Tuesday, December 8, 2015

नवजागरण…भारतीय अबलाओं का नवीनीकरण

नाज़िया फातमा

      19वी शताब्दी में भारतीय जन समाज में आई वैचारिक क्रांति का मूल अर्थ उस ‘नई चेतना’ से रहा जो समाज में हर स्तर पर धीरे-धीरे अपना प्रसार कर रही थी l सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक हर पहलू इससे प्रभावित हो रहा था l पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान से प्रभावित एक नया बुद्धिजीवी वर्ग तैयार हो रहा था l इस नये बुद्धिजीवी वर्ग की आकांक्षाएं पहले से काफी भिन्न थीं, जो कि हर तरफ कुछ बदलाव चाह रहा था l इस नए वर्ग को स्त्रियों की स्थिति में भी कुछ बदलाव की ज़रूरत महसूस हुई l इस नए वर्ग की आकांक्षाओं के अनुरूप स्त्रियों को ढालने के लिए, उनकी स्थिति में परिवर्तन करना आवश्यक था l परिवर्तन की इस लहर में ‘स्त्री’ और उसका जीवन बहस का केन्‍द्रीय मुद्दा होकर सामने आया। डॉ. राधा कुमार के शब्दों में “उन्नीसवीं शताब्दी को स्त्रियों की शताब्दी कहना बेहतर होगा क्योंकि इस सदी में सारी दुनियां में उनकी अच्छाई-बुराई, प्रकृति, क्षमताएं एवं उर्वरा गर्मागर्म बहस का विषय थेl”[1] 
समाज में स्त्री शिक्षा का मुद्दा हमेशा से ही विवादस्पद रहा हो ऐसा नहीं है अगर हम थोडा इतिहास में जाये तो पता चलता है कि प्राचीन समय में स्त्रियाँ शास्त्रसम्मत थीं l  प्राय: वह शास्त्रों का अध्ययन करती थीं  ये वो समय था जब इस्लाम का आगमन भारतवर्ष की भूमी पर नहीं हुआ था l मध्यकाल में इस्लाम का प्रवेश हुआ तब तक स्त्री शिक्षा की संख्या में थोड़ी गिरावट आई प्राय: उनका विवाह छोटी उम्र में ही कर दिया जाता था इसका कारण चाहे जो हो लेकिन स्त्री शिक्षा गायब नहीं हुई थी l लेकिन 19वीं शताब्दी तक आते- आते स्त्री शिक्षा का मुद्दा बड़े पैमाने पर विवादित रहा l स्त्रियों की शिक्षा पूरे परिवार और समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर सकती है, इस तथ्य से सम्पूर्ण पुरुष समाज परिचित था इसलिए उसे शिक्षित करने का साहसपूर्ण कदम उठाया गया l लेकिन यहाँ स्त्री शिक्षा का अर्थ था ‘भारतीय अबलाओं का नवीनीकरण’ l इस नवीनीकरण का केवल एक ही उद्देश्य था और वह था  कि समाज में उदित हुए इस नये बुद्धिजीवी वर्ग के अनुरूप स्त्रियों को ढालना l यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है की इन स्त्रियों को शिक्षित करने का उद्देश्य इन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना या आत्मनिर्भर बनाना नहीं था l इन स्त्रियों का एक मात्र उद्देश्य केवल अपने पति की अनुगामिनी बनाना था l इस षड्यंत्र का साफ़-साफ़ उल्लेख हमे नवजागरण का अग्रदूत कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र के इस कथन में मिलता है “ऐसी चाल से उनको(स्त्री) शिक्षा दीजिये कि वह अपना देश और धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें l”[2]
भारतेन्दु के इस वक्तव्य से ही हमें तत्कालीन स्त्री शिक्षा की दशा समझ में आनी चाहिए l  तत्‍कालीन समाज में स्त्री शिक्षा की स्‍वीकार्यता नहीं थी। स्त्री शिक्षा का सवाल एक जटिल विषय की तरह था, जो धार्मिक  मान्‍यताओं से निर्धारित किया जाता था। धर्म के अनुपालन के लिए प्रतिबद्ध पुरुष वर्ग स्त्री की पवित्रता को लेकर भी उतना ही चिंतित था l प्राय: ये धारणा सर्वव्‍यापी थी कि स्त्री को पढ़ाने से वह पथ भ्रष्ट हो जाएगी या उसे विवाह उपरांत वैधव्य का सामना करना पड़ेगा(चोखेरबाली) l ऐसे में तथाकथित समाज सुधारों का रास्ता उसे शिक्षित करने को तो सहमत था लेकिन उस चाल से नहीं जैसे लड़कों को किया जा रहा था। पूरे नवजागरण में स्त्री को लेकर कमोबेश यही दृष्टि तत्‍कालीन समाज सुधारकों में दिखाई देती है l इस समय समाज में जो स्त्री शिक्षा दी जा रही थी वो उसे  केवल एक निपुण गृहिणी बनाने तक ही सीमित थी। प्राय: उनको रसोई में खाना बनाने और खर्च में मितव्‍यतता बरतने की शिक्षा दी जाती थी l

 भारतेंदु हरिश्चंद्र के उपरोक्त वक्तव्य पर टिप्पणी करते हुए डॉ. वीर भारत तलवार लिखते हैं कि “भारतेंदु ने लड़कियों की शिक्षा के लिए आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की जगह चरित्रनिर्माण, धार्मिक और घरेलू प्रबंध के बारे में बतानेवाली किताबें पाठ्यक्रम में लगाने के लिए कहा...भारतेंदु के समकालीन और सर सैय्यद के साथी डिप्टी नज़ीर अहमद ने 1869 में स्त्री शिक्षा के लिए मिरातुल उरुस(स्त्री दर्पण) किताब लिखी जिसमें दो बहनों की कहानी के ज़रिये भद्र्वर्गीय स्त्रियों को माँ, बहन, बेटी और पत्नी के रूप में अपने परम्परागत कर्त्तव्यों को और भी कुशलता के साथ पूरी करने की शिक्षा दी गयी है l इसी तरह 19वीं सदी के मुस्लिम नवजागरण की सबसे महत्वपूर्ण संस्था देवबंद दारुल उलूम से संबंधित मौलाना अशरफ़ अली थानवी ने बहिश्ती ज़ेवर किताब लिखी जो एक ऐसा वृहद कोश था जिसमें  भद्र्वर्गीय मुस्लिम स्त्री को धर्म, पारिवारिक, कानूनों घरेलू संबंध, इस्लामी दवा-दारु वगैरह की शिक्षा दी गई थी l उर्दू में लिखी गई ये दोनों किताबें भद्र्वर्गीय मुस्लिम परिवारों में हर लड़की को उसके ब्याह के समय उपहार के रूप में दी जाती थी l”
  
