Tuesday, July 23, 2013

अजगरी सबक




डॉ. शोभा राम शर्मा

बहुत पुरानी बात है। पीले पट्ठार की किसी पीली घाटी में एक पीला अजगर रहता था। उसका रंग इतना प्यारा था कि इधर-उधर के चूहे, मेंढक और दूसरे-दूसरे जानवर उस घाटी में आकर रहने लगे। कुछ दिनों में देखा गया कि घाटी में न कोई चूहा था न मेंढक का पूत। इस पर दूसरे जानवरों का माथा ठनका। पता चल गया कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती। वे जान बचाकर दिशा-दिशाओं में भाग निकले। कहते हैं कि वर्षों तक वह पीला अजगर उसी घाटी में सोया पड़ा रहा। वर्षों तक केवल हवा फाँककर जिन्दा रहा। दुनिया को बड़ा आश्चर्य हुआ। इसी बीच उसके बेटे-बेटियों ने एक के बाद एक कई पीढि़यों को जन्म दे दिया। अजगरों से सारी घाटी पट गई। बूढ़े अजगर को साँस लेने में भी कठिनाई होने लगी। जब अजगरों को खाने को कुछ नहीं मिला तो वे एक दूसरे को निगलने लगे। स्वयं बूढ़े अजगर ने साँस खींची तो अनेक छोटे-मोटे अजगर उसके पेट में न जाने कहाँ समा गए। अपने भरे-पूरे परिवार को छोटा देखकर अजगर को बड़ा दुःख हुआ।
एक दिन उसने घाटी से सरकना आरम्भ किया तो एक पीली दुनिया उसके पीछे थी। वह जिधर भी सरकता गया, सब कुछ पीला होता गया। नदी, पहाड़, जंगल, घाटियाँ, मैदान और यहाँ तक कि सागर भी पीले पड़ गए। उसने उत्तर की ओर मुँह किया तो भेडि़ए अपनी मांदों में जा छिपे। सफेद भालुओं ने नरम-नरम बपर्फ में घुसकर अपनी जान बचाई। दक्षिण की ओर बढ़ा तो गरम चिपचिपा मौसम आड़े आया और पिफर भारी भरकम हाथियों और चीतों ने भी कई अजगरों को कुचल डाला। पूर्व की ओर बढ़ा तो पीले सागर की मछलियां गायब हो गई। पश्चिम के रेतीले पट्ठार पर जब चूहे समाप्त हो गए तो उसने आगे सरकना छोड़ दिया। इस अभियान में एक विशाल पीले साम्राज्य की स्थापना हो गई। एक अजगरी संस्कृति ने जन्म लिया, जिसका मूल-मंत्रा था- ‘बेशुमार सन्तान पैदा करो और कुछ न मिले तो एक दूसरे को निगल जाओ।’
बूढ़े अजगर ने एक दिन अपने सबसे बहादुर बेटों को बुलाया और कहा- ‘प्यारे बेटो, मैं बूढ़ा हुआ, अब आराम करूंगा। अपनी पीली दुनिया का भार अब तुम्हारे सिर है। मैं सोउफंगा पर जब भी करवट लूं, मेरे खाने-पीने का इन्तजाम बदस्तूर चलता रहे।’ बेटों ने कहा- ‘अब्बाजान, हम तो कब से चाहते हैं कि आप अब अपने पर रहम करें। पीली दुनिया का भार हम अपने उफपर लेते हैं। आप निश्चिन्त रहें।’
आश्वस्त होकर बूढ़ा अजगर सो गया। बेटों ने पीली दुनिया को आपस में बाँट लिया। पहले तो वे इधर-उधर से लड़ते रहे, जब कोई सामने नहीं आया तो एक दूसरे से लड़ने लगे। पीली दुनिया में कुहराम मच गया, पर बूढ़े अजगर की नींद नहीं खुली। उसके खाने-पीने का इन्तजाम बदस्तूर चलता रहा। जब भी एक करवट लेता और जोर की सांस खींचता सामने बंधे उत्तर के भालू-भेडि़ए, दक्षिण के बन्दर-चीते और पूर्व की मछलियां उसके खुले मुँह में समा जाते। वह डकार तक नहीं लेता और दूसरी करवट आराम से सो जाता। नालायक बेटों ने इस बीच इतनी आबादी बढ़ा दी कि उतनी बड़ी पीली दुनिया भी छोटा पड़ गई। मछलियाँ तो मछलियाँ, नदियों और झीलों का पानी तक कम पड़ गया, हर जगह अजगर सरकते नजर आने लगे। बड़े अजगर अब आँखों में आँसू भर कर छोटे अजगरों से कहते- ‘प्यारे बच्चों हमने कितने कष्ट झेलकर तुम्हें इतना बड़ा किया? अब तुम्हारे ये बूढ़े माँ-बाप भूखे मरते हैं, बताओ, तुम्हारा क्या कर्तव्य है?’
छोटे अजगर मुँह खोलते कि उससे पहले ही वे वहाँ पहुँच जाते, जहाँ से वे इस दुनिया में आए थे। भूख-प्यास और बड़ों के आंतक से घबराकर कुछ अजगर, बीहड़ वीरान जगहों में जा छिपे। कुछ दक्षिण के गरम जंगलों में जा घुसे। कुछ बड़े उफँचे पहाड़ों को पारकर पीली दुनिया से बाहर निकल गए और कुछ पीले सागर के पार न जाने किन-किन देशों और द्वीपों में जाकर बस गए। कुछ ने बूढ़े अजगर के पास जाकर पफरियाद की- ‘हे हमारे अब्बाओं के अब्बा! आपके रहते यह कैसा अन्धेर है कि हमें चुपचाप निगल लिया जाता है। कोई एक बूँद भी आँसू नहीं बहाता।’
बूढ़े अजगर ने आँखें खोली, देखा कि सामने एक विशाल पीला अजगर लहरा रहा है। छोटे-छोटे अजगर एक दूसरे से सटकर विनती कर रहे थे। उनींदी आँखों से बूढ़े अजगर को भ्रम हुआ। कतार को अपना प्रतिद्वन्द्वी समझकर वह ताव खा बैठा। एक तगड़ी सांस खींची तो सारे के सारे अन्दर। उतने सारे अजगरों के एक साथ पेट में चले जाने से बूढ़े अजगर का हाजमा खराब हो गया। पेट में मरोड़े उठने लगे। बूढ़ा अजगर तड़फने लगा। पीली दुनिया में जैसे भूकम्प आ गया। बहुत दवा-दारू की गई पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्त में पता चला कि दक्षिण के जंगलों में कोई दूर देश का एक पहुँचा हुआ जटा-जटधारी लंगूर महात्मा आया है। बड़ी कठिनाई से महात्मा को लाया गया। महात्मा ने मरीज से कहा- ‘हे पीले देश के बुजुर्गों के बुजुर्ग! आपके पेट में दर्द है कि आपके अपने ही आपके पेट  में चले गए- यह मोह कैसा? आपने तो एक-दो नहीं सारी की सारी पीढि़यां देखी हैं। कहाँ हैं वे सब? जहाँ से आए थे वहीं चले गए तो यह कष्ट कैसा? सच पूछो तो न आप-आप हैं और न वे-वे थे जो आपके पेट में चले गए। सब कुछ एक है- एको{हम द्वितीयो नास्ति। इस चरम सत्य के उफपर माया का आवरण पड़ा है और उसके लुभावने आकर्षण में हम भटकते हैं। इस आवरण को चीरकर पफेंक दो। पिफर न आप-आप हैं न आपका पेट है और न उसका दर्द।’
मरीज ने कुछ आश्वस्त होकर कहा- ‘महात्मन कमाल है! आपके शब्दों ने तो जादू कर दिया। दर्द गायब है। उलटे भूख लगने लगी है। समझ में नहीं आता कि जब मैं-मैं नहीं, पेट-पेट नहीं तो यह भूख कहाँ से उग आती है?’
महात्मा बोले- ‘यह भी आपका भ्रम है। भ्रम का निवारण कीजिए तो भूख कहाँ है?’ अजगर ने अपनी चिपचिपी आँखंे मिचमिचाई और कहा- ‘महात्मन, आप भी तो आप नहीं, पर मुझे दिखाई दे रहे हैं और मेरी आँतें बुरी तरह बुलबुला रही है।’ महात्मा अवाक्! देखते-देखते अजगर ने अपना विकराल मुँह खोला, सांस खींची और महात्मा गायब। खबर उड़ गई कि महात्मा आकाश में उड़ गए।
पिफर तो गजब हो गया। बूढ़े की भूख बढ़ती गई। उसकी आँखों से चिनगारियाँ बरसने लगी। मुँह से लपटें निकलने लगी और लपटों का विषैला पीला धुंआ सारे आकाश में भर गया। उसने पुनः सरकना आरम्भ कर दिया तो सरसराहट से दसों दिशाएँ कांपने लगी। अगल-बगल में बसे भगोड़े अजगरों में हड़कम्प मच गया। वे खिराज लेकर उपस्थित हुए। अनुनय की- ‘महामहिम, हम कोई गैर नहीं, आपके अपने ही हैं। हमें अपनी ही प्रजा समझिए। हम हर सेवा के लिए तैयार हैं।’
बूढ़ा अजगर पिफसपिफसाया- ‘तुमने अपने देश से भागकर पहला अपराध किया। पिफर अपनी दुनियां अलग बसाकर दूसरा अपराध किया। इससे भी बड़ा अपराध तो यह है कि तुमने अपना रंग बदलकर पीली दुनिया को अपमानित किया। बोलो तुम्हें सबक सिखाना मेरा अधिकार है या नहीं?’
एक भूखे अजगर ने कहा- ‘हे दादाओं के दादा! हमने स्वयं रंग नहीं बदला, वहाँ कहीं गर्मी और मिट्टी ने हमारा रंग बदल डाला है। हम जानते हैं कि आपको भूख कितना सताती है। सच पूछो तो हम उसी का इन्तजाम करने इधर-उधर गए हैं। जब भी आवश्यकता हो लिख भेजें। अपने ही तो काम आते हैं।’
इस बीच सारी खिराज बूढ़े अजगर के पेट में समा चुकी थी। उसने सन्तोष की सांस ली और मुस्करा कर बोला- ‘लगता है बाहर जाकर अक्लमंद हो गए हो। चलो, आज तो मापफ किया, लेकिन इतना ध्यान रखना कि मैं तुम्हारे पूर्वजों का पूर्वज हूँ। तुम्हारे कान उमेठना मेरा पहला अधिकार है।’
भगोड़े अजगरों की जान में जान आई। सस्ते में जान छूटी तो रातों-रात भागकर अपने-अपने घर पहुँच गए। बूढ़े अजगर की पफरमाइशों से तंग आ गए तो उपाय सोचने लगे। उन दिनों वहाँ कुछ घुटमुण्डे लंगूर साधु-सन्यासी अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे। वे कहते थे कि हिंसा मत करो, प्रेम और शान्ति से रहो। भूरे अजगरों ने उनके सामने अपना दुखड़ा रोया। उन्होंने बताया कि यदि वे पीले देश के बूढ़े अजगर का हृदय बदल सकें तो दुनिया का बड़ा कल्याण हो। घुटमुण्डे साधुओं ने चुनौती स्वीकार कर ली। उन्होंने बूढ़े अजगर की आदतों के बारे में गहराई से छान-बीन की। इसी बीच उन्हें पिछले महात्मा के गायब होने का रहस्य भी ज्ञात हो गया। उनमें से एक ने बड़े उफँचे पहाड़ों को पार किया और घोड़ों, गधों, उफंटों और याकों पर ढेरों पुस्तकें तथा दवाइयाँ लादकर पीले देश को रवाना हुआ। उसने बूढ़े अजगर के सबसे प्यारे बेटे को बस में कर लिया। बेटे ने साधू को बूढ़े अजगर तक पहुँचाया जो पीले देश के बीचोंबीच निकल पड़ा था। अपच के मारे उसका बुरा हाल था। दक्षिण से जो हाथी भेजा गया था उसे निगलने में एक बड़ा सा दाँत बूढ़े अजगर के गले में पफँस गया था। उधर-उत्तर के अजगर उसे लांघकर दक्षिण में आना चाहते थे। उत्तर के भेडि़यों और भालुओं ने अजगरों से निपटने की कला सीख ली थी। वे अचानक पीछे से हमला करते और माँस नोचकर भाग खड़े होते। बूढ़े अजगर के मुँह की ओर से बढ़ने की उनमें हिम्मत नहीं थी। पूँछ की ओर से आना चाहा तो अपच में बूढ़े अजगर की उछलती पूँछ से दबकर मर जाने का खतरा था। दूर देश से साधू ने बूढ़े अजगर के बेटे से कहा- ‘हे पीले देश के राजा! बूढ़े अजगर को यहाँ ऐसे ही पड़ा रहने दो तो तुम्हारे दक्षिणी भाग की रक्षा हो सकती है।’
यही निश्चय हुआ और साधू ने बूढ़े अजगर का इलाज आरम्भ किया। गले में पफँसे हाथी-दाँत को निकाल दिया गया तो बूढ़े अजगर ने आँखें खोली। सामने घुटमुण्डे साधु को देखकर मुस्कराया, बोला- ‘महात्मन, दाढ़ी ओर जटाजूट का क्या हुआ? क्या तुम वहीं नहीं हो?’
साधु ने कहा- ‘हाँ, मैं वही हूँ। दाढ़ी और जटा तो तुम्हारे पेट में गल गए, लेकिन मैं तुम्हारे कष्ट का निवारण करने बाहर निकल आया हूँ।’
‘तो पहले मेरे अपच का इलाज करो’। बूढ़ा अजगर बोला। साधू ने दवाइयों से लदे पाँच गधे उसके सामने कर दिए। बात ही बात में पाँचों गधे ढेरों दवाइयों सहित बूढ़े अजगर के पेट में समा गए। अजगर ने राहत की सांस ली। वह मुस्कराकर पुनः बोला- ‘महात्मन, जब मैं-मैं नहीं, पेट-पेट नहीं तो यह भूख कहाँ से आती है?’
साधू ने कहा- ‘हे जरठ! यह तो देह का धर्म है। देहधारी को भूख तो सताएगी ही। पर हिंसा से विरत रहना ही सबसे बड़ा धर्म है।’ लगता है कि अब आपके ज्ञान में अक्लमन्दी के पर भी उग आए हैं। मैं देहधारी का कर्तव्य ही तो पालता हूँ। हिंसा भी मैं नहीं करता। देखते नहीं समूचा निगल जाता हूँ। एक बूंद भी खून नहीं बहाता। पिफर उतनी दूर से तुम यहाँ क्या सिखाने आए हो? बूढ़े अजगर ने पूछा।
साधू ने उत्तर दिया- ‘हे महात्माओं के महात्मा! मैं सिखाने नहीं सीखने आया हूँ। भगवान तथागत ने मुझे आपके पास भेजा है। कितने करुणामय हैं वे! उन्होंने मुझसे कहा कि पीले देश में उनका सबसे पुराना और सबसे बड़ा भक्त कष्ट में हैं। एक बार पुनः उसके पास जाओ। वह थोड़ा सा भटक गया है। संयम और संतोष की थोड़ी सी कमी रह गई है। मेरा सन्देश उस तक ले जाओ और ढेर सारा ज्ञान लेकर वापस आओ। दोनों ओर कल्याण होगा।’
अजगर ने कहा- ‘भगवान तथागत का भला हो! लेकिन संयम और संतोष तो भरे पेट को सुहाते हैं। तुमने न जाने कौन सी दवा दी, यहाँ तो पेट में चूहे कूदने लगे हैं।’
साधु घबराकर पीछे हटा। उसने पुस्तकों से लदे घोड़े, उफँट और याक अजगर के सामने कर दिए। पिफर वहीं से बोला- ‘मंजु श्री कल्प भगवान तथागत किसी भूखे का कष्ट नहीं पाते। उन्होंने कहा था- मेरे भक्त को भूख बहुत सताती है, उसका इन्तजाम करके जाना। पहले आप देह-धर्म का पालन करें पिफर और बाते होंगी।’ अजगर ने जोर की सांस खींची और घोड़ों, उफँटों और याकों सहित ढेरों पुस्तकें उसके पेट से समा गई। साधु ने देखा कि भरे पेट के संतोष के कारण बूढ़ा अजगर झपकी लेने लगा है। वह उसके सामने आया और गले में कण्ठी बाँधकर बोला- बोलो ‘बु(म् शरणम् गच्छामि’। झपकी लेते-लेते अजगर पुफसपुफसाया- ‘बु(म् शरणम गच्छामि।’ और पिफर ‘संघम् शरणम् गच्छामि’ के साथ दीक्षा पूरी हो गई। नींद के झोंके तेज होने लगे तो साधु जल्दी-जल्दी में प्रार्थना- चक्र थमाकर कानों में पुफसपुफसाया- ‘हे जरठ! इस प्रार्थना-चक्र को निरन्तर घुमाते रहो। जो ग्रन्थ तुम्हारे पेट मंे समा गए हैं, उनके मंत्रों का जाप करते रहो। समाधि मंे इस तरह डूब जाओ कि साक्षात भगवान तथागत के प्रतिरूप बन जाओ। एक बार आँखें खोलकर अपनी सन्तान से जो कुछ कहना चाहो कह दो और आवागमन के बन्धन से निर्वाण प्राप्त करो।’
बूढ़े अजगर ने आँखें खोली। अपने बेटों को पास आने का संकेत किया। वे पास आ गए तो उसके गले में भारी आवाज आई- ‘मेरे प्यारे बेटों! मैं समाधि ले रहा हूँ। मेरी भूख के कारण तुम्हें जो कष्ट झेलने पड़े, उन्हें मन में न लाना। मैंने इस पीले देश की स्थापना तुम्हारे ही लिए की थी। इसकी गरिमा को आँच न आने देना। यह मत भूलना कि तुम दुनिया के सबसे पुराने अजगर की सन्तान हो। दुनिया को सबक सिखाना तुम्हारा काम होगा। तुम्हें एक भेद की बात बताउफँ -यह मेरी बूढ़ी चीमड़ खाल एक दिन सड़कर मिट्टी में मिल सकती है लेकिन मेरी आत्मा तुम में से किसी के भीतर चली आएगी और पिफर दुनिया की कोई शक्ति तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगी। अच्छा अब मैं समाधि लेता हूँ। भगवान तथागत तुम्हारा कल्याण करें!’ ... कहते-कहते बूढे़ अजगर की आँख बन्द हो गई और वह खर्रांटे लेना लगा।
