समानांतर कहानी आंदोलन से लेखन
में लगातार सक्रिय कथाकार सुभाष पंत ने फरवरी 2023 में अपनी उम्र के 84वें वर्ष को
पार कर 85वें वर्ष में प्रवेश करते हुए अपने पाठकों और शुभचितकों को इस सुखद अहसास
की सूचना को सार्वजनिक किया कि उन्होनें अपने नये उपन्यास “एक रात का फैसला” पूरा कर
लिया है. निश्चित ही पाठक उपन्यास का 2023 में बेसब्री से इंतजार करेंगे. लम्बे समय से रचनारत अपने ऐसे महत्वपूर्ण रचनाकर के सम्पूर्ण
रचना संसार से गुजरने की कोशिश करते हुए यह ब्लाग मार्च माह की सारी पोस्टो को उनसे
सम्बंधित रखते हुए किसी पत्रिका के एक विशेषांक की सी स्थितियाँ बनाना चाह रहा है.
कोशिश रहेगी कि उनके प्रिय पाठक और सहयोगी रचनाकारो तक पहुंचा जाये. उम्मीद है वे अपने अपने तरह से अपना सहयोग अवश्य
देना चाहेंगे. सुभाष पंत जी के नये उपन्यास का एक अंश भी पाठक अवश्य पढ़ पाएंगे. मार्च माह के इस आयोजन की घोषणा के साथ हम यह भी अवगत कराना चाहते हैं कि इस पूरे वर्ष और आगे भी हम 80 की उम्र को पार कर चुके अपने उन मह्त्वपूर्ण रचनाकारो पर केंद्रित करने का प्र्यास करेंगे जो रचनाकर्म में लगातार सक्रिय हैं. यह खुलासा करने में हमें संकोच नहीं कि प्राथमिकता के तौर हम देहरादून के रचनाकार गुरूदीप खुराना, मदन शर्मा और जीतेंद्र शर्मा, डा. शोभाराम शर्मा आदि के रचनाकर्म पर केंद्रित रहना चाहेंगे. पाठकों से हमारा अनुरोध है, वे हमें अन्य शहरो में रहने वाले ऐसे रचनाकारो तक पहुंचा जाए. उम्मीद हैके बारे में अवश्य अवगत कराएंगे ताकि हम उन तक पहुंच सके. आइये भागीदार होते हैं कवि शमशेर की कविता पुस्तक के शीर्षक से शुरु हो रही इस यात्रा के. विगौ |
सुबह का भूला सुभाष
पंत
सुरेश उनियाल
बात 1972 के
जुलाई महीने की थी। उन दिनों कुछ घटनाएं लगभग साथ-साथ घटीं। अवधेश की कहानी सारिका
के नवलेखन अंक में छपी तो यह हम सभी के लिए गर्व का विषय था। मैंने डीएवी कालेज
में हिंदी साहित्य में एम.ए. में एड्मिशन ले लिया था। इसके कई कारणों में से एक तो
यह था कि अवधेश और मनमोहन दोनों ही कालेज में पढ़ रहे थे, वरना मैं तो
चार साल पहले ही गणित से एम.एससी. कर चुका था और उसके बाद से एक लंबी बेरोजगारी
झेल रहा था। बेरोजगारी की वक्तकटी भी एक कारण था और एक तीसरा कारण भी था कि डीएवी
कालेज की लाइब्रेरी में कहानी संग्रहों, उपन्यासों और आलोचना की किताबों का अच्छा संग्रह था और उन
तक पहुंच बनाने के लिए कालेज में एड्मिशन लेना जरूरी था। एक दिन अवधेश ने अपनी
क्लास के एक सुभाष पंत से परिचय कराया जो कई साल पहले गणित में ही एम.एससी. कर
चुका था, अब
एफ.आर.आई. (वन अनुसंधान संस्थान) में वैज्ञानिक के रूप में काम कर रहा था और सबसे
बड़ी बात यह कि उसकी एक कहानी सारिका में प्रकाशन के लिए स्वीकृत थी। हमारे लिए यह
तीसरी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण थी। मेरे और मनमोहन व अवधेश के अलावा नवीन
नौटियाल भी डीएवी कालेज में पढ़ा रहा था। बहुत देर तक हम चारों साथ रहे। सुभाष को
