कवि राजेश सकलानी की कविताओं पर यह आलेख उनकी कविता पुस्तक सुनता हूं पानी गिरने की आवाज की कविताओं को विभिन्न समय अंतरालों में पढ़ते हुए ली गई टिप्पणियों के आधार पर, पहल पत्रिका को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था। लेकिन---
एक लम्बे समय से, लगभग 6 माह से, एक पत्रिका में पड़ा है। न जाने कब प्रकाशित हो, या न भी हो । तो सोचा कि ब्लाग में ही प्रकाशित कर दिया जाए। बेशक संख्या में सीमित ही सही, पाठक तो फिर भी हैं ही नेट पर -
सिल के ऊपर रखा हुआ बट्टा
जैसे साथ मिलकर
रुके हुए हों।
'साथ' को गलती से मैं हाथ पढ़ता हूं और चौंक जाता हूं। चौंक जाता हूं और फिर-फिर पढ़ता हूं। सिलबट्टे का नया ही बिम्ब उभरने लगता है। फिर कभी अनायास खुल जाती है किताब, पृष्ठ वही। अब ठीक-ठीक पढ़ गया। देखता हूं जो प्रभाव पहले कभी था - पढ़ा हुआ, बदल जाता है। राजेश सकलानी का कविता संग्रह सुनता हूं पानी गिरने की आवाज जो मुझे बार-बार पढ़ने को मजबूर करता रहा, हर बार रचनाओं के नये पाठ गढ़ता रहा। इस हर बार पढ़ने में मेरी मन:स्थिति, सामाजिक परिदृश्य और कविताओं का शिल्प एवं राजेश सकलानी का कवि मानस जो कभी साथ रहते हुए खुल रहा होता, कविताओं की व्याख्या करने में सहायक और प्रभावी रहे।
साथ मिलकर रुके हुए हों
या
हाथ मिलकर रुके हुए हों
अब दोनों पंक्तियां हैं मेरे पास। पर साथ को हाथ तो नहीं पढ़ सकता। साथ मिलकर रुके हैं, क्या करने के लिए ? कहां जाने के लिए ? किसी समय की धूप में - जहां अपने स्वाद के लिए उसे बचाये रखने को कवि बेचैन है।
बहुत सहूलियतें सभ्यता में आयेगीं/ हमें स्मृतिविहीन करने की जिद करती
अच्छा हो तब दिख जाये/ चुपचाप तैयार सिल बटटा।
क्या इसके बाद भी अनिश्चित रहा जा सकता है। गलती से पढ़ी गयी पंक्ति को बचाये रखा जा सकता है ? तो फिर कैसे देख पायेगें खुशी के साथ फुदक कर फूटते हुए अदरख को जो हमारे हाथों में यूंही नहीं छोड़ता है रस। राजेश सकलानी की कविताओं के गलत पाठ, शब्दिक रुप में भी या अपने मनोगत भावों के रुप में भी, कभी कविताओं के सही अर्थों तक नहीं पहुंचने दे सकते।
वक्त की बदलती तस्वीर हमारे सम्बंधों को जड़वत बना दे रही है। कितना जानते हैं खुद को, कितना अपरिचित हैं खुद से। जान जायेंगें। अंधेरे कोने में बैठकर ध्यानस्थ होकर खुद को तलाशने की कोई भी कोशिश यहां बेइमानी है। सार्वजनिक जगह के अचिन्हेपन के बीच ही अपनी पहचान को तलाशना दुनिया के कार्यव्यापार से जुड़ना और अपने हर अर्थ में भौतिकवादी होना है। भौतिकवाद का यह वैज्ञानिक स्वरूप ही तो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के निर्विवाद नेता गांधी के यहां मौजूद रहा जो एक लंगोटी पहने गांधी को सड़को पर उतरने को उकसाता रहा।
अपरिचित जगह पहुंचा, स्टेशन पर/ मेरे असमंजस सब सुविधा से सम्बंधित थे
उस वक्त कोई दुख नहीं था मुझको।
लोग खिलौने की तरह हिल रहे थे। तने हुए/ थे काम पर जाते हुए लोगों के चमकीले चेहरे।
बहुत दिनों बाद लौटा अपने में।/ मैंने खुल जाने दिया लोगों को अपनी इच्छाओं
के रास्तों में। जोर लगाने दिया।
मैंने सुकून से देखा समय के पास कोई/ खाली जगह नहीं है। मुझे क्रोध नहीं है।
इस समय सारे अमानवीय कर्मों को/ अस्वीकार किया।
बहुत ही साधारण सी लगने वाली यह कविता कवि राजेश सकलानी के मिजाज को अच्छे से रख देती है। "सुनता हूं पानी गिरने की आवाज" उनकी कविताओं का ऐसा संग्रह है जिसमें दुनियावी हलचल के ढेरों चित्र हैं। गांधी ने उनको भीतर तक प्रभावित किया है। उनकी कविताओं में दुनियावी हलचल के बीच अमानवीय कर्मो को अस्वीकार की जो गूंज है, उसे गांधी के साथ ही ढूंढा जा सकता है। उनकी कविताओं में दिखायी देता ये अस्वीकार व्यक्तिगत शुद्धता का मामला नहीं है। गांधी व्यक्तिगत शुद्धि पर उस तरह यकीन नहीं करते थे। सत्य के साथ गांधी के प्रयोग अमानवीय कर्मों का अस्वीकार ही है। अमानीवय कर्मो को यह अस्वीकार किसी मोक्ष की प्राप्ति का उददेश्य भी नहीं। कोई रहस्य नहीं। स्पष्ट है कि अपनी सुविधा के असमंजस का अस्वीकार है। बिना उसे छिपाते हुए, जो प्रगतिशीलता के मानक बिन्दु हैं । सुविधा भरे जीवन का खुलासा। समय का खालीपन यहां दुनिया की हलचलों से ठसाठस भरा है।
महात्मा गांधी कवि राजेश सकलानी के प्रिय विचारक हैं। गांधी का प्रभाव न सिर्फ उनके व्यक्तिव में मौजूद हैं बल्कि उनके रचना संसार में भी उसकी स्पष्ट तस्वीर देखी जा सकती है। 'लगे रहो मुन्ना भाई" गांधीगिरी पर पापुलर ढंग से बात करती है, राजेश सकलानी को बेहद पसंद है। गांधी के प्रति आस्था और मनुष्य के प्रति उनके प्रेम का स्रोत राजे्श सकलानी के जीवन-व्यवहार में भी उछाल लेता हुआ देख जा सकता है। नफरत का एक छोटा सा भी कतरा, किसी के भी प्रति, उनके यहां अपना अक्श नहीं गड़ सकता है। क्रूर से भी क्रूर व्यक्ति के भीतर, उसकी अच्छाइयों के कितने ढेरों कोने मौजूद हैं, यदि इसे जानना हो तो राजेद्गा सकलानी से उस अमुक व्यक्ति के बारे में बात करो, जान जाओगे। ऐसा नहीं है कि उसकी कमजोरियां, अभद्रताएं या ऐसा ही किसी भी तरह का अन्य असमाजिक कहा जा सकने वाला व्यहार जो सबकी निगाहों में मौजूद हो, उस पर राजेद्गा सकलानी की उस अमुक से सहमति हो। बल्कि कहें कि किसी अन्य से ज्यादा नफरत, गुस्सा और उसके प्रति विद्रोह कर सकने की अपनी फितरत के बावजूद उस अमुक की अच्छाइयों के वे कौन से कारनामे है, इन्हें सिर्फ राजेश सकलानी ही बता सकते है। या उस क्रूर व्यक्ति के भीतर,भी एक संवेदनशीलता का अथाह समुद्र कब-कब हिलौरे लेता है, इसे पूरी ईमानदारी से राजे्श सकलानी बयां कर सकते हैं। एक सकारात्मक आलोचना उनकी बातचीत के केन्द्र में हमे्शा रहती है। गांधी की भी वे आलोचना करते हैं लेकिन अन्तत: गांधी उन्हें प्रिय हैं ही। मार्क्स भी उनके प्रिय विचारक हैं। संघ्ार्ष की चेतना का मार्क्सीय रूप्ा भी इसी कारण उनकी रचनाओं का केन्द्रीय पक्ष है। अर्थतंत्र के बदलते ढांचे में पनपते सामाजिक सम्बंधों की विवेचना करते हुए मार्क्सवादी दृष्टि ही उनके भीतर मौजूद रहती है- ''सुनता हूं पानी गिरने की आवाज/जानता हूं चीजों को/ जहां से वे उठती हैं।" यही दो मूल बिन्दु हैं जो राजेश सकलानी की रचनाओं को समझने में सहायक हो सकते हैं। "सुनता हूं पानी गिरने की आवाज" अभी तक उनकी एक मात्र कविता पुस्तक है।
वे गांधीवादी हैं या न भी हों, ये पंक्तियां जिस वक्त मेरे भीतर उठ रही थी उस वक्त भाई राजेश सकलानी के साथ-साथ कार्यालय में काम करने वाले मेरे एक अन्य अग्रज ही मेरे भीतर मौजूद थे। गांधी के प्रति मेरा विश्वास उस रूप में कभी मौजूद नहीं रहा जैसा इन लोगों के भीतर है। लेकिन कवि राजेश सकलानी सरीखे गांधीवादी और उस जीवन दृष्टि से जन्म लेती रचनाऐं मेरी पसन्द रहेगी ही। गांधी के जीवन व्यवहार की सी सादगी से भरी इन रचनाओं में मनुष्य की पक्षधरता और शोषित समाज के प्रति हमदर्दी और उनके संघर्षों में हिस्सेदारी करने की एक जबरदस्त ललक उनके पाठ को बहुआयामी बना देती है।
वे चीजें कितनी सुंदर हैं जो अंधेरे से बंधी हुई हैं
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घ्ारों में कोने वाली जगहें/बच्चों की सांसों में गुदगुदाती झाड़ियों की झुरमुट
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पलंग के नीचे जहां चीजें गिरकर बिखर जाती हैं और बिना चूमें
वापिस नहीं करती। या किताब में छांहो के पृष्ठ जिन्हें मैं/ पलटता हूं, दबा देता हूं।
या कोई भी खु्शी/ उजाले की तरह चमकदार।
अफरातफरी का जो माहौल आज मौजूद है उसमें हो-हल्ला करते हुए छा जाने की प्रवृत्ति से भरी पूंजीवादी अपसंसकृति ने जीवन के सारे कार्यव्यापार को अपनी गिरफ्त में लिया है। साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी इसने अपने पांव पसारे हैं और इन क्षेत्रों में भी अफरातफरी को जन्म दिया है। एक समय में अपनी आवाज के जादू से अपने प्रसंशको के दिलों पर राज करने वाला अलेग्जेण्डर एक गायक है जो इस अफरातफरी के दौर में राजे्श सकलानी की कविता में जगह पाता है। पहल में प्रका्शित यह कविता उसी गायक को समर्पित है जो इस बात से कभी मायूस नहीं हुआ कि उसकी कोई सी डी(काम्पेक्ट डिस्क) नहीं बनी या उसकी मीडिया में इस तरह उतनी चर्चा कभी हुई ही नहीं जैसे आज गाने के नाम पर भौडेपन की अभिव्यक्तियां भी जगह पा रही हैं।
कवि वीरेन डंगवाल की समोसे पर लिखी कविता जिन कारणों से राजेश सकलानी की प्रिय कविताओं में शुमार है उसके पीछे भी राजेश सकलानी की वह भीतरी बुनावट ही है जो हर मैली चीकट जगह में छिपे सौ्न्दर्य की तला्श करती रहती है। कवि नरे्श सक्सेना की कविताओं की तार्किकता के वे यूं ही कायल नहीं है। हां एक तरह की यांत्रिकता भी वे उनकी कुछ कविताओं में महसूस करते हैं। रघुवीर सहाय के मार तमाम लोग उनकी बातचीत से लेकर रचना संसार तक में इन्हीं कारणों से प्रवेश करते हैं। घटनाओं को कविता का हिस्सा बनाती विष्णु खरे की विशिष्टता के भी वे कायल हैं। अपने अग्रज और अपने समकालीन रचनाकारों की रचनाओं पर वे इसी दृ्ष्टि के कारण बात कर सकते हैं। कवि अवधेश कुमार के अंतरंग मन को टटोलते हुए भी यही दृ्ष्टि उन्हें दिशा देती है।
अवधेश अपने अंत-अंत में निराशा के गहरे गर्त में डूब चुका था, वे कहते हैं - अवधेश की निराशा एक व्यक्ति की निराशा नहीं थी जो महत्वाकांक्षाओं से उपजी हो। बल्कि एक कवि की निराशा थी। जटिल और संश्लिष्ट होते जा रहे यथार्थ को पूरी तरह से विश्लेषित न कर पाने की छटपटाहट अपने आप में ही एक बड़ा कारण है। अवधेश जीनियस था और उस जैसे जीनियस को वे सारी ही चीजें परेशान करती हैं जो कला को बाजार बना दे रही होती हैं। पुस्तकों के कवर बनाना और दूसरे अन्य ऐसे ही काम अवधेश को मजबूरी में करने पड़ते थे। वरना वह तो कवि था, मूल रूप से कवि ही। पर ऐसे कामों में लगे रहने की मजबूरी के चलते कवि के दर्जे को कैसे बचाये रखा जा सकता है। चौथे सप्तक में अवधेश की कविता उसी वक्त शामिल हो चुकी थी जब वह अपने समकालीन युवाओं में भी युवतम था। इतना युवा कि संवेदना का धरातल जब नितांत मासूमियत भरा होता है। ता उम्र उसी मासूमियत को बचाये रखने की कोशिश उसे हमेशा अपने प्राकृतिक वातारण में लौटने को मजबूर करती रही। जबकि वैसी मासूमियत के साथ जीना, बदलते हुए समय में इतना आसान न था। शराब उसके फेफड़ों को गलाने लगी है, वह अनभिज्ञ न था। और न ही बुद्धु। तो भी पीने की आदत को जिद की हद तक पाले रहा तो इसको उसके भीतरी मन सें ही जाना जाना चाहिए।