साधु ने संकेत किया और पीले देश के असंख्य अजगर अपने बुजुर्गों के बुजुर्ग का स्मारक बनाने में जुट गए। कुछ ही दिन में बूढ़े अजगर के उफपर एक विशाल लम्बा-चौड़ा पथरीला अजगर पीले देश के बीचों-बीच खड़ा हो गया। सदियों तक उस विशाल दीवार के नीचे घूमते प्रार्थना-चक्र का स्वर पीले देश के हर कोने में सुनाई देता रहा। पीले देश के अगल-बगल से खिराज मिलती रही और अजगर अमन-चैन से दिन काटते रहे।
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समय ने करवट बदली। विशाल दीवार के नीचे घुमते प्रार्थना-चक्र का स्वर मन्द पड़ने लगा। एक दिन ऐसा लगा कि कि प्रार्थना-चक्र का घूमना बन्द हो गया है। पता-चला कि उत्तर के जंगलों में भालू ने आतंक मचा रहा रखा है। भालू का कहना था कि वे जंगल उसके बपौती है और पीला अजगर जबरन् वहां घुस गया था। भेडि़यों ने भी उपद्रव खड़ा कर दिया और उत्तर के कुछ पीले अजगरों ने भी विद्रोह कर दिया। पफलतः पीले अजगर की सन्तान को एक विशाल क्षेत्रा से पीछे हट आना पड़ा। उधर पड़ोस के भूरे अजगरों ने भी खिराज देनी बन्द कर दी और वे इधर-उधर अपने दावे भी पेश करने लगे। संकट की इस घड़ी में किसी को बूढ़े अजगर की याद नहीं आई और संकट गहराता चला गया। इसी बीच कुछ विदेशी सियार सौदागरी करने पीले देश पहुँचे। उन्होंने पीले देश के राजा को बड़ी खूबसूरत जूतियाँ भेंट की। अजगरराज उन जूतियों पर मुग्ध हो गया। सौदागर सियारों ने कहा- ‘हे राजाओं के राजा! अगर इस तरह की जूतियाँ चाहते हो तो हमें अजगर-अजगरनियों की खाल ले जाने की आज्ञा दे।’
‘क्या कहा? तुम हमारी खाल से जूते-जूतियाँ बनाओगे और पिफर हमी को बेचोगे?’
अजगरराज चौंका।
सियारो ने कहा- ‘राजन, इसमें दोष क्या है? सड़ने-गलने से तो अच्छा है कि जूतियाँ बने। इसमें तो आपका लाभ ही लाभ है।’
अजगरराज को उनका तर्क पसन्द तो आया पिफर भी वह बोला- खाल के बदले हमें क्या मिलेगा? तुम जानते हो कि आजकल हम गहरे संकट में हैं’
उसकी दवा हम अपने साथ लाए हैं। महाराज। शौक तो पफरमाएँ। एक गोली हलक में डालो और पड़े रहे। भूख-प्यास से छुट्टी’ यह कहकर एक सियार ने अजगरराज को अपफीम की गोली थमा दी। अजगरराज ने उसे मुँह में डाला और उसकी आँखों में परमानन्द का खुमार लहराने लगा।
सियारों ने कहा- ‘कहिए महाराज, पसन्द आई? ऐसे में तो जिन्दे की खाल भी उतार लो तो उसे पता तक न चले।’
‘जिन्दे की खाल? क्या बात कही? उससे तो और भी सुन्दर जूतियाँ बनेगी न!’ पिनक में अजगरराज ने कहा।
‘बिल्कुल सही पफरमाते हैं जहाँ पनाह! अब मेहरबानी करें और हमारे नाम पट्टा लिखवा दें।’
‘भई, तुम स्वयं लिख लो। बगल में मुहर पड़ी है लगा लो। हमें तंग मत करो। माबदौलत आराम पफरमाएंगे।’
बहुत अच्छा श्रीमान। लेकिन एक प्रार्थना और है। सुना है कि आपकी बड़ी दीवार के नीचे सदियों पुरानी खाल बेकार सड़ रही है। उसे खोदने और ले जाने की भी इजाजत दें। हम श्रीमान की सेवा में और भी शानदार जूते पेश करेंगे। आपकी पीढि़यां दर पीढि़यां उनका उपयोग करेंगी पर वे पुराने नहीं पड़ेंगे।’ - उनमें से एक सौदागार सियार ने प्रस्ताव रखा।
‘मैंने कह दिया- तुम दीवार खोदो या पूरे पीले देश को खोद डालो पर मुझे तंग मत करो।’ और यह कहते-कहते पीला अजगर सिंहासन पर एक ओर लुढ़क गया।
दीवार खोदे जाने की बात से कुछ पीले अजगरों में सनसनी पफैल गई। उनमें से कुछ ऐसे मूढ़ निकले कि अपफीम के सौदे का भी विरोध करने लगे। सौदागर सियारों ने उन पर समझौता भंग करने का आरोप लगाया और दोनों ओर से ठन गई। पिफर भी अपफीम वहाँ धड़ल्ले से आती रही और अजगर उसकी पिनक में बहकते रहे। कुछ अजगरों ने भी अवसर का लाभ उठाया। वे दूसरे अजगरों को अपफीम पिलाने लगे। सैकड़ों की संख्या में उनकी अजगरनियां अपने हरम में रखने लगे। उनसे बेशुमार बच्चे पैदा करने लगे और कुछ ही दिनों में उनकी सुकोमल खाल की जूतियाँ दुनियां के बाजार में बचने लगे। उधर समझौते के विरोधी अजगर सौदागर सियारों की गोलियों के शिकार होते रहे। सौदागरों को मनचाही खालें मिलती रही। अजगर कहते- ‘हम अपफीम की गोलियाँ नहीं खाएँगे।’ सियार कहते- ‘बड़े बेशरम हो। समझौता भंग करोगे? अपफीम की नहीं तो शीशे की गोलियाँ खाओ।’
दुनिया में कुछ विरोध हुआ तो सियारों ने कहा- ऐ दुनिया वालों! तुम वहाँ जाकर तो देखो। अजगरों की जाति अब किसी काम की नहीं रही। उसे तो सड़ी-गली लाश ही समझो। वे तो स्वयं अपनी खाल उतारकर हमारे हवाले कर देते हैं। हम उसका उपयोग न करें तो वे वहीं सड़-गल जाएंगी। दुनिया में ऐसी सड़ान्ध पफैलेगी कि हम सब के लिए किसी भयानक रोग का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। हम दुनिया को एक भयानक खतरे से बचा रहे हैं। दुनिया को हमारा एहसान मानना चाहिए।’
उनके इस बयान पर कुछ वहाँ गए भी। उन्होंने देखा कि अजगर जहाँ-तहाँ अपफीम की पिनक में पड़े हैं। अपनी पूँछ को ही अपना शत्राु समझ बैठे हैं और मुँह में डालकर निगलने का प्रयास कर रहे हैं। देखने वालों के भी थूँथन बन्द हो गए।
इसी बीच उत्तर-पश्चिम में बड़ी गड़बड़ हो गई। कुछ सपफेद भालुओं ने लाल लबादा ओढ़ लिया, उन्होंने सपफेद भालुओं को मार-मारकर लहूलुहान कर दिया और सपफेद भालू की जाति को लाल भालू की जाति में बदल दिया। इन नये भालुओं का कहना था कि वे उनके साथी हैं जिन पर आज तक जुल्म और ज्यादतियाँ होती रही हैं। बेचारे अगजरों के कान खड़े हुए तो सियारों ने समझाया- ‘प्यारे अजगरों, भालू की मांद में जाओगे तो वह समूचा हड़प जाएगा। हम तो तुम से खाल ही माँगते हैं, वह तुम्हारे दिल और दिमाग को भी शहद की तरह चाट जाएगा। तुम्हारी संस्कृति और सभ्यता कितनी पुरानी और पुख्ता है यह हम जानते हैं। भालू को इन बातों से क्या लेना-देना? देखते नहीं हम तुम्हारी बदशक्ल खालों को कितनी सुन्दर कला-कृतियों में बदल देते हैं। भालू तो लाठी से पीट-पीटकर बेकार कर देगा।’
शुभ-चिन्तक सियारों की चेतावनी का यह असर हुआ कि अजगर दो पिफरकों मंे बंट गए। पिफर भी एक अक्लमन्द अजगर ने उन्हें कुछ दिनों तक एक साथ बाँधे रखा। लोगों का विश्वास है कि उसमें दीवार के नीचे वाले अजगर की आत्मा उतर आयी थी। उसके नेतृत्व मंे अजगरों ने अपने ही राजमहल पर धावा बोल दिया। सिंहासन पर अपने राजा की दशा देखकर उन्होंने माथा पीट लिया। वह अपने आधे हिस्से को निगलकर मरा पड़ा था। विदेशी सौदागर उसकी सुनहरी खाल भी समुन्दर पार भेज चुके थे। अक्लमन्द अजगर को अपनी जाति की इस दुर्दशा का इतना बड़ा सदमा पहुँचा कि वह अधिक दिनों तक नहीं जी सका। इसी दौर में पीले सागर के पार से समुन्दरी अजगरों की आवाज आई- ‘ऐ पीले देश के अस्मतपफरोशो! तुम उस महान अजगर के नाम पर कलंक हो जो हमारे बुजुर्गों का बुजुर्ग था। उस महान दीवार की रक्षा अब हम करेंगे, जिसके नीचे उसकी महान आत्मा तुम्हारी करनी पर आठ-आठ आँसू रो रही है। तुम्हारा समय लद गया है। हम सूर्यदेश के वासी तुम्हारे पापों का प्रायश्चित करने आ रहे हैं।
वे आए और मुफ्रत में खालों का व्यापार करने लगे।
विदेशी सौदागरों ने कहा- ‘ऐ महान पीले देश के अजगरों! देखो, अपने इस छुटभैये को। खालें ले जाता है और अपफीम भी नहीं देता।’
लाल लबादा ओढ़े अजगरों ने कहा- अपफीम का लोभ अब और किसी को देना। हम तुम्हें भी जानते हैं पर पहले इस छुटभैये से निपट लें।’
पिफर उन्होंने पुरानी चाल के पीले अजगरों से कहा- ‘भैया, आपस में तो बाद में निपट लेंगे, पहले इस छुटभैये को सबक सिखाएं। कल तक हमें खिराज देता था और आज हमारे खाल की जूतियां बेच रहा है। यह सुनकर पीले अजगर दुविधा में पड़ गए।’
उधर छुटभैये ने दूसरे भूरे अजगरों की खालों पर भी अपना हक जताना आरम्भ कर दिया। विदेशी सौदागर ताव खा गए। वे कुछ कहते कि उधर यूरोप के जंगलों में भेडि़यों से कहा- ‘भेडि़ए भाई, यहाँ क्या रखा है? सुना है भालू का मांस स्वास्थ्य के लिए बड़ा मुपफीद है।’ लेकिन भेडि़ए को इतनी भूख लगी थी कि वह उन्हीं पर पिल पड़ा। सियारों का दम टूटने लगा तो भेडि़ए भालू पर भी झपट पड़े। भालू ने खीसे निपोर कर पीछे हटते हुए ऐसा नाच दिखाया कि भेडि़ए देखते रह गए। इसी गपफलत का लाभ उठाकर भालू ने डंडा सम्भाला और भेडि़यों को ऐसी मार मारी कि वे पानी भी न माँग सके।
पूर्व में समुन्दरी अजगर आगे बढ़ते रहे। बड़े उफँचे पहाड़ों के नीचे काली भूरी और चितकबरी खालों के हाथ से निकल जाने का खतरा उत्पन्न हुआ तो पुराना घाघ सियार अपने नये आका के पास पहुँचा और बोला- ऐ मुटल्ले भाई, गोला-बारूद और हथियारों के व्यापार से चर्बी इतनी बढ़ गई कि तुम्हें कुछ दिखाई नहीं देता। अरे समुन्दरी अजगर मुझे निगलता जा रहा है और तुम चुपचाप बैठे हो। आज अगर मेरी बारी है तो कल तुम्हारी आ सकती है। अजगर छोटा हो या बड़ा, पीला हो या भूरा, एक बार अगर उसकी भूख जग गई तो पिफर खुदा ही मालिक है।’
दोगला मुटल्ला सियार पहले ही सशंकित था। उसने आव देखा न ताव और समुन्दरी अजगर के सिर पर दो गोले ऐसे बरसाए कि वह चीं बोल गया। पिफर वह पीले देश में पहुँचा और बोला- ‘ऐ पीले देश के अजगरों! मैंने समुन्दरी अजगरों को ठिकाने लगा दिया। अब तुम्हारी खालों पर मेरा अधिकार है। अपफीम न लेना चाहो तो न सही, पर मेरे पास गोला-बारूद बहुत जमा हो गया है वह तो तुम्हें लेना ही पड़ेगा।’
पुरानी चाल के पीले अजगरों को यह सौदा पसन्द आ गया पर लाल लबादा ओढ़े अजगरों को पसन्द नहीं आया। बस क्या था, अजगरों के दोनों पिफरकों में ठन गई। पीले पिफरके की पीठ पर दोगला मुटल्ला सियार सवार हो गया और लाल पिफरके को भालू का जादू वाला डंडा मिल गया। तमाशा यह हुआ कि मुटल्ला सियार, पीले अजगरों के मुँह में शाम को गोला-बारूद ठूंस देता और वह सुबह लाल अजगरों के हाथ पड़ जाता। लाल लबादे का पफैशन इतना लोकप्रिय हुआ कि शु( पीले अजगरों की संख्या दिन प्रतिदिन कम होती गई और एक दिन पीले अजगरों को पीले सागर के पार एक द्वीप में शरण लेनी पड़ी। मुटल्ले सियार की बड़ी किरकिरी हुई।
लाल अजगरों के लाल देश से घोषणा हुई- ‘हम दुनिया भर के गरीब बेचारों का आह्नान करते हैं। एक नई दुनिया के निर्माण मंे हम हर जगह और हर दशा में उनका साथ देंगे। दुनिया से अब लूट-खसोट का व्यापार बन्द होना चाहिए। हम क्रान्ति के निर्यात में विश्वास नहीं करते, लेकिन कहीं यदि गरीब उठ खड़े होते हैं और क्रान्ति कर देते हैं तो हम जमकर उनका साथ देंगे। दुनिया को सुनने में जैसा भी लगे, लेकिन सत्य यही है कि सत्ता का उदय बन्दूक की नली से होता है। हमने इस सत्य के दर्शन अपनी लम्बी दुर्दशा के बाद किए हैं। हमारी इस बन्दूक के निशाने वे दरिन्दे हैं जो दूसरों की खाल उतार लेते हैं। लूट-खसोट करते हैं और दूसरों का गरम-गरम खून पीकर मोटे होते हैं। हम एक ऐसी दुनिया चाहते हैं जो लूट-खसोट से मुक्त हो, उत्पीड़न, भूख, गरीबी और लाचारी का जहाँ नामोनिशान न हो। हम लुटेरों के उस अमन-चैन के हामी नहीं, जिसमें उन्हें मन-मानी करने की छूट हो। हम सच्चे आर्थों में अमन-चैन चाहते हैं और अपने विशाल पीले आंगन में लाल, पीले, हरे, नीले हर प्रकार के रंग-बिरंगे पूफलों को पूफलने-पफलने की आजादी देते हैं।’
कुछ जानवरों ने कहा- ‘पूरब में एक नये सितारे का उदय हुआ है।’ दीन-दुखियों ने कहा- नई सुबह के नये सूरज का उदय हो गया है।’ उत्तर का लाल भालू तो इतना खुश हुआ कि रात-रात भर नाचता रहा। कुछ दिनों बाद लाल अजगर ने लाल भालू से कहा- ‘भालू भैया, मुटल्ले सियार की अक्ल ठिकाने लगानी है। समुन्दरी अजगरों ने हमें कम नहीं सताया लेकिन वे आखिर अपने ही तो हैं। मुटल्ला सियार उनकी पीठ पर सवार हो गया है। दक्षिण के भूरे अजगरों ने एक जिस्म-पफरोश को भगाया तो यह मुटल्ला वहाँ भी जा धमका है। वह हमें घेरकर भूखों मारना चाहता है।’ भालू ने कहा- ‘प्यारे अजगर, मैं हर दशा में तुम्हारा साथ दूँगा। गोला-बारूद की कमी है तो अभी ले आओ। मैं जरा पश्चिम में पफंसा हुआ हूँ। मुझे भी घेरने का प्रयास हो रहा है। मुटल्ले सियार की चौधराहट से अभी टकराना ठीक नहीं है। तुम उसे कागजी शेर कहते हो लेकिन याद रखो उसके ऐटमी दाँत भी हैं।
अजगर को यह सलाह पसन्द नहीं आई। इसी बीच अपनी सन्तान के अभ्युदय से पुराने महान अजगर की आत्मा सन्तुष्ट हो गई। बड़ी दीवार के नीचे से आवाज आई। ‘शाबाश मेरे बेटो! तुम कोई भी लबादा ओढ़ो लेकिन यह मत भूलो कि तुम महान पीले अजगर की सन्तान हो। अभी तुमको बहुत कुछ करना है। मैंने जिस विशाल पीले देश की स्थापना की, उसका एक बहुत बड़ा भाग अभी भी दूसरों के अधिकार में है। लुटेरे सियार तो कुछ खालें ही ले जाते थे। लेकिन तुम यह नहीं देखते कि वह कल का जंगली भालू तुम्हारे सिर पर बैठा नाच रहा है। वह तुम्हें सीख देता है और तुम नत सिर होकर स्वीकार करते हो। मैंने जब समाधि ली थी तो तुमने क्या वचन दिया था? याद रखो, सीख दुनिया को तुमसे सीखनी है।’
लाल अजगरों के सर्वथा लाल नेता ने कहा- हे महान अब्बाओं के अब्बा! क्या मैं अपना यह लाल लबादा उतार दूँ?’ ‘नहीं ऐसी मूर्खता मत करना।’ -आवाज आई- ‘यह बड़े काम की चीज है। इसके कारण कल की दुनिया को तुमसे कुछ नया कर दिखाने की आशा बंधी रहेगी। मुझे केवल इतना कहना है कि अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए दोस्ती और दुश्मनी का खुलकर प्रयोग करो। राजनीति में न कोई सदा के लिए दोस्त होता है और न दुश्मन। हर हथियार  से अपने को शक्तिशाली बनाओ। सि(ान्त कहीं हवा में नहीं टिकते, उनके लिए मजबूत जमीन की आवश्यकता होती है।’ 

