Monday, January 25, 2010

साहित्य की स्वाधीन और जनपक्षधर परंपरा का उपहास है समसुंग पुरस्कार -जन संस्कृति मंच

जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य सुधीर सुमन के हवाले से जारी यह  प्रेस बयान  प्रतिरोध की एक जरूरी पहल है, इसी आशय के साथ इसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।


समसुंग कंपनी और साहित्य अकादमी की ओर से दिया जा रहा टैगोर साहित्य पुरस्कार साहित्य अकादमी की स्वायत्ता, भारतीय साहित्य की गौरवशाली परंपरा और टैगोर की विरासत के ऊपर एक हमला है। दे्श की तमाम भाषाओं के साहित्यकारों व साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों को इस प्रवृत्ति का सामूहिक तौर पर प्रतिरोध करना चाहिए--- साहित्य अकादमी को सत्तापरस्ती और पूंजीपरस्ती से मुक्त किया जाना चाहिए।
जिस तरह साहित्य अकादमी ने लेखकों का नाम चयन करके पुरस्कार के लिए समसुंग के पास भेजा है वह भारतीय साहित्यकारों के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाला कृत्य है और इससे साहित्य अकादमी की स्वायत्तता पर प्रश्नचिह्न लग गया है। क्या अब इस दे्श की साहित्य अकादमी समसुंग जैसी कंपनियों के सांस्कृतिक एजेंट की भूमिका निभाएगी? यह खुद अकादमी के संविधान का उपहास उड़ाने जैसा है।
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर दिए जाने वाला यह पुरस्कार स्वाधीनता और जनता के लिए प्रतिबद्ध इस दे्श की लंबी और बेमिसाल साहित्यिक परंपरा पर कुठाराघात के समान है। बेशक दे्श की ज्यादातर पार्टियां और उनकी सरकारें साम्राज्यवादपरस्ती और निजीकरण की राह पर निर्बंध तरीके से चल रही हैं। दे्शी पूंजीपति घराने भी साहित्य-संस्कृति को पुरस्कारों और सुविधाओं के जरिए अपना चेरी बना लेने की लगातार कोशिश करते रहे हैं, बावजूद इसके दे्श के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों की बहुत बड़ी तादाद अपनी रचनाओं में इनका विरोध ही करती रही है। साहित्य अकादमी और समसुंग के पुरस्कारों के जरिए इस विरोध को ही अगूंठा दिखाने का उपहासजनक प्रयास किया जा रहा है और इसके लिए समय भी सोच समझकर चुना गया है। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पूरे देश को एक तरह का संकेत देने की तरह है कि जैसी साम्राज्यवादपरस्त जनविरोधी अर्थनीति पिछले दो दशक में इस दे्श पर लाद दी गई है, वैसे ही मूल्यों को साहित्य में प्रश्रय दिया जाएगा और साहित्य अकादमी जैसी अकादमियां इसका माध्यम बनेंगी। बे्शक साहित्य अकादमी सरकारी अनुदान से चलती है, मगर इसी कारण उसे सरकारी संस्कृति का प्रचार संस्थान बनने नहीं दिए जा सकता। जिस पैसे के जरिए यह अकादमी चलती है वह पैसा जनता के खून-पसीने का है और इसीलिए उस संस्था का एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के जशन का ठेकेदारी ले लेना आपत्तिजनक है। इस पुरस्कार का विरोध करना साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों के साथ-साथ इस दे्श की जनता का भी फर्ज है।
साहित्य अकादमी को और भी स्वायत्त बनाने और सही मायने में एक लोकतांत्रिक दे्श की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी बनाने की जरूरत है। जिस शर्मनाक ढंग से समसुंग के समक्ष समर्पण किया गया है उसे देखते हुए सवाल खड़ा होता है कि क्या साहित्य अकादमी की विभिन्न समितियों में जो लेखक हैं, वे इस हद तक पूंजीपरस्त हो चुके हैं। उनका यह विवेकहीन निर्णय इस जरूरत को सामने लाता है कि अकादमी को लोकतांत्रिक बनाया जाए और उसे सत्तापरस्ती से मुक्त किया जाए।
टैगोर ने साहित्य-संस्कृति, शिक्षा और विचार को जनता से काटकर इस तरह समसुंग जैसी किसी कंपनी की सेवा में लगाने का काम नहीं किया था। जबकि आज साहित्य अकादमी ठीक इसके विपरीत आचरण कर रही है। यह टैगोर की विरासत के साथ भी दुर्व्यवहार है। देश के तमाम जनपक्षधर साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और लोकतंत्रपसंद-आजादीपसंद जनमत का ख्याल करते हुए पुरस्कृत लेखकों को भी एक बार जरूर पुनर्विचार करना चाहिए कि वे किन मूल्यों के साथ खड़े हो रहे हैं और इससे वे किनका भला कर रहे हैं। साहित्य मूल्यों और आदर्शों का क्षेत्र है। बेहतर हो कि वे उसके पतन का वाहक न बनें और इस पुरस्कार को ठुकराकर एक मिसाल कायम करें। 25 जनवरी को पुरस्कार समारोह के वक्त अपराह्न 3 बजे जन संस्कृति मंच के सदस्यों समेत दिल्ली के कई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी ओबेराय होटल के सामने जो शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल होना चाहिए।
         

Saturday, January 23, 2010

कलाकार एक चेतना से परिपूर्ण सत्ता है

घुमकड़ी का शौक रखने वाले और कला साहित्य में खुद को रमाये रखने वाले रोहित जोशी ने यह साक्षात्कार विशेषतौर इस ब्लाग के लिए भेजा है। हम अपने इस युवा साथी के बहुत बहुत आभारी हैं। प्रस्तुत है चित्रकार एम0 सलीम से रोहित जोशी की बातचीत---




