कहानी
डा शोभाराम शर्मा
यह कहानी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद की व्यांस, चौदांस और दारमां पट्टी में रहने वाली भोटांतिक 'रं़ड" जनजाति की वैवाहिक प्रथा पर आधारित है। इस जनजाति में विवाह अधिकांशत: अपहरण द्वारा सम्पन्न होते थे। विवाह के लिए जिस लड़की का अपहरण किया जाता था उसके साथ उसकी सहेलियाँ भी पकड़ ली जाती थी। विवाह हो जाने की स्थिति में सहेलियाँ मुक्त कर दी जाती थी। इस सहेलियों को ही स्या-स्या कहा जाता था। - लेखक
सूरज ढल चुका था। पूर्वोत्तर की बर्फीली चोटियों पर संध्या की सलज मुस्कान स्वर्ण विखेर रही थी। तिथलाधार की मनोरम उपत्यका से एक छोटा सा काफिला गुजर रहा था, उन दो पहाड़ियों के बीच जहाँ न जाने कब से मानव की श्रान्त ठोकरों ने चट्टानी भूमि को तोड़कर एक गहरी पतली रेखा का मार्ग बना डाला था। काफिले के लोग काली की घाटी में धारचुला की ओर अपने जाड़ों के आवास की ओर जा रहे थे। घरेलू सामान से लदे झप्पुओं, गाय-बैलों और भेड़-बकरियों के गलों में बंधी घण्टियों का टनन-टन्, टनन-टन् अजीब समाँ बांध रहा था। भेड़-बकरियाँ यदा-कदा में-में करती हुई रास्ते से भटकती तो साथ में चलते रक्षक कुत्ते भौंकते हुए उन्हें पुन: रास्ते पर ले आते। कफिले को आज सौसा गाँव के नीचे ज्यूंती गाड के किनारे डेरा जमाना था और काफिले का बड़ा हिस्सा वहाँ पहुंच भी चुका था।
तिथलाधार की दूसरी ओर से एक नवयौवना अपनी पीठ पर अपने नन्हें शिशु को लादे ऊपर चढ़ी। थकान के मारे माथे का पसीना पौंछते हुए वह मुलायम घास पर बैठ गई। एकान्त और कुछ-कुछ अंधेरे से त्रस्त उसने चारों ओर देखा। एक ओर रागा (देवदार के समान एक सुन्दर वृक्ष) नीले चीड़ों और बाँज-बुराँस के पेड़ों तथा देव रिंगाल की झाड़ियों से ढकी श्रेणी संध्या के स्याह परदे में काले दैंत्य का आकार ग्रहण कर रही थी और दूसरी ओर पीले बुग्याल से ढकी पहले सी्धी खड़ी, फिर कुछ-कुछ ढालू और सिर पर त्रिशूल के आकार के बौने पेड़ों को सजाए पर्वत श्रेणी उतर की ओर हिम की रजत-धवल टोपी पहने नीचे ज्यूंती गाड की छोटी सी उपत्यका की ओर झांक रही थी। पूरब की ओर नीचे और बहुत नीचे काली नदी की गहरी घाटी के पार नेपाल के जंगलों के ऊपर खड़े श्वेत शिखरों के बीच पूर्णिमा का चांद अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ बढ़ने लगा था। चांदनी के प्रकाश में ऊंचाई पर पितरों की स्मृति में रखे बड़े-बड़े पाषाण नजर आए। लगता था कि वे जैसे अपने वंशजों के काफिलों को आशीर्वाद देने हेतु सामूहिक रूप से वहाँ पर जमा हों। नवयौवना ने भय और श्रद्धा के वशीभूत रागा के पेड़ों पर बंधे घण्टे-घण्टियों को हिलाया, जिनका गम्भीर स्वर हेमन्त की तीखी बर्फीली बयार का स्पर्श पाकर चारों ओर फैल गया और मानव के भोले विश्वासों के रंग-बिरंगे चीर भी बुरी तरह फड़फड़ाने लगे।
नवयौवना ने पहले घबराहट में इधर-उधर देखा और फिर किसी तरह आश्वस्त होकर पुकारा- 'दीदी, ओ! डमसा दीदी!" उसकी वह पतली आवाज हवा में फैलकर विलीन हो गई। उसने कई बार पुकारा लेकिन उत्तर नहीं पाया। काफी देर बाद डमसा दीदी ने एक अन्य कमसिन बाला के साथ प्रवेश किया और सुस्ताने के लिए पूर्वागत यौवना के पास बैइ गई।
'दीदी, तुमने सुना नहीं, मेरा तो गला ही बैठ गया था।" पहली ने उलाहने के स्वर में कहा, 'यहाँ तो दम ही निकलने को था। मन भर से कम क्या होगा।" डमसा ने पसीना पोंछते हुए कहा।
