चिनुआ अचीबी अफ्रीका के जीवित महा कथापुरुष हैं और कहा जाता है कि अफ्रीका को जानना है तो इतिहास की किताबों की बजाय चिनुआ अचीबी का कथा साहित्य पढना चाहिए.उन्हें नोबेल छोड़ दें तो दुनिया के लगभग सभी बड़े साहित्यिक पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं.यहाँ प्रस् तुत है पचास साथ साल पहले लिखी उनकी एक बेहद मार्मिक कहानी...इस कहानी की खास बात यह है कि यदि नाम और स्थान को भूल जाएँ तो यह पूरी तरह से भारतीय समाज से उपजी हुई एक कहानी लगती है. ब्लॉग के पाठक मित्रों के लिए यहाँ प्रस्तुत है वह कहानी:
प्रस्तुति: यादवेन्द्र
एक शाम लागोस के अपने कमरे में बैठे बैठे नेने अचानक नेमेका से पूछ बैठी:
तुमने अपने पिताजी को चिट्ठी लिख दी?
नहीं,मैं अभी सोच ही रहा था.मुझे लग रहा है कि चिट्ठी लिखने की बजाय जब
छुट्टी में घर जाऊंगा तो सामने बैठ कर ही बता दूंगा.
पर ऐसा क्यों?अभी तो तुम्हारी छुट्टी बहुत दूर पड़ी है..पूरे छह हफ्ते
.हमारी ख़ुशी में उनको शामिल होने का पूरा हक़ है
थोड़ी देर के लिए नेमेका खामोश बना रहा,फिर लगभग फुसफुसा
पहले यह तो भरोसा हो कि इस खबर से उनको ख़ुशी मिलेगी.
बिलकुल मिलनी चाहिए....नेने ने जोर दे कर कहा...तुम्हें इसमें शंका क्यों
हो रही है?
तुम तो सारी उमर लागोस जैसे शहर में रही...दूर दराज के गांवों में रहने
वाले लोगों के बारे में तुम्हें क्या पता.
तुम हमेशा यही कहते हो.पर यह मेरी समझ से परे है कि उनके बेटे की शादी
तय हो जाये और वो इस से उन्हें दुःख पहुंचे...यह तो बिलकुल इल्ति रीत
हुई.
बिलकुल सही,उनको गहरा सदमा लगेगा जब उनके तय किये बगैर बेटे की शादी
पक्की हो जाये.हमारे मामले में तो और भी फजीहत होगी...तुम तो मेरी जाति
की भी नहीं हो.
यह बात इतनी गंभीरता से और इतने नंगे रूप में कही गयी थी कि नेने को थोड़ी
देर तक तो साँस भी नहीं आई,बोलना मुहाल.बड़े शहर के माहौल में पली बढ़ी
नेने के लिए यह कल्पना से परे था कि किसी युवक की बिरादरी उसकी शादी के
लिए लड़की तय करेगी.
थोड़ा ठहर कर उसने कहा: तुम यही कहना चाहते हो कि उनको इसी बात पर सबसे
ज्यादा एतराज होगा कि तुम बिरादरी से बाहर शादी कर रहे हो? मुझे हमेशा से
यही लगता रहा कि तुम्हारी बिरादरी दूसरे लोगों के प्रति बड़ी उदार है.
बात सही है कि हम ऐसे ही हैं.पर जब शादी का मामला सामने हो तो सारी
उदारता गयी घास चरने.पर यह सिर्फ मेरी बिरादरी का सच नहीं है...उसने
कहा...आज यदि तुम्हारे पिता जी
रहते होते तो बिलकुल मेरे पिता जैसा ही बर्ताव करते.
मुझे नहीं मालूम क्या करते.पर तुम तो अपने पिता के इतने लाडले बेटे
हो...वो तुम्हें जल्दी ही माफ़ कर देंगे.अब अच्छे बच्चे की तरह फटाफट
कागज कालम लो और उनको एक प्यारी सी चिट्ठी लिख डालो.
