विजय गौड़
शर्मिला इरोम किसी भी फैशनेबुल लेखन का विषय नहीं हो सकती। कम से कम हिन्दी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य का जहां इतनी जलालत भरे समय में धकेली जा रही दुनिया के बावजूद फिर भी कुछ मूल्य ऐसे हैं जिन्हें प्रगतिशीलता की कसौटी पर खरा उतरना ही लेखन का एक उद्देश्य तो तब भी है। साहित्य इसीलिए फिर भी एक उम्मीद की जगह है। फिर वर्षों से नाक में लगी नली वाली किसी स्त्री- छवी में संघ्ार्षरत इस योद्धा का वर्णन करना यूं कोई बहुत लोकप्रिय होना जैया भी तो नहीं। अशोक कुमार पाण्डे के हाल ही में प्रकशित कविता संग्रह ''प्रलय में लय जितना" इसीलिए महत्वपूर्ण है कि शर्मिला इरोम वहां अपनी मुमल उपस्थिति के साथ दर्ज होती है और उसकी छवी के साथ ही हम उस राष्ट्रीय चेतना को परखने के साथ होते हैं जो निर्मम होकर एक स्त्री का स्नै:-स्नै: मरना तस किसे दिखायी देती है।
किसी भी ऐसे रचनाकार का मूल्यांकन, जो बहुधा अपने रचनाकर्म के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक गतिविधियों का हिस्सा भी हो रहा होता है, निश्चित ही कठिन काम हो जाता है। ऐसे व्यक्तित्व की आलोचना में उसका एक न एक पक्ष हमेशा छूट जाता है। रचना का विवेचन करते हुए उसके व्यक्तित्व गौण हो सकता है तो व्यक्तित्व की आलोचना करते हुए रचनात्मक प्रतिबद्धता अलक्षित रह सकती है। जबकि रचना और व्यक्तित्व को एक साथ रखे बगैर मूल्यांकन की कोई कसौटी मुझे उचित नहीं लगती। ग्वालियर से दिल्ली तक की यात्रा के दौरान भी अपनी हर गतिविधि के साथ दिखायी देते रहे इस कवि सारी छवियां उसकी कविताओं में जगह पा रही हैं, यह न सिर्फ व्यक्ति की रचनात्मकता के लिए बल्कि समकालीन पीढ़ी की उम्मीदों को लिए एक सहारा बन रही है। अशोक के जीवनानुभवों की छाया से उसकी रचनाएं बची न रही होंगी, ऐसा मानते हुए यदि हाल में प्रकाशित उसकी उपरोक्त संदर्भित पुस्तक की रचनाओं से गुजरें तो उनमें दिखायी देते बिम्ब और प्रतीकों का खुलासा जिस समझदारी की ओर इशारा करता है, उसमें हर गलत के प्रति एक तीखापन, उससे टकराने की ललक एवं दुनिया को अंधेरे ऐ उजाले में ले जाने के बेचैनी भरे रास्ते की शिनाख्त करता रचनाकार नजर आता है। ये ऐसे रास्ते हैं जिन पर बहुत दूर तक साथ चलते रहने की स्थितियों के बावजूद यदि वह छूटता हुआ लगता है तो भी उसमें अपने उद्देश्य से विमुख होना नहीं बल्कि समझदारियों में असहमतियों का उपजना ही है। बहुत कुछ कहने की बजाय अशोक की कुछ काव्य पंक्तियों के साथ उसे प्यार:
अब ऐसा भी नहीं
कि बस स्वप्न ही देखते रहे हम
रात के किसी अनन्त विस्तार सा नहीं हमारा अतीत
उजालों के कई सुनहरे पड़ाव इस लम्बी यात्रा में
वर्जित प्रदेशों में बिखरे पदचिन्ह तमाम
हार और जीत के बीच अनगिनत शामें धूसर
निराशा के अखंड रेगिस्तानों में कविताओं के नखलिस्तान तमाम
तमाम सबक और हजार किस्से संघ्ार्ष के