समाज में व्याप्त कुरीतियों को जड़ से मिटाने के लिए जो उपाय किये जा रहे थे उनमें स्त्री की दशा सुधारना एक महत्वपूर्ण काम था। साथ ही यह भी उल्‍लेखनीय है कि पितृसत्तात्मक अनुकूलन के कारण समाज सुधारकों – चाहें वह हिन्दू हों या मुसलमान उनकी दृष्टि एकांगी ही थी। वे यह तो जानते थे कि उन्हें कैसी स्त्री चाहिए लेकिन स्त्री को क्या चाहिए, इस पर उनका ध्यान नहीं था l इस बात पर आम सहमती थी कि स्त्रियों को शिक्षा देनी चाहिए लेकिन उस शिक्षा का स्वरुप कैसा हों, स्त्रियों को कैसी, कितनी शिक्षा दी जाए इस पर न वह एकमत थे और न ही इसकी कोई स्पष्ट योजना ही उनके पास थी l स्त्रियाँ पढ़ना तो सीखें लेकिन वह आत्मनिर्भर  न बने l इसीलिए इस दौर में स्त्री को शिक्षित करने का ये रास्ता निकाला गया जिसमें उनको उनके घरेलू दायरे में भी रखा जा सके और वे थोड़ा घर-गृहस्थी का ज्ञान भी प्राप्‍त कर सकें। शिक्षा की ये दोहरी नीति थी।
इसी उद्देश्य की पूर्ती हेतु इस समय पाठ्यपुस्तकों की आवश्यकता महसूस हुई जिसके फलस्वरूप  पहले उर्दू और फिर हिंदी में बड़े पैमाने पर पाठ्यपुस्तकें तैयार करवाई गयीं l जिसमें लड़कियों के पाठ्यक्रम के लिए अलग और लड़कों के लिए अलग थीं l सर्वप्रथम मुसलमान लड़कियों की शिक्षा के लिए उर्दू का पहला उपन्यास ‘मिरातुल-उरुस’ की रचना डिप्टी नज़ीर अहमद ने सन् 1869 में की यह अपने समय की प्रसिद्ध पुस्तक है l इसका महत्व इस बात से साबित होता है कि तत्कालीन समय में इसे अंग्रेज़ डायरेक्टर तालीमात ने एक हज़ार रूपए के पारिश्रमिक से नवाज़ा था l और इसी उपन्यास से प्रेरणा लेकर ही “मुंशी ईश्वरी प्रसाद और मुंशी कल्याण राय ने 224 पृष्ठों का 'वामा शिक्षक' (1872 ई.) उपन्यास लिखा। भूमिका में ईश्वरी प्रसाद और कल्याण राय ने लिखा कि 'इन दिनों मुसलमानों की लड़कियों को पढ़ने के लिए तो एक दो पुस्तकें जैसे मिरातुल ऊरूस आदि बन गई  हैं, परंतु हिंदुओं व आर्यों की लड़कियों के लिए अब तक कोई ऐसी पुस्तक देखने में नहीं आई जिससे उनको जैसा चाहिए वैसा लाभ पहुँचे और पश्चिम देशाधिकारी श्रीमन्महाराजाधिराज लेफ्टिनेंट गवर्नर बहादुर की यह इच्छा है कि कोई पुस्तक ऐसी बनाए जिससे हिंदुओं व आर्यों की लड़कियों को भी लाभ पहुँचे और उनकी शासना भी  भली-भाँति हो l” आगे मिरातुल-उरुस की प्रेरणा लेकर ही “हिंदी में उस वक़्त हिंदी के कुछ लेखकों ने भी इसी ढंग की कुछ किताबें बनाई, जैसे देवरानी-जेठानी की कहानी और भाग्यवती l”[3]  
            उन्नीसवीं समय का भारतीय समाज स्त्री के प्रति विभेदपूर्ण नीति से ग्रसित था l पुरुषों को जहाँ पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान, दर्शन,गणित,अंग्रेज़ी आदि की शिक्षा पाने का पूरा अधिकार था l वहीं स्त्रियों को मात्र घर-गृहस्थी और आदर्श बेटी, पत्नी, बहू और माँ बनने की शिक्षा तक ही सीमित रखा जाता था l इस बात की पुष्टि लेखक द्वारा इस कथन से होती है “और किसी काम के लिए औरतों को इल्म की ज़रूरत शायद ना भी हो मगर औलाद की तरबियत(पालन-पोषण) तो जैसे चाहिए बेइल्म के होनी मुमकिन नहीं l लड़कियाँ तो ब्याह तक और लड़के अक्सर दस बरस की उम्र तक घरों में तरबियत पाते हैं और माओं की ख़ूबी उनमें असर कर जाती है l पस अय औरतों ! औलाद की अगली जिंदगी तुम्हारे अख्तियार में है l चाहो तो शुरू से उनके दिलों में ऐसे ऊँचे इरादे और पाकीज़ा ख़याल भर दो कि बड़े होकर नाम ओ नमूद पैदा करें और तमाम उम्र आसाइश में बसर कर के तुम्हारे शुक्रगुज़ार रहें और चाहो तो उनकी उफ्ताद को ऐसा बिगाड़ दो कि जूं-जूं बड़े हों, खराबी के लच॒छन सीखतें जाएँ और अंजाम तक इस इब्तदा का तस्सुफकिया करें l”[4] भारतेंदु  कि उक्ति की ‘लकड़ो को सहज में शिक्षा दी जाये’ इसी विभेदपूर्ण नीति को स्त्पष्ट करती है l
       मिरातुल उरुस का कथानक इस प्रकार है कि अकबरी और असगरी दो बहने हैं जिसमे अकबरी बड़ी और असगरी छोटी बहिन है अकबरी बचपन से ही अपनी नानी के घर  बड़े लाड़-दुलार से पली है जिसके कारण वह जिद्दी और मुहजोर हो गई है लेकिन असगरी इसका बिलकुल उलट है वो माँ-बाप की हुक्म की तामील करती है, घर में सबका ख्याल रखती है, घर के सब काम जानती है, घर की ज़िम्मेदारी बखूबी निभाती है l दोनों बहनों का ब्याह एक ही घर में तय  किया जाता है जिसमे अकबरी घर कि बड़ी बहु और असगरी छोटी बहु बनती है l अकबरी अपने बदमिजाज और गुस्से के कारण उपेक्षित पात्र घोषित होती है जबकि असगरी अपनी खूबियों के कारण घर-परिवार में सराहनीय पात्र बनकर उभरती है l पूरे उपन्यास का मूल्य बिंदु है कि अशिक्षित स्त्री घर को सँभालने में कुशल नहीं होती जबकि शिक्षित स्त्री ही सर्वश्रेष्ठ होती है l  उपन्यास की भूमिका में सैय्यद आबिद हुसैन लिखते हैं कि “मिरातुल-उरूस, जो इस वक़्त आप के सामने है, नज़ीर अहमद का एक छोटा सा नावेल है जो उन्होंने छपवाने के लिए नहीं बल्कि अपनी लड़की के पढ़ने के लिए लिखा था  इत्तिफ़ाक से इसका मसौदा अंग्रेज़ डायरेक्टर तालीमात की नज़र से गुज़रा l वह इसे पढ़ कर फड़क उठा l उसी की तवज्जो से यह किताब छपी और इस पर मुसन्निफ़ को हुकूमत की तरफ से एक हज़ार रुपया इनाम मिला l”[5]
 आगे  नज़ीर अहमद अपना मंतव्य स्त्पष्ट करते हुए  लिखते हैं कि “मुझको ऐसी किताब की जुस्तजू हुई जो इखलाक ओ नसायह से भरी हुई हो और उन मामलात में जो औरतों की जिंदगी में पेश आते हैं और औरतें अपने तोह्मात और जहालत और कजराई की वजह से हमेशा इनमें मुब्तिलाए-रंज ओ मुसीबत रहा करती है, इनके ख़यालात की इस्लाह और उनकी आदात की तहज़ीब करें और किसी दिलचस्प पैराये में हो जिससे उनके दिल न उकताय, तबीयत न घबराय l मगर तमाम किताब खाना छान मारा ऐसी किताब का पता ना मिला l तब मैनें इस किस्से का मनसूबा बाँधा l” [6]
 ‘मिरातुल उरुस’ की नायिका ‘असगरी’ एक शिक्षित  स्त्री के रूप में चित्रित की गई है जो बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक रखती है इसीलिए लेखक कहता है “उसने छोटी सी उम्र में ही कुरान-मजीद का तर्जुमा और मसायल की उर्दू किताबें पढ़ ली थी l लिखने में भी आजिज़ न थी .... हर एक तरह का कपड़ा सी सकती थी और अनवाआ और अकसाम के मजेदार खाने पकाना जानती थी l”[7] अपने हुनर के कारण ही वह विवाहोपरांत अपनी ससुराल में सबकी  आँख  का तारा  बनती है l अपनी समझदारी के कारण वह, हिसाब में हुई गड़बड़ी का पता लगाती है l पूरे उपन्यास में स्त्री शिक्षा के लाभ  बताए गए हैं l पूरा उपन्यास इस बात का प्रमाण है कि किस प्रकार एक स्त्री गृहस्थ धर्म की शिक्षा लेकर उसका अपने जीवन में उपयोग कर सकती हैं या किस प्रकार एक शिक्षित स्त्री ही निपुणता से अपने गृहस्थ जीवन को सुखमय बना सकती है l
वस्तुतः उर्दू का यह पहला उपन्यास नवजागरण के दौर में मुस्लिम समुदाय में स्त्री-शिक्षा की स्थिति की यथार्थ अभिव्यक्ति करता है l स्त्रियों की शिक्षा पूरे परिवार और समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर सकती है इसे डिप्टी नज़ीर अहमद अच्छी तरह जानते थे l अत: मुस्लिम स्त्री शिक्षा की आदर्श स्थिति हेतु ‘मिरातुल-उरुस’ की रचना की गई l
       



[1]स्त्री संघर्ष का इतिहास १८००-१९९० – राधा कुमार  अनुवादएवं संपादन – रमा शंकर सिंह ‘दिव्यदृष्टि’ पृ सं.23
[2][2]रस्साकशी – वीरभारत तलवार पृ. सं. 39
[3]  रस्साकशी – वीरभारत तलवार पृ.सं.39
[4] मिरातुल-उरूस(गृहिणी- दर्पण)लेखक नज़ीर अहमद टिप्पणियाँ तथा हिंदी लिप्यंतर-मदनलाल जैन पृ सं. 22
[5] मिरातुल-उरूस(गृहिणी- दर्पण)लेखक नज़ीर अहमद टिप्पणियाँ तथा हिंदी लिप्यंतर-मदनलाल जैन पृ सं. 6
[6]मिरातुल-उरूस(गृहिणी- दर्पण)लेखक नज़ीर अहमद,टिप्पणियाँ तथा हिंदी लिप्यंतर-मदनलाल जैन पृ.सं10
[7]मिरातुल-उरूस(गृहिणी- दर्पण)लेखक नज़ीर अहमद टिप्पणियाँ तथा हिंदी लिप्यंतर-मदनलाल जैन पृ.सं36

नाज़िया फातमा जामिया, नई दिल्‍ली में शोधार्थी है। अपने विषय से बाहर जाकर भी हिन्‍दी लेखन की समाकालीन दुनिया में हस्‍तक्षेप करना चाहती है। प्रस्‍तुत आलेख उसकी बानगी है। 
उर्दू के पहले उपन्यास मिरातुल-उरुस’ के बहाने भारतीय नवजागरण दौर में मुस्लिम समुदाय में स्त्री-शिक्षा की स्थिति की पहचान करती नाज़िया फातमा की यह कोशिश उललेखनीय है। 
- वि.गौ.  