शराब पीने की अपनी आदत के चलते मौत के करीब बढ़ते गये अवधेश के बारे में ऐसा विश्लेषण कोई अगर कर सकता है तो सिर्फ राजेश सकलानी ही। ये नहीं कि अपने ऊपर ज्यादती करने वाले अवधेश के प्रति अन्यों की तरह राजेश सकलानी के भीतर गुस्सा न उपजा हो। बल्कि औरों से कहीं ज्यादा। लेकिन वह गुस्सा भी अवधेश के सामने ही उसको दुरस्त करने के वास्ते, इतनी बेबाकी, साफगोई और विश्लेषण की क्षमता ने ही राजेश की कविताओं में भी जगह पायी है। अलेग्जेण्डर कविता में जिस डी एल रोड़ का जिक्र हुआ है, झगड़ों टंटों के लिए बदनाम है। वहां, चौराहे पर खड़े होने वाले वे लड़के जो बात बे बात पर छूरा चाकू चला देने के लिए बदनाम हो। मोटर साइकिल की चैन जिनका आभूषण हो, राजेश सकलानी ही है जो उनमें भी मानवीय गुणों को खोज लेते हैं। संवेदनाओं की नदी उनकी किस कार्यवाही से उपतजी है, देख लेते हैं।
गांधी जिन कारणों से राजेश सकलानी के प्रिय विचारक हैं उसमें गांधी की कार्यशैली या शास्त्रीय विवेचना की बजाय उनका सूत्र वाक्य - 'निर्भय बनो" ही सहायक है। गांधी को वे इसी रुप में जानते हैं। उनका स्पष्ट कहना है कि दुनिया का यह विचारक अपने इस वाक्य के कारण ही मुझे प्रिय है। या उनकी इस सीख के ही वे कायल हैं जो मनुष्य को निर्भय बनने की सलाह देती है और ऐसा होने के लिए प्रेरित करती है। गांधी का यह मर्म ही उन्हें ऐसी कविताएं लिखवाता है जिनमें डरे हुए लोगों की तसवीर बार-बार उनकी कविताओं का स्वर बन रही होती -
नहीं है जिनमें कोई भी सरोकार/ आते जाते उन लोगों को
वह जोड़ता है अर्थ/ जो नहीं पूछते उसका नाम/ उसका पता उसका मिज़ाज
जो उसके बच्चों की मुस्कराहट का भी/ नहीं देते कोई जवाब।
आक्रामकता फैलाती और भय का संसार रचती इन राजेश सकलानी की कविताओं अपने प्रिय विचारक गांधी और मार्क्स के संश्लिष्ट विचार से उपजा है। बेशक निर्भय और निडर गांधी का संघ्ार्ष ज्यादा प्रबल है। गांधी ने अपने दौर से आज तक लगभग पूरे समाज को प्रभावित किया है। 1930 का पेशावर कांड, जहां सैनिकों द्वारा निहत्थों पर गोली चलने का निषेध है, उसमें भी गांधी के प्रभाव को देखा जा सकता है। गांधी का विशाल व्यक्तित्व भारतीय मूल के सैनिकों के भीतर अंग्रेजों के प्रति निषेध के बीज बोकर भी उसे शांतिपूर्ण तरह के विरोध में है ही बनाये रखता है। बेशक यहां गांधी की आलोचना संभव हो और कहा जाये 1857 की बगावत का झण्डा यहां बुलन्द नहीं हो पाता। यह बहस का विषय हो सकता है कि गांधी के संघर्ष का यह तरीका जनता और सत्ता के तीखे अर्न्तविरोधों के बावजूद भी आखिर शांतिपूर्ण बने रहकर जीत के रास्ते बहुत साफ-साफ तरह से खोल पाने में असमर्थ है। तो भी अपने हक हकूक के प्रति गांधी जनता की चेतना के विकास में गांधी के प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता। राजेश भी उसी प्रभाव में अपने चारों ओर फैले भय को चिन्हित करते हैं -
डरे हुए लोग जो लड़ने का अर्थ भूल चुके थे
खामोश रहे जब तक एक लड़ने के लिए हिल रहा था।
उसी गांधी के प्रभाव में राजेश सकलानी का मानस भी भय के विरुद्ध निडर खड़े रहने की प्रेरणा का गान बनता है। हौंसला बंधाती उम्मीदों का सर्जन रद्दी कागजों की तरह उड़ते जाने की त्रासदी के बाद भी आहवान गीत बनकर गूंजता रहता है। एक पूरे दौर को अप्रसांगिक बना देने वाली कार्यवहियों के कारण भावी पढ़ी के भीतर किंचित उपजने वाले भय के क्षणों को उम्मीदों की डोर ताने रहती है। राजेश जानते हैं कि उम्मीद टूटी नहीं कि निराशाओं का अंधड़ बेहद डरावना संसार रच सकता है। ऐसे ही स्थितियों के विरुद्ध अपने कसे हुए शिल्प को ढीला करते हुए, बच्चों के साथ उनकी बातचीत के संवाद कविता के रुप में दिखायी देते हैं -
चिड़िया की तरह चहको गिलहरी की तरह दौड़ो/पानी की तरह बहो/खिलखिलाओ या चीख ही पड़ो भय से।
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हमसे उन तमाम चीजों की उम्मीद करो/ जिनकी तुम्हे बेहद जरुरत है/ और दुनिया को भी।
अमानवियता और आक्रमकता के खिलाफ यह ऐसा गान है जो बिना जूझे स्वर नहीं पा सकता। बिना मुठभेड़ के मुक्ति का रास्ता तलाशा नहीं जा सकता।
अपने दौर के लेखन के बारे में राजेश पूरी तरह से सचेत हैं। उसके खूबसूरत पक्ष और कमजोरियों की भी अच्छे से पहचान करते हैं। खुद की आत्मालोचना करना का उनका ढंग निराला है। लगातार उठने वाले वे सवाल जिनमें लेखकीय सरोकारों की बात होती है, उनसे एक तरह की सहमति ही वे व्यक्त करते हैं। अपनी लेखकीय सीमायें जो भाषा और शिल्प के स्तर पर नहीं बल्कि विषय के स्तर पर हैं, उसकी शिनाख्त भी वे रचना के शिल्प में ही करना चाहते हैं -
हमारी रचनाएं अबोध हैं लेकिन / उन्होंने अपने सुख और दुख का /अलग-अलग घर बना लिया है
उनमें जीवन के ऊंचे मूल्य है लेकिन वे/हिम्मत की कमी को छिपाती है/वे दुनिया को लिखे प्रेम पत्र हैं लेकिन वे
कठिनाईयों से दूर रहना चाहती हैं/ उनमें जीने की जोरदार कोशश है
लेकिन उनमें अपने को ही / बचाने की चिन्ताएं हैं
जो रोज छूट जाते हैं उनके शिल्प में/वे क्या सचमुच उनके विषय में/नहीं जानती।
समकालीन रचनाओं पर इसे एक आलोचनात्मक टिप्पणी भी कहा जा सकता है। लेकिन उस रुप में यह टिप्पणी भी नहीं बल्कि दौर की सच्चाई से परदा उठाने की कोशिश ही इसमें ज्यादा स्पष्ट होकर दिखायी दे रही है। यह आत्मालोचना का ऐसा स्वर है जिसमें देख सकते हैं कि कवि अपनी तथा अपने समकालीन रचनाकारों की मनोगत कमजोरियों को साफगोई से रख और यह सवाल उठाते हुए उस वर्गीय फांस को हटाना चाहता है जो स्वंय उसकेे भी मनोगत कारणों का उत्स हैं। वो मध्यवर्गीय मानसिकता जो हमारे रचना संसार में भी दिखायी देती है, उसकी उस खास प्रवृत्ति, जिसमें अपने वर्गीयहित ही हावी होते दिखायी देते हैं, स्पष्टत: राजेश सकलानी की निगाह उस पर टिकी है। जन संघर्षो से अपना किनारा करने की प्रवृत्ति के चलते सद-इच्छाओं से भरा हमारा समकालीन रचना संसार भाषा और शिल्प के कितने अभिन्न प्रयोगों को जन्म दे रहा है, यह आज छुपा नहीं है। सदइच्छाओं के बावजूद भी जनता के संघ्ार्ष की वास्तविक दिशा को अपने हितों के अनुरूप मोड़ने का प्रयास करने की राजनीति इसका एक पक्ष है जिसने रचनाकारों को न सिर्फ जन-संघर्षों से हटाया है बल्कि पाठकों से भी दूर किया है।
एक संस्था का गठन किया गया है इंदौर में/मेरे नगर देहरादून की तरह
सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ाने का/ किया गया है संकल्प
भाषा भावुक ---
वह शायद पूरा नहीं होता/इंदौर मे न देहरादून में
कुछ शहरों में झगड़ों कुछ पूजा के समाचार है
एक संस्मरण में लेखक दीवारों को देखता/रिक्शे वाले के शरीर का स्वर सुनता है।
अपने समकालीन जगत की बचबचाकर निकल भागने की प्रवृत्ति ने ही शायद राजेश सकलानी को परेशान किया है। रह-रह कर उनकी रचनायें ऐसी ही स्थितियों का आख्यान बनती है। बल्कि कहा जा सकता है कि उनकी रचनात्मक केन्द्रीयता का यही मुख्य बिन्दू है -
डरे हुए लोग जो लड़ने का अर्थ भूल चुके/खामोश रहे जब एक लड़ने के लिए हिल रहा था
लोगों ने उसकी परवाह नहीं की/उसने कुछ क्रोध कुछ घृणा कुछ दया के साथ/उनकी परवाह नहीं की।
चार मिनट का समय कुल था।समय शुरु हो चुका था। वह बीचो बीच पहुंचा
कुछ हालात का हवाला देकर माफी मांगी/कुछ ने किया इशारा दूसरी तरफ
कुछ ने छोड़ दिया सवाल मुस्कराने लगे/गहरी आत्मीयता दिखा
वक्त निकल रहा था। उसकी भुजाएं फड़क रही थी।
घंटा बजा, चार मिनट पूरे हो चुके थे/ लोग अपने में व्यस्त थे।
चार मिनट में कुछ शर्मिंदा दिखना कुछ इशारा करना/कुछ सवाल उठाना मुस्कराना कुछ
आत्मीयता जतलाना उसने सीखा।
राजेश सकलानी की कविताओं की यह विशिष्टता ही कही जायेगी कि उनमें सूत्रात्मकता तो है पर वे सूत्रों में अपनी बात कहने से बचती है। यानी वहां स्थितियां है और उन स्थितियों का विश्लेषण है। वे जजमेंटल नहीं है। इसी वजह से उन द्वविधाओं से उबरने का प्रयास भी दिखायी देता है जो जड़ता पैदा करती हैं -
हुजूर मैं एक ही रोल करते-करते/आजिज आ चुका हूं
यह देखिये मेरी शक्ल/आइने में जिसे देख मैं रो पड़ता हूं
अब इस रोल में घसीटे जाने के लिए/मुझे मजबूर मत कीजिए
मैं उस रोल की गुजारिश करता हूं/लड़ता हुआ आदमी जिसमें अंत में/पराजय से मुक्त होता है
हां हुजूर यही वाला, इस आदमी से/लोग बेवजह नफरत नहीं करते (बल्कि बेजह इज्जत करते हैं)
यह मेहनताना भी भरपूर पाता है
डरते हुए झींकते हुए सिर झुका कर चलते हुए/मेरा चेहरा बे-रौनक हो गया है
मैं साफ आवाज में बोल भी नहीं पाता हूं/आप रोल बदलिए हुजूर मैं चीख पड़ने को हूं
आप इज्जतदार हैं कभी-कभी मैं होश खो बैठता हूं
आपसे गुजारिश है हुजूर/मैं एक ही रोल करते हुए आजिज आ चुका हूं।
राजेश सकलानी की कविताओं में कुछ पद ऐसे आते हैं जो भाद्गिाक व्यकारण की दृद्गिट से अटपटे से लग सकते हैं। जैसे-
स्कूल से लौटती दो सहेलियां जहां दिखी थीं
वे कुछ कहना चाहती थीं। जानने की/ उन्हें उतनी ही जल्दी थी।
इस कविता में 'जहां' शब्द जिन अर्थों में आया है उसके लिए सही श्ब्द जो अपने शाव्दिक अर्थो में ठीक होता, 'जो' हो सकता था। पर कविता में आया हुआ जहां अनायास नहीं जान पड़ता। उसी जो को परिभाषित करता हुआ, स्थान-विशेष की उपस्थिति से भरा, यह शब्द उन लड़कियों के बारे में है जो उसी जगह पर, जहां वे मिली थीं, कुछ कहना चाहती थीं। उस कुछ को कहने की अपने भीतर दबी इक्ष्छाओं को इस खूबसूरती से खोलने के लिए रचा गया यह ऐसा भाषिक व्याकरण है जो भाषा के भीतर छिपे व्यापक अर्थो को प्रक्षेपित करने में सहायक है। सामाजिक ताने बाने की जटिलता उन्हें उसी स्थान पर वह सब कहने नहीं देती जो हवा के भीतर से गुजर गये साइकिल सवार लड़के से कहने की भावनाओं से भरा है। उस सामाजिक किस्म की जटिलता को तोड़ न पाने की द्वविधा के चलते एकान्त की इच्छाओं से भरी हैं। "जहां" ज्यों का त्यों छूट जा रहा है क्योकि एक का भाई रास्ते में मिला था। उस जगह विशेष पर साइकिल सवार लड़के से कही जाने वाली बात बबाल खड़ा कर सकती है। लड़कियां इस बात से सचेत हैं। घटनाओं को छिपाकर देखना उन्हें थोड़ा उत्तेजक खुशी से भर दे रहा है। कविता का शीर्षक भी अनायास नहीं है - "वहॉं"।
वहां खबरे हैं। खबरे जिनसे बेखबर हैं आप। यानी बेखबर है दुनिया। सूचना का फैलता जाल भी जिन्हें खबर मानने के लिए तैयार नहीं है -
होशंगाबाद नींद में डूबा है।
सार्वजनिक स्थान नींद के स्थल हैं। लेकिन सार्वजनिक स्थलों की नींद असुविधा के बीच विश्राम ले लेने की नींद है। फिर से तरोताजा होकर फिर से जोर लगाने की नींद है।
जहीर जोर लगाता है। और जोर।
असुविधा भरी इस नींद के स्थल में अचछी हवा है। अपने फेफड़ों में जिसे इक्टठा कर लिया है जहीर ने। जो जोर लगाते हुए भी उसके बदन को पसीने से चिपचिपा बनाने से रोकती है।