लाल नेता ने सुबह-सुबह आँखे खोली तो लोगों ने देखा कि वह बार-बार लाल लबादे के नीचे अपने पीले शरीर को बड़ी हसरत भरी निगाहों से देख रहा है। उसी समय पूर्वोत्तर में उपद्रव हो गया। मुटल्ले सियार ने वहाँ अपनी सेनाएँ उतार दी। लाल अजगर ने लाल भालू से सलाह की तो वह सीधी सलाह देने में असमर्थ रहा। अजगर ने भालू की दोस्ती और मुटल्ले सियार की शक्ति को एक साथ अजमाने के लिए अपनी सेनाएँ भी वहाँ झोंक दी। भालू दूर से ही गुर्राता रहा। मुटल्ले सियार को पसीना तो आ गया पर अजगर को भी नाकों चने चबवा दिए। उसने एटम बम की धमकी दी तो भालू ने दूर ही से कहा- ‘पीले देश पर बम गिरा तो उसका धुंआ तुम्हारी नई दुनिया में उठेगा।’
सियार ने सोचा-शायद यह सौदा मंहगा पड़ेगा और लड़ाई खत्म हो गई।
उधर पश्चिम के बपर्फीले पठार से आवाज आई- ‘महान लाल अजगर की जय हो! लेकिन हमारी प्रार्थना है कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दो। भेड़ों की उफन उतारने का हमारा पुश्तैनी हक बरकरार रहने दो। हमारे दैनिक जीवन में दखल बन्द करो।’
लाल अजगर इस गुस्ताखी को कैसे सहन करता। विरोध का वह स्वर कुचल दिया गया और बपर्फीले पठार का सुनहरा मेढ़ा प्रार्थना-चक्र घुमाता हुआ अपनी जान बचाकर बड़े उफंचे पहाड़ों से नीचे भागा। नीचे बैठे बूढ़े लंगूर ने सोचा अजगर को बीमारी उठे ज्यादा वक्त नहीं हुआ। भालू और अजगर भी भिड़े हुए हैं। मुटल्ला सियार भी ताक में है, मौका अच्छा है बपर्फीले पठार के मेढ़े का इलाका गड़पा जा सकता है। अजगर सब समझता था। अजगर की पूफत्कार सुनाई दी- ‘ऐ नीचे वाले! तुम हमारी सौ भेड़ें उठा ले गए हो, पफौरन वापस करो।’
बूढ़े लंगूर ने कहा- ‘प्यारे अजगर, हम तो धर्म-भाई हैं। भेड़ों की बात है तो सौ के बदले हजार ले लो।’
आवाज आई- ‘भेड़ों की बात नहीं है। वह सुनहरा मेढ़ा कहाँ है?’
लंगूर ने कहा- ‘वह तो हमारी शरण में है। तुम कुछ भी मांग लो, लेकिन शरणागत के साथ धोखा करना हमने नहीं सीखा है।’  ‘और उसके नाम पर तुम दुनिया में हमें बदनाम करते पिफरोगे? तुम्हें सबक सिखाना होगा।’ ‘यह कैसी उल्टी बात करते हो? सबक तो कभी हमने तुम्हें सिखाया था। भगवान तथागत का सन्देश क्या भूल गए?’ यह आवाज चितकबरे चीते की थी।
‘भूला नहीं हूँ प्यारे, उसके जख्म तो अभी तक हरे हैं। तुमने हमारी जाति को निष्क्रिय और कायर बनाया। तलवार की जगह प्रार्थना-चक्र थमवाया और इस तरह लुटेरों से ही नुचवाया!’
‘लुटेरों ने तो हमें भी नोचा-खसोटा है। हम में तो आपसी सद्भाव और सहयोग होना चाहिए।’
‘अपने सद्भाव और सहयोग को अपने पास रख। एक बार तुम्हारा बात मानी तो आज तक भुगत रहे हैं। अपने को दुनिया से बहुत उफपर समझते हो। तुम्हारे पर कुतरने होंगे। बताओ इन बड़े उफँचे पहाड़ों पर यह सपफेदी कैसी है?’
‘बपर्फ की सपफेदी है भाई। बपर्फ सपफेद नहीं तो क्या पीली या लाल होगी?’
‘हमारे पुराने दस्तावेजों में लिखा है कि ये पहाड़ पीले थे। जरूर सपफेदी सपफेद लुटेरों ने पोती होगी। लुटेरे सियारों ने जो पाप किया तुम उसे बनाए रखने की हिमाकत करोगे?’
‘ये तो इतिहास की उलझी हुई बातें हैं। क्यों गड़े मुर्दे उखाड़कर सड़ान्ध पफैलाते हो? पिफर भी बातचीत के लिए हम तैयार हैं।’
‘ठीक है पफौरन शुरू करो।’
‘आप अपना दावा पेश करें।’
‘कह तो दिया ये पीले पहाड़ हैं और जो पीले हैं वे हमारे हैं।’
‘लेकिन पहाड़ तो सपफेद हैं। कौन अन्धा है जो इन्हें पीला कहेगा?’
‘तूने मुझे अन्धा कहा। वार्ता के अपने प्रस्ताव को अपनी जेब में रख। ठोढ़ी पर हाथ रख कर शान्ति के बहुत कबूतर उड़ा चुके, अब अपनी उड़ती हुई खोपड़ी देख।’ -अजगर ने गुस्से में कहा और उसकी आंखों से चिनगारियां बरसने लगी। मुँह से आग उगलता हुआ वह बड़े पहाड़ों से नीचे सरकने लगा। लंगूर और बन्दर आदि उस आग में झुलसने लगे। उतर के भालू ने इसे अजगर की नासमझी बताया। जब तक लंगूरों, बन्दरों और चीतों का देश संभलता, अजगर ने अचानक घोषणा कर दी कि वह सबक सिखा चुका है और अब वह बड़े उफंचे पहाड़ों से पीछे खिसक रहा है। उसने सचमुच पूंछ मुँह में डाली और कुछ पीछे हट गया। पिफर भी वह कुछ भूमि पर कुंडली मार कर बैठ गया। बूढ़े लंगूर ने माथा पीट लिया।
दक्षिण में भूरा अजगर मुटल्ले सियार से जूझ रहा था। लाल अजगर उसकी मदद तो कर रहा था लेकिन दिल से चाहता था कि उत्तर का भालू सीधे उलझ जाए तो मजा आ जाए। इसी समय मुटल्ले सियार के दरवाजे के पास एक गन्ने के खेत का मामला उलझ गया। सियार का कहना था कि गन्ने के खेत के लाल मच्छर उसकी माद में घुसकर उसे तंग करने की सोच रहे हैं। इनके कान उमेठना मेरे अधिकार में है। बस क्या था अजगर ने भालू को जा पकड़ा बोला- ‘भालू भैया, तुमने यूरोप के खूंखार भेडि़ए को सबक सिखाया था न?’
‘तुम कहना क्या चाहते हो?’ भालू मुस्कराया।
‘कुछ वैसा ही सबक इस मुटल्ले सियार को क्यों नहीं सिखाते?’
‘तुम समझते क्यों नहीं? मैं ऐसी गलती नहीं कर सकता जैसी तुम कर बैठे हो। बताओ उन उफँचे बड़े पहाड़ों पर उलझने की क्या आवश्यकता थी?’
‘यह तुम नहीं समझ सकते भालू भैया।  मैं जिस महान परम्परा का उत्तराधिकारी हूँ, उसका दर्द तुम क्या जानो? जरा पीछे तो हटना, मेरी सांस घुट रही है।’
‘क्या?’ भालू अवाक् रह गया।
‘यहाँ तो तुम इंच भर पीछे नहीं हटना चाहते और वहाँ पहुँच गए तो भीतर घुसकर मुटल्ले की कब्र क्यों नहीं खोद डालते?’
‘मुटल्ले ने अगर पूरे खेत को ध्वस्त कर डाला तो?’
‘अरे वह गीदड़-भभकी है। तुम साहस तो करो। इधर मैं देख लूँगा।’
‘अपनी सीख तुम अपनी जेब में रहने दो। -भालू बड़बड़ाया- यह कोई नहर का मामला नहीं हैं। मैं जानता हूँ मुटल्ले के पास कितनी शक्ति है’
‘तो मैं समझ गया। तुम दूसरे के कन्धे पर बन्दूक रखकर भले चला लो, लेकिन स्वयं सामने नहीं आओगे। अपने को भलामानुष कहलवाना चाहते हो और हम पर दुस्साहस का आरोप मढ़ते हो। तभी तो मुटल्ले को रोज दावत पर बुलाते हो और स्वयं उसकी जूठी पत्तले चाटने पहुँच जाते हो। मैं मुटल्ले से जा टकराया तो तुम दूर से गुर्राते रहे। मेरा सुनहरा मेढ़ा भाग निकला तो तुमने कहा- जल्दबाजी की क्या जरूरत थी? जरा उसकी भी सुन लेते। मैं उफँचे पहाड़ों पर पफंस गया तो तुमने उसे नासमझी करार दिया। उफपर से दुनिया भर में ढोल पीटते हो कि तुमने मेरे लिए यह किया, वह किया। तुमने सड़ा-गला और घुना अनाज देकर मेरा स्वास्थ्य चौपट किया। पुराना गोला-बारुद देकर मेरी बन्दूक की नालियों को बेकार कर दिया और बेकार पुरानी मशीनें मेरे मत्थे मढ़ी है। तुम मुझे अपना जर-खरीद गुलाम समझ बैठे हो।’
अजगर को गुस्से में देखकर भालू ने कहा- ‘इस समय तुम आपे में नहीं हो, अगली बार मिलोगे तो बात करूँगा।’ -और वह उठकर चला गया। पीले देश से लाल घोषणा हुई। ऐ दुनिया के लाल भाइयों! यह सुनकर तुम्हें दुःख होगा कि मार्क्स का पढ़ा-पढ़ाया और लेनिन का सिखा-सिखाया महान लाल भालू मर गया है। उसकी जगह सपफेद भालू ने अधिकार कर लिया है और लाल लबादा ओढ़कर वह दुनिया को धोखा दे रहा है। वह सौदागर सियारों की जूतियाँ चाटता पिफरता है। आसमान में करामातें दिखा सकता है लेकिन दुनिया के मजलूमों को एक छदाम भी नहीं दे सकता। मार्क्स और लेनिन के सि(ान्त खतरे में हैं। इस नये खतरे के विरू( एकजुट हो जाओ।
इस घोषणा से लाल दुनिया में बड़ी खलबली मची। लालों में लाल, लाल अजगर की लाल किताबें लेकर जहाँ-जहाँ गलियों में चीखने-चिल्लाने लगे। लुटेरे सियार यह तमाशा देखकर मुस्कराने लगे। पिफर बम के धड़ाके और उसके काले-पीले धुँए के साथ दूसरी घोषणा हुई- ‘ऐ दुनिया वालो! यह कितना बड़ा अन्याय है कि मुट्ठी भर भालू मेरे विशाल क्षेत्रा पर पाँव पसारे बैठे हैं और जगह की कमी के कारण मेरा दम घुट रहा है। दुनिया के इस नये चौधरी को सबक सिखाना है तो मेरी मदद करो। ‘सुना, तो लुटेरे सौदागरों की बांछे खिल गईं। उन्होंने पीले देश के भीतर झांकना शुरू कर दिया।
इधर भूरे अजगर ने मुटल्ले सियार को पीटकर रख दिया वह बोरिया-बिस्तर बाँधकर भागा तो छोटे-मोटे अजगरों ने भी अपने स्वतंत्रा अस्तित्व की घोषणा कर दी। लाल लबादा ओढ़े अजगर भूरे अजगरों के पास पहुँचा और बोला- ‘हम अजगर हैं।’
‘वह तो हम हैं ही।’ -भूरे अजगर एक स्वर में बोले।
‘भालू हमारी जाति का नहीं है।’
तीनों अजगर चुप।
‘बोलते क्यों नहीं? क्या तुम्हें सांप सूंघ गया है?’ उसने पुफंपफकार छोड़ी।
‘सांप तो हमें क्या सूंघेगा पर भालू जरूर सूंघ गया है। क्या हमारी मदद करोगे?’
‘शाबास! अपना खून पिफर भी अपना ही होता है।’ पिफर उसने बड़े भूरे अजगर से कहा-
‘तुम क्या कहते हो?’ उसने तीसरे से पूछा।
‘मैं सोचकर जवाब दूंगा।’ तीसरे ने कहा।
अब उसने बड़े भूरे अजगर को आड़े हाथों लेना आरम्भ किया- ‘तुम महान अजगर की औलाद होकर भी उस नाचीज भालू की गुलामी करोगे? भालू के भौंडे नाच के लिए अपनी ही जाति से द्रोह करोगे? मैंने जो एहसान तुम पर किए हैं उनका यह बदला चुकाओगे?’
‘एहसान का शुक्रिया बड़े भाई, पर पहले उन द्वीपों को तो खाली करो, जिन पर तुम कुंडली मारकर बैठे हो। तुम पर भी तो किसी का एहसान है यह क्यों भूल जाते हो?’ ‘मुझ पर किसी का एहसान नहीं है, उल्टे भालू ने मेरी जमीन दाब रखी है। मैं उसको भी सबक सिखाउफंगा और तुमको सबक सिखाना तो मेरा पुश्तैनी अधिकार है। तुम समझते क्या हो? मुटल्ले सियार को पीट दिया तो खुद को बड़ा तीसमारखां समझने लगे हो। तुम्हारी अकड़ न निकाल दी तो उस महान अजगर की सन्तान नहीं। हां, इस समय तो मैं जा रहा हूँ लेकिन मेरी बात पर गौर करना। अगर अक्ल लौट आए तो जवाब भेज देना।’ -उसने कहा और छोटे भूरे अजगर के कन्धे पर हाथ रखकर एक ओर चल दिया। रास्ते में उसने छोटे अजगर को समझाया- ‘तुम कुछ ऐसा करो कि इन दोनों भूरे अजगरों से अधिक क्रान्तिकारी लगो। शहर की आबादी गाँवों  में और गाँवों की आबादी शहरों में ले जाओ तो कैसा रहे? हमने भी सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान कुछ ऐसा सोचा था लेकिन पूरा नहीं कर सके। मैं चाहता हूँ कि तुम इस क्रान्तिकारी कदम को अपने यहाँ चरितार्थ करो। हाँ, एक बात और हैं तुम्हारे इस बड़े पड़ोसी को गन्दे भालू के संसर्ग में खुजली हो गई है। यदा-कदा उसकी खुजली का इलाज भी कर लिया करो। घुड़कियाँ देगा तो डरना मत। मैं उसी के इलाज का प्रबन्ध करने वापस जा रहा हूँ।’
पीले देश पहुँचने पर उसने बड़े भूरे अजगर के विरू( बयान पर बयान देने आरम्भ कर दिए- ‘ऐ दुनिया वालो! सुनो, बड़े भूरे अजगर का दिमाग चल गया है। भालू की शह पाकर वह अपने यहाँ के निहायत पीले अजगरों को निकाल बाहर कर रहा है। मेरी सीमाओं पर भी छेड़खानी कर रहा है। पड़ोसी छोटे भूरे अजगर को धमकियां दे रहा है। मैं भालू से कह रहा हूँ कि वह मेरे कुनबाई इलके में दखल न करें पर वह भूरे अजगर को और भी उकसा रहा है। भूरे अजगर को तो मैं सबक सिखाकर रहूँगा, पर भालू की नाक में नकेल डालने में मेरी मदद करो।’
अजगरी सबक ;4द्ध
मुटल्ले सियार ने अजगर के बयान पढ़े तो उसने अजगर को अपने यहाँ आने का निमंत्राण दे डाला। अजगर दूसरे ही क्षण वहाँ जा पहुँचा। मुटल्ले ने बड़ी गर्म-जोशी से अजगर का स्वागत किया। उसने कहा- हे महान पीले देश के महान अजगर! आज आपको अपने बीच पाकर हम कितने गौरवान्वित हुए हैं कितनी प्रसन्नता हुई है हमको यह हमारे हृदय से पूछो। भाई हम जानते थे कि आप जैसे महान परम्परा के उत्तराधिकारी एक दिन यथार्थ को समझकर सही निर्णय पर पहुँचोगे और हमारे साथ मिलकर एक ऐसी दुनिया के निर्माण में सहयोग करोगे, जहाँ सबको खुलकर सांस लेने का स्वतंत्राता होगी, जहाँ किसी के बोलने, खाने-पीने और कोई भी काम करने पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं होगा।’
अजगर ने आँखें मिचमिचाकर मुस्कराते हुए कहा- ‘यही आशा लेकर मैं आपके पास आया हूँ। इतने दिनों तक भालू के भौंडे नाच में जो समय गंवाया, उसका मुझे कितना दुःख है वह मेरे दिल से पूछो। मैंने भालू को जिस निकटता से देखा है और उसका जो-जो अनुभव मुझे हुआ है, वहीं मैं आप लोगों को बताना चाहूँगा। वह कल का जंगली आज दुनिया का चौधरी बनना चाहता है। बात करने का तो शउफर नहीं, मुँह से भयानक दुर्गन्ध निकलती है और एक नई भौंडी दुनिया बसाने चला है। मैं चाहता हूँ कि हम मिलकर उसकी नाक में नकेल डाल दें। हर जगह उसे टांग अड़ाने की आदत पड़ गई है। एक बार मिलकर पटक दें तो छुट्टी हो।’
‘आप पहल तो करें। हम आपके साथ हैं लेकिन कल तक तो आप हमें पानी पी-पीकर कोसते थे। भूरे अजगर के हाथों हमारी जो दुर्दशा हुई, उसे भूल पाना तो सहज नहीं है।’
सियार ने शिकायत की।
‘अब किस मँुह से अपना हाल कहँू। भाई, यहाँ भी होम करते हाथ जल गए। बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुभानल्ला। उधर से भालू गुर्रा रहा है तो नीचे से नमक हराम भूरा अजगर आँखें दिखा रहा है। लेकिन आप चिन्ता न करें भूरे अजगर की खाल उतारकर अगर आपको भेंट न की तो तब कहना।’ -अजगर ने कहा।
‘लेकिन कहीं भालू चढ़ दौड़ा तो?’
‘तो मैं यहाँ क्यों आया हूँ?’
‘यह तो आपने अच्छा किया। लेकिन हमारा सीधे टकराना शायद दुनिया के हित में न हो। भालू बदशक्ल को, बदशउफर हो पर ताकत तो गजब की रखता है।’
‘मैं यह कब कहता हूँ कि आप सीधे भालू से भिड़ पड़े। आप जरा उंगली भर उठा दें, बस इतना की कापफी है। मैं जानता हूँ कि वह आपसे कितना डरता है। मैं निश्चिन्त हो कर भूरे अजगर को सबक सिखा सकूं, क्या आप यह नहीं चाहते?’
‘चाहता तो हूँ भाई, पर कोई बड़ी मुसीबत मोल न ले लेना।’
‘प्रसन्नता है कि आपको मेरा योजना स्वीकार है। हाँ, एक बात और है। मैं वापस जाउफँगा तो लोग पूछेंगे और क्या-क्या लाए। आप ऐसा करें कि हमारे राजा की जो सुनहरी खाल आपके म्यूजियम में पड़ी है, उसे वापस कर दें। उस खाल को देकर जो बहुत लाल है। वे सुनहरे हो जाएंगे और जो सुनहरे हो चुके हैं वे पुराने पीले रंग में आ जाएगे। इससे मेरा काम और भी सरल हो जाएगा।’
‘और भी कुछ चाहिए आपको?’
‘हाँ, आपने पीले सागर को द्वीपों में जो पीले अजगर पाल रखे हैं, उनकी चिन्ता से अब अपने को मुक्त समझे। हम उन्हें कोई कष्ट नहीं होने देंगे। आखिर वे हमारे अपने ही भाई तो हैं।
‘गोला-बारूद और हथियारों की बात तो आपने बिल्कुल ही छोड़ दी। भाई, हम तो सौदागर हैं। कुछ लाभ भी तो हो।’
‘यह कोई कहने की बात है। उतनी दूर से क्या मैं केवल कोरी बातें करने आया हूँ? हाँ, जरा यूरेनियम की अच्छी किस्म की भी जरूरत पड़ेगी। भालू एटम बम से बहुत घबराता हैं।’