'वाह! बच्चे का बोझ तो और भी भारी होता है, पर तुम क्या जानो?" पहली ने शिशु को गोद में लेते हुए कहा। इस पर कमसिन अबोध बाला ठहाका मारकर हंस पड़ी। उसकी निर्दोष हंसी उस बर्फीली हवा की सांय-सांय में गूँज उठी।
डमसा की छाती में जैसे तीर चुभ गया। तुम क्या जानो? हवा का हर झोका उसके कानों में कह उठा। तुम क्या जानो? हंसी की हर गूँज में वही ध्वनि झंकृत हो उठी। और उस नन्हें से जीव की इकहरी आवाज में वही-तुम क्या जानो? तुम क्या जानो? डमसा का जैसे मर्म दहल उठा। काले कम्बल की गांठों से घिरा, काले बादलों के बीच पूर्णिमा का चांद सा चेहरा मुझांकर रह गया। वह रोनी-रोनी हो गई। उच्छवास लेकर उठ खड़ी हुई और बोझ सम्भालकर शीघ्रता से नीचे की ओर चल पड़ी।
वे दोनों अवाक। डमसा दीदी का यह व्यवहार उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। चकित मृगी सी वे भी उठी और उसी ओर चल पड़ी। डमसा चल रही थी, किन्तु उसके कानों में हवा का हर झोंका वहीं स्वर घोल रहा था- तुम क्या जानो? उसका मानस तिक्त हो उठा। उसकी हर लहर में वहीं तिक्त भावना छा गई थी- तुम क्या जानो?
बैसाखी उससे दो वर्ष छोटी थी। पिछले साल ही उसके हाथ पीले हुए थे और आज उसकी गोद में नन्हा सा शिशु खेल रहा था। अपना-अपना भाग्य है। डमसा के दिल में कभी ईर्ष्या नहीं जगी। वह बैसाखी को कितना चाहती थी, किन्तु आज उसके एक छोटे से वाक्य ने डाह का बवण्डर खड़ा कर दिया। वह जितना ही मन को समझाती मन उतना ही संतप्त होता गया। जीवन की कठोर वास्तविकता अपनी समस्त व्यंग्य की पैनी धार से जैसे उसके मर्म को कचोट रही थी- तुम क्या जोना? हाँ, क्या जाने? समाज की वेदी पर माँ के अपराध का दण्ड उसी को तो भोगना था। वह मन-मन भर के पाँवों से चल रही थी और अचानक ठोकर लगने से गिर पड़ी। चार कदम पीछे घनारी ने दखा और उसने दौड़कर बोझ संभाला। इतने में बैसाखी भी पहुँच गई।
'दीदी, चोट तो नहीं लगी?" बैसाखी ने पूछा।
'अरे! तुम तो रो रही हो!" घनारी ने डमसा की पतली-पैनी आँखों में आँसू की बूँदें देख कर कहा।
'दीदी, बुरा मान गई क्या?" बैसाखी ने फिर से पूछा।
डमसा बोले तो क्या? वह कैसे कहे कि चोट पाँव पर नहीं उसके दिल पर लगी है। उठी और बोझ को पीठ पर ठीक से जमाते हुए बोली- 'नहीं-नहीं, बहिन, बुरा किस बात का लगेगा? पाँव के अंगूठे पर चोट लग गई है न।"
किन्तु आँसुओं ने कपोलों को चूमते हुए सब कुछ कह दिय। तीनों पिफर चल पड़ी। किसी को कुछ कहने का साहस न हुआ। घनारी भी अपनी चुहुल भूल गई। वे सोसा गाँव की धार पर पहुँच चुकी थी। दूसरी ओर अभी चांदनी का प्रकाश नहीं था। कुछ पेड़ों और झाड़ियों के कारण अंधेरा और भी घना था। नीचे ज्यूंती गाड के किनारे तम्बू-तन चुके थे। कभी-कभी प्रकाश की क्षीण रेखा चमक उठती थी। उन्हें वहीं पहुँचना था।
बैसाखी सबसे आगे थी। बीच में घनारी और पीछे डमसा अपने मन को समझाने की चेष्टा करती हुई चल रही थी। इतने में नीचे से आवाज आई- 'बैसाखी हो!" यह बैसाखी के पिता, डमसा के चाचा की आवाज थी। बैसाखी उत्तर देने को था कि इतने में डमसा की चीख उसके कानों में पड़ी। मुड़कर देखा तो वह स्तब्ध रह गई । झाड़ी से निकलकर तीन-चार आदमियों ने डमसा को घेर लिया था। बैसाखी के लिए तो यह नई बात नहीं थी उसके साथ भी पिछले साल यही तो हुआ था। शादी की परम्परा यही चली आई है तो किसी का क्या दोष? घनारी का भय से बुरा हाल था। वह चीखने को थी कि दो युवकों ने उसे भी घेर लिया। अंधेरे में बीड़ी सुलगाते हुए वे किसी प्रेत की छाया से लग रहे थे।
'मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ, हमें छोड़ दो।" डमसा ने अनुनय की।
'वाह! छोड़ दो, छोड़ने के लिए ही क्या हम यहाँ बैठे थे?" उनमें से एक ने कहा 'अजी, ऐसे नहीं चलती तो उठाकर ले चलो।" दूसरे ने प्रस्ताव रखा।
और एक बलिष्ठ युवक आगे बढ़ा। डमसा घबरा गई। घबराहट में उसके मुख से निकल पड़ा- 'मैं अपने-आप चलूँगी। हाथ न लगाओ।" और उपस्थिति पुरुष ठहाका मारकर हँस पड़े। मछली पफँस गई थी। वे चल पड़े। घनारी और बैसाखी ने भी डमसा का रुख देखकर अधिक विरोध नहीं किया। फिर ऐसे विरोध का मूल्य भी क्या था? वह तो परम्परा थी। उन्हें डमसा दीदी के विवाह में स्या-स्या तो बनना ही था।
मार्ग अंधेरे में था। वे चल रहे थे। घनारी और बैसाखी में मीठी चुटकियां चल रही थी। डमसा अपने ही में खोई, यह सब क्या हो रहा है? उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था। क्या सचमुच उसके भाग्य ने रास्ता सुझा दिया है? क्या विधाता ने अपनी आँखें खोल दी हैं? कई प्रश्न उसके अन्तर को झकझोर रहे थे। और वह उसी झोंक में युवकों से घिरी आगे बढ़ रही थी। गाँव आ गया। एक बड़े से घर के आगन में कई लोग आ जा रहे थे। मंगल-वाद्य बजने लगे। रास्ते में एक सफेद कोरा कपड़ा बिछाया जाने लगा। अन्तिम सिरे पर चकती (स्थानीय सुरा) की भरी बोतल रख दी गई। वह कोरा कपड़ा, वह चकती की बोतल दुल्हन के पक्ष वालों के लिए चुनौती थी। आते हो तो आओ, चकती को स्वीकार करो और मित्राता के धागे में बंध जाओ। अन्यथा यह लक्ष्मण-रेखा है। तुम उस सीमा से आगे नहीं बढ़ सकते।
तीनों को एक कोठरी में ढकेल दिया गया। बैसाखी का नन्हा शिशु रोने लगा और वह उसे चुप कराने में लग गई। डमसा और घनारी सहमी सी कोने में दुबक गई। डमसा का हृदय डूब-उतराने लगा। तुम क्या जानो? शिशु का रुदन अभी भी वह व्यंग्य उसके कानों में प्रतिध्वनित हो रहा था। शायद अब वह जान सके। एक आशा की किरण कहीं से उसके हृदय में चमक उठी। वर्षों से वह इसी कामना के पीछे दौड़ी थी, किन्तु स्या-स्या बनने के अतिरिक्त उसके भाग्य में दुल्हन बनना तो लिखा ही न था। उसे लगा कि जैसे आज उसकी मनोकामना पूर्ण होने को थी। उसके संचित, किन्तु अधूरे अरमान फिर उसके मानस में अपनी समस्त चपलताओं का खेल खेलने लगे। वह अब किसी की बन सकेगी, अपने समस्त संचित प्यार का प्रतिदान लेगी ओर पिफर उनका प्यार एक नन्हा सा शिशु बनकर उसकी गोद में खेलने लगेगा। कल्पना का वह शिशु उसकी गोद में खेलने भी लगा, रोने भी लगा। उसने देखा- आनन्द तिरोहित हो गया- वह उसका नहीं, बैसाखी का था जो हाथ-पाँव चलाकर जोर-जोर से रो रहा था।
इतने में कुछ उ(त युवक-युवतियां कमरे में आए। लालटेन भी थी एक के हाथ में। एक अधेड़ सी नारी ने भी प्रवेश किया। उसने डमसा के पास जाकर उसके चेहरे को अपनी ओर किया और उछल पड़ी। सभी सकपका गए। आश्चर्य भरी आँखें जैसे डमसा को निगलने लगीं।