जहीर जैसे लोगों के जोरे से ही चीजें बदल रही हैं। वे किलकारी या चीत्कार में, करुणा या घ्ाृणा में, उछाल या नींद में बदल जाती हैं, हमारी मनमानियों के खिलाफ। हम जो उसके जोर लगाने पर ही जिन्दा है। मनमानियां करने की हमारी आदतों के खिलाफ उनमें अंतिम संघर्ष की जिद है। चीजों के बदलने के लिए जिसका होना जरुरी है। ऐसे संघर्ष के लिए कम से कम फेफड़ों में ताजा हवा भरने की नींद के सार्वजनिक स्थल बचे रहें।
राजेश सकलानी का सौन्दर्यबोध चीजों के एक अर्द्धांश या चुटकी भर जगह पर नही है। पूरे ग्लोब पर घूमता चांदी की तरह चमकता दिन, या चांद। आसमान की असंख्य छांहों में बेसुध धरती का बिम्ब और इसके साथ ही दुनियावी हलचलों की वह मूर्तता जिसमें आलीशान गुम्बदों के चमचमाते स्वर्ण जणित शीर्ष नहीं बल्कि घ्ारों के बेहद अंधेरे कोने शामिल है। बच्चों की सांसों में गुदगुदाती झाड़ियों के झुरमुट से झांकते उनके खिले चेहरे हैं। सांसारिक दुनिया के घरेलूपन को चलाये रखने के लिए बटुए का बिम्ब। बल्कि एक खास तरह का मोह है राजेश सकलानी के यहां ऐसी चीजों के प्रति। ऐसे छोटे-छोटे लेकिन खूबसूरत बिम्बों के प्रयोग से ही हर क्षण शब्दों की चोरी करने की फिराक में कवि को देखा जा सकता है।
वे चीजें कितनी सुन्दर है
पुनरावर्ती की हद तक लौट-लौट कर उन चीजों का बयान संग्रह की विशिष्टता भी है। यह अनायास है या सचेत तरह से ऐसा करते हुए कुछ खास कहने की कोशिश है! मेरे लिए इसको विश्लेषित कर पाना आसान नहीं। एक सचेत कवि की कविताओं में बिम्बों की यह पुनरावर्ती अनायास तो नहीं ही कही जा सकती। पर चौंकाती तो है ही। यहां तक कि एक कविता की कुछ पंक्तियां है जहां एक ही पद में कह दी गयी बात दूसरे पद में रुप बदलकर दिखायी देती है -
घरों में कोनो वाली जगहें/ बच्चों की सांसों में गुदगुदाती झाड़ियों
की झुरमुट, सिर छिपाए/ किताब की ओट या/बटुए की तहों में नन्हा सा घर
पलंग के नीचे जहां चीजें गिरकर/बिखर जाती हैं और बिना चूमें
वापिस नहीं करती/ या किताब में छांहों के पृष्ठ जिन्हें मैं/ पलटता हूं, दबा देता हूं।
शब्दों की चोरी करता हुआ शिल्प कई बार जटिल, अस्पष्ट और अतार्किक भी हुआ है कुछ जगह। एक छोटी सी कविता है सुबह -
साइकिल के कैरियर पर बैठी तरुणी/हवा के साथ सुबह छोड़ती हुई चली गई
पेड़ों की ऊंचाईयों से झुक रही थी डालें/ छूट गये दो या तीन शब्द या चार
बिछौने में लोटते जैसे शिशु / या खरगोश दूब में उछलता हा या
खिल पड़ा हो उजाले का फूल
चिड़िया उड जाती हो आसमान की ओर।
आखिर साइकिल का सवार कौन है ? उसका चेहरा स्पष्ट नहीं। साइकिल के कैरियर पर बैठी लड़की को जाते देखने वाली आंख के जरिए उसको ढूंढना आसान नहीं। कैरियर पर बैठी लड़की के भाव भी देखती हुई आंखों से स्पष्ट नहीं होते। क्या यह देखती हुई आंखों के भीतर बसा मुग्धता का चित्र मात्र है! जो लड़की की झिलमिलाती तस्वीर पर ही आनन्दित है। यानी कई तरह के ऐसे प्रश्न जो कविता को समझने और उसे खोल सकने के लिए अनिवार्य है, अनुतरित नहीं रह सकते यदि राजेश के कवि मानस को जान जायें।
देखती हुई आंखें आस पास के उस वातावरण को वैसे शायद यहां पूरी तरह से नहीं रखती जो स्वंय के भीतर के भावों को ही पूरा रख पाये। इस कारण से कविता कुछ दुरूह भी लगने लगती है। लेकिन कविताओं में ऐसी जटिलता कुछ ही जगहों पर आयी है। इसके बरअक्स ही दूसरी कविताऐं हैं, जो संग्रह में शामिल है। जिनमें शिल्प का यही अनूठापन पूरी तार्किकता के साथ सब कुछ कह जाता है। देखें -
खूंखार से सवाल पूछना जीवन से / हाथ धोना है पर उसे जाने देना भी
ऐसा ही है
सुकोमल पूछने वाले उसे भीड़ में पाकर/अवसर ढूंढ लेते हैं
अपने अभिनय में उसकी महाकाया/बेबस होकर रह जाती है
तो फिर ऐसा क्या है जो पहली कविता को अतार्किक बना रहा है ? यह सवाल भी राजेश की कविताओं को समझने में एक सहायक बिन्दु हो सकता है। दरअसल इधर की कविताओं से इतर राजेश की कविताओं का मिजाज उन्हेंं भीड़ से अलग करता है। इसमें शब्दों की चोरी करता हुआ एक ऐसा काव्य शिल्प मौजूद है जो सरसरी निगाह से देखने पर तो पकड़ में ही नहीं आता है। क्योंकि शिल्प की यह विशिष्टता चौंकाती नहीं है बल्कि कवि के अवचेतन में मौजूद विचार की संश्लिष्टता को ही दर्शाती है। रचनाकार का मानस उसको जो रंग देना चाहता है वह उन दोनों धाराओं जिनका पूर्व में जिक्र किया जा चुका, के बीच से उसी रंग में रंग देता है। अब लिखे जाते वक्त जो ज्यादा प्रभावी है उसी की झलक ज्यादा स्पष्ट है।
व्यक्ति और व्यक्तित्व को परिभाषित करती कई कविताऐं हिन्दी की समकालीन कविता में दिख जाती है। व्यक्ति विशेष के कारण ही उन कविताओं के भी उल्लेख हो जानो लाजिमि बात है। स्वंय राजेश सकलानी की एक कविता में भी देहरादून के गायक अलेग्जेंडर की उपस्थिति एक ऐसा ही व्यक्तिचित्र खड़ा करती है। पर ''भले लोग"" उनकी एक ऐसी कविता है जो तमाम ऐसे लोगों का चित्र उपस्थित करते हुए पाठक का ध्यान उन सामाजिक रुढ़ियों की तरफ खींचती है जो व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने की सामाजिक पद्धति बन जाती हैं। इसी लिए कई बार भले से दिखते लोग भी सचमुच भले नहीं लगते और कई बार बहुत बुरे दिखायी देते लोगों में भलेपन की गहरी उपस्थिति का आभास होने लगता है।
समाज में भले लोग तुरन्त पहचान लिये जाते हैं।
कभी-कभी सामाजिक रुप से प्रतिष्ठित भलाई भी निराशा पैदा करती है। भलाई का यह स्थापित चेहरा कभी क्रोध और कभी हिंसा को जन्म देता है।
कुछ भले लोगों को मैं पहचानता हूं ।
वे अन्याय के विरोध में समाज से / संवाद तोड़ लेते हैं।
न्याय के विजय की प्रतीक्षा मन ही मन/ करते हैं।
अवयक्त क्रोध के कारण वे उदास रहते हैं।
स्त्री विमर्श को लेकर रचे जा रहे साहित्य में स्त्री की पहचान के सवाल पर ढेरों रचनायें दिखायी देती हैं। राजेश सकलानी की कविता ""दो सहेलियां" को याद करना यहां समीचीन होगा जिसमें फुदकता कूदता जीवन कैसे चुपके से गायब हो जाता है और कहीं कोई शब्द सुनायी नहीं पड़ता -
दो सहेलियों के कान में झुमके चमकते हैं
सड़क पर। हवा में डूब कर वे उजाला करते हैं।
वे गुन गुन कहती हैं। हंसती हैं।
किसी जगह क्षण गुजारने के लिए नि:शब्द होती हैं।
हमारे बीच में वे विलुप्त हो जाती हैं।
-विजय गौड
Monday, February 16, 2009
Sunday, January 25, 2009
पहले फिराक को देखा होता, अब तो बहुत कम बोलते हैं
वरिष्ठ कवि अनूप सेठी के हम आभारी हैं, जिन्होने विजय वर्मा सम्मान समारोह के दौरान, वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह द्वारा दिए गए वक्तव्य को अपने मोबाइल फ़ोन से रिकार्ड कर हम तक पहुंचाया। ज्ञात हो कि कथाकार योगेंद्र आहूजा की पुस्तक अंधेरे में हंसी और कवि अलोक श्रीवास्तव की गजलों की किताब आमीन को, 17 जनवरी 2009 को मुम्बई में, वर्ष 2008 के विजय वर्मा सम्मान से सम्मानित किया गया। इस अवसर पर कथाकर योगेंद्र आहूजा द्वारा दिए गए वक्तव्य को आप पहले ही पढ चुके हैं।
Friday, January 23, 2009
दोर्जे गाईड की बातें
रोहतांग बर्फ से ढका हुआ है। लाहौल में जनजीवन की हलचल को जानने के लिए टेलीफोन के सिवा कोई दूसरा रास्ता न दिखाई देता है। केलांग लाहुल का हेडक्वार्टर है जहां हमारे प्रिय कवि अजेय रहते है। फोन की घंटी बजती है, देखता हूं अजेय का नाम उभर रहा है। बर्फ की दीवार के पार से सीलन भरे मौसम की खामोशी को तोड़ती अजेय की आवाज सुनायी देती है। कुछ मौसम की, कुछ अपनी कारगुजारियों की और एक हद तक साहित्य की दुनिया की हलचलों पर बातें होती हैं। रोहतांग की सरहद के पार से दुनिया जहान की हलचलॊं के साथ हिस्सेदारी की बेचैनी से भरा अजेय बताता है कुछ कविताएं लिखी हैं उसने इस बीच। पर उन पर काम होना अभी बाकी है। जब तक कवि उन्हें मुकम्मल करे तब तक के लिए अजेय की कुछ चुनिंदा कविताओं को यहां सबके पढ़ने के लिए रख दिया जा रहा है। पढ़ें । अपनी कविताओं के बारे में अजेय का कहना है-
''कविता मेरे लिए आत्माभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। मैं अपनी कविताओं द्वारा अपने पहाड़ी जनपद की उस सैलानी -छवि को तोड़ना चाहता हूं जो मेरे बर्फ़ीले जनपद को रहस्यभूमि (वंडरलेंड) बना कर पेश करते हैं। मैं यह बताना चाहता हूं कि यहां भी लोग शेष विश्व के पिछड़े इलाकों और अनचीन्हे जनपदों के निवासियों की भांति सुख-दुख को जीते हैं-पीड़ाओं को झेलते और उनसे टकराने वाले लोग बसते हैं। जिनके अपने छोटे-छोटे सपने और अरमान हैं। हम और अध्कि रहस्य, रोमांच, मनोरंजन अथवा शो-पीस बनकर चिड़ियाघर या अजायबघर की वस्तु बन कर नहीं जीना चाहते।"
अजेय
कविता खत्म नहीं होती
(मेन्तोसा1 पर एडवेंचर टीम)
पैरों तक उतर आता है आकाश
यहां इस ऊँचाई पर
लहराने लगते हैं चारों ओर
मौसम के धुंधराले मिजाज़
उदासीन
अनाविष्ट
कड़कते हैं न बरसते
पी जाते हैं हवा की नमी
सोख लेते हैं बिजली की आग।
कलकल शब्द झरते हैं केवल
बर्फीली तहों के नीचे ठंडी खोहों में
यदा-कदा
अपने ही लय में टपकता रहता है राग।
परत-दर-परत खुलते हैं
अनगिनत अनछुए बिम्बों के रहस्य
जिनमें सोई रहती है ज़िद
छोटी सी
कविता लिख डालने की।
ऐसे कितने ही
धुर वीरान प्रदेशों में
निरंतर लिखी जा रही होगी
कविता खत्म नही होती,
दोस्त ....................
संचित होती रहती है वह तो
जैसे बरफ
विशाल हिमनदों में
शिखरों की ओट में
जहाँ कोई नही पहुँच पाता
सिवा कुछ दुस्साहसी कवियों के
सूरज भी नहीं।
सुविधाएं फुसला नही सकती
इन कवियों को
जो बहुत गहरे में नरम और खरे
लेकिन हैं अड़े
संवेदना के पक्ष में
गलत मौसम के बावजूद
छोटे-छोटे अर्द्धसुरक्षित तम्बुओं में
करते प्रेमिका का स्मरण
नाचते-गाते
घुटन और विद्रूप से दूर
दुरूस्त करते तमाम उपकरण
लेटे रहते हैं अगली सुबह तक स्लीपिंग बैग में
ताज़ी कविताओं के ख्वाब संजोए
जो अभी रची जानी हैं।
1. लाहुल की मयाड़ घाटी में एक पर्वत शिखर(ऊँचाई 6500मी0)
गाँव में चक्का तलाई
मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।
गुज़र गई है एक धूल उड़ाती सड़क
गाँव के ऊपर से
खेतों के बीचों बीच
बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ
लाद ले जाती हैं शहर की मंडी तक
नकदी फसल के साथ
मेरे गाँव के सपने
छोटी छोटी खुशियाँ --
मिट्टी की छतों से
उड़ा ले गया है हेलीकॉप्टर
एक टुकड़ा नरम धूप
सदिZयों की चहल पहल
ऊन कातती औरतें
चिलम लगाते बूढ़े
`छोलो´ की मंडलियाँ
और विषअमृत खेलते बच्चे।
टीन की तिरछी छतों से फिसल कर
ज़िन्दगी
सिमेंटेड मकानों के भीतर कोज़ी हिस्सों में सिमट गई है
रंगीन टी वी के
नकली किरदारों में जीती
बनावटी दु:खों में कुढ़ती --
´´कहाँ फँस गए हम!