इस खुली और खरी बातचीत से दोनों पक्ष बड़े सन्तुष्ट हुए। अजगर ने लाल लबादा उतारा और तह करके कन्धे पर डालते हुए कहा- ‘अब इस बेकार के बोझ को शरीर पर लादे-लादे पिफरना अच्छा नहीं लगता।’ पिफर एक क्षण सोचकर कहा- ‘लेकिन एकदम उतार पफेंकना भी अच्छा नहीं होगा। चलो, आज से कन्धे पर ही रहेगा।’ वह जाने लगा तो मुटल्ले सियार ने पिफर पूछ लिया- ‘अगर भालू चढ़ दौड़ा तो?’
‘तो भी कोई चिन्ता नहीं। उसके पास आखिर कितनी गोलियाँ होंगी? अजगरों की लहर पर लहर जब आगे बढ़ेगी तो वह कितनों को मार पाएगा? मैं जानता हूँ कि वह भूरे अजगर को गोला-बारूद देकर बयानबाजी तक सीमित रहेगा। जब तक उसका गोला-बारूद भूरे अजगरों तक पहुँचेगा। तक तक तो मैं उनकी खाल उतारकर वापस भी हो जाउफँगा।’
अजगर की रणनीति से मुटल्ला सियार बिल्कुल सन्तुष्ट जान पड़ा। लाल लबादे को कन्धे पर डालकर अजगर उन सभी देशों में गया जो भालू से नपफरत करते थे। अपने देश पहुँचते-पहुँचते वह उफँचे बड़े पहाड़ों के नीचे वाले चीते को भी न्यौता देता गया कि वह आए और पुराने झगड़े की सुलह-सपफाई कर ले। लोगों ने सोचा कि शायद बाहर घूमने से अजगर को अक्ल आ गई है। घर पहुँचते ही उसने छोटे भूरे अजगर ही पीठ थपथपाई जिसने बदले में बड़े भूरे अजगर की चिकौटी काट ली। तैश में आकर बड़ा बूरा अजगर सीधे अन्दर पहुँच गया और एक ऐसी सरकार कायम कर दी जो गाँव वालों को गाँवों में और शहरियों को शहरों में लौटा लेने की प्रतिक्रियावादी बात करने लगी। बस पिफर क्या था पीले देश से एक और बयान निकला- ‘दुनिया के लोगों! भूरे अजगर ने मेरी सीमाओं का अतिक्रमण किया है। उसने मेरी कई सौ भेड़ें और बकरियाँ हजम कर डाली हैं। मेरे सब्र का बाँध टूट रहा है।  इस भूरे अजगर को समझाओ। पिफर मुझे न कहना कि मैंने गलत किया है। भालू से कह दो कि वह हमारे बीच न पड़े।’
दूसरी सुबह वह मैत्राी-द्वार के बुर्ज पर आ बैठा। वहीं से बोला- ‘अबे, ओ नमक हराम! यह मेरी ओर मैला किसने किया हैं?’
भूरे अजगर ने बहुत नीचे से कहा- ‘मैं क्या जानंू? मैंने तो बहुत दिन हुए इधर आना ही छोड़ दिया है।’
अजगर ने कहा- ‘तूने नहीं किया तो उस बदतमीज भालू ने किया होगा जो तेरे घर घरजवांई बनकर बैठा है। अब तो तुझे सबक सिखाना ही पड़ेगा।’
यह कहकर उसने ताली बजाई और बेशुमार अजगरी लश्कर भूरे अजगरी देश की उत्तरी सीमा पर छा गई। दुनिया में बड़ा शोर-शराबा मचा। मुटल्ले सियार ने कहा कि यह सब गलत है लेकिन भूरे अजगर को भी छोटे अजगर को सबक सिखाने की हिम्मत क्यों पड़ी? चीता जो सुलह-सपफाई के लिए पहुँच चुका था। बीच ही में नाराज होकर लौट आया। दुनिया भर के लाल एक स्वर में भर्त्सना करने लगे तो अजगर ने बड़े संजीदा स्वर में कहा- ‘मुझे गलत समझा जा रहा है। मैं भालू की तरह किसी की जमीन दाब कर बैठने वाला नहीं हूँ पर अपने छोटे भाई के कान उमेठने का अधिकार मैं नहीं छोड़ सकता। उसकी जमीन का लालच मुझे हो तो तब कहना। मैं तो उसकी गुस्ताखी की हल्की सी सजा देना चाहता हूँ। जिस दिन यह काम पूरा हुआ मैं लौट जाउफँगा।’
भालू सचुमच बयानबाजी से आगे नहीं बढ़ा। उसके हथियारों से लैस होकर ज्यों ही भूरे अजगर ने जवाबी कार्यवाही की और भालू ने भी लीक से हटकर कुछ कड़ी चेतावनी दी तो अजगर ने घोषणा कर दी कि वह सबक सिखा चुका है और पीछे लौट रहा है।
अजगरी सबक ;5द्ध
बड़ा भूरा अजगर छोटे भूरे अजगर के घर से बाहर नहीं निकला तो नहीं निकला। महान अजगर की संतान अपनी इस असपफलता से इतनी बौखला गई कि उसने दोगले मुटल्ले सियार की दुम से चिपकने का अब पूरा पफैसला कर लिया। मुटल्ले सियार को कब से शिकायत थी कि क्यूबा के लाल मच्छर अप्रफीका के जंगलों में भी भयानक लाल रोग पफैला रहे है तो अजगर ने भी छींकना आरम्भ कर दिया। उसका छींकना था कि अशुभ घटा। सौदागर सियार ने हैरान देश के रेगिस्तान में हथियारों के बल पर जो अजूबा खड़ा किया था वह ढह गया। उसके सबसे विश्वसनीय दोस्त को दपफन के लिए दो गज जमीन तक मयस्सर नहीं हुई। उफपर से बड़े मुल्ला की भेड़ें चिल्लाने लगीं कि हमारे आर्य मेढ़े को हमें सौंपो। उसकी नरम-नरम सपफेद उफन से हम अपने बड़े मुल्ला का चोगा तैयार करेंगे। वे बूढ़े हैं और उन्हें ठण्ड भी बहुत सताती है। जब तक हमारा मेढ़ा नहीं मिलेगा, हम तुम्हारी बकरियाँ नहीं छोड़ेंगे।’
सियार ने अजगर को जा पकड़ा- ‘कॉमरेड, अब क्या होगा?’
अजगर- ‘चिन्ता क्यों करते हो? उधर पिरामिडों का भूत है तो इधर महान दीवार की यह महान आत्मा है। हाँ, इस समय तुम्हें जलवायु-परिवर्तन की आवश्यकता है। क्यों न हम तुम दुनिया की छत पर स्केटिंग का आनन्द लें। मन बहलाव भी होगा और भालू की हरकतों पर नजर भी रख सकेंगे। मैंने तो पहले ही वहाँ तक पहुँचने का रास्ता भी तैयार कर लिया है। यह भी देखने का अवसर मिल जाएगा कि बड़े मुल्ला के लबादे के भीतर कहीं भालू तो नहीं छिपा है।
दोनों मटरगश्ती करते हुए उधर बढ़े तो भालू की गुर्राहट से चौंक उठे। भालू वहाँ की नरम-नरम बपर्फ पर पैर पसारे बैठा था। दोनों ने हड़बड़ी में खैबर के दर्रें को पार किया और उल्टे पैरों उल्टाबाद लौटकर राहत की सांस ली। काबुल के सूखे मेवे और पामीर के शु( शहद के हाथ से निकल जाने से सियार को इतनी निराशा हुई कि उसके भीतर अध्यात्म सुगबुगाने लगा। उल्टाबाद की आबो-हवा में उसे इस्लाम के उफपर मंडराते खतरे का अहसास हुआ और उसने घोषणा कर दी कि आज से वह इस्लाम का पैगम्बर है। वहाँ के लोमड़ सिपहसालार की पीठ ठोंकते हुए उसने कहा- ‘भालू, दुनिया की छत पर आ गया है।’
लोमड़- ‘आ गया होगा।’
सियार- ‘आ गया होगा, नहीं, आ गया है। मैं इस्लाम का पैगम्बर हूँ और तुम इस्लाम के सेवक हो। मैं जो कहता हूँ वह तुम्हारे लिए खुदाई हुक्म है।’
लोमड़- ‘मेरे आका, बहुत पहले भी आपने मंूगपफलियां भेजी थी। वे इतनी सड़ी गली और घुनी निकली’ कि हमारे बहादुरों का पेट चल गया। हम बंगाल की खाड़ी में डूबते-डूबते बचे। पिफर उधर बड़े मुल्ला कहते हैं कि आप इस्लाम के दुश्मन हैं। आपने ही वह सांड खुला छोड़ रखा है जो जब तब सींग मार-मारकर हमारे भाइयों को लहू-लुहान कर देता है।’
‘क्या पुराना रोना लेकर बैठे हो?’ सियार ने डांटा- ‘अबकी बार ऐसी करारी मूंगपफलियाँ भेजूँगा कि दाँत बाहर निकल आए। और वह मुल्ला-शैतान की औलाद है। मुझे तो वह भालू का एजेण्ट लगता है। सांड तो मैंने जान-बूझकर छोड़ा है। उसे न छोड़ता तो तुम्हारे मुर्दा दिलों में हरकत कहाँ से आती? यह सब मुझे इस्लाम की खिदमत के लिए ही तो करना पड़ रहा है। अब तो इस्लाम की खिदमत में ये भी हमारा साथ देंगे। इस्लाम की राह पर चलना है तो इनसे सीखें।’
अजगर मुस्करा रहा था।
लोमड़- ‘इनकी लीचियों से तो चेहरे की रौनक है। लेकिन कहीं वियतनाम’ ‘लाहौल-बिला-कूवत, किस गन्दी चीज का नाम ले लिया। जरा भेजे से तो काम लो। तब ये हमारे साथ कहाँ थे? तुम साहस तो करो, मैदान हमारे हाथ होगा।’
अब अजगर की बारी थी। बोला- ‘सही कहते हैं। भालू आज दुनिया की छत पर तो कल तुम्हारी छत पर होगा। इसलिए तुम्हारी छत के नीचे बारूद का ढेर जमा करना आवश्यक हो गया है। भालू के आने पर तुम्हें स्वयं पलीता दिखाना होगा। भालू उस विस्पफोट में खत्म हो जाएगा और उसकी चौधराहट से दुनिया को मुक्ति मिल जाएगी।’ ‘लेकिन मेरे घर का क्या होगा? ‘सिपहसालार लोमड़ ने आशंका प्रकट की।
-बड़े इस्लाम के सेवक बनते हो, क्या इतनी भी कुर्बानी नहीं दे सकते?’ पैगम्बर सियार ने कहा।
सिपहसालार चुप।
अजगर पुफसपुफसाया- ‘प्यारे भाई, चिन्ता मत करो। मेरे पश्चिमोत्तर में कुछ तुम जैसे लोग हैं, जिन्हें मेरा चलन पसन्द नहीं है। मैं  उन्हें और दूसरे बेशुमार अजगर-अजगरनियों को भेज कर तुम्हारे नुकसान को पूरा कर दूँगा। इस्लाम की सेवा में कोड़े मारना आवश्यक हो तो कोड़े मार-मार कर अपनी हसरत पूरी कर लेना। मैंने कारगिल की पहाडि़यों खोदी हैं तो पफारस की खाड़ी में इनका लश्कर मौजूद रहेगा। तुम्हें डरने की क्या आवश्यकता?’ ‘हाँ, अच्छी याद दिलाई। पफारस की खाड़ी- वह तो मेरी जीवन-रेखा है। मेरी शिराएँ वहीं से होकर गुजरती हैं। जब से भालू ने लाल लबादा बोढ़ा मैंने अपनी शिराओं का खून निकाल बाहर किया, क्योंकि उसका रंग भी लाल था। मुझे उस हर चीज से नपफरत है जो लाल है। मेरी शिराओं में अब तेल बहता है तेल। और वह तेल मुझे पफारस की खाड़ी से होकर ही मिलता है। मैं भालू से खुले आम कहता हूँ कि पफारस की खाड़ी मेरी जागीर है। जो भी उधर मुँह करेगा, उसका मुँह तोड़ दिया जाएगा। मुझे यूरोप के उन सियारों में न गिने, जो उसकी एक धमकी सुनकर मैदान छोड़ गए थे। मैं लाल सागर को भी मृत सागर में बदल डालूँगा। पफारस की खाड़ी की क्या, जो भी जगह मुझे पसन्द आ जाए, वह मेरी जागीर है। साइबेरिया के गन्दे जंगल मुझे पसन्द नहीं है। अच्छा हो कि भालू अपनी उस मांद से बाहर निकलने का दुस्साहस न करें। क्यों अजगर भैया, पशु-अधिकारों की रक्षा के लिए क्या यह आवश्यक नहीं है?’
अजगर ने लाल लबादा, उलटकर अपने पीले शरीर की रंगत दिखाई और छोटी सी आँखें मिचमिचाकर कहा- ‘बजा पफरमाते हैं। अब मेरी समझ में आया कि ग्वान्टेमानो, डिएगो गार्सिया और ओकीनावा के अड्डे क्यों जरूरी है? क्यों न एक अड्डा यहीं स्थापित कर लो?’
सिपहसालार लोमड़ बोला- ‘कुछ मेरी भी तो सुनो। इस्लाम की हिपफाजत के लिए एटम बम बहुत जरूरी है।’
सियार-‘अरे, वह तो हम यों ही नजर कर देंगे। तुम बनाने की जहमत क्यों मोल लो?’ लोमड़-‘पिफर वादी-ए-कश्मीर का सवाल है। जमीं पर जन्नत का नजारा और उसे मेरे पड़ोसी की गायें चर रही है। उनके गोबर की बदबू क्या आपके नथुनों तक नहीं पहुँचती?’ अजगर- ‘भाई, हर समस्या को एक साथ हल करने की कोशिश करोगे तो मुश्किल पड़ेगी। तुम्हारे पड़ोसी की एक करारा झटका तो मैं पहले की लगा चुका हूँ। पहले भालू से तो निपट लें, पिफर ऐसा सबक सिखाएगी कि पानी न माँग सके। पिफर तुम वादी-ए-कश्मीर मंे घुसो या सीधे लाल किले में जश्न मनाओ।’
सिपहसालार लोमड़ की जीभ में पानी भर आया। प्रसन्न होकर बोला-
‘तो मुझे क्या करना होगा?’
सियार- ‘कुछ विशेष नहीं, बस हम जो गोला-बारूद, तुम्हें भेजे, तुम उसे पामीर की भगोड़ी भेड़ों की दुम में बाँध देना और उन्हें पामीर की तरपफ हांकते रहना। वे वहाँ जाकर भालू की मांद में विस्पफोट करेंगी और हमारा काम बन जाएगा। भालू नाराज होकर तुम्हारे पाक वतन को नापाक करने की कोशिश करेगा तो हम तीनों मिलकर  उसे यहाँ घेर लेंगे और पिफर यकीनी पफतह समझो। हम तीन ही क्या इंग्लैण्ड के बुल डॉग और दुनिया भर के गि(, उल्लू, चील और शुतुरमुर्ग हमारे साथ हैं। सबकी यहीं इच्छा है कि मैं दुनिया के थानेदार की जिम्मेदार सम्भालूं। क्यों अजगर भैया, तुम्हें कोई एतराज तो नहीं?’
अजगर- ‘बिल्कुल भी नहीं। अगर आपको डण्डा सम्भालने में तकलीपफ होती हो तो मेरे हाथ में दे दें। मैं भालू की खोपड़ी का कचूमर न निकालू दूँ तो कहना। मार-मार कर उसे साइबेरिया के भी पार भगा दूँगा। आप जानते हैं कि वे जंगल तो मेरे थे। भालू को सबक सिखाने का मौका अब मुझे दें।’
सियार- ‘तो ठीक है, हम सब उसे घेरने की योजना तैयार करें और एक हल्ले में उसकी चौधराहट का शीराजा बिखेर दें।’
बस पफैसला हो गया। तीनों ने एक दूसरे की पीठ थपथपाई और अजगर लाल से पीला होकर कारगिल के रास्ते अपने घर को लौट गया।
तब से ह्वांग-हो में न जाने कितना पानी बह गया। उत्तर का लाल भालू दुनिया की छत पर टिक नहीं पाया और थक-हारकर एक दिन वापस चला गया। शान्ति का मसीहा बनने के चक्कर में ऐसा पफंसा कि वाहवाही के साथ अपनी तबाही भी मोल ले बैठा। लाल भालू की मांद पर सपफेद भालुओं ने अधिकार कर लिया। आजादी के नाम पर एक शक्तिशाली राष्ट्र को छिन्न-भिन्न कर दिया गया। सपफेद भालुओं का कहना है कि जीने के लिए रोटी नहीं, मुनापफा कमाने की आजादी ही असली आजादी चाहिए। रोटी तो भीख मांगकर भी जुटाई जा सकती है और आज उनके हाथ में भीख का कटोरा देखकर बड़ी हैरत होती है। मजदूरों और किसानों को उनका हक मिले या न मिले, लेकिन बटमारों लुटेरों और हत्यारों को खुले आम कुछ भी करने की आजादी है। और लाल भालू हैं कि अपने जख्म चाटने से ही पुफरसत नहीं है।
मुटल्ले सियार की धड़ल्ले से चल रही है। उसके साथ हुआ-हुआ करने वाले भी कम नहीं है। उसका कहना है कि वह जहाँ चाहे अपनी पफौजें उतार सकता है और जिसकी नाक में चाहे नकेल डाल सकता है। इसके लिए उसे किसी की इजाजत लेने की आवश्यकता नहीं है। दजला-पफरात की एक मछली ने बगावत कर दी तो मुहल्ला अपने जी-जुजूरों के साथ वहाँ पहुँच गया। इधर उसे इलहाम होने लगा कि अब इस्लाम एक खतरा बन गया है। इसलिए उस मछली और उस जैसे दूसरों के पास हथियार नहीं होने चाहिए। कब्रें तक खोद डाली गई पर हथियार नहीं मिले। कहता है- पेट चीरकर देखो, वहाँ छिपाए होंगे। उसका यह भी कहना है कि विनाशकारी हथियारों का जो तजुर्बा उसे है। वह बहुतों को नहीं है। इसलिए ऐसे हथियार उसी के पास रहने चाहिए। दूसरों को जब जरूरत पड़े, उसका दरवाजा खटखटाएँ और वह मुहैया कर देगा। उपदेश देने में भी वह उस्ताद हो गया है। लेकिन जिन्हें उस पर विश्वास नहीं, वे हथियार बनाने की अपनी आजादी गिरवी रखना मंजूर नहीं कर रहे हैं। उसकी चौधराहट से घबराकर हमने अजगर को जा पकड़ा और विनती की- ‘हे लालों में लाल! यह क्या हो रहा है? तुम भी उसका सथ दे रहे हो। लाल भालू की दशा पर क्या सचमुच तुम्हें कोई दुःख नहीं है?’
वह बोला- ‘हमने तो बहुत पहले ही समझ लिया था कि भालू नाम के लिए ही लाल रह गया है। वह तो रास्ते से कब का भटक गया था। उसका जो हाल हुआ वह तो होना ही था।
हमने कहा- ‘लेकिन इससे लालें की दुनिया में जो पस्त-हिम्मती पैदा हो गई है, उसके लिए आप कुछ करते क्यों नहीं। आप तो उसी की हाँ में हाँ मिलाते जा रहे हैं।’ उसने समझाया- ‘समझने की कोशिश करो। सीधे टकराने का अर्थ जानते हो? हमने दुनिया में जितना उफँच-नीच देखा है, परसों का मुटल्ला क्या जाने? अभी सीधे विरोध मोल लेना ठीक नहीं है। समय आने दो, सबक सिखाया जाएगा।’
और हम चुप हो गए।
इस अजगरी उठा-पटक और टेढ़ी चाल को न समझ पाने के कारण लोग हमसे पूछते हैं- कहिए, आपके उस उगते सितारे का क्या हुआ? हम कहते हैं- ‘आजकल महान अजगरी परम्परा की बदली में छिप गया है।’ वे कहते हैं- ‘नयी सुबह के नये सूरज का क्या हुआ?’ हम कहते हैं- ‘उसे सबक सिखाने का ग्रहण लग गया है।’ पिफर हम कहते हैं- ‘भाई, कभी-कभी सीधे सपाट रास्ते पर भी भूल से पैर इधर-उधर बहक जाते हैं। आगे-आगे देख्एि होता है क्या?’
वे तपाक से कहते हैं- ‘अमां यार, अजदहा तो अजदहा है, लाल-पीला  होता है क्या?’ 