चित्रकार के रूप में एम0 सलीम से मिलना प्रकृति के विविध पहलुओं से मिलना है। भूदृश्य चित्रण के कलाकार एम0 सलीम के चित्रों में प्रकृति के तमाम रंगो-आकार अंगड़ाई लेते दिखते हैं। जो कई बार रंगों में वॉ्श  तकनीक के प्रयोग से यथार्थ और स्वप्न के कहीं बीच लहराते नजर आते हैं। उनके कैनवास मूलत: इसलिए ध्यान आकर्षित करते हैं क्योंकि वहां प्रकृति की अनुकृति भी प्रकृति से एक कदम आगे की है। उनसे हुई कुछ बातें---
रोहित जोशी

  सबसे पहले तो कुछ बहुत अपने बारे में बताइए? कला के प्रति आपकी अभिरूचि कहां से जन्मीं?
एम सलीम:- यूं तो ये रूझान बचपन से ही रहा है। जब छोटी कक्षाओं में पढ़ा करते थे तो सलेट में पत्थरों के ऊपर चॉख से, या इसी तरह कुछ, कभी जानवरों के चित्र, पेड़-पौंधे मकान आदि ड्रा किया करते थे। इसके बाद ऊंची कक्षाओं में आए यहां काम कुछ परिष्कृत हुआ इसके अलावा कला अभिरूचियों में विस्तार के लिए एक कारण मैं समझता हूं प्रमुख रहा, अब तो यह चलन कम हुआ है, लेकिन पहले लगभग 50से 70 तक के दशक में अल्मोड़ा में बाहर से बहुत कलाकार आया करते थे और साइटस् पर जाकर लैण्डस्केप्स् किया करते थे। उन्हें कार्य करते देखना अपने आप में प्रेरणाप्रद रहा। रूचि थी ही, कलाकारों को देखकर स्वाभाविक ही बड़ी होगी।
चित्रकला सम्बन्धी शिक्षा-दीक्षा कहां से रही?
एम सलीम:- दसवीं पास करने के बाद पिताजी और उनके मित्रों ने मेरी कला में अभिरूचि को देखते हुए मुझे लखनऊ आर्टस् कालेज में दाखिला दिलवा दिया। वहां फाईन आर्टस् का पॉंच वर्षों का कोर्स हुआ करता था। यहीं मेरी कला की समुचित शिक्षा दीक्षा हुई।
आपने किन-किन माध्यमों और विधाओं में काम किया है?

एम सलीम:- मैंने जलरंग व तैलरंग दोनों ही माध्यमों में काम किया है। लेकिन मुख्य रूप से जलरंगों में मेरी बचपन से ही रूचि रही है। तैल रंगों से तो परिचय ही आर्टस् कालेज में जाकर हुआ और जहां तक विधाओं का सवाल है, मैंने लैण्डस्केप, पोट्रेट, स्टिल लाइफ, लाइफस्टडी, और एब्स्ट्रैक्ट आदि पर भी काम किया है। लेकिन यहॉं मुख्य रूप से लैण्डस्केप पर मेरा काम है। जिसे मैं अधिकतम् जल माध्यम के रंगों से ही करता हूं। जल माध्यम भी कला जगत् में बड़ा विवादास्पद रहा है। जो
पुराने मास्टर्स रहे हैं, उनका मानना है कि पानी में घोलकर रंगों को पेपर में लगाया जाना चाहिए। इसमें पारदर्षिता होनी चाहिए। जैसे आपने कोई एक रंग लिया है, और उसके ऊपर दूसरा ले रहे हैं तो सारी परतें एक के बाद एक दिखनी चाहिए। इस तकनीक में अपारदर्शी रंगों का प्रयोग वर्जित माना गया है। लेकिन दौर बदला है और ये मान्यताऐं भी टूट रही हैं। कई नऐ प्रकार के रंग माध्यम आए हैं। ऐक्रेलिक मीडियम है पोस्टर मीडियम है, इनके आने के बाद से आयाम बढ़े हैं।

आपने मुख्य रूप से जल रंगों में जो लैण्डस्कैप को अपनी विधा के रूप में चुना इसके क्या कारण रहे। आपको ये ही पसन्द क्यों आया?
एम सलीम:- इसका मुख्य कारण प्रकृति में मेरी रूचि से था। आप देखेंगे हमारे पास तो काम के लिए छोटा सा  कैनवास है लेकिन प्रकृति के पास ऐसे अनेक कैनवास हैं। इसी से लैण्डस्कैप में बहुत सारी चीजें हैं, जंगल र्हैं, नदियां हैं, झरने हैं, बादल हैं, मकान हैं, पेड़-पौंधे हैं, और भी कई अन्य चीजें हैं जिनको लेकर ताउम्र काम किया जा सकता है।