Wednesday, November 4, 2015

गैरसैण विधानसभा सत्र का औचित्य

दिनेश चन्‍द्र जोशी 
लेखक; कवि साहित्यकार, देहरादून

फिलवक्त तक उत्‍तराखंड की काल्पनिक राजधानी गैरसैण में विधानसभा के सत्र को आयोजित करने का हो हल्ला बड़े जोर ,शोर से चल रहा है। बिजली, पानी, आवास,सड़क, चमक दमक ,हाल ,माईक ,सजावट ,सोफे, कालीन ,बुके फूलमाला, गाडि़यों ,मिनरल वाटर , भोज, डिनर की व्यवस्था बाकायदा कार्यदल बना कर हो रही है। इस कार्य हेतु करोड़ों से कम बजट क्या लगेगा। जनभावना के सम्मान हेतु इतना गंवा भी दिया तो कोई हर्ज नहीं। खबरों में यह दृश्य बड़ा ही उत्साहजनक व पर्व की तरह पेश किया जा रहा है और राज्य की भोली भावुक जनता को दिगभ्रमित किया जा रहा है। 
गैरसैण भौगोलिक रूप से कुमाऊ व गढ़वाल के मèय व संगम स्थल पर, चौरस घाटी होने की वजह से निर्माण व विकास की संभावना से युक्त है। जल संसाधन व पर्यावरण की दृष्टि से भी निरापद है। भूकम्प व आपदारोधी होने की मान्यता हेतु गठित वैज्ञानिकों की कमेटी ने भी तीन चार सुझाये नामों में गैरसैण को अमान्य करार नहीं दिया है। इस कारण गैरसैण उत्‍तराखंड की स्थाई राजधानी हेतु एक फेवरेट ब्रांडनेम है। जनभावनाओं की अभिव्‍यक्ति, सामाजिक सरोकारों से जुड़े बुद्धिजीवी, जनप्रतिनिधि, आन्दोलनकारी ,पत्रकार व कलाकारों का पक्ष भी गैरसैण को साियी राजधानी बनाने के पक्ष में है। 
संयोग है कि यह स्थल वीर चन्‍द्र सिंह गढ़वाली के जन्म स्थान के निकट स्थित है। इन दिलचस्प तथ्यों को ही ध्यान में रखते हुए राजधानी के सवाल पर स्वंय डांवाडोल सरकारें भी जब तक विधानसभा सत्र आयोजित करके एक तीर से कई निशाने साधना चाहती रही हैं। सारा मसला वोट बटोरू राजनीति का है और अगले चुनाव को ध्यान में रखते हुए ही जिसका समय 2017 निकट आता जा रहा, वर्तमान सरकार अपने झूठ को गैरसैण ब्रांड की मारकेटिंग के साथ फोकट में ही लाभ अर्जित करने की मंषाएं पाले विधानसभा सत्र और मेले ठेले आयोजित करना चाहती है। 
अब जरा गौर से इस गैरसैण सत्र प्रकरण का विश्लेषण करें तो यह सारा माजरा पुराने जमाने के गोचर मेले, जौलजेबी, नन्दा देबी मेले या स्याल्दे, मोस्टमानू मेले जैसे सांस्‍कृतिक पर्व का आभास कराता प्रतीत होता है, जिनमें लोक संस्‍कृति व स्थानीय उत्पादों की बिक्री व ब्रांडिग होती थी। फर्क सिर्फ इतना है कि इस सत्र द्वारा गैरसैण मेले में वर्तमान सरकार,नेताओं, मंत्रियों, नोकरशाहों, अधिरकारियों, छुटभय्यों, ठेकेदारों व उत्साही कार्यकर्ताओं की ब्रांडिग व बिक्री होगी।
एक दो दिवसीय सत्र हेतु पूरी सरकार देहरादून से गैरसैण शिफ्ट होगी।कारों के काफिले दौड़ेंगे, प्राइवेट टैक्सी,इनोवा, स्र्कापियो गाड़ी वैन्डरों को काम मिलेगा, उनकी  चांदी कटेगी। हैलीकाप्टरों का उपयोग किफायत दर्शाने हेतु वÆजत किया जायेगा। मंत्रियों, नौकरशाहों को मार्ग की टूटफूट, दुर्गमता व कठिन भूगोल में नौकरी करने का अभ्यास कराया जायेगा। लेकिन कुल मिला कर यह एक सुगम व पिकनिकनुमा अवसर ही होगा,
केदारनाथ त्रासदी के वक्त जैसा कष्टपूर्ण व चुनौती भरा मौका तो यह कतई नहीं होगा, जब सरकार को अग्नि परीक्षा के बेहद कठिन दौर से गुजरना पड़ा था। उस वक्त बड़े बड़े आला अधिकारियों, चीफसेक्रेटरी,कलक्टर से लेकर छोटे कर्मचारियों तक को रुद्रप्रयाग  गुप्तकाशी, फाटा तक में कैम्प आफिस लगा कर आपदा राहत कायों की देखरेख कर असली नौकरी करने का कष्ट झेलना पड़ा था  साथ ही  मुख्यमंत्री सहित विधायकों तक की नींद हराम हो गई थी, हालांकि ठोस जमीनी कार्य सेना, अर्धसैनिक बलों व स्वैचिछक संगठनों ने किया था,पर संयोजन प्रबन्धन हेतु सरकार की भी एक भूमिका थी। 

गैरसैण सत्र के मौके पर यह अवांतर प्रसंग इसलिये जेहन में आना लाजमी है कि जब हम उस त्रासद कष्टपूर्ण समय में उतने दुर्गम स्थलों पर गये, ठहरे व सराकारी गैरसरकारी संगठनों के माèयम से एक बदतर सुविधा विहीन पहाड़ में सेवाभाव अथवा मजबूरीवश ही सही समस्या का समाधान कर पाये तो गैरसैण में स्थाई राजधानी बना कर क्यों नहीं रह सकते।
यह आयोजन इस कारण एक मजबूरीनुमा कर्तब्य जैसा ही है। मजबूरी इसलिये कि जनभावना को पटाये रखना है, कर्तब्य इसलिये कि मुद्दा जीवन्त बना रहे तो आज नहीं तो कल उसका लाभ उठाने की दहाड़ लगाई जा सके। हो सकता है गैरसैण स्थाई राजधानी बन ही जाय। लोकतंत्र की गति व आंखमिचौली इसी तरह चलती रहती है, जिसमें कभी रंगमंच भी वास्तविक यथार्थ के रूप में तब्दील हो जाता है।
हम उमीद करते हैं कि आने वाले बच्चों के समान्य ज्ञान में गैरसैण उत्‍तराखंड की राजधानी के रूप में अंकित हो, और वे, वीर चन्‍द्रसिंह गढ़वाली सहित दूसरे तमाम आन्दोलन कारियों को उस इतिहास में पढ़ें.बांचें और जान पाएं कि एक नामालूम से गांव गैरसैण के राजधानी बनने में कैसे कैसे संघर्ष और छद्म मौजूद रहे। दुनिया को खुशहाल बनाने की उम्‍मीद संजाेयी संघर्षशील जनता काे कभी हताश न होने का संदेश भी दे सके और संघर्ष की जीत के लिए छद्मों से निपटने के पाठ भी पढ़ा सके।  


