कुत्ते का आत्म समर्पण युवा कथाकार मितेश्वर आनन्द की एक ऐसी रचना है जिसका यथार्थ एक ऐसे पिता के चित्र को सामने लाता जो अपने भीतर की नफरत और सनक के लिए अपने पांच साल के बच्चे को इस कदर प्रताड़ित करता है कि अपनी नफरत और घृणा को तार्किक आधार देने के लिए पिता जब अपने बालक को गवाह की लिए इस्तेमाल करता है तो भयातुर बच्चे को एक झूठ को ही सच की तरह रखना होता है. बहुत ही सहजता से लिखी गई इस कहानी को यदि हम इस तरह से करते है कि यह अभी तक के एक अनाम-से लेखक की कहानी है तो तय है कि कहानी हमे इकहरे पाठ सी दिखेगी, और हो सकता है लेखक के निजि रूप से जानने के कारण भी हम उसका सीमित अर्थो वाला पाठ ही करें, लेकिन यदि काव्यांश प्र्काशन से प्रकाशित हुए मितेश्वर आनंद के कथासंग्र्ह हैंड्ल पैंडल की अन्य रचनाओं को भी पढेगे तो पाएंगे कि देश दुनिया की राजनिति को देखने और समझने के लिए इन कहानियों के कथानक खासे सहायक हो रहे हैं और एक रचनकार की मौलिकता के स्पष्ट हस्ताक्षर हो जा रहे हैं. संग्रह की एक अन्य कहानी, मद्दी का रावण को यहां इसी उद्देश्य के साथ पुन: प्रकाशित किया जा रहा है इस ब्लाग के पाठक एक उर्जावान रचनाकार की रचना से सीधे साक्षात्कार कर सके. इस कहानी की खूबसूरती को देखने के लिए कहानी को पूरा पढ जाने के बाद शीर्षक को दुबारा से पढने की जरुरत है. देख सकते है कि शीर्षक कथापात्र के पुतले की बात कर रहा. कथा पात्र को स्वयं रचनाकार के रूप में रख कर पढ़ें तो लिखी गई कहानी अपने उस औचित्य तक पहुंचने में मद्द कर सकती है जो कहानी के मर्म के रूप में उस अंतिम वाक्य में सिमटा हुआ है, “मेरे ख्याल से संसार में एकमात्र मद्दी ही ऐसा शख्स होगा जिसे रावण के मरने का दुःख मंदोदरी से भी ज्यादा होगा। “हे राम! हाय रे मद्दी! हाय रे तेरा रावण!” कहानी से बाहर जा कर रचनाकार के वक्तव्य को भी यहां देखा जा सकता है, “वैसे मुझे हर आम आदमी में मद्दी दिखाई देता है जो न जाने कब से मंगू एंड गैंग के हाथों ठगा जाता रहा है। उसे सब्ज़बाग दिखाकर उसका इस्तेमाल किया जाता है। बार-बार कोई मंगू उसको झूठे सपने दिखाने में कामयाब हो जाता है। मज़े की बात यह है कि हर दफा मद्दी मंगू झांसे में आ जाता है। अपनी मेहनत और विश्वास उस पर लुटाता है और हर बार मंगू उसकी मेहनत का श्रेय ले जाता है। मंगू मन मसोसकर रह जाता है। फिर एक नया मंगू आता है। फिर से मद्दी का रावण बनने लग जाता है।“ मितेश्वर आनंद के इस संग्रह से परिचित होने का अवसर पिछ्ले कुछ समय से ही दिखायी दिये काव्यांश प्रकाशन, ऋषीकेश के मार्फत सम्भव हुआ. यह देखना दिलचस्प है कि हिंदी प्रकाशन की वर्तमान दुनिया को हाल ही में सामने आये दो प्रकाशकों ने काफी हद तक बदल कर रख दिया है. यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय स्तर पर न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली ने और उत्तराखंड के स्तर पर काव्यांश प्रकाशन, ऋषीकेश ने लेखकों की गरिमा को ससम्मान रखने का जो जेस्चर पोस्चर दिया, उसके कारण लेखक को ही ग्राहक मानने वाली प्रकाशकीय चालबाजियों पर कुछ हद तक लगाम लगी है. लेखक प्रकाशक सम्बंध ज्यादा पारदर्शी हो, हलांकि उस दिशा में यह अभी एकदम शुरुआती जैसी स्थिति है, लेकिन आशांवित कर रही है. विगौ |
कहानी
मितेश्वर आनन्द
मद्दी का रावण
मद्दी एक बहुत ही काबिल, सुसंस्कृत और गुणी लड़का था। यारों का यार। मंगू, मुरारी, बच्ची और लखन उसके जिगरी यार थे। शैतानी में चारों के चारो एक से बढ़कर एक। मद्दी एक शरीफ लड़का था जो अपने दोस्तों के बीच ऐसे ही फँस गया था जैसे कौरवों के बीच कर्ण। मंगू इनका लीडर था। ये चारों बैट-बॉल खेलते रहते तो मद्दी