हम लोगों ने शाम को डिलाइट में आने के लिए आमंत्रित भी कर लिया। आग्रह था कि अपनी
वह कहानी और संभव हो तो कुछ और कहानियां भी ले आए।
डिलाइट हमारे बैठने का अड्डा था।
देहरादून के घंटाघर के बगलवाले न्यू मार्किट की इस चाय की इस दुकान में शहर के
लगभग वे सभी लोग इकट्ठा होते थे जो खुद को बुद्धिजीवी मानते थे। इनमें लेखकों के
अलावा कुछ पढ़ाकू किस्म के लोग भी होते थे, राजनीतिक
लोग भी होते थे लेकिन वे हमारी मेज पर कम ही आते थे। कभी कोई दिलचस्प चर्चा छिड़
जाती तो अपनी जगह पर बैठे-बैठे उनकी और से भी टिप्पणी आ जाती। शाम को डिलाइट में
हमारी मंडली जमी। मैं,
मनमोहन, अवधेश,
देशबंधु और नवीन आदि कुछ मित्र रोज शाम को वहां जमा हुआ ही करते थे। इस सूची
में उस दिन सुभाष पंत का नाम और जुड़ गया। उस शाम हमने सुभाष से तीन कहानियां
सुनीं। पहली तो वही थी,
‘गाय का दूध’ जो जल्द ही सारिका में छपने जा रही थी। सुभाष के पास इस कहानी की
स्वीकृति के लिए कमलेश्वर का हाथ से लिखा पत्र भी था जिसे हमारे आग्रह पर उसने
दिखाया भी था। वह हम सब को बहुत ज्यादा प्रभावित करने के लिए काफी था। यह आदिवासी
इलाके की पृष्ठभूमि पर लिखी गई थी। उस इलाके में कोई गाय नहीं है और एक अफसर के
नवजात बच्चे के लिए गाय के दूध की सख्त जरूरत है। उसका एक चपरासी उससे बच्चे के
लिए रोज दूध का इंतजाम करने का वादा करता है और लाता रहता है। तबादला होकर जब वह
जाने लगता है तो चपरासी को इनाम तो देता ही है लेकिन उससे कहता है कि वह उस गाय को
देखना चाहता है। गाय होती तो वह दिखाता। अफसर के सामने वह अपनी बीवी को ले आता है
और कहता है कि साहब यह रही मेरी जोरू और आपके बेटे की गाय। कमलेश्वर के समांतर कहानी
के पैमाने पर यह पूरी तरह से खरी उतरती थी। ओ हेनरी की शैली में होनेवाला कहानी का
अंत सबको चौंकाता था।
दो कहानियां और सुनाई सुभाष ने
और वे दोनों ‘गाय का दूध’ से बेहतर लग रही थीं लेकिन पता चला कि उनमें से एक
सारिका को भेजी गई थी,
लेकिन वह कमलेश्वर के उसी हस्तलेख में लिखे पत्र के साथ वापस आ गई। वह सारिका
के मिजाज की कहानी नहीं थी। वे कहानी सारिका के समांतर दौर के थीम की नहीं थी
जिनमें आम आदमी किसी तरह अपने को बचाए रखने के लिए एक जगह खड़ा हाथ-पैर पटकता था, बल्कि
वह तो हालात बदलने के लिए संघर्ष के लिए प्रवृत्त करने वाली कहानी थी। वे सीधी बात
करने वाली कहानियां थीं। वे मजेदार नहीं, तकलीफदेह कहानियां थीं। इसके बाद हुआ यह कि सुभाष ने इस
दूसरी तरह की कहानियों को लिखना छोड़ दिया और कमलेश्वर की समानांतर के किस्म की
कहानियां लिखने लगा। आज सोचता हूं कि अगर सुभाष की वह कहानी सारिका में न छपी होती
तो आज वह एक दूसरी तरह का लेखक होता।
ये सब हालांकि सुभाष की शुरुआती
कहानियां थीं,
लेकिन खासी मेच्योर थीं। सुभाष की कहानियां किस्सागोई का अंदाज लिए होती हैं
लेकिन साथ ही चुस्त जुमले और भीतर गहरे में एक व्यंग्य भी इनमें होता था। सुभाष के