कैसे निकल भागे पहाड़ों के उस पार?´´
आए दिन फटती हैं खोपड़ियाँ जवान लड़को की
बहुत दिन हुए मैंने पूरे गाँव को
एक जगह/एक मुद्दे पर इकट्ठा नहीं देखा।
गाँव आकर भूल गया हूँ अपना मकसद
अपने सपनों पर शर्म आती है
मेरे सपनों से बहुत आगे निकल गया है गाँव
बहुत ज्यादा तरक्की हो गई है
मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।
आलू का सीज़न
गोली मार टरक को यार।
अब तो रात होने को है
ठंड भी कैसी है
कमबखत
वो सामने देखते हो लेबर कैम्प
सोलर जल रहा जहाँ
मेटनी के तम्बू में
चल , दो घूंट लगाते हैं
जीरे के तड़के वाली
फ्राईड मोमो के साथ
गरमा जाएगा जिसम
गला भी हो जाएगा तर
दो हाथ मांगपत्ता हो जाए
पड़े रहेंगें रात भर
सुबह तक पटा लेगें किसी उस्ताद को हज़ार पाँच सौ में
खुश हो जाएगी घरवाली।
छतड़ू में कैम्प फायर
ऐसे ही बैठे थे
`फायरप्लेस´ के सामने
हम पाँच छह जने
कि अचानक दीवार पर टंगी सूली से
उतर आया जीजस
चुपचाप हमारी बकवास में शमिल हो गया।
रात भर बतियाते रहे हम
अलाव तापते
बीयर के साथ
दुनियादारी की बातें
मौसम की
रंगों
कीट पतंगों की
आदमी की, पैसों की
कफ्र्यू और दंगों की
हँसता रहा पैगम्बर
रातभर।
अंतत:
सरूर में
पप्पू ने गिटार उठाई
शामू ने बाँसुरी
मैंने सीटी
स्वामी ने ताली बजाई
और झूमते हुए ईश्वर के बेटे ने गाया
एक सुन्दर यहूदी गीत-
``- - ईश्वर मरा नहीं
सो रहा है।´´
`ट्राईबल´ में स्की-फेस्टिवल
सन सन सर्र सर्र
बर्फ पर
चटख झंडे
लाल पीले नीले
मजेन्टा और पर्पल और फलॉरेसेन्ट बच्चे
पाऊडर स्कीईंग
वाह जी वाह!
अभी कल ही तो पड़ी है
पाँच-छह फुट समझो
इस बार तो
कुल मिलाकर
गाँव में बड़ी मस्ती है
उम्मीदें जगी है
बुजुर्गों ने कहा है बच जाएंगी फसलें ।
बड़ा महंगा होगा
नही शर्मा जी,
यह `इकुपमिंट´ ?
इंपोर्टिड.........
अच्छा, `स्मगल्ड´ है ?
वाह जी वाह!
मनाली वाले हैं
दो चार `इंस्ट्रक्टर´
कुछ `फोर्नर´
ये `फोर्नर´ भी बस ......
और ये छोकरू अपने
उनके पीछे-पीछे ।
वैसे एक बात कहूं सर,
यह एडवेंचर
और मस्ती-
स्वस्थ मनोरंजन है
`टॉनिक´ कहो `.......काइंड आफ´ ।
वही तो,
हमारे ऋषि मुनि
क्या करते थे दुर्गम कन्दराओं में ?
एडवेंचर तो
`हेल्दी थिंकिंग डिवलेप´ करता है जनाब ।
`एक्ज़ेक्टली सर !`
और कैसे पीके `गच्च´ रहते हैं
यहां के लोग
पिछली बार याद है
कितना नाचे थे
कपूर साब
रात भर `छंका`.........
और कैसी प्यारी-प्यारी लड़कियां आई थीं
दारचा से
वाह जी वाह!
गिल साब का भांगडा
जगह नहीं थी
हाँल में तिल धरने को ।
मैंने तो डी´स्साब से कहा
यह रौनक मेला लगे रहना चाहिए
ट्राईबल में
और क्या है
टाईम पास ।
हाँ जी, हाँ ।
केलंग
(सर्दियां -2004)
1/ हरी सिब्ज़याँ
`फ्लाईट´ में सब्ज़ी आई है
तीन टमाटर
दो नींबू
आठ हरी मिरचें
मुट्ठी भर धनियाँ
सजा कर रखी जाएँगी सिब्ज़याँ
`ट्राईबेल फेयर´ की स्मारिका के साथ
महीना भर
जब तक कि सभी पड़ोसी सारे कुलीग
जान न लें
फ्लाईट में हरी सिब्ज़याँ आई है।
2/ पानी
बुरे बक्त में जम जाती है कविता भीतर
मानो पानी का नल जम गया हो
चुभते हैं बरफ के महीन क्रिस्टल
छाती में
कुछ अलग ही तरह का होता है, दर्द
कविता के भीतर जम जाने का
पहचान में नहीं आता मर्ज़
न मिलती है कोई `चाबी´
`स्विच ऑफ´ ही रहता है अकसर
सेलफोन फिटर का।
3/ बिजली
`सिल्ट´ भर गया होगा
`फोरवे´ में
`चैनल´ तो शुरू साल ही टूट गए थे
छत्तीस करोड़ का प्रोजेक्ट
मनाली से `सप्लाई´ फेल है
सावधान
`पावर कट´ लगने वाला है
दो दिन बाद ही आएगी बारी
फोन कर लो सब को
सभी खबरें देख लो
टी. वी. पर
सभी सीरियल
नहा लो जी भर रोशनियों में खूब मल-मल
बिजली न हो तो
ज़िन्दगी अँधेरी हो जाती है।
4/ सड़कें
अगली उड़ान में `शिफ्ट` कर दिया जाएगा
`पथ परिवहन निगम´ का स्टाफ
केवल नीला टेंकर एक `बोर्डर रोड्स´ का
रेंगता रहेगा छक-छक-छक
सुबह शाम
और कुछ टेक्सियाँ
तान्दी पुल-पचास रूपये
स्तींगरी-पचास रूपये
भला हो `बोर्डर रोड्स´ का
पहले तो इतना भी न था
सोई रहती थी सड़कें, चुपचाप
बरफ के नीचें
मौसम खुलने की प्रतीक्षा में
और पब्लिक भी
कोई कुछ नहीं बोलता ।
दोर्जे गाईड की बातें
(ग³् स्ता³् हिमनद का नज़ारा देखते हुए)
इससे आगे?
इससे आगे तो कुछ भी नहीं है सर!
यह इस देश का आखिरी छोर है।
इधर बगल में तिबत है
ऊपर कश्मीर
पश्चिम मे जम्मू
उधर बड़ी गड़बड़ है
गड़बड़ पंजाब से उठकर
कश्मीर चली गई है जनाब
लेकिन हमारे पहाड़ शरीफ हैं
सर उठाकर
सबको पानी पिलाते हैं
दूर से देखने मे इतने सुन्दर
पर ज़रा यहाँ रूककर देखो .................
नहीं सर,
वह वैसा नहीं है
जैसा कि अदीब लिखता है-
भोर की प्रथम किरणों की
स्वर्णाभा में सद्यस्नात्
शंख-धवल मौन शिखर,
स्वप्न लोक, रहस्यस्थली .......
वगैरा-वगैरा
जिसे हाथों से छू लेने की इच्छा रखते हो
वो वैसा खामोश नहीं है
जैसा कि दिखता है।
बड़ी हलचल है वहाँ दरअसल
बड़े-बड़े चट्टान
गहरे नाले और खì
खतरनाक पगडंडियाँ हैं
बरफ के टीले और ढूह
भरभरा कर गिरते रहते हैं
गहरी खाईयों में
बड़ी ज़ोर की हवा चलती है
हिìयाँ काँप जाती हैं, माहराज,
साक्षात् `शीत´ रहता है वहाँ!
यहाँ सब उससे डरते हैं
वह बरफ का आदमी
बरफ की छड़ी ठकठकाता
ठीक `सकरांद´ के दिन
गाँव से गुज़रते हुए
संगम में नहाता है
इक्कीस दिनों तक
सोई रहती है नदियाँ
दुबक कर बरफ की रज़ाई में
थम जाता है चन्द्रभागा का शोर
परिन्दे तक कूच कर जाते हैं
रोहतांग के पार
तन्दूर के इर्द गिर्द हुक्का गुडगुड़ाते बुजुर्ग
गुप चुप बच्चों को सुनाते हैं
उसकी आतंक कथा।
नहीं सर
झूठ क्यों बोलना?
अपनी आँखों से नहीं देखा है उसे
पर कहते हैं
घर लौटते हुए
कभी चिपक जाता है
मवेशियों की छाती पर
औरतें और बच्चे
भुर्ज की टहनियों से
डंगरो को झाड़ते हैं-
``बर्फ की डलियाँ तोडो
`डैहला´ के हार पहनो
शीत देवता
अपने `ठार´ जाओ
बेज़ुबानों को छोड़ो´´
सच माहराज, आँखों से तो नहीं............
कहते हैं
गलती से जो देख लेता है
वहीं बरफ हो जाता है
`अगनी कसम´।
अब थोडा अलाव ताप लो सर,
इससे आगे कुछ नहीं है
यह इस देश का आखिरी छोर है
`शीत´ तो है यहाँ
उससे डरना भी है
पर लड़ना भी है
यहाँ सब उससे लड़ते हैं जनाब
आप भी लड़ो।
Saturday, January 17, 2009
भाषा एक उत्तोलक है
"रात किसी पुरातन समय का एक टुकड़ा है, जिसे सन्नाटे ने थाम रखा है।" बहुआयामी काव्य-भाषा से गूंजता योगेन्द्र आहूजा का गद्य उनके कथा संग्रह "अंधेरे में हंसी", उनके रचना कौशल का ऐसा साक्ष्य है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि भाषा एक उत्तोलक है। अनुभव के संवेग से पैदा हुई उनकी कहानियों की भाषा नसिर्फ अपने समय की शिनाख्त करने वाली है बल्कि कहा जा सकता है कि रचनाकार की जीवन दृष्टि को भी पाठ्क के सामने प्रस्तुत कर सकने में सक्षम है। भाषा रूपी इसी उत्तोलक से योगेन्द्र आहूजा ने अपनी उस पक्षधरता को भी साफ किया है जो पुनर्निमाण और खुलेपन की उस षड़यंतकारी कथा का पर्दा फाश करने वाली है जिसने मनुष्यता के बचाव में रचे गये तमाम ऐतिहासिक प्रयासों को वातावरण में शेष बचे रहे धुधंलके के साथ धूल के ढेर में दबा दिया है।
उत्तोलक की वह सभी किस्में जो अपने आलम्ब के कारण अलग पहचान बनाती है, योगेन्द्र आहूजा के आयास को ऊर्जा में या अनुभव की ऊर्जा को आयास में बदलकर कहानियों के रूप में सामने आयी हैं। नींबू निचोड़ने की मशीन भी उत्तोलक ही है। अनुभव के रसों से भरा नींबू और उसका तीखा स्वाद ही योगेन्द्र आहूजा की कथाओं का रस है- "वही जो भूतपूर्व सोवियत संघ के राष्ट्रपति थे, जिनके माथे पर जन्म से एक निशान है, जो अपने देश से ज्यादा अमरिका में लोकप्रिय थे, जो वोदका नहीं छूते, जिनकी शक्ल के गुड्डे पश्चिमी बाजारों में धड़ाधड़ बिकते थे, जो खुलेपन और पुनर्निमाण के प्रवक्ता थे, और आजकल कहां हैं, पता नहीं। गोर्बाचोव, हम मामूली लोगों की इस आम फ़हम कहानी में?"
