Tuesday, September 16, 2008

अल्पना मिश्र की कहानी

कथाक्रम के जुलाई-सितम्बर 2008 के अंक में प्रकाशित अल्पना मिश्र की कहानी सड़क मुस्तकिल यहां पुन: प्रकाशित की जा रही है। युवा रचनाकरों पर केन्द्रित कथाक्रम के इस अंक में ब्लाग जगत में सक्रिय रूप से रचनारत प्रत्यक्षा, पंकज सुबीर की भी कहानियां हैं और गीत चतुर्वेदी,हरे प्रकाश उपाध्याय एवं शिरीष कुमार मौर्य की कविताऐं भी।
अल्पना मिश्र की कहानी सड़क मुस्तकिल अपने मिजाज के कारण एक उल्लेखनीय रचना है। अल्पना के दो कहानी संग्रह अभी तक प्रकाशित हुए हैं - भीतर का वक्त और छावनी में बेघर। अल्पना के पहले कथा संग्रह पर टिप्पणी करते हुए मैंने अन्यत्र लिखा था, "सामान्य भौतिक परिस्थितियां- एक ही काम को करते रहने की उक्ताहट, दुनिया जहान के कलह-झगड़े, ऐसी ही तमाम कठिनाईयां, जो कहीं न कहीं भीतर ही भीतर किसी को भी छीज रही होती हैं और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी समाप्त कर रही होती हैं, जीवन में उत्साह और विश्वास की अनुकूल स्थितियों के विरुद्ध गहरे संत्रास और निराशा को जन्म देती हैं। स्त्री जीवन की ऐसी तमाम कठिनाईयों को और ज्यादा बढ़ाती हुई और उन्हें बर्दाश्त करना मुश्किल बनाती हुई, संसार की उपेक्षाओं का दंश अल्पना मिश्र के पहले कथा संग्रह, 'भीतर का वक्त’ की मूल कथा है।


पहले कथा संग्रह की कहानियों में जहां आम घरेलू स्त्री के जीवन के चित्र बिखरे पड़े हैं वहीं दूसरे कथा संग्रह, छावनी में बेघर की कहानियां में घरेलू और बाहरी दुनिया के तनाव में उलझी स्त्री की तस्वीर, स्पष्ट तौर पर दिखायी देती है। एक रचनाकार के विकासक्रम में अल्पना की प्रस्तुत कहानी वर्गीय दृष्टिकोण को सामने रखती है। अल्पना की रचना यात्रा एक सचेत कहानीकार की यात्रा है। यह अनायास नहीं है कि उनकी कहानी अपने मिजाज में लगातार अपने बदलाव के साथ है। यदि इसी मिजाज की कहानियां पहले संग्रह में होती तो उनके लेखन का मंतव्य शायद उतना स्पष्ट न हुआ होता। बिना किसी जल्दबाजी ओर बिना किसी हड़बड़ी के, अल्पना, समाज के बुनियादी चरित्र में बदलाव के लिए आवश्यक लम्बे संघर्ष के साथ, अपने लेखन को जोड़ते हुए, सतत रचनारत हैं। प्रस्तुत कहानी एक रचनाकार के रचनात्मक सरोकारों को रखने के लिए एक साक्ष्य भी है।


सड़क मुस्तकिल



- अल्पना मिश्र
09412055662, alpana.mishra@yahoo.co.in



भीड़ थी ही।

और बढ़ गयी है।

अचानक।

नदी उमड़ आयी है।

आदमियों की नदी।

गाड़ियों में लदे आदमियों की नदी।


एक मोटरसाईकिल वाला जैसे तैसे उसे चीर कर निकलने की कोशिश कर रहा है। किसी बच्चे की एक हवाई चप्पल सड़क के बिल्कुल बीच में छूटी पड़ी थी। भीड़ ने उसे खिसका कर इधर उधर कर दिया है। तरह तरह की गाड़ियॉ ठक् से आकर भीड़ के पीछे रूक गयी हैं। भीड़ के केंद्र में एक औरत चिल्ला कर कुछ कह रही है। औरत नाटे कद की है। आटे की लोई जैसी गोरी है और थोड़ी मोटी। उसकी उम्र का अंदाज किया जाए तो यही कहा जाएगा कि होगी कोई चालीस पैंतालीस के आस पास। माथे पर उसने एक छोटी सी नीली बिंदी लगा रखी है। बाल काले हैं। इतने काले कि उनका कालापन किसी भी कालेपन को मात दे सकता है। शायद किसी सस्ते डाई से काले बनाए गए हैं। होठों पर चटक लाल लिपिस्टिक है। उसने गहरे नीले रंग का चमकदार सा पीली बुंदियों वाला, सौ प्रतिशत सिंथेटिक सलवार कुर्ता पहना है और गहरे नीले रंग का चमकता सा दुपट्टा गले में डाले हुए है। उसका एक हाथ उठा हुआ सा भीड़ की तरफ है और दूसरा, उसके ठीक पीछे खड़े स्कूटर की तरफ।

औरत हाथ उठा कर जिस स्कूटर की तरफ इशारा कर रही है, वह आसमानी रंग का है। उसकी आगे की हेडलाइट टूट गयी है, जिसके कुछ टुकड़े इधर उधर बिखरे हुए हैं, जो गवाह हैं कि ये टूटना एकदम ताजा है। इसी आसमानी स्कूटर पर एक मरियल सा बुड्ढा बैठा हुआ औरत को बिना पलक झपकाए पीछे से देख रहा है। उसका लम्बा चेहरा सूखी लौकी की तरह लटका हुआ है। गाल पिचके हैं। उसने पूरी बॉह की हल्की धारियों वाली, हल्की पीली बुच्चर्ट पहनी है और स्कूटर की हैंडल को ड्राइवर वाले अंदाज में पकडे खड़ा हो गया है। लेकिन स्कूटर और औरत को देख कर कोई भी कह सकता है कि इस आसमानी स्कूटर की असली ड्राइवर ये औरत ही है।

जब मोटी औरत ने चिल्ला कर लोगों को बताया कि स्कूटर बुड्ढा चला रहा था तो एक पल को लोग चौंक से गए। लेकिन औरत के इस हंगामेदार ऐलान ने बूढ़े को पूरे जोश से भर दिया और उसने एकदम बॉंके छोरे वाली अदा से स्कूटर को सहलाया।
''मेरे मालिक से बात करो। मैं क्यों दूं पैसे? मेरी गलती नहीं हैं।"

टाटा सूमो से सट कर खड़े पिद्दी से लड़के ने गुस्सा कर कहा।
''तेरे मालिक को कहॉ पाउंगी कि लड़ूंगी, जो सामने मिलेगा उसी से हिसाब करूंगी।"
यह कहते हुए औरत ने भीड़ को चीरा और सड़क किनारे से ईटे का एक अद्धा उठाया और गाड़ी की तरफ लपकी।
''अरे, अरे, क्या कर रही हो? मेरी गाड़ी नहीं है। छूना मत। डेंट पड़ जाएगी।"
लड़के ने अधीरता से कहा।