Friday, October 23, 2015

प्रेम जैसे पहाड़ का सबसे ऊँचा शिखर

डॉ नूतन डिमरी गैरोला को 90 के दौर से पढ़ रहा हूं ।
इधर उनको थोड़ा करीब से जानना और पढ़ना हुआ। पेशे से डॉक्टर नूतन डिमरी गैरोला अपने भीतर की उस स्त्री के साथ हैं जो सामाजिक नैतिकताओं के ताने बाने में जीने को मजबूर हैं लेकिन तब भी अपने ऊपर होने वाले प्रहारों से मुक्त नहीं। उनकी कविताओं में एक ऐसी अकुलाहट है जो रह रह कर उन स्थितियों को सवालों के घेरे में लाती है जिनका वास्ता जीत और हार की निर्मिति को रचने में संलग्न रहता है। जहां प्रेम उम्मीदों का वसंत होकर नहीं आता बल्कि हांफ हांफ कर पछाड़ खाता है और हत्यारी जंग से निपटने के लिए मामूली सा सहारा भी नहीं बन पाता। बेशक उनके इस स्वर से आप पूरी तरह सहमत नहीं हो सकते लेकिन इस सवाल पर थोड़ी देर ठहरना तो चाहिए कि ऐसे निर्मम और जड़ समय में एक स्त्री की कातर पुकार क्या इससे भिन्न कोई दूसरा स्वर गुनगुना सकती है- 
कितना मैं अपनी ज़िद पर अड़ी/जिंदगी को हर दिन गुलदान में/सजा देती हूँ /ताकि महकता रहे घर भर...। 
वि गौ

प्रेम जैसे पहाड़ का सबसे ऊँचा शिखर 


प्रेम जैसे
पहाड़ का सबसे ऊँचा शिखर
एक अजीब खिंचाव
पहाड़ को फ़तेह करने को आतुर 
एक प्रेमी मन विभोर हो जाता है|
खड़ी अडचने,
उनकोपस्त हो हांफ हांफ कर करता पार
पहुँचता है शिखर
पर |
जहां
कठिन होता है ठहराव
अविश्वासअहंकारअसहमतियों की बारिश,
शिखर पर जब बरसती है जोर से
तब पहाड़ पर होता है भूस्खलन
ऐसे में वह मन चोटी से फिसल कर
लुढक जाता है
 बहुत तीखी ढलानों पर
और चकनाचूर हो जाता है|

नीचे बहती है एक उदास, तन्हा, नदी|

अपनी ह्त्या के खिलाफ


मुझे इस्तेमाल करना है जिंदगी को 
अपने ही हाथों
 
अपनी ह्त्या के खिलाफ

रोज़
 उम्मीदों की देह पर उमगते नासूर
ह्त्या की साजिश करते हैं 
और नीम अँधेरी रातों में  
सुर्ख़ उगते सूरज के विचार
विचलित होते मन की पीठ पर
 
हाथ धरते हैं|

मैं अपनी ज़िद पर अड़ी
जिंदगी को हर दिन गुलदान में
सजा देती हूँ
ताकि महकता रहे घर भर
 ……

 उसके साथ मुस्कुराता है बसंत

उसने देखी थी तस्वीर
अपनी ही सखी की
जिसमे स्त्री हो जाती है
जंगली
जिसके तन पर उग आती है पत्तियाँ
बलखाती बेलें अनावृत सी
कुछ टीले टापू और ढलानें
और
जंगल के बीच अलमस्त बैठी वह
स्त्री  
सारा जंगल समेटे हुए
प्रशंसक हैं कि टकटकी बाँध घेरे
हुए तस्वीर को  
और चितेरे अपने मन के रंग भरते
हुए ..........
तब धिक्कारती है वह अपने
भीतर की स्त्री को 
कि जिसने
देह के सजीले पुष्प और महक को
छुपा कर रखा बरसों
किसी तहखाने में जन्मों से
कितने ही मौसमों तक
और तंग आ चुकती है वह तब
दुनिया
भर के आवरण और लाग लपेटों से.................

वह कुत्ते की दुम को सीधा
करना चाहती है
ठीक वैसे ही जैसे वह चाहती
है जंगली हो जाना
लेकिन उसके भीतर का जंगल
जिधर खुलता है
उधर बहती है एक नदी
तथाकथित संस्कारों की
जिसके पानी के ऊपर हरहरा
रहा है बेमौसमी जंगल
और वह देखती है एक मछली में खुद को
जो तैर रही है उस पानी में.....................  

वह कुढती है खुद से
वह उठाती है कलम
और कागज में खींचना चाहती
है एक जंगल बेतरतीब सा
पर शब्द भी ऐसे हैं उसके कि जंगली
हो नहीं पाते

ईमानदारी से जानने लगी
है वह
जंगली हो पाना कितना कठिन है  
असंभव
ही नहीं उसके लिए नामुमकिन है
वह छटपटाती है
हाथ पैर मारती है
वह मन के विषम जंगल से बाहर
निकल पड़ती है ......
................................................

और जिधर से गुजरती है वह
उसके मन के जंगल से गिर जाता है
सहज हरा धरती पर
प्रकृति खिल उठती है
हरियाली लहलहाने लगती है
प्युली खिल उठती है पहाड़ों में
कोयल गीत गाती है
और बसंत मुस्कुराता है

स्त्री में  तितली 

स्त्री करती है प्यार
कोमलता से
रंगों से
खुश्बू से
इस तरह वह बनाए रखना चाहती है
प्रेममयी पुष्प को
अपने ह्रदय में
अपने आँगन में
.......
स्त्री हो जाना चाहती है तितली
---------------------------
वर्जानाओं की जद में
तिलमिलाती वह
दीपक की लौ में
अंतिम लपलपाहट देखती है
तो मुस्कुराती है..

स्त्रियाँ

गुजर जाती हैं अजनबी से जंगलों से
जानवरों के भरोसे
जिनका सत्य वे जानती हैं
.
सड़क के किनारे तख्ती पे लिखा होता है
सावधान, आगे हाथियों से खतरा है 
.
और वे पार कर चुकी होती हैं जंगल सारा 
.......
फिर भी गुजर नहीं पातीं
स्याह रात में सड़कों और बस्तियों से
कांपती है रूह उनकी
कि
तख्तियां
उनके विश्वास की सड़क पर
लाल रंग से जड़ी जा चुकी हैं
कि
सावधान
यहाँ आदमियों से खतरा है.............

चेताती है स्त्री  

मेरी हदों को पार कर
मत आना तुम यहाँ
मुझमे छिपे हैं शूल और
विषदंश भी जहाँ |
फूल है तो खुश्बू मिलेगी
तोड़ने के ख्वाब न रखना|
सीमा का गर उलंघन होगा
कांटो की चुभन मिलेगी
सुनिश्चित है मेरी हद
मैं नहीं
मकरंद मीठा शहद ..
हलाहल हूँ मेरा पान न करना |
याद रखना
मर्यादाओं का उलंघन न करना ||

Monday, October 19, 2015

बीच का आदमी

बीच का आदमी सतत रचनारत रहने वाले वरिष्‍ठ कथाकार मदन शर्मा का ताजा उपन्‍यास है। हाल ही में उपन्‍यास से गुजरने का अवसर मिला। अपने शीर्षक की अर्थ ध्‍वनि को प्रक्षेपित करती उपन्‍यास की कथा में भले भले बने रहने की मध्‍यवर्गीय प्रवृत्तियो को अच्‍छे से सामने रखती है। मदन शर्मा के कथा विन्‍यास की खूबी संवादों भरी भाषा में परिलक्षित होती है। पात्रों की सहजता एवं स्‍वाभाविकता वातावरण के साथ जन्‍म लेती है। कारखाने के जन जीवन को करीब से देखने वाले उपन्‍यासकार मदन शर्मा के उपन्‍यासों से गुजरना एक ऐसा अनुभव है जो बहुत बगल से गुजर जा रहे समय को देखने समझने की दृष्टि देता है। उनके उपन्‍यास का एक छोटा सा अंश यहां प्रस्‍तुत है।    
 वि गौ