दसवें विजय वर्मा कथा सम्मान से योगेन्द्र आहूजा को उनके कथा संग्रह अंधेरे में हंसी पर सम्मानित किया गया है।सम्मान समारोह आज दिनांक 17/1/2009 को मुम्बई में सम्पन्न हुआ। सम्मान समारोह में अपनी रचना प्रक्रिया का खुलासा कथाकर योगेंद्र ने कुछ यूं किया-
वक्तव्य
योगेंद्र आहूजा
स्व. विजय वर्मा की स्मृति में स्थापित इस पुरस्कार के लिये मैं हेमंत फाउंडेशन के नियामकों संतो्ष जी और प्रमिला जी और अन्य सदस्यों और आप सबका आभार व्यक्त करना चाहता हूँ । मेरे लिये यह एक खास क्षण है और इसे बहुत दूर तक, शायद जीवन भर एक गहन स्मृति की तरह मेरे साथ रहना है। इस अवसर पर खुशी महसूस करना स्वाभाविक है, लेकिन इस समय जिन एहसासों के बीच हूँ, उन्हें बताने के लिये खु्शी शब्द बहुत नाकाफी है। ऐसे मौकों पर तमाम मिले जुले एहसासों की आँधी से, एक भावनात्मक तूफान से गुजरना होता है । मन कच्ची मिट्टी के घड़े जैसा होता है जिसमें लगता है कि इतना प्यार समेट पाना मुश्किल है - और दूसरी ओर बहुत सारे दरकिनार कर दिये गये सवाल और हमेशा साथ रहने वाले कुछ संशय, शंकायें और दुविधायें ऐसे क्षणों में एक साथ सिर उठाते हैं, समाधान माँगते हुए । मेरी अभी की मन:स्थिति में एक रंग संकोच और लज्जा का भी जरूर होगा। 72 वर्ष की उम्र में बोर्गेस ने, जो निस्संदेह बीसवीं सदी के सबसे बड़े साहित्यिक व्यक्तित्वों में से एक थे, कहा था कि वे अभी भी कवि बनने की कोशिश में लगे हैं । मैं भी अपने बारे में यही कह सकता या कहना चाहता हूँ कि लेखक बनने की को्शिश में लगा हूँ - अपनी रचनाओं को लेकर किसी आश्वस्ति या सुकून से बहुत दूर । संकोच की एक वजह तो यह है और दूसरी ---
मैं यहाँ आप सबके सामने जो मेरे आत्मीयजन, मित्र और पाठक हैं, एक कनफेशन करना चाहता हूँ। मैं सचमुच नहीं जानता लेखक होना क्या होता है, कोई कैसे लिखता है। मैं लेखक नहीं, सिर्फ एक स्टैनोग्राफर हूँ। एक मुंशी महज, या रिकार्डकीपर। लिखता नहीं, सिर्फ कुछ दर्ज कर लेता हूँ। जो थोड़ा बहुत लिखा है वह दरअसल किसी और ने लिखवाया है । शायद आपको लगे कि मैं ऐसा कहकर लिखने की प्रक्रिया को अतींद्र्रिय, रहस्यात्मक या जादुई बना रहा हूँ । शायद मैं किसी इलहाम या दूसरी दुनिया के संदे्शों की बात की रहा हूं। नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है, मैं पूरी तरह इहलोक का वासी हूँ, अध्यात्म से अरुचि रखने वाला और अपने जीवन में रेशनेलिटी और तर्कबुद्धि से चलने वाला। लेकिन मेरा एक संवाद जरूर है अलग अलग वक्तों में हुए सार्वकालिक महान लेखकों, महाकवियों, विचारकों, मनीषियों से, जो मृत्योपरांत भी मेरे कानों में कभी कभी कुछ कह जाते हैं। मैं उनकी फुसफुसाहटें रिकार्ड कर लेता हूँ, उन्हें समकालीन संदर्भो से जोड़कर और एक आधुनिक शिल्प में तब्दील कर । मैं इतना ही श्रेय लेना चाहता हूँ कि वह संवाद बना रहे इसकी एक सचेत को्शिश मैंने लगातार की है, और हाँ शायद स्मृति को जागृत रखने की भी - बेशक रचनाओं की कमियों की जिम्मेदारी तो मेरी ही है। हमारे यहाँ कहा गया है कि गुरू कोई एक, केवल एक ही होना चाहिये। यशपाल जी ने कहीं लिखा था कि दत्तात्रेय ने अपने 20 या 22 गुरू बनाये थे और इसके लिये निंदा और परिहास का पात्र बने थे। यशपाल जी लिखते हैं, मैं नहीं जानता मैं कितनी निंदा का पात्र हूँ, क्यों कि मेरे गुरूओं की संख्या तो 20 से कहीं ज्यादा है। वे सैकड़ों तो हैं ही अगर हजारों नहीं, जिनमें न जाने कितनी भाषाओं और देशों के लेखक, कवि, विचारक, संत, दृ्ष्टा और दार्शनिक शामिल हैं । मैं इस संबंध में यशपाल जी का ही अनुकरण करना चाहता हूँ । मेरे भी तमाम गुरू हैं - अलग अलग वक्तों के तेजस्वी, विराट और मेधावी मस्तिष्क, जिनसे सीख पाया - कोई आस्था या गुरुमंत्र जैसी चीज नहीं, बल्कि उसके विपरीत, संदेह करना और सवाल करना, लेकिन संदेहवाद को भी कोई मूल्य न बनाना, संदेह पर भी संदेह करना । और अपनी भा्षा के वे अग्रज लेखक जिन्होंने खुद के उदाहरण से बताया कि जीवन में सृजन और कर्म का रिश्ता क्या होता है, रचनाकार के दायित्व और लिखित शब्द की गरिमा के क्या मानी होते हैं । उनमें से तमाम ऐसे हैं जिन्हें जीवन भर रो्शनियाँ नसीब नहीं हुई। हमारी भा्षा के सबसे बड़े आधुनिक कवि मुक्तिबोध के जीवन काल में उनकी कोई किताब प्रकाशित नहीं हुई और यह उनकी आखिर तक अधूरी तमन्ना रही कि उनके नाम का कोई बैंक खाता हो । मुक्तिबोध, शैलेश मटियानी और मानबहादुर सिंह ने जो जीवन जिया और जैसी मौतें पायीं, उसके ब्यौरे हमें स्तब्ध और निर्वाक करते हैं। ये सब मेरे गुरूओं में से हैं --- और जीवन में सौभाग्य की तरह आये वे सीनियर और समकालीन लेखक, जिन्होंने बेपनाह प्यार और भरोसा दिया और असंख्य बार यह दर्शा कर अचंभित किया कि एक व्यक्ति दूसरे के लिये कितनी बड़ी मदद हो सकता है, कितनी खुशी बाँट सकता है। मैं उनका आभार उस मदद और खुशी के लिये नहीं, इसलिये करना चाहता हूँ कि उन्होंने मुझे ऐसे विचारों से बचा लिया कि इस धरती पर मनु्ष्य एक बुराई । मैं इन सब चीजों, बातों को विस्मरण के हामी इस वक्त में एक जिद की तरह याद रखना चाहता हूँ, समझदारों के द्वारा पुराना और पिछड़ा समझा जाने की कीमत पर भी । कोई भी शख्स केवल एक शख्स नहीं होता, वह तमाम शख्स होता है, यहाँ तक कि वह पूरी मानव जाति होता है । इसी तरह कोई भी लेखक केवल एक लेखक नहीं होता, उसमें जीवित मृत, अपनी और दूसरी भाषाओं के, और अलग अलग देशों और वक्तों के तमाम लेखक और लोग शामिल होते हैं । एक अकेला लेखक होना नामुमकिन है । इसलिये यहाँ अकेले खड़ा होना मुझे संकोच और लज्जा से भर रहा है ।
आभारी हूँ लेकिन यह अवसर सिर्फ आभार व्यक्त करने का नहीं । इसे एक उत्सव की तरह मनाना इस मौके को गँवा देना, सिर्फ बरबाद करना होगा । उत्सव या जश्न का कोई कारण, कोई मौका नहीं । मुम्बई और उसके साथ पूरे देश को पिछले दिनों एक दु:स्वप्न से गुजरना पड़ा है। बीस बरस पहले जो आर्थिक प्रायोजना जोशो खरो्श से लागू की गयी थी, अब उसकी साँसें मंद पड़ रही हैं । जिन जीवनमूल्यों को नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन के एक लंबे दौर में हासिल किया गया, यह जैसे उनकी प्रति अभिव्यक्ति का वक्त है । विवेक के लुंज होने के तमाम संकेत है। अब जो कुछ भी "दूसरा" है, दुश्मन है - दूसरा धर्म, भाषा, इलाका, पहनावा, विचार । यह प्रतिक्रियावाद के प्रसार का, उत्पीड़कों और मतांधों का स्पेस बढ़ते जाने का एक बेहद खतरनाक समय है । ऐसे में इस मौके का सही इस्तेमाल लेखनकर्म की प्रकृति, प्रयोजन और उद्देद्गय पर, लेखक के कार्यभारों पर दुबारा विचार करने के लिये हो सकता है। कुछ सवाल होते हैं जिनके कोई अंतिम समाधान नहीं होते और उन पर बार बार सोचते रहना, यह रचनाकर्म का ही हिस्सा होता है । मसलन, कोई क्यों लिखता है और लिखने से क्या होता है । In the beginning was the word, इन शब्दों में बाइबिल बताती है कि सृ्ष्टि की शुरुआत शब्द यानी ध्वनि से हुई थी और इसी से मिलती जुलती बात आधुनिक विज्ञान कहता है कि यह सारी सत्ता, पूरी कायनात, जो कुछ भी अस्तित्वमान है, वह एक बिग बैंग, एक महाविस्फोट से अस्तित्व में आया । ध्वनियाँ और विस्फोट और वह अनंत खामोशी जिसमें धार्मिकों के अनुसार एक दिन सब कुछ विलीन हो जायेगा ईश्वर के सृजन सही, लेकिन मनुष्य का काम उनसे नहीं चलता । उसे कोरी आवाजों और धमाकों की नहीं, वाक्यों की जरूरत होती है जो जूतों, जहाजों, घड़ियों, सीढ़ियों, नक्शों और नावों इत्यादि की तरह मनु्ष्य को अपने लिये खुद बनाने होते हैं । अपने कमरे या कोने में धीरज के साथ कोरे कागज का सामना करता, किसी अज्ञात, रहस्यमय अंत:प्रेरणा की दस्तक सुनता, अपने भीतर एक उथल पुथल और धुकधुकी का पीछा करता लेखक भी सिर्फ यही तो करता है । वाक्य बनाता है, उसमें कौमा और विराम चिह्नों को इधर इधर करता हुआ, बिना जाने कि उनका क्या हश्र होगा, वे कहाँ तक जायेंगें । मगर उसकी आकांक्षायें और इरादे बहुत बड़े होते हैं - अपने वक्त की टूटफूट और त्वरित बदलावों को समझना, उनमें से किसी खास को रेखांकित करना, संदेहों का इजहार, कोई स्वीकारोक्ति, पुराने विचारों की पुनर्परीक्षा, केंद्रीयताओं का प्रश्नांकन - पूरे समाज, पूरे अर्थतंत्र और मनुष्य के मन का अपनी आंकाक्षाओं के अनुसार पुनर्निर्माण । चाहता है चीख और खामो्शी के बीच के सारे अर्थों को समेट ले । दुनिया उसकी आंकाक्षाओं के रास्ते पर नहीं चलती, और उसकी उसकी आकांक्षाओं को दुनिया के किसी कोने में, कहीं हाशिये पर ही थोड़ी सी जगह मिल पाती है। मुझे लगता है कि आने वाले वक्तों में वह थोड़ी सी जगह भी छिनने वाली है। शब्द की सत्ता पर खतरे बढ़ते जा रहे हैं, बाहरी और भीतरी दोनों तरह के । साहित्य की दुनिया में उत्सवधर्मिता, तात्कालिक उत्तेजना और एक धोखादेह किस्म के रोमांच का अधिकाधिक बढ़ते जाना, इसे मैं एक भीतरी खतरे के रूप में देखता हूँ, और बाहरी खतरा हमारे समय की तेज रफ्तार । जितनी देर हम अपनी मेधा की पूरी शक्ति से अपने वक्त को समझने की को्शिश करते हैं, उतनी देर में वक्त बदल जाता है। हमारे वक्त में संक्रमण की, बदलाव की रफ्तार अभूतपूर्व है। हमारे रा्ष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में लगातार नयी सत्तायें उभर रही हैं और नये गठजोड़ बन रहे हैं। वे लगातार व्याख्या, निगरानी और संधान की माँग करते हैं और यह जोखिम बना रहता है कि इस को्शिश में जितना वक्त लगेगा, उतनी देर में वे कुछ और बदल चुके होंगे । इस तेज रफ्तार में लेखकों के लिये खतरा यह है कि आप थोड़ी देर को असावधान हुए और समाज के स्पंदनों, उसके अतीत और आगत की मीमांसा की आपकी सामर्थ्य चुकी। खतरा यह है कि खुद विचार करने में असमर्थ होकर लेखक बाजार की डिब्बाबंद और रेडीमेड चीजों की तरह तैयारशुदा विवेचनाओं से काम चलाने लगे । हमारे इस विचारशिथिल वक्त में बने बनाये आकर्षक विचारों की कोई कमी नहीं - इतिहास का अंत, विचार का अंत, परिवार, चेतना, स्मृति, आकांक्षाओंश और मानवीय संबंध यानी जीवन में जो कुछ भी मूल्यवान था, सबका अंत - और लेखक की मृत्यु और सभ्यताओं का संघर्ष । हमारे चारों तरफ ऐसे विचारों और व्याख्याओं का एक घना जाल है जिसे पेशेवर बौद्धिकों और चालाक चिंतकों ने बुना है, वे प्रखर और प्रतिभाशाली हैं, इसमें क्या शक । वे कहते हैं कि पिछले दो तीन दशकों में कुछ ऐसे अप्रत्या्शित, सर्वव्यापी और मूलगामी परिवर्तन हुए हैं जिन्होंने सब कुछ बदल डाला है और इन परिवर्तनों को समझने के लिये पहले के संदर्भ, उपकरण और प्रत्यय अनुपयोगी हैं, मनुष्य ने अब तक जो भी ज्ञान विज्ञान अर्जित किया है, बेकार है, इन परिवर्तनों के आगे बेबस है । अब एक उत्तर आधुनिक, उत्तर औद्द्यौगिक, उत्तर समाजवादी, तकनीकी समाज सामने है । जो नयी विश्व व्यवस्था बन रही है, वही मुकददर है । वे विकसित टेक्नालाजी के सामने मनु्ष्य की दयनीयता का, उसकी निरुपायता का हलफनामा लिखते हैं और उसे एक महान सत्य की तरह पे्श