इनके बस्तों की रखवाली करता। दोस्ती के चक्कर में इसे भी पीरियड गोल करना पड़ता। अक्सर इन चारों के चक्कर में बेचारा मद्दी मास्टर जी के हाथों धुना जाता। मगर दोस्ती फिर दोस्ती ठहरी।
ये पांचों सरकारी मिडिल स्कूल में पढ़ते थे जिसे तंबू वाला स्कूल कहा जाता था। सरकारी स्कूल था सो दसियों साल से बिल्डिंग का नक्शा बजट की राह देखते देखते फाइलों में दम तोड़ चुका था। उधर मंगू और गैंग जैसे बदमाश लड़कों ने तंबुओं में नुकीली चीज़े मार मार कर अनेकों छेद कर दिए थे। इन असंख्य छिद्रों में से कुछेक छिद्रों से आने वाली धूप जब गणित के गुप्ता सरजी की गंजी चाँद पर नव्वे अंश का कोण बनाकर पड़ती तो एक अद्भुत खगोलीय घटना घटती। गुप्ता सर गणित पढ़ाने से ज्यादा विद्यालय के दफ्तरी कार्यों में ज्यादा मगन रहते थे। अक्सर क्लास में वे अपनी कुर्सी पर बैठे बैठे फाइलों के पन्ने उलटते पलटते रहते।
तो होता कुछ यूँ कि ऊपर तंबू के छेद से उनकी चमकदार चाँद पर पड़ने वाली किरणे उनकी शीतल चाँद को अलग अलग कोणों से गरम करती रहती थी। फाइलों के पन्नों में डूबे गुप्ता सरजी भी उसी हिसाब से अपनी चाँद को खुजाते रहते। उनकी चाँद के दक्षिणी ध्रुव को गरमाती हुई धूप उत्तरी ध्रुव की जमा बर्फ पिघला देती और गुप्ता सरजी की सिर खुजाती उंगलियां भी उसी अनुरूप यात्रा करती। बच्चे रोज घटित होने वाली इस अद्भुत खगोलीय घटना पर मन ही मन वाह वाह कर उठते।
दशहरा नज़दीक आ रहा था और इस दौरान ये लोग रोज रात को रामलीला देखने जाते और लौटते समय रावणलीला करते हुए लौटते। एक दिन सुबह स्कूल से भागकर शैतानों की यह टोली दशहरे पर घूमने की प्लानिंग करने लगी । बातों बातों में गैंग के लीडर मंगू ने सुझाव रखा कि क्यों न इस बार रावण का पुतला तैयार करके उसे मोहल्ले में ही जलाया जाए। सभी को विचार भा गया। उसी समय मद्दी ने बड़े गर्व के साथ बताया कि उसे पुतले बनाने और फूँकने का पुराना तजुर्बा था क्योंकि उसने अपने पड़ोसी सुक्खी पहलवान की शागिर्दी में कई नेताओं के पुतले बनाये और फूंके थे। मंगू ने मद्दी की पीठ थपथपाई और ऐलान किया कि आज ही से मोहल्ले के सभी घरों से चन्दा इक्कठा करके रावण के पुतले के लिए पैसे जुटा लिए जाएं। दशहरे से एक दिन पहले मद्दी की बनाई लिस्ट के मुताबिक ततारपुर से सारा सामान ले आया गया और दशहरे के दिन सुबह सुबह मद्दी रावण का पुतला बनाने में जुट गया।
मद्दी ने सबसे पहले सारे समान को खुद उठाकर पुतला बनाने वाली जगह पर सहूलियत से रखा फिर पूरे दमखम से बांस चीरने, कागज काटने, गोंद लगाने, रंग लगाने, लोहे के तार से बांस के जोड़ों को बांधने, ढांचे में पटाखे लगाने जैसे काम करने में लगा रहा। मंगू और बाकी दोस्त बहुत तारीफ भरी नजरों से मद्दी को देखते रहते और बीच बीच में 'शाबाश मद्दी, लगा
रह। तू तो छिपा रुस्तम निकला बे।' कहकर सिर्फ जुबानी जमाखर्च से उसकी
होंसला अफ़ज़ाई करते मगर मजाल क्या किसी एक ने भी मद्दी की सुई उठाने जितनी मदद की हो। इधर मंगू ने ऐलान किया कि उसे भूख लग गयी है सो वह घर जाकर नाश्ता पानी करके आएगा। साथ ही उसने बाक़ियों को निर्देश दिया कि मद्दी पर पैनी नज़र बनाये रखी जाए ताकि वो इधर उधर न होने पाए।
बेचारा मद्दी जो घर से केवल एक कप चाय पीकर काम पर लग गया था उसको किसी ने कुछ नही पूछा। तकरीबन एक घण्टे बाद मंगू वापिस लौटा। लौटते ही उसने पुतला निर्माण में धीमेपन की शिकायत करते हुए मद्दी को फटकारा और उसे तेजी
काम