उपन्यास अंश

   सभी कुछ बदस्तूर जारी था। आठ से पांच तक साधारण डयूटी, जिसमें एक से दो बजे तक लंचब्रेक और शाम, पांच से सात तक ओवरटाइम। वही मशीनों की कीं कीं और चीं चीं, लगातार खटखट, वही वर्कर लोगाों का आपसी गालीगलौज, मुक्कम-मुक्का, अश्लील मज़ाक और सुबह से शाम तक 'ऊपरवालों के साथ नाज़ायज़ रिश्तेदारियां क़ायम करना। वही अधिकारी वर्ग के उल्टे-सीधे और मूर्खतापूर्ण आदेश और निदेश, वही लम्बी लम्बी बहसें और तकरार... अरे मेरा काम तो सबसे अधिक हुआ था, फिर पीस वर्क प्राफिट, दूसरों को कैसे अधिक मिला?... लो, मेरा टूल फिर चोरी हो गया। मैंने अभी अभी ग्राइंड करके, यहां फ़ेस-प्लेट पर रखा था... उसका मिलिंग कटर ब्लंट हुआ पड़ा है और वह भद्र पुरूष बिना देखे ही कट देता चला जा रहा है... मुझे इस बार साबुन की टिकिया क्यों नहीं मिली? हाथ कैसे धोऊंगा?... उसकी मशीन का पानी बदला था। मगर यहां तो... मेरा काम इतना बढि़या बना, तब भी इंस्पेक्शन वालों ने पास नहीं किया। उन्हेें चाय की ट्रे और समोसे जो नहीं पहुंचाये गये... मेरा ट्रेडटेस्ट, मालूम नहीं कब होगा! छह महीने से ये लोग झांसा दिये जा रहे हैं! ... भर्इ वाह! उसका दो बार प्रमोशन हो गया! यह होता है रिश्तेदार होने का फ़ायदा!... आप कुछ करते क्यों नहीं? क्यों नहीं कुछ करते?
गरदन उठा कर देखा, लोकराम खड़ा है। 
- बुलाया है? मैंने जानते हुए भी पूछा।
-फौरन पहुुुंचने को कहा है।
- और कौन-कौन हैं वहां?
-अकेले हैं इस वक़्त तो।
-चलो, मैं आ रहा हूं।

वह हर रोज़ की तरह, कुर्सी पर तना बैठा था। काग़जों पर टिप्पणियां लिखने और हस्ताक्षर करने के बीच ही, वह मुझ से बोला, - क्या पोज़ीशन है आप के ग्रुप की इस महीने?
-पोज़ीशन ठीक है सर।
-ठीक का मतलब? टारगेट पूरे हो जायेंगे या नहीं?
-ख़याल तो यही है, कि हो जायेंगे।
-ख़याल? वह क्या होता है? मुझे पक्की बात बताओ।
-एक घंटे तक, चेक करकेे मैं आप को पूरी लिस्ट दे दूंगा।
-स्पेयर आर्डरस में भी ढील नहीं होनी चाहिये।
-इस बारे में आप निशिचंत रहें।
-ठीक है, चेक करने के बाद, लिस्ट बना कर दीजिये।
एक घंटे से भी कम समय में, मैं सूची तैयार करके पुन: मैनेजर के कार्यालय में उपसिथत हो गया। 
उसने सूची पर सरसरी नज़र दौड़ार्इ। महसूस हुआ, वह संतुष्ट नहीं हुआ। वैसे कोर्इ अप्रसन्नता भी उसने व्यक्त नहीं की। 
-अच्छा, ठीक है। ऐसा करना... मैं जहां जहां पेंसिल से लाल निशान लगा रहा हूं, ये काम सबसे पहले निकलवा देना।
-राइट सर।
मैं वापिस दरवाज़े तक ही पहुंचा था, आदेश मिला, -ज़रा रूकिये।
मैं पहले की तरह, फिर मेज के समीप जा खड़ा हुआ।
-मुझे एक बात याद आ गर्इ, बैठिये।
मैं 'थैंक्स कह कर बैठ गया।
वह कुछ सोचने लगा। फिर बोला, -उस लड़के का क्या रहा?
-जी?
- अरे भर्इ, वह खू़बसूरत और तेज़ तर्रार-सा लड़का, क्या नाम उसका?
-अनिल? 
- वही... कुछ पता चला उसका?
- कुछ पता नहीं चला सर।
- सो सैड! उसके घर वाले तो बहुत परेशान होंगे?
- बहुत ही बुरी हालत है उनके घर में!
- कौन कौन हैं घर में?
- बूढ़ी मां और दो बहनें हैं।
- एक तो वही, जो उस दिन मेरी कोठी पर आर्इ थी?
- जी। दूसरी उससे छोटी है।
--हूं..., कह कर वह पेपर व्हेट से खेलने लगा। फिर बोला, - तो उनके घर में कैसे चल पा रहा है?... हम लोगों को उन बेचारों की कुछ मदद करनी चाहिये। डिपार्टमेंट की तरफ़ से तो उन्हें अभी कुछ भी नहीं मिल सकता।
- वही तो परेशानी है सर। थोड़े से पैसे सेक्शन वालों ने इकटठे करके ज़रूर भिजवा दिये थे।
- उससे भला कितने दिन चलेगा? आपने क्या सोचा इस बारे में?
- इस बारे में, मेरा तो कुछ दिमाग़ काम नहीं कर रहा।
- तो... अच्छा, मैं बड़े साहब से बात करूंगा। लड़कियां कुछ पढ़ी लिखी हैं?
- बड़ी इन्टर पास है और छोटी इन्टर कर रही है।
- अच्छा... देखो, क्या होता है। बड़े साहब से बात करके ही कुछ बताउंगा।
मैं वहां से उठ कर बाहर आया। विश्वास नहीं हो पा रहा था, यह वही एन0 मोहन है!

Monday, September 14, 2015

महानगरीय शिल्प और पृष्ठभूमि से भिन्‍न

वागर्थ पत्रिका बेशक विशेषरूप से कहानियों के लिए न जानी जाती हो लेकिन 'महानगरीय शिल्प और पृष्ठभूमि" को ही साहित्य मानने वाली समझ से भिन्न सम्पादकीय सूझबूझ रखने के कारण अक्सर ही अपने पाठको को यादगार कहानियों के तोहफे से नवाजती है।
अगस्त 2015 के अंक में प्रकाशित एक ऐसी ही कहानी 'जै हिन्द" का जिक्र यहां किया जा सकता है। पृष्ठभूमि में पहाड़ की मुख्यधारा के जनजीवन से विलग उंचे पहाड़ेां में जानवरों के साथ रहने वाले पालसियों के जीवन के दुख दर्द, जै हिन्द कहानी का ताना बाना बुनते हैं और  हिन्दी कहानी के उस भूगोल को विस्तार दे रहे हैं जो हिन्दी कथा अलोचना की दरिद्र दृष्टि में कभी अट नहीं पाया है। 'महानगरीय शिल्प और पृष्ठभूमि" को ही कहानी मानने वाली आलोचना की स्थानाओं को ऐसी कहानियां धा पहुंचाती हैं।
नंद किशोर हटवाल के हम आभारी हैें जिन्होंने हमें कहानी को पुन:प्रकाशित करने का अवसर दिया। 