करते है। वे बताते हैं कि इस वक्त जो समाज बन रहा है उसके केंद्र में मनुष्य नहीं होगा, न उसका जीवन । अब केंद्र में केवल सत्ता होगी और मनुष्य केवल पर्यावरण का हिस्सा होगा । यह शोर बीस बरसों से जारी है, हाँलाकि अब विश्वव्यापी मंदी में जरूर थोड़ा थमा है । लेकिन क्या मनुष्यता के इतिहास में सच कभी इतना निर्वैयक्तिक, इतना नि्शंक, इतना निरपेक्ष, इतना आसान रहा है ? नियंत्रणकारी ताकतें जो एक छद्म चेतना को गढ़ने के प्रयासों में हैं, अब हमारे चारों तरफ हैं । हमारी स्मृतियों और संवेदनाओं पर उनका चौतरफा हमला है । आकर्षक और सम्मानित नामों से साम्प्रदायिकता लोगों के स्नायुतंत्र के साथ इतिहास और सत्ता पर कब्जा करने के लिये सन्नद्ध है । शायद आने वाले वक्त में हमारा लगभग सर्वस्व दॉंव पर लगने वाला है - लोकतंत्र का अस्तित्व, मूलभूत नागरिक अधिकार, इजहार की आजादी सब कुछ । ऐसे वक्त में लेखक का काम, उसका धर्म, दायित्व --- जाहिर है, वह और भी मुश्किल होने वाला है । यह कहना कतई काफी नही कि लेखक की सच से एक अटूट प्रतिबद्धता होनी चाहिये - यह तो बुनियादी बात है ही । हमारे वक्त में जब सच, झूठ और सही गलत की पहचान भी साफ नहीं, लेखक की जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी, ज्यादा मु्श्किल है । इस पहचान को साफ करने के लिये उसे सत्ता समर्थित व्याख्याओं के महीन, घने जाल को काटने की कोशिश भी करनी है । उसे हर सवाल पर एक साफ पोजी्शन लेनी है हवाई किस्म की उस गोल मोल, बेमानी मानवीयता से बचते हुए जो आततायियों के पक्ष में जाती है । समाज में पैदा होने वाली नयी उम्मीदों और नये जीवन मूल्यों की पहचान और रेखांकन यह भी उसका एक जरूरी काम है । और हाँ, उसे विस्मरण के प्रतिवाद की को्शिशों में भी शामिल रहना है ।
मैंने स्मृतियों की, स्मृति को जागृत रखने की बात कही थी । हमारी भा्षा के एक कवि असद जैदी की एक कविता में --- रेलवे स्टेशन पर पूड़ी साग खाते हुए उन्हें रूलाई छूटने लगती है । याद आता है कि मुझे एक औरत ने जन्म दिया था, मैं यूँ ही किसी कुँए या बोतल में से निकल कर नहीं चला आया था । हम सब भी जो अपने को लेखक होने के गौरव से जोड़ना चाहते हैं, उल्कापात की तरह जमीन पर नहीं टपके, न किसी बोतल की संतान हैं । हम अपनी भा्षा और पड़ोस की भाषा उर्दू की उस रवायत से आये हैं जिसे असाधारण और विराट व्यक्तित्वों ने अपने प्राणों और खून से बनाया । प्रेमचंद, सज्जाद जहीर, मंटो, बेदी, इस्मत चुगताई, मुक्तिबोध, निराला, नागार्जुन, शम्शेर और अन्य तमाम, अपने वक्तों के सर्वाधिक जागृत, तेजस्वी और अग्रग्रामी व्यक्तित्व। शायद आप कहना चाहें, भला यह भी कोई कहने की बात है। लेकिन नहीं, अब यह सब कहना भी जरूरी हो गया है। हमारे वक्त में स्मृतियाँ मिटाने के तमाम सत्तापोषित उपक्रम जारी हैं जिनके बीच कुछ याद करना और रखना एक कठोर आत्मसंघर्ष के बाद मुमकिन हो पाता है । सागर जी की अद्वितीय फिल्म 'बाजार' जो हम सब ने बार बार देखी है का एक वाक्य है - करोगे याद तो हर बात याद आयेगी । लेकिन इस वक्त भुलाने की भी कीमत मिलने लगी है । साहित्य के एक हल्के में अतीत से पीछा छुड़ाने की कोशिशें हैं, जैसे वह कोई बोझ हो। वे भुला देना चाहते हैं अपनी भाषा के सरोकारों, तनावों, नैतिकता और प्रतिवादों की - और चाहते हैं कि साहित्य महज लफ्जों का खेल रह जाये। ऐसे में भूलने के विरूद्ध होना और याद दिलाते रहना इस वक्त लेखक का एक अतिरिक्त कार्य भार है । लिखने के तरीके, शिल्प, भाषा और बयान का अंदाज, यह सब तो हमेशा ही बदलेगा लेकिन उद्दे्श्य, सरोकार और चिंतायें फै्शन की तरह नहीं बदले जा सकते । निर्मल वर्मा की एक बात याद आती है जो उन्होंने एक निबंध में लिखी थी - वे शहर अभागे हैं जिनके अपने कोई खंडहर नहीं । उनमें रहना उतना ही भयानक अनुभव है जितना किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना जो अपनी स्मृति खो चुका है, जिसका कोई अतीत नहीं। इसी बात को आगे बढाते हुए --- वह भाषा कितनी अभागी होगी जिसमें पूर्वज लेखकों और उनके लिखे की, उनकी आंकाक्षाओं और जददोजहद की स्मृति विलुप्त हो जाय। रघुवीर सहाय ने तकरीबन तीन दशक पहले एक कविता "लोग भूल गये हैं" में चिंता व्यक्त की थी - जब अत्याचारी मुस्कराता है, लोग उसके अत्याचार भूल जाते हैं" । देवी प्रसाद मिश्र की कहानी "अन्य कहानियाँ और हैल्मेट" के एक मार्मिक प्रसंग में नैरेटर अपमान सहने के बाद होम्योपैथी की दुकान में अपमान के भूलने की दवा लेने जाता है और बूढ़ा डाक्टर मना करते हुए कहता है कि अपमान को भूलने के साथ अन्याय की स्मृति भी जाती रहेगी । इस तरह न्याय पाने के प्रयत्न भी खत्म हो जायेंगे । लेखक के लिये जरूरी है याद दिलाते रहना कि भुलाना भूल ही नहीं, बहुत सारे मामलों में जुर्म, एक अक्षम्य जुर्म होता है । इसलिये कि जो भुला दिया जाता है वह अपने को पहले से भी जघन्य और नृशंस रूपों में दुहराता है। इस भूलने और भुलाने के विरूद्ध एक संघर्ष भी लगातार जारी हैश। मैं भी इसी संघर्ष में रहना चाहता हूँ, कुछ ऐसा लिख पाने की कोशिशों के रूप में जो एक साथ अपने वक्त का बयान भी हो और अपनी भाषा के श्रेष्ठतम की याद भी ।
मुम्बई आने पर और सागर जी की मौजूदगी में, थोड़ा सा फिल्मी होना माफ होना चाहिये । मुक्तिबोध जो मराठी भा्षी थे, लेकिन लिखा उन्होंने हमारी भाषा में, की कविता पंक्तियाँ हैं : दुनिया जैसी है उससे बेहतर चाहिये, इसे साफ करने के लिये एक मेहतर चाहिये । इन पंकितयों से याद आया एक दृश्य जो हाल की एक फिल्म 'मुन्ना भाई एम बी बी एस' का है, लेकिन लगता है चैप्लिन की किसी फिल्म का । एक मेहतर है, अस्पताल में सफाई करता, और जो उसकी मेहनत को बरबाद करते गुजर रहे हैं, उन पर चीखता चिल्लाता । नायक जाकर उसे गले लगा लेता है, जिसकी उसे न कोई उम्मीद थी न कोई तमन्ना । वह अवाक रह जाता है और उसके मुँह से यही निकल पाता है - चल हट, रुलायेगा क्या ? यह सम्मान ग्रहण करते हुए ऐसी ही कुछ फीलिंग्स मेरे मन में हैं । मैं इस वादे के साथ अपनी बात खत्म करता हूँ कि अपना काम जारी रखूँगा और कोशिश करूँगा कि और भी बेहतर तरीके से उसे कर सकूँ ।
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उत्तोलक की वह सभी किस्में जो अपने आलम्ब के कारण अलग पहचान बनाती है, योगेन्द्र आहूजा के आयास को ऊर्जा में या अनुभव की ऊर्जा को आयास में बदलकर कहानियों के रूप में सामने आयी हैं। नींबू निचोड़ने की मशीन भी उत्तोलक ही है। अनुभव के रसों से भरा नींबू और उसका तीखा स्वाद ही योगेन्द्र आहूजा की कथाओं का रस है- "वही जो भूतपूर्व सोवियत संघ के राष्ट्रपति थे, जिनके माथे पर जन्म से एक निशान है, जो अपने देश से ज्यादा अमरिका में लोकप्रिय थे, जो वोदका नहीं छूते, जिनकी शक्ल के गुड्डे पश्चिमी बाजारों में धड़ाधड़ बिकते थे, जो खुलेपन और पुनर्निमाण के प्रवक्ता थे, और आजकल कहां हैं, पता नहीं। गोर्बाचोव, हम मामूली लोगों की इस आम फ़हम कहानी में?"
दसवें विजय वर्मा कथा सम्मान से योगेन्द्र आहूजा को उनके कथा संग्रह अंधेरे में हंसी पर सम्मानित किया गया है।सम्मान समारोह आज दिनांक 17/1/2009 को मुम्बई में सम्पन्न हुआ। सम्मान समारोह में अपनी रचना प्रक्रिया का खुलासा कथाकर योगेंद्र ने कुछ यूं किया-
वक्तव्य
योगेंद्र आहूजा
स्व. विजय वर्मा की स्मृति में स्थापित इस पुरस्कार के लिये मैं हेमंत फाउंडेशन के नियामकों संतो्ष जी और प्रमिला जी और अन्य सदस्यों और आप सबका आभार व्यक्त करना चाहता हूँ । मेरे लिये यह एक खास क्षण है और इसे बहुत दूर तक, शायद जीवन भर एक गहन स्मृति की तरह मेरे साथ रहना है। इस अवसर पर खुशी महसूस करना स्वाभाविक है, लेकिन इस समय जिन एहसासों के बीच हूँ, उन्हें बताने के लिये खु्शी शब्द बहुत नाकाफी है। ऐसे मौकों पर तमाम मिले जुले एहसासों की आँधी से, एक भावनात्मक तूफान से गुजरना होता है । मन कच्ची मिट्टी के घड़े जैसा होता है जिसमें लगता है कि इतना प्यार समेट पाना मुश्किल है - और दूसरी ओर बहुत सारे दरकिनार कर दिये गये सवाल और हमेशा साथ रहने वाले कुछ संशय, शंकायें और दुविधायें ऐसे क्षणों में एक साथ सिर उठाते हैं, समाधान माँगते हुए । मेरी अभी की मन:स्थिति में एक रंग संकोच और लज्जा का भी जरूर होगा। 72 वर्ष की उम्र में बोर्गेस ने, जो निस्संदेह बीसवीं सदी के सबसे बड़े साहित्यिक व्यक्तित्वों में से एक थे, कहा था कि वे अभी भी कवि बनने की कोशिश में लगे हैं । मैं भी अपने बारे में यही कह सकता या कहना चाहता हूँ कि लेखक बनने की को्शिश में लगा हूँ - अपनी रचनाओं को लेकर किसी आश्वस्ति या सुकून से बहुत दूर । संकोच की एक वजह तो यह है और दूसरी ---
मैं यहाँ आप सबके सामने जो मेरे आत्मीयजन, मित्र और पाठक हैं, एक कनफेशन करना चाहता हूँ। मैं सचमुच नहीं जानता लेखक होना क्या होता है, कोई कैसे लिखता है। मैं लेखक नहीं, सिर्फ एक स्टैनोग्राफर हूँ। एक मुंशी महज, या रिकार्डकीपर। लिखता नहीं, सिर्फ कुछ दर्ज कर लेता हूँ। जो थोड़ा बहुत लिखा है वह दरअसल किसी और ने लिखवाया है । शायद आपको लगे कि मैं ऐसा कहकर लिखने की प्रक्रिया को अतींद्र्रिय, रहस्यात्मक या जादुई बना रहा हूँ । शायद मैं किसी इलहाम या दूसरी दुनिया के संदे्शों की बात की रहा हूं। नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है, मैं पूरी तरह इहलोक का वासी हूँ, अध्यात्म से अरुचि रखने वाला और अपने जीवन में रेशनेलिटी और तर्कबुद्धि से चलने वाला। लेकिन मेरा एक संवाद जरूर है अलग अलग वक्तों में हुए सार्वकालिक महान लेखकों, महाकवियों, विचारकों, मनीषियों से, जो मृत्योपरांत भी मेरे कानों में कभी कभी कुछ कह जाते हैं। मैं उनकी फुसफुसाहटें रिकार्ड कर लेता हूँ, उन्हें समकालीन संदर्भो से जोड़कर और एक आधुनिक शिल्प में तब्दील कर । मैं इतना ही श्रेय लेना चाहता हूँ कि वह संवाद बना रहे इसकी एक सचेत को्शिश मैंने लगातार की है, और हाँ शायद स्मृति को जागृत रखने की भी - बेशक रचनाओं की कमियों की जिम्मेदारी तो मेरी ही है। हमारे यहाँ कहा गया है कि गुरू कोई एक, केवल एक ही होना चाहिये। यशपाल जी ने कहीं लिखा था कि दत्तात्रेय ने अपने 20 या 22 गुरू बनाये थे और इसके लिये निंदा और परिहास का पात्र बने थे। यशपाल जी लिखते हैं, मैं नहीं जानता मैं कितनी निंदा का पात्र हूँ, क्यों कि मेरे गुरूओं की संख्या तो 20 से कहीं ज्यादा है। वे सैकड़ों तो हैं ही अगर हजारों नहीं, जिनमें न जाने कितनी भाषाओं और देशों के लेखक, कवि, विचारक, संत, दृ्ष्टा और दार्शनिक शामिल हैं । मैं इस संबंध में यशपाल जी का ही अनुकरण करना चाहता हूँ । मेरे भी तमाम गुरू हैं - अलग अलग वक्तों के तेजस्वी, विराट और मेधावी मस्तिष्क, जिनसे सीख पाया - कोई आस्था या गुरुमंत्र जैसी चीज नहीं, बल्कि उसके विपरीत, संदेह करना और सवाल करना, लेकिन संदेहवाद को भी कोई मूल्य न बनाना, संदेह पर भी संदेह करना । और अपनी भा्षा के वे अग्रज लेखक जिन्होंने खुद