कला के दर्शन से उपजता एक सवाल मैं आपसे करना चाहुंगा, कि-कला जन्म कहॉं से लेती है? उसका उद्भव कहां है?
एम सलीम:- मेरा इस बारे में जो मानना है वह यह है कि कला मूलत: पैदाइशी है। लेकिन इसे उभारने की प्रेरणा हमारे चारों ओर मौजूद प्रकृति से मिलती है। जो चीज हमें अपील करती है उसके प्रति हमारे भीतर भावनाऐं पैदा होती हैं कि हम इन्हैं अपने मनोभावों के साथ पुन: उतारें, यहीं कला का जन्म होता है। मानव ने अपने प्रारंभिक अवस्था से ही ऐसा किया है।
कला के संदर्भ में दो मान्यताऐं हैं 'कला कला के लिए" और 'कला समाज के लिए" ऐसे में आप स्वयं को कहॉं पाते हैं? और कला के सामाजिक सरोकार क्या होने चाहिए?
एम सलीम:- जो कहा जाता है कि- "आर्ट फॉर दि सेक ऑफ आर्ट" ,'कला कला के लिए" ये अपनी जगह बिल्कुल सही चीज है। इसको आप बिल्कुल इप्तदाई तौर से लें, जब आदमी समाज में नहीं बधा था, तब भी उसने सृजन किया है। प्रकृति की प्रेरणाओं से उसने चित्रांकन किया। लेकिन जब हम समाज में बध गए तो समाज के प्रति स्वाभाविक रूप से उत्तरदायित्व भी बने हैं। समाज के भीतर बहसों की वजहें भी विषय के रूप में सामने आई। कई कलाकारों ने इन विषयों पर काम भी किया। यहां एक बात मैं समझता हूं कि यह कलाकार की रूचि का विषय है कि वे इन पर कलाकर्म करे, न कि उसका उत्तरादायित्व।
कुमाऊं पर बात करें। यहॉं चित्रकला के विकासक्रम को कैसे देखते हैं आप?
एम सलीम:- कुमाऊं के ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों के अभाव में चित्रकला का विकास मुख्यत: लोककलाओं में ही रहा है। मुख्यधारा की चित्रकला परम्मरा यहॉं देखने को नहीं मिलती है। लोककलाओं में भी ज्यादातर योगदान महिलाओं का रहा है। अपनी अभिव्यक्ति के लिए घर के अलंकरण के जरिए सुलभ उपकरणों, रंगों आदि का प्रयोग कर उन्होंने चित्रण किया है। गेरू, चांवल, रामरज आदि का रंगों के लिए प्रयोग किया है। और इसके अतिरिक्त जो काम कुमाऊं में चित्रकला की मुख्यधारा का हुआ वह नगरी क्षेत्रों में हुआ। यह भी लगभग विगत् एक से डेढ़ शताब्दी पुरानी ही बात है।
आप मुख्यत: प्रकृति के चितेरे रहे हैं। अभी यहॉं मुख्यधारा के कला जगत में अवचेतन कला में प्रधानता आई है। इसे ही मान्यता भी मिल रही है। इसे आप कैसे लेते हैं?

एम सलीम:- नऐ दौर का यह एक ऐसा क्रेज है जिसके बिना हम नहीं रह सकते। यह चित्रकला का समय के सापेक्ष विकास है। देखिए आज फोटोग्रॉफी, चित्रकला की प्रतिस्पर्धा में है। और साथ ही ये तकनीकी रूप से भी बहुत ऐडवांस हो गई है। इससे चित्रकला की पुरानी मान्यताऐं भी टूट रही हैं। कैमरा सिर्फ एक क्लिक में चित्रकार के तीन चार घण्टे की मेहनत सरीखा परिणाम दे रहा है। ऐसे में यदि आप सिर्फ वस्तुओं की अनुकृति मात्र कर देंगे तो वह आकर्षित नहीं कर पाऐगी यदि आप अवचेतन विचारों का अपनी अनुकृति में प्रयोग करेंगे तो यह कलागत् दृष्टि से नवनिर्माण होगा व उसे मान्यता भी मिलेगी। यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बात है कि कैमरे के पास मन नहीं होता और न हीं संवेदनाऐं होती है। लेकिन कलाकार एक चेतना से परिपूर्ण सत्ता है जो कि मौलिक सृजन करने की क्षमता रखता है।
अवचेतन कला है क्या?
एम सलीम:- जिसको अवचेतन कला कहते हैं, "एब्स्ट्रैक्ट आर्ट"। तो एब्स्ट्रैक्ट तो वीज्युअल आर्ट में कुछ है ही नहीं। आकार रहित तो कोई कला हो ही नहीं सकती। हां ये जरूर है कि प्रकृति से वह विषय आपके भीतर गया है व रूप बदलकर बाहर आया है। बुनियादी रूप में वह मूर्त था बस जब तक आपके विचारों में रहा अमूर्त रहा लेकिन जब कैनवास में रंगों के माध्यम से उतरा फिर मूर्त हो उठा। हां लेकिन यह मूर्तता उस मूर्तता से अलग है जो वह प्रकृति में है।