मुझे लगता है कि चिट्ठी लिख कर उन तक यह बात पहुँचाना अच्छी बात नहीं
होगी...चिट्ठी उनको एक तीर की तरह जा कर चुभेगी..इस बारे में मुझे कोई
शुबहा नहीं.
ठीक है डिअर..जैसा ठीक लगे वैसा ही करो.आख़िर तुम्हीं अपने पिता को जानते हो.
शाम को जब नेमेका अपने कमरे पर लौटा तो उसके मन में शादी के लिए अपनी
पसंद की लड़की चुन लेने की बात पर पिता के क्रोध से निबटने के लिए तरह तरह
की तरकीबें आती रहीं.बार बार उसके मन में चिट्ठी भेजने से पहले नेने को
दिखा लेने की बात आती रही पर अंत में उसने यही तय पाया कि इसके लिए यह
सही समय नहीं है.कमरे पर पहुँच कर उसने पिता को लिखी चिट्ठी फिर से ठंडे
दिमाग से पढ़ी..अपने आप पर उसको हँसी भी आ गयी..एकदम से उसको उगोये का
ध्यान आ गया...वह लड़की जो स्कूल से लौटते हुए साथ के सभी लड़कों की (
नेमेका भी उनमें शामिल था) पिटाई किया करती थी.
मैंने तुम्हारे लिए जिस लड़की को पसंद किया है मुझे लगता है वह तुम्हें
खूब पसंद आएगी..अपने पडोसी जैकब न्वेके की सबसे बड़ी बेटी उगोये
न्वेक्व.उसकी परवरिश बिलकुल शुद्ध ईसाई ढंग से हुई है.पिछले दिनों जब
उसने स्कूल की पढाई पूरी की तो उसके सयाने पिता ने उसको एक पादरी के घर
पत्नी बनने की बाकायदा ट्रेनिंग लेने के लिए भेज दिया.उसके टीचर ने मुझे
बताया कि वह बाइबिल बड़े सधे हुए ढंग से पढ़ती है. मैं चाहता हूँ कि
दिसंबर में जब तुम घर आओ तो हम शादी की बात शुरू करें.
शहर से घर जाने के दूसरे दिन नेमेका घर के सामने के उस पेड़ के नीचे अपने
पिता के साथ बैठा जहाँ बैठकर वे बाइबिल पढ़ा करते हैं.
पापा,मैं आपके पास माफ़ी माँगने आया हूँ...नेमेका ने पिता से कहा.
माफ़ी?क्या हुआ बेटे?..अचरज से पिता ने पूछा.
शादी के सिलसिले में...
कैसी शादी?
मैं..हमें..मैं यह कहना चाहता हूँ कि न्वेके की बेटी के साथ शादी करना
मेरे लिए संभव नहीं है.
ना-मुमकिन...ऐसा कैसे हो सकता है...पर क्यों?
क्योंकि मैं उसको प्यार नहीं करता.
किसने कहा कि तुम उस से प्यार करते हो...और करना भी क्यों चाहिए?
आज के समय में शादी आपके समय से अलग होती है.
सुनो मेरे बेटे...पिता ने तमक कर कहा...कुछ भी नहीं बदला,पत्नी चुनते हुए
बस यही देखना चाहिए कि उसका चाल चलन अच्छा हो और उसकी परवरिश अच्छे
धार्मिक माहौल में हुई हो.
नेमेका को समझ आ गया कि इस वक्त अपने तर्कों से वो पिता को नहीं जीत सकता.
और दूसरी बात ये है कि मैं किसी दूसरी लड़की के साथ सगाई कर चुका हूँ
जिसमें वो सब गुण हैं जो उगोये में हैं...और..
पिता को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ...क्या कहा तुमने?..अस्पष्ट सी
धीमी आवाज में उन्होंने पूछा.
वो एक धार्मिक लड़की है और लागोस के एक गर्ल्स स्कूल में टीचर है..बेटे ने सफाई दी.