के उदाहरण से बताया कि जीवन में सृजन और कर्म का रिश्ता क्या होता है, रचनाकार के दायित्व और लिखित शब्द की गरिमा के क्या मानी होते हैं । उनमें से तमाम ऐसे हैं जिन्हें जीवन भर रो्शनियाँ नसीब नहीं हुई। हमारी भा्षा के सबसे बड़े आधुनिक कवि मुक्तिबोध के जीवन काल में उनकी कोई किताब प्रकाशित नहीं हुई और यह उनकी आखिर तक अधूरी तमन्ना रही कि उनके नाम का कोई बैंक खाता हो । मुक्तिबोध, शैलेश मटियानी और मानबहादुर सिंह ने जो जीवन जिया और जैसी मौतें पायीं, उसके ब्यौरे हमें स्तब्ध और निर्वाक करते हैं। ये सब मेरे गुरूओं में से हैं --- और जीवन में सौभाग्य की तरह आये वे सीनियर और समकालीन लेखक, जिन्होंने बेपनाह प्यार और भरोसा दिया और असंख्य बार यह दर्शा कर अचंभित किया कि एक व्यक्ति दूसरे के लिये कितनी बड़ी मदद हो सकता है, कितनी खुशी बाँट सकता है। मैं उनका आभार उस मदद और खुशी के लिये नहीं, इसलिये करना चाहता हूँ कि उन्होंने मुझे ऐसे विचारों से बचा लिया कि इस धरती पर मनु्ष्य एक बुराई । मैं इन सब चीजों, बातों को विस्मरण के हामी इस वक्त में एक जिद की तरह याद रखना चाहता हूँ, समझदारों के द्वारा पुराना और पिछड़ा समझा जाने की कीमत पर भी । कोई भी शख्स केवल एक शख्स नहीं होता, वह तमाम शख्स होता है, यहाँ तक कि वह पूरी मानव जाति होता है । इसी तरह कोई भी लेखक केवल एक लेखक नहीं होता, उसमें जीवित मृत, अपनी और दूसरी भाषाओं के, और अलग अलग देशों और वक्तों के तमाम लेखक और लोग शामिल होते हैं । एक अकेला लेखक होना नामुमकिन है । इसलिये यहाँ अकेले खड़ा होना मुझे संकोच और लज्जा से भर रहा है ।
आभारी हूँ लेकिन यह अवसर सिर्फ आभार व्यक्त करने का नहीं । इसे एक उत्सव की तरह मनाना इस मौके को गँवा देना, सिर्फ बरबाद करना होगा । उत्सव या जश्न का कोई कारण, कोई मौका नहीं । मुम्बई और उसके साथ पूरे देश को पिछले दिनों एक दु:स्वप्न से गुजरना पड़ा है। बीस बरस पहले जो आर्थिक प्रायोजना जोशो खरो्श से लागू की गयी थी, अब उसकी साँसें मंद पड़ रही हैं । जिन जीवनमूल्यों को नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन के एक लंबे दौर में हासिल किया गया, यह जैसे उनकी प्रति अभिव्यक्ति का वक्त है । विवेक के लुंज होने के तमाम संकेत है। अब जो कुछ भी "दूसरा" है, दुश्मन है - दूसरा धर्म, भाषा, इलाका, पहनावा, विचार । यह प्रतिक्रियावाद के प्रसार का, उत्पीड़कों और मतांधों का स्पेस बढ़ते जाने का एक बेहद खतरनाक समय है । ऐसे में इस मौके का सही इस्तेमाल लेखनकर्म की प्रकृति, प्रयोजन और उद्देद्गय पर, लेखक के कार्यभारों पर दुबारा विचार करने के लिये हो सकता है। कुछ सवाल होते हैं जिनके कोई अंतिम समाधान नहीं होते और उन पर बार बार सोचते रहना, यह रचनाकर्म का ही हिस्सा होता है । मसलन, कोई क्यों लिखता है और लिखने से क्या होता है । In the beginning was the word, इन शब्दों में बाइबिल बताती है कि सृ्ष्टि की शुरुआत शब्द यानी ध्वनि से हुई थी और इसी से मिलती जुलती बात आधुनिक विज्ञान कहता है कि यह सारी सत्ता, पूरी कायनात, जो कुछ भी अस्तित्वमान है, वह एक बिग बैंग, एक महाविस्फोट से अस्तित्व में आया । ध्वनियाँ और विस्फोट और वह अनंत खामोशी जिसमें धार्मिकों के अनुसार एक दिन सब कुछ विलीन हो जायेगा ईश्वर के सृजन सही, लेकिन मनुष्य का काम उनसे नहीं चलता । उसे कोरी आवाजों और धमाकों की नहीं, वाक्यों की जरूरत होती है जो जूतों, जहाजों, घड़ियों, सीढ़ियों, नक्शों और नावों इत्यादि की तरह मनु्ष्य को अपने लिये खुद बनाने होते हैं । अपने कमरे या कोने में धीरज के साथ कोरे कागज का सामना करता, किसी अज्ञात, रहस्यमय अंत:प्रेरणा की दस्तक सुनता, अपने भीतर एक उथल पुथल और धुकधुकी का पीछा करता लेखक भी सिर्फ यही तो करता है । वाक्य बनाता है, उसमें कौमा और विराम चिह्नों को इधर इधर करता हुआ, बिना जाने कि उनका क्या हश्र होगा, वे कहाँ तक जायेंगें । मगर उसकी आकांक्षायें और इरादे बहुत बड़े होते हैं - अपने वक्त की टूटफूट और त्वरित बदलावों को समझना, उनमें से किसी खास को रेखांकित करना, संदेहों का इजहार, कोई स्वीकारोक्ति, पुराने विचारों की पुनर्परीक्षा, केंद्रीयताओं का प्रश्नांकन - पूरे समाज, पूरे अर्थतंत्र और मनुष्य के मन का अपनी आंकाक्षाओं के अनुसार पुनर्निर्माण । चाहता है चीख और खामो्शी के बीच के सारे अर्थों को समेट ले । दुनिया उसकी आंकाक्षाओं के रास्ते पर नहीं चलती, और उसकी उसकी आकांक्षाओं को दुनिया के किसी कोने में, कहीं हाशिये पर ही थोड़ी सी जगह मिल पाती है। मुझे लगता है कि आने वाले वक्तों में वह थोड़ी सी जगह भी छिनने वाली है। शब्द की सत्ता पर खतरे बढ़ते जा रहे हैं, बाहरी और भीतरी दोनों तरह के । साहित्य की दुनिया में उत्सवधर्मिता, तात्कालिक उत्तेजना और एक धोखादेह किस्म के रोमांच का अधिकाधिक बढ़ते जाना, इसे मैं एक भीतरी खतरे के रूप में देखता हूँ, और बाहरी खतरा हमारे समय की तेज रफ्तार । जितनी देर हम अपनी मेधा की पूरी शक्ति से अपने वक्त को समझने की को्शिश करते हैं, उतनी देर में वक्त बदल जाता है। हमारे वक्त में संक्रमण की, बदलाव की रफ्तार अभूतपूर्व है। हमारे रा्ष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में लगातार नयी सत्तायें उभर रही हैं और नये गठजोड़ बन रहे हैं। वे लगातार व्याख्या, निगरानी और संधान की माँग करते हैं और यह जोखिम बना रहता है कि इस को्शिश में जितना वक्त लगेगा, उतनी देर में वे कुछ और बदल चुके होंगे । इस तेज रफ्तार में लेखकों के लिये खतरा यह है कि आप थोड़ी देर को असावधान हुए और समाज के स्पंदनों, उसके अतीत और आगत की मीमांसा की आपकी सामर्थ्य चुकी। खतरा यह है कि खुद विचार करने में असमर्थ होकर लेखक बाजार की डिब्बाबंद और रेडीमेड चीजों की तरह तैयारशुदा विवेचनाओं से काम चलाने लगे । हमारे इस विचारशिथिल वक्त में बने बनाये आकर्षक विचारों की कोई कमी नहीं - इतिहास का अंत, विचार का अंत, परिवार, चेतना, स्मृति, आकांक्षाओंश और मानवीय संबंध यानी जीवन में जो कुछ भी मूल्यवान था, सबका अंत - और लेखक की मृत्यु और सभ्यताओं का संघर्ष । हमारे चारों तरफ ऐसे विचारों और व्याख्याओं का एक घना जाल है जिसे पेशेवर बौद्धिकों और चालाक चिंतकों ने बुना है, वे प्रखर और प्रतिभाशाली हैं, इसमें क्या शक । वे कहते हैं कि पिछले दो तीन दशकों में कुछ ऐसे अप्रत्या्शित, सर्वव्यापी और मूलगामी परिवर्तन हुए हैं जिन्होंने सब कुछ बदल डाला है और इन परिवर्तनों को समझने के लिये पहले के संदर्भ, उपकरण और प्रत्यय अनुपयोगी हैं, मनुष्य ने अब तक जो भी ज्ञान विज्ञान अर्जित किया है, बेकार है, इन परिवर्तनों के आगे बेबस है । अब एक उत्तर आधुनिक, उत्तर औद्द्यौगिक, उत्तर समाजवादी, तकनीकी समाज सामने है । जो नयी विश्व व्यवस्था बन रही है, वही मुकददर है । वे विकसित टेक्नालाजी के सामने मनु्ष्य की दयनीयता का, उसकी निरुपायता का हलफनामा लिखते हैं और उसे एक महान सत्य की तरह पे्श करते है। वे बताते हैं कि इस वक्त जो समाज बन रहा है उसके केंद्र में मनुष्य नहीं होगा, न उसका जीवन । अब केंद्र में केवल सत्ता होगी और मनुष्य केवल पर्यावरण का हिस्सा होगा । यह शोर बीस बरसों से जारी है, हाँलाकि अब विश्वव्यापी मंदी में जरूर थोड़ा थमा है । लेकिन क्या मनुष्यता के इतिहास में सच कभी इतना निर्वैयक्तिक, इतना नि्शंक, इतना निरपेक्ष, इतना आसान रहा है ? नियंत्रणकारी ताकतें जो एक छद्म चेतना को गढ़ने के प्रयासों में हैं, अब हमारे चारों तरफ हैं । हमारी स्मृतियों और संवेदनाओं पर उनका चौतरफा हमला है । आकर्षक और सम्मानित नामों से साम्प्रदायिकता लोगों के स्नायुतंत्र के साथ इतिहास और सत्ता पर कब्जा करने के लिये सन्नद्ध है । शायद आने वाले वक्त में हमारा लगभग सर्वस्व दॉंव पर लगने वाला है - लोकतंत्र का अस्तित्व, मूलभूत नागरिक अधिकार, इजहार की आजादी सब कुछ । ऐसे वक्त में लेखक का काम, उसका धर्म, दायित्व --- जाहिर है, वह और भी मुश्किल होने वाला है । यह कहना कतई काफी नही कि लेखक की सच से एक अटूट प्रतिबद्धता होनी चाहिये - यह तो बुनियादी बात है ही । हमारे वक्त में जब सच, झूठ और सही गलत की पहचान भी साफ नहीं, लेखक की जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी, ज्यादा मु्श्किल है । इस पहचान को साफ करने के लिये उसे सत्ता समर्थित व्याख्याओं के महीन, घने जाल को काटने की कोशिश भी करनी है । उसे हर सवाल पर एक साफ पोजी्शन लेनी है हवाई किस्म की उस गोल मोल, बेमानी मानवीयता से बचते हुए जो आततायियों के पक्ष में जाती है । समाज में पैदा होने वाली नयी उम्मीदों और नये जीवन मूल्यों की पहचान और रेखांकन यह भी उसका एक जरूरी काम है । और हाँ, उसे विस्मरण के प्रतिवाद की को्शिशों में भी शामिल रहना है ।
मैंने स्मृतियों की, स्मृति को जागृत रखने की बात कही थी । हमारी भा्षा के एक कवि असद जैदी की एक कविता में --- रेलवे स्टेशन पर पूड़ी साग खाते हुए उन्हें रूलाई छूटने लगती है । याद आता है कि मुझे एक औरत ने जन्म दिया था, मैं यूँ ही किसी कुँए या बोतल में से निकल कर नहीं चला आया था । हम सब भी जो अपने को लेखक होने के गौरव से जोड़ना चाहते हैं, उल्कापात की तरह जमीन पर नहीं टपके, न किसी बोतल की संतान हैं । हम अपनी भा्षा और पड़ोस की भाषा उर्दू की उस रवायत से आये हैं जिसे असाधारण और विराट व्यक्तित्वों ने अपने प्राणों और खून से बनाया । प्रेमचंद, सज्जाद जहीर, मंटो, बेदी, इस्मत चुगताई, मुक्तिबोध, निराला, नागार्जुन, शम्शेर और अन्य तमाम, अपने वक्तों के सर्वाधिक जागृत, तेजस्वी और अग्रग्रामी व्यक्तित्व। शायद आप कहना चाहें, भला यह भी कोई कहने की बात है। लेकिन नहीं, अब यह सब कहना भी जरूरी हो गया है। हमारे वक्त में स्मृतियाँ मिटाने के तमाम सत्तापोषित उपक्रम जारी हैं जिनके बीच कुछ याद करना और रखना एक कठोर आत्मसंघर्ष के बाद मुमकिन हो पाता है । सागर जी की अद्वितीय फिल्म 'बाजार' जो हम सब ने बार बार देखी है का एक वाक्य है - करोगे याद तो हर बात याद आयेगी । लेकिन इस वक्त भुलाने की भी कीमत मिलने लगी है । साहित्य के एक हल्के में अतीत से पीछा छुड़ाने की कोशिशें हैं, जैसे वह कोई बोझ हो। वे भुला देना चाहते हैं अपनी भाषा के सरोकारों, तनावों, नैतिकता और प्रतिवादों की - और चाहते हैं कि साहित्य महज लफ्जों का खेल रह जाये। ऐसे में भूलने के विरूद्ध होना और याद दिलाते रहना इस वक्त लेखक का एक अतिरिक्त कार्य भार है । लिखने के तरीके, शिल्प, भाषा और बयान का अंदाज, यह सब तो हमेशा ही बदलेगा लेकिन उद्दे्श्य, सरोकार और चिंतायें फै्शन की तरह नहीं बदले जा सकते । निर्मल वर्मा की एक बात याद आती है जो उन्होंने एक निबंध में लिखी थी - वे शहर अभागे हैं जिनके अपने कोई खंडहर नहीं । उनमें रहना उतना ही भयानक अनुभव है जितना किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना जो अपनी स्मृति खो चुका है, जिसका कोई अतीत नहीं। इसी बात को आगे बढाते हुए --- वह भाषा कितनी अभागी होगी जिसमें पूर्वज लेखकों और उनके लिखे की, उनकी आंकाक्षाओं और जददोजहद की स्मृति विलुप्त हो जाय। रघुवीर सहाय ने तकरीबन तीन दशक पहले एक कविता "लोग भूल गये हैं" में चिंता व्यक्त की थी - जब अत्याचारी मुस्कराता है, लोग उसके अत्याचार भूल जाते हैं" । देवी प्रसाद मिश्र की कहानी "अन्य कहानियाँ और हैल्मेट" के एक मार्मिक प्रसंग में नैरेटर अपमान सहने के बाद होम्योपैथी की दुकान में अपमान के भूलने की दवा लेने जाता है और बूढ़ा डाक्टर मना करते हुए कहता है कि अपमान को भूलने के साथ अन्याय की स्मृति भी जाती रहेगी । इस तरह न्याय पाने के प्रयत्न भी खत्म हो जायेंगे । लेखक के लिये जरूरी है याद दिलाते रहना कि भुलाना भूल ही नहीं, बहुत सारे मामलों में जुर्म, एक अक्षम्य जुर्म होता है । इसलिये कि जो भुला दिया जाता है वह अपने को पहले से भी जघन्य और नृशंस रूपों में दुहराता है। इस भूलने और भुलाने के विरूद्ध एक संघर्ष भी लगातार जारी हैश। मैं भी इसी संघर्ष में रहना चाहता हूँ, कुछ ऐसा लिख पाने की कोशिशों के रूप में जो एक साथ अपने वक्त का बयान भी हो और अपनी भाषा के श्रेष्ठतम की याद भी ।