वि गौ 


जै हिन्द

-नंद किशोर हटवाल
hatwalnk@rediffmail.com
09412119112

हीरा की बकरियाँ थाली बुग्याल पहुँच गई। 
''हो प्पापा रे! यहाँ से आगे तो एकदम चैना लग जायेगा!!" हीरा बड़बड़ाया। थाली बुग्याल से छ्वोरी खर्क नहीं दिखता है। जहाँ पर उनका तम्बू है। न साथी पालसियों की 'टोख" सुनायी पड़ती है! एकदम्म सुन्न बुग्याल है थाली! 
बकरियाँ भी आज थिर-थम नहीं। उनको दो हफ्ते से नमक नहीं खिलाया। मंगल सिंह गया है नमक लेने। नमक नहीं खाया तो स्वाद खतम। चरने में दाँत नहीं लगते।।! 
।।अब दाँत क्या लगने।।।अबि तो दाँत टूटेंगे तुमारे! नमक की टपट्यास लग गयी!।। आज-कल की तो बात है।।! मंगल लायेगा तब तो खिलाऊंगा।।! खच्चर नयी मिल रे होंगे! कल तक खिला देंगे।।।। कुछ थिर-थम रखो!
पर बकरियाँ क्यों सुनती हीरा की। चरते-चरते थाली बुग्याल से आगे चली गयी।।।।इनके आज दिम्माक खराब हो गया।।। वो् बाग्ग!।।।।अब चैना में जायेंगी क्या नमक खाने?  
हीरा ने बकरियाँ वापस खदेड़ी।।।।वो  वो।।बाग्ग। हीरा ने झुंझला कर बाघ की गाली दी बकरियों को।
हीरा का साथी मंगल सिंह जोशीमठ गया है। बकरियों को नमक, राशन-पाणी लेने। कुछ बि तो नहीं बचा था-खाणा-पीणा, बीड़ी-तम्बाकू, चाय-चीनी। परसों का गया नहीं लौटा। आया होगा कि नहीं।।।।।।कैसे पता चलेगा!
हीरा ने एक जेब से चिलम निकाली। दूसरी जेब से तम्बाखू की थैली। लास्ट डोज है! थैली एक बार उसने फिर वापस रख दी। लास्ट अबि पी लूंगा तो फिर क्या पियंूगा? पर इस बार नहीं माना मन। उसने थैली झाड़ दी अपने हाथ में। एक चिलम तम्बाखू निकल गया। हीरा तम्बाखू को अपने दोनो हाथों से मसलने लगा। धीरे-धीरे, देर तक। उतनी देर तक जितनी देर तक उसका मन माने। ।।।कबि कबि पल काटने में जुग लगता है। 
हीरा ने तम्बाखू की कश खींची। खी-खी-खी खाँसी। और फिर होह्णक, हो ह्णक, होह्णक। खाँसी का बकरियों की 'हाँक" में रूपांतरण किया। 
उसने कोट की जेब टटोली ।।बीड़ी तो पैले ही खत्तम् थी।।अब तम्बाखू खत्तम्। और दूर-दूर तक कोई नहीं। सलूड़ वाले पालसियों के बाखरे आज सैद ल्वाजिंग के पली तरफ चले गये। मंगल न जाने कब तक आयेगा! ।।।जब तक खच्चर नयी मिलेंगे तो कैसे आयेगा? नमक लाना है।।। मंगल सिंह अपने मालिक जग्तू के यहाँ पीने बैठ गया होगा।।।।।।।। साला खाणा-पीणा दो-तीन दिन तक न भी मिले तो सैन कर सकता है वो।।।।। मगर बीड़ी तम्बाखू के बिगर एक मिलट भी।।।।।।
बकरियां अब थाली धार पर आ गयी हैं। वहां पर फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र करती ठण्डी हवाएं हैं। सामने पंचचूली और चौखम्बा के हिंवाले पौड़। हीरा कुढ़ता उन पहाड़ों से।।साला ये पौड़ भी ह्यंू (बर्फ) अपनी खोपड़ी पर अटका कर हवा चचकार (ठण्डी) बणा देते हैं।।।मेरे को तो नयी जमा ये।।।। वो बर्फ पर चिढ़ा।।ये साला पिघ्ालता भी नहीं! ठण्ड को कोशा।।। ठण्ड साली ठीक नयीं है ये! ।।।असल बात बरफ और ठण्ड नहो तो।।। 
हीरा ने अपनी कनबुज्या टोपी गर्दन तक खींची और नाक से बहते पानी को साफ कर हो-बाह्णग कहा।।।एक-आद चिलम और होता।।।।तम्बाखू तो कुछ गर्मी लगती।।।।।।।।
उसने हाथ तम्बाखू पीने के अंदाज में बाँधे और मुँह की हवा से हाथों को गर्म करने लगा।।।।। हटाओ! अब ताकू भी नयीं काता जाता।