Wednesday, June 19, 2013

ताइवान : प्रतिरोध की कविता

ताइवान : प्रतिरोध की कविता आज से करीब सोलह साल पहले ताइवान के हजारों कारखाना मजदूरों को बढ़ती प्रतिद्वंद्विता को देखते हुए उत्पादों की लागत कम करने के नाम पर बगैर कोई हर्जाना दिए नौकरी से निकाल दिया गया था। अचानक आई इस बिपदा से मजदूरों और उनके परिवारों का जीवन छिन्न भिन्न हो गया ,हाँलाकि यूनियनों के हस्तक्षेप से यह रहत मिली कि सरकारी श्रम विभाग उनको कुछ राशि "ऋण" के तौर पर देने को तैयार हो गया जो बाद में दोषी कारखाना मालिकों से वसूल लिया जाना था। अब सोलह साल बाद सरकार ने लाभार्थी मजदूरों ( जिनमें से अधिकतर अब मौत के मुंह पर दस्तक दे रहे हैं) को दिए गए "ऋण" को वापस लेने के लिए कानूनी अभियान चलाया है। गैर कानूनी ढंग से सरकारी ऋण डकार जाने का अभियोग उन मजदूरों पर लगाया गया है और कोर्ट में मुकदमा चलाया जा रहा है। ताइवान के एक कलाकार लेखक "BoTh Ali Alone" ( सरकारी दमन से बचने के लिए रखा गया छद्म नाम) ने इस घटना को रेखांकित करते हुए और पीड़ित मजदूरों की तकलीफ से खुद को अलग और मसरूफ रखने वाले सुविधा संपन्न वर्ग की ओर इशारा करते हुए एक कविता लिखी। http://globalvoicesonline.org/2013/02/11 से ली गयी यह कविता यहाँ प्रस्तुत है
प्रस्तुति : यादवेन्द्र 


