस्त को इस दशा में देखकर भी आप लोग चुप हैं, ताज्जुब है।
इस पर कोर्इ पफुसपफुसाया- ''छूत का रोग जो है …
''छूत लगे या भूत, कंध तो देना ही होगा। अगर कहीं शव परीक्षण के लिए ले जाना पड़ता तो क्या तुम्हारे पुरखे आते? बहुत देर हो चुकी, जल्दी करो।
पटवारी के जोर देने पर लोग हरकत में आए और थोकदार जी का अंतिम संस्कार जैसे-तैसे संपन्न हो गया।
शव-दहन के बाद लोग कोठे पर लौटे ही थे कि रास्ते पर कुछ ढांकरी²⁰ बैठे दिखार्इ दिए। अपने बोझ खेत की मेड़ पर उतारकर वे गीत गाने में मशगूल थे। एक ने टेक उठार्इ-
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿
(हे मेरी भाभी अब तो जाग)
दूसरों ने लंबी तान खींचकर साथ देना आरंभ किया-
गैड़ी च झूमक-डांडि-कांठयों घाम मेरी बौ गदन्यूं रूमक।
(झुमके गढ़े गए ;तुक के लिएद्ध धूप ऊंचे पर्वत-शिखरों पर पहुंच गई,
नदी-घाटियों में अंधेरा झूलने लगा है।)
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿
(हे मेरी भाभी! अब तो जाग)
गैड़ी जाली बीछी- अगि बटी द्वाड़ा दी मैची अब केन खाई गिच्ची।
(पैरों के बिछुवे गढ़े जाएंगे ;तुक के लिए)
पहले तो प्रत्युत्तर दे रही थी, अब तेरे मुंह को क्या खा गया?
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿ ।।
(हे मेरी भाभी! अब तो जाग।)
उनका इस तरह उल्लासपूर्वक गीत गाना बाप की क्रिया में बैठे नए थोकदार को रास नहीं आया। बस क्या था, उठकर बाहर निकल आया। बंदूक अपनी ओर तनी देखकर ढांकरियों की तो सिटटी-पिटटी गुम हो गर्इ। किसी तरह साहस जुटाकर उन्होंने बताया कि वे तो कहीं दूर दूसरे इलाके के हैं लेकिन उनकी एक नहीं चली। कहा गया कि हैं तो वे उसी इलाके में जहां के थोकदार जी का आज ही निध्न हुआ है। ऐसे में गीत गाने का दंड तो उन्हें भोगना ही पड़ेगा। उन्होंने बहुत कहा कि उन्हें पता ही नहीं था लेकिन उनकी सुनता कौन? जबरन उनके बोझ घेड़ गिंडुक वाले कक्ष में रखवा दिए गए और मृतक के नाम उन सबके सिर मुंडवाने का आदेश दे दिया गया। पता नहीं कौन-सी सनक सवार हुर्इ कि कुछ के आध्े सिर तो कुछ की आध्ी मुंछ छोड़ दी गर्इ। यही तमाशा दाढि़यों के साथ भी किया गया। उनमें एक-दो तो ऐसे भी थे जिनके मां-बाप अभी जिंदा थे लेकिन आपत्ति करने पर भी उन्हें नहीं छोड़ा गया। जो भी उन्हें देखता छिप-छिप कर मुस्करा उठता। वे बेचारे करते भी क्या? थोकदार जी की बंदूक और घेड़ गिंडुक का भय जो सामने था। विरोध् करने का साहस वे क्या खाकर जुटा पाते? बेचारे मन मसोसकर रह गए। अब तो तेरहवीं होने पर ही छुटटी मिलनी थी।
सैंकड़ोें लोगों के भोजन के लिए रसद इकटठी करने, पकाने के लिए भांडे-बर्तन और लकडि़यां जमा करने तथा पत्तल-दोने आदि तैयार करने के काम में उन्हें जोत दिया गया। और भी छोटे-मोटे काम उनसे लिए जाते रहे। लेकिन ठीक तेरहवीं के दिन सुबह से ही इतनी भारी बरसात हुर्इ कि सारी लकडि़यां गीली हो गर्इं। भोजन पकना मुशिकल हो गया तो उन्हीं में से एक ने सूखे घेड़ गिंडुक की ओर इशारा किया। थोकदन तो उसे अपने कुल का अभिशाप ही मान बैठी थी। नए थोकदार ने भी अनुभव किया कि नयी व्यवस्था में घेड़ गिंडुक का शायद ही कोर्इ उपयोग है। और इस तरह वह घेड़ गिंडुक थोकदार जी की तेरहवीं में काम आ गया। उसकी चीर-पफाड़ करते हुए एक ढांकरी ने चुपके से कहा- ''चलो अच्छा हुआ, लोगों को सताने का यह औजार भी गया।
दूसरे ने कहा- ''हां, घेड़ गिंडुक की भी तेरहवीं हो गयी। और उपसिथत लोग होठों-ही-होठों में मुस्करा उठे।

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¹ थोकदारी . पहाड़ की छोटी-मोटी जमींदारी जिसे कमीणचारी भी कहा जाता था।
² कोठे. थोकदार बनाम कमीण या सयाणा का किलेनुमा घर।
³ घेड़ गिंडुक . कटे पेड़ का विशाल तना जिसे भीतर से खोखला कर दिया जाता था ताकि अपराध्ी को उसके भीतर ठूंसकर सजा भोगने के लिए मजबूर किया जाए।
⁴ हक-दस्तूरी .कमीण-सयाना-थोकदार या पधन आदि द्वारा लिया जाने वाला कर।
⁵ जैजिया .जिया- लोकप्रसिदध् कत्यूरी रानी। कुछ कत्यूरी वंशजों में 'जिया शब्द मां का अर्थ भी देने लगा और आज भी कहीं-कहीं सुनने को मिलता है। 
⁶ थोकदन .थोकदार की पत्नी
⁷ गध्ेरे . छोटी-मोटी नदी
⁸ .सेरे.उपजाउफ सिंचित भूमि
⁹ नाली . लगभग दो सेर
¹⁰ पठाल. 
¹¹ ओड . चिनार्इ करने वाले कुशल कारीगर
¹² बेजड .गारे-मिटटी का मिश्रण
¹³ .बादिन या बेडि़न- नाचने गाने वाली जाति की स्त्राी
¹⁴ बादी .नाचने-गाने वाली जाति का पुरुष 'बादी  
¹⁵ जैजिया.थोकदन
¹⁶ बोलंदा-बदरीश .बोलता हुआ अर्थात साकार बदरी नारायण
¹⁷ पधन .पधन मèय पहाड़ी समाज में कुल का मुखिया गांव का मुखिया भी होता था जिसे बि्रटिश सरकार ने भी मान्यता प्रदान कर दी थी।
¹⁸ तिबारी .उफपरी मंजिल का स्तंभों वाला एक ओर को खुला स्थान जो बैठक का काम देता था।

 ¹⁹ डांडी .पीनस या एक तरह की पालकी जिसे दो आदमी कंधें पर ढोते हैं।

²⁰ढांकरी . दूर किसी हाट-बाजार से घर के लिए आवश्यक सामान खरीदकर लाने वाले लोग।