दांये या बांए बेला नेगी की पहली फिल्म है। हिन्दी फिल्म होते हुए भी उसमें एक खास किस्म की आंचलिकता बिखरी हुई है। उसे आंचलिक फिल्म कहना ही ज्यादा ठीक लग रहा है। न सिर्फ उत्तराखण्ड की भौगोलिक पृष्ठभूमि में रचा गया उसका विन्यास अपनी विशिष्टता के साथ है बल्कि गढ़वाली और कुमांउनी लहजे में बोली जाती हिन्दी भाषा में रचे गये संवाद उसे दूसरी हिन्दी फिल्मों से अलग किए दे रहे हैं। यहां यह सवाल बेशक हो सकता है कि हिन्दी की प्रकाशित रचनाओं में आंचलिकता के पैमाने तो पात्रों के संवाद को कथा पृष्ठभूमि की भाषा में होने पर भी उसे हिन्दी की रचना ही मानने वाले हैं तो माध्यम का फर्क भर होने से दांये बांऎ को सिर्फ हिन्दी फिल्म क्यों नहीं माना जा सकता ? वैसे यहां रेणु के उपन्यास मैला आंचल को आंचलिक उपन्यास कहने वाले तथ्य भी हैं। अपने कथ्य और भाषा से ही नहीं बल्कि एक विशिष्ट भूगोल के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से जूझते रचनाकार की प्रतिबद्धता की स्पष्टता रेणु के मेला आंचल को आंचलिकता का एक तर्क देती है। यहां आंचलिकता अपने अन्तर्निहित अर्थों का निषेध करते हुए ज्यादा व्यापक और सार्वभौमिक हो उठती है। वैसे दांये या बांए फिल्म को प्रथम दृष्टया एक निश्चित भू-भाग से भरे दृश्य में देखना तो फिल्म के प्रभाव को सीमित कर देने वाला भी लग सकता है या फिर फिल्मकार का अपने भूगोल के प्रति अतिश्य मोह भी उसे कहा जा सकता है। उपभोक्तावाद से ग्रसित सम्पूर्ण समाज को उत्तराखण्ड की खिलंदड़ी भाषा और बेढब भूगोल तक सीमित मानते हुए पारम्परिक अर्थतंत्र की वकालत तो वैसे भी संभव नहीं है, इसमें दो राय नहीं। पर सवाल फिर भी है कि उसी विशिष्ट भूगोल पर केन्द्रित हिन्दी फिल्म राम तेरी गंगा मैली और बेला नेगी की दांये या बांए में वह मूलभूत अंतर क्या है जो दोनों ही फिल्मों में पहाड़ी उबड़ खाबड़ रास्तों पर समान रूप से दौड़ते कैमरे को भिन्न बना देता है ? स्पष्ट है कि राम तेरी गंगा मेली में झरनों और पहाड़ों की उपस्थित एक ऐसा सौन्दर्य रचती है जो जीवन के उबड़-खाबड़पन को ढक देता है। लेकिन दांये या बांए में उसका सौन्दर्य चक्करदार रास्तों पर दौड़ती मोटर में बैठी सवारी को हो जाने वाली "कै" को न सिर्फ यथावत रखता है बल्कि शहरी बुनावट में विकसित हुई मानसिकता पर व्यंग्य भी करता है। दृश्यों की जीवन्तता और संवादो की मारक भाषा में वह विशिष्ट भूगोल पूरी फिल्म का कथ्य ही हो जाता है।
मुम्बई के लिए आज भी बम्बई उच्चारित होते उस भूगोल में लौट कर स्कूल की अध्यापकी कर रहे रमेश मांजिला पर व्यंग्य करती छात्रों की पहाड़ी लटकन वाली भाषा में कहा गया संवाद- पेट अन्दर सीना बाहर, तन कर बैठो, एक मात्र उदाहरण नहीं है बल्कि बहुत सी ढेरों स्थितियां हैं, जहां उस कथ्य को पकड़ा जा सकता है जो फिल्म को आंचलिक बना दे रहे हैं। अंचल विशेष के समाज के भीतर व्याप्त वर्तमान चुंधियाती दुनिया की तस्वीर पूरी फिल्म में बहुत स्पष्ट है। प्रतिरोध की भाषा का व्यंग्यात्मक रूप दृश्यों को जीवन्त बनाने