टीचर...यही कहा न तुमने?यदि मुझसे पूछो कि अच्छी पत्नी के लिए जरुरी गुण
क्या होते हैं तो मैं कहूँगा कि किसी ईसाई स्त्री को टीचर नहीं होना
चाहए.सेंट पाल ने अपनी एक चिट्ठी में लिखा है कि स्त्रियों को ख़ामोशी का
पालन करना चाहिए....पिता अपनी जगह से उठे और आगे पीछे टहलने लगे.अब वो
अपने प्रिय विषय पर आ गए थे और उन्होंने जोर जोर से चर्च के उन नेताओं को
बुरा भला कहना शुरू कर दिया जो स्त्रियों को शिक्षण के क्षेत्र में जाने
के लिए प्रेरित करते हैं.देर तक धारा प्रवाह बोलते रहने के बाद जब वे थक
कर हाँफने लगे तो फिर से शादी के मुद्दे पर आये.
तो वो किसी बेटी है?
उसका नाम नेने अटंग है.
क्या?...सारी नरमी पाल भर में काफूर हो गयी...इस नाम का क्या मतलब?
नेने अटंग,कालाबार से है वो.मैं शादी करूँगा तो सिर्फ उसी से...नेमेका
बिना आगा पीछा देखे बोल पड़ा था.पर अगले ही पल उसको तूफ़ान फट पड़ने का
अंदेशा हो गया.ताज्जुब की बात कि उसका अंदेशा गलत निकला.पिता चुपचाप वहाँ
से अपने कमरे में चले गए.नेमेका को इस बदले हुए बर्ताव से खुद भी अचरज
हुआ.उसको मालूम था कि पिता की चुप्पी उनकी दहाड़ों भरी भा
ज्यादा खौफनाक होती है.पिता ने उस रात खाना भी नहीं खाया.
अगले दिन जब वो बेटे को विदा करने लगे तो बार बार उसको अपना निश्चय बदल
देने के लिए समझाते भी रहे.पर नौजवान बेटे के निश्चय में रत्ती भर का भी
फर्क नहीं आया देख अंत में उन्होंने मन को समझा लिया कि बेटा अब हाथ से
निकाल चुका है.
यह मेरा फर्ज था कि मैं तुम्हें सही और गलत में फर्क करना बताऊँ..पर
जिसने भी तुम्हारे भेजे में उस लड़की का ख्याल भरा है उसने तुम्हारी जुबान
काट दी है..यह शैतान का ही काम हो सकता है...जाते हुए बेटे की ओर हाथ
उठाते हुए पिता ने अंत में उस से कहा.
आप जब नेने से मिल लेंगे तो आपके विचार बदल जायेंगे पापा.
मैं उसको भला क्यों मिलने लगा?..पिता की आवाज नेमेका ने सुनी.
उसके बाद से नेमेका से पिता की बातचीत लगभग बंद ही हो गयी.हाँलाकि उनके
मन में यह उम्मीद निरंतर बनी रही कि एक दिन बेटे को अपनी गलती का एहसास
जरुर होगा.बेटे का मन बदलने के लिए उन्होंने दुआओं का भी खूब सहारा लिया.
नेमेका को भी पिता का दुःख देख कर गहरा धक्का लगा था पर उसको यह भरोसा था
कि जल्दी ही वे इस सदमे से उबर जायेंगे.यदि उसको पहले से मालूम होता कि
उसकी बिरादरी के सम्पूर्ण इतिहास में कभी भी किसी युवक ने दूसरी भाषा
बोलने वाली लड़की से विवाह नहीं किया तो पिता के बारे में वह इतना
आशान्वित न होता.
ऐसा पहले कभी सुना ही नहीं गया...बेटे के बर्ताव से आहत उसके पिता को
दिलासा देने दूसरे गाँव से आए बिरादरी के एक बुजुर्ग दूसरों को सुना
सुना कर कह रहे थे.
प्रभु ने पहले ही कह दिया था...बेटे अपने पिताओं के खिलाफ खड़े हो
जायेंगे..पवित्र पुस्तक में लिखा हुआ है...दूसरे बुजुर्ग ने फरमाया.