विजय गौड़
शर्मिला इरोम किसी भी फैशनेबुल लेखन का विषय नहीं हो सकती। कम से कम हिन्दी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य का जहां इतनी जलालत भरे समय में धकेली जा रही दुनिया के बावजूद फिर भी कुछ मूल्य ऐसे हैं जिन्हें प्रगतिशीलता की कसौटी पर खरा उतरना ही लेखन का एक उद्देश्य तो तब भी है। साहित्य इसीलिए फिर भी एक उम्मीद की जगह है। फिर वर्षों से नाक में लगी नली वाली किसी स्त्री- छवी में संघ्ार्षरत इस योद्धा का वर्णन करना यूं कोई बहुत लोकप्रिय होना जैया भी तो नहीं। अशोक कुमार पाण्डे के हाल ही में प्रकशित कविता संग्रह ''प्रलय में लय जितना" इसीलिए महत्वपूर्ण है कि शर्मिला इरोम वहां अपनी मुमल उपस्थिति के साथ दर्ज होती है और उसकी छवी के साथ ही हम उस राष्ट्रीय चेतना को परखने के साथ होते हैं जो निर्मम होकर एक स्त्री का स्नै:-स्नै: मरना तस किसे दिखायी देती है।
किसी भी ऐसे रचनाकार का मूल्यांकन, जो बहुधा अपने रचनाकर्म के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक गतिविधियों का हिस्सा भी हो रहा होता है, निश्चित ही कठिन काम हो जाता है। ऐसे व्यक्तित्व की आलोचना में उसका एक न एक पक्ष हमेशा छूट जाता है। रचना का विवेचन करते हुए उसके व्यक्तित्व गौण हो सकता है तो व्यक्तित्व की आलोचना करते हुए रचनात्मक प्रतिबद्धता अलक्षित रह सकती है। जबकि रचना और व्यक्तित्व को एक साथ रखे बगैर मूल्यांकन की कोई कसौटी मुझे उचित नहीं लगती। ग्वालियर से दिल्ली तक की यात्रा के दौरान भी अपनी हर गतिविधि के साथ दिखायी देते रहे इस कवि सारी छवियां उसकी कविताओं में जगह पा रही हैं, यह न सिर्फ व्यक्ति की रचनात्मकता के लिए बल्कि समकालीन पीढ़ी की उम्मीदों को लिए एक सहारा बन रही है। अशोक के जीवनानुभवों की छाया से उसकी रचनाएं बची न रही होंगी, ऐसा मानते हुए यदि हाल में प्रकाशित उसकी उपरोक्त संदर्भित पुस्तक की रचनाओं से गुजरें तो उनमें दिखायी देते बिम्ब और प्रतीकों का खुलासा जिस समझदारी की ओर इशारा करता है, उसमें हर गलत के प्रति एक तीखापन, उससे टकराने की ललक एवं दुनिया को अंधेरे ऐ उजाले में ले जाने के बेचैनी भरे रास्ते की शिनाख्त करता रचनाकार नजर आता है। ये ऐसे रास्ते हैं जिन पर बहुत दूर तक साथ चलते रहने की स्थितियों के बावजूद यदि वह छूटता हुआ लगता है तो भी उसमें अपने उद्देश्य से विमुख होना नहीं बल्कि समझदारियों में असहमतियों का उपजना ही है। बहुत कुछ कहने की बजाय अशोक की कुछ काव्य पंक्तियों के साथ उसे प्यार:
अब ऐसा भी नहीं
कि बस स्वप्न ही देखते रहे हम
रात के किसी अनन्त विस्तार सा नहीं हमारा अतीत
उजालों के कई सुनहरे पड़ाव इस लम्बी यात्रा में
वर्जित प्रदेशों में बिखरे पदचिन्ह तमाम
हार और जीत के बीच अनगिनत शामें धूसर
निराशा के अखंड रेगिस्तानों में कविताओं के नखलिस्तान तमाम
तमाम सबक और हजार किस्से संघ्ार्ष के