Friday, January 22, 2010

डॉ0 कालिका प्रासाद चमोला नही रहे



केन्द्रीय विद्यालय संगठन , जयपुर  के सहायक आयुक्त डा। कालिका प्रासाद चमोला का दिनॉक 13.01.2010 को निधन हो गया । वे 46 वर्ष के थे और पिछले चार माह से लीवर की बीमारी से पीड़ित थे। तबियत बिगड़ने पर उन्हे दिनॉक 14.01.2010 को जयपुर के अपेक्स अस्पताल मे भरती किया गया जहॉ अपराह्रन 15:45 पर उनका निधन हो गया। उनके परिवार में पत्नी के अलावा दो पुत्र हैं।
दिनॉक 30.06.1963 को रूद्रप्रयाग में जन्मे चमोला आरॅभ से ही मेधावी छात्र थे। एमएससी गणित विषय में गोल्ड मेडलिस्ट होने के पश्चात उन्होने पीएचडी की और केन्द्रीय विद्यालय में पीजीटी अध्यापक के रूप में नौकरी आरम्भ किया। उसके पश्चात उन्होनें तिब्बती विद्यालय संगठन दिल्ली में एजूकेशन अधिकारी  के रूप में कार्य किया। सन 2001 में वे केन्द्रीय विद्यालय पाण्डिचेरी में प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्त हुये। पाण्डिचेरी रहते हुये उन्होने गणित की दो शोधपरक् पुस्तकें लिखीं - वैदिक अर्थमेटिक्स एण्ड डेवलपमेंट ऑफ बेसिक कान्सेप्टस् तथा दूसरी एलिमेन्टरी वैदिक अलजेबरा ( दोनो ही सूरा प्रकाशन चेन्नई से सन 2006 में प्रकाशित)। वे विद्यालयं में स्कूली शिक्षा के अतिरिक्त रचनात्मक गतिविधियों की ओर भी विशेष ध्यान देते थे। सन 2006 में पाडिचेरी में प्रथम मैथमैटिक्स ओलम्पियाड कराने का श्रेय उन्हीं को जाता हैं।
बाद में सन 2007 जुलाई में केन्द्रीय विद्यालय संगठन के सहायक आयुक्त बन कर जयपुर आये। नई जिम्मेदारी में वे अत्यन्त व्यस्त रहते। प्राय: वे दौरे पर जयपुर से बाहर रहते और जब जयपुर में रहते भी तो देर रात तक कार्यालय में रहते। इतनी व्यस्तताओं के बावजूद उनकी दो अन्य पुस्तकें बाजार में आईं- वैदिक मैथमैटिक्स फॉर बिगनर्स (धनपत रॉय प्रकाशन नई दिल्ली 2007 ) तथा द ग्रेट आर्किटेक्ट्स ऑफ मैथमैटिक्स वाल्यूम 1 ( आर्य बुक डिपो नई दिल्ली 2008)। इसके अतिरिक्त निम्न लिखित पुस्तकों पर कार्य कर रहे थे-
1। मैथमैटिक्स डिक्शनरी 
2। द ग्रेट आर्किटेक्ट्स ऑफ मैथमैटिक्स वाल्यूम 2
3। द पायोनियर ऑफ मैथमैटिक्स
4। मैथमैटिकल एम्यूज़मेन्ट्स
वैदिक मैथमैटिक्स फॉर बिगनर्स को केन्द्रीय विद्यालय संगठन के पुस्तकालयों के लिये अनुमोदित किया गया है।
 डा कालिका प्रासाद चमोला का साहित्य से भी गहरा सरोकार रहा है। अस्सी नब्बे के दशक में जब वे देहरादून में थे तो वे रचनात्मक रूप से काफी सक्रिय थे। साहित्यिक गोष्ठियों में नियमित उनकी उपस्थिति रहती। उन्हे 1991 का कादम्बरी का युवा कहानीकार मिला था। पाण्डिचेरी और जयपुर रहते हुये भी वे साहित्य के लिए बेचैन रहते थे और कई बार अपनी व्यस्तता को कोसते रहते। फिर भी इस दौरान उन्होने "शिकार", "झड़ते काफल" तथा "एक और पलायन" जैसी कहानियॉ लिखा। जयपुर आते ही वे वरिष्ठ साहित्यकार विजयदान देथा से मिलने उनके घर बोस्न्दा ( जोधपुर) गये। साहित्य के प्रति उनके अनुराग का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा।
 किसी एक नौकरी में लम्बे समय न टिके रहने से अस्थायित्व उनके जीवन का मुख्य चरित्र बन गया था। नई नौकरी को नई जगह से शुरू करने से वे हमेशा व्यस्त रहते। ऐसा नही था कि वे अपने बेहतर जीवन या व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए "कैरियरिस्ट" थे। वरन् यह कैसे  होता कि इतनी बड़े पद पर आसीन व्यक्ति के पास चौपहिया तो क्या दुपहिया भी न हो। दरअसल जब उन्होने केन्द्रीय विद्यालय में अध्यापक के रूप में नौकरी शुरू की तो उस समय केन्दीय विद्यालयों का स्तर का ग्राफ एक ऊंचाई को छूकर गिरना शुरू हो गया था। संवेदनशील चमोला इसे लेकर काफी बेचैन रहते। उन्होने सोचा कि सुधारने का वे  कितना दृढ़ संकल्प क्यों न  ले ले एक अध्यापक के रूप में तो केवल पहाड़ को खिसकाने जैसा ही कोशिश होती। इस कृत संकल्प के साथ उन्होने प्रशासनिक सेवा की राह चुना। और प्रशासक बनते ही संगठन से जुड़े विद्यालयों को सुधारने की मुहिम में लग गये। इसीलिए वे आये दिन विभिन्न केन्द्रीय विद्यालयों के दौरे पर रहतें। वे विद्यार्थियों मे नैतिक उत्थान के प्रति काफी चिन्तित रहते और इस क्षेत्र में सक्रिय  संगठनों या संस्थाओं से अपने स्कूलों में कार्यशाला करवाने की सॅभावना का पता लगाते। इसी उद्देश्य से उन्होने माउंटआबू स्थित ब्रह्मकुमारियों के संगठन से अपने कई स्कूलों में कार्यशाला लगवाया। उनसे बातचीत से  गृह प्रदेश उत्तराखण्ड के केन्द्रीय विद्यालयों का स्तर सुधारने की उनकी इच्छा जाहिर होती थी और इसके लिये उत्तराखण्ड में स्थानन्तरण के लिये प्रयत्नशील थे। उनके असमय निधन से शिक्षा क्षेत्र ने न केवल एक कुद्गाल एवम् ऊर्जावान प्रशासक को खोया है बल्कि गणित एवम् साहित्य का एक सॅभावनाशील व्यक्तित्व भी हमारे बीच से अचानक ही चला गया।