''तू ऐसे नहीं मानेगा। यही है तेरा ईलाज। मेरा पैसा ठीकरा नहीं है कि बेकार जाने दूं! पाई पाई जोड़ा है। कोई कारू का खजाना नहीं है रे कि रोज कोई हेडलाइट तोड़े तो रोज बनबाउं।" यह आखिरी वाक्य औरत ने अद्धा उठाए उठाए पूरी भीड़ को कहा। अचानक ही पिद्दी से लड़के के साथ साथ पूरी भीड़ गुनहगार हो गयी।



इसी बीच अधेड़ उम्र के एक सज्जन ने, जिन्हें व्यवस्था और प्रशासन जैसी चीजों पर कुछ भरोसा था, जोर से चिल्लाए- '' ट्रैफिक पुलिस कहॉ है? बुलाओ भई उसे।"
"बुलाओ, पुलिस बुलाओ। हम भी छोड़ने वालों में से नहीं हैं। "

औरत ने ललकार कर कहा और अपने पास खड़ी टाटा सूमो से सट कर खड़े सूखे से लड़के की तरफ गरदन मोड़ कर चिल्लायी -

''साले, दूध का दूध पानी का पानी यहीं कर के जायेंगे।"

''अद्धा तो फेंक!" किसी ने जोर से कहा।

औरत ने अपने सामने अद्धा जोर से पटक दिया। सड़क हल्की सी वहॉ पर खुद गयी। लड़के ने सांस लिया।

'' ट्रैफिक पुलिस किधर है?"
जैसे ही पुलिस का नाम आया, लड़का सिटपिटा कर कुछ कहने लगा।

'' एक्सिडेंट का केस है।"

पीछे से नई आती भीड़ ने झॉक कर अपने से और पीछे को सूचना दी।

इसी में धकमपेल मची थी। लोग अपनी गाड़ी निकालने की जल्दी में थे। दुपहिया वाले तो जैसे तैसे निकाल भी रहे थे।

पुलिस की बात आयी तो सामने से सबकी निगाह उठ कर वहॉ गयी। वहॉ सामने। सामने के सड़क को पार करती, उसकी बॉयी ओर सट कर बनी चाय गुमटी की ओर। वहॉ तक, जहॉ भूतपूर्व नौजवान सा दिखता एक दुबला पतला आदमी हाथ में चाय का गिलास थामे इधर की तरफ ही देख रहा था। देखते हुए आदमी एकदम इत्मीनान से चाय पी रहा था। उसका घिसा हुआ खाकी रंग का शर्ट और पैंट उसकी नाप से बड़ा था। शायद उस समय सिलाया गया हो, जब वह कुछ तंदरूस्त रहा हो। एक काला बेल्ट भी था। कुल मिला कर उसका यह पहनावा वर्दी कहलाता था और लोग इसी से डर जाते थे।

इतने इत्मीनान से उसका चाय पीना भीड़ को अच्छा नहीं लगा।

''महाराज चाय पी रहे हैं।" किसी ने कहा।

भीड़ बने एक दो लोग उसकी तरफ लपके। उन्हें अपनी तरफ आता देख कर भी घ्ािसी हुई खाकी पैंट द्रार्ट के भीतर फॅसे आदमी ने कोई हैरानी या तत्परता नहीं दिखाई। जैसे कि उसने माना ही नहीं कि कोई उसे खोजने भी आएगा। क्यों आएगा भला? भीड़ तो अक्सर लगती छंटती रहती है। और अगर आएगा भी तो क्या? देख लिया जाएगा। सिपाही इस आत्मविश्वास की अद्भुत आभा से दमक रहा था। दो लोग उसके बिल्कुल नजदीक आ गए, वह तब भी चाय पीता रहा।

''अब चलेंगे हवलदार साहब! रणचंडी देवी सड़क सिर पर उठाए हैं।"

''कौनो महिला का मामला है क्या?"

सिपाही ने बिना चौंके पूछा और एक अजीब इत्मीनान से चाय का आखिरी घूंट लेकर कप रख दिया।

''चलो भई। चैन से चाय भी नहीं पी सकते।"

इस तरह कह कर उसने अपने साथ चलते लोगों से इस नौकरी में 'चाय भी न पी पाने की फुर्सत" की निहायत परेच्चानी के बावत बताया। लेकिन लोग थे कि उसके इस दर्द को जानने के बिल्कुल इच्छुक नहीं थे। सिपाही भी इस लोक चेतना का ज्ञाता था शायद। इसीलिए उसने इस बात को ज्यादा नहीं खींचा।

सिपाही को देखते ही पैदल भीड़ काफी छंट गयी। तब भी सिपाही ने अपनी छड़ी उठा कर किसी बड़ी भीड़ में रास्ता बनाने की अपनी किसी पुरानी ट्रेनिंग के हिसाब से रास्ता बनाया।

''चलिए हटिए, हटिए।" कहते हुए सिपाही जी सीधे जाकर उस महिला, उस पिद्दी से लड़के और उस बॉके छोरे जैसा नखरा दिखाते बूढ़े के पास खड़े हो गये।

''हल्ला मत मचाइए।" भीड़ की तरफ मुड़ कर सिपाही ने कहा। उसके इतना कहते पिद्दी लड़का दौड़ने की तरह दौड़ा। जगह इतनी नहीं थी कि वह पूरा दौड़ पाता। वह दो तीन कदम दौड़ा और सिपाही के दो लकड़ी जैसे पैरों को अपने दो मरियल हाथों से जकड़ लिया। इस दौड़ने में उसने औरत के दौड़ने और झपटने को मात दे दिया। सिपाही ने तत्काल ही उससे पैर छुड़ाने की कोच्चिच्च की। इस पर वह भहराते हुए भी पूरी ताकत से रोने जैसा चीखा -
''साहेब, बड़े मालिक, मेरी गलती नहीं है मालिक। गाड़ी मेरी नहीं है। मैं कहॉ से भरपाई कर पाउंगा? मैं तो आगे था, पीछे से आकर ये खुद ही भिड़ गए हैं। वो तो मेरी गाड़ी धीमी थी, वरना---"

''वरना क्या?" महिला पूरी तेजी से झपटी। लगा कि वह कुछ आर पार की लड़ाई लड़ कर रहेगी, पर उसने सिर्फ हल्का सा धा देकर लड़के को पीछे ढकेला।

''वरना क्या? मैं मर जाती ? मेरा बूढ़ा मर जाता? यही न? तू बैठा है बड़ी गाड़ी में, तेरा क्या बिगड़ता। हं। इसकी बात सुनोगे सिपाही जी? मैं क्या जानूं कि गाड़ी इसकी है कि इसके मालिक की? मुझे तो अपने नुकसान के पैसे चाहिए, बस।"