पास एक गजब की कल्पना शक्ति थी और पूरी तरह दिमाग से निकले चरित्रों की छोटी से
छोटी डिटेल सुभाष इस तरह बुनता हुआ चलता था कि काल्पनिक होते हुए भी वे यथार्थ की
दुनिया से उठाए गए पात्र लगते थे। सुभाष ने कहानी कहने का अपना जो तरीका लेखन की
शुरुआत में खोज लिया था,
उस पर आज भी अमल कर रहा है। उन सारी मार्मिक स्थितियों में जहां आम तौर पर
लेखक पाठक को भावनाओं में डुबाने की कोशिश करते हैं, वहां सुभाष
बहुत ही तटस्थता के साथ छोटी से छोटी डिटेल के साथ कहानी को बुनते हुए कमाल का असर
पैदा कर देता है। कहीं-कहीं आपको ये डिटेल्स कुछ ज्यादा उबाऊ लग सकती हैं लेकिन
कहानी का प्रवाह आपको कहानी के साथ बनाए रखने के लिए बाध्य भी किए रहता है। उनके
सहज से लगते वाक्यों में एक तीखा व्यंग्य तो होता ही है, जबरदस्त
पठनीयता भी होती है। हम सब पर सुभाष पंत की रचनात्मकता का रौब पड़ चुका था।
इसके बाद से सुभाष देहरादून की
साहित्यिक गतिविधियों का एक जरूरी हिस्सा बन गया था।
करीब एक साल बाद मैं देहरादून
छोड़कर दिल्ली आ गया था लेकिन देहरादून की नागरिकता मैंने कभी छोड़ी नहीं। साल की
गर्मियों में एक-डेढ़ महीना तो मेरा देहरादून में ही बीतता था। इसके अलावा जब भी
कोई महत्वपूर्ण गतिविधि वहां होती, मैं पहुंच ही जाता था।
समानांतर कहानी का दौर था और
कमलेश्वर की निकटता के कारण सुभाष को देहरादून में कमलेश्वर का ध्वज वाहक बनना ही
था। लेकिन समानांतर को लेकर मेरे मन में कुछ सवाल थे। इन सवालों को लेकर सुभाष से
काफी बहसें भी हुईं लेकिन इन मतभेदों का हमारे आपसी रिश्तों पर कभी कोई असर नहीं
पड़ा। बल्कि सुभाष ने मुझे समानांतर के राजगीर सम्मेलन में आने का निमंत्रण भी दे
दिया ताकि ज्यादा करीब से इस सब को देख सकूं। मैं गया भी। कमलेश्वर से वहां पहली
मुलाकात हुई।
उन दिनों मैं दिल्ली में नेशनल
बुक ट्रस्ट में काम कर रहा था। एक दिन सुभाष का पत्र मिला कि सारिका में सब-एडिटर
की जगह निकली है और कमलेश्वर चाहते हैं कि मैं उसके लिए एप्लाई करूं। यह मुझे बाद
में पता चला कि दरअसल कमलेश्वर सुभाष को सारिका में लेना चाहते थे लेकिन सुभाष देहरादून
छोड़ने की स्थिति में नहीं था और उसने अपने बदले मेरी सिफारिश की थी। कमलेश्वर
मुझसे मिलना चाहते थे और राजगीर का निमंत्रण मुझे उसी सिलसिले में दिया गया था।
लेकिन राजगीर में न तो कमलेश्वर ने और न ही सुभाष ने इस बारे में मुझसे कोई बात की
थी।
उन दिनों सुभाष ने एक उपन्यास
लिखना शुरू किया था। कालेज जीवन पर आधारित था और नाम था: ‘महाविद्यालय, एक
गांव’। उसके कुछ अंश देहरादून में सुने भी गए थे। माहौल हम लोगों का परिचित था।
कुछ आइडिया मैंने भी दिए। मेरे सारिका में जाने तक सुभाष उस उपन्यास को लेकर खासा
उत्साहित था। उसके कुछ अंश मैं सारिका के लिए ले भी गया था। वे छपे तो उनकी खासी
तारीफ भी हुई। लेकिन जब मैं छुट्टियों में देहरादून गया तो पता चला कि उपन्यास
जितना लिखा गया था,