-अरूण कुमार असफल

Monday, January 18, 2010

और बुक हो गये उसके घोड़े-5

पिछले से जारी

यह फिरचेन ला का बेस है। हम संभवत: तेरह साढ़े- तेरह हजार फुट की उंचाई पर होंगे इस वक्त। सेरिचेन ला का बेस भी यही है। यही से दक्षिण पश्चिम दिशा की ओर फिरचेन ला और दक्षिण पूर्व दिशा की ओर दरिया के पार डोक्सा के नजदीक से जा सकते हैं सेरिचेन ला। सेरिचेन को पार कर कारगियाक नाम्बगिल के गांव पहुंच सकते हैं ओर फिरचे को पार कर गोम्पेल के गांव तांग्जे जा सकते हैं। धूप चारों ओर बिखरी हुई है चौरू ओर याक घास चरने में मस्त हैं। हवा का बहाव इतना ज्यादा है कि टैन्ट खड़ा करना मुश्किल हो रहा है। छोटी छोटी घास के साथ साथ पीले, बैंगनी और कहीं कहीं लाल सफेद फूल भी दिखायी पड़ रहे हैं। हरे पत्तों के झुण्ड वाले चौलाई की तरह के दानों वाले पौधे हैं। जिनके दानों वाले हिस्से का रंग लाल है। यह औषधीय पौधा है, नाम्बगिल बताता है, जोड़ों के दर्द में इसका अर्क पीने से आराम मिलता है। स्थानीय नाम आसी है। तीन महीने अपने जानवरों के साथ यहां रहने के बाद घास काटने में लग जाएंगे जांसकर वाले--- जो बाकी के छह महीने जानवरों को खिलायी जा सकेगी।
फिरचे के बेस में शाम सात बजे के आस पास मौसम अचानक खराब होना शुरू हो गया। उससे पहले तक चमकती धूप को देखकर मौसम के इस तरह खराब हो जाने की कल्पना नहीं की जा सकती थी। बादल घिर गये। बिजली चमकने लगी। आश्चर्य जनक घटना देखने मे आयी, बिजली लगभग 15 से 20 सेकेण्ड तक चमकती थी लेकिन बिजली के चमकने के बाद जो सड़क सुनायी देती है, सुनायी नहीं दी। लगभग दो घन्टे तक मौसम ऐसे ही रहा थोड़ी थोड़ी देर बाद बिजली चमक जाती थी। इसी दौरान एक मजेदार दृश्य और लगा। यू तो हम जानते ही हैं कि सिंथेटिक कपड़ों में विद्युत आवे्श होता है। पर यहां जो विद्युत आवे्श पैदा हो रहा था उसकी बात ही और थी। हमारी उंगलियों के पोर जिस भी कपड़े पर या कैरिमेट पर जो कि सिंथेटिक ही थे हल्की सी रगड़ खाते वहां तेज रोच्चनी दिखायी देती। थोड़ी देर तक हम रो्शनी की नदी बहाते रहे।
अगले रोज जब फिरचे की ओर चलना शूरू हुए मौसम यू तो साफ ही लग रहा था पर धूप नहीं थी। विदेशी टीम के कुछ साथियों की तबियत खराब हो गयी थी इसलिए वे बेस में ही रूक गये ।हम कुछ ही दूर चले होंगे कि बूंदा-बांदी शुरू हो गयी। मौसम खराब होने लगा। फिरचे पर बर्फ नहीं--- पुरनै से डोक्सा तक आया एक व्यक्ति कह रहा था। पुरनै से यह व्यक्ति किसी विदेशी टीम से मिलने आया है यहां। विदेशी टीम डोक्सा पार की पहाडियों पर चोटियों में चढ़ने के अभियान में मशगूल है। इंग्लैण्ड से आयी यह टीम पुरनै में "विकास कार्य" करना चाहती है। इसी संबंध में पुरनै वाले इस व्यक्ति को यहां बुलाया गया था--- उसी ने बताया।
फिरचेन लम्बा पास है। यदि इस पर बर्फ हो तो शायद इसे पार न किया जा सके। यही वजह है फिरचेन ला ट्रैक का समय जुलाई के आखरी सप्ताह के आस पास रखा जाता है ताकि बर्फ कम हो जाए। भूल भुलैया वाले, तीखे धरों वाले इस पर बेस से टाप तक जाने में हमें पांच घंटे लगे। यह स्थिति तब है जबकि बर्फ किनारों पर ही है। बीच रास्ते में नहीं। यदि सारे मार्ग में बर्फ ही बर्फ हो तो अनुमान लगा सकते हैं कि कितना समय लगता। इसी लिए बर्फ के रहते इसे पार करने का जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता। नीचे से ही जो मौसम खराब होना शुरू हुआ उपर आते आते तक बुरी तरह से बिगड़ चुका था। उपर बर्फ पड़ने लगी थी। कोहरा छा गया था । अपने से लगभग 20 मीटर की दूरी पर चल रहे साथी को भी हम देख नहीं पा रहे थे। यही कारण है कि टॉप पर पहुंचने से पहले उबड़ खाबड़ चढ़ाई भरे रास्ते पर मैं और मेरा साथी सतीश पीछे रह गए। हम लगभग 17500 फुट की ऊंचाई पर थे। सांस लेने में भी दित हो रही थी। हम दोनों से लगभग 20-30 मीटर आगे अनिल काला था जो अचानक ही दृश्य से गायब हो गया। कोहरा इतना घना हो गया कि कुछ भी दिखाई न दे रहा था। हमने उसे पुकारा तो कोई प्रत्युत्तर सुनाई न पड़ा। अनजानी आशांका न हमें घेर लिया। जोर-जोर से आवाज लगाकर हम अपने अदृश्य साथियों को पुकारने लगे। पुकारते रहे और आगे बढ़ते रहे। जमीन में हल्का गीलापन बिखरने लगा था। हम साथियों के पद चिह्न खोजने लगे। तभी हमें काला के जूतों के निशान और अन्य साथियों के जूते के निशान भी दिखाई दिये। किसी निर्जन में जूतों की छाप कैसी राहत देती है, इसे उस वक्त ज्यादा नजदीकी से महसूस कर सकते