'' लेकिन मैडम, आपकी स्कूटर पीछे थी।"
पीछे से किसी लड़के ने हॅस कर कहा। लेकिन न ही उसने इस बात पर जोर दिया और न ही भीड़ से निकल कर सामने आया। बल्कि हॅस कर उसने एक तरह से इस दृश्य की सत्यता को टाल दिया।

लेकिन लड़के की हॅसी और मजे में उछाले गए इस वाक्य की सत्यता से पिद्दी लड़का चौकन्ना हो गया। उसने सिपाही का पैर छोडा और भीड़ के पैरों की तरफ बढा। ऑखों ही ऑखों में उसने हॅसने वाले लड़के को खोजा भी।

''आप ही लोग बताइए हमारी कौनो गलती है? आप सब लोग देखे हैं। देखे हैं न! जरा कहिए सरकार से। समझाइए माई बाप। बताइए इनसे। आप नहीं बोलेंगे तो कौन न्याय करेगा हम गरीबों का? बोलिए, बताइए।"

भीड़ से कोई आवाज नहीं आयी। आवाजें थीं, पर वे उनकी आपसी परेशानियों की थीं। आवाजें हार्न की भी थीं, जो उनके बेहद जल्दी में होने का संकेत दे रही थीं। आवाजें पैरों की भी थीं, जो इधर से उधर मुड़ रहे थे।

लड़का फिर खाकी पैंट शर्ट की तरफ मुड़ा- '' मालिक , हम सच कह रहे हैं--- छोटे छोटे बच्चे हैं हमारे।"

''चुप बे!" खाकी पैंट शर्ट के भीतर फॅसे आदमी के डंडे से तेज आवाज आयी। हॅलाकि डंडा केवल फटकारा गया था।
लोगों का ध्यान न सिपाही के डंडे की फटकार की तरफ था, न लड़के के रिरियाने पर। न ही उसी समय मौका देख कर गुब्बारा बेचने पॅहुच आए लड़के की तरफ और न ही 'शनिदान" जैसी आवाज निकालने वाले उस आदमी की तरफ, जिसके हाथ के कटोरे में थोडा सा सरसों का तेल था और जिसने कुछ कुछ साधु जैसा वेश बनाया था। उनको लग रहा था जैसे यह किसी फिल्म का दृश्य है, जिसे थोड़ी देर में बीत जाना है। वे टेलीविजन पर लगातार देखते हुए ऐसे द्र्श्यों आदी हो चुके थे और फिर उनकी खुद की भी परेशानियॉ बहुत थीं।

'अरे भई, जल्दी मामला खत्म करो!’
जनरल पब्लिक ओपीनियन।

''अरे यार, क्या बेहूदगी है, इतनी देर से जाम लगा रखा है?"

कार के भीतर बैठे एक सज्जन बड़बड़ाए।

'' उफ्, लोग भी, सड़क पर तमाशा करते रहते हैं!"
उसी कार में बैठी एक सजी धजी गुडियानुमा महिला बुदबुदायी।

''एक तो पतली सड़के उपर से इतना ट्रेफिक!"

''अरे, निपटाओ भई नौटकीं।"

बेताबी से अपनी जीप से झॉकते एक नेतानुमा आदमी ने कहा।

उधर महिला, जो आटे के लोई के रंग की थी, जिसके बाल रंग रोगन से काले थे, जो पिद्दी लड़के के कुछ भी कहने पर झपट कर उसे हल्का सा धक्का दे देती थी। धकियाने में उसका दुपट्टा गिर जाता था तो वह उसे झपाटे से उठा कर वापस कंधे पर डाल लेती थी। वह कुछ इस तरह चिल्लाने लगी-

''हाय, मुझे झूठी कह रहा है। इतनी सी बात के लिए मैं झूठ बोलूंगी? इतनी सी बात के लिए कोई औरत झूठ बोलेगी? सड़क पर हल्ला मचायेगी? हॉ, तुम्ही बोलो सिपाही जी, औरत की कोई इज्जत होती है कि नहीं?" यह कहते हुए औरत पूरी भीड़ को संबोधित करने लगी। बुड्ढे ने पूरी तान के साथ सिर हिलाया। सिपाही अपनी छड़ी अपने हाथ पर हौले हौले पटकने लगा, मानो किसी पुरानी धुन पर ताल दे रहा हो। भीड़ में एक दो लोगों ने 'बेचारी" कहा तो किसी किसी ने 'नाटकबाज" जैसा भी कहा।
''इज्जत!" हल्का सा हॅस कर नेतानुमा आदमी जीप में बैठे बैठे बड़बड़ाया।

इस बीच औरत ने पूरी चुनौती के साथ अपना परिचय हवा में लहराया।

''मेरे बारे में जान लो। यहीं सरकारी अस्पताल में काम करती हूं। ड्यूटी पर देर हो रही है और तुम सब यहॉ भीड़ लगाए खड़े हो! सरकारी कर्मचारी हूं। रिपोर्ट लिखवाउंगी। हूं, सोच ले तू। पैसा निकालता है कि चलूं थाने? औरत के साथ ऐसा करता है!"

'' दिखाओ कितना टूटा है?"
कह कर सिपाही ने उसे बॉह से पकड़ा और स्कूटर की तरफ मुड़ा।

बुड्ढा पूरी तत्परता से स्कूटर की टूटी हेडलाइट दिखाने लगा।

''देखिए जी, ये देखिए जी, इधर डेंट लग गया है।"

''ये कौन है तेरे साथ?" सिपाही ने बूढ़े को घूरा।

''ये बेचारा बूढ़ा मुझे अस्पताल छोड़ने जा रहा था। इसकी कहानी तो और भी दुखभरी है भाई जी। इसकी बीबी अस्पताल में मर रही है और ये बेचारा यहॉ मुसीबत में उलझ गया। मेरा रिश्तेदार है। अब मुसीबत में आदमी अपने को ही तो बुलायेगा। क्यों भाइयों !"
औरत ने आखिरी वाक्य किसी जोरदार फिल्मी डायलाग की तरह कहा।

बूढ़े ने अपने लटके मुंह को और लटका लिया।

''लेकिन ये तो पीछे से अपने आप---मेरी गलती नहीं है।"

पिद्दी लड़का एक बार फिर अपने बचाव में आगे आया। लेकिन इस बार उसकी तरफ किसी ने नहीं देखा। भीड़ के ज्यादातर लोग या तो झुकी हुयी महिला के गोल गले वाले कुर्ते से बाहर ढलक पड़ते आधे तरबूजों को देखने में लगे थे या फिर इस दृश्य को देख पाने में नाकाम अपनी गाड़ियों में खीझ रहे थे। महिला ने इस बीच नाक सिकोड़ते हुए सिपाही की हथेली से अपनी बॉह मुक्त करा ली और अपना मुंह सिपाही के भूतपूर्व नौजवान मुंह के पास ले जा कर बोली- ''आप ही बताओ सिपाही जी, बेवजह की मुसीबत हो गयी। खर्चा अलग सिर पर। तुम्हारे रहते अन्याय नहीं हो सकता।" आखिरी वाक्य महिला ने बहुत धीरे से कहा। सिर्फ और सिर्फ सिपाही के लिए।

सिपाही का ध्यान अचानक ही तरबूजों से हटा और उसने पाया कि उसके हाथ में टूटी हुई हेडलाइट की किरचें हैं। उसने उन्हें सड़क पर फेक कर हाथ झाड़ा और एकदम से लड़के की तरफ झपटा।
''पैसे निकालता है कि थाने ले चलूं?"

''साहब मेरे पास इतने पैसे कहॉ हैं? नौकरी नई है। गाड़ी मालिक की है। सुनेंगे तो अलग मारेंगे मुझे। मुझ पर रहम करो। गलती होती तो भी कहॉ से पैसे लाता? हुजूर, अन्याय न करो।"
लड़के ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

''पॉच सौ दे इन्हें।"कह कर झपट कर सिपाही ने लड़के की कमीज और पैंट की पॉकेट खंगाली। पैंट के पीछे की पॉकेट से भूरे रंग का एक वॉलेट मिला, जो शायद लम्बे समय से वहॉ पड़े रहने के कारण या शायद पसीने में भीगते रहने के कारण या शायद बारिश में बार बार भीग जाने के कारण या शायद तीनों या इनमें से किसी एक कारण से अजीब तरह से घिस चुका था। उसकी त्वचा जगह जगह से निकल गयी थी और असके भीतर का हल्का मटमैला भूरापन प्रकट हो गया था। उसी के साथ तम्बाकू का एक पॉउच भी बरामद हुआ और एक सेल फोन भी। पॉउच जितना चमक रहा था, सेल फोन उतना ही निस्तेज था। उसकी बटन की जगह उचड़ गयी थी और उसके स्टील के शरीर को आसानी से पहचाना जा सकता था।

''हूं, तो ये भी।" सिपाही ने पिद्दी लड़के की तरफ ऐसे देखा मानो यह छोटा सा पाउच और यह सेल फोन बड़ी बड़ी गुनहगार शौकों का प्रमाण हो।

सिपाही ने जब उस भूरे रंग के घिसे हुए वॉलेट में अपनी अंगुलियॉ फॅसायीं तो लगा कि वॉलेट फट जायेगा। वॉलेट के फटने की गुंजाइश के साथ ही पिद्दी लड़का तड़प उठा-
'' साहब, मेरी गलती नहीं है। इसे मत लो।"

''चुप बे। चोरी और सीनाजोरी।"

सिपाही ने उसमें से गीली सीली सी जो नोटें निकालीं, वे कुल मिला कर दो सौ पॉच हुयीं।

''लो जी।" कहते हुए सौ रूपये सिपाही ने आटे की लोई जैसी हथेली पर इत्मीनान से छूते हुए रखा, जैसे कहा हो 'तुझे तो मैं देख लूंगा।’

औरत ने भी झट से पैसे अपने छोटे से पर्स में डाले, जो लड़के के वॉलेट से थोड़ा गनीमत हालत में था। फिर उसने मुंह बनाया, जैसे कहा हो 'तेरे जैसे बड़े देखे।’

सेल फोन के साथ बाकी की नोट सिपाही ने अपने खाकी पैंट के पीछे पुट्ठे की पॉकेट में खोंस दिया।

भूरे रंग के उस वॉलेट को सिपाही ने घृणा के साथ नीचे गिर जाने दिया।

''चलो, चलो, जाओ, जाओ।" कह कर वह अपने भूतपूर्व जवान चेहरे के साथ हॅसा।

''थाने आ जइयो।"" सिपाही ने डंडा अपने हाथ पर बजाते हुए लड़के से कहा।

लड़का कुछ गुस्से से, कुछ घृणा और कुछ दुख से घूरता खड़ा रहा।

अपने आटे की लोई जैसे गोरे चेहरे और रंग रोगन से काले किए बालों और माटापे के साथ थोड़ा सा विजय का गर्व मिला कर औरत मुड़ी। गाड़ियॉ चल पड़ीं। भीड़ गतिमान हो गयी। लोग अपनी अपनी तरह से अपनी अपनी जल्दबाजी के भीतर चले गए। पिचके हुए गालों वाला बूढ़ा आदमी आसमानी स्कूटर पर ड्राइवर की तरह बैठ गया। औरत घोड़े पर चढ़ कर उसके पीछे बैठी।

अस्पताल के पास पॅहुच कर औरत आसमानी रंग के जहाज से उतरी।

'' हम उनसे तो लड़ नहीं पाते। गाड़ीवालों से।" तब बूढ़े ने धीरे से कहा।

बूढ़े की तरफ देख कर नरम आवाज में औरत बोली-''बूढ़ा हो गया है, संभल कर चला कर। रोज कहॉ तक बचाउंगी तुझे। उस बेचारे लड़के की जेब बेवजह खाली करा दिया। गलती तेरी, भुगते दूसरे।"

''जिससे लड़ पायेंगे, उसी से तो लड़ेंगे।"
औरत ने फिर कहा और अपने छोटे सस्ते से पर्स से पचास की नोट निकाल कर बुडढे की हल्की धारीदार हल्की पीली बुशर्ट की पॉकेट में डाला और मुड़ कर अस्पताल के गेट के अंदर चली गयी।

संवेदना पर लिखा जा रहा गल्प बीच-बीच में जारी रहेगा। संस्था से समय बे समय जुडे रहे अन्य रचनाकार भी संभवत: इसमें शिरकत करें।

Saturday, September 13, 2008

एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए

देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना के बारे में कुछ सिलसिलेवार लिखने का मन है।

विजय गौड


संवेदना का झीना परदा हटाते हुए दिखायी देती उस दीवार के रंग को छुओ, जो इतिहास की किताबों में दर्ज नहीं, तो उसकी खुरदरी सतह पर जिन उंगलियों के निशान दिखायी देगें, उनमें न सिर्फ देहरादून के साहित्य जगत का अक्स होगा बल्कि हिन्दी साहित्य में अपनी उपस्थिति के साथ दर्ज आप कुछ ऐसे साथियों को पायेगें जिन्हें जब भी पढ़ेगें तो एक बहुत सुरीली सी आवाज में सरसराता चीड़ के पेड़ों का संगीत शायद सुन पायें। यह अपने जनपद से लगाव के कारण अतिरिक्त कथन, कतई नहीं है।