वो बकरियों के पीछे-पीछे थाली धार के दूसरी तरफ आ गया। वहाँ से टिमरसैंण दिखता है। बहुत नीचे। वहाँ पर कुछ सूने बंकर थे।।।।।उनमें सैद कुछ मलेटरी वाले आ गये हैं।।।।।बाहर बैठे घ्ााम ताप रहे हैं।।।।।।नयीं।।।।ठाठ से ताश खेल रहे हैं।।।।।।।।
हीरा को फौजी जीवन अच्छा लगता है।।।।।। बस अपने खाणे-पीणे का सारा इंतजाम फिट रहता है उनका।।।।।। बल्कि जादा ही रहता है उनके पास।।।।। जो सिगरेट पीता है उसके लिए सिगरेट है जो बीड़ी पीता है उसके लिए बीड़ी है।।।।। मीट भी है।।।।।। वो भी डब्बा पर बंद वाला अलग और सौदा बाखरा अलग।।। उनका पार्कर कोट तो इतना गरम होता है कि कैसी-कैसी ठण्ड का कोई बस नहीं पार्कर के सामने।।।।।
हीरा को लगा कि उसके दोखे के अन्दर कहीं से ठण्डी हवा जा रही है। उसने टटोल कर देखा, पीठ की सिलायी उधड़ी है। दोखे के पल्ले खींच कर लपेट लिए थे इसलिए सिलाई उधड़ गई। उसने पागड़ा ढीला किया। पल्लों की कसावट कम की। पर अब आगे से हवा जाने लगी है।
खित्त।।।खित्त। उसे हँसी आ गई। ये मंगल भी कबि कबि क्या बात बोलता है।।।।मेरे मालिक साब।।। जग्तू ब्वोक्ट्या।।।।स्वेटर के बाहर ऊनी ओबर कोट पहन कर उसके बाहर से जो पश्मीना ओढ़ता है, काश कि उसकी गर्मी मुझे लगती।।।। हा! हा!! हा!!! अर ये ठण्ड उसको।।।।।। ब्वोक्ट्या बोलता कि ये ठण्डा कैसा लग गया मुझको।।।।इतना कपड़ा पैना है।।।। तबी पता लगता उसको कि ठण्डा कैसा होता है।।।।।। खित्त खित्त।।।। मंगल के डैलोक।।।भेड़ बाखरों की ऊन तब गरम होती है।।।।जब वो आदमियों ने पैनी हो।।।।न कि भेड़ों ने। इन भेड़ों से निकाली और उस भेड़ पर पैनायी।।।। जग्तू ब्वोक्ट्या।।।।खित्त खित्त खित्त।।।।
भूख ने हीरा पर फिर झपट्टा मारा। 
।।।।।। इन बुग्यालों मेंं इतनी भूख फैली होती है साली कि।।।। जिसकी कोई हद नहीं।।।।। । हीरा ने भूख पर चिढ़ निकाली। बचपन में जब भी उसे भूख लगती थी उसकी माँ भूख को कोशती। कहती थी कि भूख राक्स्योंण (राक्षसी) होती है। इसको काबू करना पड़ता है। नहीं तो ये इंसान को खा लेती है। इसी सीख के कारण भूख आज तक उसका कुछ नहीं बिगाड़ पायी। भूख की ऐसी तैसी साली।।।। पर तम्बाखू।।।।। बंकर पर जाकर ही तम्बाखू-पाणी का जुगाड़ बिठाणा पडेगा।।।।।
बकरियों का गोठ सीमा पार जाने को आतुर है! और कालू सो रहा है। उसने गुस्से में अपना डण्डा कालू की ओर फेंका।।।।साले को सुबह ठोक कर थांग्थू खिलाया है।।।और मजे से सो रा है! बाग फाड़े ढाड! हीरा ने मन ही मन कालू को गाली दी। धौलू भी पूंछ हिलाता खड़ा हो गया। 
बकरियों के गोठ को कालू-धौलू के हवाले छोड़ थाली धार से लड़खड़ाता हुआ हीरा ट्यमरसैंण में बंकर के सामने पहुँचा।
''जै हिन्द सुब्दार साब!"" हीरा फौजियों के रैंकों को पहचानता है। ।।।।हवलदार को सुबेदार साहब कहकर पटाया जा सकता है!
''जै हिन्द! जै हिन्द!!"" हवलदार ने ताश का पत्ता फेंकते हुए कहा।
''आप याँ पर कब आये सर?"" हीरा ने मुस्कराते हुए पूछा। वो सूरत से ही पहचानने में माहिर है कि ये गढ़वाल राइफल वाले हैं, ये गोरखा रेजीमेन्ट के हैं, ये सिख रेजीमेन्ट के हैं, ये डोगरा रेजीमेन्ट के आदि।।।।इनमें खिलाणे-पिलाणे के मामले में सिख रेजीमेन्ट के लोग सबसे जादा दिलदार होते हैं।।।।।।
हवलदार का ध्यान ताश में था। उत्तर देने में देर हुई, ''कली तो आये।।।। पालसी हो?""
''जी सर"" 
हवलदार ने एक नजर हीरा को देखा, ''कहाँ के हो?"" 
''पगनों के हैं सर।।।।ऊपर धार में इतनी हवा चल रही है कि बस! याँ पर ठीक आड़ है।।।और मेरे पास बीड़ी तम्बाखू भी खत्तम है।""
हवलदार ने सुनकर भी नहीं सुना। कुछ देर की चुप्पी के बाद हीरा ने फिर कहा, ''उधर तो पाणी का भी कयीं नाम नयीं है सर! बड़ी प्यास लग गयी। सोचा साब लोगों के पास से पाणी पीकर आता हूँ।"" पानी ही ऐसी चीज है जिसे माँगने में संकोच नहीं होता।
''वहाँ अन्दर नैक रामसिंग है, उससे माँगो।"" हवलदार ने ताश का पत्ता फेंका।
हीरा बंकर के अंदर गया। खाने की खुशबू का एक भभका उसकी नाक से होता हुआ प्राणों तक पहुँचा। कहाँ से आ रही है ये सुगंध! दुनियाँ की सबसे अच्छी सुगंध।।। वाह! बहुत सारा तैयार खाना बचा पड़ा है! हीरा के हाथ में ठण्डे पानी का गिलास है।।।।अब ये तो पीणा पड़ेगा। एक गिलास पानी गले के नीचे उतारा हीरा ने। अन्नदेवता! हीरा की माँ कहती थी।।।अन्न देवता होता है! भूख राक्स्योंण। अचानक उसके हाथ जुड़ गए।।।देवता! दाल-भात सब्जी-रोटी चावल। इन लोगों पे खाने की कमी नयीं होती।।।।।आज सुबह का होगा ?।।।।। कल का होगा तब भी चलेगा।।।।। परसों का भी होगा तो।।।।।अन्न देवता हैं।।। इस ठण्ड में खराब थोड़े ही होते हैं।।।
पर ना कह दिया तो? ।।।।अब इंसान का कोई पता थोड़े लगता।।। कैसे कैसे टैप के होते हैं।।।।ऐसा नहीं है कि फौजी हैं तो सब अच्छे ही होंगे।।।।खराब भी होते हैं। अनिच्छा से अपमान पूर्वक रोटी-सब्जी मेरी तरफ फेंकी तो? ।।।गले के नीचे कैसे उतारूँगा।।।।।।।
हीरा बंकर से बाहर आया। हवलदार के बगल पर बैठते हुए बोला, ''सर हम लोग कल बकरा मार रे हैं। मीट।।।।।""
''क्या?"" हवलदार का ध्यान हीरा की ओर खिंच गया। पहाड़ी बकरे का मीट! बहुत समय हो गया खाए हुए। उसका टेस्ट कुछ और है।
''हाँ सर! हम दो ही आदमी हैं, बकरा 'टन्न" है। हम तो खा नहीं पायेंगे पूरा बकरा, हमने सोचा।।।।
''तो हमें दे देना यार, पैंसा बता देना?"" ताश का खेल कुछ देर के लिए थम गया था।  
''पंैसा-वैंसा क्या सर, हो जायेगा।।।।।और क्या।।।अब इतना बि क्या है! आप लोग बि तो हमारी रक्षा कर रहे हो! इतना क्या हमारा फरज नहीं होता?""
क्या बात कह दी हीरा ने। फौजियों को अच्छा लगा। प्यार में ताकत तो होती ही है। हवलदार थोड़ा नरम हुआ।
''अरे रक्षक तो आप लोग हो भाई ।।।जो सीमाओं की चौकसी करते हैं। असली रेकी तो तुम करते हो। तुमारा सहारा नहो तो हम भी क्या कर पायेंगे।""
''मैं लेके आऊँगा सर।।।एक पोलीथीन।।।थैला।। कुछ देदो।।"" भोजन की खुशबू से हीरा अधीर हो गया था।
''रामसिंग इनको एक थैला दे दे।।।। ले आणा जितना भी होगा!।।ठीक है।"" हवलदार गड्डी फेंटते लगा।
''चिंता नी करो सर जी।।।। वो तो आजी था पुरगराम हमारा।।बकरे का।।।। पर साथी सामान लेणे गया कल का।।।। अबि तक नयी लौटा।।।। हद है! आज तो सुबह से ही खाणा नी खाया सर।।।कल साम को बि दो आलू बचे थे सिरप।। पता नी काँ टप गया साला।।।।।"" हीरा ने मंगल पर नकली गुस्सा दिखाया।
''अरे! तो बताया क्यों नहीं।।।।"" हवलदार ने कहा। ''अन्दर नैक रामसिंग से बोलो, खाणा बचा है, खालो।""
हीरा फिर बंकर में घ्ाुसा। जै!हो!! सही मन से देवता को चाहो तो मिलता है! भूख राक्स्योंण से अन्न देवता ही हमारी रक्षा करते हैं, माँ ठीक बोल्ती थी। 
हीरा ने धीरज के साथ, मान के साथ खाना खाया।
तृप्ति।।! अन्नमै प्राण।।।। छ खा लिया हीरा ने। आलस छाने लगा अब। लेटना चाहता था हीरा पर।।।बकरियाँ! अब।।।बकरियों की चिंता आलस पर भारी पड़ गई। 
आते समय उसने हवलदार से एक सिगरेट माँगी। एक फौजी ने पूरा पैकेट दे दिया हीरा को। हीरा ने पैकेट जेब में डाला और 'जै हिन्द!" कहकर भरड़ की तरह पहाड़ी पर कुलाँचे भरता बकरियों की तरफ दौड़ पड़ा।।।।।और तो कुछ नयीं पर कहीं चैना बौडर पार न चले जाँय बकरियाँ।
वो हाँफता वहाँ पहुँचा। ऐई श्याब्बास! मेरे पौर्यो।।! उसने कुत्तों को शाबासी दी। बकरियाँ उनकी पहरेदारी में चर रही थीं। बकरियों को रोकने के लिए चाइना की तरफ खड़े थे कालू-धौलू। स्वी।। स्वी।।। उसने प्यार से एक पतली सीटी कालू-धौलू के लिए बजाई। वोक वोक वोक।।।ओक हा! बकरियों के लिए मोहब्बत की हाँक मारी।
साम घ्ािरने लगी थी। ।।खर्क लौटने की बगत हो गई। वोक वोक वोक।।।ओक हा! बकरियों का गोठ इकट्ठे हो कर खर्क के रास्ते लग गया।।।।क्या कहा हवलदार ने।।।। रक्षक तो आप लोग हो भाई ।।।जो सीमाओं की चौकसी करते हैं। असली रेकी तो तुम करते हो। ।।।सही कहा हवलदार ने। वो जानता है।।।। बहुत समझदार लगा मुझे।।। अच्छा पढ़ा-लिखा होगा।।।अच्छे घ्ार का इंसान।।।!
हीरा ने देखा खर्क में धुआँ उठ रहा है। मंगल सिंह आ गया सैद! 
मंगल ने आग जला कर चावल चढ़ा लिए थे। कालू-धौलू के लिए थांग्थू बन चुका था। हरड़ की दाल तैयार थी, हीरा की खास पसंद। मंगल का खट्टा पेट होता है हरड़ खा के।।।। अक्सर वो मना करता हरड़ बनाने को। पर आज उसने खुद बना दी। ।।।भूख के कारण दूसरे पर च्योंग आती है हीरा को!
पर हीरा आग तापते हुए सिध्वाली गुनगुनाने लगा- 
द्वी भाई रमोला, छोमा छोमा। 
घ्ाांघ्ाू का पुत्तर, छोमा छोमा। 
मैंणा का लाड़ला, छोमा छोमा। 
तनि रैका रम्वोला, छोमा छोमा।
सिधुवा-बिधुवा की गाथा।।।वो भी तो पालसी थे।।हमारी तरह! द्वी भाई रमोला।

भादो खत्म होने को था। दो-चार दिन से मौसम साफ चल रहा था। दिन में चटक धूप लगती। पर धूप छुपते ही सरसराती हवा चलने लगती। छ्वोरी खर्क के आगे से बलखाती धौली हवा की ठण्ड बढ़ा देती। हीरा ने धौली की तरफ देखा आह! गंगे तरंगे!
''बैठ भायी मंगल। क्या लगा है तू काम पर।।। अरे हो जायेगा सब!"" हीरा ने लकड़ियों को चूल्हे में ठेलते हुए कहा।
मंगल हैरान है। आज कुछ बात तो है जो हीरा इतना खुश है। हीरा ने जोर की डकार ली। डकार का मतलब? न बीड़ी न तम्बाखू, न खाना न पीना।।।।। डकार आने का क्या मतलब होता है?
हीरा ने जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला। ठक-ठक उंगली से पैकेट को दो बार ठकठकाया। ठीक अपने गांव के ।रिटा0 कैप्टैन दारवीर सिंह रौतेला।। उर्फ दानीका।।।।मतलब दानी काका की तरह। उसी सलीके के साथ एक सिगरेट मंगल की ओर बढ़ाई।
''ये सिगरेट?"" मंगल समझ गया कि कोई फौजी टकरा है। पर उससे पूरा पैकेट कैसे निकल गया! अब कोई फिरी का तो मिलता नयीं फौज में पैले की तरह। पैले तो तारगेट, खुंखरी, नं। 10, गोल्डफलैक सिकरेट, मिलेटरी को फिरी होती थी।।।नौट फार सेल। ।।।उसने बि भौत सिकरेट फूंकी है फौजियों की पैले।।।पर अब।।।
''टिम्बरसैंण में जो बंकर हैं उनमें कुछ फौजी ठहरे हैं।"" हीरा ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा।
''तुमको पता कैसे चला?""
सीमाओं पर चौकसी के लिए बने खाली बंकरों में यदा कदा फौजियों का आना पालसियों के लिए उत्सव हो जाता है। नए चेहरे दिखते हैं। पर कई बार पता नहीं चलता।
''बकरियाँ आज थाली धार की तरफ लगी, वहाँ से दिखता तो है टिम्बरसैंण।""
''हाँ हाँ दिखता है।""
और फिर हीरा पूरा किस्सा सुनाने लगा। धीरे-धीरे। किसी सफल अभियान के नायक की तरह। बीच-बीच में सिगरेट पिलाता गया मंगल को, खुद भी पीता गया। और अंत में ''दुन्याँ में ठाठ हैं लोगों के"" कहकर हीरा दुनियाँ के बारे में सोचने लगा। 