थे। जूतों की छाप से हम अपने साथी की तस्वीर गढ़ सकते थे। हमारे जूतों के तल्ले एक दूसरे साथी की निगाहों में हमारी तस्वीरें गढ़ते हैं। उन तल्लों की छाप पर ही हम आगे बढ़ने लगे। कुछ ही दूर चले होंगे कि छोरतेन में टंगे कपड़ों की झण्डियों की झलक दिखाई दी, फिर गायब। हमें विश्वास हो गया कि हम सही रास्ते पर हैं और टॉप के नजदीक पहुंच चुके हैं। टॉप के बारे में मेरी धारणा थी कि बौद्ध लोग टॉप में मौने और छोरतेन बनाते हैं, कपड़ों की झण्डियां लटकती रहती हैं। इसी धारणा के आधार पर हम टॉप की पहचान कर पाते हैं। नही तो फिरचे हर एक धार के बाद टॉप होने का भ्रम पैदा करता पास है। मौने के एकदम नजदीक पहुंचने पर हमने देखा कि हमारे बाकी साथी वहां पहले से पहुंचे हमारा इंतजार कर रहे हैं। बरसातियां हमने ओढ़ी हुई थी लेकिन पिट्ठु ही भीगने से बच पा रहे थे। पास पर तेज ठंडी हवा चल रही थी। पहने हुए कपड़े पूरी तरह से भीग चुके थे। बहती हुई ठंडी हवा में थोड़ी देर भी रूकने का मतलब था कि अपने भीतर की उर्जा को खत्म करना। लगभग 10 मिनट सांस लेने के बाद बरसाती ओढ़े हुए ही नीचे उतरना शुरू किया। नीचे काफी तेज ढलान थी। तेज धार वाली ढलान पर उतरते हुए घुटनों पर भारी बोझ पड़ रहा था। यदि इस पूरी ढलान पर बर्फ होती तो ज्यादा सचेत होकर उतरना पड़ता क्यों कि इसके साथ साथ ही गहरी खायी दिखायी दे रही थी। वैसे कोहरा घिरा होने की वजह से इस वक्त चलना बर्फ में चलने से ज्यादा कठिन था। फिरचे पर मौसम इतना खराब था कि फोटो नहीं खींचे जा सकते थे। सिर्फ दो चार मीटर के फासले पर ही हमारी आंख देख पाने में सक्षम थी फिर कैमरे की आंख से क्या देखा जा सकता था?
जिंकचेन से थोड़ा नजदीक ही रूके हम। फिरचे आकर्षित कर रहा है। खराब मौसम चुनौती है हमारे लिए जो भविष्य तक बनी रहेगी जब तक दूर तक फैले इस पास को जी भर कर न देख लें। फिर भी बर्फ से भरे फिरचे को पार करना तो हमारे लिए चुनौती बना ही रहेगा। बर्फ से भरे फिरचे की कल्पना मुझे और ज्यादा आकर्षित कर रही है। बर्फ से भरे इस पास पर भटकने और खाईयों में फंस जाने का भय मेरे अंदर सिहरन पैदा कर रहा है। जिंकचेन से आगे का मार्ग यूं हल्की चढ़ाई उतराई का ही है पर पहाड़ की वो धार जहां से जांसकर दिखायी देने लगता है वहां से एक दम नीचे सीधी उतराई उतरनी होगी। यूं कह सकते हैं हम इस वक्त तांग्जे की छत पर हैं जो लगभग 14000 फुट की उचांई पर होगी। जांसकर वैली के ज्यादातर गांव यहां से दिखायी दे रहे हैं। जैसे पीछे की ओर खीं, थांसो और सामने की ओर तांग्जे, कुरू, त्रेस्ता। लगभग 11500 से 12000 फुट की उचांई पर ही यह सारे गांव हैं। यहां से नीचे उतरने के लिए पथरीली चट्टान है। वासुकी ताल से केदार नाथ उतरते हुए तीखी ढलान है जैसी- उससे कहीं ज्यादा सीधी है यह चट्टान। यदि जांसकर घाटी की चट्टान से इसका ज्यामितिय कोण नापा जाए तो लगभग 80 डिग्री से कम नहीं होगा। वासुकी से केदार नाथ इतना सीधा नहीं। फिर वासुकी से नीचे उतरते हुए घास ही घास है। जिस पर उतरते हुए घुटनों में दर्द तो हो सकता है पर जान का उतना जोखिम नहीं जितना चहां दिखायी दे रहा है। यहां वनस्पति नाम की कोई चीज मौजूद नहीं है। पत्थर ही पत्थर हैं जो आपके पैर से फिसल कर नीचे उतरने वाले साथी के लिए भी खतरनाक हो सकते हैं। दृष्टि एकाग्रचित रहे, शरीर पर नियंत्रण रहे और कन्धों पर झूलते पिट्ठू को यदि पत्थरों पर टकराने से रोका जा सके तो ही उतरा जा सकता है। इतनी सावधानी के बाद भी कहीं कहीं चट्टानें इतनी लम्बी हैं कि पांव को नीचे लटका कर बड़ी ही सावधानी से कूदना पड़ रहा है। ऐसी ही अलग अलग जगह पर हम में से कोई न कोई फंसा ही है लेकिन जैसे तैसे एक दूसरे को दिच्चा और सहारा देते उतरते रहे। बांस की सीढ़ी में उतरते हैं जिस तरह कहीं कहीं तैसे ही चट्टान की ओर मुंह कर उतरना पड़ा। अभी तक के रास्तों में यह सबसे ज्यादा कठिन रास्ता है। अब जबकि तांग्जे एक दम नजदीक है। लगभग 2000 फुट नीचे इसी तरह उतरना पड़ा। इस रास्ते के अलावा हाल ही में तांग्जे वालों ने दूसरा रास्ता बनाया है जो कहीं और से जाता होगा, जिसके बारे में न तो हमें मालूम था और न ही नाम्बगिल को। नीचे उतरने के बाद एक बार निगाह ऊपर डाली तो आंखें फटी रह गयी। सीधी चट्टान जिससे उतरे हैं हम। ऊपर से ही जन जीवन का एहसास होने लगा था ऊपर के गांवों के आस पास जो हरियाली दिख रही थी, जिनमें एक लहर सी चलती हम देख रहे थे, वे गेंहू के खेत हैं।