पिछले 20 वर्षों से माह के प्रथम रविवार को होने वाली बैठक संवेदना का स्थायी भाव है। यूं संवेदना के गठन को चीन्हते हुए उसकी उम्र का हिसाब जोड़े तो कुछ ऐसे ब्यौरों को खंगालना होगा जो अपने साथ देहरादून के इतिहास की अडडेबाजी के शुरुआती दौर का इतिहास बेशक न हो पर उस जैसा ही कुछ होगा। डिलाईट जो आज तमाम खदबदाते लोगों का अडडा है, संवेदना के गठन के उन आरंम्भिक दिनों की शुरुआत ही है। संवेदना के इतिहास को जानना चाहूं तो डिलाईट जा कर नहीं जान सकता। डिलाईट में बैठने वाले वे जो अडडे बाज हैं, दुनियावी हलचलों के साथ है, साहित्य उन्हें बौद्धिक जुगाली जैसा ही कुछ लगता है। हां, देहरादून के राजनैतिक इतिहास और समकालीन राजनीति पर बातचीत करनी हो तो जितनी विश्वसनीय जानकारी उन अडडे बाजों के पास हो सकती है वैसी किसी दूसरे पर नहीं। तो फिर संवेदना के इतिहास के बारे में किससे पूछूं ?
कोई होगा, कहेगा कि उस वक्त जब देश बंधु जीवित था। देश बंधु को नहीं जानते! उसे आश्चर्य होगा देशबंधु के बारे में आपके पास कोई जानकारी नहीं।
अरे! वह एक युवा कहानीकार था। बहुत कम उम्र में ही चला गया। अवधेश कुमार चौथे सप्तक के कवि थे पर वे भी शायद उसके बाद ही चौथे सप्तक के रुप में जाने गये। देश बंधु और अवधेश में से कौन पहले छपने लगा था - इस पर कोई विवाद नहीं पर इस बात को स्पष्ट करने वाला कोई न कोई आपको या तो संवेदना में मिल जायेगा या डी लाईट में नही तो देहरादून रंगकर्मियों के बीच तो होगा ही।

संवेदना का इतिहास लिखना चाहूं तो बिना किसी से पूछे बगैर नहीं लिख सकता। पर पूछूं किससे ? फिर कौन है जो दर्ज न हो पाये इतिहस को तिथि दर तिथि ही बता पाये। पिछले बीस सालों का विवरण तो रजिस्टरों में दर्ज है। पर उससे पहले ! इतिहास लिखना मेरा उद्देश्य भी नहीं। यह तो एक गल्प है जो सुनी गयी,देखी और जी गई बातों के ब्यौरे से है। बातों के सिलसिले में ढूंढ पाया हूं कि 1972-73 के आस पास गठित संवेदना और उसकी बैठके 1975-76 के आस पास कथाकार सुभाष पंत के अस्वस्थ होकर सेनोटोरियम में चले जाने के बाद जारी न रह पायीं। देहरादून के लिक्खाड़ सुरेश उनियाल, धीरेन्द्र अस्थाना भी रोजी रोटी के जुगाड़ में देहरादून छोड़ चुके थे। नवीन नौटियाल की सक्रियता पत्रकारिता में बढ़ती गयी थी। अवधेश कुमार कविताऐं लिखने के साथ-साथ नाटकों की दुनिया में ज्यादा समय देने लगे थे।
उस दौर के कला साहित्य और सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष से जुडे किसी बुजुर्गवार से पूछूं तो कहेगा कि संवेदना का गठन उस वक्त हुआ था जब देश बंधु मौजूद था। नहीं यार, देशबंधु तो बहुत बाद में कहानीकार कहलाया। "दूध का दाम" सुभाष पंत की पहली कहानी थी जो सारिका में छप चुकी थी। कहानी की स्वीकृति पर कथाकार कमलेश्वर जी के पत्र को लेकर जब वे डिलाईट में पहुंचे थे तो शहर के लिक्खाड़ नवीन नौटियाल, सुरेश उनियाल, अवधेश कुमार उस पत्र को देखकर चौंके थे। एक दोस्ताना प्रतिद्वंदिता ने उन्हें जकड़ लिया था। वे स्थापित लेखक थे। हर अर्थ में लेखक होने की शर्त को पूरा करते हुए। वे अडडेबाज थे। घंटों-घंटों 23 नम्बर की चाय पीते हुए दुनिया जहान के विषयों से टकरा सकते थे। समकालीन लेखन से अपने को ताजा बनाये रखते थे। शहर के लिखने, पढ़ने और दूसरे ऐसे ही कामों में जुटे सामाजिक कार्यकर्ताओं से उनका दोस्ताना था। जबकि सुभाष पंत तो एक गुडडी-गुडडी बाबू मोशाय थे। सरकारी मुलाजिम भी। लेखक बनने की संभावना अपनी गृहस्थी और दूसरी घरेलू जिम्मेदारियों के साथ निभाते हुए। ऐसे शख्स से वे युवा लिक्खाड़ पहले परिचित ही न थे। तो चौंकना तो स्वाभाविक था। क्यों कि वह गुडडी-गुडडी सा शख्स उन्हें उस सम्पादक का खत दिखा रहा था जिसमें प्रकाशित होने की आस संजायें वे भी तो लिख रहे थे।




---जारी

Monday, September 8, 2008

संवेदना देहरादून, मासिक गोष्ठी - सितम्बर 2008



दिनांक 7।8।2008 को हिन्दी भवन, देहरादून के पुस्तकालय में सम्पन्न हुई संवेदना की मासिक गोष्ठी में हाल ही में दिवंगत हुए कवि वेणु गोपाल का स्मरण करते हुए देहरादून के रचनाकारों ने उनके कृतित्व और उनके व्यक्तित्व के संबंध में चर्चा की। कथाकार सुभाष पंत ने हिन्दी में क्रांतिकारी धारा के कवि वेणु गोपाल की इस विशेषता को याद को याद किया कि वेणु गोपाल ने अपने ही सरीखे समकालीन कवियों के साथ हिन्दी कविता को अकविता से कविता की ओर लौटाया है। क्रांतिकारी राजनैतिक आंदोलन के बीच कवि वेणु गोपाल की सकारत्मक उपस्थिति भी रचनाकारों की बातचीत को हिस्सा रही। गोष्ठी में उपस्थित कथाकार दिनेश चंद्र जोशी, मदन शर्मा, एस0पी0सेमवाल, विद्या सिंह नवीन नैथानी कवि प्रेम साहिल, जयंति सिजवाली, डॉ अतुल शर्मा, राजेश पाल,रामभरत पत्रकार सुनीता, कीर्ति सुन्द्रियाल के अलावा पुनीत कोहली, विजय गौड़ आदि ने चर्चा मे हिस्सेदारी की। प्रेम साहिल, जयंति सिजवाली, मदन शर्मा एवं दिनेश चंद्र जोशी ने अपनी रचनाओं के पाठ किए।