विनाश की यह शुरुआत है.....किसी दूसरे की आवाज सुनाई दी.
लम्बी चौड़ी धार्मिक चर्चा को समेटते हुए एक निहायत व्यावहारिक बुजुर्ग ने
कहा: अपने बेटे के बारे में किसी ओझा से बात क्यों नहीं करते?
पिता ने ठंडे ढंग से जवाब दिया: पर उसको कोई बीमारी थोड़े ही है.
बीमार नहीं है तो क्या है?उस लड़के का दिमाग बीमारी से ग्रसित है और कोई
अच्छा हकीम ही उसको ठिकाने पर ला सकता है...दर असल उसको वही दवाई माफिक
आयेगी जो स्त्रियाँ अपने पतियों को काबू में लाने के लिए इस्तेमाल करती
है.
दूसरे बुजुर्गों ने भी इस ख़ास मशविरे पर अपनी मुहर लगा दी.
नेमेका के पिता चाहे जो भी हों अपने आस पास रहने वाले लोगों की तरह
मूढ़मगज नहीं थे,सो बोले: मैं किसी ओझा हकीम के चक्कर में नहीं पड़ने
वाला..यदि मेरा बेटा खुदकुशी पर ही आमादा है तो कर लेने उसको ऐसा ही,मैं
इसमें कुछ नहीं कर सकता.
छह महीने बाद नेमेका अपनी युवा पत्नी को पिता की लिखी एक चिट्ठी दिखा रहा
था.लिखा था:
मुझे ताज्जुब होता है कि कैसे तुमने मेरे पास अपनी शादी को फोटो भेजने
की जुर्रत की.मैं तो इसको लौटती डाक से ही वापस भेजने वाला था.पर थोड़ा
विचार करने के बाद मुझे लगा कि इसमें से मैं तुम्हारी पत्नी की फोटो
फाड़ कर अलग कर देता हूँ और बाकी हिस्सा तुम्हें भेज देता हूँ...उस से
हमें क्या लेना देना...यह तो नहीं हो सकता कि उसी की तरह मैं अपने बेटे
को भी भूल जाऊं..
जब नेने ने यह चिट्ठी पढ़ी और बुरी तरह से फाड़ी हुई फोटो देखी तो उसकी
आँखों से आंसुओं कि तेज धार बह निकली...अपनी रुलाई वह नहीं रोक पाई.
रोओ मत मेरी प्रिय...खूब प्यार करने वाले पति ने कहा..मन से पिता अच्छे
आदमी हैं और एक न एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब हमारी शादी को उनका आशीर्वाद
मिलेगा.
पर साल दर साल बीतता रहा और वह दिन आया नहीं.देखते देखते आठ साल बीत गए
और पिता को बेटे की सुध नहीं आई.इस बीच में तीन ऐसे मौके आये जब नेमेका
ने छुट्टियाँ बिताने को घर आने की इच्छा जताई...और पिता ने जवाब दिया:
मैं तुम्हें अपने घर में पाँव नहीं रखने दे सकता...एक मौके पर उन्होंने
लिखा...मुझे इस से कोई मतलब नहीं कि तुम अपनी छुट्टियाँ कैसे मनाते
हो...या अपना जीवन कैसे जीते हो.
नेमेका की शादी को लेकर पैदा हुई कडवाहट सिर्फ उसके छोटे से गाँव तक
सीमित नहीं थी.लागोस में भी लोग इसको एक अलग नजरिये से देखते थे.पर वहाँ
की स्त्रियाँ जब आपस में मिलती तो नेने के प्रति कोई बुरा बर्ताव नहीं
करतीं.बल्कि उसको इतना आदर देती कि वह संकोचवश स्वयं अलग थलग पड़ जाती.
समय बीतने के साथ नेने ने कोशिशें कर के उनके स्थ मेल जोल थोड़ा बढ़ा भी
लिया.धीरे धीरे उन्होंने स्वीकार भी किया कि नेने अपने घर को ज्यादा साफ़
और सुरुचिपूर्ण रखती है.