हीरा की दुनियाँ। माने अपना गाँव, जोशीमठ का बाजार, टिम्बरसैंण का बंकर, थाली, लफ्तिल, रिमखिम के बुग्याल और भाबर के जंगल। इस दुनियाँ के बाहर भी एक दुनिया है। वो बहुत बड़ी है। हीरा के खयालों में नहीं समा सकती। बहुत बाहर है। हीरा को नहीं छू सकती। और ठाठ करने वाले लोग हैं फौजी ।।।आर्मी परसन।।। 
ऐशो आराम और बिलासिता के संसार में फौजी नं0 1 हैं। उससे ऊपर हीरा की दुनिया में दिखा नहीं कुछ। वो दु:खी रहता है कि उससे गया-बीता कोई नहीं और खुश भी कि उसके अपने संसार में उससे बेहतर सिर्फ आर्मी परसन हंै। वो सिरप एक सीढ़ी नीचे!
हीरा ने बचपन से फौजियों के ठाठ-बाट देखे। छुट्टी पर घ्ार आना। उनका नाम-नम्बर लिखा काला बक्सा, कई बार तो उसने पहुँचाया है गाँव तक।।।।।। लैंची चने के लालच में। फट्ट-फट्ट करती नयी चप्पलें, उनका सिगरेट पीना। देश विदेश के किस्से हिन्दी में सुनाना। ।।।।।फिट्ट हिसाब किताब रहता आर्मी परसन का।।।। फौजियों के घ्ार पर सजी बैठकें, पीने-पिलाने का दौर।।।। दुन्या-समाज में इसीलिए उनका मान है! 
।।।।हर कोई पूछता है कितनी छुट्टी आये हैं।।। कब जाना है।।। कहां पोस्टिंग है।।। ये किस तरफ हुआ।।। कितने दिन का रास्ता है।।।। कितनी पूछ है उनकी! 
।।।पढ़ लेता तो भर्ती हो जाणा था। साला फिट बौडी थी।।।। ।।।लैन में खड़ा हो गया था लैंसीडोन।।।में।।। तब पता चला कि आठ पास चाहिए। हत्त तेरा भला! सीधे घ्ार आ गया।।।पढ़ने के टैम पे बाप मर गया था। 
हीरा का बाप भी नन्दन मुच्छड़ का पालसी था। वो एक पहाड़ी से बकरियों को पार करने के चर में नीचे लुड़क गया था। तो नंदन मुच्छड़ ने हीरा को 'नौकरी" पर लगा दिया।
आर्मी में न जा पाने का उसे आज भी अफसोस है।
यू आर जस्ट लैक आर्मी परसन। भौत टफ लैफ है।  ।।रिटा0 कैप्टैन दान सिंह रौतेला उर्फ दानीका खुद मेरे को बोला था। 
''।।।।पर सुण यार।।।बकरा बकरा।।"" हीरा चौंका। मंगल उसको हिला हिला कर कुछ कह रहा है। ।।।।हवलदार को बकरा देने वाली बात।।।। ।।।दो मैना हो गया।।।हमने बि मीट नयीं चाखी।।।।मंगल के मुँह में पानी भर आया।
सौदा घ्ााटे का है पर जुबान निकल गई! जुबान भी कोई चीज होती है। बिस देना बिस्वास नहीं। एक बाप की एक जुबान, सौ बाप की सौ जुबान। जो बोल दिया सो बोल दिया। मरद की जुबान।।।। 
''ये बात तो ठीक है!कि जुबान निकल गई तो निभानी है।"" मंगल ने कहा।
''अब देख मंगल, बाग बोल्ता मी खाता, च्यांकू बोल्ता मि खाता, थरबाग बोल्ता मि खाता, मसाण बोल्ता मि खाता अर द्येबी-द्यब्ता बोल्ते हम खाते।।। जो सबकी रक्षा करते हैं वे बि बकरी खाते।।।।तो।।तो।।।ये आरमी वाले बि तो हमारी रक्षा करते।।।""
''ये बिल्कुल सयी बात है!""
''इधर बौडर पे इन लोगों को हमारा भौत सारा रैता है।।बिना हमारे ये कुछ नयी कर पाते।""
''ये तो सयी बात है भाय! क्या कर पायेंगे?""
''दानीका इसलिए तो जस्ट लैक आर्मी परसन बोलता है हमको!""
''दानीका जो बोल्ता एकदम फिट बात बोल्ता है। आल्तु-फाल्तु की बात नयी बोल्ता।""
''आर्मी में कोयी कैप्टैन बण के दिखाये!।।ऐसेयी थोड़ी हो जाता कोयी।""
सुबह उठते ही मंगल थमाली पल्याने लगा। हीरा ने गोठ से 'टन्न" लगोठा छाँटा। जैसा कि जुबान दी थी। चालीस-पैंतालीस किलो मीट निकल गई उस पर। एक सिरी-दो फट्टी खुद रखी और बाकी पैक कर ट्यमर सैंण की तरफ चल दिया।
वहाँ पहुँचा तो बंकर खाली। अरे ये कहाँ निकल गए। जाने के रास्ते जहाँ तक नजर पहुँच सकती थी वहाँ तक नजर दौड़ाई। कहीं नहीं दिख रहे थे। हाँ, उस रास्ते ऊपर आता कोई दिख रहा था।।।।बिणै का जितसिंग। 
""वो तो चले गये वापस। अब तक तो र्योलू बगड़ पहुँच गए होंगे।"" जितसिंग ने कहा।
धोखा!! हीरा की छाती पर जैसे किसीने बहुत बड़ा पत्थर बाँध दिया!
''पर हुआ क्या?""
हीरा कुछ नहीं बोला। कैसे बोलेगा जितसिंग से। बदनामी होगी। और वो बेतहाशा र्योलू बगड़ की तरफ भागने लगा।।।।कोई उसने जानबूझ के थोडे ही किया।।।। हीरा खुद को समझा रहा था?
सुब्दार साब! उसने बाम्पा धार से आवाज दी। नीचे घ्ााटी में वापस जाता हुआ उनका ट्रूप दिख गया था। आवाज पहाड़ियों से टकराती हुई वापस आ रही थी। सैद सुब्दार नयीं सुन रा।।। वे लगातार आगे बढ़ रहे थे। हीरा ने अपनी अनामिका मोड़कर कर मुँह में डाली लम्बी पट्टासुड़ी मारी। स्वी स्वी स्वी स्वी। आवाज पहाड़ियों से टकराती, सन्नाटे को चीरती हवलदार के कानो तक पहुँची। शायद कोई कुछ बोल रहा है। वे रूक गए। रास्ते की लकीर से हवलदार अपनी नजरों को वापस दौड़ाने लगा तो ऊपर उन्हें हीरा आता दिख गया। वो हाथ हिला रहा था।
पता नहीं क्या बात है! वे बैठ कर इंतजार करने लगे। काफी देर बाद पीठ में पिट्ठू लगाये हीरा उनके सामने उपस्थित था। वो हाँफ रहा था।
''क्या बात हो गई?"" हवलदार ने पूछा।
''हद हो गयी सर जी! अरे सर कल बता तो देते कि।।।। ये तो धोखा हो गया था सर जी।"" हीरा ने  पिट्ठू से मीट का थैला निकालते हुए कहा।
थैला देख कर हबलदार सर पकड़ कर हँसने लगा, ""ओहो! यार।।।वो तो कल यूँही।।।।। अरे यार।।तुमने सचमुच।।।। साम को वायरलैस आया।।।कि र्योलू कैम्प पहुँचो।।। अबे यार तुम इतना भाग कर।।।।। बताओ दस किमी होगा।।।। ये पिट्ठू लाद के लाए।।।इतना भारी!"" हवलदार को बड़ा अफसोस था, ''कल की बात पर।।।।सचमुच! वो तो यूंही।।।अब।।।ये तो गलत हो गया।।।गलत हो गया।।।"" 
''तुमने मेरी छाती का पत्थर हटा दिया सर जी!"" 
'' पर ।।।।।!""
''जै हिन्द सुब्दार साब!"" इससे पहले कि हवलदार कुछ सोचे हीरा ने खाली पिट्ठू संभाला और कुलांचे भरता वापस चला आया।