Tuesday, August 26, 2008

महमूद दरवेश की कविताएं

फिलिस्तीन के कवि महमूद दरवेश, 9 अगस्त को जिनका निधन हुआ, को याद करते हुए यादवेन्द्र जी द्वारा उनकी कविताएं के अनुवाद प्रस्तुत हैं।


महमूद दरवेश


बहुत बोलता हूं मैं


बहुत बोलता हूं मैं
स्त्रियों और वृक्षों के बीच के सुक्ष्म भेदों के बारे में
धरती के सम्मोहन के बारे में
और ऐसे देश के बारे में
नहीं है जिसकी अपनी मोहर पासपोर्ट पर लगने को


पूछता हूं : भद्र जनों और देवियों,
क्या यह सच है- जैसे आप कह रहे है-
कि यह धरती है सम्पूर्ण मानव जाति के लिए ?
यदि सचमुच ऐसा है
तो कहां है मेरा घर-
मेहरबानी करे मुझे मेरा ठिकाना तो बता दे आप !


सम्मेलन में शामिल सब लोग
अनवरत करतल ध्वनि करते रहे अगले तीन मिनट तक-
आजादी और पहचान के बहुमूल्य तीन मिनट!


फिर सम्मेलन मुहर लगाता है लौट कर अपने घर जाने के हमारे अधिकार पर
जैसे चूजों और घोड़ों का अधिकार है
शिला से निर्मित स्वपन में लौट जाने का।


मैं वहां उपस्थित सभी लोगों से मिलाते हुए हाथ
एक एक करके
झुक कर सलाम करते हुए सबको-
फिर शुरु कर देता हूं अपनी यात्रा
जहां देना है नया व्याख्यान
कि क्या होता है अंतर बरसात और मृग मरीचिका के बीच
वहां भी पूछता हूं : भद्र जनों और देवियों,
क्या यह सच है- जैसा आप कह रहे हैं-
कि यह धरती है सम्पूर्ण मानव जाति के लिए ?



शब्द


जब मेरे शब्द बने गेहूं
मैं बन गया धरती।
जब मेरे शब्द बने क्रोध
मैं बन गया बवंडर।
जब मेरे श्ब्द बने चट्टान
मैं बन गया नदी।

जब मेरे श्ब्द बन गये शहद
मक्खियों ने ले लिए कब्जे मे मेरे होंठ



मरना


दोस्तों आप उस तरह तो न मरिए
जैसे मरते रहे हैं अब तक
मेरी बिनती है- अभी न मरें
एक साल तो रुक जाऐं मेरे लिए
एक साल
केवल एक साल और-
फिर हम साथ साथ सड़क पर चलते हुए
अपनी तमाम बातें करेगें एक दूसरे से
समय और इश्तहारों की पहुंच से परे-
कबरें तलाशने और शोकगीत रचने के अलावा
हमारे सामने अभी पढ़े हैं
अन्य बहुतेरे काम।



अनुवाद:- यादवेन्द्र

Saturday, August 23, 2008

दोस्ती फूलों की बरसात नहीं है भाई



दीवान सिंह मफ्तून और कवि कुलहड़ के साथ अपने अंतरंग संबंधों से भरे, वरिष्ठ कहानीकार और व्यंग्यकार, मदन शर्मा के लिखे संस्मरणों को यहां हम पहले भी दे चुके हैं । मदन शर्मा अपने अंतरंग मित्रों के साथ बिताए समय को सिल सिलेवार दर्ज करते हुए हमें एक दौर के देहरादून से परिचित कराते जा रहे हैं। हम आभारी है उनकी इस सदाश्यता के कि हमारे अनुरोध पर बिना किसी हिचकिचाट के वे हमारी इस चिटठा-पत्रिका के पाठकों के लिए लगातार लिख रहे हैं। अपने पाठकों को सूचित करना अपना कर्तव्य समझते हैं कि ब्लाग वाणी के आंकड़ों के मुताबिक मदन शर्मा इस चिटठा-पत्रिका के अभी तक सबसे ज्यादा पढ़े गए लेखक हैं।
मदन शर्मा 0135-2788210