Sunday, January 10, 2010

तू दिखयांदी जनि जुन्याली

उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के संघर्ष में सांस्कृतिक कर्मियों की भूमिका और भागीदारी को सुनिश्चित करने की जो कोशिशें दृष्टि देहरादून ने की उनके फलस्वरूप ही उत्तराखण्ड सांस्कृतिक मोर्चे के गठन की प्रक्रिया आगे बढ़ी थी लेकिन जिन कारणों से वह पहल अपने शुरूआती दौर में ही बिखरने लगी थी, उस पर कभी विस्तार से चर्चा करने का मन है। अभी प्रस्तुत है भाई सुनील कैंथोला का विश्लेषण जिसमें राज्य निर्माण के बाद देहरादून में मेले ठेलों की संस्कृति के रूप में फैलते गए प्रदूषण को पकड़ने की कोशिश की गई है। 
सुनील समाजिक सांस्कृतिक उद्यमी हैं, वर्तमान में Mountain Sheperds से जुड़े हैं।






सुनील कैंथोला

टोपियों के थोक विक्रेता

‘‘पहाड़ी आदमी को दो चीज की रक्षा करनी चाहिए - अपनी टोपी और अपने नाम की। टोपी की रक्षा वही कर सकेगा जिसके पास टोपी के नीचे सिर है और नाम की रक्षा वह, जिसके दिल में आग है।’’ ऐसा मेरा दागिस्तानके लेखक रसूल हमजातोब कहते हैं। चूंकि इस लेख में टोपियों के कारोबार पर टिप्पणी करने का प्रयास किया  गया है। अतः रसूल का जिक्र करना मैने उचित समझा। जहां तक इसे लिखने की प्रेरणा है तो राजभवनों की एय्याशियों से सम्बन्धित ताजा सुर्खियां इसका मुख्य कारण है। दिलचस्प बात यह है कि इन खबरों में नया कुछ भी नहीं। ऐसा तो इस लोकतंत्र में आजादी के बाद से ही चल रहा है। वो जब यहां राज करते थे तो उनकी पसंद के चर्चे हर एक की जुबां पर थे। वो जब लखनऊ में थे या फिर दिल्ली में, तब भी उन्होंने ऐसी ही लीलाएं रचाई होंगी। राज भवनों के बाहर संतरी बन्दूकें लेकर खड़े रहे होंगे,
दरअसल उत्तराखण्ड निर्माण के उपरांत प्रदेश में एक विशेष कल्चरल ब्यूरोकेसी का जन्म हुआ, जिसके प्रथम सचिव संस्कृतिकर्म को टेंडर और परियोजना प्रस्तावों के अंतर्गत स्थापित करना चाहते थे। उनके ही सदप्रयासों से तम्बू लगाने वालों और वैरायटी शो दिखाने वालों का धन्धा चमकने लगा। सचिव का प्रसाद उन्हीं को मिलता था, जो सहलाना जानते थे। चूंकि चारण/भाटों की जमात इस कार्य में सिद्ध थी अतः उन्हे भी प्रसाद मिला और कालांतर में प्रसाद वितरण की ऐजेंसियां भी मिल गई। प्रदेश में यत्र/तत्र मेले ही मेले लगने लगे। मूल मुद्दे हवा हो गए और बांदों  गीत (बांकी गोरी के रुप और उनकी मोहक अदा से भरे) पूरे पहाड़ में गूंजने लगे।
और इसी तरह देश की आजादी के 6 दशक गुजर गए। इस घटना को मैं इसी परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश कर रहा हूं। आजादी के बाद इस प्रजाति के नेतृत्व ने भी देश चलाया और इसे कहां ले गए, इस बारे में विचार तो किया ही जाना चाहिए। यदि ये उत्तर प्रदेश को ढंग से चलाते तो भला हमें पृथक पर्वतीय प्रदेश के लिए क्यों संघर्ष करना पड़ता। इससे पहले कि ये छोटा सा पर्वतीय राज्य अपने छोटे-छोटे सपने पूरे करने की दिशा में बढ़ता, इन्हें हमारे ऊपर थोप दिया गया और जैसे कि होना ही था देखते ही देखते हमारे बुग्यालों के फूलों को राज महलों तक पहुंचाने का तंत्र खड़ा हो गया। यहां मैं पुनः अपनी बात को दोहराना चाहूंगा कि यह कोई बड़ी बात नहीं थी। जिसने जिन्दगी भर यही किया हो और जो सिर्फ इसी चीज में पारंगत हो, वह उम्र के इस दौर में भला आपके हिसाब से काम कैसे करेगा? बहरहाल! इस पृष्ठभूमि के साथ, इन्हें फिलहाल यहीं छोड़ते हैं और लेख के मुख्य शीर्षक पर आते हैं।
मेरी तरह शायद कुछ और लोग भी मानते होंगे कि मात्र राज आश्रय पर चलने वाले संस्कृतकर्म की अंतिम परिणिति चारण और भाटों के रूप में ही होती है। चारण/भाटों की मूल प्रतिबद्धता राजतंत्र से होती है और संस्कृतिकर्मियों की अपनी जड़ों  से। जब तक सत्ता के केन्द्र, महलों के रूप में संचालित होंगे तब तक चारणों की रोजी-रोटी चलेती रहेगी या इसे यूं भी कह सकते हैं कि तब तक जनपक्षीय राजनीति और संस्कृतिकर्मी इन महलों को ध्वस्त करने में जुटे रहेंगे। इस जटिल समाज/नृवंशास्त्रीय गणित में संस्कृतिकर्मियों और चारण/भाटों का परस्पर आंकड़ा हमेशा 36 का ही रहेगा। यहां एक बात और है कि चारण/भाटों का चोला हमेशा संस्कृतिकर्मियों का ही होता है और इनकी असली पहचान के अवसर यदा-कदा ही आते हैं। ऐसा ही एक दुर्लभ अवसर उत्तराखण्डी कवि और गायक नरेन्द्र सिंह नेगी के नौछमी गीत के प्रचारित होने के उपरांत आया था। तब टोपियों के थोक विक्रेता अपना आपा खो बैठे थे।