वाला है। संवादों की भाषा का वह लालित्य जो गढ़वाली और कुमांउनी लहजे में बोली जाती हिन्दी के साथ शायद किसी अन्य भूगोल में मिस्फिट हो जाता, उत्तराखण्डी भाषा के उस रूप को रख देता है जो जन के बीच ज्यादा स्वीकार्य और एकेडमिक बहसों से बाहर है। हाल ही में उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा आयोजित तीन दिवसीय लोकभाषा कार्यक्रम में हुई चर्चाओं के दौरान उभरी राय के आधार पर कहना पड़ रहा है कि उत्तराखण्ड की लोक भाषाओं को गढ़वाली कुमांउनी तक सीमित कर देने की मानसिकता एक अतार्किक जिद्द है। दांये या बांये की भाषा का लोक तत्व ज्यादा प्रभावी और प्रचलित रूपों के साथ है। अभिव्यक्ति में ज्यादा ग्राहय उस भाषा को हाल में हुए लोकभाषा के आयोजन के बीच शुद्धिकरण की मानसिकता ने बेशक हिकारत के साथ रखने की चेष्टा की है पर अपने वक्तव्यों के प्रस्तुतिकरण में वक्ता स्वंय उसके उपयोग से खुद को भी बचा न पाये। उत्तराखण्ड में निर्मित हुई अभी तक की आंचलिक फिल्मों में भाषा के स्तर पर यह अनूठा प्रयोग उल्लेखनीय है। आंचलिकता के नाम पर शुद्ध रूप से गढ़वाली भाषा में निर्मित फिल्मों में, सिर्फ पहली गढ़वाली फिल्म जग्वाल को यदि हटा कर देखें, तो पात्रों की वेष भूषा और चाल ढाल ही नहीं उनके बनावटी ठसाव में एक असंगत किस्म का बेमेल रहा है। हाल-हाल में प्रदर्शित याद आली टिहरी भी, जिसे यूं तो काफी लोकप्रियता मिली, इस तंग दायरे से बाहर न रह पायी जबकि उसमें भी मुख्य पात्र वैसी ही शहरी मानसिकता के साथ है जैसा कि दांये या बांये का पात्र रमेश मांजिला। भाषायी आग्रहों की जिद्द में एक पिलपिले किस्म की भावुकता अभी तक की उत्तराखण्डी आंचलिक फिल्मों की एक कमजोरी रही है जिसे दांये या बांये पाटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। सामाजिक स्तर को परिभाषित करने में उसके संवाद ज्यादा स्वभाविक हैं जो लिखे जाते हुए तो खड़ी बोली हिन्दी के करीब दिखायी देते हैं पर पात्रों के मुंह से सुनते हुए जिनका लोकरंग स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है। ठेठ पहाड़ी स्त्रियों की आपसी बातचीत के संवादों की एक बानगी कुछ इस तरह है-
शहर की जिन्दगीी भागा दौड़ी की ठहरीीी।
यहां "ठहरी" का किया गया उच्चारण उस स्वाभाविक लय में है कि उसे कहीं से भी खड़ी बोली हिन्दी का संवाद नहीं कहा जा सकता।
यहां तो खाना बनायाऽऽ, घास काटाऽऽऽ फिर खाना बनायाऽऽऽऽ।
कहानी के स्तर पर फिल्म में उन सभी स्थितियों पर व्यंग्य बहुत गाढ़ा है जो सैलानी मानसिकता से पहाड़ की समस्या को देखने जानने और उसके निदान के लिए किये जाते प्रयासों के रूप् में दिखायी देते हैं। एन0जी0ओ0 किस्म की आर्थिक गतिविधियों से संचालित उद्यमिता भी निशाने पर है। फिल्म की खूबसूरती इस बात में है कि सब कुछ बहुत ही स्वाभाविक और बिना वाचाल हुए प्रकट होता है। बाज दफा तो इतना सहज कि दर्शक सिर्फ दृश्य की स्वाभाविकता में ही टिका रह जाता है और अन्य अर्थों तक जाने की जरूरत ही नहीं समझता। पहाड़ का भूगोल सिर्फ काव्य रचना के ही अनुकूल है यह मिथ रमेश मांजिला की मानसिकता में भी है। सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना के लिए उसकी हवाई बातों के इर्द-गिर्द ही फिल्म की कहानी आकार लेती है। चलताऊ मुहावरे में- पहाड़ो में यदि यहां का पानी और जवानी ठहर जाए तो पहड़ो का नक्शा बदल जाएगा, रमेश मंाजिला भी अपने तर्कों के साथ है और पहाड़ो के पीछे से एक नया सूरज उग रहा है जैसी आशावादी बातों से भरा उसका व्यक्तित्व जमीनी हकीकतों से दूर रह कर सोचने वाले बुद्धिजीवियों की छवी जैसा ही है। कक्षा में पूछे गये सवाल पर कि उसकी बातों का छात्र-छात्राओं पर क्या प्रभाव है ? एक छात्रा का बहुत ही स्वभाविक जवाब- स्ार आप बम्बई से आए हो, दर्शकों को गुदगुदाने लगता है। पेट अन्दर, सीना बाहर, तन के बैठो दोहरा-दोहरा कर छात्रों द्वारा बोला जाने वाला रमेश मांजिला का संवाद क्या सिर्फ बच्चों की स्वाभाविक चंचलता का नमूना है ? इससे व्यंजित होता वह अर्थबोध जो व्यापक शहरी मध्यवर्गीय मानसिकता में इस दौर में ज्यादा घ्ार करता गया, क्या इसके निशाने में नहीं? योग और ध्यान से गम्भीर किस्म के रोगों की चिकित्सा की सीमाएं दरवाजे की चौखट से टकरा जाते रमेश मांजिला को सिर पकड़ लेने को मजबूर करते दृश्य में दिखायी दे जाती है।
भौर का सांझ का आग उमंग
आस का प्यार का लाल है रंग
ईंट का पान का भी लाल है रंग।
गाड़ी आ गयी तो जंगल जाने वाली स्त्रियों के दिन फिर गये।
बकरियां ले जानी है तो गाड़ी पर लादा जा सकता है उन्हें।
there are miles to go before we sleep
एक लड़का है जो घर के आगे से आती जाती गाड़ी पर पत्थर फेंकता है।
बछड़ा तो पत्थरों में अटका है और लाल गाड़ी का एक सही उपयोग होता है उस चोटी तक पहुंचने के लिए होता है। फिल्म यदि यहीं पर खत्म हो जाती तो ज्यादा व्यापक अर्थ देती। तमाम उपभौकतावद के विरूद्ध पारम्परिक उद्योग पर यकीन के साथ। क्यों यहीं पर वह दीपा दिखायी देती है जिसे अपने जीता यानी रमेश माजिला की उस जिन्स पर शर्म आती है जिस पर उसकी सहेलियां हंसती है और उसके जीजा का मजाक बनाती है। उससे आगे कांडा कला केन्द्र को दिखाने का कोई अर्थ फिल्म में दिखता नहीं। और न ही कोई ऐसा संकेत ही उभरता है जिससे वह खिलंदड़ पन जो पूरी फिल्म में बिखरा हुआ था कोई व्यंग्य पैदा करे।
बछड़ा तो पत्थरों में अटका है और लाल गाड़ी का एक सही उपयोग होता है उस चोटी तक पहुंचने के लिए होता है। फिल्म यदि यहीं पर खत्म हो जाती तो ज्यादा व्यापक अर्थ देती। तमाम उपभौकतावद के विरूद्ध पारम्परिक उद्योग पर यकीन के साथ। क्यों यहीं पर वह दीपा दिखायी देती है जिसे अपने जीता यानी रमेश माजिला की उस जिन्स पर शर्म आती है जिस पर उसकी सहेलियां हंसती है और उसके जीजा का मजाक बनाती है। उससे आगे कांडा कला केन्द्र को दिखाने का कोई अर्थ फिल्म में दिखता नहीं। और न ही कोई ऐसा संकेत ही उभरता है जिससे वह खिलंदड़ पन जो पूरी फिल्म में बिखरा हुआ था कोई व्यंग्य पैदा करे।
विजय गौड़
जनसंदेश टाइम्स( लखनऊ) में ८ मई २०११ को प्रकाशित