समय के साथ नेमेका के गाँव में यह खबर पहुँचने लगी कि नेमेका अपनी सुन्दर
पत्नी के साथ बड़े प्रेम और ख़ुशी के साथ रहता है. पर विडंबना यह थी कि
नेमेका के पिता गाँव के उन बिरले लोगों में थे जिन्हें नेमेका के बारे
में बहुत कम जानकारी रहती थी.जब भी कोई उनकी मौजूदगी में नेमेका का नाम
लेता वे ऊँची आवाज में अपने क्रोध का इजहार करने लगते थे सो लोग उनके
सामने उसकी चर्चा करने से ही बचने लगे थे.इस व्यवहार के लिए उनको बहुत
परिश्रम कर के खुद को साधना पड़ा था..इसका तनाव उनके पूरे व्यक्तित्व
पर दिखाई देता था पर वह अपने ऊपर विजयी भाव सदा ओढ़े रहते.
एक दिन उनके पास नेने का लिखा एक पत्र आया..यूँ ही अनमने भाव से वे उसपर
निगाह डालने लगे पर अचानक उनके चेहरे के भाव बदलते दिखाई दिए...वे गौर से
चिट्ठी पढने लगे...
हमारे दो बेटे हैं..जब से उनको यह पता चला है कि उनके दादाजी भी हैं..तब
से निरंतर वे दादाजी के पास जाने की जिद पर अड़े हुए हैं. मेरे लिए यह
मुमकिन नहीं हो पा रहा है कि मैं उनको यह बताऊँ कि दादाजी उनका मुँह तक
देखने को राजी नहीं हैं.मेरी आपसे हाथ जोड़ कर यह बिनती है कि नेमेका के
साथ थोड़े समय के लिए उनको अगली छुट्टियों में गाँव आने की इजाज़त दे
दें...मैं नहीं आउंगी,यहीं लागोस में रहूंगी.
बूढ़े पिता को चिट्ठी पढ़ते हुए यह एहसास हुआ कि बरसों से संजोया उसका दृढ
निश्चय और संकल्प पल भर में धराशायी हो जायेगा.उसका मन कह रहा था कि इतनी
आसानी से यह संकल्प जमींदोज नहीं होना चाहिए.भावनात्मक आवेग के सामने वह
इस्पात की दिवार बन कर अड़े रहना चाहता था.पास की खिड़की से टिक कर वह
आसमान की ओर देखने लगा.आसमान में घने काले बदल थे पर तभी तेज हवा चलने
लगी और माहौल धूल और सूखी पत्तियों से भरने लगा.उसको लगा कि इस समय
प्रकृति भी मानव संघर्ष में हाथ बँटा रही है.देखते देखते बरसात शुरू हो
गयी,साल की पहली बरसात..बादलों की तेज गड़गड़ाहट और बिजली चमकने के साथ
मौसम में परिवर्तन का सन्देश मिलने लगा.पिता खूब कोशिश कर रहा था कि अपने
दोनों पोतों के बारे में सोचना बंद कर दे,पर उसको साफ़ दिख रहा था कि वह
एक हारी हुई बाजी खेल रहा है.मन कडा कर के उसने अपना प्रिय भजन
गुनगुनाने की कोशिश की पर छत पर पड़ती बड़ी बड़ी बूंदों की आवाज से उसका
ध्यान भंग होने लगा.सारी कोशिशों के बावजूद उसका मन भाग भाग कर अपने
पोतों की ओर ही जाने लगा.उनको बाहर धकेल कर वह घर का दरवाज़ा कैसे बंद
कर ले?उसकी आँखें स्पष्ट देख रही थीं कि दोनों बच्चे दरवाजे पर खड़े
हैं..सहमे हुए और उदास..ऊपर से इतना सख्त और क्रोधित मौसम...
उस रात वह बिलकुल सो नहीं पाया...मन ग्लानि से भर गया..और बार बार यह
डरावना ख्याल दस्तक देता रहा कि कहीं वो उन बच्चों को देखे बिना ही आँखें
न मूंद ले.
प्रस्तुति: यादवेन्द्र