रेल की पटरी पर सोना

यह एक द्वीप है जिसपर लोगबाग़
लगातार ट्रेन में चढ़े रहते हैं
जब से उन्होंने कदम रखा धरती पर।
उनके जीवन का इकलौता ध्येय है
कि आगे बढ़ते रहें रेलवे के साथ साथ
 उनकी जेबों में रेल का टिकट भी पड़ा रहता है
 पर अफ़सोस,रेल से बाहर की दुनिया
 उन्होंने देखी नहीं कभी ...
डिब्बे की सभी खिड़कियाँ ढँकी हुई हैं
 लुभावने नज़ारे दिखलाने वाले मॉनीटर्स से।

ट्रेन से नीचे कदम बिलकुल मत रखना
एक बार उतर गए ट्रेन से तो समझ लो
वापस इसपर चढ़ने की कोई तरकीब नहीं ...
तुम आस पास देखोगे तो मालूम होगा
सरकार बनवाती जा रही है रेल पर रेल
जिस से यह तुम्हें ले जा सके चप्पे चप्पे पर
पर असलियत यह है कि इस द्वीप पर बची नहीं
कोई जगह जहाँ जाया जा सके अब घूमने फिरने
क्यों कि जहाँ जहाँ तक जाती है निगाह
नजर आती है सिर्फ रेल ही रेल।

जिनके पास नहीं हैं पैसे रेल का टिकट खरीदने के
वे किसी तरह गुजारा कर रहे हैं रेल की पटरियों के बीच ..
जब कभी गुजर जाती है ट्रेन धड़धड़ाती हुई उनके ऊपर से
डिब्बे के अन्दर बैठे लोगों को शिकायत होती है
कि आज इतने झटके क्यों खा रही है ट्रेन। 

Saturday, June 1, 2013

कविता के वाद्ययंत्र पर झंकृत जीवन की लय



                                - महेशचंद्र पुनेठा



  सिद्धेश्वर सिंह युवा पीढ़ी के उन विरले कवियों में हैं जो बिना किसी शोर-शराबे के अपने कवि कर्म में लगे है। अपनी कविता को लेकर उनमें न  किसी तरह की आत्ममुग्धता है और न कहीं पहुंचने या कुछ  पा लेने की हड़बड़ाहट। उनका विश्वास चुपचाप अपना काम करने में है। फालतू कामों में लगकर स्वयं को नष्ट नहीं करना चाहते हैं। एक साधक के लिए यह बड़ा गुण कहा जा सकता है। विज्ञापन के इस युग में यह बड़ी बात है। कवि किसी तरह के बड़बोलेपन का शिकार भी नहीं है और न ही किसी बड़े आलोचक का बरदहस्त पाने के लिए उतावला।  उनके व्यक्तित्व की इन वि्शेषताओं की छवि हमें पिछले दिनों प्रका्शित उनके पहले कविता संग्रह "कर्मनाशा" की कविताओं में भी दिखाई देती है।उनकी कविताओं में किसी तरह का जार्गन न होकर धीरे-धीरे मन में उतरने का गुण है।ऊपर से देखने में सीधी-सपाट भी लग सकती हैं। वे अपनी बात को अपनी ही तरह से कहते हैं।पूरी शालीनता से। अच्छी दुनिया के निमार्ण की दिशा में अपनी प्राथमिकता को बताते हुए  "काम" कविता में वे कहते हैं-दुनिया बुराइयों और बेवकूफ़ियों से भरी पड़ी है/ऊपर से प्रदूषण की महामारी /अत:/धुल और धुंए से बचानी है अपनी नाक/ पांवों को कीचड़ और दलदल से बचाना है/आंखों को बचाना कुरूप दृश्यों से/और जिह्वा को बचाए रखना है स्वाद की सही परख के लिए।

  माना कि "अच्छी दुनिया के निर्माण" के लिए इतना पर्याप्त नहीं है पर आज के दौर में जब "हर ओर काठ और केवल काठ" ही दिखाई दे रहा हो खुद को काठ होने से बचा लेना भी किसी संघर्ष से कम नहीं है। यही से होती है दुनिया को बचाने की शुरुआत। सिद्धे्श्वर "ठाठें मारते इस जन समुद्र में/वनस्पतियों का सुनते हैं विलाप" यह सामान्य बात नहीं है। यह उनकी संवेदनशीलता कही जाएगी कि उन्हें पहाड़ खालिस प्रकृति के रूप में नहीं दिखाई देते हैं- पहाड़ केवल पहाड़ नहीं होते/न ही होते हैं/नदी नाले पेड़ बादल बारिश बर्फ/पहाड़ वैसी कविता भी नहीं होते /जैसी कि बताते आए हैं कविवर सुमित्रानंदन पंत। पहाड़ को कवि उसके जन के सुख-दु:ख और संघर्षों के साथ देखता है। उनकी  कविता "दिल्ली में खोई हुई लड़की" इसका प्रमाण है। यह अपने-आप में एक अलग तरह की कविता है जिसके कथ्य में एक मार्मिक कहानी बनने की पूरी संभावना है। यह कविता उस पहाड़ के दर्द को व्यक्त करती है-जहां से हर साल ,हर रोज धीरू जैसे पता नहीं कितने धीरू दिल्ली आते हैं और खो जाते हैं। जिनकी ईजाएं रात-रात भर जागकर डाड़ मारकर रोती हैं और आज एक "बैणी" अपने भाई को ढूंढने निकली है। जिसे वहां हर जगह-हर तीसरा आदमी धीरू जैसा ही लगता है। वह सोचती है-क्यों आते हैं लोग दिल्ली/क्यों नहीं जाती दिल्ली कभी पहाड़ की तरफ? कविता में बस कंडक्टर का यह कहते हुए उस लड़की को समझना कि-तेरे जैसों के लिए नहीं है दिल्ली/हम जैसों के लिए भी नहीं है दिल्ली/फिर भी यहां रहने के लिए अभिशप्त हैं हम। मानवीय विडंबना को व्यक्त करती है।साथ ही ये पंक्तियां कविता को एक राजनैतिक स्वर प्रदान करती है। यह कविता दिल्ली पर लिखी गई तमाम कविताओं से इस अर्थ में अलग है कि इसमें दिल्ली में एक और ऐसी दिल्ली है जहां के लोगों को "लोगों में गिनते हुए शर्म नहीं आती"। इस कविता में पहाड़ के संघर्ष और दिल्ली के हृदयहीन चरित्र को व्यक्त करने की पूरी को्शिश की गई है।                                   

  युवा कवि-चित्रकार सिद्धेश्वर सिंह की कविताओं में-बढ़ते बाजारभाव की कश्मकश में/अब भी/बखूबी पढ़े जा सकते हैं चेहरों के भाव। सुनी जा सकती है अपील-आओ चलें/थामे एक दूजे का हाथ/चलते रहें साथ-साथ। व्यक्तिवादी समय में साथ-साथ चलने की बात एक जन-प्रतिबद्ध कवि ही कह सकता है।  उन्हें "कुदाल थामे हाथों की तपिस" दिलासा देती है कि अब दूर नहीं है वसंत---खलिहानों-घरों तक पहुंचेगा उछाह का ज्वार। उनकी कविता में सामूहिकता और उम्मीद  का यह स्वर उस उजले चमकीले आटे की तरह लगता है जिससे उदित होती है फूलती हुई एक गोल-गोल रोटी जो कवि को पृथ्वी का वैकल्पिक पर्याय लगती है। पृथ्वी को रोटी के रूप में देखना पृथ्वी में रहने वाले अनेकानेक भूखों को याद करना है।  इतना ही नहीं अपने कविता संग्रह का शिर्षक एक ऐसी नदी के नाम को बनाता है तो अपवित्र  मानी जाती है। यह यूं ही अनायास नहीं है बल्कि सोच-समझकर किया गया है। इससे साफ-साफ पता चलता है कवि किसके पक्ष में खड़ा है। उसने गंगा-यमुना को नहीं "कर्मनाशा" को चुना। पुरनिया-पुरखों को कोसते हुए वह पूछता है-क्यों-कब-कैसे कह दिया/कि अपवित्र नदी है कर्मनाशा !/भला बताओ/फूली हुई सरसों/और नहाती हुई स्त्रियों के सानिध्य में/कोई भी नदी/आखिर कैसे हो सकती है अपवित्र ? इस तरह कवि  उपेक्षित-अवहेलित चीजों-व्यक्तियों को अपनी कविता के केंद्र में लाता है। वह दो दुनियाओं को एक-दूसरे के बरक्स खड़ा कर हमारे समाज में व्याप्त वर्ग विभाजन को और दोनों ओर व्याप्त "हाय-हाय-हाहाकार" दिखाता है। उनकी कविता "दो दुनियाओं के बीच" संबंध जोड़ती, संघर्ष करती , दीवारों को तोड़ती, जनता से परिचय कराती है। " बाल दिवस " कविता में इसे देखा जा सकता है- इस पृथ्वी के कोने-कोने में विद्यमान समूचा बचपन/एक वह जो जाता है स्कूल/एक वह भी जो हसरत से देखता है स्कूल को/एक वह जो कंप्यूटर पर पढ़ सकेगा यह सब/एक वह भी/जो कूड़े में तलाश रहा है काम की चीज---पर कवि को विश्वास है कि-बच्चे ही साफ़ करेंगे सारा कूड़ा-कबाड़। अंधेरे-उजाले का संघर्ष सदियों से चला आ रहा है और तब तक चलता रहेगा जब तक धरती के कोने-कोने से अंधेरा का नामोनिंशापूरी तरह मिट नहीं जाता है। कवि जीवन के हर अंधेरे कोने में "उजास" की चाह करता है-उजाला वहां भी हो/जहां अंधेरे में बनाई जा रही हैं/सजावटी झालरें/और तैयार हो रही हैं मोमबत्तियां/ उजाला वहां भी हो/जहां चाक पर चलती उंगलियां/मामूली मिट्टी से गढ़ रही हैं/अंधेरे के खिलाफ असलहों की भारी खेप। कवि अपील करता है-आओ!/जहां-जहां बदमाशियां कर रहा है अंधकार/वहां-वहां/रोप आएं रोशनी की एक पौध। इस तरह उनकी कविता अंधेरे से उजाले के बीच गति करती है। कवि जानता है -साधारण-सी खुरदरी हथेलियों में/कितना कुछ छिपा है इतिहास। कवि हथेलियों का उत्खनन करने वालों की चतुराई को भी जानता है कि-वे चाहते हैं कि खुली रहें सबकी हथेलिया/चाहे अपने सामने या फिर दूसरों के सामने/हथेलियां बंद होकर मुटि्ठयों की तरह तनना/उन्हें नागवार लगता है। पर कवि का विश्वास है-किसी दिन कोई सूरज/यहीं से बिल्कुल यही से/उगता हुआ दिखाई देगा। ---।यह रात है/नींद/स्वप्न/जागरण/और---/सुबह की उम्मीद। सिद्धेश्वर सिंह की कविताओं में मुक्तिबोध की तरह अंधेरे और रात का जिक्र बहुत होता है इसके पीछे कहीं न कहीं कवि की रोशनी और सवेरे की आस छुपी हुई  है। कवि यत्र-तत्र उगते बिलाते देखता है उम्मीदों के स्फुलिंग, उनमें से एक कविता भी है। वह "निरर्थकता के नर्तन पर नतशीश" कविता से कुछ उम्मीद पाले हुए है। भले ही कवि के शब्दों में-कविता की यह नन्हीं-सी नाव/हिचकोले खाए जा रही है लगातार-लगातार।

   प्रस्तुत संग्रह की बहुत सारी कविताएं पाठक को अपने साथ यायावरी में भी ले जाती हैं। नए-नए स्थानों के दर्शन कराती हैं।वहां के जनजीवन से  परिचित कराती हैं।साथ ही कुरेदती है वहां के "व्यतीत-अतीत" को और खंगालती है इतिहास को।"बिना टिकट-भाड़े-रिजर्वेशन के" कभी वे विंध्य के उस पार दक्षिण देश ले जाते हैं, कभी आजमगढ़ तो कभी शिमला ,कौसानी ,रामगढ़,रोहतांग,नैनीताल। कवि वहां की प्रकृति और जन के साथ एकाकार हो जाता हैं। उसको अपने-भीतर बाहर महसूस करने लगता है। खुद से नि:शब्द बतियाने लगता है। अडिग-अचल खड़ा नगाधिराज,तिरछी ढलानों पर सीधे तने खड़े देवदार, बुरांस , सदानीरा नदियां, फूली हुई सरसों के खेत के ठीक बीच से सकुचाकर निकलती कर्मनाशा की पतली धार ,तांबे की देह वाली नहाती स्त्रियां ,घाटी में किताबों की तरह खुलता बादल उनकी कविता में एक नए सौंदर्य की सृर्ष्टी करते हैं।साथ ही पिघलते हिमालय की करुण पुकार ,आरा मशीनों की ओर कूच कर रहे चीड़ों, नदियों में कम होते पानी,ग्लोबल वार्मिंग की मार से गड़बड़ाने लगा शताब्दियों से चला आ रहा फसल-चक्र की चिंता उनकी कविताओं में प्रकट होती है। यह प्रकृति और  पर्यावरण के प्रति उनकी अतिरिक्त चेतना और संवेदना को बताता है। एक पर्यावरण चेतना का कवि ही इस तरह देख सकता है-यत्र-तत्र प्राय: सर्वत्र/उभर रही हैं कलोनियां/जहां कभी लहराते थे फसलों के सोनिया समंदर/और फूटती थी अन्न की उजास/वहां इठला रही हैं अट्टालिकाएं/एक से एक भव्य और शानदार(रसना विलास)। उसे ही महसूस हो सकती है-डीजल और पेट्रोल के धुएं की गंध।सूर्य का ताप।  यही है "हमारी लालसाओं की भट्ठी की आंच" जिसके चलते नगाधिराज की देह भी पिघलने लगी है। उनका विनम्र "आग्रह" है कि-कबाड़ होती हुई इस दुनिया में/फूलों के खिलने की बची रहनी चाहिए जगह। कवि वसंत को खोजता है। उस समय को खोजता है जब आग,हवा,पानी ,आका्श ,प्यार यहां तक कि नफरत भी सचमुच नफरत थी। कुछ खोते जाने का अहसास इन कविताओं में व्याप्त है जो बचाने की अपील करता है।यह बचाना पर्यावरण से लेकर मानवीय मूल्यों को बचाना है।  