उसके बाद आगे बढ़ाया ही नहीं गया। सुभाष को उसमें कोई संभावना नजर नहीं आ रही
थी। मेरे खयाल से यह एक बेहतर उपन्यास की भ्रूण-हत्या थी।
सारिका दिल्ली आई तो मैं भी मुंबई
से दिल्ली आ गया और नियमित तौर पर देहरादून जाने का सिलसिला शुरू हो गया। छोटे शहर
का एक फायदा यह होता है कि आदमी हर तरह की गतिविधियों से जुड़ सकता है। देहरादून
में थिएटर का सिलसिला शुरू हुआ तो सुभाष उसका एक अहम हिस्सा था। बंसी कौल ने थिएटर
वर्कशाप की और सबसे पहले मोहन राकेश का नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ खेला गया। सुभाष ने
तो नहीं लेकिन उनकी पत्नी हेम ने उस नाटक में अभिनय भी किया था।
क्षमा चाहूंगा, हेमजी
के बारे में लिखना तो मैं भूल ही गया था। मेरे खयाल से सुभाष जो कुछ भी हैं उसकी
सबसे बड़ी वजह हेम का उनकी पत्नी होना है। सुभाष जैसे अपने प्रति लापरवाह आदमी को
सही तरीके से मैनेज करना उन्हीं के बस की बात थी। हम लोग जब उनके घर जाते तो ऐसा
लगता ही नहीं था कि हम अपने घर पर नहीं हैं। लंबी-लंबी साहित्यिक गप्प-गोष्ठियों
के बीच सही अंतराल पर बिना मांगे चाय आ जाती थी। और ऐसा भी नहीं कि वह रसोई में ही
लगी हों, हमारे
बीच बैठकर बहसों में भी पूरी हिस्सेदारी होती थी। होता यह था कि कई बार सुभाष की
किसी कहानी को हम संकोच वश ज्यादा उधेड़ते नहीं थे लेकिन वह बड़ी बेरहमी से उसकी खाल
खींचकर रख देतीं। उनकी उस खुशमिजाजी को देखते हुए कोई बता नहीं सकता था कि वह हाइपरटेंशन
की मरीज हैं। आज भी उनके इस मिजाज में कोई परिवर्तन नजर नहीं आता।
बात नाटकों की हो रही थी। सुभाष
देहरादून के पहले थिएटर ग्रुप ‘वातायन’ के संरक्षकों में से थे। उसी दौर में
उन्होंने एक नाटक भी लिखा था,
‘चिड़िया की आंख’। देहरादून में उसके काफी शो भी हुए। एक नाटक सुभाष पंत के
निर्देशन में भी हुआ था। नाटकों की सफलता को देखते हुए जल्द ही शहर में कई थिएटर
ग्रुप पैदा हो गए। यह देखकर सुभाष ने धीरे-धीरे थिएटर से किनारा कर लिया। इस दौरान
सुभाष कहानियां भी लिखते रहे। उनके दो कहानी संग्रह ‘तपती हुई जमीन’ और ‘चीफ के
बाप की मौत’ प्रकाशित हो चुके थे। और मजे की बात यह रही कि एक उपन्यास भी सुभाष ने
शुरू किया। नाम था,
‘सुबह का भूला’। उपन्यास के मामले में सुभाष का इतिहास देखते हुए मुझे तो कम से
कम उम्मीद नहीं थी कि वह उपन्यास भी पूरा हो सकेगा। लेकिन ‘सुबह
का भूला’ घर लौट आया था। सुभाष ने सचमुच यह उपन्यास पूरा कर लिया।
यह मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य था।
फिर सुभाष ने एक तीसरा उपन्यास
शुरू किया,
‘पहाड़ चोर’। इस बात को करीब तीस साल हो गए होंगे। सुभाष ने करीब पचास पेज लिख
लिए थे। तय हुआ था कि सुनने के लिए मसूरी चला जाए। मैं और नवीन नैथानी सुभाष के
साथ एक सुबह मसूरी पहुंच गए। कैमल्सबैक रोड के सुनसान रास्ते के थोड़ा ऊपर बांज के
एक पेड़ के नीचे बैठकर हमने वह उपन्यास सुनना शुरू किया। तय था कि आधा सुनने के बाद