एक अज़ीम शायर कंवल ज़ियायी



कुछ अर्सा पहले, हिंदी साहित्य के वरिष्ठ आलोचक डा0 नामवर सिंह ने, जब उर्दू शायरी पर अपने खय़ालात का इज़्हार करते हुए, अचानक ही यह फ़रमान जारी कर डाला, कि बशीर बद्र इस सदी के सब से बड़े शायर हैं, तो मेरा चौंक जाना स्वाभाविक था। मेरी नज़र में, बशीर बद्र, एक असाधारण शायर है। मैं स्वयं उनकी उम्दा शायरी का प्रशंसक रहा हूं। मगर दर हकीक़त, इस या पिछली सदी के दौरान, उर्दू में एक से बढ़कर एक, चोटी के शायर हुए हैं, जिन्होंने अपनी बेमिसाल शयरी की बदौलत, उर्दू अदब को अपनी बेहतरीन खिदमत पेश की हैं। अब मैं यहां पर, यदि अपने करीबी रिश्तों के मद्देनज़र यह कह डालूं, कि जनाब 'कंवल" ज़ियायी ऐशिया के सबसे बड़े शायर हैं, तो यह उर्दू अदब के साथ, नाइन्साफ़ी होगी। चुनांचे मैं अपने इस लेख में, महज़ इतना कहना चाहूंगा, कि जनाब हरदयाल दता 'कंवल" ज़ियायी, इस दौर के एक अज़ीम शायर हैं।
एक मुशायरे में, बशीर बद्र के ही, अनेक जुगनुओं से सुशोभित अशआर के जवाब में, जब कवंल साहब ने निम्नलिखित शेर पढ़ा तो पंडाल में देर तक तालियों का शोर बरपा रहा :-
तुम जुगनुओं की लाश लिये घूमते रहोलोगों ने बढ़ के हाथ पर सूरज उठा लिया
'कंवल" ज़ियायी साहब का संबंध, पंजाब के ज़मींदार घराने से है। सुप्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता राजेन्द्र कुमार इनके बचपन के दोस्त थे। यह दोस्ती ताउम्र कायम रहने वाली पी दोस्ती थी। दोनों एक ही गांव 'करूंड़दतां' में, जो ज़िला सियालकोट (पाकिस्तान) में है। वहीं जन्मे, पले पढ़े, खेले और शरारतें कीं। मुल्क की तकसीम के बाद, वे एक साथ दिल्ली पहुंचे और जिंदगी के लिये संघर्ष शुरू किया। यहां से, एक फ़िल्मों में किस्मत आज़माई के लिये बम्बई रवाना हो गया। दूसरे ने भारतीय-सेना में कलर्की को अपना लिया और शायरी शुरू कर दी। मगर ये अलग हुए रास्ते, सिर्फ रोज़ी कमाने के माध्यम थे। उनकी दोस्ती की राह एक थी, जिस पर चलते हुए, वे न तो कभी फिसले और न थके। 'कंवल" साहब का ज़मींदाराना कददावर शरीर, रोआबदार चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें और आंखों में तैरती सुर्खी देख, कितने ही लोग धोखा खा चुके हैं। एक किस्सा वह खुद ही बयान किया करते हैं--- किसी मुशायरे में हिस्सा लेने, वे अन्य शायरों के साथ जब हॉल में दाखिल हुए, तो इनके सियाहफ़ाम चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें देख, किसी ने सरगोशी की--- ये साहब गज़ल पढ़ने आयें हैं या डाका डालने! 'कंवल" साहब ने स्टेज पर खड़े होकर जब यह शेर पढ़ा, तो श्रोताओं के दिल पर, सचमुच ही डाका पड़ गया :-
शक्ल मेरी देखना चाहें तो हाज़िर हैं मगरमेरे दिल को मेरे द्रोरों में उतर कर देखिये
जिस तरह 'कंवल" साहब के कलम में बला की ताकत है, भाषा में सादगी और रवानगी है, शब्दों का उम्दा चयन है, उसी तरह उनकी ज़बान में भी चाश्नी है। उनके पास बैठे कितनी देर तक बातचीत करते जायें, कभी उठने को मन न होगा। शायरी में बेहद संजीदा और बातचीत में उतने ही मस्त और फक्कड़। 'कंवल" साहब की आंखों मे जो सुर्खी तैरती नज़र आती है, वह शराब की नहीं, शायरी का 'खुमार" है। मौजूदा बदनज़ामी और बेहूदगियों के खिलाफ़ एक आग है, जो हरदम उनके दिल में भी धधकती रहती हैं। वे शराब नहीं पीते। कभी पी भी नहीं। हाथ में थामें जाम से, कोका कोला के घूंट भर-भर कर, वे कितनों को धोखा दे चुके हैं। शराब कभी न चख कर भी, वे शराब पर अनगिनत शेर कह चुके हैं :-
रात जो मयकदे में कट जायेकाबिल-ए-रश्क रात होती हैबाज़ औकात मय काहर कतराइक मुकम्मल हयात होती है
'कंवल" साहब एक खुद्दार शायर हैं। वे दूसरों पर एहसान करना जानते हैं, एहसान लेना नहीं जानते। कभी अपनी रचना किसी के पास छपने के लिये नहीं भेजेंगे। कोई यार दोस्त या ज़रूरतमंद, रचना मांग ले, तो अपनी नवीनतम गज़ल या नज़्म भी, उठा कर बड़ी विनम्रता और खलूस से पेश कर देंगे। उन के अब तक दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। 'प्यासे जाम' उनके कलाम का पहला संग्रह था, जिस का हिन्दी रूपांतर तैयार करने का शुभ अवसर मुझे प्राप्त हुआ था। इन्द्र कुमार कड़ ने इस पुस्तक का संपादन किया था। दूसरा संग्रह 'लफ़ज़ों की दीवार" उर्दू लिपि में छपा, जिसका विमोचन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा जी ने किया। इन दोनों संग्रहों में शामिल गज़लों, नज़्मों या कतआत का एक भी मिस्रा ऐसा नहीं, जिसे किसी भी जानिब से कमज़ोर कहा जा सके। फिल्म अभिनेता पदम श्री राजेन्द्र कुमार के साथ, 'कंवल" साहब की दोस्ती, मुस्तकिल और पुख्ता थी। दोनों ही, यह रिश्ता निभाने में माहिर निकले। 'कंवल" साहब चाहते, तो एक मामूली से इशारे पर ही, राजेन्द्र कुमार इनकी गज़लों यां नज़्मों का इस्तेमाल, स्तरीय संगीतकारों के माध्यम से फ़िल्मों में करा सकते थे, जिस से 'कंवल" साहब रूपयों से मालामाल हो जाते। मगर कंवल साहब ऐसा इशारा करने वाले नहीं थे और राजेन्द्र कुमार अपनी ओर से कुछ करने में इसीलिये संकोच करते रहे कि ऐसा करने से कहीं दोस्त की 'खुददारी" को ठेस न पहुंच जाये :-खुदी मेरी नहीं कायल किसी एहसानमंदी कीमेरे खून-ए-जिगर से मेरा अफ़साना लिखा जाये 'कंवल साहब" से, पहली बार मेरी मुलाकात, एक अदबी नशिस्त के दौरान हुई। इस गोष्ठी में मेरे संस्थान के साथी और शायर स्व0 कृपाल सिंह 'राही" को अपनी नई लिखी गज़ल, समीक्षा के लिये पेश करनी थी। 'राही" साहब ने गज़ल का एक-एक शेर पढ़ना शुरू किया। प्रतिक्रिया देने के इरादे से 'कंवल" साहब ने हर शोर गौर से सुना और जब प्रतिक्रिया स्वरूप कहना शुरू किया, तो 'राही" साहब को तो ऊपर से नीचे तक तो पसीना आया ही, स्वयं मेरी भी हालत, लगभग 'राही" साहब जैसी हो गई, क्योंकि मैं भी अपना अफसाना 'बचपन का दोस्त" यहां पढ़ने के इरादे से, कोट की जेब में रख कर ले आया था। 'राही" साहब की हालत देख, मेरा हाथ, कोट की जेब तक पहुंचने के लिये हिल भी नहीं पाया और खुदा गवाह है, कि मैं आज तक, अपनी कोई रचना, उनके सामने पेश करने को हौंसला नहीं कर पाया। यह दीगर बात है कि 'कंवल" साहब से मुझे हमेशा अपनों जैसा प्यार और विश्वास मिला है। फिर हमारी मुलाकातों का सिलसिला ही शुरू हो गया। साहित्य सम्पादक इन्द्र कुमार कड़ के साथ मुझे कितनी ही बार 'कंवल" साहब के निवास पर जाकर, उन से बातचीत करने का मौका मिलता रहा। वहां हमें, उन से बहुत कुछ सीखने को मिला, जिस का संबंध, शायरी के अलावा, इन्सान और जिंदगीं की किताब से था। 'कंवल" साहब के ज्ञान का दायरा बहुत विस्तृत है और उन्होंने जिंदगीं को बडे करीब से देखा है।