 समीक्ष्य संग्रह की अनेक कविताओं में व्यंग्य की पैनी धार भी देखी जा सकती है। पुस्तक समीक्षा आज एक ऐसा काम होता जा रहा है जिसे न पढ़ने वाला और न छापने वाला कोई भी गंभीरता से नहीं लेता है। उसका इंतजार रहता है तो केवल पुस्तक-लेखक को। यह बहुत चिंताजनक स्थिति है पर इसके लिए खुद समीक्षक जिम्मेदार है। जितनी चलताऊ तरीके और यार-दोस्ती निभाने के लिए समीक्षा लिखी जा रही है उसके चलते समीक्षा इस हाल में पहुंच गई है। सिद्धेश्वर सिंह की कविता "पुस्तक समीक्षा" इस पर सटीक और तीखा व्यंग्य करती है। व्यंग्य का यह स्वर "इंटरनेट पर कवि", "कस्बे में कवि गोष्ठी","लैपटाप","टोपियां","बालिका वर्ष"," जानवरों के बारे में" आदि कविताओं में भी सुना जा सकता है।

 कवि-अनुवादक सिद्धेश्वर सिंह रोजाना बरती जाने वाली भा्षा में अपनी बात कहने वाले कवि हैं। उनका इस बात पर विश्वास है-भा्षा के चरखे पर/इतना महीन न कातो/कि अदृश्य हो जाएं रे्शे/कपूर-सी उड़ जाए कपास। आज लिखी जा रही बहुत सारी कविता के साथ "अद्रश्य" हो जाने का संकट है।यह संकट उनकी भा्षा और कहन के अंदाज ने पैदा किया है।  इसकी कोई जरूरत नहीं है ---इस तद्भव समय में कहां से प्रकट करूं तत्सम शब्द-संसार/रे्शमी रे्शेदार शब्दों में कैसे लिखूं-/कुछ विशिष्ट कुछ खास। कविता के लिए "रेशमी-रे्शेदार शब्दों" की नहीं उन शब्दों की जरूरत है जो क्रियाशील जन के मुंह से निकले हैं।किसी भी समय और समाज  की सही अभिव्यक्ति उसके क्रिया्शील जन की भाषा-शैली में ही संभव है। यहां मैं प्रसंगवश "अलाव" पत्रिका के अंक-33 के संपादकीय में कवि-गीतकार रामकुमार कृ्षक की बात को उद्धरित करना चाहुंगा-"" कविता का कोई भी फार्म और उसकी अर्थ-गर्भिता अगर सबके लिए नहीं तो अधिसंख्यक पाठकों के लिए तो ग्राह्य होनी ही चाहिए। मैं उन विद्वानों से सहमत नहीं हो पाता हूं ,जो चाहते हैं कि कविता में अधिकाधिक अनकहा होना चाहिए या शब्दों से परे होती है, अथवा जिसे गद्य में कहा जा सके , उसे पद्य में क्यों कहा जाए।"" अच्छी बात है कि सिद्धे्श्वर की कविता अधिसंख्यक पाठकों के लिए ग्राह्य है। यह दूसरी बात है कि कुछ कविताओं में सिद्धे्श्बवर हुत दूर चले जाते हैं जहां से कविता में लौटना मुश्किल हो जाता है। शब्दों और पंक्तियों के बीच अवकाश बढ़ जाता है और कविता अबूझ हो जाती है। कुछ कविताओं में वर्णनाधिक्य भी हैं। पर ऐसा बहुत कम है।  

  सिद्धेश्वर उन कवियों में से है जो अपनी पूरी काव्य-परम्परा से सीखते भी हैं और तब से अब तक के अंतर को रेखांकित भी करते हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए सुमित्रानंदन पंत ,महादेवी वर्मा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,नागार्जुन, मुक्तिबोध, वेणुगोपाल, हरी्श चंद्र पांडेय, विरेन डंगवाल, जीतेन्द्र श्रीवास्तव आदि कवि अलग-अलग तरह से याद आते हैं। उनकी कविता अपने समय को देखती-परखती-पहचानती चलती है जो एक बेहतर दुनिया के सपने देखती है। वह अपने समय को हवा-पानी की तरह निरंतर बहता देखना चाहते हैं। इस संग्रह की एक खास बात यह है कि इनमें कविता के परम्परागत वि्षयों से बाहर निकलकर फेसबुक, इंटरनेट, मोबाइल, लैपटाप जैसे वि्षयों पर भी कविताएं लिखी गई हैं। भले ही कवि को इन कविताओं में और गहराई में जाने और संश्लिष्टता लाने की जरूर थी बावजूद इसके इन कविताओं के माध्यम से  कवि अपने समय की गति से अपनी चाल मिलाता चलता है।  उन्हें कवि कर्म "शब्दों की फसल सींचना" या "शब्दों को चीरना" "शब्दों का खेल कोई" जैसा कुछ लगता है। "सिर्फ जेब और जिह्वा भर नहीं है जिनका जीवन" वे जरूर सुन सकते हैं उनकी कविता के वाद्ययंत्र पर झंकृत जीवन की लय। आशा करते हैं उनकी कविताओं में जीवन की यह लय आने वाले समय में और व्यापक और गहरी होती जाएगी।

   

कर्मनाशा ( कविता संग्रह) सिद्धेश्वर सिंह  प्रका्शक - अंतिका प्रका्शन गाजियाबाद। मूल्य-225 रु0 

Saturday, May 18, 2013

नागरिक कर्म और रचना कर्म को साथ-साथ चरित्रार्थ करने की बेचैनी से भरा कवि



                                   
                                                                          - महेश चंद्र पुनेठा



  भले ही हिंदी कविता में जनपदीयता बोध की कविताओं की परंपरा बहुत पुरानी एवं समृद्ध है पर उच्च हिमालयी अंचल की रूप-रस-गंध ली हुई कविताएं अंगुलियों में गिनी जा सकती हैं। अजेय उन्हीं गिनी-चुनी कविताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी कविता के केंद्र में इस अंचल का क्रियाशील जनजीवन ,प्रकृति तथा विकास के नाम पर होने वाली छेड़छाड़ के चलते भौतिक और सामजिक पर्यावरण में आ रहे बदलाव हैं। कविता में उनकी कोशिश है कि अपने पहाड़ी जनपद की उस सैलानी छवि को तोड़ा जाय जो इस बर्फीले जनपद को वंडरलैंड बना कर पे्श करती है। वे बताना चाहते हैं कि यहां भी लोग शेष वि्श्व के पिछड़े इलाकों और अनचीन्हे जनपदों के निवासियों की भांति सुख-दु:ख को जीते हैं-पीड़ाओं को झेलते और उनसे टकराते हैं। जिनके अपने छोटे-छोटे सपने और अरमान हैं। कहना होगा कि इस कोशिश में कवि  सफल रहा है। हिंदी कविता में अजेय का नाम नया नहीं है। एक चिरपरिचित नाम है जो अपनी कविता की इस वि्शिष्ट गंध के लिए जाना जाता है। वे अरसे से कविता लिख रहे हैं और महत्वपूर्ण लिख रहे हैं। उन्होंने अपनी देखी हुई और महसूस की हुई दुनिया को बड़ी तीव्रता एवं गहराई से उतारा है  इसलिए उनके कहन और कथ्य दोनों में मौलिकता है। निजी आत्मसंघर्ष और सूक्ष्म निरीक्षण इस मौलिकता को नई चमक प्रदान करते हैं। सहज रचाव , संवेदन, ऊष्मा ,लोकधर्मी रंग , एंद्रिक-बिंब सृजन ,जीवन राग और सजग रचना दृष्टि इन कविताओं की विशिष्ट्ता है। अजेय बहुत मेहनत  से अपने नाखून छीलकर लिखने वाले कवि हैं जो भी लिखते हैं शुद्ध हृदय से ,कहीं कोई मैल नहीं। लोक मिथकों का भी बहुत सुंदर और सचेत प्रयोग इन कविताओं में मिलता है। अजेय उन लोगों में से हैं जो लोक के ऊर्जावान आख्यानों , सशक्त मिथकों और जीवंत जातीय स्मृतियों को महज अनुसंधान और तमा्शे की वस्तु नहीं बनाए रखना चाहते हैं बल्कि उन्हें जीना चाहते हैं। साथ ही किसी अंधविश्वास और रूढ़िवादिता का भी समर्थन नहीं करते हैं।

   उनकी कविताएं देश के उस आखिरी छोर की कविताएं हैं जहां आकाश कंधों तक उतर आता है। लहराने लगते हैं चारों ओर घुंघराले मिजाज मौसम के। जहां प्रकृति , घुटन और विद्रूप से दूर अनुपम दृश्यों के रूप में दुनिया की सबसे सुंदर कविता रचती है। जहां महसूस की जा सकती है सैकड़ों वनस्पतियों की महक व शीतल विरल वनैली छुअन। इन कविताओं में प्रकृति के विविध रूप-रंग वसंत और पतझड़ दोनों ही के साथ मौजूद हैं। प्रकृति के रूप-रस-गंध से भरी हुई इन कविताओं से रस टपकता हुआ सा प्रतीत होता है तथा इन्हें पढ़ते हुए मन हवाओं को चूमने,पेड़ों सा झूमने ,पक्षियों सा चहकने ,बादलों सा बरसने तथा बरफ सा छाने लगता है। इस तरह पाठक को प्रकृति के साथ एकमेक हो जाने को आमंत्रित करती हैं।  इन कविताओं में पहाड़ को अपनी मुटि्ठयों में खूब कसकर पकड़ रखने की चाहत छुपी है। पहाड़ ,नदी ,ग्लेशियर , झील ,वनस्पति , वन्य प्राणी अपने नामों और चेहरों के साथ इन कविताओं में उपस्थित हैं जो स्थानीय भावभूमि और यथार्थ को पूरी तरह से जीवंत कर देती हैं। अजेय उसके भीतर प्रवेश कर एक-एक रगरेशे को एक दृष्टा की तरह नहीं बल्कि भोक्ता की तरह दिखाते हैं। वे जनपदीय जीवन को निहारते नहीं उसमें शिरकत करते हैं। अपनी ज्ञानेन्द्रियों को बराबर खुला रखते हैं ताकि वह आसपास के जीवन की हल्की से हल्की आहट को प्रतिघ्वनित कर सकें।  यहां जन-जीवन बहुत निजता एवं सहजता से बोलता है।  ये कविताएं अपने जनपद के पूरे भूगोल और इतिहास को बताते हुए बातें करती हैं  मौसम की ,फूल के रंगों और कीटों की ,आदमी और पैंसे की , ऊन कातती औरतों की ,बंजारों के डेरों की ,भोजपत्रों की , चिलम लगाते बूढ़ों की , आलू की फसल के लिए ग्राहक ढूंढते का्श्तकारों की, विष-अमृत खेलते बच्चों की ,बदलते गांवों की। इन कविताओं में संतरई-नीली चांदनी ,सूखी हुई खुबानियां ,भुने हुए जौ के दाने ,काठ की चटपटी कंघी ,सीप की फुलियां ,भोजपत्र ,शीत की आतंक कथा आदि अपने परिवेश के साथ आती हैं।  

  यह बात भी इन कविताओं से मुखर होकर निकली है कि पहाड़ अपनी नैसर्गिक सौंदर्य में जितना रमणीय है वहां सब कुछ उतना ही रमणीक नहीं है। प्रकृति की विभिषिका यहां के जीवन को बहुत दुरुह बना देती है। यहां के निवासी को पग-पग पर प्रकृति से संघर्ष करना पड़ता है। उसे प्रकृति से डरना भी है और लड़ना भी। प्रकृति की विराटता के समक्ष आदमी बौना है और आदमी की जिजीवि्षा के समाने प्रकृति। उनकी कविता में प्रकृति की हलचल और भयावहता का एक बिंब देखिए- बड़ी हलचल है वहां दरअसल/बड़े-बड़े चट्टान/गहरे नाले और खड्ड/ खतरनाक पगडंडियां हैं/बरफ के टीले और ढूह/ भरभरा गर गिरते रहते हैं/गहरी खाइयों में/ बड़ी जोर की हवा चलती है/ हडि्डयां कांप जाती हैं।       

 कवि के  मन में अपनी मिट्टी के प्रति गहरा लगाव भी है और सम्मान भी जो इन पंक्तियों से समझा जा सकता है- मैंने भाई की धूल भरी देह पर/ एक जोर की जम्फी मारी /और खुश हुआ/मैंने खेत से मिट्टी का/एक ढेला उठाकर सूंघा/और खुश हुआ। मिट्टी के ढेले को सूंघकर वही खु्श हो सकता है जो अपनी जमीन से बेहद प्रेम करता हो। वही गर्व से यह कह सकता है- हमारे पहाड़ शरीफ हैं /सर उठाकर जीते हैं/सबको पानी पिलाते हैं। उसी को इस बात पर दु:ख हो सकता है कि गांव की निचली ढलान पर बचा रह गया है थोड़ा सा जंगल , सिमटती जा रही है उसकी गांव की नदी तथा जंगल की जगह और नदी के किनारे उग आया है बाजार ही बाजार , हरियाली के साथ छीन लिए गए हैं फूलों के रंग ,नदियों का पानी ,उसका नीलापन ,तिलतियां आदि। वह जानता है यह सब इसलिए छीना गया है ताकि-खिलता ,धड़कता ,चहकता ,चमकता रहे उनका शहर ,उनकी दुनिया। इसलिए  कवि को असुविधा या अभावों में रहना पसंद है पर अपनी प्रकृति के बिना नहीं। वे अपने जन और जनपद से प्रेम अवश्य करते हैं पर उसका जबरदस्ती का महिमामंडन नहीं करते हैं। ये कविताएं जनपदीय जीवन की मासूमियत व निष्कलुशता को ही नहीं बल्कि उसे बदशक्ल या बिगाड़ने वालों का पता भी देती हैं। जब वे कहते हैं कि- बड़ी-बड़ी गाड़ियां /लाद ले जाती शहर की मंडी तक/बेमौसमी सब्जियों के साथ/मेरे गांव के सपने । तब उनकी ओर स्पष्ट संकेत करती हैं । बड़ी पूंजी गांव के सपनों को किस तरह छीन रही है? कैसे गांव शहरी प्रवृत्तियों के शिकार हो रहे हैं तथा अपने संसाधनों के साथ कैसे अपनी पहचान खोते जा रहे हैं? ये कविताएं इन सवालों का जबाब भी देती हैं। गांवों से सद्भावना और सामूहिकता जैसे मूल्यों के खोते जाने को कवि कुछ इस तरह व्यंजित है- किस जनम के करम हैं कि/यहां फंस गए हैं हम/कैसे भाग निकलें पहाड़ों के उस पार?/ आए दिन फटती हैं खोपड़ियां जवान लड़कों की /कितने दिन हो गए गांव में मैंने /एक जगह /एक मुद्दे पर इकट्ठा नहीं देखा---शर्मशार हूं अपने सपनों पर/मेरे सपनों से बहुत आगे निकल गया है गांव/बहुत ज्यादा तरक्की हो गई है /मेरे गांव की गलियां पी हो गई हैं। यहां गांव की तरक्की पर अच्छा व्यंग्य किया गया है। आखिर तरक्की किस दिशा में हो रही है? यह कविता हमारा ध्यान उन कारणों की ओर खींचती है जो गांवों के इस नकारात्मक बदलाव के लिए जिम्मेदार हैं। यह कटु यथार्थ है कि 'तरक्की’ के नाम पर आज गांवों का न केवल भौतिक पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है बल्कि सामाजिक पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है। यह आज हर गांव की दास्तान बनती जा रही है।    