जीत रेस्तरां जाकर चाय पीएंगे और फिर आकर बाकी सुनेंगे। लेकिन जब पढ़ा जाना शुरू
हुआ तो बीच में से उठने का मन ही नहीं हुआ।
इस बार सुभाष ने विषय उठाया था
चूना पत्थर खदानों के उस जंजाल का जो न सिर्फ पहाड़ों का पर्यावरण खराब कर रहा था
बल्कि उस क्षेत्र में रहनेवाले लोगों की जिंदगी के लिए खतरा भी बन गया था।
देहरादून के सहस्रधारा क्षेत्र के जिस गांव झंडू खाल को सुभाष ने इस उपन्यास के
केंद्र में लिया था वह एक वास्तविक गांव था जो इन खदानों की भेंट चढ़ गया था। कई
बरस पहले उस गांव का अस्तित्व खत्म हो गया था। चमड़े का काम करने वाले उस गांव के
चरित्रों के लिए सुभाष ने जरूर कल्पना का सहारा लिया, लेकिन
देहरादून के आसपास के किसी भी पहाड़ी गांव का समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र इससे
भिन्न नहीं होता।
विषय अच्छा था। अच्छे से ज्यादा
महत्वपूर्ण था। पर्यावरण की दृष्टि से ही नहीं, इनसानी आबादी
के साथ किए जाने वाले छल को लेकर भी सुभाष अपने इस उपन्यास में सवाल उठाता नजर आ
रहा था। इसलिए मैं नहीं चाहता था कि ऐसा विषय किसी भी स्थिति में एक बार फिर सुभाष
की लापरवाही का शिकार बने। शायद कोई नहीं चाहेगा।
अगली बार देहरादून पहुंचा तो
जाहिर है कि सुभाष से मुलाकात में पहला सवाल उस उपन्यास को लेकर ही था और उम्मीद
के मुताबिक वह वहीं का वहीं था। वही करीब पचास पेज। काफी लानत-मलामत के बाद इस
शर्त पर सुभाष को बख्शा गया कि अगली मुलाकात तक उस पर जरूर कुछ न कुछ काम हो चुका
होगा। एक सकारात्मक बात यह थी कि हर बार सुभाष ने उस उपन्यास को आगे बढ़ाने की
उम्मीद जरूर जताई। यह सिलसिला करीब दस साल चला। उपन्यास एक बार अटका तो अटका ही
रहा। बल्कि इन सालों में वह पचास पेज भी सिलसिलेवार नहीं रह गए थे। बीच के कुछ पेज
कहीं खो गए थे।
फिर सुभाष रिटायर हो गया। खाली
समय में सुभाष का लेखक एक बार फिर पूरे जोश के साथ सक्रिय हो उठा। इस दौरान सुभाष
ने खबर दी कि उपन्यास के खोए हुए पेज मिल गए हैं और सुभाष ने उस पर आगे काम शुरू
कर दिया है। उन्हीं दिनों एक अच्छी बात यह भी हुई कि सुभाष ने कंप्यूटर ले लिया और
अब वह उपन्यास उसमें था। हर बार उसमें कुछ पेज जुड़े देखकर अच्छा लगता था। एक अच्छी
बात यह थी कि बीच में एक लंबा अरसा गुजर जाने के बाद भी उपन्यास की रवानी में कोई
फर्क नहीं आया।
‘पहाड़ चोर’ में सुभाष कहानी कहते हैं एक गांव झंडू खाल की।
हरिजनों के इस
गांव को चूना पत्थर माफिया के
कारण एक दिन नक्शे पर ही से गायब हो जाना पड़ा था। कागजों पर से ही नहीं, वास्तव
में भी। यह आज़ादी के
फौरन बाद के
उस दौर की कहानी है जब गांवों के भोले लोग राम राज्य के सपने देख रहे
थे, जब
वह समझ रहे थे कि सुराज के
रूप में उनके लिए किसी स्वर्ग के द्वार खुल जाएंगे। और ऐसे में उनके लिए द्वार
खुलते हैं उस नरक के
जो उनके जीने
के हर साधन को एक-एक करके
उनसे छीनता चला जाता है।
यहां हर पात्र की अपनी कहानी है, उनके सपनों की