'अरे! ये तो किसी और को उठा लाए हैं। यह तो डमसा है, जो दूसरे घ्ार में पैदा हुई। अभी तो इसकी माँ का हिसाब तक नहीं हुआ।" वह अधेड़ नारी एक सांस में कह उठी और बाहर चल पड़ी। सनसनी सी पफैल गई। डमसा को काटो तो खून नहीं। वह लाज में गड़ी जा रही थी। लोगों में कानापूफसी चलने लगी। कई आए, गए। उन्होंने डमसा को देखा तक नहीं। तर्क-वितर्क चलने लगे। अन्त मंे बड़े बूढों ने पफैसला दिया कि यह नहीं हो सकता है और डमसा की रही-सही आशा भी जाती रही। वह सुबकने लगी। आँसुओं से उसके कपोल भीग गए। किन्तु उन आँसुओं का मूल्य ही क्या था? फिर निर्णय हुआ- क्यों न घनारी को दुल्हन बना दिया जाए? कोई छोटी भी नहीं। दूल्हा देखने भी आया। डमसा ने उधर देखा भी नहीं। उसका मन मर गया था। बेचारी दुल्हन बनते-बनते स्या-स्या बन गई। देखते-देखते घनारी दूसरे कमरे में पहुँचा दी गई और डमसा उपस्थित युवकों की कृपा-दृष्टि का लक्ष्य। उसका सौन्दर्य-दीप पतिंगो को आकृष्ट करने के लिए यथेष्ट था। सभी चकती में मस्त। कुछ गा रहे थे, कुछ ही-ही, हू-हू कर रहे थे। फिर समां बध गया। आनन्द का दिन था। शादी जो थी। ऐसे ही दिन तो होते हैं जब उद्दाम (उद्दाम) इच्छाएँ अपनी सीमा तोड़ बाहर फूटना चाहती हैं। गाँव की कुछ और अल्हड़ युवतियाँ आ गई। गीत चलने लगे। नृत्य चलने लगा। चकती के दौर पर दौर चलने लगे। सारा कमरा विचित्रा मदाहोशी में रम गया। युवक थक गए। युवतियाँ थक गई। लेकिन वे डमसा को न मना सके। वह न हिली न डुली। सोचती रही और सोचती रही- पिछले साल वह बैसाखी की शादी में रात-रात भर नाचती रही। युवक थक गए। कोई जोड़ का नहीं मिला। हर साल वह ऐसी शादियों में स्या-स्या बनती रही, पीती रही, अपने हाथों पिलाती रही और मस्त होकर नाचती रही। शायद यही उसका भाग्य है। दूसरों की खुशी में खुशी माने, नाचे, गाए और वासना की आँखों से अपने सौन्दर्य की कीमत आंकने वालों को अपनी कृपा-दृष्टि से निहाल करे। युवक उसे घूर रहे थे। जबरन उठाना चाहते थे। उनके लिए वह खिलवाड़ थी। वह खिलवाड़ थी समाज की। कोई उसे अपनी नहीं बना सकता। किसी में इतना साहस नहीं। समाज के बन्धनों से कौन टकराए? ठकराने की जरूरत ही क्या है, जबकि वे उसके यौवन से खिलवाड़ कर सकते हैं, उसके जीवन से खेल सकते हैं तो पिफर बैठे-बिठाए कौन हत्या मोल ले? वह सचमुच हत्या है- समाज की हत्या। फिर हत्या को कौन स्वीकार करें? उसकी माँ के रुपए अदा नहीं हुए तो भला कौन उसे अंगीकार करें?
इतने में बैसाखी ने आकर बताया- 'दीदी, घनारी ने चकती और चावल ले लिए हैं।" डमसा का ध्यान भग्न हो गया। घनारी ने अपनी स्वीकृति दे दी थी। वह दुल्हन बन गई थी। अभागी डमसा के बदले घनारी ही सही। उसी का जीवन संवरे। उसे तो स्या-स्या बनकर ही जवानी की अनमोल घड़िया काट देनी हैं। वह किसी से डाह क्यों करे? और वह उठ खड़ी हो गई। एक लालायित युवक की उसने बांह पकड़ ली और उसके हाथ से दो लिन्च (चांदा का प्याला विशेष) चकती के वह एक सांस में पी गई। उसकी पतली-पैनी आंखों और उभरे रक्तिम गालों पर मादकता थिरकने लगी। वह नाचने लगी। गीत निर्झरणी की तरह उसके कण्ठ से झरने लगा। नृत्य में अद्भुत प्रवाह आ गया। सबके सब थिरकने लगे। सब की आवाज से अलग स्वर्गीय गिरा सी उसकी स्वर लहरी जैसे हवा में थिरकने लगी-
'न्यौल्या, न्यौल्या, लाल मेरो सांवरी, दिन को दिन जोवन जान लाग्यों।"
(प्रियतम! तुम नहीं आए, नहीं आए, दिन-वॐ-दिन मेरा यौवन ढलने लगा है।)
कौन जाने, उसका वह सांवरी इस जीवन में कभी आएगा भी या नहीं?