दरअसल उत्तराखण्ड निर्माण के उपरांत प्रदेश में एक विशेष कल्चरल ब्यूरोकेसी का जन्म हुआ, जिसके प्रथम सचिव संस्कृतिकर्म को टेंडर और परियोजना प्रस्तावों के अंतर्गत स्थापित करना चाहते थे। उनके ही सदप्रयासों से तम्बू लगाने वालों और वैरायटी शो दिखाने वालों का धन्धा चमकने लगा। सचिव का प्रसाद उन्हीं को मिलता था, जो सहलाना जानते थे। चूंकि चारण/भाटों की जमात इस कार्य में सिद्ध थी अतः उन्हे भी प्रसाद मिला और कालांतर में प्रसाद वितरण की ऐजेंसियां भी मिल गई। प्रदेश में यत्र/तत्र मेले ही मेले लगने लगे। मूल मुद्दे हवा हो गए और बांदों (बांकी गोरी के मोहक अदा से भरे) गीत पूरे पहाड़ में गूंजने लगे।
ऐसा माहौल बना कि जैसे सब पा लिया गया है। यह चारणों के प्रमोशन का काल था। कलम हो या जुबां, सब पर सत्ता के प्रसाद का अंकुश था। ऐसे में सत्ता के गलियारों में चरम आनन्द के सुमन पनपे और सरकार के साहित्य एवं कला मंचों में जाकर खिले। यह लम्बी फेरहिस्त है। जब यह सब हो रहा था, तब टोपियों के विक्रेता अपनी प्रसाद एजेंसी के विस्तार के गठजोड़ में लीन थे। पिछले दस बरसों में यहां अजब तमाशे हुए। कोई साहित्यकार नेता जी को प्रदेश का पिता बनाने पर तुला है तो कोई खिचड़ी खाऊ ठेकेदार बिरादरी का झंडाबरदार है। कहीं बायोग्राफी लिखी जा रही है तो कोई इनके जीवन पर वृत्तचित्र बना रहा है। कुटिल केन्द्रीय राजनीति का अहसास तो उत्तराखंड को अपने जन्म के समय से ही हो गया था। जब उसके नामकरण से लेकर राजधानी तक के निर्णयों से उसे अलग रखा गया। जब देहरादून के परेड ग्राउण्ड में 9 नवम्बर 2000 को उसके वैधानिक जन्म की पार्टी में शामिल होने के अगले ही दिन उ.प्र.के मुख्यमंत्री ने मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषियों में से एक अनन्त कुमार सिंह पर मुकदमा चलाने की अनुमति देने से मना कर दिया। तब धर्म से बड़ी जात हो गई थी।
ऐसे समय में, ऐसा नहीं कि भाई लोग जानते न थे। सभी, सब कुछ जानते समझते थे। पर मंचों का मोह, महलों से घनिष्ठता का नशा और विशेषकर प्रसाद वितरण व टोपी पहनाने के विशेषाधिकार ने उन्हें न नर, न नारी की श्रेणी में खड़ा कर दिया और जिसके लिए यह पदवी गढ़ी गई थी, वह अपनी कथित जनसेवा में आकण्ठ डूबा रहा। उसने इस हेतु विशेष ओ.एस.डी. भी नियुक्त कर डाले। जब नरेन्द्र सिंह नेगी के गीत ने इस आधुनिक मुहम्मद शाह रंगीले की सतत् मधु चंद्रिका का पर्दाफाश किया तो गजब हो गया। कानूनी और गैर कानूनी शब्द जनता के लिए गढ़े गए हैं, सत्ता उनसे ऊपर है। वह सेंसर बोर्ड से लेकर मसूरी जैसे छोटे शहर तक अपनी धौंस जमा सकती है। उसने ऐसा ही किया। इस अभियान में वे सब भी शामिल हो गए, जो नरेन्द्र सिंह नेगी के रचनात्मक युग के खात्मे का बरसों से इन्तजार कर रहे थे। उनके पास इसके लिए खिसियाहट भरे अपने तर्क थे। परन्तु इसके मूल में उस विराट मधुचन्द्रिका में खलल पड़ने का आक्रोश था, जो जन संघर्षो से उपजे इस राज्य के शीर्ष में मनाई जा रही थी।
नौछमी नारायण का एक दूसरा पहलू भी है कि आखिर एक गीत में इतनी ताकत कि भोगतंत्र चरमरा उठे और यह भी कि यदि आरंभ से ही ऐसे गीतों की परंपरा होती तो संभवतः आज राज्य की दशा और दिशा कुछ और ही होती। इसी से जुड़ा एक और सवाल कि उत्तराखण्ड आन्दोलन में संस्कृतिकर्मियों की सशक्त भूमिका के उपरांत भी ऐसा क्यों न हो पाया? राज्य स्थापना के उपरांत इस सन्दर्भ में संस्कृतिकर्मियों के बीच यह चर्चा भी हुई थी कि अब राज्य के लाभार्थी बनें या इसके दिशासूचक का जिम्मा लें। जो लाभार्थी बनना चाहते थे, उनमे एका रहा और बाकी गैर रचनात्मक बहसों का शिकार हो गए। यहीं से टोपियों का धन्धा चल निकला। ये सब भी अपने ही लोग हैं, कोई पराये नहीं। सच कहूं तो ये बेईमान भी नहीं। सत्ता का मायाजाल अच्छों-अच्छों को सम्मोहित कर देता है, ये उसी का शिकार हुए। परन्तु इतिहास बड़ा ही निरपेक्ष और निर्मम है। इतिहास के गर्भ में यह सवाल इनके लिए सदैव जीवित रहेगा कि जब एक गीत इस लोकतंत्र के छद्म आवरण को गिरा रहा था, तब आपके टोपी-टोपी के खेल और प्रेमचंद के शतंरज के खिलाड़ियों में कितनी समानता/भिन्नता थी। मुझे लगता है यहां पाश की निम्न पंक्तियों को रखना कोई अभद्रता न होगी
‘‘सबसे खतरनाक वो दिशा होती है
जिसमे आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए’’
अब पाश़ के बाद और कहने को यूं बचा ही क्या है, पर अभी हाल ही में केन्द्रीय गृह मंत्री द्वारा भारत में माओवाद को नेस्तनाबूद करने के लिए साठ हजार सैनिक/अर्धसैनिक बलों की तैनाती सम्बन्धी बयानों से मुझे झुरझुरी आने लगती है। कहीं ऐसा भी पढ़ा था कि आंध्र प्रदेश के राजभवन की रंगरेलियों का भांडा तब फूटा, जब माल सप्लाई के एवज में खनन का पट्टा दिए जाने का वादा रंगीले नवाब पूरा न कर पाये। क्या ये खनन पट्टे उन्ही  क्षेत्रों में आवंटित होने थे जहां माओवादियों को नेस्तनाबूद करने की मुहिम शुरू की जा रही है? न जाने कितने रंगीलों ने, कितने सप्लाईयरों को, न जाने किस की कीमत पर, जाने क्या-क्या देने का वादा कर रखा हो! नारायण-नरायण!!