कहानी है। उनके
छोटे-छोटे सुखों और उसके पीछे छिपे पहाड़ से दुखों की कहानी है। कहानी उस दिन
शुरू होती है जिस दिन जीपों का एक काफिला इस गांव में आकर रुकता है। सामने वह पहाड़
था जो उनके लिए
सोने की खान साबित होने जा रहा था। वहां तक अपनी मशीनों को ले जाने और वहां से
पत्थर को लाने वाले गट्टुओं के
लिए रास्ते की जरूरत थी और वह रास्ता इसी गांव वालों के खेतों में से
बनाया जाना था। पत्थर निकालने के
लिए मजदूरों की फौज भी तो इसी गांव से मिलनी थी। गांव में दो दल बन जाते हैं।
कुछ को कंपनी उनकी समृद्धि का रास्ता लगती है तो कुछ उसे अपने खेतों को हड़पने वाली
राक्षसी क¢
रूप में देख रहे हैं।
कंपनी के पास पैसे की
ताकत है और गांव वालों को देने के
लिए सपनों का खजाना। और गांव के
ऊपर का पहाड़ ट्रकों में भरकर जाने लगता है। इसके साथ ही उनकी
एक-एक चीज छिनकर जाने लगती है। पहले उनके हाथ से जंगल जाता है जहां से वे अपने पशुओं के लिए चारा, चूल्हे
में जलाने के
लिए लकड़ी,
सब कुछ लाते थे। फिर पानी छिनता है। जो धारा बारहों महीने चौबीस घंटे मीठे
पानी का स्रोत बना होता था,
अचानक सूख जाता है। गांव में त्राहि मच जाती है। वे कंपनी के साथ असहयोग
करते हैं। अपने गाड़ियों को रोकने लगते हैं। और देखते हैं कि कुछ दिन काम रुकने पर
फिर से धारे में पानी वापस आ गया है। लेकिन जब कंपनी के कुछ अफसर गांव में पानी की
लाइन लाने के वादा करके गांववालों से अपना आंदोलन वापस लेने के लिए तैयार करने की
कोशिश करते हैं तो एक बार फिर गांव दो गुटों में बंट जाता है और अंततः काम फिर से
शुरू हो जाता है।
बरसात गांव के लिए एक और आपदा
बनकर आती है। जो जंगल बारिश के पानी को अपने में समेटकर धारों के रूप में पूरे
साल में धीरे-धीरे वापस करते थे,
वे तो रहे नहीं। पत्थर और मिट्टी के ढूह पानी को रोकना तो दूर, उसके साथ पूरे जोर
के साथ गांव पर टूट पड़ते हैं। पहले गांव के कुछ घर की इस संकट से दो-चार होते हैं, लेकिन
साल दर साल संकट बढ़ता जाता है और एक दिन गांव को ही लील जाता है।
‘पहाड़ चोर’ सुभाष की बाकी रचनाओं से हर लिहाज से अलग था।
विषय के लिहाज से भी और ट्रीटमेंट के लिहाज से भी। पहाड़ के जंगलों के विवरण
हालांकि सुभाष ने कल्पना से ही तैयार किए थे विभिन्न मौसमों में होनेवाले वानस्पतिक
परिवर्तनों को जिस बारीकी के साथ चित्रित किया गया था, वह अद्भुत
है। इसके लिए सुभाष को अपने एफ.आर.आई. के अनुभवों का आभारी होना चाहिए।
मैं उपन्यास को पैनड्राइव पर अपने
साथ ले आया। एक एक्सपर्टाइज तो मेरा था, सबिंग का। उसे प्रेस में भेजने लायक बनाया। राजपाल एंड संस
ने इसे छापा। समीक्षाओं के लिए प्रकाशक के पास कोई कापी नहीं थी। इससे पहले कि
समीक्षाओं का कोई सिलसिला शुरू किया जाता, उपन्यास का
पहला संस्करण बिक गया। दूसरा संस्करण छापने के लिए अब प्रकाशक तैयार नहीं हैं। एक
बेहतरीन उपन्यास इस तरह से एक स्वार्थी प्रकाशक की निर्ममता का शिकार होकर अचर्चित