  स्त्री पहाड़ की जनजीवन की रीढ़ हैं। उसका जिक्र हुए बिना पहाड़ का जिक्र आधा है। उसकी व्यथा-कथा पहाड़ की व्यथा-कथा का पर्याय है। ऐसे में भला अजेय जैसे संवेदनशील एवं प्रतिबद्ध कवि से वे कैसे छूट सकती हैं। उनकी कविताओं में आदिवासी स्त्रियों के दु:ख-दर्द-संघर्ष पूरी मार्मिकता से व्यक्त हुए हैं। कवि को चुपचाप तमाम अनाप-शनाप संस्कार ढोती हुई औरत की एक अंतहीन दबी हुई रुलाई दिखाई देती है। साथ ही वह औरत जो अपनी पीड़ाओं और संघर्षों के साथ अकेली है पर 'प्रार्थना करती हुई/उन सभी की बेहतरी के लिए /जो क्रूर हुए हर-बार /खुद उसी के लिए "। इस सब के बावजूद कवि औरत को पूरा जानने का कोई दावा नहीं करता है- ठीक-ठीक नहीं बता सकता है/कि कितना सही-सही जानता हूं /मैं उस औरत को /जबकि उसे मां पुकारने के समय से ही/उसके साथ हूं---नहीं बता सकता/कि कहां था /उस औरत का अपना आकाश।  यह न केवल कवि की ईमानदारी है बल्कि इस बात को भी व्यंजित करती कि पहाड़ी औरत के कष्ट-दु:ख-दर्द इतने अधिक हैं कि उसके साथ रहने वाला व्यक्ति भी अच्छी तरह उन्हें नहीं जान पाता है। उन्होंने आदिवासी औरत की ब्यूंस की टहनियों  से सटीक तुलना की है- हम ब्यूंस की टहनियां हैं /जितना चाहो दबाओ/झुकती ही जाएंगी /जैसा चाहो लचकाओ /लहराती रहेंगी / जब तक हममें लोच है /और जब सूख जाएंगी/ कड़ककर टूट जाएंगी। यही तो है पहाड़ी स्त्री का यथार्थ। एक असहायता की स्थिति। वह अपने साथ सब कुछ होने देती है उन मौकों पर भी जबकि वह लड़ सकती है। उसके जाने के बाद ही उसके होने का अहसास होता है।  वे औरत के गुमसुम-चुपचाप बैठे रहने के पक्षधर नहीं हैं उनका प्रतिरोध पर विश्वास है ,तभी वे कहते हैं- वहां जो औरत बैठी है/उसे बहुत देर तक/ बैठे नहीं रहना चाहिए/ यों सज-धज कर/गुमसुम-चुपचाप।

   अजेय अपने को केवल अपने जनपद तक ही सीमित नहीं करते हैं। उनकी कविताओं में खाड़ी युद्ध में बागी तेवरों के साथ अमरीकी सैनिक , अंटार्कटिका में शोधरत वैज्ञानिक ,निर्वासन में जीवन बिता रहे तिब्बती ,उनके धर्मगुरू आदि भी आते हैं। इस तरह उनकी कविता पूरी दुनिया से अपना रिश्ता कायम करते हैं। उनकी कविता का संसार स्थानीयता से वैश्विकता के बीच फैला है। अनुभव की व्यापकता के चलते विषयों की विविधता एकरसता नहीं आने देती है।  कहीं-कहीं कवि का अंतर्द्वद्व भी मुखर हो उठता है। कहीं-कहीं अनिर्णय और शंका की स्थिति में भी रहता है कवि । यह अनिर्णय और शंका व्यवस्था जनित है। उनके यहां ईश्वर भी आता है तो किसी चत्मकारिक या अलौकिक शक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक दोस्त के रूप में जो उनके साथ बैठकर गप्पे मारता है और बीड़ी पीता है। यह ईश्वर का लोकरूप है जिससे कवि किसी दु:ख-तकलीफ हरने या मनौती पूरी करने की प्रार्थना नहीं करता है। यहां यह कहना ही होगा कि भले ही अजेय जीवन के विविध पक्षों को अपनी कविता की अंतर्वस्तु बनाते हैं पर सबसे अधिक प्रभावित तभी करते हैं जब अपने जनपद का जिक्र करते हैं। उनकी कविताओं में जनपदीय बोध का रंग सबसे गहरा है।

  युवा कवि अजेय की कविता की एक खासियत है कि वे इस धरती को किसी चश्में से नहीं बल्कि अपनी खुली आंखों से देखते हैं उनका मानना है कि चश्में छोटी चीजों को बड़ा ,दूर की चीजों को पास ,सफ्फाक चीजों को धुंधला ,धुंधली चीजों को साफ दिखाता है। वे लिखते हैं -लोग देखता हूं यहां के/सच देखता हूं उनका /और पकता चला जाता हूं /उनके घावों और खरोंचों के साथ। कवि उनकी हंसी देखता है ,रूलाई देखता है ,सच देखता है ,छूटा सपना देखता है। इस सबको किसी चश्में से न देखना कवि के आत्मविश्वास को परिलक्षित करता है। एक बात और है कवि चाहे अपनी आंखों से ही देखता है पर उसको भी वह अंतिम नहीं मानता है। विकल्प खुले रखता है। अपनी सीमाओं को तोड़ने-छोड़ने के लिए तैयार रहता है। हमेशा यह जानने की कोशिश करता है कि- क्या यही एक सही तरीका है देखने का। अपने को जांचने-परखने तथा आसपास को जानने-पहचानने की यह प्रक्रिया कवि को जड़ता का शिकार नहीं होने देती। यह किसी भी कवि के विकास के लिए जरूरी है। इससे पता चलता है कि अजेय किसी विचारधारा विशेष के प्रति नहीं मनुष्यता के प्रति प्रतिश्रुत हैं। उनकी कविताएं इस बात का प्रमाण हैं कि अगर कोई रचनाकार अपने समय और जीवन से गहरे स्तर पर जुड़ा हो तो उसकी रचनाशीलता में स्वाभाविक रूप से प्रगतिशीलता आ जाती है। 

   उनके लिए कविता मात्र स्वांत:सुखाय या वाहवाही लूटने का माध्यम नहीं है। वे जिंदगी के बारे में कविता लिखते हैं और कविता लिखकर जिंदगी के झंझटों से भागना नहीं बल्कि उनसे मुटभेड़ करना चाहते हैं। कविता को जिंदगी को सरल बनाने के औजार के रूप में प्रयुक्त करते हैं। उनकी अपेक्षा है कि- वक्त आया है/कि हम खूब कविताएं लिखें/जिंदगी के बारे में/इतनी कि कविताओं के हाथ थामकर/जिंदगी की झंझटों में कूद सकें/जीना आसान बने/और कविताओं के लिए भी बचे रहे/थोड़ी सी जगह /उस आसान जीवन में। अर्थात कविता जीवन के लिए हो और जीवन में कविता हो। उनकी कविता ऐसा करती भी है जीवन की कठिनाइयों से लड़ने का साहस प्रदान करती है। वे जब कहते हैं कि-यह इस देश का आखिरी छोर है/'शीत" तो है यहां/पर उससे लड़ना भी है/यहां सब उससे लड़ते हैं /आप भी लड़ो। यहां पर 'शीत" मौसम का एक रूप मात्र नहीं रह जाता है। यह शीत व्यक्ति के भीतर बैठी हुई उदासीनता और निराशा का प्रतीक भी बन जाता है , सुंदर समाज के निर्माण के के लिए जिससे लड़ना अपरिहार्य है। कविता का ताप इस शीत से लड़ने की ताकत देता है। कविता अपनी इसी जिम्मेदारी का निर्वहन अच्छी तरह कर सके उसके लिए कवि चाहता है कि कविता में -एक दिन वह बात कह डालूंगा /जो आज तक किसी ने नहीं कही/जो कोई नहीं कहना चाहता। यह अच्छी बात है कि कवि को अपनी अभिव्यक्ति में हमेशा एक अधूरापन महसूस होता है। अब तक न पायी गई अभिव्यक्ति को लेकर ऐसी बेचैनी के दर्शन हमें मुक्तिबोध के यहां होते हैं।यह नागरिक कर्म और रचना कर्म को साथ-साथ चरितार्थ करने की बेचैनी लगती है। वे मुक्तिबोध की तरह परम् अभिव्यक्ति की तलाश में रहते हैं। यह अजेय की बहुत बड़ी ताकत है जो उन्हें हमेशा कुछ बेहतर से बेहतर लिखने के लिए प्रेरित करती रहती है। उनके भीतर एक बेचैनी और आग हमेशा बनी रहती है। एक कवि के लिए जिसका बना रहना बहुत जरूरी है। जिस दिन कवि को चैन आ जाएगा। समझा जाना चाहिए कि उसके कवि रूप की मृत्यु सुनिश्चित है क्योंकि एक सच्चे कवि को चैन उसी दिन मिल सकता है जिस दिन समाज पूरी तरह मानवीय मूल्यों से लैस हो जाएगा ,वहां किसी तरह का शोषण-उत्पीड़न और असमानता नहीं रहेगी। जब तक समाज में अधूरापन बना रहेगा कवि के भीतर भी बेचैनी और अधूरापन कायम रहेगा। यह स्वाभाविक है। कवि अजेय अपनी बात कहने के लिए निरंतर एक भाषा की तलाश में हैं और उन्हें विश्वास है कि वह उस भाषा को प्राप्त कर लेंगे क्योंकि आखिरी बात तो अभी कही जानी है । कितनी सुंदर सोच है- आखिरी बात कह डालने के लिए ही /जिए जा रहा हूं /जीता रहुंगा। आखिरी बात कहे जाने तक बनी रहने वाली यही प्यास है जो किसी कवि को बड़ा बनाती है तथा दूसरे से अलग करती है। मुक्तिबोध के भीतर यह प्यास हमेशा देखी गई। उक्त पंक्तियों में व्यक्त संकल्प अजेय की लंबी कविता यात्रा का आश्वासन देती है साथ ही आश्वस्त करती है कि कवि अपने खाघ्चों को तोड़ता हुआ निरंतर आगे बढ़ता जाएगा जो साहित्य और समाज दोनों को समृद्ध करेगा।

  अजेय उन कवियों में से हैं जिन्हें सुविधाएं बहला या फुसला नहीं सकती हैं। चारों ओर चाहे प्रलोभनों की कनात तनी हों पर वे दृढ़ता से संवेदना के पक्ष में खड़े हैं। यह सुखद है कि कवि तपती पृथ्वी को प्रेम करना चाहता है -कि कितना अच्छा लगता है/ नई चीख/नई आग/ और नई धार लिए काम पर लौटना। ठंड से कवि को जैसे नफरत है । वह ठंडी नहीं तपती पृथ्वी को प्रेम करना चाहता है। तपते चेहरे की तरह देखना चाहता है पृथ्वी को। आदमी की भीतर की आग को बुझने नहीं देना चाहता है शायद इसीलिए इन कविताओं में 'आग’ शब्द  बार-बार आता है। यही आग है जो उसे जीवों में श्रेष्ठतम बनाती है। कवि प्रश्न करता है-खो देना चाहते हो क्या वह आग? यह आग ही तो आदमियत को जिंदा रखे हुए है। आदमियत की कमी से कवि खुश नहीं है। कवि मानता है कि ठंडे अंधेरे से लड़ने के लिए मुट्ठी भर आग चाहिए सभी को। उनके लिए महज एक ओढ़ा हुआ विचार नहीं सचमुच का अनुभव है आग। इन कविताओं में अंधेरे कुहासों से गरमाहट का लाल-लाल गोला खींच लाने की तासीर है जिसका कारण कवि का यह जज्बा है -कि लिख सको एक दहकती हुई चीख/ कि चटकाने लगे सन्नाटों के बर्फ/ टूट जाए कड़ाके की नींद।  

   जहां तक भाषा-शिल्प का प्रश्न है , कहना होगा कि उनकी काव्यभाषा में बोधगम्यता और रूप में विविधता है। वे परिचित और आत्मीय भाषा में जीवन दृश्य प्रस्तुत करते हैं। उनकी भाषा में जहां एक ओर लोकबोली के शब्द आए हैं तो दूसरी ओर आम बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले अंग्रेजी शब्दों का भी धड़ल्ले से प्रयोग हुआ है। इन शब्दों का अवसरानुकूल और पात्रानुकूल प्रयोग किया गया है।  इसके उदाहरण के रूप में एक ओर बातचीज तो दूसरी ओर ट्राइवल में स्की फेस्टीवल कविता को देखा जा सकता है। कवि जरूरत पड़ने पर अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से भी परहेज नहीं करता है। स्वाभाविक रूप से उनका प्रयोग करता है। रूप की दृ्ष्टि से भी इनकी कविताओं में विविधता और नए प्रयोग दिखाई देते हैं। आर्कटिक वेधशाला में कार्यरत वैज्ञानिक मित्रों के कुछ नोट्स और 'शिमला का तापमान" इस दृष्टि से उल्लेखनीय कविताएं हैं। ये बिल्कुल नए प्रयोग हैं। इस तरह के प्रयोग अन्यत्र कहीं नहीं दिखते।कनकनी बात, कुंआरी झील, तारों की रेजगारी, जैसे सुंदर प्रयोग उनकी कविताओं के सौंदर्य को बढ़ाते हैं। उनके अधिकांश बिंब लोकजीवन से ही उठाए हुए हैं जो एकदम अनछुए और जीवंत हैं। इन कविताओं का नया सौंदर्यबोध ,सूक्ष्म संवेदना और सधा शिल्प अपनी ओर आकर्षित करता है।

    अजेय की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे कवि भवानी प्रसाद मिश्र की ये पंक्तियां बार-बार याद आती रही कि यदि कवि व्यक्तित्व स्वच्छ है ,उसने जाग कर जीवन जिया है और उसके माध्यम के प्रति मेहनत उठाई है तो वह सौंदर्य से भरे इस जगत में नए सौंदर्य भी भरता है। ये पंक्तियां अजेय और उनकी कविताओं पर सटीक बैठती हैं। उनकी कविताओं में भरपूर सौंदर्य भी है और सीधे दिल में उतरकर वहांघ् जमी बर्फ को पिघलाने की सामर्थ्य भी। आ्शा है उनकी धुर वीरान प्रदेशों में लिखी जा रही यह कविता कभी खत्म नहीं होगी तथा कविता लिखने की जिद बनी रहेगी। हिंदी के पाठक  इसका पूरा आस्वाद लेंगे।