करने की हिदायत दी। मंगू को नाराज़ देखकर मद्दी की नाश्ता करने की प्रबल इच्छा दब गई। इसी बीच एक एक कर मद्दी के बाकी दोस्त भी अपने अपने घर जाकर खा पीकर लौट आये पर किसी नामुराद ने मद्दी को एक गिलास पानी तक न पूछा। वो तो भला हो सामने वाले शंटी चोखे की मम्मी का जिन्होंने एक बार उसे चाय पिलाई।
होते करते मद्दी ने भूख प्यास और बीच बीच में मंगू की फटकार झेलते झेलते दोपहर के साढ़े चार बजे तक शानदार पुतला तैयार करके खड़ा कर दिया। सात फुट का शानदार रावण का पुतला बना था। पुतले को बांधकर अंतिम रूप से गली के बीचोंबीच खड़ा कर दिया गया। गैंग लीडर मंगू ने चमक भरी आंखों से पुतले को देखा और शाम को सात बजे पुतला फूँकने का समय मुकर्रर किया। मद्दी को 'शाबाश मद्दी' के
अलावा कोई दूसरा शब्द तारीफ का सुनने को नही मिला जैसे दिनभर में उसे शंटी चोखे की मम्मी से मिली चाय के अलावा एक दाना तक नसीब न हुआ था। अब मद्दी को जबरदस्त भूख सताने लगी। पुतला दहन में ढाई घण्टे का समय शेष था। वो घर की ओर दौड़ पड़ा।
इधर मंगू और बाकी दोस्त पुतले के सामने ही खड़े रहे। गली से आते जाते आंटी, अंकल, भैया आदि पुतला देखकर मंगू और टोली की तारीफ करते। उधर मद्दी ज्यों ही घर पहुंचा, उसकी माताजी उस पर टूट पड़ी। दिन भर बिना बताए घर से बाहर रहने पर उसे तमांचे जड़े और जी भरकर डांट पिलाई। समय-समय पर अपने
ऊपर होने वाले माँ के बाहुबल और वाणी के आक्रमणों का मद्दी अभ्यस्त हो चला था। सो उसे कोई फर्क नही पड़ा। दिनभर काम करते रहने से पसीने और धूलमिट्टी से उसके कपड़े बास मारने लगे थे। मद्दी पहले नहाने चला गया उधर ईजा ने मद्दी पर बड़बड़ाते दिन के बने खाने को गर्म किया। नहाधोकर मद्दी ने जमकर खाना खाया और लेट गया। लेटे लेटे उसकी आँख लग गयी।
अचानक आँटी ने उसे झकझोड़ कर उठाया। उठते ही उसके कानों में अपनी माँ के कटु वचनों के साथ-साथ पटाखे फूटने की आवाज़े
सुनी। घड़ी देखी, संतुष्टि हुई कि अभी साढ़े छह ही बज रहे थे। आधा घण्टा शेष था। सो मद्दी इत्मीनान से उठकर पुतले की ओर चल पड़ा। जैसे ही वह पुतला स्थल पर पहुँचा, उसके कदमों तले जमीन खिसक गई। पुतला फूंका जा चुका था उसके अवशेष जमीन पर बिखरे पड़े थे। मंगू और टोली मोहल्ले के लोगों के साथ वही पर मौजूद थी। लोग मंगू की तारीफ कर रहे थे। मंगू और बाकी दोस्तों की नज़र मद्दी पर पड़ी उन्होंने उसे कोई खास भाव नही दिया। उल्टे उसे हड़काते हुए कहा, 'कहां मर गया था रे! सबने जल्दी जल्दी पुतला जलाने पर जोर
दिया इसलिए हमने साढ़े छह बजे ही पुतला जला दिया।
हाय राम! मद्दी के दिल
के भयानक टीस उठी। सारा दिन भूखे प्यासे रहकर उसने पुतला बनाया। दिनभर काम कर करके उसके सभी अंग प्रत्यंग दुख रहे थे। तारीफ के दो शब्द तो छोड़ो मगर इन कमीनों ने रावण फूंकते समय उसे बुलाया तक नही। हे ईश्वर! ऐसे दोस्त तो दुश्मन तक को मत देना। हाय! मैं अपने बनाये रावण को एक
बार ठीक से देख तक न पाया। मंगू, मुरारी, बच्ची और लखन की शैतानियों के किस्सों पर कभी बाद में बात करेंगे मगर आज मद्दी एक बड़ी विदेशी कम्पनी में बड़ा अफसर है। तब का दिन है और आज का दिन है अगर कोई बन्दा गलती से भी मद्दी से दशहरे और रावण के पुतले की बात करता है तो मद्दी उसको मारने उसके पीछे दौड़ पड़ता है। उसके जख्म हरे हो जाते हैं। बेचारे मद्दी की किस्मत, हर साल कोई न कोई नामुराद उसके जख्मों को हरा कर ही देता है। मेरे ख्याल से संसार में एकमात्र मद्दी ही ऐसा शख्स होगा जिसे रावण के मरने का दुःख मंदोदरी से भी ज्यादा होगा।
हे राम! हाय रे मद्दी!
हाय रे तेरा रावण!