ही रह गया। वैसे मैं यह दावे से कह सकता हूं कि अगर प्रकाशक ने उसकी सही ढंग से
मार्किटिंग की होती और समीक्षा के लिए किताबें देने में उदारता दिखाता तो उसके
एक-दो नहीं बल्कि कई संस्करण अब तक छप और बिक चुके होते।
इस बीच सुभाष के दो कहानी संग्रह
‘मुन्नीबाई की प्रार्थना’ और ‘जिन्न और अन्य कहानियां’ प्रकाशित हो गए थे। इन्हें
नए संग्रह तो नहीं कह सकते क्योंकि कुछ नई कहानियों के साथ-साथ कुछ पुरानी
कहानियां भी इसमें डाल दी गई थीं।
उन्होंने अपनी कहानियों के लिए
एक ऐसा केंद्रीय थीम चुना जो कभी पुराना नहीं पड़ सकता। जो आज भी उतना ही मोजूं है
जितना बीस,
तीस या चालीस साल पहले था। यह विषय था आज़ादी से मोहभंग का; उनके
पात्र उस उम्र के हैं जिसमें उन्होंने आज़ादी से पहले के वक्त को भी देखा है और
आज़ादी के बाद के वक्त को भी। देखा ही नहीं जिया भी है। कुछ सपने उन्होंने पाले थे
आज़ादी को लेकर और आज वे इन सपनों को टूटता महसूस कर रहे है। सपनों को हम टूटते हुए
देखते हैं। ‘मुन्नीबाई की प्रार्थना’ की बात करें तो चाहे ये सपने शीर्षक कहानी की
मुन्नीबाई के हों या ‘म्यान से निकली तलवार’ के ‘मैं’ के, ‘दूसरी आज़ादी’
के कोल्टे की हो या ‘खिलौना’ के नेकराम उर्फ निक्का बादशाह के। इन सब कहानियों में
वह आज़ादी के बाद के उसी मोहभंग की बात करते हैं जो एक जमाने पहले हिंदी कहानियों
का विषय हुआ करता था। और आज के लेखक इसे लगभग भूल ही चुके हैं। लेकिन उस दौर में
और आज के दौर में एक बड़ा फर्क यह आ गया है कि इन पचास सालों में हमारे मूल्य बहुत
बदल गए हैं। जिन बातों को लेकर पचास साल पहले हम चौंकते थे वे आज हमें सामान्य
लगती हैं। ‘खिलौना’ कहानी के नेकराम के निक्का बादशाह बनने की प्रक्रिया में हम इस
परिवर्तन की क्रमिकता को देख सकते हैं।
जिन्न और अन्य कहानियां की
शीर्षक कहानी अलादीन के चिराग के जिन्न की कहानी को एक नए परिप्रेक्ष्य में पेश
करती है। गरीब मछुआरे सदाशिव के जाल में एक बोतल फंस जाती है जिसे खोलते ही उसका
जिन्न बाहर आ जाता है। जिन्न उसका हर काम करने के लिए तैयार है लेकिन उसकी एक शर्त
है, जब
उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो जाएं तो उसे तीन दिन के भीतर इस बोतल को बेचना होगा।
अगर न बेचा तो उसकी सारी संपत्ति नष्ट हो जाएगी और वह घोर विपत्ति में फंस जाएगा।
इस बोतल को बेचने के लिए भी एक शर्त है कि वह बोतल की खूबियों को ग्राहक के सामने
नहीं दिखाएगा। एक शर्त यह भी थी कि जितने दाम पर ग्राहक उससे यह बोतल खरीदेगा, अपनी
इच्छा पूरी होने के बाद तीन दिन के भीतर उससे कम दाम पर दूसरे ग्राहक को बेच देगा।
यह शर्त उसके लिए एक ऐसी दौड़ की शुरुआत कर देती है जिसके लिए उसकी अपनी ज़िंदगी नरक
के समान हो जाती है उसे बाकी ज़िंदगी भर भागते रहना पड़ता है। पाने और पाते रहने की
इच्छा उसका वह छोटा सा सुख भी छीन लेती है जो अभाव में उसे गरीब को मिल रहा था, छोटी-छोटी
खुशियों से खुश होने का सुख।