मुम्बई आने पर और सागर जी की मौजूदगी में, थोड़ा सा फिल्मी होना माफ होना चाहिये । मुक्तिबोध जो मराठी भा्षी थे, लेकिन लिखा उन्होंने हमारी भाषा में, की कविता पंक्तियाँ हैं : दुनिया जैसी है उससे बेहतर चाहिये, इसे साफ करने के लिये एक मेहतर चाहिये । इन पंकितयों से याद आया एक दृश्य जो हाल की एक फिल्म 'मुन्ना भाई एम बी बी एस' का है, लेकिन लगता है चैप्लिन की किसी फिल्म का । एक मेहतर है, अस्पताल में सफाई करता, और जो उसकी मेहनत को बरबाद करते गुजर रहे हैं, उन पर चीखता चिल्लाता । नायक जाकर उसे गले लगा लेता है, जिसकी उसे न कोई उम्मीद थी न कोई तमन्ना । वह अवाक रह जाता है और उसके मुँह से यही निकल पाता है - चल हट, रुलायेगा क्या ? यह सम्मान ग्रहण करते हुए ऐसी ही कुछ फीलिंग्स मेरे मन में हैं । मैं इस वादे के साथ अपनी बात खत्म करता हूँ कि अपना काम जारी रखूँगा और कोशिश करूँगा कि और भी बेहतर तरीके से उसे कर सकूँ ।
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Friday, January 16, 2009
खास तुम्हारे लिये
जिस वक्त यह ब्लाग बनाया गया था, एक विचार मन में था कि बहुत कुछ ऎसा जो बहुधा और कहीं प्रकाशित नहींहोता, या जिसको ज्यादा से ज्यादा लोगों तक जाना चहिए, मित्रों से लिखवाकर इस पर डालते रहेंगे और एकपत्रिका की तरह ही इसे चलाएंगे। अभी तक इसे ऎसे ही चलाने की कोशिश भी हुई है। पर यदा कदा जब समय पर ऎसा कुछ नहीं मिला तो अपनी रचनाओं से भी काम चलाना पडा है। फ़िर भी कोशिश जारी है। इस कोशिश का ही यह परिणाम है कि कथाकार नवीन नैथानी ने यह आलेख लिखा। ब्लाग में इसे देते हुए भाई नवीन का आभार व्यक्त करना चाह्ते हैं।
नवीन एक महत्पूर्ण कथाकार हैं। अपनी कल्पनाओं के सौरी को उन्होंने अपनी कहानियों मेंजिन्दा किया है। ग्यानपीठ से सौरी की कहानियां उनका प्रकाशनाधीन कथा संग्रह है। वर्ष २००५ में नवीन को उनकी कहानी पारस पर रमा कान्त स्म्रति सम्मान प्राप्त हुआ इससे पूर्व कथा सम्मान से भी वे सम्मानित हुए हैं। प्रस्तुतआलेख में नवीन अपने देहरादून को याद कर रहे हैं
नवीन नैथानी
मुझे नही लगता कि कोई शहर अपने होने को लेकर इस तरह से आत्म-मुग्ध होता होगा जितना देहरादून. यह शहर उन साहित्यकारों का गढ नहीं रहा जो हिन्दी जगत को अपने ईशारों से नचाते रहे. सम्मान ऒर पुरस्कार पाने ऒर बटोरने वाले लेखक इस शहर की फ़ितरत में ही नहीं हैं. यह उन लेखकों का शहर रहा है ऒर है जो साहित्यिक जीवन की रगों मैं लहू बनकर दॊड्ते हैं. फ़िर भी देहरादून की हवा में कुछ इस तरह की तासीर है कि यहां का लेखक इस शहर से दूर नहीं जा पाता. अगर रोजी-रोटी की मजबूरियां शहर से दूर खेंच के जाती हैं तो भी उसकी सांसें देहरादून में ही प्राण-वायु पाती हैं. अवधेश तो दिल्ली में पूरी तरह से स्थापित होने के बाद देहरादून लॊट आया था- वह एक यायावर की आत्महंता वापसी थी. सुरेश उनियाल तो दिल्ली में रहने ऒर बसने के बाद भी देहरादून इस तरह लॊटते हैं जैसे उनकी गर्भ-नाल देहरादून के किसी मुहल्ले की उस रसोई में गढी हुई है , जहां हिन्दुस्तान की आजादी के तत्काल बाद पंजाब ऒर दूसरे हिस्सों से आयी हुई एक दूसरी सभ्यता देहरादून को रचने लगी थी. यह देहरादून का एक सामान्य परिचय है-थोडा सा रहस्य की धुन्ध में ऒर थोडा कुहरे के कम्बल में- ऒपनिवेशिक समय से बना हुआ शहर जो निरन्तर बनते रहने का भ्रम रचता है. यहां यह उल्लेख अवांछित नहीं है कि कुछ बडे नाम संप्रति स्थाई रूप से देहरादून में रहते हैं- जीवन की उत्तरशती में. पद्मश्री लीलाधर जगूडी इस शहर के उतने ही सम्मानित बाशिन्दे हैं जितने आदरणीय कामरेड विद्यासागर नॊटियाल.
नवीन एक महत्पूर्ण कथाकार हैं। अपनी कल्पनाओं के सौरी को उन्होंने अपनी कहानियों मेंजिन्दा किया है। ग्यानपीठ से सौरी की कहानियां उनका प्रकाशनाधीन कथा संग्रह है। वर्ष २००५ में नवीन को उनकी कहानी पारस पर रमा कान्त स्म्रति सम्मान प्राप्त हुआ इससे पूर्व कथा सम्मान से भी वे सम्मानित हुए हैं। प्रस्तुतआलेख में नवीन अपने देहरादून को याद कर रहे हैं
नवीन नैथानी
मुझे नही लगता कि कोई शहर अपने होने को लेकर इस तरह से आत्म-मुग्ध होता होगा जितना देहरादून. यह शहर उन साहित्यकारों का गढ नहीं रहा जो हिन्दी जगत को अपने ईशारों से नचाते रहे. सम्मान ऒर पुरस्कार पाने ऒर बटोरने वाले लेखक इस शहर की फ़ितरत में ही नहीं हैं. यह उन लेखकों का शहर रहा है ऒर है जो साहित्यिक जीवन की रगों मैं लहू बनकर दॊड्ते हैं. फ़िर भी देहरादून की हवा में कुछ इस तरह की तासीर है कि यहां का लेखक इस शहर से दूर नहीं जा पाता. अगर रोजी-रोटी की मजबूरियां शहर से दूर खेंच के जाती हैं तो भी उसकी सांसें देहरादून में ही प्राण-वायु पाती हैं. अवधेश तो दिल्ली में पूरी तरह से स्थापित होने के बाद देहरादून लॊट आया था- वह एक यायावर की आत्महंता वापसी थी. सुरेश उनियाल तो दिल्ली में रहने ऒर बसने के बाद भी देहरादून इस तरह लॊटते हैं जैसे उनकी गर्भ-नाल देहरादून के किसी मुहल्ले की उस रसोई में गढी हुई है , जहां हिन्दुस्तान की आजादी के तत्काल बाद पंजाब ऒर दूसरे हिस्सों से आयी हुई एक दूसरी सभ्यता देहरादून को रचने लगी थी. यह देहरादून का एक सामान्य परिचय है-थोडा सा रहस्य की धुन्ध में ऒर थोडा कुहरे के कम्बल में- ऒपनिवेशिक समय से बना हुआ शहर जो निरन्तर बनते रहने का भ्रम रचता है. यहां यह उल्लेख अवांछित नहीं है कि कुछ बडे नाम संप्रति स्थाई रूप से देहरादून में रहते हैं- जीवन की उत्तरशती में. पद्मश्री लीलाधर जगूडी इस शहर के उतने ही सम्मानित बाशिन्दे हैं जितने आदरणीय कामरेड विद्यासागर नॊटियाल.
देहरादून संभवतः उन विरल शहरों म्रें है जहां से पत्रिकायें नहीं निकलतीं ऒर शहर के साहित्यकार अपने शहर पर इठ्लाते फ़िरते हैं -
खैर,इस शहर का बाशिदा मैं भी हूं, यहां मैं शहर को कुछ व्यक्तियों ,कुछ घ्टनाऒ ऒर कुछ संस्थाऒ के बहाने याद करने की कोशिश कर रहा हूं. और इस शुभ काम की शुरूआत हरजीत ऒर अवधेश के जिक्र के साथ क्यों न की जाये!
दर असल मैं ठीक- ठीक समझ नहीं पा रहा हूं कि एक ब्लोग में यह दर्ज करते हुए कितना अपना समय बचा रहा हूं. मुझे स्वीकार करते हुए थोडा कष्ट होता है कि तनिक गम्भीर साहित्यकार इस माध्यम को नितान्त अगम्भीरता से लेते हैं . समय वैसे भी उतना पारदर्शी कहां रहा? इस बात में कष्ट से अधिक विडम्बना झलकती है.
दर असल मैं ठीक- ठीक समझ नहीं पा रहा हूं कि एक ब्लोग में यह दर्ज करते हुए कितना अपना समय बचा रहा हूं. मुझे स्वीकार करते हुए थोडा कष्ट होता है कि तनिक गम्भीर साहित्यकार इस माध्यम को नितान्त अगम्भीरता से लेते हैं . समय वैसे भी उतना पारदर्शी कहां रहा? इस बात में कष्ट से अधिक विडम्बना झलकती है.
हरजीत से पहले मैं अवधेश से मिला था. इन दोनों से पहले अतुल शर्मा से. ऒर इन सबसे पहले राज शर्मा से! यह संदर्भ १९८६ का है.उन दिनो मैं शोध छात्र था. डीएवी कालेज में .राजेश सेमवाल मेरे साहित्यिक सफ़र का पहला हमकदम था. वे सिर्फ पढ्ने के दिन थे, सेमवाल के साथ मेरा सफ़र १९७९ से शुरू हुआ था- मैं भोगपुर से शहर आया था-पिछले तीस बरस से यह मेरा शहर है. उन दिनों हम खूब पढते थे.जो भी मिल गया वह पढ लिया. तो उन दिनों हम सुनते थे कि देहरादून में दो बडे सहित्यकार हैं-सुभाष पन्त ऒर अवधेश कुमार.अवधेश तो हमारा हीरो था.बाद जब मैं अवधेश से मिला तो आतंक, सम्मान ऒर कॊतुक का भाव जगता रहा-शुरू मैं .यह एक अलग प्रसंग है-इस पर चर्चा अन्यत्र कर चुका हूं .यहां तो जिक्र देहरादून की उस फ़ितरत का हो रहा है-जो आत्म-मुग्धता के बाग में टहलते हुए ऒर मस्त हुई जाती है.
यह शहर कभी भी हडबडाहट में नही दिखता. कम से कम साहित्यिक द्रष्टि से तो नहीं. यहां कभी भी फोन करने के बाद किसी मित्र के यहां जाने का रिवाज नहीं रहा. अब थोडा सा चलन बदला है.जब इस शहर में अवधेश ऒर हरजीत रहते थे तब शहर शाम को अंगडाई लेता ऒर रात उतरने के साथ खामोश सडकों को धुन्ध ऒर कुहरे की चादर में छुपाये लुका-छिपी का मनोरंजक खेल खेलता था.कई बार हम रात के वक्त दूर दूर बिखरे दोस्तों के घरों तक पहुंचकर दरवाजे खटखटा देते. यह देहरादून का ही कलेजा है जो बिना उफ किये पूरी गर्म-जोशी से स्वागत करता ऒर कोई नयी कहानी, कविता सुनने के लिये सहर्ष तैयार रहता . शहर का यह मिजाज आज भी बचा हुआ है. अब न अवधेश है ऒर न ही हरजीत .कभी दर्द भोगपुरी ने कहा था:
उठा भी तू, आया भी तू ऒर फिर पलट लिया
हमने तेरी अंगडाई से कुछ ऒर ही मतलब लिया
अब लगता है कि उन दोनों के जाने के बाद शहर अंगडाई लेना शायद भूल गया है-थोडा सा सयाना हो गया है-एक बुजुर्गियत शहर पर तारी हो गयी है.लेकिन वह बचपना अभी भी कहीं बचा हुआ है. यही इस शहर को बचाये हुए है.विजय गॊड,सुरेश उनियाल ऒर मदन शर्मा के संस्मरण देहरादून के मिजाज को समझने में मददगार हैं. यह शहर शब्दों में बयां नहीं हो पाता.इसे सुनने के लिये ऒर इससे कहने के लिये इसकी हवाओं में मॊजूद रहना पड्ता है.योगेन्द्र आहूजा ने जिस बालकनी का जिक्र किया है, उसी बालकनी में हरजीत को एक सरदारजी(वे ट्र्क-ड्राईवर थे) ने यह शे'र सुनाया था जो वे पता नहीं मुल्क के कॊन से ढाबे से सहेज कर लाये थे-खास हरजीत के लिये (यह हरजीत का प्रिय जुमला था-खास तुम्हारे लिये)
मैखाना-ए-हस्ती का जब वक्त खराब आया
कुल्हड में शराब आयी, पत्ते में कबाब आया
आमीन
भाई योगेन्द्र आहूजा को वर्ष २००८ के विजय वर्मा कथा सम्मान के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं। सम्मान समारोह कल दिनांक १७/१/२००९ को मुम्बई में सम्पन्न होगा। इस अवसर पर योगेन्द्र जी के द्वारा दिये जाने वाले वक्तव्य को आप कल दिनांक १७/१/२००९ को यहां पढ सकेंगे।
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