जिंदगीं मेहरबान थी कल तकआज मैं जिंदगीं का मारा हूंआसमां के हसीन दामन काइक टूटा हुआ सितारा हूं
कंवल साहब के शागिर्दों की तादाद लंबी है। कहा जाता है, कि वे अपने आप में एक 'इस्टीटयूशन' हैं। 'बज़्म-ए-जिगर' नाम की साहित्य-संस्था के माध्यम से, उन्होंने एक लम्बे अर्से तक देहरादून के माहौल को उर्दूमय बनाये रखा। अपनी शायरी की आरंभिक अवस्था में उन्होंने प्रसिद्ध शायर जनाब पंडित लब्भूराम 'जोश' मलसियानी साहब से इस्लाह ली। इनकी शायरी, हज़रत 'दाग' की रवायती शायरी के काफ़ी नज़दीक तसलीम की जाती है। 'कंवल' साहब की शायरी के बारे में, मैं स्वयं अपनी तरफ़ से कुछ कहने के लिये, मौज़ूं अलफ़ाज़ तलाश करना, मेरे लिये बहुत कठिन काम है। ऐसे अलफ़ाज़, जो 'कंवल' साहब की शायरी के स्तर को छू सकें। वैसे भी इस बारे में जो कुछ कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी 'सहर', 'साहिर' होशियारपुरी, रामकृष्ण 'मुज़्तिर", पदमश्री राजेन्द्र कुमार, साहित्य समीक्षक इन्द्रकुमार कक्कड़, 'विकल' ज़ेबाई, अवधेश कुमार, राशिद जमाल 'फ़ारूकी' और दीगर साहिबान, लिख चुके हैं, उसके बाद लिखने को कुछ भी बाकी नहीं रह जाता। अलबता अपनी जानिब से मैं 'लफ्जों की दीवार' कविता-संग्रह से चंद अशार दर्ज करना चाहूंगा, ताकि पढ़ कर आप खुद अंदाज़ा लगा सकें, कि जनाब 'कंवल' ज़ियायी का, उर्दू और हिंदी के मौजूदा दौर में, शायरी का क्या मकाम है।
लफ्ज़ों की दीवार के आगे अक्स उभर आया है किसकाखंजर लेकर कौन खड़ा है लफ्ज़ों की दीवार के पीछे
मैं छुप कर घर में आना चाहता हूंलगी है किस गली में घात लिखना
जिंदगीं आज है इक ऐसे अपाहिज की तरहला के जंगल में जिसे छोड़ दिया बच्चों नेआज के दौर की तहज़ीब का पत्थर लेकरएक दीवाने का सिर फोड़ दिया बच्चों ने
हमारा खून का रिश्ता है सरहदों का नहींहमारे खून में गंगा भी है चिनाव भी है
हम न हिंदु हैं न मुसलिम है फ्क़त इन्सां हैंहम फ़कीरों की कोई ज़ात नहीं है भाईदोस्ती उड़ती हुई गर्द है वीरानों कीदोस्ती फूलों की बरसात नहीं है भाई
मैं भी इन्सां हूं तू भी इन्सां हैक्यों मुझे देखता है खुदा की तरह
इक इन्कलाब आके मेरे पास रूक गयामुझ से ही मेरे घर का पता पूछता हुआतू मुझ को क्या पढ़ेगी ऐ निगाह-ए-वक्तवो खत हूं जिसका हर लफ्ज़ है मिटा हुआ
सोच रहा हूं कदम बढ़ाऊं किस जानिबआगे आग का दरिया है पीछे सूली है
कांधों पर रख के अपने फ़रायज़ के बोझ कोअपने ही घर में हम रहे मेहमान की तरह
वोह शख्स मेरे सामने मुजरिम की तरह हैमैं उस के रूबरू हूं गुनाहगार की तरह
मुफ़लिस तो हूं ज़रूर बिकाऊ नहीं हूं मैंक्यों मुझको देखता है खरीदार की तरह
साफ़ था जब ज़ीस्त का शीशा तो आंखें खुश्क थींज़ीस्त के शीशे में बाल आया तो रोना आ गया
हमारी मुफ़लिसी की आबरू इसी में हैन तुझ से मैं ही कुछ मांगू न मुझ से तू मांगे
जिन जंगलों में छोड़ गई हम को ज़िदगींउन जंगलों से लौट कर कोई न घर गया
पेट के शोलों का जब आयेगा होंटों पर सवालएक रोटी से करेंगे मेरा सौदा आप भीधज्जियां जिस की उड़ा दी हैं बदलते वक्त नेदरम्यां इक दिन गिरा देंगे वोह पर्दा आप भी
सुना है आप के हाथों में इक करिश्मा हैजो हो सके तो सकूने-ए-अवाम लौटा दो
बातचीत के दम पर आओ वक्त काट लेंदोस्ती पे गुफ्तगू दोस्ती से बेहतर है
जब से खाई है कसम तुमने वफ़ादारी कीइक नये रूप का इनसान निकल आया हैजिस को दरवेश समझ बैठे थे बाज़ार के लोगवोह इसी शहर का धनवान निकल आया है
अपनी ही जगह अच्छी अपना ही मकाम अच्छाअम्बर से उतर आओ धरती पे चलो यारो
हम किसी तौर-ए-तअल्लुक के नहीं कायलजो सज़ा हम को सुनानी है सुना दी जाये
शक सा होने लगा है देख कर माहौल कोघर को शायद लूट लेना चाहते हैं घर के लोग
अब न दीवाना कोई है न कोई उठती नज़रघर का दरवाज़ा अंधेरे में खुला रहने दोमौत अपनी का तमाशा भी तो खुद देख सकेहर नई लाश की आंखों को खुला रहने दो
चंद साँसों के लिये बिकती नहीं है खुद्दारीज़िंदगीं हाथ पे रखी है उठा कर ले जा
'कंवल" ज़ियायी साहब ने, एक कलर्क का आम जीवन भी हँसते-खेलते और बड़ी शान के साथ व्यतीत किया है। उसी अल्प आय में, उन्होंने बच्चों को पाला, पढ़ाया-लिखाया और शादियां कीं। उर्दू साहित्य में आज वे जिस मकाम पर हैं, वहां तक पहुंचाने में, निश्चित ही आदरणीया श्रीमती वेदरानी दत्ता साहिबा का बड़ा हाथ रहा है, जिन्होंने 'कंवल" साहब की शायरी को, कभी 'सौत" नहीं माना और ज़िंदगीं के हर एक नरम या सख्त दौर में, एक आदर्श भारतीय नारी की तरह पति का साथ दिया और सेवा की है। उन्हीं से सुनी एक दिलचस्प घटना का ज़िक्र कर रहा हूं। एक बार किसी महफ़िल में, चंद दोस्तों ने शरारतन, 'कंवल" साहब के कपड़ों पर शराब छिड़क दी। वे दरअसल देखना चाहते थे, कि 'कंवल" साहब जब घर तशरीफ़ ले जायेंगे, तो भाभी जी उनका किस तरीके से इस्तकबाल करती हैं। वे घर पहुंचे और 'कंवल" साहब के कपड़ों से निकलती गंध नाक तक पहुंची, तो उन्होंने हंसते हुए महज़ इतना ही दरियाफ्त किया, 'यह शरारत किसने की है?'