सुभाष पंत ने शुरुआत तो समांतर
कहानी आंदोलन के साथ की थी। समांतर कहानी उस दौर की जरूरत थी या नहीं, इस
पर बहस हो सकती है लेकिन आज स्थितियां उस दौर से ज्यादा भयावह हैं और आज का आम
आदमी सत्तर के दशक के उस आम आदमी के मुकाबले कहीं ज्यादा तकलीफों से गुजर रहा है। सत्ता
के अपराधीकरण,
धर्म के रानीतिकीकरण और बाज़ार के वैश्वीकरण के बाद ये तीनों ताकतें आज कहीं
अधिक विकराल रूप में सामने हैं। इन्होंने मिलकर उसके बहुत से हक एक-एक करके उससे
छीन लिए हैं। काम की जगहों पर आज काम की शर्तें उसके लिए मुश्किल बनती जा रही हैं।
बाज़ार में उसे जिस तरह मुनाफाखोरी की ताकत के आगे पिसने के लिए छोड़ दिया गया है, उसने
उसका जीना और भी मुहाल कर दिया है। धर्म के नाम पर, आतंकवाद के
नाम पर मारे जाने के लिए सबसे आसान शिकार उसे ही बना दिया गया है।
देखा जाए तो सुभाष पंत की
कहानियां किसी आंदोलन की मोहताज नहीं थीं। उन्होंने अपनी कहानियों के लिए एक ऐसा
केंद्रीय थीम चुना जो कभी पुराना नहीं पड़ सकता। जो आज भी उतना ही मोजूं है जितना
बीस, तीस
या चालीस साल पहले था। यह विषय था नेहरूवाद से मोहभंग का; उनके पात्र
उस उम्र के हैं जिसमें उन्होंने आज़ादी से पहले के वक्त को भी देखा है और आज़ादी के
बाद के वक्त को भी। देखा ही नहीं जिया भी है। कुछ सपने उन्होंने पाले थे आज़ादी को
लेकर और आज वे इन सपनों को टूटता महसूस कर रहे है।
‘पहाड़ चोर’ के पूरा हो जाने से उत्साहित सुभाष ने एक उपन्यास
और शुरू किया। आडवाणी की रथयात्रा और बाबरी मस्जिद के गिराए जाने की खबरों से आम
आदमी के मनोविज्ञान और व्यवहार में जिस तरह के बदलाव आए हैं, लोगों
के बीच के आपसी रिश्ते जिस तरह से बदले हैं, उसी की एक
पड़ताल इस उपन्यास में आए थे। यह शुरुआत से आगे नहीं बढ़ सका।
इसके बाद सुभाष ने एक और उपन्यास
शुरू किया,
महानगरों की मॉल संस्कृति पर। एक आदमी एक मॉल में जाता है और वहां कहीं खो
जाता है। विषय हालांकि लंबी कहानी का था लेकिन सुभाष का मन इस पर उपन्यास लिखते का
बन गया। यह भी कहीं दस-बीस पन्नों में अटका पड़ा है।
उपन्यासों का इस तरह से गर्भपात
लगता है सुभाष का अंदाज ही बन गया है। लेकिन 84 साल की उम्र पूरी
कर लेने के बाद भी उनकी कहानियां लगातार आ रही हैं। संवेदना की गोष्ठियां भी
देहरादून में निरंतर हो रही हैं और सुभाष की उपस्थिति उनमें नियमित रूप से बनी
रहती है। वहां वह कुछ न कुछ सुनाते हैं और सुनाने में वही उत्साह होता है जो जवानी
के दिनों में होता था। कहानियां पर साथियों की आलोचनाओं को आज भी वह गंभीरता से
लेते हैं और उनकी शंकाओं का दूर करने की पूरी कोशिश करते हैं।
एक अच्छी बात यह है कि उम्र के 84 पड़ाव पार कर लेने के बाद भी उनकी कलम अभी निरंतर चल रही है। उनकी हाल की कुछ
कहानियों में मुझे उस तरह के तेवर लौटते नजर आए हैं जो सारिका में कहानी छपने से
पहले की कहानियों के थे। मैं तो इसे एक सकारात्मक बदलाव मानता हूं।
Sureshuniyal4@gmail.com